श्रमण परम्परा के प्रथम सूत्र ग्रंथ तत्वार्थसूत्र में निहित सूत्र परस्परोग्रहो जीवानाम् आधुनिक समाज व्यवस्था के लिए बहुत महत्वपूर्ण है ।समाज की व्यवस्थाओं को सुचारू ढंग से संचालित करने में इस सूत्र में निहित जीवन पद्धति बहुत उपयोगी है । इस सूत्र में निहित भाव पंचाणुव्रतों के पालन में भी सहयोगी है । जैनदर्शन के अनुसार ‘उपयोग’ जीव का आभ्यन्तर लक्षण है तथा ‘परस्परोपग्रह’ बाह्य लक्षण हैं। सिद्धावस्था में जीव का समस्त उपयोग आत्मकेन्द्रित होता है । तथा संसारी अवस्था के जीव का उपयोग शुभ और अशुभ कर्मों पर केन्द्रित होता है । अत: शुभाशुभ कर्मों से समबद्ध होने से ‘परस्परोपग्रह’ संसारी जीव का ही लक्षण है । संसार में परस्पर उपग्रह के कई माध्यम सम्भव है, यथा-अपने अधिकार की वस्तुएँ दूसरों को देना, विचारों का परस्पर आदान-प्रदान करना, विषादपूर्ण मन:स्थिति में सान्त्वना देना हित कार्यों में प्रवृति का उपदेश देना, अहिंसादि व्रतों के पालन से परहित करना, अस्वस्थ होने पर उपचार करना आदि।ये सभी उपग्रह मानव द्वारा सम्पादित हैं। इनके अतिरिक्त जल, वनस्पति जैसे एकेन्द्रिय जीव से लेकर पशु – पक्षी आदि पंचेन्द्रिय जीव भी ‘परस्परोपग्रह’ सिद्धान्त को फलीभूत करते हैं। जैसे-वृक्ष के फल,पत्तियों और बीजों को पशु-पक्षी खाकर अपनी उदरपूर्ति करते हैं तो दूसरी तरफ मल के माध्यम से अन्यत्र बीज त्यागकर वृक्ष संसति का अवसर प्रदान करते हैं। पंचेन्द्रिय प्राणी कार्बन डाई ऑक्साइड का निष्कासन कर पेड़-पौधे को जीवन प्रदान करते है और पेड़-पौधों ऑक्सीजन छोड़कर प्राणियों को जीवित रहने में सहयोग करते हैं। संस्कृत साहित्य में सुन्दर उदाहरण है- ‘सहस्रगुणमुत्स्रष्टुमादत्ते हि रसं रवि:’रघुवंश, कालिदास, साहित्य भण्डार, मेरठ, प्रथम सर्ग,श्लोक-१८अर्थात् सूर्य पृथ्वी से थोड़ा सा जल ग्रहण करके बदले में सहस्र गुणा जल पृथ्वी पर बरसाता है । वैज्ञानिक खोजों से पता चला है कि पृथ्वी पर जीव की कोई भी प्रजाति पूर्ण नष्ट हो जाती है तो उसका दुष्प्रभाव सर्वत्र होता है । ये सभी तथ्य सम्पूर्ण सृष्टि को परस्पर सम्बद्ध सिद्ध करते है । इस परस्पर समबद्धता को ध्यान में रखकर ही आचार्य उमास्वाति (उमास्वामी) ने जीवों का लक्षण दिया है-परस्परोग्रहो जीवनाम्। प्राणी जगत् में मात्र मानव ही एक ऐसा प्राणी है जो समाज बनाकर रहता है । पशु समूह में तो रहते हैं, शब्द का प्रयोग होता है लेकिन समूह मात्र समाज नहीं है । यदि भीड़ ही समाज हो तो सिनेमा हाल में अथवा प्लेटफार्म पर होने वाली भीड़ किन्तु नियमों से अनुशासित समाज में नहीं रहते परस्पर एक—दूसरे से रिश्ते नहीं बनाते। हेम नामवाला में इन दोनों के भितत्त्व का स्पष्ट निर्देश करते हुए कहा हैं समाजस्तु पसूनां स्पात समाज स्त्वन्यदेहिनाम पशु समुदाय के लिए ‘समाज’ शब्द व्यवहत होता है और मानव समुदाय के लिए ‘समाज’ समाज की परिधि में समाहित हो सकती है । समाज शब्द सभा,संस्था, आदि के अर्थों में भी प्रयुक्त हुआ है । संस्कृत शब्दकेश में सभी, संसद, समाज, परिषद्, समस्या, गोष्ठी, आस्था, आस्थान और समिति को पर्यायवाची माना गया है ।सामाजिका सभा संसत् समाज: परिषत् सद:। पर्षत् समज्या गोष्ठयास्था आस्थानं समितिर्घटा २-हेमनाम माला, काण्ड ३, श्लोक १४५ लेकिन आज ‘समाज’ शब्द इतना व्यापक बन गया है कि उपर्युक्त सारे शब्द समाज के अंगोपांग बन गये हैं। मानव-समाज और पशु समूहों में अन्तर होने का प्रमुख कारण बुद्धि विकास में भेद होना है ।अन्य जलचर स्थलचर एवं नभचर प्राणियों का जीवन भोजन, प्राणरक्षा तक सीमित है और मानव का जीवन इनके अतिरिक्त शिक्षा, आध्यात्मिक विकास, नैतिक विकास, भौतिक विकास से भी जुड़ा हुआ है । इन सबके विकास के लिए मानव ने परिवार, समाज राष्ट्र का निर्माण किया। मानव का विकास समाज पर ही अवलम्बित है । समाज के बिना मानव का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता है । मानवजाति के जीवन तथा विस्तार के लिए समाज अनिवार्य है । यदि मनुष्य एक दूसरे के साथ नहीं रहेगा तो शीघ्र ही उसका अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। अकेला मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता। जिस प्रकार हमारा शरीर विभिन्न अंगों से निर्मित हुआ है, वैसे ही समाज विभिन्न अंगोपांगों का समुदाय है । संघ, समुदाय, संस्थाएँ इसके विभिन्न अंग है और मनुष्य उसकी एक इकाई है । प्रत्येक मनुष्य समाज में रहकर ही अपनी दिशा निर्धारित करता है । मानव और समाज में इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि समाज मनुष्य के लिए है और मनुष्य समाज के लिए। शिशु अवस्था में वह परिवार को अपना समाज बनाता है । युवावस्था में अपना परिवार और स्व व्यवसाय वाले मित्रों को समाज बनाता है । वृद्धावस्था में वह अपने समव्यस्कों के बीच अपना जीवन यापन करता है । अत: मानव शैशवावस्था से वृद्धावस्था तक समाज से विभिन्न रूप से जुडा रहता है । बाल्यावस्था वह पारिवारिक समाज में जीता है । जहाँ अपने माता-पिता से उपकृत होता है और स्वयं उनपके कार्यों में सहयोग देकर उपग्रह करता है । इस प्रकार परस्पर उपग्रह करने का पाठ वह बचपन में ही सीख लेता है । यौवनकाल मे विवाह कर अपने बच्चों के लालन-पालन, भरण—पोषण में अर्थोपार्जन में अन्य का सहयोग प्राप्त करता है और प्रकारान्तर से दूसरों का सहयोग करता है । वृद्धावस्था में अपने अनुभवों को बाँटकर दूसरों का भला करता है और पुत्रादि की सेवा से उपकृत होता है । कोई व्यक्ति यह चाहे कि मैं अन्य किसी का उपकार न लूँ, तो ऐसा किमपि संभव नहीं है । वह किसी न किसी रूप में दूसरे का सहयोग लिए बिना अपना जीवन चला नहीं सकता। गृहस्थी ही विभिन्न प्रकार से एक दूसरे का सहयोग नहीं लेते, गृहस्थ जीवन का त्याग करने वाले मुनि भी परस्पर सहयोग की अपेक्षा रखते हैं। अत: भगवती आराधना में कहा है‘‘सक्का हु संघमज्जे साहेदुं उत्तमं अट्ठं’’भगवती आरधना, आचार्य विशार्थ विरचित, सेठ लालचन्द्र हीराचन्द जैन, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर १९७८, श्लोक-१५५५ संघ के मध्य में उत्तमार्थ अर्थात् मोक्ष की आरधना करना सरल होता है । क्योंकि वहाँ साधना करने में परस्पर सहयोग मिलता है । मूलाचारद्रष्टव्य-मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन, डॉ. फूलचन्द ‘प्रेमी’, पाश् र्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८७, पृ.२९९ में भीं सामान्य रूप से संघ अथवा दो से अधिक श्रमणों के साथ विहार करने को श्रेयस् बताया है तथा एकाकी विहार की घोर निन्दा की है । वस्तुत: संयम पालन में परस्पर के आदर्शों और प्रेरणाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है इससे श्रमण अनेक दोषों से स्वाभाविक रूप में बचा रहता है । इसी दृष्टि से एकाकी जीवन का निषेध किया है और संघ साधना करने पर बल दिया गया है । श्रमण जीवन अध्यात्मशोध का सर्वोत्कृष्ट मार्ग है । सच्चा श्रमण समाज से जितना लेता हे, उससे कहीं अधिक देता। समाज को न्याय मार्ग का, धर्म का, सुसंस्कारी बनाने का उपदेश देकर श्रमण महान् उपकार करता है ।इन उपदेशों से मानव में परस्पर सौहार्द्र का, सहयोग का भाव पुष्ट होता हे जो समाज को सुदृढ़ बनाता है । सिद्धसेन गणि ने ‘‘परस्परोपग्रहो’’ शब्द की दो दृष्टि व्याख्या की है ।जिसमें ‘‘हितप्रतिपादनेनाहित—प्रतिषेधेन चोपग्रहं कुर्वन्ति’’तत्वार्थाध्गिमसूत्र भाष्य, टीकाकार-सिद्धसेन गणि, जीवन चन्द साकर चन्द जैन जवेरी, १९२६, ५.२१ प्रथम दृष्टि से हित प्रतिपादन और अहित के प्रतिषेध को उपकार कहा है तथा द्वितीय दृष्टि से ‘‘उपकारवचनस्य निमित्तार्थत्वात्’’वही, ५.२१ अर्थात् जीवो का परस्पर इष्ट व अनिष्ट करने मे निमित्त बनना उपकार है । ये दृष्टियाँ सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों को प्रस्तुत करती हैं। वे कहते हैं ‘‘परस्पराक्रिया सातत्येनेत्यत्र’’ इस संसार में जीवों की सतत रूप से परस्पर क्रियाएँ चल रही है । ये क्रियाएँ दूसरे जीव का हित सम्पादन करने वाली और अहितकारी भी हो सकती हैं।सिद्धसेनगणि की दृष्टि सूत्र की व्याख्या करने या मर्म को स्पष्ट करने की रही है, जबकि समाज केश् परिप्रेक्ष्य में लिखे जाने वाले इस आलेख में सकारात्मक दृष्टि को ही प्रमुखता दी गई है । जैनदर्शन मे प्रतिपादित ‘‘परस्परोपग्रहों जीवनाम्’’वही, ५.२१ सूत्र को सामाजिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो यह एक आदर्श सूत्र के रूप में स्थापित किया जा सकता है । इसके लिए निम्न कुछ तर्व दिए जा सकते हैं,यथा-
१. मानवीय सम्बन्ध एक दूसरे के सहयोग पर आश्रित हैं।
२. सम्पूर्ण जगत् में मानव ही एक ऐसा प्राणी है, जिसके विकास में कई तत्त्वों का योग होता है । जैसे-सभी प्राणी मात्र अपनी माँ का ही दुग्ध पान करते हैं, जबकि मानव अपनी माँ के अलावा गाय, भैंस, बकरी आदि का जीवन भर सेवन करता है । पशु, पक्षी आदि को स्वावलम्बी होने में कुछ महीने ही लगते हैं, दूसरी तरफ मानव शिशु को स्वावलम्बी बनने में कई वर्ष लग जाते हैं। इस प्रकार मानव अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक पराश्रित है । अत: उसे अधिक सहयोग लेने के एवज में दूसरों को अधिक सहयोग भी प्रदान करना चाहिए।
३. उपग्रह दो प्रकार के हैं। एक तो सहज उपग्रह जो प्राणी की शारीरिक क्रियाओं से होता है, जैसे -गाय के दूध, गोबर आदि से, प्राणियों द्वारा कार्बन डाई ऑक्साइड छोड़ने से, वनस्पतियों द्वारा ऑक्सीजन के उत्सर्जन से। दूसरे प्रकार का उपग्रह वह होता है, जिसमें विशेष प्रयत्न या भावना से परोपकार किया जाता है । जैसे-अपना कमाया हुआ धन दूसरों को देना, जीव रक्षा करना, दु:खी होने पर उसको सान्त्वना देना, क्रोध-विजय आदि का उपदेश देना आदि। विशेष प्रयत्न से उपग्रह मात्र मानव ही कर सकता है, अन्य प्राणी नहीं। मानव चूंकि सामाजिक प्राणी है, अतः उपग्रह करना या सहयोग करना उसका कर्तव्य बन जाता है ।
४. सहयोग के अभाव में जीवन मत्स्यन्याय की तरह है, जैसे बड़ी मछली छोटी को खा लेती है । इस न्याय पर यदि समाज अवलम्बित हो तो समाज का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। अत: सहयोग की भावना समाज का प्राण है ।
५. दूसरों की मदद करना ही स्वयं के लिए मदद प्राप्त करने का मार्ग है । इस दुनिया में ऐसा कोई अमीर नहीं जिसे कभी दूसरों की जरूरत ही न पड़े। यह परस्पर साक्षेपता ही ‘‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’’ लक्षण की सार्थकता सिद्ध करती है ।
६. दूसरों के प्रति तुच्छता का भाव और उच्चाकांक्षाएँ व्यक्ति के मन में कुण्ठाएँ उत्पन्न करती है । ये कुष्ठाएँ व्यक्ति को मानसिक रूप से विकृत कर देती हैं और समाज को भी प्रभावित करती हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्ति को अपने जीवन में यदि दूसरों की महत्ता और पर-उपग्रह की आवश्यकता का बोध हो तो वह इन विकृतियों का निराकरण करने में समर्थ होता है ।
७. पाश्चात्त्य मनोविज्ञान में सामान्यतया व्यक्ति का १४ मूल प्रवृत्तियाँ मानी गईं — १. भय २. घृणा ३.जिज्ञासा ४ आक्रामकता ५. मान ६. आत्महीनता ७. मातृव्य की संप्रेरणा ८. समूह-भावना ९. संग्रहवृत्ति १०.रचनात्मक ११.भोजनान्वेषण १२ काम १३.शरणागति १४.हास्य । इन चौदह प्रवृत्तियों में समूह भावना समाज की आवश्यकता को प्रकट करती है । यही कारण है कि समाज में अलग रहकर एकाकी जीना मानव के लिए दुष्कर है, क्योंकि वह अपने जीवन में सदैव दूसरे की अपेक्षा रखता है । हम देखते भी हैं कि बच्चे को बड़े होने में माँ—बाप की अपेक्षा रहती है तो बूढे माँ—बाप को बच्चे से सेवा की अपेक्षा रहती है । इसी सम्बन्ध में जैनाचार्य पूज्यपाद कहते हैं-‘‘स्वामी तावद्वित्तत्यागादिना भृत्यानामुपकारे वर्तते। भृत्याश्च हितप्रतिपादनेनाहितप्रतिषेधेन च । आचार्य उभयलोकफलप्रदोपदेशदर्शनेन तदुपदेशविहितक्रियानुष्ठापनेन च शिष्याणमनुग्रहे वर्तते। शिष्या अपि तदानुकूलवृत्त्या। आचार्यणाम् ’’ सर्वार्थसिद्धि, पूज्यपाद, सं. पं. फूलचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, १९४४, अध्याय-५, सूत्र-२१ अभिप्राय यह है कि सेवक को स्वामी से धन प्राप्त करने की तथा स्वामी को सेवक से कार्य करने की अपेक्षा होती है । आचार्य हितकारी उपदेश से शिष्य का भला करते हें तो बदले में शिष्य गुरु के प्रति अनुकूल व्यवहार कर सहयोग करता है । इस प्रकार परस्पर सहयोग की भावना आदर्श समाज की नींव है ।
८. महावीर की देशना के सम्बन्ध में कहा गया है-‘‘सव्वजगजीवरक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं’’प्रश्नव्याकरण सूत्र, श्रुतस्कन्ध-२ अध्ययन-१, सूत्र-७, ब्यावर, १९९३ अर्थात् जगत् के समस्त प्राणियों की रक्षा और दया के लिए ही भगवान् की धर्म देशना प्रस्पुटित हुई थी। यहाँ उपग्रह का भाव परिलक्षित होता है । केवलज्ञान प्रकट होने के बाद उनकी मुक्ति में अब कोई साधक या बाधक नहीं बन सकता था, ऐसा समझकर भी भगवान् के द्वारा उपदेश देना, ‘परोपग्रह’ को संसारी जीवों के लक्षण के रूप में सिद्ध करता है ” भगवान महावीर के अनेकान्त-सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में सापेक्षता का सिद्धान्त प्रतिपादित होता है ।सापेक्षता अर्थात् एक दूसरे की अपेक्षा या परस्पर सहयोग की आवश्यकता । इसी सिद्धान्त पर समाज अवलम्बित है, अत: समाज का मतलब ही है सापेक्षता। एक उदाहरण से हम इसको समझ सकते हैं। हम जो वस्त्र प्रयोग करते हैं, वह किसी निरपेक्षता से नहीं बना। एक कपड़े के निर्माण में कितनी अपेक्षा है । पहले कपास बोया गया,फिर उसके लिए धूप और पानी की अपेक्षा हुई। बहुत श्रम के बाद कपास रूई में परिर्वितत हुआ। वह रूई विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजरती हुई। वस्त्र में परिर्वितत हुई, इसके एक-एक क्रम पर विचार करें तो सापेक्षता का सिद्धान्त स्पष्ट हो जाएगा । निरपेक्षता की स्थिति में जीना कठिन होता है । अत: अपेक्षा के सिद्धान्त को समझने की परमावश्यकता है । सापेक्षता की समझ के अभाव में प्रतिक्रिया मन में जगती है, हिंसा का भाव पैदा होता है ।ये भाव ही समाज में हिंसा, झूठ, चोरी, व्याभिचार, डवैती, आतंकवाद जैसी समस्याओं को उत्पन्न करते हैं। इन समस्याओं का मूल क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्धेष आदि से आविष्ट जीव है । राग-द्धेष से युक्त एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय जीवों में मानव ही एक ऐसा प्राणी है जो अपनी समझ से आवेशों पर नियन्त्रण कर सकता है, कोई पशु-पक्षी क्रोध आने पर क्रोधित न हो अर्थात् अपने पर नियन्त्रण कर ले यह संभव नहीं है और इससे निम्न जाति वाले जीव मे तो प्रश्न ही नहीं उठता। राग-द्वेष से युक्त मानव में परस्पर हितों का टकराव न हो इसके लिए जैन धर्म अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि व्रतों के पालन पर बल देता है । इन व्रतों के पालन से मानव परस्पर उपग्रह कर एक सुन्दर समाज का निर्माण कर सकता है ।
अहिंसा व्रती प्रतिज्ञा लेता है कि मैं मन, वचन, काय से किसी भी निरपराध एवं निर्दोष त्रस प्राणी को जानबूझ कर हिंसा न स्वयं करुंगा। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति रूप स्थावर जीवों की हिंसा भी व्यर्थ एवं अमर्यादित रूप में न करूँगा और न कराऊँगा। इस प्रकार की अहिसा वृत्ति को अपनाने वाला व्यक्ति न अफवायें फैलाता है, न दंगे फसाद करवाने में अपनी भूमिका रखता है, न मन के प्रतिकूल होने पर हिंसात्मक विरोध करता है अपितु सम्यक् प्रकार से अपनी बात रखता है, न दूसरों को हिंसा के लिए उकसाता है, न अपराधियों को पनाह देता है । वह अपने जीवन में अधिकारों के नाम पर, आरक्षण के नाम पर, जातिवाद के नाम पर, सम्प्रदाय वाद के नाम पर होने वाली हिंसा से दूर रहता है और उसका यही प्रयत्न रहता है कि जो समाज में हिंसा फैलाने वाले हैं उनको समझाबुझाकर शान्त किया जाय। वे जानते हैं कि हिंसा बड़ी भयावह होती है, क्षणिक आवेश का प्रतिफल होती है, उससे कोई लाभ होने वाला नहीं है, अत: अहिंसक शैली को जीवन में अपनाना श्रेयस्कर है । वह मानव, पशु, पक्षियों के प्रति तो अहिंसा का पालन करता ही है । अपितु प्राकृतिक संसाधनों का भी सीमित उपयोग करता है । जैसे जल का अपव्यय नहीं करता फूल पत्तियाँ भी अनावश्यक काय से नहीं तोड़ता वृक्षों को काटने का भी वह विरोध करता है, पृथ्वी के संसाधनों के दोहन करने का समर्थक नहीं होता। अत: अहिंसा व्रत के पालन से श्रावक समाज पर बड़ा उपकार करता है ।
वस्तु स्थिति को सम्यक् रूप से प्रकट करना, झूठ न बोलना, मन-वचन कर्म में एकता रखना सत्यव्रत है । सत्यव्रती समाज में प्रतिष्ठा पाता है और वह दूसरों के लिए आदर्श होता है ।व्यापार, धंधा, नौकरी, जिस किसी कार्य को करता है, उसे ईमानदारी और निष्ठा के साथ करता है । वह कालाबाजारी, मुनाफाखोरी, रिश्वतखोरी ठगाई जालसाजी, झूठे दस्तावेज, झूठे अरोप लगाना किसी के साथ विश्वासघात करना जैसे समाज विरोधी कार्य नहीं करता है ।सत्यनिष्ठ व्यक्ति के आस-पास के वातावरण में शुद्धि होती है, वहाँ बेईमानी अपना सिर नहीं उठा सकती। सत्य बोलने वाला सत्यव्रत अनुष्ठान से शांति , उन्नति और संतोष प्राप्त करता है तथा सत्य के आचरण द्वारा समाज के अन्य व्यक्तियों को भी प्रेरित करता है, जिससे वे भी सत्यनिष्ठ बनते हैं।
दूसरे की सम्पत्ति पर अनुचित अधिकार करना चोरी है । मनुष्य को अपनी आवश्यकताएँ अपने पुरुषार्थ के द्वारा प्राप्त हुए साधनों से ही पूर्ण करनी चाहिए। यदि कभी प्रसंगवश दूसरों से भी कुछ लेना हो तो वह सहयोगपूर्वक मित्रता के भाव से दिया हुआ ही लेना चाहिए। किसी भी प्रकार का बलाभियोग अथवा अधिकार शक्ति का उपयोग कर कुछ लेना, लेना नहीं है, छीनना है, चोरी है । अचौर्यव्रती राजकर की चोरी न कर, कानून विरोधी कार्य न कर, झूठे तोल माप न कर, मिलावट नहीं कर, चोरी का माल नहीं खरीदकर और चोर की सहायता नहीं कर समाज में नैतिक आचरण को प्रोत्साहन देता है ।
‘‘मैं स्वपत्नी संतोष के अतिरिक्त अन्य सभी प्रकार का व्यभिचार न स्वयं करुँगा और न ही दूसरों से कराउँगा। अपनी पत्नी के साथ भी अतिसंभोग नहीं करूँगा।’’ इस प्रतिज्ञा को ग्रहण कर आंशिक रूप से ब्रहचर्य पालन करने वालों का जीवन संयमित होता है । वह शारीरिक, मानसिक और अध्यात्मिक रूप से पवित्र होता है, ऐसे व्यक्तित्व के द्वारा मानव-समाज सुख और शांति को प्राप्त होता है ।
आवश्यकता से अधिक धन, सम्पत्ति, भोग, सामग्री आदि किसी भी प्रकार की वस्तुओं का ममत्व मूलक संग्रह करना परिग्रह है । आवश्यक वह वस्तु है जो सामाजिक, आध्यात्मिक एवं नैतिक उत्थान रूप से जरूरी हो और जिससे मनुष्य की जीवन यात्रा निर्विघ्नतापूर्वक चल सके। जो गृहस्थ इस नीति मार्ग पर चलते हैं, वे स्वयं तो सुखी रहते हैं और समाज में भी सुख का प्रवाह बहाते हैं। परन्तु जब इस नियम का यथार्थ रूप से पालन नहीं होता है तो समाज में विषमता उत्पन्न हो जाती है ।यदि प्रत्येक मनुष्य के पास केवल उसकी आश्यकताओं के अनुरूप ही सुख-सुविधा की साधन सामग्री रहे तो कोई मनुष्य भूखा, गृहहीन व असहाय न रहे। अन्यथा अत्यधिक विषमता बढ़ने पर धनाढ्य व्यक्ति के साधनों पर गरीब लूटपाट मचायेंगे, छीन लेंगे। ऐसी स्थिति आने से पूर्व ही अपरिग्रहव्रत के माध्यम से पर उपकार करके वह स्वयं भी उपकृत हो सकता है । इस तरह श्रावक इन व्रतों के पालन से दूसरों को बाधित न कर उपग्रह करता है । अत: उपग्रह करने का अभिप्राय वस्तुओं का आदान प्रदान, उपदेश देना, सहयोग आदि तक ही सीमित नहीं है अपितु दूसरों की सम्यक् प्रवृत्यिों में बाधा न पहुँचाना भी परोपकार है । इस प्रकान जैन आचार संहिता समाज मे एक ऐसी व्यवस्था देती है, जिसका प्रत्येक मानव द्वारा पालन किये जाने पर समाज में एक ऐसी व्यवस्था देती है, जिसका प्रत्येक मानव द्वारा पालन किये जाने पर समाज में कभी—कभी कोई समस्या पैदा होने की संभावना नहींवत् रहती है । हिंसा झूठ, चोरी व्यभिचार आदि पाप क्रियाएँ करने के पूर्व व्यक्ति पहले स्वयं के मन को मलिन करता है फिर ये क्रियाएँ करता है । जैसे किसी को मारने से पहले स्वयं में द्वेष की प्रबल भावना जगाकर बाद में हत्या करता है ।यह द्वेष की भावना दु:ख उत्पन्न करने वाली है, मन की शांति को भंग करने वाली है, इस तरह व्यक्ति अपनी हानि किये बिना दूसरे की हानि करने में समर्थ नहीं बनता है । हिंसादि के माध्यम से दूसरे व्यक्ति में भी इन पाप क्रियायों को बदले की भावना के रूप में बढ़ाकर सहयोग करता है । वह दूसरा व्यक्ति भी पुन: हिंसा, क्रोध आदि करके समाज में विकृतियाँ पैदा करता है । अत: हिंसा आदि पाप क्रियाओं को न करके स्व और पर दोनों के लिए उपकार करता है । इस प्रकार व्रतों के पालन से परस्पर उपग्रह निसर्गत: होता है ।
आधुनिक समाज में ‘परस्परोपग्रह’ सिद्धान्त की आवश्यकता- परस्परोग्रह सिद्धान्त के द्वारा जैन दर्शन ने मनुष्यों की पारस्परिक सहानुभूति या दया को महत्त्व दिया है । यह साहनुभूति और दया समाज का आधार है । आज के समाज की यह प्रथम जरूरत है । क्योंकि चारों तरफ शिक्षा के माध्यम से प्रत्येक क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा बढायी जा रही है । यह प्रतिस्पर्धा दूसरे से अपने को श्रेष्ठ साबित कराने की प्रवृत्ति को जन्म दे रही है । इस प्रवृत्ति से एक मानव का दूसरे मानव के प्रेम का व्यवहार समाप्त हो रहा है और उसका स्थान ईर्ष्या, द्वेष और घृणा ले रही है ।ये ईष्र्या, द्वेष आदि के बीज आंतकवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, हत्या, चोरी, न जाने किन-किन समस्याओं के रूप में हमारे सामने आ रहे हैं। जो मानव समाज के आधारभूत सिद्वान्तों को खण्डित कर रहे हैं। मानव-समाज का लक्ष्य यही रहा है कि वे समूह में रहकर एक-दूसरे के सहयोग से अपना विकास करें, अपना निर्माण करें। प्रसिद्ध चिन्तक बर्टण्ड रसेल का भी मत है कि शिक्षा के क्षेत्र में प्रतियोगिता की प्रवृत्ति से दो मुख्य दोष उत्पन्न होते हैं-प्रथम तो हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ती है और दूसरा परस्पर सहयोग की भावना ही समाप्त हो जाती है । सहयोग की भावना की न्यूनता परस्पर सामंजस्य में कमी कर देती है । सामंजस्य की कमी से समाज का ढांचा चरमरा जाता है । आजकल प्रतिस्पर्धा की प्रवृत्ति बाल्यकाल से ही बच्चों में विकसित हो रही है क्योंकि पूरे समाज की व्यवस्था प्रतियोगिता पर अवलम्बित है । व्यापार का क्षेत्र हो, चाहे पारिवारिक क्षेत्र हो, चाहे राजनीति का क्षेत्र हो यहाँ तक कि र्धािमक क्षेत्र भी अछूता नहीं है । अत: प्रतिस्पर्धा को कम कर परस्पर सहयोग की भावना को बढ़ाने पर बल देना चाहिये। आधुनिक समाज में संयुक्त परिवारों का विघटन हो रहा है ।पहले व्यक्ति और परिवार एक दूसरे से इतने समबद्ध होते थे एक दूसरे से नाता तोड़ लेना, सम्बन्ध विच्छेद कर लेना, माँ-बाप को अन्यत्र भेज देना जैसे कार्य करने की हिम्मत नहीं होती थी। ऐसा करने पर समाज से निष्कासित कर दिया जाता था। इक्कीसवीं शती के समाज में इसके विपरीत एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति की, एक परिवार से दूसरे परिवार की सम्बद्धता कम होती जा रही है । फलस्वरूप अपनी पत्नी,माता-पिता के प्रति कर्तव्य का निर्वाह नहीं करने पर भी व्यक्ति को कुछ नियमों के आधार पर उनसे छुटकारा मिल जाता है । अत:स्वकेन्द्रित वातावरण के आधुनिक समाज में जैन दर्शन व ‘परस्परोपग्रहो जीवनाम् ’ सूत्र हो सकता है ।