कौन व्यक्ति कैसा है यह इसकी सही पहचान उसके रंग-रूप-जाति से नहीं, वरन उसके जीवनगत संस्कार से होती है। व्यक्ति के संस्कार ऊँचे हो तो छोटा होकर भी उच्च आदर्श को स्थापित कर जायेगा । यदि व्यक्ति पर संस्कार निम्न है तो उसके ऊँचे कुल में पैदा होकर भी कुलिनता पर व्यंग ही होगा। नजरिया बदलना होगा—सही नजरिये के लोग चमड़ी के रंग या फैसन पर ध्यान नहीं देते वे सदा गुण और संस्कारों को ही महत्व देते है।जीवन संस्कारों से संतुलित होता है। सुखी और व्यवस्थित होता है।
कौन कैसा भी यदि यह पहचान करनी है तो उसके संस्कारों को जानो।संस्कार व्यक्ति का सही मूल्यांकन करवाता है। संस्कार जीवन की नीव है जीने की संस्कृति है यही व्यक्ति की मर्यादा ओर उसकी गरिमा है। संस्कारों ने व्यक्ति को सदा सुखी ही किया और जो संस्कारों को महत्व नहीं देता है । उसे अन्नत: पछताना ही पड़ा है।
संस्कारों का व्यक्ति के साथ ऐसा सम्बन्ध है जैसा जल का जमीन के साथ। व्यक्ति के कुछ संस्कार तो उसके अपने होते है। हम जीवन को उसकी गहराई तक जाकर देखते है तो बोध होता है कि हर व्यक्ति अन्नत: संस्कारों का ही एक पुतला है। व्यक्ति एक जन्म का नहीं जन्म जन्मान्तर के संस्कारों का परिणाम है। व्यक्ति जो कुछ होता है, करता है वह सब उसके भीतर इस जन्म के और पूर्व जन्म के संस्कारों का एक प्रवाह गतिशील रहता है। वर्तमान में व्यक्ति जो कुछ भी कहता है, करता है उसके पीछे पूर्वगत संस्कार और वर्तमान संस्कारों की बहुत बड़ी भूमिका रहती है । महावीर के जन्म जन्मान्तर से सन्यास के संस्कार थे। यौवनकाल आने पर उनके माता-पिता ने उनको सन्यास के लिए बहुत मना किया। भोग-उपभोग और श्रंगार का हर निमित्त उत्पन्न किया गया लेकिन इसके बावजुद पूर्व जन्म के संस्कार प्रभावी रहे जो वे सन्यास लेकर अरिहन्त हुए। संस्कार चाहे बेहत्तर हो या बदतर हो इस जन्म के हो या पूर्व जीवन के हो व्यक्त हुए बिना नहीं रहते । माता-पिता में किसी एक का ही असर हो कोई जरूरी नहीं, अगर पिता व्यसनी है तो कोई जरूरी नहीं की उसकी सन्तान भी व्यसनी हो। अन्र्तजल्प चेतना पर जिसका भी असर आ जाए व्यक्ति वैसा ही हो जाता है।
१. संस्कार २. संगती संस्कार का असर रहता है परन्तु संगती का प्रभाव पड़ता है। राम का जीवन आदर्श था क्योंकि उनके ऊपर संस्कार तो थे परन्तु संगती भी अच्छी थी। संस्कार और संगती दोनों अच्छी मिल जाये तो फिर क्या कहना—व्यक्ति महान हो जाता है।एक पिता वह होता है जो सन्तान को केवल जन्म देता है, दूसरा पिता वह होता है जो अपनी सन्तान को सही संस्कार देता है। जन्म देने वाला पिता भूला दिया जाता है, सम्पत्ति देने वाले झगड़े की नीव रख जाते है परन्तु संस्कार देने वाले पिता-पिता—पिता ही नहीं गुरु का ही दायित्व निभा लेते है। विकास किसका हो—संस्कारों का या भौतिकता का ? संस्कारों का क्योंकि भारतीय संस्कृति कर्म प्रधान एवं पुनर्जन्म को मानने वाली है। आध्यामिक दर्शन का मानना है कि व्यक्ति के कर्म उसकी आत्मा के साथ बन्ध जाते है उन्हीं कर्मों के अनुसार पुर्नजन्म होता है, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति कर्म रूपी संस्कार लेकर जन्म लेता है।। इसके व्यक्ति का स्वभाव या प्रकृति भी कहते है। प्रकृति को संस्काररित करने का नाम ही तो संस्कृति है। जो प्रकृति हम जन्मजात लेकर पैदा होते है उनमें कुछ अच्छाईयाँ और कुछ बुराईयाँ होती है। उन प्राकृतिक तत्वों को संस्कारित करने की आवश्यकता होती है अच्छाईयों को संर्विद्धत करना और बुराईयों का परिमार्जन करना ही संस्कार है। संस्कार भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार के होते है। भौतिक संस्कार शीघ्रगामी व दृष्टिगम्य है लेकिन आध्यात्मिक या नैतिक संस्कार शनै: शनै: समाहित होते है। भारतीय संस्कृति में गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यन्त सोलह संस्कार का विशेष वर्णन आता है।
भारत में पाश्चात्य संस्कृति या फिर डार्विन के सिद्धान्त का प्रभाव पड़ता जा रहा है। हम स्वयं को शक्तिशाली बनाने एवं दिखने में ही जीवन की सच्चाई को मान बैठे है। जहाँ हमने तिनका—तिनका जोड़कर परिवार बनाया था वही अब बिखरने पर उतारू हो गए है। उसे ही शक्तिशाली बनाने की होड़ है। इसमें भोगवाद पनम रहा है। अर्थ संचय का आधार नैतिकता न होकर अनैतिकता का आचरण हो गया है।जीवन के हर क्षेत्र में आधुनिकता का प्रभाव देखने को मिल रहा है। कल जहाँ व्यक्तित्व विकास के साधन थे अब वह शारीरिक प्रदर्शन मात्र रह गया है। वेशभूषा शालीनता की निशानी थी वहीं विद्रोहता की निशानी बनती जा रही है। बनती जा रही है। आज भारती संस्कृति के संरक्षण की महती आवश्यकता आ पड़ी है। इसके संरक्षण का केन्द्र परिवार ही हो सकता है। इसलिए परिवार से ही प्रारम्भ करना होगा। यदि परिवारों का विघटन का क्रम नहीं थमा तो व्यक्ति अकेला पशु की तरह जीवन व्यतीत करेगा।
परिवारों की समस्याऐं किशोरों, युवाओं, प्रौढ़ों एवं महिलाओं से भी संबन्धित है। किशोर वर्ग के समक्ष आधुनिक शिक्षा एवं पाश्चात्य प्रभाव की समस्या है। प्रौढ़ों एवं बृद्धों को यथोचित सम्मान प्राप्त नहीं है। कॉलेजों का खुला वातावरण युवाओं को कभी-कभी अपराध एवं पतन की ओर धकेल देता है। कामकाजी महिलाओं पर दुहरा बोझ पड़ता है। फिजुल खर्चे, भोगवादी संस्कृति एवं नई विलासिता पूर्ण साम्रगी भी समस्याए उत्पन्न करती है। इन सबके विश्लेषण एवं समाधान पर गहन विचार विमर्श कर समाधान निकालना चाहिए। आज बालकों में संस्कार नहीं है ऐसा भ्रमक वातावरण बनाया जा रहा है जबकि उन्हें संस्कारित करने की जिम्मेदारी हमारी है यदि कोई भी परिवार टूटता है और बच्चा असंस्कारित होकर समाज और देश को तोड़ने जैसा कुत्सित कर्म करता है तो यह जिम्मेदारी परिवार के मुखिया की है। बालक अपने जन्म के साथ अपनी प्रकृति लेकर आता है। अत: उसका अध्ययन कर उसमें समाज के लिए उपयोगी संस्कारों का संवद्र्धन करना मुखिया का कार्य है स्वतंत्रता के बाद का कालखण्ड व्यक्तिवादी सोच कर रहा है अत:भारतीय संस्कृति को विस्मरण कर बैठे और परिवार की नहीं टूटे अपितु समाज की स्थिति भी दयनीय हो गई है। इसी कारण हम अपने सामाजिक एवं राष्ट्रीय उत्तरदायित्वों से दूर होते चले गए। आज जब परिवारों का संकट सभी आयु वर्ग के व्यक्तियों के समझ उपस्थिति हो चला है अत: इस विषय पर व्यापक चिन्तन की आवश्यकता है।
पिछले दिनों भौतिक विज्ञान व बुद्धिवाद का जो विकास हुआ है उसने मानव जाति के हर पहलू को भले या बूरे रूप में प्रभावित किया है लाभ यह हुआ कि वैज्ञानिक अविष्कारों से हमें बहुत सुविधा—साधन मिले और हानि यह हुई की विज्ञान के प्रत्यक्षवादी दर्शन से प्रभावित बुद्धि ने आत्मा, परमात्मा, कर्मफल एवं परमार्थ के उन आधारों को डगमगा दिया जिन पर नैतिकता, सदाचरण एवं उदारता अवलम्बित थी धर्म और अध्यात्म की अप्रामाणिकता एवं अनुपयोगिता विज्ञान ने प्रतिपादित की। इससे प्रभावित प्रबुद्ध वर्ग ओछी स्वार्थपरता पर उतर आया। आज संसार का धार्मिक, सामाजिक एवं राजनैतिक नैतृत्व जिनके हाथ में है उन अधिकांश व्यक्तियों का आदर्श संकीर्ण स्वाथें तक सीमित है विश्व कल्याण को दृष्टि में रखकर उदार व्यवहार करने का साहस उनमें रहा नहीं, भले ही वे बढ़—चढ़कर बात उस तरह की करें। ऊँचे और उदार व्यक्त्वि यदि प्रबुद्ध वर्ग में से नहीं निकलते और उस क्षेत्र में संकीर्ण स्वार्थपरता व्याप्त हो जाती है तो उससे नीचे वर्ग, कम पढ़े और पिछड़े लोग अनायास हो प्रभाविकता है। बड़े कहे जाने वाले जो करते है जो सोचते है वह विचारणा एवं कार्य पद्धित छोटे लोगों के विचारों में व्यावहार में आती है।
इन दिनों कुछ ऐसा ही हुआ है कि अध्यात्मिक आस्थाओं से विरत होकर मनुष्य संकीर्ण—स्वार्थो की कीचड़ में फसा पड़ा है। बाहर से कोई आदर्शवाद की बात भले कहता दीखे, भीतर से उसका क्रिया कलाप बहुत ओछा है एक दूसरे में यह प्रवृत्ति छूत की बीमारी की तरह बढ़ी और अनाचार का बोलबाला हुआ।परिणाम सामने है रोग, शोक, कलह, क्लेश, पाप, अपराध , शोषण अपहरण, छल प्रपंच की गतिविधियाँ बढ़ रही है और इन परिस्थितियों को बदलने एवं सुधारने की आवश्यकता है। मानव को प्यार करने वाले हर सजग एवं विवेकवान व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह समय की समस्याओं को समझे और व्यक्ति एवं समाज को अवनति से रोक, प्रगति के लिए जो सम्भव हो सके वह करें। विचार क्रान्ति अभियान एवं युग निर्माण योजना सजग आत्माओं की एक ऐसी ही क्रमबद्ध विचारणा तथा कार्य पद्वति है जिसके आधार पर वर्तमान शोक—संताप भरी परिस्थितियाँ बदला जाना सम्भव है।
भारत देश एक आदर्श देश है। सारे विश्व में भारत का अपना एक स्थान है। सबसे हटकर इस देश का अस्तित्व है, क्यों ?क्योंकि यहाँ संस्कार और त्याग को महत्व दिया जाता है संस्कार और संस्कृति का बड़ा बेजोड़ सम्बन्ध है जो संस्कार के बिना ही संस्कृति को जीवित रखना चाहता है वह तो ऐसा है जैसे पानी के बिना बाग को सलामत रखना पानी से ही बाग हरा-भरा रहता है, फला-फुल कि रहता है उसी प्रकार मनुष्य जीवन रूपी बाग संस्कार रूपी जल से ही फला-फुला रहता है। जीवन में संस्कार की महत्वपूर्ण भूमिका है। जिस प्रकार नीव के बिना इमारत टिक नहीं सकती उसी प्रकार संस्कार जीवन की नीव है। जैसा संस्कार होगा वैसा जीवन बनेगा। जीवन का निर्माण—भाग्य, पुरुषार्थ, संस्कार, संगती ये चार आधारभूत स्तम्भ है । इनमें से संस्कार अपने आप में बड़ा अहम-भूमिका अदा करता है।
१.भाग्य:- पिछले जन्म में जो कर्म करता है वह वर्तमान में भाग्य बनकर आता है भाग्य दिखता नहीं है अन्धकार में हमें दृष्टिपात नहीं होता है इसलिए उसके आधार पर जीवन वैâसे जीया जाये इसलिए पुरूषार्थ आवश्यक है।
२. पुरूषार्थ :- पुरुषार्थ यानी कर्म करना। कर्म करते चले जाओ फल की इच्छा मत करो।कृष्ण ने अर्जुन को यही शिक्षा दी थी, कर्म अच्छे करते जाओ फल तो मिलेगा ही। अगर जिस समय हम कर्म अच्छा कर रहे है और फल उस—उस अनुपात में नहीं मिला तो निराशा नहीं भाग्य पर छोड़ दो क्योंकि उस समय भाग्योदय का समय नहीं आया है और फिर कर्म करने लग जाओं।
३. संस्कार :- यह जीवन बनाता है।जीवन में अच्छा बूरा समय आया करता है परन्तु संस्कारवान व्यक्ति धैर्य पूर्वक परिस्थितियों का सामना करता है। जैसे राम को अवध का (अयोध्या का) राज्य मिलना था परन्तु वनदास जाना पड़ा। कितनी गम्भीरता और धैर्य के साथ मन को तैयार किया वन को जाने के लिए।
महापुरुषों का जीवन मानव को विपरीतता का सामना करने के लिए साहस जुठाने के लिए प्रेरणा रुप बनता है। संस्कारवान सीता जिसे पति ने गर्भवती अवस्था में भी वन में छुड़वा दिया तब भी रंच मात्र भी पति के लिए बुरा विचार नहीं आया और अच्छे समय की प्रतिक्षा करती रही और सोचती रही—हीरा चमकता है घिसने के बाद, सोना चमकता है तपने के बाद, मेहन्दी रंग लाती है पिसने के बाद, पाषाण पुज्य होता है घड़ जाने के बाद उसी तरह मनुष्य महान बनता है संस्कारित होने पर । संस्कार मनुष्य को महान बनाता है। संस्कारवान मानव इतिहास बना देता हैं।
संस्कारवान आदर पाता है, सम्मानित होता है। संस्कार विहिन मनुष्य कागज के फुल के समान है। जिस प्रकार तालाब की शोभा कमल से होती है, सभा की शोभा श्रोता से होती है, स्त्री के श्रंगार की शोभा उसके पति से होती है, घर की शोभा नारी से होती है उसी तरह से मनुष्य शोभनीय तभी होता है जब वह संस्कारित होता है। पुत्र सुपुत्र है या कुपुत्र है यह संस्कारों के माध्यम से ही प्रतीत होता है। भारतीय संस्कृति की सभ्यता और पवित्रता मनुष्य के माध्यम से ही प्रचलीत है। मान का सोच और उसकी जीवन शैली पर सभ्यता और पवित्रता की रक्षा हो सकती है। जीवन शैली में अन्तर आ गया है, जीवन शैली में आधुनिकता आ गई और विचारों में भी आधुनिकता आ गई इसलिए संस्कृति पर बड़ी तेजी से आघात हो रहा है। जीवन शैली में ऐजुकेशन घुस गया परन्तु यह समझना बहुत जरूरी है कि जीवन शैली अपनी जगह है और ऐजुकेशन अप्नाी जगह है। जीवन शैली को सुखद बनाने के लिए संस्कार आवश्यक है। ऐजुकेशन का अपना महत्व है परन्तु जीवन शैली में अगर ऐजुकेशन आ जाता है तो व्यक्ति शान्तिपूर्ण ढंग से नही जी सकता है। जैसे एक वकील है वह घर में बच्चों के साथ और पत्नी के साथ वकील की भाषा बोलेगा तो पत्नी उसके पास नहीं रहेगी। वहाँ तो दाम्पत्य जीवन के अनुसार व्यवहार करना होगा और बच्चों को पिता का प्यार देना होगा। बच्चे पिता को पिता ही कहते है जिस दिन डिग्री के हिसाब से बच्चे पुकारने लग जायेगे उस दिन संस्कृति ही मिट जायेगी। व्यक्ति को सही सलामत चलने के लिए दोनों पैर सुरक्षित होना आवश्यक है उसी प्रकार जीवन सही सलामत, शान्तिपूर्ण जीने के लिए ऐजुकेशन और संस्कार दोनों आवश्यक है। परन्तु वर्तमान में ऐजुकेशन मजबूत होता जा रहा है और संस्कार कमजोर होते जा रहे इसलिए जीवन का बैलेन्स बिगड़ रहा है। मात्र ऐजुकेशन के आधार पर चलने वालो की जिन्दगी विगड़ रही है और पारिवारिक समस्या बढ़ती है।
माता—पिता से संस्कार मिलते हैं। जैसे—हीरा जौहरी के पास जाने के बाद ही कीमती होता है और मिट्टी कुम्हार के पास जाने के बाद कुंभ (घड़ा) बनती है तथा घड़ा बनने के बाद उसमें जल धारण करने की समार्थता आ जाती है और मांगलिक हो जाता है उसी प्रकार मनुष्य का जीवन माता—पिता से संस्कारित होकर आदर्श मनुष्य बन जाता है। संस्कार देने की उम्र बचपन से १० वर्ष तक की उम्र में जो संस्कार मिलेगें वैसा होगा। माता—पिता स्वयं संस्कारवान होते हैं तो बच्चे सन्तान भी अच्छी संस्कारित होती है।
५. संगती :-
कदली शिप भुजंग मुख, स्वाती एक गुण तीन।”
‘
जैसी संगती बैठिये, वैसा ही फल दीन।।
स्वाति नक्षत्र में आकाश से गिरने वाली एक जल की बूँद अगर केले के पत्ते पर गिरती है तो वह बूँद कपूर हो जाती है। वही बूँद अगर शीप में जाये तो मोती बन जाती है और अगर साँप के मुख में जाये तो जहर बनती है जैसी संगती मिलती है वैसी ही जल बूँद बन जाती है उसी तरह से मनुष्य जिसके साथ रहता है। वैसा बन जाता है। क्योंकि संगत का असर होता है। जैसे कोई व्यक्ति किसी सेन्ट की दुकान पर जाकर बैठा तो कुछ तो सेन्ट (परफ्यूम) की खुशबू लेकर आयेगा, किसी शराबी की दुकान पर बैठेगा तो शराब की बदबू साथ आयेगी।संगती अच्छी हो या बूरी दोनों अपना असर छोड़ती है। इसलिए प्रेण्डसर्वल जैसा होता है व्यक्ति वैसा ही बनकर रह जाता है। संगती का जीवन पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। जो संस्कार जीवन से किनारा कर जाते है परन्तु जीवन निर्माण के लिए संस्कार और संगती दोनों आवश्यक है। जैसे ट्रेन को चलने के लिए पटरी की आवश्यकता होती है। जीवन को अच्छा बनाने के लिए सज्जनों की संगती करनी चाहिए क्योंकि सज्जन सज्जनता देता है, दुर्जन दुर्जनता देता है । व्यापारी के पास बैठने से व्यापार की बुद्धि आती है सर्विस वाले के पास बैठने से लगता है सर्विस करना अच्छा है। अग्नि की संगती लोहे ने की तो पीटा जाता है, पानी ने अग्नि की संगती की तो अपने स्वभाव से च्युत हो जाता है। बूरी संगती से अच्छे संस्कारवान लोग भी बूरे हो जाते है। किसी की प्रकृति को जानने के लिए व्यक्ति देखना जरूरी नहीं उसके मित्र कौन है उससे मिल लो तो पता चल जायेगा की वह व्यक्ति कैसा होगा। द्रोणाचार्य जैसे उच्चकोटि के व्यक्ति होकर कौरवों की संगती की तो मारे गये और राम की संगती हनुमान ने कि तो जगत प्रसिद्धी मिली और मोक्ष चले गए। आज भी भक्ति के प्रसंग में चर्चा चले तो हनुमान को याद किया जाता है कि स्वामी भक्ति कैसी हो, एक सार्थक उदाहरण प्रस्तुत होता है। इसलिए कहा है:
संत समागम हरि भजन, जग में दुर्लभ दोय।
सुतदारा ओर लक्ष्मी पापी के घर भी होय।।
अगर जीवन को खुबसूरत बनाना चाहते है तो संतो का समागम करो । खोटी संगती से अच्छे से अच्छा आदमी भी बूरा हो जाता है। जैसे नदी कितनी पवित्र होती है परन्तु जव वह समुद्र में मिल जाती है तो अपनी पवित्रता अपना अस्तित्व खतम कर देती है उसी प्रकार मानव बूरी संगती करके अपना सब कुछ मिटा देता है । नाली का पानी गर्मी के दिनों की तपन से पानी भाप बनकर शुद्ध जल बनकर आता है। उसी प्रकार खोटा व्यक्ति भी अच्छी संगती में बैठता है तो अच्छा इन्सान हो जाता है परन्तु उसे थोड़ा श्रम तो करना पड़ता है परन्तु वह अच्छा इंसान हो जाता है।
अच्छी संगती से एक भव ही नहीं अपितु भव भवान्तर सुधर जाते हैं और फिर सत्संगती मिल जाये तो और ‘‘सोने पे सुहागा’’ का नाम का काम हो जाता है। के सत्संगती के दो अर्थ है—सज्जन की संगती, संतों की संगती। सज्जन की संगती एक भव सुधरती है तो संत की संगती भव—भवान्तर सुधार देती है। एक बार नारद जी श्रीकृष्ण के पास गये और कहने लगे भगवन! मुझे सत्संगती का प्रभाव बतलाइये कि सत्संगती का क्या प्रभाव होता है। कभी-कभी बड़े लोग अपनी बात को समझाने के लिए कई कई तरीके अपनाते है उन्होंने नारद जी से कहा कि तुम उस कीट को जाकर पूछो की सिंह और गाय जन्मजात विरोधी पशु का फिर भी तीर्थंकर सानिध्य पाकर जन्मजात वैरभाव को छोड़ देते हैं। अंतिम शरीर को धारण करने वाले महापुरुषों की ऊर्जा इतनी प्रभावी होती है। सन्तों का समागम और प्रभु भजन बड़ी दुर्लभता से मिलती है। पुज, स्त्री, लड़की ये तो दादी के यहाँ भी होते हैं। सत्संगती का क्या प्रभाव है वो तुम्हे बतायेगा। नारद जी उस कीट के पास गये और पूछने लगे की कीट बताओ—सत्संगती का क्या प्रभाव है? जैसा ही नारद जी ने प्रश्न पूछा कीट मर गया। नारद जी वापस श्री कृष्ण के पास आ गये ओर कहने लगे की वह कीट तो मर गय। आप ही बताइये। तब श्रीकृष्ण कहते है अभी—अभी वहाँ एक तोते ने जन्म लिया है उससे पूछो वह बतायेगा। नारद जी सोचने लगे—भगवन मुझे इधर—उधर क्यों घूमाते है आप ही क्यों नहीं बताते पर क्या करे भगवन का आदेश था वह चले गये तोता के पास। तोते से प्रश्न किया की सत्संगती का प्रभाव क्या है?
प्रश्न पूछते ही तोता भी मर गया। नारद जी को बड़ा दु:ख हुआ। सोचने लगे की मेरी बजह से दो प्राणी प्राणान्त हो गये और मुझे जीव हिंसा का दोष लगा। बड़े दु:खी होते हुए श्री कृष्ण के पास गये और दुखी होकर कहने लगे—हे भगवन! मेरे सर तो बड़ा पाप चढ़ गया वह तोता भी मर गया। अब आप ही बताइये। श्रीकृष्ण कहते है नारद जी एक बार कोशिश करो अभी—अभी एक गाय ने बछड़े को जन्म दिया है उससे पूछो वह बतायेगा की सत्संगती का क्या प्रभा है? नारद जी सहम गये की अगर बछड़ा मर गया तो गो हत्या का पाप लगेगा लेकिन क्या करे बड़ों की आज्ञा की अवहेलना नहीं की जा सकती। वे डरते—डरते उस बछड़े के पास गये फिर वही प्रश्न किया और प्रश्न किया और प्रश्न सुनते ही बछड़ा भी प्राणान्त हो गया। नारद जी बहुत दुखी हो गये आज तो मुझे गो हत्या का पाप लग गया इस पाप का बोझ कैसे उतारूंगा। रोने जैसा चेहरा लेकर श्री कृष्ण के पास आये। कृष्ण ने पूछा क्या हुआ। नारद जी बड़े बिगड़ कर बोले की आपने मुझे गो हत्या का पाप लगवा दिया वह बछड़ा भी मर गया और उत्तर भी नहीं मिला आप ही क्यो नहीं बता देते। तब श्रीकृष्ण कहते है – नारद जी एक बार और प्रयास करो एक राजा के पुत्र हुआ है उस राजकुवर से पूछ आओ तुम्हे जबाब मिल जायेगा। नारद जी कहते है नहीं अब नहीं जाऊँगा अभी तक तो सारे जानवर थे मर गये तो कुछ नहीं हुआ अगर राजकुमार मर गया तो मेरी फाँसी लग जायेगी नहीं मैं नहीं जाऊँगा। तब श्री कृष्ण कहते है एक बार मेरी बात मान लो तुम्हे जबाब मिल जायेगा। इतना कहने पर नारद जी बड़े डरते—डरते काँपते—काँपते राजमहल पहुँचे और उस राजकुमार के पास गये वह झुले में झुल रहा था और हंस रहा था। नारद जी को थोड़ी सी जान आयी। आस—पास कोई नहीं था तब पूछा की राजकुमार बताओं—सत्संगती का क्या प्रभाव है? तब राजकुमार हँसता है और कहता है अभी तब आपको सत्संगति का प्रभाव पता नहीं चला। अरे नारद जी मैं वही कीट हूँ जो आपके दो पल की संगती से तोता बना फिर आपकी संगती से गाय बना वहाँ आपकी संगती पायी तो आज राजकुमार बना हूँ।यह है सत्संगती। इसलिए प्रयासरत रहना चाहिए की हरपल हमें सत्संगती मिले जिससे हमारे भव भवान्तर सुधर जाये।
भुख न हो तो भोजन बेकार है, नींद न हो तो बिस्तर बेकार है। वचन में मिठास न हो तो वाणी बेकार है, अच्छी संगती संस्कार न हो तो जीवन बेकार है। वैसे ही संत संग के बिना जीवन व्यर्थ है। संत की संगति पर्याय, परिणती दोनों सुधारता है।आचार्य शान्तिसागर जी महाराज का प्रवचन हो रहा था पायसागर जी गृहस्थ अवस्था में थे। वे नाटक वगैरह किया करते है बड़ा ही विचित्र रूप था। बड़े—बड़े बाल अलग ही अन्दाज में जा रहे थे भीड़ देखकर रूक गये तो बड़ी दूर से आचार्य श्री को देखा, देखते ही मन किया पास में जाउँ और पास चले गये नजर से नजर ही मिली और अन्तर आत्मा में परिवर्तन प्रारम्भ हुआ और तत्काल कहते है गुरुदेव मुझे आपकी तरह बना दो। आचार्य श्री ने कहा ठीक है तब सारे लोगों ने कहा महाराज जी यह तो सारे व्यसन करता है इसे कैसे दीक्षा दोगे, परन्तु संगती का प्रभाव रहा सारे व्यसन छोड़ दिये। नाटक का काम भी छोड़े दिया। कुछ समय बाप ही महान संत बन गये जो पायसागर के नाम से जाने जाने लगे। इसलिए गुरुओं की संगती से जीवन उत्कृष्ट बन जाता है, क्योंकि कहा है कि गुरु का जीवन में महत्व होता है संगत का असर होता है और माँ का मूल्य होता है। सत्संगति होती है तो दुर्गम मार्ग भी सरलता से कट जाता है। चाहे कितनी भी विपरीत परिस्थितियाँ आ जाये व्यक्ति सरलता से सामना कर लेता है। बड़े सम्राट अशोक बड़ा राजा था परन्तु उस पर गुरुओें का प्रभाव था। चन्द्रगुप्त मौर्य अंतिम मुकुटबद्ध राजा थे।बड़े सुखद राज व्यवस्था देख रहे थे। एक दिन की रात्रि में उन्हें १६ स्वप्न आये। प्रात:काल होते ही अपने गुरु के पास गये स्वप्न का फल पूछा। गुरु ने सारे स्वप्न का फल पंचम काल में होने वाले प्रभाव को बताया। यह सुनकर उन्हीं गुरु से दीक्षा ले ली। गुरु हर समस्या का समाधान है इसलिए संत की संगती अवश्य करनी चाहिए। जीवन का प्रारम्भ संस्कार और संगती से होता है दोनों ही अच्छे मिल जाये तो मानव आदर्श हो जाता है। जब बच्चा शिक्षा लेने जाता है वहाँ उसे शिखक आदर्श मिल जाये तो सोने में सुहागा हो जाए।
शिक्षक अपने नामोरुप हो जाये तो फिर जीवन निखर कर आता है। शिक्षक शब्द में कितने ही गुण है।इसमें तीन अक्षर है -शि,क्ष,क। ‘‘शि’’ का अर्थ है-शिष्टवान। ‘‘क्ष’’का अर्थ क्षमावान। ‘‘क’’ का अर्थ कर्तव्यमान अर्थात् जो शिष्टा वान,क्षमावान, कर्तव्यवान होता है वही अच्छा और सच्चा शिक्षक है। शिक्षक शिष्ट है सदाचारी है तो शिक्षा अच्छी देगा और जीवन का निर्माण अच्छा करेगा। क्योंकि शिक्षक भी माता के तुल्या होता है योग्य सलाह देकर उत्थान करता है।प्रारम्भ का जीवन तो एक कच्ची मिट्टी की तरह होता है परन्तु कुम्हार के पास ही एक अच्छे घड़े का रूप ले लेता है। वैसे ही मनुष्य अच्छे शिक्षक के पास जाता है तो अच्छा और आदर्श व्यक्तित्व का धनी हो जाता है। जीवन में कोई साधु संत मिल जाये और मंगल भावना आ जाये तो संत के चरणों में पाप का प्रक्षालन कर देना ताकि पापों से आत्मा मुक्त हो जाये । जीव का अगला भव और वर्तमान जीवन को सुधारना चाहते है तो संतो की दो मिनट भी संगती कर लेना ताकि जीवन सुवाषित हो सके। बच्चों पर अल्पायु में ही संस्कार कैसे करे? संस्कार की नींव अर्थात अनुशासन। प्रत्येक कृतिके यदि यदि अनुशासन, नियम नहीं बनाए, तो वह कृति अपूर्ण होती है। प्रात: उठने से लेकर रात्रि सोने तक अनुशासन का अचूकता से पालन करें, अध्यात्म में शीघ्र प्रगति होती हैं। उसके लिए बाल्यावस्था में ही अनुशासन का संस्कार बालमनपर अंकित करना चाहिए।
बाल्यावस्था से ही बच्चो को योग्य शिक्षा दें। नींद से जागने पर अपने ओढ़ावनकी तह करना सिखाएं। आरंभ में ठीक से नहीं होगी; परन्तु धीरे-धीरे बच्चा जैसे बड़ा होगा, वैसे व्यवस्थितता उसमें आये बिना नहीं रहेगी। प्रात:कालीन क्रिया समाप्त होने पर विद्यालय का अभ्यास, विद्यालय की तैयारी उन्हें ही करने की सीख दें। अभ्यास की पुस्तके, बहियां ठीक से योग्स स्थान पर रखना सिखाएं। विद्यालय अथवा बाहर से आने पर जूते-चप्पल, बस्ता इत्यादि निश्चित स्थानपर ही रखना सिखाएं। उसी प्रकार हाथ पैर स्वच्छ धोने के पश्चात कपड़े के बटन अथवा हुक टूटा हो अथवा कपड़े थोड़े से उधड़ गए हों तो उन्हें ही सीना सिखाएं। अपना कार्य—कपड़े बदलकर उनकी ठीक से वह बनाकर रखना सिखाएं। स्वयं करने में बच्चों को भी आनन्द होता है। आयु के अनुसार स्वयं के कपड़े धोना भी सिखाएं। सबेरे — सायं का नाश्ता होने के उपरांत प्याला तथा थाली धोना सिखाएं। संक्षेप मे, बच्चों को स्वावलंबी बनाएं। उसमें लड़का-लड़की ऐसा भेदभाव न हो। प्रत्येक बात की शिक्षा दें, तो बच्चा घर में हो अथवा अन्य स्थान पर, वह अच्छा व्यवहार ही करेगा।
प्रात: सोकर उठने के पश्चात बच्चों को बिस्तर में ही प्रार्थना करना तथा ईश्वर से आज का दिन दिखाया इस हेतु कृतज्ञता व्यक्त करना सिखाएं। मुंह धोने के उपरांत भगवान को नमस्कार करने के लिए कहें। कुछ भी खाने से पूर्व उनसे प्रार्थना करवाएं। उसी प्रकार प्रत्येक बात ईश्वर की कृपा से ही हुई है, यह उनके मन पर अंकित करें।
वाल्यावस्था से ही बच्चों को जल्दी उठना सिखाएं। अनेक घरों में यह देखा जाता है बच्चों की पढ़ाई हेतु रात्रि में जागते हैं एवं सबेरे ८ से ९ बजे उठते हैं। इसके विपरीत रात्रि में जल्दी सोकर प्रात:काल अभ्यास करने से ही वह अधिक अच्छे से ध्यान में रहता है। कहा जाता है कि रात्रि में शीघ्र सोना एवं प्रात: शीघ्र उठने वाले को स्वास्थ्य तथा संपत्ति का लाभ होता है। पूर्वकाल में ऋषिमुनि ब्राह्ममुहूर्त पर उठकर वेदपठन करते थे रात्रि में रज-तमकी प्रबलता होती है। इसके विपरीत प्रात:काल सात्विकता होने से उसका अभ्यास पर अच्छा परिणाम होता है। प्रत्येक बात समय पर करना सिखाएं छोटे बच्चे बड़ो की कृति से ही सीखते हैं; इसलिए बड़ों को ही अपना आचरण, बोलना अन्यों का सम्मान करना, इत्यादि करना चाहिए। उसी प्रकार प्रत्येक बात समय पर करें। ‘पश्चात करेंगे’ कहने से, पुन: वह बात नहीं होती। उसके लिए शरीर की अपेक्षा मन को ही अनुशासन में रखना होगा। अनेकों के घर में अलमारी तथा रैक में कपड़े ठूंसे हुए तथा अस्तव्यस्त टंगे होते हैं। उसी प्रकार घर भी अव्यस्थित होता है।ऐसे में घर में अचानक कोई आ जाए, तो धांदली होती है। एक बार हाथ को अभ्यास हो जाए, तो मन को भी उसे ठीक किए बिना शांति नहीं मिलती।घर स्वच्छ तथा ठीकठाक रखने का आलस्य न हो। आलस्य यह हमारा प्रथम क्रमांकका शत्रु है, यह बात बच्चों के मन पर अंकित करे। बच्चों को अतिलाड करना टाले आजकल घर में एक-दो ही बच्चे होने से उसकी पसंद-नापसंद का बहुत ध्यान रखा जाता हैं। भोजन, कपड़े सभी बातों में बच्चे जो कहें वही पूरब दिशा, ऐसा दिखाई देता है। बाल्यावस्था से ही उनकी बात सुनते रहें, तो आगे चलकर वे अपनी बात नहीं मानते। इस कारण उनके अत्यधिक लाड न करें। बच्चों के समक्ष स्वयं आदर्श रखें घर को ‘सत्यं शिवं सुंदरम्’ बनाना हो, तो अनुशासन, आज्ञापालन, बड़ों का आदर करना, इत्यादि करना चाहिए। बड़ों द्वारा आदर्श निर्माण करना चाहिए कि हमारी रीत, अनुशासन देखकर हमारे बच्चे भी उसका अनुकरण करें। ऐसा हुआ,तो आदर्श परिवार बनने में समय नही लगेगा।