—जिनेन्द्र जैन
मध्यप्रदेश के छतरपुर जिल में स्थित नैनागिरी (रेशंदीगिरी) दिगम्बर जैन परम्परा का एक प्रसिद्ध तीर्थ है। इस तीर्थ से प्राप्त कतिपय प्राचीन प्रतिमाओं का विवरण यहां प्रस्तुत है। नैनागिरी छतरपुर जिले (म. प्र.) का महत्वपूर्ण एवं प्रसिद्ध तीर्थक्षेत्र है। नैनागिरी सिद्ध क्षेत्र के साथ ही अतिशय क्षेत्र भी है। यह बिजावर तहसील में स्थित है। सागर जिला मुख्यालय से ४० कि. मी. दूर राष्ट्रीय राजमार्ग ८६ पर स्थित दलपतपुर से १३ कि.मी. की दूरी पर नैनागिरि है। नैनागिरी को ही रेशंदीगिरी माना गया है। रेशंदीगिरी को साहित्यिक आधार पर लगभग २९०० वर्ष प्राचीन माना गया है। प्राकृत ग्रंथ निर्वाण कांड गाथा में वर्णन है कि रेशंदीगिरी से वरदत्त आदि पाँच मुनिराज ने मोक्ष को प्राप्त किया था। वह पाँच मुनिराज श्री पार्श्वनाथ के समवसरण में और उनके मुनिसंघ में थे। १८वीं शती ईसवीं के बाद रेशंदीगिरी का नाम नैनागिरी भी हो गया। १७वीं शताब्दी के मराठी साहित्यकार चिमड़ा पंडित ने तीर्थ वंदना लिखी जिसमें उन्होंने भी गुरुदत्त और वरदत्त मुनियों का मुक्ति स्थान रेशंदीगिरी माना है। बाद के विद्वानों ने निर्वाणकांड के भाषानुवाद में रेशंदीगिरी नैनादंद लिया है। कालान्तर में रेशंदीगिरी ही नैनागिरी भी हो गया १७वी शताब्दी के मराठी साहित्यकार चिमड़ा पंडित ने तीर्थ वंदना लिखी जिसमें उन्होंने भी गुरुदत्त और वरदत्त मुनियों का मुक्ति स्थान रेशंदीगिरी माना है। बाद के विद्वानों ने निर्वाणकांड के भाषानुवाद में रेशंदीगिरी नैनानंद लिखा है। कालान्तर में रेशंदीगिरी ही नैनागिरी नाम से प्रसिद्ध हो गया। तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ के बाद रेशंदीगिरी में जैन संस्कृति की निरन्तरता के प्रमाण प्राप्त नहीं होते हैं। एक लम्बे अंध युग के पश्चात् संभवत: प्राचीन भारत के स्वर्ण युग गुप्तकाल के पश्चात नैनागिरी का विकास पुन: होने लगा। १०—११ वीं शती ईसवी तक यह क्षेत्र जैन संस्कृति का महत्वपूर्ण स्थल बन गया। १०—१२वीं शती ईसवी के काल में नैनागिरी के साथ ही इस क्षेत्र के चारों ओर जैन संस्कृति का समृद्ध विकास हो रहा था। प्राचीन व्यापारिक मार्गों में संभवत: एक व्यापारिक मार्ग नैनागिरी से अवश्य जाता होगा। इस भौगोलिक क्षेत्र में पाणाशाह का श्रेष्ठी संगठन व्यापार किया करता था। पाणाशाह के अभिलेख भी प्राप्त हुए हैं। मध्यप्रदेश से होकर अनेक बड़े राजमार्ग विभिन्न दिशाओं को जाते थे। ये मार्ग मुख्यत: व्यापारिक सुविधा हेतु बने थे। धर्म प्रचार तथा साधारण आवागमन के लिये भी इनका उपयोग होता था। एक बड़ा मार्ग इलाहाबाद जिले के कोशाम्बी नगर से भारहुत, एरण, गयारसपुर तथा विदिशा होते हुए उज्जैन को जाता था। उज्जैन से प्रतिष्ठान (ग्वालियर), कांतिपुरी (मुरैना), तुम्बवन (तुमैन) देवगढ़ होता हुआ विदिशा को जाता था। सागर संभाग का क्षेत्र भी इन व्यापारिक मार्गों से जुड़ा हुआ था। नैनागिरी एक ओर पजनारी, पाटन, पिड़रूआ, ईशरवारा, एरण, ग्यारसपुर होते हुए विदिशा व उज्जैन से जुड़ा हुआ था, वहीं दूसरी ओर द्रोणगिरी, अहार, पपौरा, खजुराहो, सतना होते हुए कोशाम्बी से जुड़ा होगा। इन तीर्थ क्षेत्रों का जैन शिल्प १०—११वीं शती ईसवी से बहुतायत में प्राप्त होता है। १०वीं से १४वीं शती ईसवी तक व्यापारिक संगठनों द्वारा इन जैन तीर्थ क्षेत्रों के विकास में पर्याप्त योगदान किया गया। अनेक स्थलों जैसे ईशरवारा, पजनारी, चंदेरी, अहार, खजुराहो आदि से तद्विषयक अभिलेख भी प्राप्त हुए हैं। स्पष्ट है कि यह क्षेत्र इन व्यापारियों के अपने व्यापारिक मार्गों से जुड़े थे, जहाँ वह विश्राम व धर्माचरण किया करते थे। नैनागिरी की जैन कला का विकास भी १०—११वीं शती ईसवी का एक मंदिर यहाँ पर है। इस मंदिर का निर्माण ११०९ संवत् में हुआ था। इसी मंदिर में ११वीं शताब्दी की १३ प्रतिमाएँ भी हैं।४ नैनागिरी में कुल ५३ मंदिर हैं जिनमें ३८ मंदिर पहाड़ी पर १३ तलहटी में एवं २ मंदिर पारस सरोवर में स्थित हैं। नैनागिरी क्षेत्र से अन्य प्राचीन जैन प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं। जो एक अस्थाई संग्रहालय में संग्रहीत हैं। नैनागिरी क्षेत्र ट्रस्ट कमेटी एवं श्री सुरेश जैन (पूर्व आई. ए. एस.) संग्रहालय निर्माण के लिये प्रयासरत हैं। संग्रहित महत्वपूर्ण प्रतिमाओं का विवरण निम्नानुसार है—
प्रतिमा क्रमांक — १ नैनागिरी से यह एक विलक्षण प्रतिमा हुई है। इस प्रतिमा में दो अलग—अलग आकृतियों का समान स्तर पर साथ—साथ मूर्तांकन किया गया है बाँयी प्रतिमा स्पष्टत: तीर्थंकर पार्श्वनाथ की है। तीर्थंकर पार्श्वनाथ कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानस्थ हैं। कुंचित केश एवं सिर पर सप्त सर्पफण हैं। सर्पफण के ऊपर त्रिछत्र हैं। त्रिछत्र के दोनों ओर गजराज कलश लिये अभिषेक कर रहें हैं पाश्र्व में चामरधारी हैं दायीं ओर दूसरी आकृति त्रिभंग मुद्रा में एक पुरुष की आकृति जो छोटे से प्रभामंडल के साथ सिहासन पर ही है। पुरुष आकृति की पहचान स्पष्ट नहीं है। पुरुष विभिन्न आभूषण जैसे कर्ण—कुंडल, कंठहर, कंगन, वनमाला, वाजूबंध एवं कटिसूत्र आदि से अलंकृत हैं। पुरुष आकृति की दोनों हथेलियों में क्या था ? स्पष्ट नहीं है, टूट गया है। ऐसी ही दो विलक्षण प्रतिमाएँ शिवपुरी जिले की खनियाँधाना तहसील के गुडार ग्राम के निकट गोलाकोट नामक स्थल से प्राप्त हुई हैं। इन प्रतिमाओं को डॉ. नवनीत जैन ने सूर्यप्रभा नामक स्मृति ग्रंथ में प्रकाशित किया है। गोलाकोट एवं नैनागिरी से प्राप्त इन प्रतिमाओं में कुछ अंतर भी है। नवनीत जैन द्वारा प्रकाशित प्रतिमा में पार्श्वनाथ सिंहासन पर एवं पुरुष आकृति सादी पीठिका पर है। जबकि नैनागिरी की इस प्रतिमा में दोनों (पार्श्वनाथ एवं पुरुष आकृति) सिंहासन पर हैं। गोलाकोट की प्रतिमा में दोनों के पक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह है जबकि नैनागिरी की प्रतिमा में केवल पार्श्वनाथ के वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह है। गोलाकोट की पुरुष आकृति दायें हाथ में कमंडल लिये है। नैनागिरी की पुरुष आकृति की हथेली टूटी है। नवनीत जैन ने गोलाकोट की प्रतिमा को मुनि पार्श्वनाथ एवं तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा माना है। नैनागिरी से प्राप्त यह प्रतिम राजकुमार पाश्र्व एवं तीर्थंकर पार्श्वनाथ की है नैनागिरी की प्रतिमा में पुरुष आकृति के वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिन्ह एवं कमंडलु नहीं है अत: वह मुनि अवस्था के पार्श्वनाथ नहीं है। लेकिन सिंहासनासीन एवं प्रभामंडल युक्त है अत: राजकुमार पार्श्वनाथ हो सकते हैं।
प्रतिमा क्रमांक — २ इस प्रतिमा में देवी बालक को गोद में लिये खड़ी हैं। देवी के मुख पर ध्यान एवं आध्यात्मिक शांति है। नेत्र अद्र्धउन्मीलित हैं। देवी गले, बाजू, कलाई, एवं कमर पर सादा आभूषण धारण किए हैं। सिर पर पंच सर्पफण हैं बालक के कुंचित केश हैं। यह प्रतिमा १२० से. मी. ऊँची है। लगभग १६० से. मी. ऊँची ऐसी ही प्रतिमा पापेट (बंडा सागर) से प्राप्त सागर विश्वविद्यालय के संग्रहालय में भी (क्र. ५५३) संग्रहीत है। उसे नागी माता का नाम दिया गया है। इस देवी की मैं पहचान नहीं कर सकता। संभवत: यह देवी वामा देवी हैं जो बालक पार्श्वनाथ को गोद लिये हैं। बीना बाराह में बामा देवी को लेटी हुई प्रर्दिशत किया गया है और उनके सिर पर भी सर्पफण हैं। उन्हें गर्भावस्था की स्थिति में माना गया है। बीना—बारहा की प्रतिमा पार्श्वनाथ के गर्भावस्था की है तो यह बाल्यावस्था की हो सकती है। नैनागिरी पार्श्वनाथ से संबंधित क्षेत्र रहा है। यहाँ पर अधिकांशत: उन्हीं की प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं। संभव है कि पार्श्वनाथ की सभी अवस्थाओं की प्रतिमाएँ यहाँ स्थापित कराई गई होगीं। यदि यह देवी वामादेवी नहीं है तो संभवत: यह देवी यक्षी अंबिका हो सकती हैं। अंबिका को सर्पफण के साथ भी प्रर्दिशत किया जाता रहा है। कुम्भरिया एवं जालौर (राजस्थान) से सर्पफण युक्त अंबिका की प्रतिमाएँ प्राप्त हुई है।
प्रतिमा क्रमांक — ३ यह प्रतिमा तीर्थंकर पार्श्वनाथ की है। सप्तसर्पफणों से युक्त पार्श्वनाथ को पद्ममासन मुद्रा में सिंहासनासीन दिखाया गया है। प्रतिमा त्रिछत्र एवं आभामंडल युक्त है। गजारूढ़ देव पुष्प वर्षा या अभिषेक कर रहे हैं, ऊपर गंधर्व हैं, पाश्र्व में दांये धरणेन्द्र एवं बांई ओर सर्पफण युक्त पद्मावती है। यह प्रतिमा लगभग ४ फीट ऊँची है।
प्रतिमा क्रमांक — ४ यह प्रतिमा तीर्थंकर पार्श्वनाथ की है। सप्तफणों से युक्त पद्मासन मुद्रा में ध्यानासीन हैं। सर्पफण के ऊपर त्रिछत्र है। पाश्र्व में चामरधारी हैं। सिर के दोनों ओर मालाधार गंधर्व युग्म हैं। परिकर में सिर के ऊपर दोनों ओर तीन—तीन कायोत्सर्ग मुद्रा में जिन आकृतियाँ हैं।
प्रतिमा क्रमांक — ५ यह भव्य प्रतिमा भी श्री पार्श्वनाथ की है सिर पर कुंचित केश राशि हैं तीर्थंकर वृषभदेव की भाँति इनके कंधों पर भी केश लट हैं। पार्श्वनाथ सप्तफणों से युक्त पद्मासन मुद्रा में ध्यानस्थ हैं। सर्पफणों के ऊपर त्रिछत्र है छत्र के दोनों ओर मालाधारी गंधर्व युग्म हैं। दोनों गंधर्वों के बांयीं ओर दो—दो जिन प्रतिमाएँ कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं। प्रतिमा के सिरोभाग में गज कलश लिये अभिषेक कर रहे हैं। प्रतिमा के पाश्र्व में चामरधारी हैं। प्रतिमा की ऊँचाई ४ फीट है।
प्रतिमा क्रमांक — ६ प्रतिमा क्रमांक ५ की तरह लाक्षणिक विशेषताएँ लिये श्री पार्श्वनाथ पद्मासनास्थ हैं। इस प्रतिमा का बायाँ ऊपरी भाग एवं पैर टूट गया है प्रतिमा का आकार ४ फीट के लगभग है।
प्रतिमा क्रमांक — ७ यह प्रतिमा भी क्रमांक ५ की तरह है इस प्रतिमा का आकार अपेक्षाकृत कम है लगभग १०० से. मी. ऊँचाई है।
प्रतिमा क्रमांक — ८ तीर्थंकर पार्श्वनाथ की यह प्रतिमा क्षतिग्रस्त है। नीले ग्रनाइट पत्थर पर बनी यह प्रतिमा लगभग १०० सेमी. ऊँची है। इसका परिकर टूट गया है। लेकिन शेष भाग से स्पष्ट होता है कि परिकर उत्कृष्ट कलाकृति युक्त होगा संपूर्ण परिकर में कायोत्सर्ग एवं पद्मासनास्थ जिन आकृतियाँ थीं। १० जिन आकृतियाँ अभी भी शेष हैं प्रतिमा की ऊँचाई लगभग ११० सेमी. है।
प्रतिमा क्रमांक — ९ यह प्रतिमा गोमेध यक्ष एवं अम्बिका यक्षी की है यह देशी पाषाण एवं भूरे वर्ण की प्रतिमा है। द्विभुजी यक्ष—यक्षी ललितासन मुद्रा में आसीन है। यक्ष—यक्षी दोनों ही अलंकारों से सज्जित हैं। दोनों के किरीट अत्यन्त कलात्मक हैं। दोनों के ऊपर आम्रमस्तवक हैं उसकी कला भी असाधारण हैं। गोमेध के दाहियने हाथ में श्रीफल एवं बायें हाथ में सनाल पद्म है। अम्बिका के दायें हाथ में श्रीफल एवं बायें हाथ में पुत्र प्रियंकर है। सिरो भाग में पद्मासनस्थ नेमिनाथ की प्रतिमा है। प्रतिमा की ऊँचाई लगभग १०० सेमी है।
प्रतिमा क्रमांक — १० यह प्रतिमा पहाड़ी के मंदिर के बाहर रखी है। यह भव्य प्रतिमा मुनिसुब्रतनाथ की है प्रतिमा की दोनों हथेलियाँ टूट गयी हैं। पद्मासन मुद्रा में ध्यानस्थ मुनिसुब्रत सिंहासन पर आसीन है। सिर पर कुंचित केश राशि एवं केश लट कंधों पर लटकी है। सिर के पीछे प्रभामंडल एवं ऊपर त्रिछत्र है। त्रिछत्र के दोनों ओर गजकलश अभिषेक कर रहे हैं। बांयी ओर का गज टूट गया है ऊपर से गंधर्व देव पुष्पवर्षा कर रहे हैं। प्रतिमा के पाश्र्व में चामरधारी हैं। पादपीठ पर कछुओं का चिन्ह बना है प्रतिमा लगभग १२० से. मी. ऊँची है।