पुग्गलविवाइदेहोदयेण, मणवयणकायजुत्तस्स। जीवस्स जा हु सत्ती, कम्मागमकारणं जोगो।।७२।।
पुद्गलविपाकिदेहोदयेन मनोवचनकाययुक्तस्य। जीवस्य या हि शक्ति: कर्मागमकारणं योग:।।७२।।
अर्थ—पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन, काय से युक्त जीव की जो कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है उसको योग कहते हैं।
भावार्थ —आत्मा की अनंत शक्तियों में से एक योग शक्ति भी है। उसके दो भेद हैं—एक भावयोग दूसरा द्रव्ययोग। पुद्गलविपाकी आंगोपांग नामकर्म और शरीर नामकर्म के उदय से, मन वचन काय पर्याप्ति जिसकी पूर्ण हो चुकी हैं और जो मनोवाक्कायवर्गणा का अवलम्बन रखता है ऐसे संसारी जीव की जो समस्त प्रदेशों में रहने वाली कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है उसको भावयोग कहते हैं और इस ही प्रकार के जीव के प्रदेशों का जो परिस्पंदन होता है उसको द्रव्ययोग कहते हैं। यहाँ पर कर्मशब्द उपलक्षण है इसलिए कर्म और नोकर्म दोनों को ग्रहण करने वाला योग होता है ऐसा समझना चाहिए। जिस प्रकार लोहे में रहने वाली दहन शक्ति अग्नि के संबंध से काम किया करती है उसी प्रकार जीव के समस्त लोक प्रमाण प्रदेशों में कर्म नोकर्म को ग्रहण करने की सामर्थ्य पायी जाती है फिर भी पुद्गलविपाकी शरीर और आंगोपांग नामकर्म के उदय से प्राप्त मनोवर्गणा भाषा वर्गणा के पुद्गल स्कंधों के संयोग से ही वह कर्म नोकर्म को ग्रहण करने का कार्य किया करता है।
मणवयणाणपउत्ती, सच्चासच्चुभयअणुभयत्थेसु। तण्णाम होदि तदा, तेहि दु जोगा हु तज्जोगा।।७३।।
मनोवचनयो: प्रवृत्तय: सत्यासत्योभयानुभयार्थेषु। तन्नाम भवति तदा तैस्तु योगात् हि तद्योगा:।।७३।।
अर्थ—सत्य, असत्य, उभय, अनुभय इन चार प्रकार के पदार्थों से जिस पदार्थ को जानने या कहने के लिए जीव के मन, वचन की प्रवृत्ति होती है उस समय में मन और वचन का वही नाम होता है और उसके संबंध से उस प्रवृत्ति का भी वही नाम होता है।
भावार्थ -सत्य पदार्थ को जानने के लिए किसी मनुष्य के मन की या कहने के लिए वचन की प्रवृत्ति हुई तो उसके मन को सत्य मन और वचन को सत्य वचन कहेंगे तथा उनके द्वारा होने वाले योग को सत्य मनोयोग और सत्य वचनयोग कहेंगे। इस ही प्रकार से मन और वचन के असत्य, उभय, अनुभय इन तीनों भेदों को भी समझना चाहिए। सम्यग्ज्ञान के विषयभूत पदार्थ को सत्य कहते हैं, जैसे यह जल है। मिथ्याज्ञान के विषयभूत पदार्थ को मिथ्या कहते हैं, जैसे मरीचिका को यह जल है। दोनों के विषयभूत पदार्थ को उभय कहते हैं, जैसे कमण्डलु को यह घट है, क्योंकि कमण्डलु घट का काम देता है इसलिए कथंचित् सत्य है और घटाकार नहीं है इसलिए कथंचित् असत्य भी है। जो दोनों ही प्रकार के ज्ञान का विषय न हो उसको अनुभय कहते हैं, जैसे सामान्यरूप से यह प्रतिभास होना कि ‘‘यह कुछ है’’। यहाँ पर सत्य-असत्य का कुछ भी निर्णय नहीं हो सकता, इसलिए अनुभय है क्योंकि स्वार्थ क्रियाकारी विशेष निर्णय न होने से सत्य नहीं कहा जा सकता और सामान्य प्रतिभास होता है अतएव उसको असत्य भी नहीं कह सकते।
जणवदसम्मदिठवणा, णामे रूबे पडुच्चववहारे। सम्भावणे य भावे, उवमाए दसविहं सच्चं।।७४।।
जनपदसम्मतिस्थापनानाम्नि रूपे प्रतीत्यव्यहारयो:। संभावनायां च भावे उपमायां दशविधं सत्यम्।।७४।।
अर्थ—जनपदसत्य, सम्मतिसत्य, स्थापनासत्य, नामसत्य, रूपसत्य, प्रतीत्यसत्य, व्यवहारसत्य, संभावनासत्य, भावसत्य, उपमासत्य इस प्रकार सत्य के दश भेद हैं।
भत्तं देवी चंदप्पह, पडिमा तह य होदि जिणदत्तो। सेदो दिग्घो रज्झदि, कूरोत्ति य जं हवे वयणं।।७५।। भक्तं देवी चन्द्रप्रभप्रतिमा तथा च भवति जिनदत्त:। श्वेतो दीर्घो रध्यते कूरमिति च तद्भवेद्वचनम् ।।७५।।
सक्को जम्बूदीवं, पल्लट्टदि पाववज्जवयणं च। पल्लोवमं च कमसो, जणवदसच्चादिदिट्ठंता।।७६।। शक्रो जम्बूद्वीपं परिवर्तयति पापवर्जवचनं च। पल्योपमं च क्रमशो जनपदसत्यादिदृष्टांता:।।७६।।
अर्थ—उक्त दश प्रकार के सत्य वचन के ये दश दृष्टांत हैं। भक्त, देवी, चन्द्रप्रभप्रतिमा, जिनदत्त, श्वेत, दीर्घ, भात पकाया जाता है, शक्र जम्बूद्वीप को पलट सकता है, पाप रहित ‘यह प्रासुक है’’ ऐसा वचन और पल्योपम।
भावार्थ —तत्तद्देशवासी मनुष्यों के व्यवहार में जो शब्द रूढ़ हो रहा है उसको जनपद सत्य कहते हैं। जैसे—भक्त, भातु, भाटु, भेटु, वंटक, मूकुडू, कूलू, चोरू आदि भिन्न-भिन्न शब्दों से एक ही चीज को कहा जाता है। बहुत मनुष्यों की सम्मत्ति से जो सर्वसाधारण में रूढ़ हो उसको सम्मति सत्य या संवृतिसत्य कहते हैं। जैसे—पट्टरानी के सिवाय किसी साधारण स्त्री को भी देवी कहना। किसी वस्तु में उससे भिन्न वस्तु के समारोप करने वाले वचन को स्थापना सत्य कहते हैं। जैसे—चन्द्रप्रभ भगवान की प्रतिमा को चंद्रप्रभ कहना। दूसरी कोई अपेक्षा न रखकर केवल व्यवहार के लिए जो किसी का संज्ञा कर्म करना इसको नाम सत्य कहते हैं। जैसे—जिनदत्त! यद्यपि उसको जिनेन्द्र ने दिया नहीं है तथापि व्यवहार के लिए उसको जिनदत्त कहते हैं। पुद्गल के रूपादिक अनेक गुणों में से रूप की प्रधानता से जो वचन कहा जाय उसको रूप सत्य कहते हैं। जैसे—किसी मनुष्य को काला कहना। यद्यपि उसके शरीर में अन्य वर्ण भी पाये जाते हैं अथवा उसके शरीर में रसादिक के रहने पर भी रूपगुण की अपेक्षा उसको श्वेत कहना। किसी विवक्षित पदार्थ की अपेक्षा से दूसरे पदार्थ के स्वरूप का कथन करना, इसको प्रतीत्य सत्य अथवा आपेक्षित सत्य कहते हैं। जैसे—किसी छोटे या पतले पदार्थ की अपेक्षा से दूसरे पदार्थ को बड़ा लम्बा या स्थूल कहना। नैगमादि नयों की प्रधानता से जो वचन बोला जाय उसको व्यवहार सत्य कहते हैं। जैसे—नैगम नय की प्रधानता से ‘‘भात पकाता हूँ’’ संग्रह नय की अपेक्षा ‘‘सम्पूर्ण सत् है’’ अथवा ‘‘सम्पूर्ण असत् है’’ आदि। असंभवता का परिहार करते हुए वस्तु के किसी धर्म का निरूपण करने में प्रवृत्त वचन को सम्भावना सत्य कहते हैं। जैसे—शक्र (इंद्र) जम्बूद्वीप को लौट दे अथवा उलट सकता है। आगमोक्त विधि निषेध के अनुसार अतीन्द्रिय पदार्थों में संकल्पित परिणामों को भाव कहते हैं, उसके आश्रित जो वचन हो उसको भावसत्य कहते हैं। जैसे—शुष्क, पक्व, तप्त और नमक मिर्च खटाई आदि से अच्छी तरह मिलाया हुआ द्रव्य प्रासुक होता है। यहाँ पर यद्यपि सूक्ष्म जीवों को इंद्रियों से देख नहीं सकते तथापि आगम प्रामाण्य से उनकी प्रासुकता का वर्णन किया जाता है। इसलिये इस ही पापवर्ज वचन को भावसत्य कहते हैं। दूसरे प्रसिद्ध सदृश पदार्थ को उपमा कहते हैं। इसके आश्रय से जो वचन बोला जाय उसको उपमा सत्य कहते हैं, जैसे—पल्य। यहाँ पर रोमखण्डों का आधारभूत गड्ढ़ा, पल्य अर्थात् खास के सदृश होता है इसलिए उसको पल्य कहते हैं। इस संख्या को उपमा सत्य कहते हैं। इस प्रकार ये दश प्रकार के सत्य के दृष्टांत हैं, इसलिए और भी इस ही तरह जानना।
अंगोवंगुदयादो दव्वमणट्ठं जिणिंदचंदम्हि। मणवग्गणखंधाणं आगमणादो दु मण जोगो।।७७।।
आंगोपांगोदयात् द्रव्यमनोर्थ जिनेन्द्रचन्द्रे। मनोवर्गणास्कन्धानामागमनात् तु मनोयोग:।।७७।।
अर्थ—आंगोपांग नामकर्म के उदय से हृदय स्थान में जीवों के द्रव्यमन की विकसित—खिले हुए अष्ट दल पद्म के आकार में रचना हुआ करती है। यह रचना जिन मनोवर्गणाओं के द्वारा हुआ करती है उनका अर्थात् इस द्रव्यमन की कारणभूत मनोवर्गणाओं का श्री जिनेन्द्र चंद्र भगवान सयोगकेवली के भी आगमन हुआ करता है इसलिए उनके उपचार से मनोयोग कहा है।
भावार्थ —यद्यपि सयोगकेवली भगवान के क्षायिक भाव ही पाए जाते हैं अतएव उनके भावमन जो कि क्षायोपशमिक भाव है, नहीं पाया जाता। फिर भी उपचार से उनके मन कहा है क्योंकि उनके आत्मप्रदेशों में कार्मण वर्गणा और नोकर्मवर्गणाओं को आकर्षित करने की शक्तिरूप भावमन पाया जाता है। साथ ही मनोवर्गणाओं के आगमनपूर्वक जो द्रव्य मन का परिणमन होता है सो वह भी उनके पाया जाता है। यही उनके मन को कहने के लिए उपचार में निमित्त है तथा गाथा में प्रयुक्त ‘तु’ शब्द के द्वारा सर्वजीवदया, तत्वार्थदेशना और शुक्लध्यानादि की प्रवृत्ति के प्रयोजन को भी सूचित कर दिया गया है। काययोग की आदि में निरुक्तिपूर्वक औदारिक काययोग का वर्णन करते हैं-
पुरुमहदुदारुरालं, एयट्ठो संविजाण तम्हि भवं। ओरालियं तमुच्चइ, ओरालियकायजोगो सो।।७८।।
पुरुमहदुदारमुरालमेकार्थ: संविजानीहि तस्मिन् भवं। औरालिकं तदुच्यते औरालिककाययोग: स:।।७८।।
अर्थ—पुरु, महत्, उदार, उराल ये सब शब्द एक ही स्थूल अर्थ के वाचक हैं। उदार में जो हो उसको कहते हैं औदारिक तथा उदार में होने वाला जो काययोग उसको कहते हैं औदारिक काययोग। यह निरुक्त्यर्थ है, ऐसा समझना चाहिए।
विशेषार्थ-काययोग के ७ भेद हैं-औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रकाययोग, वैक्रियक काययोग, वैक्रियक मिश्रकाययोग, आहारक काययोग, आहारक मिश्रकाययोग और कार्मण काययोग। इनका लक्षण ‘योगमार्गणासार’ में देखना चाहिए।
आहारस्सुदयेण य, पमत्तविरदस्स होदि आहारं। असंजमपरिहरणट्ठं, संदेहविणासणट्ठं च।।७९।।
आहारस्योदयेन च प्रमत्तविरतस्य भवति आहारकम्। असंयमपरिहरणार्थं संदेहविनाशनार्थं च।।७९।।
अर्थ—असंयम का परिहार करने के लिए तथा संदेह को दूर करने के लिए आहारक ऋद्धि के धारक छट्ठे गुणस्थानवर्ती मुनि के आहारक शरीर नामकर्म के उदय से आहारक शरीर होता है।
भावार्थ —यह शरीर औदारिक अथवा वैक्रियिक शरीर की तरह जीवन भर नहीं रहा करता किन्तु जिनको आहारक ऋद्धि प्राप्त है ऐसे प्रमत्त मुनि अपने प्रयोजनवश उसको उत्पन्न किया करते हैं। इसके लिए मुनियों के मुख्यता दो प्रयोजन बताये गये हैं—असंयम का परिहार और संदेह का निवारण। ढाई द्वीप में पाए जाने वाले तीर्थों आदि की वंदना के लिये जाने में जो असंयम हो सकता है वह न हो इसलिये अर्थात् बिना असंयम के अंश के भी तीर्थक्षेत्रों आदि के वंदना कर्म की सिद्धि। इसी तरह कदाचित् श्रुत के किसी अर्थ के विषय में ऐसा कोई संदेह हो जो कि ध्यानादि के लिए बाधक हो और उसकी निवृत्ति केवली, श्रुतकेवली के बिना हो नहीं सकती हो तो उस संदेह को दूर करने के लिए भी आहारक शरीर का निर्माण हुआ करता है किन्तु यह शरीर आहारक शरीर नामकर्म के उदय के बिना नहीं हुआ करता तथा मुनियों के ही होता है और उनके भी अप्रमत्त अवस्था में न होकर प्रमत्त अवस्था में ही उत्पन्न हुआ करता है।
णियखेत्ते केवलिदुगंविरहे णिक्कमणपहुदिकल्लाणे। परखेत्ते संवित्ते, जिणजिणघरवंदणट्ठं च।।८०।।
निजक्षेत्रे केवलिद्विकविरहे नि:क्रमणप्रभृतिकल्याणे। परक्षेत्रे संवृत्ते जिनजिनगृहवंदनार्थं च।।८०।।
अर्थ—अपने क्षेत्र में केवली तथा श्रुतकेवली का अभाव होने पर किन्तु दूसरे क्षेत्र में जहाँ पर कि औदारिक शरीर में उस समय पहुँचा नहीं जा सकता केवली या श्रुतकेवली के विद्यमान रहने पर अथवा तीर्थंकरों के दीक्षाकल्याणक आदि तीन कल्याणकों में से किसी के होने पर तथा जिन, जिनगृह, चैत्य, चैत्यालयों की वंदना के लिये भी आहारक ऋद्धि वाले छट्ठे गुणस्थानवर्ती प्रमत्त मुनि के आहारक शरीर नामकर्म के उदय से यह शरीर उत्पन्न हुआ करता है। योगरहित जीव कौन हैं और उनका स्वरूप क्या है इस बात का वर्णन करते हैं-
जेसिं ण संति जोगा, सुहासुहा पुण्णपावसंजणया। ते होंति अजोगिजिणा, अणोवमाणंतबलकलिया।।८१।।
येषां न सन्ति योगा: शुभाशुभा: पुण्यपापसंजनका:। ते भवन्ति अयोगिजिना अनुपमानन्तबलकलिता:।।८१।।
अर्थ—जिनके पुण्य और पाप के कारणभूत शुभाशुभ योग नहीं है उनको अयोगिजिन कहते हैं। वे अनुपम और अनन्त बल से युक्त होते हैं।
भावार्थ -अंतिम गुणस्थानवर्ती तथा उससे अतीत आत्मा योग से रहित हैं। अस्मदादिक में बल योग के आश्रय से ही देखने या अनुभव में आता है। अतएव किसी को यह शंका न हो कि जो योग से रहित हैं वे बल से भी रहित होंगे। यहाँ कहा गया है कि वे इस तरह के बल से युक्त है कि जो अनुपम है और अनन्त है।
ओरालियवेगुव्विय, आहारयतेजणामकम्मुदये। चउणोकम्मसरीरा, कम्मेव य होदि कम्मइयं।।८२।।
औरालिकवैगूर्विकाहारकतेजोनामकर्मोदये। चतुर्नोकर्मशरीराणि कर्मैव च भवति कार्मणम्।।८२।।
अर्थ—औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस, नामकर्म के उदय से होने वाले चार शरीरों को नोकर्म कहते हैं और कार्मण शरीर नामकर्म के उदय से होने वाले ज्ञानावरणादिक आठ कर्मों के समूह को कार्मण शरीर कहते हैं।
भावार्थ —काय-शरीर के निमित्त से होने वाले आत्म प्रदेशों के परिस्पन्दन को काययोग कहा है। शरीर पाँच हैं। वे दो भागों में विभक्त हैं-कर्म और नोकर्म। तैजसशरीर योग में निमित्त नहीं माना है। नोकर्म में नो शब्द का अर्थ ईषत् और विरुद्ध होता है। औदारिकादिक कर्मों के सहायक होने से ईषत् कर्म या नोकर्म है अथवा गुणों का साक्षात् घात करने और आत्मा को पराधीन बनाने में कर्म के समान काम नहीं करते, इसलिए भी नोकर्म हैं।
प्रश्न—योग किसे कहते हैं ?
उत्तर—पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन, काय से युक्त जीव की जो कर्मों के ग्रहण करने की कारणभूत शक्ति है उसको योग कहते हैं अर्थात् आत्मा की अनंत शक्तियों में से एक योग शक्ति भी है, उसके दो भेद हैं—भावयोग और द्रव्ययोग। कर्मों को ग्रहण करने में कारणभूत जीव की शक्ति भावयोग और जीव के प्रदेशों का परिस्पंदन द्रव्ययोग है।
प्रश्न—योग के कितने भेद हैं ?
उत्तर—सत्य, असत्य, उभय और अनुभय के निमित्त से चार मन के और चार वचन के ऐसे आठ योग हुए और औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रियक, वैक्रियक मिश्र, आहारक, आहारक मिश्र और कार्मण ऐसे सात काय के ऐसे मन, वचन, काय संबंधी पंद्रह योग होते हैं। सत्य के दश भेद हैं— जनपद—जो व्यवहार में रूढ़ हों जैसे—भक्त, भात, चोरु आदि, सम्मति सत्य जैसे—साधारण स्त्री को देवी कहना, स्थापना—प्रतिमा को चंद्रप्रभ कहना, नाम—जिनदत्त कहना, रूपसत्य—बगुले को सफेद कहना, प्रतीत्यसत्य—बेल को बड़ा कहना, व्यवहार—सामग्री संचय करते समय भात पकाता हूँ, ऐसा कहना, सम्भावना—इंद्र जम्बूद्वीप को पलट सकता है ऐसा कहना। भावसत्य—शुष्क पक्व आदि को प्रासुक कहना, उपमा सत्य—पल्योपम आदि से प्रमाण बताना। ये दस प्रकार के सत्य वचन हैं। इनसे विपरीत असत्य वचन हैं। जिनमें दोनों मिश्र हों वे उभय वचन हैं एवं जो न सत्य हों न मृषा हों वे अनुभव वचन हैं। अनुभय वचन के नव भेद हैं— आमंत्रणी—यहाँ आओ, आज्ञापनी—यह काम करो, याचनी—यह मुझको दो, आपृच्छनी—यह क्या है? प्रज्ञापनी—मैं क्या करूँ? प्रत्याख्यानी—मैं यह छोड़ता हूँ, संशयवचनी—यह बलाका है या पताका, इच्छानुलोम्नी—मुझको ऐसा होना चाहिए और अनक्षरगता—जिसमें अक्षर स्पष्ट न हों, क्योंकि इनके सुनने से व्यक्त और अव्यक्त दोनों अंशों का ज्ञान होता है।
द्वीन्द्रिय से असैनी पंचेन्द्रिय तक अनक्षर भाषा है और सैनी पंचेन्द्रिय की आमंत्रणी आदि भाषाएँ होती हैं। केवली भगवान के सत्य मनोयोग, अनुभय मनोयोग, सत्यवचनयोग, अनुभयवचनयोग, औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मण ये सात योग होते हैं। शेष संसारी जीवों में यथासम्भव योग होते हैं। चौदहवें गुणस्थान में योगरहित अयोगी होते हैं। औदारिक, औदारिक मिश्रयोग तिर्यंच व मनुष्यों के होते हैं। वैक्रियक मिश्र देव तथा नारकियों के होते हैं। आहारक, आहारक मिश्र छट्ठे गुणस्थानवर्ती मुनि के ही कदाचित् किन्हीं के हो सकता है। प्रमत्तविरत मुनि को किसी सूक्ष्म विषय में शंका होने पर या अकृत्रिम जिनालय की वंदना के लिए असंयम के परिहार करने हेतु आहारक पुतला निकलता है और यहाँ पर केवली के अभाव में अन्य क्षेत्र मेें केवली या श्रुतकेवली के निकट जाकर आता है और मुनि को समाधान हो जाता है। आहारक ऋद्धि और विक्रियाऋद्धि का कार्य एक साथ नहीं हो सकता है, बादर अग्निकायिक, वायुकायिक और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के भी विक्रिया हो सकती है। देव, भोगभूमिज, चक्रवर्ती पृथक विक्रिया से शरीर आदि बना लेते हैं किन्तु नारकियों में अपृथक विक्रिया ही है। वे अपने शरीर को ही आयुध, पशु आदि रूप बनाया करते हैं। देव मूल शरीर को वहीं स्थान पर छोड़कर विक्रिया शरीर से ही जन्मकल्याणक आदि में आते हैं, मूल शरीर से कभी नहीं आते हैं। कार्मणयोग विग्रहगति में एक, दो या तीन समय तक होता है और समुद्घात केवली के होता है। जो योग रहित, अयोगीजिन अनुपम और अनंत बल से युक्त हैं वे अ इ उ ऋ ऌ इन पंच ह्रस्व अक्षर के उच्चारण मात्र काल में सिद्ध होने वाले हैं, उन्हेें मेरा नमस्कार होवे।