भारतीय संस्कृति अध्यात्म प्रधान संस्कृति है। जिसकी दो प्रमुख धारायें हैं एक श्रमण धारण दूसरी वैदिक धारा। दोनों ही संस्कृतियों में संसार सागर से पार होने के लिए तीर्थ स्थानों का विशेष महत्त्व बताया गया है। जहाँ श्रमण परम्परा के अधिकांश तीर्थस्थान प्राय: पर्वतों पर हैं वहीं वैदिक परम्परा के तीर्थ नदियों और समुद्र के किनारों पर स्थित हैं। आराधना के लक्ष्य प्राय: एक हैं। आज भी जैन तीर्थ अपनी पवित्र आभा एवं पवित्र संस्कृति को लिए हुए जन—जन को मुक्ति का संदेश दे रहे हैं। आज भी अनेकानेक नर—नाारी इन तीर्थ क्षेत्रों की रज अपने मस्तक पर धारण कर स्वयं को पवित्र अनुभव करते हैं और बार—बार इन तीर्थ भूमियों की वंदना करना चाहते हैं। ऐसी मान्यता है कि जहाँ से तरा जाए अर्थात् संसार से पार हुआ जाए उसे तीर्थ कहते हैं—संसार सागरं तरंति येन तत्तीर्थमिति। (मूलाचार, ५५९ आचारवृत्ति) आचार्य पूज्यपाद विरचित ‘समाधिशतक’ के अनुसार तीर्थ की परिभाषा इस प्रकार है—
तीर्थकृत: संसारोत्तरणहेतुभूतत्वातीर्थमिव तीथमागम:।
संसार से पार उतरने के कारण को तीर्थ कहते हैं, उसके समान होने से आगम को तीर्थ कहते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द देव कृत ‘प्रवचनसार’ के अनुसार तीर्थ की परिभाषा इस प्रकार है—
दृष्टश्रुतानुभूतविषयसुखाभिलाषरू पनीरप्रवेशरहिते न परमसमाधिपोतेनोत्तीर्ण—
संसारसमुद्रत्वात्, अन्येषां तरणोपायभूतत्वाच्च तीर्थम्।
दृष्ट, श्रुत और अनुभूत ऐसे विषय सुख की अभिलाषा रूप जल के प्रवेश से जो रहित है ऐसी परम समाधि रूप नौका के द्वारा जो संसार समुद्र से पार हो जाने के कारण तथा दूसरों के लिए पार उतरने का उपाय अर्थात् कारण से (वद्र्धमान भगवान) परम तीर्थ हैं। आचार्य वीरसेन स्वामी कृत ‘धवला टीका’ के अनुसार—
धम्मो णाम सम्मद्दंसण—णाणचरित्ताणि। एदेहि संयारासायरं तरंतित्ति एदाणि तित्थं।।
धर्म का अर्थ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है। चूंकि इनसे संसार सागर को तरते हैं इसलिए इन्हें तीर्थ कहा है। तीर्थ के अनेक भेद किये गये हैं, जैसे—निश्चय तीर्थ और व्यवहार तीर्थ, द्रव्य तीर्थ और भाव तीर्थ। तीर्थ की वर्तमान में क्षेत्र संज्ञा भी प्रचलन में हैं। इनके भी दो भेद हैं—सिद्धक्षेत्र (तीर्थ) और अतिशय क्षेत्र। इनके क्रमश: लक्षण इस प्रकार हैं—
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित ‘बोधपाहुड’ के अनुसार—
वयसंमत्तविसुद्धे पंिचदियसंजदे णिरावेक्खे। ण्हाएउ मुणी तित्थे दिक्खासिक्खा सुण्हाणेण।।
जं णिम्मलं सुधम्मं सम्मत्तं संजमं तवं णाणं। तं तित्थं जिणमग्गे हवेइ जदि संतिभावेण।।
अर्थात्—मुनि व्रत और सम्यक्व से विशुद्ध, पचेंन्द्रियों से नियंत्रित और बाह्य पदार्थों की अपेक्षा से सहित शुद्धात्मस्वरूप तीर्थ में दीक्षा तथा शिक्षा रूप उत्तम स्नान से स्नान करे। जो निरतिचार, धर्म, सम्यक्त्व, संयम, तप और ज्ञान है वह जिनमार्ग में तीर्थ है, वह भी यदि शान्तभाव से सहित हों। इस गाथा की टीका करते हुए पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने विशेषार्थ में कहा है कि—यहाँ जिस शुद्ध बुद्धैकस्वभाव रूप लक्षण से युक्त एवं संसार से तारने में समर्थ निजात्मस्वरूप तीर्थ—जलाशय में मुनि को स्नान करने की प्रेरणा की गई है, वह व्रत तथा सम्यक्त्व से विशुद्ध है। अिंहसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच व्रत अथवा महाव्रत हैं। शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़दृष्टि, अनुपगूहन, अस्थितीकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना नामक आठ दोष, ज्ञानमद आदि आठ मद, लोकमूढ़ता आदि तीन मूढ़ताएँ और कुदेव आदि छह अनायतन इन पच्चीस मलों से रहित तत्त्वार्थ का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। इन दोनों के द्वारा वह तीर्थ विशुद्ध है—अत्यन्त निर्मल है, साथ ही चर्मपात्र में रखे हुए जल के सेवन आदि से रहित होने के कारण अकल्मष है—उज्जवल है। वह तीर्थ पंचेन्द्रियों से संयत है—स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँचों इन्द्रियाँ जिसमें संयत हैं—बद्ध हैं—स्पर्श, रस गंध और शब्द इन पाँच विषयों से रहित हैं, इसके सिवाय वह तीर्थ निरपेक्ष है—बाह्य वस्तुओं की अपेक्षा से रहित है ख्याति, लाभ आदि की आकांक्षाओं से रहित है और माया, मिथ्यात्व तथा निदान इन तीन शल्यों से र्विजत है। इसी तीर्थ में प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान से युक्त, महात्मा, महानुभाव मुनि को स्नान करना चाहिये अर्थात् अष्ट कर्ममल रूप कलंक का प्रक्षालन करना चाहिये अथवा केवलज्ञान आदि अनन्त चतुष्टय से संयुक्त होना चाहिये।
प्रश्न — किसके द्वारा स्नान करना चाहिये ?
उत्तर — दीक्षा और शिक्षा रूप उत्तम स्नान के द्वारा।
प्रश्न—दीक्षा क्या है ?
उत्तर — पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पंचेन्द्रियरोध, लोच तथा षडावश्यक क्रिया आदि अट्ठाइस मूलगुण, उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आिंकचन्य और ब्रह्मचर्य, ये दस धर्म, अठारह हजार शील के भेद, चौरासी लाख गुण, तेरह प्रकार का चारित्र और बारह प्रकार का तप, ये सब मिलकर दीक्षा कहलाती है।
प्रश्न—शिक्षा क्या है ?
उत्तर — स्त्री प्रसंग का त्याग करना और अनित्य आदि बारह भावनाओं का चिन्तन करना जिनेन्द्रदेव की शिक्षा है।
प्रश्न—सुस्नान क्या है ?
उत्तर — जिसमें कर्म रूपी किट्टि—कालिमा का अभाव हो जाय। निर्मल अतिचार से रहित जो उत्तम धर्म—चारित्र है वह तीर्थ है, तत्त्वार्थश्रद्धान रूप सम्यक्तव तीर्थ है, इन्द्रियों और मन को वश में करना, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पाँच स्थावर जीवों की रक्षा करना अर्थात् विराधना नहीं करना और द्वीन्द्रियादि पंचेन्द्रियान्त त्रस जीवों की दया करना, यदि कहीं प्रमाद के दोष से विराधना हो भी जाय तो शास्त्रोंक्तविधि से प्रायश्चित करना संयम कहलाता है। यह संयम भी संसार समुद्र से तारने वाला होने से तीर्थ है। तप का लक्षण इच्छाओं का निरोध करना है, वह अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति—परिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त— शय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, व्युत्सर्ग और ध्यान के भेद से बारह प्रकार का होता है। तत्त्वार्थसूत्र—मोक्षशास्त्र के नवम अध्याय में विस्तार से तप का निरूपण किया गया है वहाँ से उसे जानना चाहिये। यह तप तीर्थ है। इसके सिवाय ज्ञान भी तीर्थ है। जिनमार्ग में निश्चयनय से यहाँ सब तीर्थ कहलाते हैं। व्यवहार नय से जगत प्रसिद्ध, निश्चयतीर्थ की प्राप्ति में कारण तथा मुक्त अवस्था को प्राप्त हुए मुनियों के चरणों से स्पृष्ट ऊर्जयन्त (गिरनार) शत्रुञ्जय, लाटदेश का पावागिरि, आमीर देश की तुङ्गीगिरि, नासिक नगर के समीप में स्थित गज की पताकाओं से युक्त गजपन्था, सिद्धवरकूट, तारापुर, वैलाश, अष्टापद, चम्पापुरी, पावापुर, वाराणसी नगर का क्षेत्र, हस्तिनापुर, सम्मेदशिखर, मुक्तागिरि, हिमाचल, ऋषिगिरि, अयोध्या, कौशाम्बी, विपुलगिरि, वैभारगिरि, रुप्यगिरि, सुवर्णगिर, रत्नगिरि, शौर्यपुर, चूलगिरि, नर्मदानदी का तट, द्रोणगिरि, कुन्थुगिरि, कोटिशिलागिरि, जम्बूकवन, चेलना नदी का तट तथा तीर्थंकरों के पंचकल्याणकों के स्थान को आदि लेकर जिनमार्ग में जो तीर्थ क्षेत्र प्रसिद्ध हैं वे कर्मक्षय के कारण हैं तथा वंदना करने के योग्य हैं, जो इन तीर्थों की वन्दना नहीं करते हैं उन्हें मिथ्यादृष्टि जानना चाहिये। तीर्थ—भ्रमण के बिना वे अनन्त संसार में भ्रमण करेंगे और तीर्थभ्रमण की अनुमोदना से संसार को पार करेंगे। जैसा कि भगवान पूज्यपाद ने कहा है—
इक्र्षोिवकार रसपृक्त गुणेन लोके, पिष्टोऽधिंक मधुरतामुपयाति यद्वत्।
तद्वच्च पुण्यपुरुषैरुषितानि नित्यं, जातानि तानि जगतामिह पावनानि।।१।।
अर्थात् जिस प्रकार लोक में गुड़ या शक्कर के रस से चूर्ण अधिक मधुरता को प्राप्त होता है उसी प्रकार पुण्य पुरुषों से निरन्तर अधिष्ठित तीर्थ जगत को पवित्र करने वाले होते हैं। जिनमार्ग से बाह्य जो जलस्थान नदी, सरोवर आदि तीर्थस्थान हैं वे माननीय नहीं हैं। जैसे गंगा, यमुना, सरयू, नर्मदा, ताप्ती, मागधी, गोमती, कपीवती, अवश्या, गंभीरा, कालतोया, कौशिकी, कालमही, तोग्रा, अरुणा, निभुरा, लोहित्य, समुद्र, कन्धुका, शोणनद, बीजा, मेखला, उटुम्बरी, पनसा, तमसा, प्रभृशा, शुक्तिमती, पम्पासरोवर, छत्रवती, चित्रवती, माल्यवती, वेणुमती, विशाल, नालिका, सिन्धु पारा, निष्कुन्दरी, बहुवङ्काा, रम्या, सिकतिनी, ऊहा, समतोया, कज्जा, कपीवती, पिविन्ध्या, जम्बूमती, वसुमती, अश्वगामिनी, शर्करावती, सिप्रा, कृतमाला, परिज्जा, पनसा, अवन्तिकामा, हस्तिपानी, कागंधुनी, व्याघ्री, चर्मण्वती, शतभागा, नन्दा, करभवेगिनी, क्षुल्लतापी, रेवा, सप्तपारा, कौशिकी आदि पूर्वदेश की नदियाँ। ब्राह्मणमत में कहा भी है—
प्रागुदीच्चौ विभजते हंस: क्षीरोदकं यथा। विदुषां शब्दसिद्धयर्थं सा न: पातु शरावती।।
अर्थात् जिस प्रकार हंस दूध और पानी का विभाग करता है उसी प्रकार जो पूर्व और उत्तर देशों का विभाग करता है उसी प्रकार जो पूर्व और उत्तर देशों का विभाग करती है तथा जो विद्वानों की शब्दसिद्धि का कारण है वह शरावती नदी हम सबकी रक्षा करे। अब दक्षिण दिशा की नदियां बतलाते हैं—तैला, इक्षुमी, नक्ररवा, चङ्गा, श्वसना, वैतरणी, माषवती, महिन्द्रा, शुष्कनदी, सप्तगोदावर, गोदावरी, मानससर, सुप्रयोगा, कुष्णवर्णा, सन्नीकरा, प्रवेणी, कुब्जा, धैर्या, चूर्णी, वेला, शूकरिका, अम्बर्णा अब पश्चिम देश की नदियाँ कहते हैं—भैमरथी, दारुवैणा, नीरा, मूला, केता, स्वाकरीरी, प्रहरा, मुररा, गोदावरी, तापी, लाङ्गला, खातिका, कावेरी, तुङ्गभ्रदा, साभ्रवती महीसागरा, सरस्वती आदि नदियाँ तीर्थ नहीं हैं क्योंकि ये पाप के कारण हैं। साथ ही इस विषय को लेकर ब्राह्मण मत में विरुद्ध कथन भी पाया जाता है। जैसे एक स्थान पर कहा है—
गङ्गाद्वारे कुशावर्ते विल्वके नीलपर्वते। स्नात्वा कनखले तीर्थे संभवेन्न पुनर्भवे।।१।।
अर्थात् गङ्गाद्वार, कुशावर्त, विल्वक, नीलपर्वत और कनखल तीर्थ में स्नान कर मनुष्य पुन: संसार में उत्पन्न नहीं होता अर्थात् मुक्ता हो जाता है। तो दूसरे स्थान पर कहा है—
दुष्टमन्तर्गतं चित्तं तीर्थस्नानान्न शुद्धयति। शतशेऽपि जलैर्धौतं सुराभाण्डमिवाशुचि।।१।।
अर्थात् जिस प्रकार मदिरा का वर्तन सैकड़ों बार जल से धोने पर भी अशुद्ध ही रहता है उसी प्रकार मनुष्य का अन्तर्वर्ती चित्त दुष्ट ही रहता है, तीर्थ स्नान से शुद्ध नहीं होता। जैन परम्परा में ‘मूलाचार’ के अनुसार बताया है कि—
तिविहो य होदि धम्मो सुदधम्मो अत्थिकाय धम्मो य। तदिओ चरित्तधम्मो सुदधम्मो एत्थ पुण तित्थं।।
अर्थात् धर्म तीन प्रकार है—श्रुत धर्म, अस्तिकाय धर्म और चारित्र धर्म किन्तु यहाँ श्रुत धर्म तीर्थ है। ‘भगवती आराधना’ के अनुसार—तरंति संसारं येन भव्यास्तत्तीर्थ वैâञ्चन तरन्ति श्रुतेन गणधरैवलिमर्भूतैरिति श्रुतं गणधरा वा तीर्थमित्युच्यते। जिसका आश्रय लेकर भव्य जीव संसार से तिरकर मुक्ति को प्राप्त होते हैं उसको तीर्थ कहते हैं। कितनेक भव्य जीव श्रुत से अथवा गणधर की सहायता से संसार से उत्तीर्ण होते हैं, इसलिए श्रुत और गणधर को तीर्थ कहते हैं।
बोधपाहुड में व्यवहार तीर्थ का लक्षण इस प्रकार बताया है—
तज्जगत्प्रसिद्धं निश्चयतीर्थप्राप्तिकारणं मुक्तमुनिपादस्पृष्टं तीर्थ ऊर्जयन्तशत्रुंजय—
लाटदेशपावागिरि……… तीर्थंकरपञ्चकल्याणस्थानानि चेत्यादिमार्गे
यानि तीर्थानि वर्तन्ते तानि कर्मक्षयकारणानि वन्दनीयानि।
निश्चय तीर्थ की प्राप्ति का जो कारण हैं ऐसे जगत प्रसिद्ध तथा मुक्तजीवों के चरणकमलों से स्पृष्ट ऊर्जयन्त, शत्रुञ्जय, लाटदेश, पावागिरि आदि तीर्थ हैं। वे तीर्थंकरों के पंचकल्याणकों के स्थान हैं। ये जितने भी तीर्थ इस पृथ्वी पर वर्त रहे हैं वे सब कर्मक्षय के कारण होने से वन्दनीय हैं।
आचार्य वट्टकेर कृत ‘मूलाचार’ के अनुसार—
दुविहं च होई तित्थं णादव्वं दव्वभावसंजुत्तं। एदेिस दोण्हंपि य पत्तेय परूवणा होदि।।
तीर्थ के दो भेद हैं—द्रव्य और भाव। द्रव्य तीर्थ तो अपरमार्थभूत है और भाव तीर्थ परमार्थभूत है क्योंकि इसमें अन्य की अपेक्षा का अभाव है। इन दोनों का वर्णन करते हैं।
दाहोपसमणं तण्हा देदो मलपंकपवहणं चेव। तििंह कारणेंहि जुततो तम्हा तं दव्वदो तित्थं।।
अर्थात् दाह को उपशम (शान्त) करना, तृष्णा का नाश करना और मल पंक (कीचड़) को धो डालना इन तीन कारणों से जो युक्त है वह द्रव्य तीर्थ है। इसकी आचारवृत्ति में सिद्धान्तचक्रवर्ती वसुनन्दि ने बताया है कि द्रव्य तीर्थ से सन्ताप का उपशमन होता है, प्यास का विनाश होता है और कुछ काल तक ही मल का शोधन हो जाता है किन्तु उससे धर्म आदि गुण नहीं होते हैं। इसलिए इन तीन कारणों से सहित होने से उसे द्रव्य तीर्थ कहते हैं।
मूलाचार के अनुसार—
दंसणणाणचरित्ते णिज्जुता जिणवरा दु सव्वेपि। तिहि कारणेहि जुत्ता तम्हा ते भावदो तित्थं।।
सभी जिनेन्द्र देव दर्शन, ज्ञान, चारित्र से संयुक्त हैं। इन तीन कारणों से युक्त हैं इसलिए वे जिनदेव भाव तीर्थ हैं। इसकी आचारवृत्ति में सिद्धान्तचक्रवर्ती वसुनन्दि ने बताया है कि—दर्शन, ज्ञान, चारित्र से संयुक्त होने से सभी तीर्थंकर भावतीर्थ कहलाते हैं। इस प्रकार से ये तीर्थंकर भावउद्योत से लोक को प्रकाशित करने वाले हैं और भावतीर्थ के कर्ता होने से ‘धर्मतीर्थंकर’ कहलाते हैं अथवा सभी जिनवरों ने इस रत्नत्रय का सेवन किया हैं इसलिए वह भी भावतीर्थ कहलाता है। क्षेत्र की दृष्टि से तीर्थ के दो भेद किये गये हैं—सिद्धक्षेत्र और अतिशयक्षेत्र। इनका स्वरूप इस प्रकार है—
जहाँ से तीर्थंकर या अन्य जीव निर्वाण को प्राप्त करते है वह स्थान सिद्धतीर्थ या सिद्धक्षेत्र कहलाता है। चूँकि सिद्ध जीव का ऊध्र्वगमन होता है अत: उस स्थान पर जाकर भक्तगण सिद्धभूमि की ओर देखकर जिन्हें उस स्थान से निर्वाण प्राप्त हुआ है उन्हें नमस्कार करते हैं। वर्तमान में वैâलाश पर्वत तीर्थंकर भगवान आदिनाथ के निर्वाण के कारण, चम्पापुर तीर्थंकर वासुपूज्य के निर्वाण के कारण, गिरनार तीर्थंकर नेमिनाथ के निर्वाण के कारण, पावापुर तीर्थंकर वद्र्धमान के निर्वाण के कारण और श्री सम्मेदशिखर शेष बीस तीर्थंकरों के निर्वाण के कारण सिद्धक्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध हैं। निर्वाणकाण्ड (प्राकृत) के अनुसार यह उल्लेख इस प्रकार है—
अट्ठाष्यम्मि उसहो चंपाए वासुपुज्ज—जणणाहो।
उज्जंते णेमि—जिणो पावाए णिव्वुदो महावीरो।।
वीसं तु जिण—विंरदा अमरासुर—वंदिदा धुद—कलेसा।
सम्मेदे गिरि—सिहरे णिव्वाण गया णमो तेसी।।
इसका भाषा पद्यानुवाद इस प्रकार है—
अष्टापद आदीश्वर स्वामि, वासुपूज्य चंपापुरि नामि।
नेमिनाथ स्वामी गिरनार, बन्दौं भाव—भगति उरधार।।
चरम तीर्थंकर चरम—शरीर, पावापुरि स्वामी महावीर।
शिखरसम्मेद जिनेसुर बीस, भावसहित बन्दौं निश—दीस।।
इनके अतिरिक्त मांगीतुंगी, मुक्तागिरि, सिद्धवरकूट, बड़वानी, पावागिरि, शत्रुंजयगिरि, गजपंथा, सोनागिरि, द्रोणगिरि, कुन्थुगिरि, नैनागिरि आदि भी सिद्धक्षेत्र के रूप में मान्यता प्राप्त हैं।
जहाँ चौबीस तीर्थंकरों के निर्वाण कल्याणक को छोड़कर शेष कल्याणक होते हैं या अन्य आहार आदि के निमित्त से पंचाश्चर्य आदि के कारण अतिशय होते हैं, ऐसे क्षेत्र अतिशयक्षेत्र कहलाते हैं। वर्तमान में राजगृही, हस्तिनापुर आदि तीर्थक्षेत्र ऐसे ही अतिशयक्षेत्र हैं। वर्तमान युग में तीर्थंकर र्मूितयों के अतिशय के कारण अनेक लोगों की सांसारिक व्याधियाँ दूर हुई हैं या भौतिक उपलब्धियाँ प्राप्त हुई हैं इस कारण से अनेक क्षेत्र अतिशयक्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध हुए हैं। जैसे — श्री महावीर जी, पद्मपुरी, तिजारा, देवगढ़, सांगानेर, पपौरा, कचनेर, तारंगा, पावागढ़, कंपिल, सिंहपुरी (सारनाथ), चन्द्रपुरी, वाराणसी आदि। आज अनेक नये तीर्थों को भी बिना किसी प्रामाणिकता के अतिशय क्षेत्र घोषित कर दिया जाता है तथा उन्हें भूतप्रेतादि बाधाओं के निवारक स्थान के रूप में प्रसिद्ध किया जाता है। नये—नये किस्से, कहानियाँ गढ़े जाते हैं, इनसे लोग भले ही इन स्थानों पर जाने लगें किन्तु अपेक्षित परिणाम न मिलने के कारण निराश होते हैं तथा र्धािमक अनावस्था प्रगट करते हैं। अत: अतिशय क्षेत्र घोषित करने से पूर्व उस स्थान की अतिशयात्मक प्रामाणिकता अवश्य देखना चाहिए। हम लोग तो भावना भाते हैं कि—
तीन लोक के तीरथ जहाँ, नित प्रति वंदन कीजै तहाँ।
मन—वच—काय सहित सिर नाय, वंदन करहिं भविक गुण गाय।।
(१) तीर्थ क्षेत्रों का विकास सुनियोजित एवं भविष्य की स्थितियों का आकलन करके होना चाहिए।
(२) तीर्थक्षेत्र हमारी आस्था के केन्द्र हैं, धर्म के साधन हैं इन्हें भोग एवं व्यसन का क्षेत्र कदापि नहीं बनने देना चाहिए।
(३) मर्यादित जीवन—शैली श्रावक का लक्षण है। तीर्थक्षेत्रों पर यह विशेष रूप से पालनीय है। शुद्ध भोजन की व्यवस्था अनिवार्य रूप से होना चाहिए।
(४) मूलतीर्थ की रक्षा के लिए जो मूलतीर्थ के निकटवर्ती आयतन स्थापित किये गये हैं उनकी २५ प्रतिशत आय मूलतीर्थ के संरक्षण में नियमानुसार लगना चाहिए।
(५) तीर्थस्थान भौतिकवाद की तड़क—तड़क से दूर आध्यात्मिकता के रंग से रंगे होना चाहिए ताकि इन तीर्थों पर आने वाले महानुभाव आम लोक जीवन से दूर एक वैराग्यमयी शान्तिप्रिय स्थिति को हृदयंगम कर सवें।
(६) तीर्थ हमारी धरोहर है, सम्यक्त्व प्राप्ति के साधन हैं। इन्हें मात्र पर्यटन या मौजमस्ती का केन्द्र न बनायें, न बनने दें। वहाँ की व्यवस्था में सहयोग दें और इनके संरक्षण में अपना तन—मन धन से योगदान दें।
(७) तीर्थक्षेत्रों पर वैराग्यवर्धक गतिविधियाँ अभिषेक, पूजन, जाप, प्रवचन विधान जैसे उपक्रम निरन्तर चलना चाहिए। चार प्रकार के दान हेतु दानशालाएँ स्थापित होना चाहिए। भावी पीढ़ी में संस्कार निर्माण एवं तीर्थ के प्रति अपनत्व का भाव जगाने के उपक्रम तीर्थक्षेत्रों पर समय—समय पर चलना चाहिए।
(८) तीर्थक्षेत्रों पर आवास, भोजन तथा अन्य सुविधाएँ एक जैसी होना चाहिए। मात्र धन के प्रलोभन ने आज तीर्थयात्रियों को भी ए. सी. डीलक्स, लक्झरी, सामान्य श्रेणियों में बाँट दिया है। यह कदापि उचित नहीं है।
(९) तीर्थक्षेत्रों पर जिनवाणी प्रचार—प्रसार केन्द्र स्थापित होने चाहिए। स्वाध्याय के लिए अनुवूâल वातावरण होना चाहिए।
(१०) तीर्थक्षेत्रों पर निरन्तर संतों का आगमन होता है अत: संतों की चर्यानुरूप आवास, आहार, विहार आदि व्यवस्थाएँ होना चाहिए।
(११) हमारे अनेक तीर्थस्थान आज सार्धिमयों के आवास से दूर हैं, रहित है। तीर्थक्षेत्र प्रबंध समितियों को ऐसा प्रयास करना चाहिए कि तीर्थ स्थानों पर जैनों की आबादियां/आवास बढ़ें ताकि स्वयमेवतीर्थ संरक्षण हो सके। हमें प्रबंध एवं सेवाकार्यों में भी वैतनिक रूप से साधर्मियों को ही रखना चाहिए।
(१२) तीर्थक्षेत्रों पर यत्र—तत्र बिखरी हुई समस्त संपदा का संचयन होना चाहिए। इसके साथ ही जो सामग्री है उसका प्रामाणिक रिकार्ड रखा जाना चाहिए।
(१३) तीर्थक्षेत्रों का प्रबंधतंत्र मजबूत एवं सुलझा हुआ होना चाहिए। उन्हें र्धािमक, सामाजिक एवं पुरातत्व संबंधी कानूनों का ज्ञान होना चाहिए। इस हेतु आवश्यक हो तो प्रबंधतंत्र में विधि सलाहकार के रूप में किसी कानूनविद् को रखना चाहिए।
(१४) तीर्थक्षेत्रों की सी. डी. बनाकर सुरक्षित रखना चाहिए।
(१५) तीर्थक्षेत्रों की अपनी वेबसाइड होना चाहिए ताकि यात्रीगण जानकारी प्राप्त कर सके तथा अपने मंतव्य से अवगत करा सवें। उक्त सुझावों के पालन की अपेक्षा करते हुए मेरा तो यही कहना है कि आत्म संस्कार के लिए तीर्थ का निर्माण किया जाता है। हमारे चरित्र का निर्माण इस तरह होना चाहिए कि हम एक दिन निर्वाण को प्राप्त हो सके और स्वयं तीर्थरूप बन सवेंâ। तीर्थदर्शन का यही प्रयोजन है और यही हमें प्राप्त करना है।