आ० कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है कि आप्त जिनेन्द्र देव, केवली भगवान अपनी केवलज्ञान ज्योति के द्वारा तीनों लोक और तीनों काल के समस्त पदार्थों के गुण पर्यायों को जानते हैं और देखते हैं। गाथा निम्न प्रकार है-
जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणयेण केवलीभगवं।
केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं।। 159।।
वे अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा उसका अनन्तवां भाग ही प्रकाषित कर पाते हैं पुनष्च गणधर देव भी उसका अनन्तवां भाग ही द्वादषांग में ग्रंथित कर पाते हैं। द्वादषांग का भी विपुल विस्तार है वह महासमुद्र के समान विस्तृत है उसका पार पाना अति कठिन है वह केवली, श्रुत केवली के ज्ञानगम्य है ” ऐसे अगाध ज्ञान को हृदयंगम करने में वाचक श्रोता को अवष्य ही शंका “जिज्ञासा उत्पन्न होती है ” नियमसार महान ग्रंथराज की टीका स्याद्वाद चन्द्रिका में विशय निरूपण करते समय टीकाकत्र्री को यह अनुभव हुआ होगा
कि प्रस्तुत उल्लेख में अमुक शंका संभव हैं, अतः उनको स्वयं उठाकर उनका समाधान प्रस्तुत करना अभीश्ट है ” इससे विशय अति स्पश्ट हो जाता है ” इस विशय में माता जी ने आचार्य वीरसेन स्वामी की धवला टीका का प्रायः अनुसरण किया है ” उसमें आचार्य जयसेन स्वामी की शंका समाधान शैली का पुट भी सम्मिलित किया गया है ” प्रसिद्ध टीकाकार ब्रह्मदेव सूरि की प्रष्न, प्रतिप्रष्नपरक पद्धति की झलक भी स्याद्वाद चन्द्रिका में दृश्टिगोचर होती है
वर्तमान में प्रायः सम्यक्त्वोपत्ति विशयक जिज्ञासायें परस्पर क्षोभ का कारण बन जाती हैं। अंतरंग, बहिरंग निमित्त कारणत्व का महत्व क्या स्वीकार करने योग्य है आदि आदि शंकाओं का उठना निष्चयैकान्त के प्रचार के कारण स्वाभाविक हो जाता है ” प्रस्तुत प्रकरण में स्याद्वाद चन्द्रिका में टीकाकत्र्री ने निम्न प्रकार शंका उठाकर समाधान किया है जो बहुत उपयोगी है ” दृश्टव्य है –
शंका – जिनविम्बदर्षन प्रथमोपषम सम्यक्त्व की उत्पत्ति में कारण कैसे हैं ?
समाधान– जिनविम्ब के दर्षन से निधत्ति, निकाचित भी मिथ्यात्व आदि कर्म समूह का क्षय देखा जाता है ” इस कथन से जाना जाता है कि नैसर्गिक सम्यग्दर्षन भी जाति स्मरण अथवा जिनविम्बदर्षन इन बाह्य कारणों की अपेक्षा रखता ही है ” इसलिए बहिरंग कारण के अभाव में अंतरंग कारण असंभव है
” इसी हेतु से बाह्य निमित्त अकिंचित्कर नहीं है ” दूसरी बात यह है कि क्षायिक सम्यक्त्व और तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध भी केवली और श्रुतकेवली के पादमूल में ही होता है और ये भी बाह्य निमित्त कारण ही है और भी इस समाधान को आगम प्रमाण के परिपे्रक्ष्य में उदाहरण सहित विस्तृत कर पाठक की जिज्ञासा शांत की गई है “
अंत में निश्कर्श दिया है कि बहिरंग और अंतरंग (सात प्रकृतियों के उपषमादि होने रूप) कारणों की उपलब्धि होने पर ही सम्यक्त्व उत्पन्न होता है न कि एक कारण हो। यहां मध्यम विस्तार से समाधान किया गया है “
प्रस्तुत संपूर्ण ग्रंथ के पारायण से विदित होता है कि प्रायः जैन तत्वज्ञान और धर्म के विशय में उठने वाली समस्त शंकाओं का समाधान इसमें विद्यमान है ” यदि इन शंका समाधानों को छांटकर पृथक से एक प्रस्तुति प्रकाषित की जावे तो जन सामान्य के लिए अति उपयोगी रहेगी।
गाथा क्रमांक 60 के अंतर्गत आ० कुन्दकुन्द स्वामी ने पंचम परिग्रह त्याग महाव्रत का लक्षण प्रस्तुत किया है ” इसकी टीका में आर्यिका ज्ञानमती ने निम्न शंका उठाई है समाधान भी दिया है “
शंका – बाह्य वस्तुओं में मूच्र्छाममत्व परिणाम का होना ही परिग्रह है न कि उनको ग्रहण करना।
समाधान– ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि बाह्य वस्तुओं का परित्याग कर देने पर ममत्व भाव रह सकता है अथवा नहीं भी रह सकता है किन्तु बाह्य परिग्रह के सद्भाव में ममत्व भाव होता ही है “
भावार्थ – बाह्य परिग्रह के रहने पर उससे सर्वथा ममत्व नहीं छूट सकता है अतः बाह्य परिग्रह का त्याग करके ही तत्संबंधी ममत्व को छोड़ा जा सकता है ” दूसरी बात यह है कि जिसके पास जितना जितना भार होता है वह उतना उतना ही नीचे गिरता है तराजू के पलड़े के समान……………..।’’
आ० श्री अमृतचंद सूरि अध्यात्म के मूर्धन्य षिरोमणि विद्वान हुए हैं उन्होंने भी प्रस्तुत शंका को पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय नामक ग्रंथ में उठाकर यही समाधान दिया है ” पाठकों को अवष्य पठनीय है ताकि माता ज्ञानमती जी के आगमोक्त अर्थ की सीमा में दोशरहित समाधान की प्रामाणिकता का परिचय हो सके।
ज्ञातव्य ही है किसी अर्थ के निर्णय हेतु अन्य प्रत्यक्ष आदि साधनों के अभाव में आगम ही अंतिम प्रमाण है ” प्रस्तुत प्रकरण में तथा अन्य प्रकरणों में भी दृश्टान्तों के माध्यम से शंका समाधान का सरल रूप प्रस्तुत होने से स्याद्वाद चन्द्रिका में चार चांद लग गये हैं।
यहां उपरोक्त परिग्रह प्रकरण में एक अन्य स्थल पर भी पाठकों का दृश्टिपात कराना संगत ही होगा जिसमें टीकाकत्र्री ने शंका उठाकर समीचीन उत्तर दिया है “
शंका – पुत्र, मित्र, धन, महल आदि सब परिग्रह छोड़कर षिश्यादि परिग्रहों का संग्रह करने वाले भी सूरि निश्परिग्रही कैसे हैं ?
समाधान – आपने सत्य कहा है फिर भी वह मुमुक्षु जीवों का संग्रह है न कि परिग्रह। श्री कुन्दकुन्द देव ने प्रवचनसार महाप्राभृत ग्रंथ में कहा है कि दर्षन ज्ञान का उपदेष, षिश्यों का ग्रहण और उनका पोशण तथा जिनेन्द्र पूजा का उपदेष यह सब सराग संयमी मुनियों की चर्या है “’ दृश्टव्य है,
दंसणणाणुवदेसो सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं।
चरिया य सरागाणां जिणिंद पूजोवदेसो य।। ।।
वर्तमान में यदा कदा आचार्यों, साधुओं के विशय में उपरोक्त प्रकार की चर्चायें भी चलती हैं जिनमें साधुओं के आगम सम्मत कार्यों को भी आरंभ परिग्रह की सीमा में मानकर उनकी आलोचना निंदा आदि की जाती है, इस हेतु माता जी का उपरोक्त समाधान दिषा निर्देष करने वाला है ” दूसरे वर्तमान में कतिपय दृश्टिगत होने वाले जो साधु आरंभ परिग्रह के “लेश की दासता से अपने को मुक्त नहीं कर पाये हैं
तथा आगम के अपवादात्मक कतिपय उदाहरणों से मुनिचर्या-विरुद्ध क्रियाओं को भी कुयुक्तियों द्वारा सम्मत ठहराकर स्वच्छन्दता एवं षिथिलता का पोशण करते हैं, उन्हें भी उपरोक्त समाधान से सराग चर्या के आगम विरोधी रूप को स्वीकार न करने, उससे दूर रहने की पे्ररणा मिलती है
” षिश्य परिकर की वृद्धि उनके पोशण की चिंता का अतिरेक कहीं उनके मूलगुणों में ही सेंध तो नहीं लगा रहा है, इस विशय में सावधान रहने की पे्ररणा भी इसमें अंतर्निहित है ” बजाय स्वकल्याण की प्रधानता के केवल परकल्याण की चिंता साधु को मोक्षमार्ग से विचलित कर देती है ” इसका विचार तो साधु वर्ग को प्रत्येक परिस्थिति में अवष्य करणीय ही है ” कहा भी है-
आदहिदं कादव्वं जइ सक्कइ परहिदं च कादव्वं।
आदहिदपरहिदादो आदहिदं सुठ्ठु कादव्वं।।
आत्महित करना चाहिए, यदि सामथ्र्य है तो परहित भी करणीय है ” आत्महित और परहित इन दोनों में आत्महित भले प्रकार अर्थात् प्राथमिकता के तौर पर करना चाहिए। लोकेशणा, पूजा, निदान से तो दूर ही रहना चाहिए ।
पू० आर्यिका माँ के चिंतन में यह भी समाविश्ट है कि आचार्य कुन्दकुन्द देव के मन्तव्यानुसार आचार्य परमेश्ठी धर्मोपदेष एवं विषेश रूप से जिनेन्द्र पूजा का उपदेष करने वाले हैं। वे स्वयं भी इन कार्यों में विषेश रूचि लेती हैं। उनकी सत्पे्ररणा से अनेकों बृहद् पूजन विधान श्रावकों द्वारा सम्पन्न किए जाते हैं जिनमें चतुर्विध संघ भी भाव विषुद्धि रूप लाभ उठाता है
” माता जी मौखिक उपदेष द्वारा तथा ग्रंथ लेखन द्वारा अपनी सराग चर्या से मोक्षमार्ग में स्थिर होकर अंतरंग भावों की विषुद्धि की ओर तत्पर रहती हैं। इन सबका प्रभाव उनकी टीका पर भी प्रत्यक्ष स्पश्ट दृश्टिगोचर होता है ” पाठक स्याद्वाद चन्द्रिका का पारायण कर यह अनुभव कर सकते हैं।
प्रस्तुत टीका में गाथा क्रमांक 142 के अंतर्गत टीकाकत्र्री ने, आवष्यकों का परिपूर्ण निरतिचार पालन करने वाले श्रमण को जब चारण ऋद्धि व आहारक ऋद्धि सिद्ध होती है तो वे तत्वषंका समाधान हेतु जैसे आहारक “शरीर द्वारा केवली श्रुतकेवली के पास जाते हैं उसी प्रकार अकृत्रिम चैत्यालयां की वंदना भी करते हैं, इस सम्बन्ध में पृश्ठ 416 पर निम्न शंका उठाई है “
शंका– आहारक ऋद्धि से समन्वित मुनि को जब किसी सूक्ष्म तत्व में शंका होती है तभी आहारक “शरीर निकलता है ऐसा सुना जाता है पुनः उस सूक्ष्म “शरीर से अकृत्रिम चैत्यालय की वंदना कैसे हो सकती है ?
समाधान– सो ही कहते हैं। सूक्ष्म “ारीर से भी जैसे तत्वषंका समाधान हो जाता है वैसे ही जिन मंदिर की वंदना, तीर्थंकरों के दीक्षा कल्याणकों आदि के देखने का आनंद भी हो जाता है “’’
इसी बात को श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती महामुनि ने गोम्मटसार जीवकाण्ड में कहा है पाठकों को वहां अवलोकनीय है उससे माता जी के कथन का समर्थन होता है ” इस प्रकार स्याद्वाद चन्द्रिका में प्रस्तुत समाधान प्रकरण निरूपित किया गया है “
नियमसार की प्रस्तुत टीका में अनेकों विशयों का प्रतिपादन शंका समाधान विधि से किया गया है ” जिन विशयों में सामान्य जनों की गति नहीं होती उन विशयों को उनके लिए सुगम बना देना टीकाकत्र्री की निपुणता है
” ध्यान विशयक चर्चा गाथा क्रमांक 153 के अंतर्गत हमें परिलक्षित होती है उसमें ध्यान का आगमानुसार काल अंतमुर्हूत निरूपित किया गया है ” जन सामान्य की धारणा है कि भगवान बाहुबली एक बरस ध्यान में स्थित रहे, इस पर टीकाकत्र्री ने स्वयं टीका उपस्थित कर समाधान किया है जो निम्न प्रकार है-
शंका– ननु ध्यानस्य कालो यदि अंतर्मुहूर्तमात्रं, तर्हि भगवद्बाहुबली स्वामी आसंवत्सरं ध्याने कथं तत्स्थौ ?
समाधान – ‘‘सत्यमेतत् तस्य भगवतो महायोगिनाथस्य ध्यानमन्तर्मुहूर्तमेव धर्मध्यानरूपेण मध्येमध्येऽभवत् तद्व्यतिरिक्तसमये धर्मध्यानस्य भावना सन्ततिः चिन्ता वा मन्तव्या ।
अनुवाद – आपका कहना सत्य है किन्तु उन भगवान महायोगीष्वर का ध्यान अंतर्मुहूर्त ही था जो कि धर्मध्यान रूप से मध्य मध्य में होता रहता था। उससे अतिरिक्त समय में धर्मध्यान की भावना, संतति अथवा चिंता मानना चाहिए।’’ यहां मैं माता जी के उक्त कथन के समर्थन में आ० शुभचन्द्र जी महाराज का निम्न “लोक उद्धृत करना चाहूंगा जिसका आषय भी उपरोक्त ही है “
एकाग्रचिन्तारोधो यस्तद्ध्यानं भावना परा।
अनुपे्रक्षार्थचिन्ता वा तज्ज्ञैरभ्युपगम्यते।।
शुब्द रचना एवं भाशा विज्ञान के मन्तव्यानुसार प्रत्येक पद, वर्ण या बीजाक्षर में समस्त अर्थ गर्भित होता है ” जैसे ऊंकार में समस्त द्वादषांग गर्भित है ” किसी भी ग्रंथ के वर्ण, शुब्द, पद, वाक्य अपने अपने अर्थ के अनेकों रूपों को प्रस्तुत करने को उद्यत रहते हैं उनमें भी प्रमेयत्व नाम का गुण है जो उनके आकारों को ज्ञान में फेंकता है
” यह तो ज्ञाता का अभिप्राय है कि वह किस पदार्थ को ग्रहण कर उसका कौन सा अर्थ, कब स्वीकार करे। प्रस्तुत टीका के विशय में भी यह घटित होता है ” आ० कुन्दकुन्द देव के मूल नियमसार प्राभृत में भी अगणित रहस्य छिपे हुए हैं। उसके टीकाकारों ने अपने अभिपे्रत को अपनी कृतियों में प्रस्तुत किया है ” वे सभी प्रस्तुतीकरण “लाघ्य हैं।
पाठक को अभीश्ट हित प्राप्त कराने में वे सक्षम हैं। पू० ज्ञानमती जी ने भी अपने टीका कथ्य में प्रबुद्धों के लिए भी अनेक छिपे हुए गूढ़ अर्थों के रूपों को रूपायित करने का जो उपक्रम किया है वह वर्तमान में अति महत्वपूर्ण है ” विषेश यह है कि यदि वे रहस्य जिज्ञासा अथवा शंका के माध्यम से उद्घाटित किए जावें तो जनमानस पर अधिक प्रभाव छोड़ते हैं जो कि स्थायी भी बन सकता है ” अतः शंका समाधान “शैली में टीका रोचक हो जाती है । नियमसार की एक गाथा निम्न प्रकार है-
जीवाण पुग्गलाणं गमणं जाणेइ जाव धम्मत्थी।
धम्मत्थिकायभावे तत्तो परदो ण गच्छन्ति।। 184।।
जहां तक धर्मास्तिकाय है वहां तक जीव पुद्गलों का गमन जानना चाहिए। अतः धर्मास्तिकाय के अभाव में वे इसके बाहर (अलोकाकाष में) नहीं जाते हैं।
यहां यह अति प्रासंगिक है कि विद्वान रूप में घोशित तथाकथित विद्वान व्यक्ति लोभ वष या अपने किसी पक्ष विषेश के कारण उपरोक्त गाथा को तथा गाथाकार के पट्ट षिश्य उमास्वामी महाराज के ‘‘धर्मास्तिकायाभावात्’ सूत्र को तथा अन्य सभी आगम ग्रंथों के उल्लेख को समादृत न करते हएु निष्चय के मिथ्या एकान्त के अभिप्रायवष निमित्त कारण के उपकार का निरसन कर कहते हैं कि जीव पुद्गलों के गमन में उनकी तत्समय की योग्यता ही कारण है, धर्मास्तिकाय रूप निमित्त, कारण नहीं है
” वे धर्मास्तिकाय की गति सहायकता को नकारकर मात्र उसकी उपस्थिति किन्तु अकिंचित्करता का ही निरूपण करते हैं तथा आगमविरुद्ध भाशण कर लोगों को जिन सूत्र से ही विमुख करने का खोटा साहस करते हैं। इस मंतव्य के व्यक्तियों को यह भी विचार करना चाहिए कि योग्यता को ही कारण मानने पर प्रतिप्रष्न भी अवष्यम्भावी है कि योग्यता का अभाव क्यों है ?
इसका उत्तर अंततोगत्वा यही तो होगा कि गति में निमित्त कारण धर्मास्तिकाय के उपकार का अभाव होने के कारण योग्यता उत्पन्न नहीं होती जिससे लोक के बाहर गमन कर सकें।
उपरोक्त विसंगति दूरदर्षी आर्यिका ज्ञानमती के कुषाग्र चिंतन में भी आई और उन्होंने अपनी स्याद्वाद चन्द्रिका टीका में शंका समाधान के अंतर्गत इसे सुश्ठु प्रस्तुत किया है ” अवलोकन करें-
‘‘ननु सिद्धजीवानामुपरि अलोकाकाषे गमनस्य योग्यता नास्ति इति मन्यमाने को दोशः ? महान् दोशः। ऊध्र्वगमनस्वभावत्वात्तेशां गमनयोग्यता तु वत्र्तते।
यदि कदाचित् त्रैलोक्यसदृषानन्तानन्ता अपि अभविश्यन् तर्हि ततः पर्यन्तमगमिश्यन्। एतद् कथं ज्ञायते ?
अनया गाथया एव ज्ञायते। किंच एतद् हेतुवाक्यं वर्तते ‘‘धर्मास्तिकाया- भावात्’’ इति। अन्यथा आचार्याः स्वयमकथयन्- तेशामुपरिगमनयोग्यताभावात्।’’
(अनुवाद) – सिद्ध जीवों के ऊपर अलोकाकाष में गमन करने की योग्यता नहीं है ऐसा मानने में क्या दोश है ?
समाधान – महान दोश है क्योंकि ऊध्र्वगमनस्वभाव होने से उनके गमन की योग्यता तो है ” यदि कदाचित् त्रैलोक्य के समान अनन्तानन्त भी लोक हो जावें तो इन सिद्धों का वहां पर्यन्त भी गमन हो जावे।
शंका – यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान– इस गाथा 184 से ही जाना जाता है क्योंकि यह हेतु वाक्य है ‘‘धर्मास्तिकाय का अभाव होने से’’ सूत्रकार श्री उमास्वामी ने भी अपने सूत्र में पंचमी विभक्ति से हेतुवाक्य सूचित किया है ” यदि ऐसा न होता तो आचार्य स्वयं कह देते कि ‘‘उन सिद्धों के ऊपर गमन की योग्यता का अभाव है “’’ किन्तु ऐसा वाक्य किसी भी आगम में नहीं पाया जाता।
आचार्य कुन्दकुन्द ने भावपाहुड में जीव के अषुभ-षुभ-षुद्ध तीन उपयोगों का वर्णन किया है वहां शुभोपयोग को धर्म संज्ञा (धर्मध्यान) दी है ” तथा आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने भी अषुभ से निवृत्ति तथा शुभ में प्रवृत्ति जोकि व्रत समिति गुप्ति रूप है को व्यवहार चारित्र (मोक्षमार्ग) कहा है “2 अन्यत्र भी सराग चारित्र, शुभ व्रत आदि को मोक्षमार्ग कहा गया है
” भले ही वह निष्चय के साधन रूप में व्यवहार मोक्षमार्ग हो। शुभ रागांष होने से यद्यपि उससे बन्ध भी होता है किन्तु वह संवर निर्जरा का कारण भी है अतः उपादेय है, परम्परा से मुक्ति का हेतु है किन्तु संयम मार्ग से विमुख तथा एकान्त निष्चयाभासी लोग आचार्यों के निष्चय परक एवं सापेक्ष कथन को न मानकर उपरोक्त शुभ भावरूप व्रत आदि को मात्र आस्रव बन्ध का कारण मानते हैं।
आ० कुन्दकुन्द स्वामी ने शुभ और अषुभ को जिस अपेक्षा से और जिस परिपे्रक्ष्य अथवा पदवी में समान निरूपित किया है उससे वे अनजान हैं। वे एकान्त निष्चय पक्ष में ही समयसार को संयोजित कर अव्रत (पाप) मार्ग में ही पडे़ हैं तथा अन्यों को भी उसमें पे्ररित कर अधोगति के पात्र बन रहे हैं।
उपरोक्त प्रवृत्ति को दृश्टिगत कर स्याद्वाद चन्द्रिका की टीकाकत्र्री ने प्रस्तुत चर्चित विशय को स्पश्ट करने हेतु टीका में शंका उठाकर उसे निर्मूलित करके पाठकों को सावधान किया है व समाधान दिया है । निम्न स्थल अवलोकनीय हैं-
‘‘इति हेतोः उपादेयमेव व्यवहाररत्नत्रयं अस्माकं। ननु समितिगुप्त्यादयः संवरतत्वे गृहीता स्वामिभिः, पंचमहाव्रतानि तु आस्रवतत्वेऽतस्तानि व्रतानि मोक्षस्य कारणानि कथं भवन्तीति चेत् ?
न, उक्तं च श्री मदकलंकदेवैः – ‘‘तत्र पुण्यास्रवो व्याख्येयः प्रधानत्वात् तत्पूर्वकत्वात् मोक्षस्य।’’ जयधवलाकारैरपि प्रोक्तं, ‘‘घटिकायन्त्रजलवत् अनुसमयमसंख्या गुणश्रेणीप्रमितकर्मणां निर्जराहेतुः महाव्रतानि इति।’’
‘‘इस हेतु से हम लोगों को व्यवहार रत्नत्रय उपादेय ही है “
शंका– समिति गुप्ति आदि को श्री उमास्वामी ने संवर तत्त्व में लिया है और पांच महाव्रतों को आस्रव तत्त्व मैं लिया है अतः ये व्रत मोक्ष के कारण कैसे होंगे ?
समाधान – ऐसा नहीं है श्रीमद् अकलंकदेव ने कहा है- यहां पुण्यास्रव का व्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि यह प्रधान है और इस पूर्वक मोक्ष होता है “’’
जयधवला टीका के कर्ता श्री वीरसेनाचार्य ने भी कहा है कि घटिकायंत्र के जल के समान ये महाव्रत समय समय पर असंख्यात गुणश्रेणी प्रमाण कर्मों की निर्जरा में हेतु है “2 (इनसे पाप बंध कैसे होगा)। पाठकों को पूरा प्रकरण पठनीय है “
इसी प्रकार कतिपय जन पहले निष्चय मोक्षमार्ग और पष्चात् व्यवहार मोक्षमार्ग की उत्पत्ति मानकर उल्टा साध्य साधन भाव स्वीकार कर गृहीत मिथ्यात्व के प्रपंच में पडे़ हुए हैं।
वे गृहस्थों के निष्चय मोक्षमार्ग का अस्तित्व निरूपित कर स्वयं को और भोली जनता को भ्रमित करने का जघन्य कार्य कर रहे हैं। टीकाकत्र्री ने भली भांति इस भ्रामक मान्यता के दुश्प्रचार को अवलोकित कर प्रस्तुत विशय को शंका समाधान के रूप में लिखा है ” अनुवाद दृश्टव्य है-
शंका – जैसे आपने सर्वपाप योग से निवृत्ति रूप अभेद चारित्र को मुनियों में पहले मानकर अनंतर भेद चारित्र माना है वैसे ही श्रावकों के भी पहले निष्चय रत्नत्रय हो जावे उसके बाद व्यवहार रत्नत्रय हो जावे, आपको क्या हानि है ?
समाधान – ऐसा नहीं कहना, यह असंभव है क्योंकि सिद्धान्त शास्त्र में सुना जाता है कि सातवें गुणस्थान से ही छठा होता है (प्रथम उत्पत्ति रूप), किन्तु प्रथम गुणस्थान, चतुर्थ गुणस्थान से या पांचवें गुणस्थान से नहीं होता है और वैसा चतुर्थ, पंचम गुणस्थान के विशय में नहीं है बल्कि व्यवहार चारित्र का ही एकदेषरूप श्रावकों का चारित्र है “’’
यहां संक्षेप में लिखा है, एतद्विशयक विषेश स्पश्टीकरण हेतु स्याद्वाद चन्द्रिका अवष्य अवलोकनीय है, पठनीय है, मननीय है ” किं बहुना, जहां तक, मुझ अल्पज्ञ ने ग्रंथों की टीकाओं का जो पारायण किया है उनमें शंका समाधान शैली बहुत प्रभावक शैली ज्ञात हुई है ” पू० माता जी कृत इस टीका में भी इस शैली के समावेष ने कृति की शोभा द्विगुणित कर दी है ” वर्तमान के भोगोन्मुख युग में स्वाध्याय की प्रवृत्ति में बड़ा ह्रास हुआ है
” भौतिक चकाचैंध ने संपूर्ण संस्कृति को ग्रस लिया है ” चारित्र की महिमा का अवमूल्यन हुआ है ” पष्चिमी संस्कृति एवं भौतिक साधनों के अम्बार ने मानव के ज्ञान पर अंधकार का प्रगाढ़ पटल विस्तीर्ण कर दिया है ” शंका समाधान का आनंद तभी आता है
जब व्यक्ति का स्वयं का कुछ अध्ययन होता है तथा उससे प्रसूत जिज्ञासायें उठती हैं उनकी शांति के लिए ग्रंथों के अतिरिक्त सहारा ही क्या है ” ग्रंथ में प्रवेष कर उनके समाधानों की प्राप्ति में बड़ा सुख प्रतीत होता है ” स्याद्वाद चन्द्रिका के पारायण का जो एक प्रमुख आकर्शण है वह है शंका – समाधान ।
जैन अध्यात्म पे्रमियों के लिए स्याद्वाद चन्द्रिका आह्वान करती प्रतीत होती है कि आओ और जिनागम के परिप्रेक्ष्य में उपयोगी जिज्ञासाओं, प्रष्नों का संतोशजनक उत्तर प्राप्त करो। समस्त प्रसंग और संदर्भों को संजोए हुए यह टीका वस्तुतः पे्ररणा का प्रमुख स्रोत है ” चरित्रवान, दयालु, परहित प्रतिपादन लक्ष्यषील माता ज्ञानमती के ज्ञान का हम लाभ उठायें।
अपने मिथ्या अभिप्राय को छोड़कर अनेकान्तमय जिनवाणी का सम्यक् रसास्वादन करें। आ० कुन्दकुन्द देव तो सूत्ररूप में अपनी आध्यात्मिक सम्पत्ति बिखेर कर दृश्टि के अगोचर हो गये हैं किन्तु माँ अभी है इस आर्यिका पर्याय में विद्यमान है उनसे साक्षात्कार करके भी शंकाओं का समाधान प्राप्त करें। अमूल्य अवसर है ” उसका लाभ उठाना चाहिए।