अनंतर दीक्षा दिलाने वाले दीक्षार्थी के पारिवारिकजन या जो यजमान-माता-पिता बनेंगे वे यथाशक्ति दीक्षार्थी से शांतिविधान या गणधरवलयविधान आदि अनुष्ठान करावें। यहाँ तक विधि दीक्षा दिवस के पहले दिन की है। पुन: दीक्षा के दिन- दाता स्नानादि – मंगलस्नान कराकर यथायोग्य अलंकार आदि से अलंकृत करके महामहोत्सव-गाजे-बाजे के साथ या मंगलगीत-भजन गाते हुए चैत्यालय में लावें। यहाँ यथायोग्य अलंकार का अर्थ है कि यदि दीक्षार्थी गृहस्थ हैं या महिला कुमारी अथवा सौभाग्यवती हैं तो उनके योग्य वस्त्र-रंगीन, अलंकार, जेवर-हार, मुकुट आदि होवें। यदि ब्रह्मचारी या ब्रह्मचारिणी हैं या विधवा महिला हैं तो रंगीन वस्त्र और जेवर आदि नहीं पहनाना चाहिए, उनके योग्य श्वेत वस्त्र ही होना चाहिए। विशेष – इससे पूर्व आचार्यश्री वीरसागर जी की संघ परम्परा के अनुसार मंच पर (बिना दीक्षा का चौक पूरे) दीक्षार्थी का पहले केशलोंच करा देते हैं। उस समय भी लघु सिद्धभक्ति व लघुयोगिभक्ति पढ़ाकर केशलोंच शुरू करते हैं तथा बीच में व चारों तरफ शिर में थोड़े-थोड़े केश छोड़ देते हैं जो कि मंगल चौक पर बैठने के बाद विधिवत् गुरु द्वारा किये जाते हैं। इस केशलोंच के बाद ही दीक्षार्थी को मंगलस्नान कराकर मंच पर लाकर अभिषेक आदि कराते हैं क्योंकि केशलोंच के बाद वस्त्र आदि राख से खराब हो जाते हैं दीक्षा का चौक भी राख से भर जावेगा अत: पूर्व में ही केशलोंच करा देना उचित रहता है।