वीतराग सर्वज्ञदेव ने चारित्र के दो भेद किये हैं— सम्यक्तवचरण चारित्र और संयमचरण चारित्र१। इन्हें दर्शनाचार चारित्र और चारित्राचार लक्षण चारित्र भी कहते हैं। आचार्य कहते हैं कि हे भव्यजीवों! इन दोनों में पहले सम्यक्तव को विशुद्ध बनाने के लिये उसमें मल को उत्पन्न करने वाले ऐसे शंका आदि दोषों का त्याग करो तथा नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना सम्यक्तव के इन आठ गुणों को धारण करो। इन आठ गुणों से विशुद्ध सम्यक्तव ही जिनसम्यक्त्व कहलाता है यह मोक्ष की प्राप्ति के लिये मूल कारण है। जो महापुरुष ज्ञान से संयुक्त इस प्रथम सम्यक्तवचरण चारित्र का आचरण करते हैं तथा इस सम्यक्तवचरण से शुद्ध हुये संयमचरण चारित्र को भी धारण कर लेते हैं वे मूढ़दृष्टि रहित ज्ञानी जीव शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं। इस सम्यक्तवचरण चारित्र के आठ गुण हैं जो कि पालन करने योग्य हैं और पच्चीस मल दोष हैं जो छोड़ने योग्य हैं।
१. नि:शंकित— सात प्रकार के भयों से रहित होना, बौद्ध आदि अन्य दर्शन और जैनाभास मत से मुक्ति नहीं मानना तथा अंजनचोर के समान जिनेंद्रदेव के वचनों में दृढ़ श्रद्धान रखना।
२. नि:कांक्षित— सम्यक्तव और व्रतों के फल स्वरूप राज्यवैभव, देवपद, इंद्रपद आदि इहलोक—परलोक सुखों की वांछा नहीं करना।
३. निर्विचिकित्सा— रत्नत्रय से पवित्र मुनियों के शरीर सम्बन्धी मल आदि को देखकर ग्लानि नहीं करना।
४. अमूढ़दृष्टि— जिनेंद्र भगवान् के वचनों में शिथिलता नहीं करना अथवा अन्य मतों में मोह को प्राप्त नहीं होना, अन्य संप्रदाय के नाना चमत्कारों को देखकर उसमें नहीं लुभाना।
५. उपगूहन—जिनधर्म में स्थित बालक तथा वृद्ध आदि असमर्थजनों के दोष छिपाना।
६. स्थितिकरण— सम्यक्तव और व्रतों से च्युत होते हुये मनुष्य को प्रयत्नपूर्वक फिर से उसी में स्थिर कर देना।
७. वात्सल्य— धर्मात्मा जनों में अकृत्रिम स्नेह रखना, उनके ऊपर आये हुये उपसर्ग को दूर करना जैसे कि विष्णु कुमार मुनि ने श्री अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों का उपसर्ग निवारण करके वात्सल्य गुण प्रकट किया था।
८. प्रभावना— जिनधर्म का उद्योत करना तथा अन्य धर्म के प्रभाव को विध्वंस करना । शास्त्रार्थ, मंत्र, तंत्र, विद्या, दान, पूजा, तपश्चरण, महामहोत्सव आदि के द्वारा धर्म का प्रभाव फैलाना।
१. षट्प्राभृत में चारित्र प्राभृत गाथा ५,६,७। इन आठ गुणों को श्री समंतभद्रस्वामी ने आठ अंग नाम दिये हैं और उन्होंने तो यहाँ तक कहा है कि इनमें से यदि एक भी अंग नहीं है तो वह सम्यग्दर्शन संसार की परम्परा को छेद करने में समर्थ नहीं हो सकता है जैसे कि एक अक्षर से भी न्यून मंत्र विष की वेदना को दूर नहीं कर सकता है। इस प्रकार से इन नि:शंकित आदि आठ गुणों से विपरीत शंका आदि आठ दोष हो जाते हैं । अपने ज्ञान का, अपनी पूजा— प्रतिष्ठा का, अपने कुल का, जाति का, बल का, ऐश्वर्य या ऋद्धि का, तपश्चरण का और रूप का घमंड करना मद है। इन आठ निमित्तों से मद के भी आठ भेद हो जाते हैं। कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्र और उनके भक्त ये छह अनायतन हैं। अथवा मिथ्यादर्शन, मिथ्याचारित्र तथा इनके धारक पुरुष से छह अनायतन है। चूँकि ये सम्यक्तव के आयतन— स्रथान नहीं है अतएव ये अनायतन कहलाते हैं । सूर्य को अर्घ देना, ग्रहण के समय स्नान करना, नदी आदि में स्नान कर पुण्य मानना आदि लोकमूढ़ता है। वर की आशा से रागी—द्बेषी देवों की उपासना करना देवमूढ़ता है । परिग्रह तथा आरम्भ से सहित पाखंडी साधुओं की उपासना करना गुरुमूढ़ता है। इस तरह शंकादि आठ दोष, आठ मद, छह अनायतन और तीन मूढ़ता ये पच्चीस मल दोष हैं जो कि सम्यक्ता को मलिन करने वाले हैं। अब हमें विचार करना है कि यदि हमारे हृदय में जिनेंद्रदेव के प्रति दृढ़ आस्था है तो हम उनकी आज्ञा के अनुसार आठ गुणों को धारण कर रहे हैं या नहीं ? नि:शंकित आदि गुणों में धन या तन खर्च करने की ही आवश्यकता हो ऐसी बात नहीं है। केवल एक प्रभावना गुण ही धन के द्वारा भी किया जाता है और मन, वचन, काय से तो किया ही जाता है। कहने का मतलब है कि इन गुणों का मन,वचन, काय से ही विशेष सम्बन्ध है। कुछ श्रम विशेष की आवश्यकता नहीं है। वर्तमान के भौतिक युग में अनेक प्रकार के नये—नये आविष्कार देखने में आते हैं । उस समय प्राय: बहुत से लोग जिनागम के वचनों की अवहेलना, अश्रद्धा करने लगते हैं तथा कुछ लोग किसी साधु आदि में किंचित् भी दोष देखकर सभी साधुओं में उसको बढ़ा—चढ़ाकर आरोप किया करते हैं। वे बेचारे व्यर्थ ही अपने नि:शंकित और अमूढ़दृष्टि गुण को तथा वात्सल्य, उपगूहन, स्थितिकरण गुण को जलांजलि देकर अपने सम्यक्तव को मलिन कर लेते हैं। यदि मुनिव्रत या श्रावक के व्रतरूप संयमचरण का अनुष्ठान नहीं हो पाता है तो कम से कम अपने सम्यक्तव को निर्दोष बनाते हुये इन पच्चीस मल दोषों से अपने को बचाने का प्रयत्न करो। धर्म और धर्मात्माओं में नैसर्गिक स्नेह जब उमड़ पड़ता है तब समझो तुम्हारे अन्दर वात्सल्यगुण अवतरित हो चुका है । चाहे जैसे चमत्कारिक प्रसंग दिख रहे हों किन्तु जिनेंद्र देव ने जैसा लोक—अलोक आदि का वर्णन किया है वैसा ही है अन्यथा नहीं हो सकता इसी का नाम नि:शंकभाव है, इसे आस्तिक्य गुण भी कहते हैं। इत्यादि प्रकार से सतत ही आठ गुणों के स्वरूप का विचार करते हुये अपने को उन गुणरूप बना लेना चाहिये और पच्चीस दोषों को हानिकर समझते हुए उनसे सर्वथा दूर हो जाना चाहिए, तभी हम सम्यक्तव चरण — चारित्र के आराधक कहलायेंगे।
संयमचरण चारित्र — श्रावकधर्म
संयमचरण के दो भेद हैं—सागर धर्म और अनगार धर्म। सागर चारित्र परिग्रह सहित गृहस्थ के होता है और अनगार चारित्र मुनियों के होता है। श्री कुंदकुंद भगवान् सागार चारित्राचार का निरूपण करते हैं — दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तत्याग, रात्रि भुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरंभत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग । ये सब देशव्रत अथवा सागार चारित्राचार हैं। इन्हीं को श्रावक की ग्यारह प्रतिमायें भी कहते है। प्रथम दर्शनप्रतिमाधारी को सामान्यतया आठ मूलगुण धारण करना होता है, सात व्यसनों का त्याग करना पड़ता है और सम्यग्दर्शन की भले प्रकार रक्षा करनी होती है।
आठ मूलगुण— बड़, पीपल, पाकर, ऊमर को कठूमर इन पाँच फलों का तथा मद्य, मांस, मधु इन तीन मकारों का त्याग करना आठ मूलगुण है।
अथवा द्वितीय प्रकार से- (१) मद्य का त्याग (२) मांस का त्याग (३) मधु का त्याग (४) रात्रि भोजन का त्याग (५) पांच उदुंबर फलों का त्याग (६) पंचपरमेष्ठी की नुति अर्थात् देवदर्शन (७) जीव दया (८) जल छानकर पीना ये आठ मूलगुण माने गये हैं।
सात व्यसनों के नाम— जुआ खेलना, मद्य पीना, मांस खाना, वेश्या सेवन करना, शिकार खेलना, चोरी करना और परस्त्री सेवन करना ये सात व्यसन महापाप रूप हैं। विद्वान् लोग इनका सेवन नहीं करते हैं। सम्यत्क्व की रक्षा करने के लिये अन्यमत सम्बन्धी कल्पित शास्त्रों का श्रवण न करके अपनी बुद्धि को विशुद्ध रखना चाहिये। ऊपर कहे हुये सामान्य आचरण के अतिरिक्त दर्शन प्रतिमाधारी श्रावक को निम्नलिखित बातों पर ध्यान रखना आवश्यक है— मूली, कमल की नाल, मृणाल, लहसुन, तुंबी फल, कुसुम की शाक, सूरणकंद, अरणी, वरण, सोहजना और करीर इन फलों का त्याग कर लेना चाहिये। नमक, तेल, और घृत में रखे हुये फल, अचार, मुरब्बा, दो मुहूर्त के बाद का मक्खन, तथा मांसादि का सेवन करने वाले लोगों के बनाने और खाने के बर्तनों का त्याग करना चाहिये। चमड़े में रखे हुये जल, तेल और हींग का त्याग करना होता है। भोजन करते समय हड्डी, मदिरा, चमड़ा, मांस, खून, पीव, मल, मूत्र और मृतप्राणी के देखने से, त्यागी हुई वस्तु के सेवन से, चांडाल आदि के देखने और उनके शब्द सुनने से भोजन में अंतराय मानकर भोजन का त्याग कर देना चाहिये। तथा भोजन में केश या मृत चिंवटी, मक्खी आदि आ जाने पर भी अंतराय करके भोजन छोड़ देना चाहिये। घुने अन्न आदि, जिन पर फपूंदी आ गई है ऐसे खाने के पदार्थ और चलित स्वाद वाले भोजन का भी त्याग कर देना चाहिये। सोलह प्रहर के बाद का दही और तक्र नहीं लेना चाहिये। कच्चे दूध या कच्चे दूध से बने हुये दही आदि में दो दल वाले अन्न को मिलाने से द्विदल होता है वह भी सम्यग्दृष्टि को नहीं लेना चाहिये। पान, औषधि और पानी का भी रात्रि में त्याग कर देना चाहिये। यह भी दर्शनप्रतिमा का आचार है। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दृष्टि गृहस्थ यद्यपि व्रतों को ग्रहण नहीं करता है तो भी आठ मूलगुण का निरतिचार पालन करता है। अत: उसमें मर्यादा के उपरांत की वस्तुओं का, बाजार में बनी हुई चीजों का— पकवान और मिठाइयों का, बाजार में पिसे हुये आटे, मसाले आदि का त्याग करना होता है। शुद्ध जल और शुद्ध भोजन ही ग्रहण करना होता है। रात्रि में भी चारों प्रकार के आहार का, औषधि का सर्वथा त्याग करना होता है। सात व्यसनों का भी अतिचार सहित त्याग करना होता है। एवं पंचपरमेष्ठी में प्रगाढ़ भक्ति रखते हुये देवदर्शन, पूजन का नियम करना होता है। तभी वह पहली प्रतिमाधारी कहा जा सकता है। वह न्याय से धन कमाता है जिस व्यापार में महान् हिंसा हो, ऐसे व्यापार नहीं करता है, जैसे कि शराब, गांजा, भांग, खाद या जूते आदि का व्यापार नहीं करता है। मुनियों के प्रति पूर्ण अनुराग रखता हुआ समय—समय पर उनको आहार दान, उनकी भक्ति, सेवा—सुश्रूषा आदि करता रहता है। अपने धन का सदुपयोग तीर्थयात्रा, जिनबिंब प्रतिष्ठा, सिद्धचक्र विधान, तीन लोक मंडल विधान, इंद्रध्वज विधान आदि महान् धर्म कार्यों में करता है। अपने अमूल्य समय का सदुपयोग धर्मचर्चा, स्वाध्याय, गुरुओं के सत्संग आदि में करता है। इस तरह प्रत्येक गृहस्थ का यह कर्तव्य सरल और सुसाध्य है। प्रत्येक धर्मात्मा पुरुष या स्त्री इस दर्शनप्रतिमा को सहज ही ग्रहण कर सकते हैं। और आगे व्रतप्रतिया आदि में उत्साह बढ़ाते हुये उनको ग्रहण कर सकते हैं। आज के युग में भी बहुत से गृहस्थ श्रावक ऐसे हैं जो बाजार या होटलों में नहीं खाते हैं। चाहे जैसी या चाहे जिसके हाथ की बनी हुई कोई चीज नहीं खाते हैं। महिलायें तो अधिकांश मात्रा में ऐसी होती हैं जो कि अपने हाथ से ही अपने घर में हर एक चीज, हर प्रकार के पकवान और मिठाइयाँ बना लेती हैं। उन्हें इस दर्शनप्रतिमा को गुरु के सान्निघ्य में ग्रहण कर लेना चाहिये। अब द्वितीयप्रतिमा के अंतर्गत बारह व्रतों को कहते हैं—
बारहव्रत
पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत यह बारह व्रत रूप चारित्र श्रावक का संयमाचरण है। पांच पापों से विरत होना व्रत है। वह व्रत एक देश और सर्वदेश की अपेक्षा दो प्रकार का है। एक देशव्रत को अणुव्रत तथा सर्वदेश विरति को महाव्रत संज्ञा है। जो अणुव्रतों का उपकार करते हैं उन्हें गुणव्रत कहते हैं तथा जिनसे मुनिव्रत धारण करने की शिक्षा मिलती है उन्हें शिक्षाव्रत कहते हैं। स्थूल त्रसवध का त्याग करना अहिंसा अणुव्रत है। स्थूल असत्य कथन का त्याग करना सत्य अणुव्रत है। स्थूल चोरी का त्याग करना अचौर्य अणुव्रत है। परस्त्री करना ब्रह्मचर्य अणुव्रत है तथा परिग्रह और आरम्भ का परिमाण करना अर्थात् स्वर्ण आदि परिग्रह तथा सेवा, खेती, व्यापार आदि का परिमाण करना परिग्रह परिमाण अणुव्रत है। ऐसे ये पांच अणुव्रत होते हैं। दिशा और विदिशाओं का प्रमाण करना अर्थात् पूर्व—पश्चिम आदि दिशाओं में तथा ईशान आदि विदिशाओं में आने—जाने की सीमा को निश्चित कर लेना पहला दिग्व्रत नाम का गुणव्रत है। अनर्थक—नरर्थक कार्यों का त्याग दूसरा अनर्थदण्ड़त्याग नाम का गुणव्रत है। इसके पांच भेद हैं— अपध्यान, दु:श्रुति, पापोपदेश, हिंसादान और प्रमादचर्या। भोग और उपभोग की वस्तु में परिमाण करना सो तीसरा भोगोपभोग परिमाण गुणव्रत है। जो वस्तु एक बार भोगने में आती है उसे भोग कहते हैं जैसे भोजन आदि। जो वस्तु बार—बार भोगने में आती है वह उपभोग है जैसे वस्त्र, स्त्री आदि। ये तीन गुणव्रत हैं। सामायिक, प्रोषध, अतिथिपूज्य और अन्तकाल में सल्लेखना ये चार शिक्षाव्रत होते हैं । सामायिक में चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और समाधिभक्ति पूर्वक क्रिया की जाती है। यह सामायिक नाम का पहलाा शिक्षाव्रत है। प्रत्येक अष्टमी और चतुदर्शी को व्रत करना प्रोषध नाम का शिक्षा व्रत है। इसके उत्तम, मध्यम और जघन्य ऐसे तीन भेद हैं। चार प्रकार के आहार का त्याग करके उपवास करना उत्तम प्रोषधोपवास है। जलमात्र ग्रहण कर लेना मध्यम है, आचाम्ल भोजन करना जघन्य है। अतिथियों को आहार देना अतिथिपूज्य अथवा अतिथि संविभागव्रत है। इस व्रत में श्रावक नवधाभक्ति पूर्वक मुनि आदि पात्रों को आहार आदि देता है। यह तृतीय शिक्षाव्रत है। मरणकाल में काय और कषाय को कृश करते हुए समाधि पूर्वक मरण करना सो सल्लेखना व्रत है यह चौथा शिक्षाव्रत है। इसी प्रकार समस्त श्रावक धर्म सम्बन्धी संयमाचरण चारित्राचार का कथन किया । अब शुद्ध और निष्कलंक मुनि धर्म सम्बन्धी चारित्राचार को कहूँगा। श्री कुन्दकुन्ददेव ने सल्लेखनाव्रत को शिक्षाव्रत में ग्रहण किया है। इसी प्रकार मुनियों के पाक्षिकप्रतिक्रमण में श्रीगौतमस्वामी ने भी सल्लेखना को चतुर्थ शिक्षाव्रत कहा है। यथा— तत्थ इमाणि चत्तारि सिक्खावदाणि, तत्थ पढमे सामाइयं, विदिए पोसहोवासयं, तदिए अतिथिसंविभागों, चउत्थे सिक्खावदे पच्छिमसल्लेहणामरणं चेदि । इन गौतमस्वामी और कुन्दकुन्ददेव के अंनतरवर्ती श्री उमास्वामी आचार्य ने गुणव्रत और शिक्षाव्रतों में अन्तर माना है। यथा— दग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत ये तीन गुणव्रत हैं। सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगपरिभोग परिमाण और अतिथिसंविभाग ये चार शिक्षाव्रत हैं । पुन: आगे मरण के काल में सल्लेखना को प्रीतिपूर्वक सेवन करना ऐसा कहा है। इसी प्रकार से श्री स्वामी समन्तभद्र ने दिग्व्रत, अनर्थदंडव्रत और भोगोपभोग परिणाम व्रत को गुणव्रत कहा है। देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य को शिक्षाव्रत कहा है। यह वैयावृत्य अतिथिसंविभाग का विस्तृत रूप है। इसके लक्षण में स्वामी ने स्वयं चार प्रकार वेâ दान को देने का विधान और मुनियों की सेवा—शुश्रूषा का विधान किया है। इस तरह श्रावक के व्रतों का संक्षेप से वर्णन श्री कुन्दकुन्ददेव ने अपने चारित्र प्राभृत में किया है। १. चारित्रप्राभृत २२ से २६ तक। २. श्री गौतमस्वामीकृत पाक्षिकप्रतिक्रमण पाठ । ३. तत्वार्थसूत्र अ० ७, सूत्र २१ ।
संयमचरण चारित्र
मुनिधर्म— अब मुनियों के संयमचरण चारित्र को पढ़ेंगे, इसलिये नहीं कि मुनियों के प्रति अश्रद्धा करके अपना सम्यग्दर्शन मलिन करें बल्कि इसलिये कि हम भी मुनि बनकर अपनी आत्मा को मोक्ष के निकट ले जावें और जब तक मुनि नहीं बन सकते तब तक मुनि होने की भावना भावें, एवं आजकल के निकृष्ट काल में भी जो मुनि दिख रहे हैं उनके प्रति नतमस्तक हो जावें। पांच इन्द्रियों को वश में करना, पच्चीस क्रियाओं के अर्थात् पच्चीस भावनाओं सहित पांच महाव्रतों का धारण करना, पांच समितियों का पालन करना और तीन गुप्तियों का धारण करना यह मुनियों का संयमचरण चारित्र है। मनोज्ञ और अमनोयज्ञ चेतन तथा अचेतन पदार्थों में राग—द्वेष नहीं करना पंचेंद्रिय संवर हैं। त्रस और स्थावर की हिंसा से पूर्णतया विरत होना अहिंसा महाव्रत है। असत्य वचन से विरत होना सत्य महाव्रत है। चूँकि बिना दी हुई वस्तु के ग्रहण से विरत होना अदव्तत्याग महाव्रत है। स्त्री सेवन से विरह होना उपब्रह्म त्याग अथवा ब्रह्मचर्य महाव्रत है और परिग्रह का सर्वथा त्याग होना सो अपरिग्रह महाव्रत है। इनका महापुरुष ही साधन करते हैं, पूर्व में भी महापुरुष— तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि ने इनका आचरण किया है और स्वयं ही ये महान् हैं अत: इन्हें महाव्रत कहते हैं। अर्थात् वृषभदेव से लेकर महावीर पर्यंत चौबीस तीर्थंकरों, वृषभसेन को आदि लेकर गौतम स्वामी पर्यंत सभी गणधरों ने तथा जम्बूस्वामी पर्यंत अनेक मुक्तिगामी जीवों ने इनको धारण किया है। और तो क्या अनादिकाल से आज तक अनंताएं महापुरुषों ने इनको धारण किया है। अभी भी महापुरुष ही इनको ग्रहण करते हैं और भविष्य में भी अनंतानंत महापुरुष इन महाव्रतों का अनुष्ठान करके महान् परमात्म पद प्राप्त करेंगे अतएव ये पांचों व्रत महान् है। अहिंसाव्रत की भावनायें— वचनगुप्ति, मनोगुप्ति , ईर्यासमिति, आदान निक्षेपण समिति और आलोकित पान भोजन ये पांच अहिंसाव्रत की भावनायें हैं। अर्थात् वचन को वश में रखना, मन को वश में रखना, चार हाथ जमीन देखकर चलना, पुस्तक, कमंडलु, आदि उपकरणों को पहले देखकर तथा मयूर पिच्छी से साफ कर धरना—उठाना और बार—बार देखकर — शोधकर भोजन करना ये पाँच भावनायें हैं।
सत्यव्रत की भावनायें
क्रोध, भय, हास्य, लोभ और मोह इनके त्यागरूप पांच भावनायें सत्यव्रत की हैं । श्री गौतम स्वामी ने भी कहा है कि —१‘‘ अक्रोध, अलोभ, भय और हास्य का त्याग और अनुवीचि भाषा कुशल ये पांच भावनायें हैं।’’ यहाँ पर जो अमोह भावना है उसी से अनुवीचि भाषा में कुशल यह भावना आ जाती है। पूर्वाचार्यों को सूत्र की परम्परा के अनुकूल बोलना ही अनुवीचि भाषा कुशल भावना है। अचौर्यव्रत की भावनायें— शून्यागार निवास, विमोचितावास, परोपरोधाकरण, एषणा शुद्धि आौर सहधर्मी में अविसंवाद ये पांच अचौर्यव्रत की भावनायें हैं । अर्थात् शून्य स्थान— पर्वत की गुफा आदि में निवास करना, जो ग्राम या निवास स्थान ऊजड़ हो गये हैं या राजा आदि के आक्रमण से उजड़ गये हैं— वहाँ के निवासी अपना स्वामित्व छोड़कर अन्यत्र चले गये हैं, उन्हें विमोचितावास १. पाक्षिकप्रतिक्रमण मुनियों का। कहते हैं ऐसे स्थानों में रहना। ठहरते समय पर का उपरोध—दूसरों को रूकावट नहीं करना परोपरोधाकरण है। चरणानुयोग के अनुसार शुद्ध आहार ग्रहण करना एषणा शुद्धि है। और सहधर्मियों से यह वस्तु हमारी है, यह तुम्हारी है इत्यादि विसंवाद नहीं करना यह पांच भावनायें हैं। ब्रह्मचर्यव्रत की भावनायें— महिलालोकन विरति, पूर्व रति स्मरण विरति, संसक्तव—सतिविरति —वकथावरती और पुष्टिरससेवनविरति ये पांच ब्रह्मचर्यव्रत की भावनायें हैं। अर्थात् रागभाव से स्त्रियों के अंगों का अवलोकन नहीं करना, पहले के भोगे हुये भोगों का स्मरण नहीं करना, स्त्रियों के अत्यन्त निकटवर्ती वसतिका में नहीं रहना और अपने शरीर को संस्कारित नहीं करना, विकथा— स्त्रयों में राग बढ़ाने वाली कथाओं का त्याग करना और कामोत्तेजक रसों का सेवन नहीं करना ये पांच भावनायें ब्रह्मचर्य के लिये मानी गई हैं।
अपरिग्रहव्रत की भावनायें
मनोज्ञ और अमनोज्ञ ऐसे स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द इन पांच इन्द्रियों के विषयों में राग—द्वेष का त्याग करना ये पांच परिग्रह त्याग व्रत की भावनायें हैं। ये कुल पच्चीस भावनायें हैं। ईर्या, भाषा, एषणा, आदान और निक्षेप ये पांच समितियाँ हैं । चार हाथ आगे जमीन देखकर चलना ईर्यासमिति है, आगम के अनुकूल वचन बोलना भाषासमिति है, उद्गम आदि दोषों से रहित शुद्ध आहार लेना एषणासमिति है, पुस्तक आदि वस्तु देख शोध कर उठाना आदानसमिति और इन वस्तुओं को देख कर रखना निक्षेपसमिति है । अन्यत्र चतुर्थसमिति को आदाननिक्षेपण और पंचसमिति को उत्सर्गसमिति कहा है और यहाँ पर आदान तथा निक्षेप को अलग—अलग कहा है। सो निक्षेपसमिति में ही उत्सर्ग समिति का अंतर्भाव हो जाता है। इस तरह से पांच इन्द्रिय संवर, पांच व्रत, पच्चीस भावना, पांच समिति और तीन गुप्ति यह चारित्र मुनियों के द्वारा धारण किया जाता है। संक्षप से वीतराग भगवान् जिनेंद्र देव ने— महावीर स्वामी ने इस तरह से सम्यक्तवचरण और संयमचरण तथा दर्शनाचार और चारित्राचार का वर्णन किया है। अंत में आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि — भव्यजीवों ! शुद्ध भाव से स्पष्ट रचे हुए इस चरणप्राभृत और दर्शनप्राभृत का खूब चिंतन करो और उसके फलस्वरूप शीघ्र ही चतुर्गतियों से छूटकर अपुनर्भव अर्थात् सिद्ध हो जावो । वास्तव में इस संयमचरण को पढ़ने का यही सार है कि इसे शक्ति के अनुसार ग्रहण करना चाहिये। अपनी अनंत शक्ति को प्रकट करने का पुरुषार्थ करना चाहिये, न कि पर में छिद्रों का अन्वेषण करके अपनी आत्मा का घात करना चाहिये।