नियमसार की उपलब्ध निम्न टीकायें मेरे संज्ञान में आई हैं।
आचार्य पद्मप्रभ अध्यात्म के अत्यन्त रसिक एवं संस्कृत भाशा के तलस्पर्षी विज्ञ आचार्य थे। वे गद्य पद्य रचना के सिद्ध सारस्वत थे। आप संभवतः 12वीं “ती के एवं समयसार की तात्पर्यवृत्ति टीका के लेखक जयसेनाचार्य के समकालीन थे। आपने अध्यात्म के मूर्धन्यमणि आचार्य अमृतचन्द्र जी की समयसार पर रचित आत्मख्याति कलषमय टीका की शैली का अनुसरण करते हुए नियमसार पर तात्पर्य वृत्ति नामक विषिश्ट टीका का प्रणयन किया एवं उन्हीं के समान टीका को पुश्ट एवं सुषोभित करते हुए यथास्थान बीच बीच में भवन के षिखर कलष के समान पद्यात्मक कलषों को भी गुम्फित किया। यद्यपि इसमें भी समासित लम्बे वाक्यों और क्लिश्ट शब्दावली का प्रयोग पाया जाता है तथापि अमृतचन्द्र जी की अपेक्षा यह सरल एवं सुबोध है। प्रतीत होता है कि इस पर जयसेनाचार्य की समयसार पर व अन्य ग्रन्थों पर लिखित टीकाओं का प्रभाव रहा है। तात्पर्यवृत्ति नामकरण से ही ऐसा भासित होता है। आ पùप्रभ ने कुन्दकुन्द स्वामी कृत नियमसार के अध्यात्म अमृत कलष को काव्य कलषों में भरते हुए प्रस्तुत गद्यात्मक संस्कृत भाशामय इस टीका का प्रणयन किया है। यह टीका सुरुचिपूर्ण है उदाहरणार्थ इसके निम्न कलष का रसास्वादन करें,
दुरघवनकुठारः प्राप्तदुःकर्मपारः
परपरिणतिदूरः प्रास्तरागाब्धिपूरः।
हतविविधविकारः सत्यषर्माब्धिनीरः
सपदि समयसारः पातु मामस्तमारः।।62।।
आचार्य पप्रभ ने प्रस्तुत टीका को भक्तिमय रूप से रचित किया है। इसमें अनेक कलष काव्य तीर्थंकर भक्ति, सामान्य जिनभक्ति, गुरुभक्ति रूप हैं। प्राचीन आचार्य परम्परा गुरुओं को भी प्रणाम किया गया है। दिगम्बर मुद्रा के प्रति उनका बहुमान है। उन्होंने पंचम कलिकाल में भी यथार्थ मुनि के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए निम्न कलषांष प्रस्तुत किया है,
”कोऽपि क्वापि मुनिर्बभूव सुकृती काले कलावप्यलम्“।।241।।
आ० पप्रभ ने नियमसार की निम्न गाथा
सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा।
अंतरहेऊ भणिदा दंसणमोहस्स रवयपहुदी।।53।।
”अस्य सम्यक्त्वपरिणामस्य बाह्यसहकारीकारणं वीतरागसर्वज्ञमुखकमल-
विनिर्गतसमस्तवस्तुप्रतिपादनसमर्थद्रव्यश्रुतमेव तत्वज्ञानमिति।
ये मुमुक्षवः तेऽप्युपचारतः पदार्थनिर्णयहेतुत्वात् अन्तरहेतव इत्युक्ताः
दर्षनमोहनीयकर्मक्षयप्रभृतेः सकाषादिति।“
आगम में सम्यक्त्व की उत्पत्ति में जिनसूत्र और उसके ज्ञाता पुरुश वाह्य निमित्त कारण रूप में स्वीकृत हैं किन्तु आ० मलधारिदेव ने ज्ञाता पुरुशों (मुमुक्षवः) को अन्तर हेतु निरूपित किया है, भले ही उसे उपचार से माना है। इसकी हिन्दी टीका में इसका स्पश्टीकरण गणिनी आ० ज्ञानमती ने किया है वह दृश्टव्य है। फिर भी मुझे लगता है कि अभी यह विशय अस्पश्ट है। माता जी ने अपनी स्याद्वाद चन्द्रिका टीका में तो गोम्मटसार टीका का ही अनुसरण किया है एवं ज्ञाता पुरुशों को सम्यक्त्व की उत्पत्ति में अतरंग निमित्त रूप उल्लेखित किया है। (देखें स्याद्वाद चन्द्रिका)
ब्र० शीतलप्रसाद प्रसाद जी आगम एवं अध्यात्म के ज्ञाता एवं रसिक थे। इन्होंने भी आचार्य पद्मप्रभ मलधारी देव कृत नियमसार-तात्पर्य वृत्ति के हिन्दी अनुवाद सहित टीका लिखी थी। उस समय की इस ग्रन्थ की प्रथम हिन्दी टीका होने से समादर को प्राप्त हुई। नियमसार के विशय से लोगों का परिचय हुआ किन्तु पं० पन्नालाल साहित्याचार्य जी के मतानुसार यह कितने ही स्थलों पर स्खलित है। फिर भी बड़ी उपयोगी रही और प्रषंसनीय हुई। इसका प्रकाषन अषुद्धियों से भरा था। पुनः प्रकाषन की आवष्यकता है।
आ० पद्मप्रभ की ही टीका का श्री हिम्मतलाल जेठलाल शाह ने गुजराती में अनुवाद किया था। उसका हिन्दी अनुवाद श्री मदनलाल जैन ने प्रकट किया है। इसकी कतिपय टिप्पणियाँ आगम विरुद्ध हैं एकान्त निष्चयाभास को पुश्ट करने का इसमें प्रयास किया गया है। इसकी प्रमाणिता नहीं है। मिलावट एवं आर्शमार्गाननुकूलता के कारण पाठकों को भ्रमित कर सकती है। सोनगढ़ साहित्य तो दिगम्बर जैन साहित्य के विकार के रूप में प्रायः घोशित किया जा चुका है।
मलधारी देव की ही टीका पर सन् 1985 में प्रकाषित यह ग्रन्थ है। ज्ञानमती माता जी ने नियमसार एवं तात्पर्यवृत्ति का सम्यक् रीत्या अध्यात्म अमृत मन्थन कर इस महान ग्रन्थराज की हिन्दी भाशा की टीका का प्रणयन किया है। वर्तमान में ग्रन्थ प्रकाषन के क्षेत्र में अपनी ऐकान्तिक एवं पूर्व गृह युक्त मान्यताओं की पुश्टि करने हेतु मूल टीका, भावार्थ और टिप्पणी आदि में तोड़ मरोड़कर प्रस्तुत करने का दृष्य भी दिखाई देता है। यह वस्तुतः चिन्ता का विशय है। ऐसे प्रकाषनों की विसंगतियों के विशय में प्रबुद्ध आर्शमार्गीय श्रद्धालु विद्वज्जन एवं माता जी जैन समाज को सदैव सावधान करते चले आ रहे हैं।
माता जी ने नियमसार की पूर्व टीकाओं का सावधानी से अवलोकन कर उपयोगी जानकर व्याकरण भाशा की दृश्टि से “ाुद्ध व सामान्य जनोपयोगी हिन्दी भाशानुवाद के साथ यह महान कृति समाज को प्रदान की है। उपर्युक्त कृति मेरी दृश्टि के समक्ष विद्यमान है। यह आ० कुन्दकुन्द और तात्पर्यवृत्तिकार के मन्तव्य को यथावत् प्रकाषित करती है। मूल गाथाओं का पद्यानुवाद इसमें चार चाँद लगा रहा है। माता जी ने अन्य स्थानों से (सोनगढ़ से) प्रकाषित टीका के गाथा क्रमांक तीन के द्वारा उसकी विसंगति का उल्लेख किया है वह ठीक ही है। मैंने भी उस टीका में अनेक स्थलों पर जानबूझकर किये गये अर्थ के अनर्थ को हृदयंगम किया है।
इसमें प्रारम्भ में मुद्रित आद्य उपोद्घात में पू० माता जी ने नियमसार की उपयोगी गाथाओं को विशयानुसार पाठकों के लिए प्रस्तुत किया हैं यदि पूर्व में ही ध्यान पूर्वक इसका पारायण कर लिया जावे तो नियमसार का हार्द समझने में सरलता होगी। इसमें माता जी ने कतिपय गाथाओं यथा अरसमरूवमगंधं आदि का एकाधिक ग्रन्थों में होने का उल्लेख किया है। वह भी पाठकों को कुन्दकुन्द स्वामी के गुणों को आत्मसात् करने में लाभदायक होगा।
प्रस्तुत नियमसार की विशय वस्तु नियम से करने योग्य व्यवहार एवं निष्चय अर्थात साधन-साध्य रूप में मान्य दर्षन ज्ञान चारित्र है इसका प्रामाणिक व्याख्यान अव्रती के वजाय व्रती के मुख से होना “भनीय व प्रभावनीय होता हैं माता जी को इसका श्रेय है। इस टीका ग्रन्थ में उन्होंने 27 ग्रन्थों से सहायता ली है व यथास्थान उनका उपयोग किया है। वह उनकी ज्ञान गरिमा व अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग जो तप-त्याग की सीमा से अक्षुण्ण, अत्यन्त रुचिवद्र्धक है। अन्वयार्थ, शब्दार्थ व भावार्थ सुबोध शैली में लिखे गये है।
ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही माता जी ने अपने अगाध संस्कृत ज्ञान के बल से ग्रन्थराज के प्रति भक्ति को प्रकट करते हुए स्वरचित नियमसार – वंदना प्रस्तुत की है। इसने ग्रन्थ में चार लगा दिये हैं एक पद्य दृश्टव्य है।
नयद्वयात्मकं तत्त्वं स्वात्मानन्दैकनिर्भरं।
अनन्तदर्षनज्ञानसौरव्यवीर्यात्मकं धु्रवम्।।
इस ग्रन्थ के अन्त में परिषिश्ट में महत्वपूर्ण 37 गाथायें व 24 “लोक मुद्रित हैं यह संकलन कत्र्ताओं के हेतु बड़ी सुविधा है ग्रन्थ में मुद्रण व शाद्धि का यथा सम्भव ध्यान रखा गया है। गेटअप, “लोक कागज वाह्य परिवेष आदि सभी श्रेश्ठतर हैं। गाथा सूची, “लोक सूची उद्धृत “लोकों की वर्णानुक्रम सूची एवं शाद्धिपत्रक भी समाविश्ट किये हैं। इनमें सन्दर्भ ज्ञात करने में सुविधा होती है। पृश्ठ संख्या 530 में प्रकाषित यह टीका अवष्य पठनीय और संग्रहणीय है, त्रिलोक शाध संस्थान अपने आप में इस प्रकाषन हेतु धन्यावादार्ह है। माता जी की कृति अत्यंत महनीय है।
नियमस्य मातृभाशायां रचितेऽयं मधुरा कृतिः।
जयेत् लोके चिरं तावत् यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।। स्वरचित।।
संस्कृत भाशा में पू० आ० ज्ञानमती माता जी कृत नियमसार की यह सम्पूर्ण रूप में टीका है। इसी पर यह “ाोध प्रबन्ध लिखा जा रहा है।