भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर-विश्व के क्षितिज पर
वैदिक ग्रंथ मनुस्मृति के एक श्लोक से मैं इस ऐतिहासिक यात्रा का शुभारंभ करती हूँ-
यत्र योगेश्वरो कृष्ण:, यत्र पार्थो धनुर्धर:।
तत्र श्रीविजयोभूतिधु्र्रवानीतिर्मतिर्मम।।
अर्थात् धृतराष्ट्र के समीप बैठे एक संजय नामक दिव्यज्ञानी पुरुष ने कुरुक्षेत्र में चल रहे कौरव-पांडव के युद्ध को अपने दिव्यचक्षु से देखकर कहा कि-हे राजन्! जहाँ साक्षात् योगेश्वर नारायण श्री कृष्ण मौजूद हैं, जहाँ धनुर्विद्या में प्रवीण अर्जुन महारथी ने धनुष-बाण संभाल रखा है, वहाँ विजयश्री उन्हीं को प्राप्त होगी, ऐसी मेरी निश्चित मान्यता है। प्रिय पाठकों! उपर्युक्त उदाहरण के अनुसार ही वर्तमान में पूरे जैन समाज की यह निश्चित धारणा बन गई है कि ‘‘जिस कार्य को योगीश्वरी के रूप में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने हाथ में ले लिया है एवं मूर्तरूप देने में कर्मठ पार्थ जैसे कार्यकर्ता जुट गये, तो समझो वह कार्य निश्चितरूप से अपूर्व सफलता के साथ पूर्ण होना ही है।’’ वह कार्य चाहे शिष्य निर्माण का रहा, साहित्य सृजन का रहा, जंबूद्वीप रचना निर्माण का रहा या अन्य तीर्थों के निर्माण, विकास एवं जीर्णोद्धार का रहा, सभी के द्वारा ज्ञानमती माताजी की पहचान एक फौलादी व्यक्तित्व के रूप में बन चुकी है। इन अनेक विशेषताओं से समन्वित पूज्य माताजी ने यूँ तो अपने ५३ वर्ष के संयमी जीवन में लगभग पूरे देश में भ्रमण करके अनेक तीर्थयात्राएँ सम्पन्न की हैं, तथापि भगवान महावीर स्वामी की जन्मभूमि कुण्डलपुर की यह यात्रा विशेषरूप से ऐतिहासिक यात्रा इसलिए बन गई कि इसमें मात्र तीर्थयात्रा का भाव नहीं वरन् इतिहास एवं संस्कृति के संरक्षण का मूल लक्ष्य समाविष्ट है। जैसे-आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने जिनधर्म की रक्षा हेतु संघ सहित गिरनार सिद्धक्षेत्र की वंदना की थी और अकलंक देव ने जिनधर्म की प्रभावना हेतु तारादेवी से शास्त्रार्थ किया था। इसी प्रकार प्राचीन परम्परा एवं आर्ष ग्रंथानुसार भगवान महावीर जन्मभूमि के उपेक्षित स्वरूप को विकास का नया आयाम देने हेतु ही ज्ञानमती माताजी ने कुण्डलपुर यात्रा का संकल्प लिया। संभवत: दूरगामी भविष्य को देखते हुए ही वर्तमान के विद्वत् शिरोमणि प्राचार्य श्री नरेन्द्रप्रकाश जैन-फिरोजाबाद (उ.प्र.) प्राय: सभाओं में भी कहा करते हैं कि ‘‘पूज्य ज्ञानमती माताजी ने अपने जीवन में जितने भी कार्य किये हैं, वे सभी तराजू के एक पलड़े पर रखे जायें और कुण्डलपुर विकास प्रेरणा का कार्य दूसरे पलड़े पर रखा जाये तो मेरी दृष्टि में दूसरा पलड़ा भारी रहेगा क्योंकि युग-युग तक उनकी यह देन जैनसमाज ही नहीं, विश्व के लिए अविस्मरणीय हो गई और प्राचीन वास्तविक जन्मभूमि की रक्षा का यह कार्य वास्तव में ऐतिहासिक है।’’ नूतन इतिहास का निर्माण एवं प्राचीन इतिहास की रक्षा करने वाले विरले महापुरुषों में ज्ञानमती माताजी ने सचमुच इस युग में कीर्तिमान स्थापित किया है जो श्रद्धालुओं के लिए श्रद्धास्पद रहा एवं कतिपय असहिष्णु व्यक्तियों के लिए निंदास्पद होने से तीव्र कर्मबंध का कारण भी बना।
कुण्डलपुर के लिए विहार की बात सुनकर दिल्लीवासी अधीर हो उठे- १३ फरवरी २००२ का वह शुभ दिन, जहाँ कुण्डलपुर के विकास की नूतन कथा का प्रारंभीकरण था, वहीं दिल्लीवासियों के लिए आश्चर्यमिश्रित दु:ख का कारण था। विहार की बात सुनते ही वे अधीर हो उठे। महिला संगठन की अध्यक्षा श्रीमती आशा जैन को सुनकर तो गहरा धक्का लगा कि कहाँ तो हम लोग मार्च में महिला संगठन का इतना भव्य कार्यक्रम माताजी की प्रेरणा एवं सानिध्य में आयोजित कर रहे थे और कहाँ माताजी ने हमें छोड़कर इतनी दूर जाने का निर्णय ले लिया। मॉडल टाउन की सुलोचना जी रोने लगीं और भी अनेकों भक्तों की आँखों से अश्रुधारा बह निकली, अनेक लोग कहने लगे-माताजी! आप हमें इस जन्मजयंती महोत्सव वर्ष में जो भी कार्य बताएंगी, हम करेंगे, पर आप हमसे दूर मत जाइए। परन्तु दृढ़निश्चयी माताजी के मुख से निकला प्रत्येक शब्द पत्थर की लकीर के समान अमिट होता है अत: उन्होंने सभी को समझा-बुझाकर शांत कर दिया और देखते ही देखते विहार की वह पावन बेला भी आ गई पुन: २० फरवरी २००२ को पूज्य माताजी का राजाबाजार से मंगल विहार हो गया।
इण्डिया गेट से हुआ मंगल विहार- वह ऐतिहासिक दिवस बड़ा शुभ था जब प्रात:काल से ही अनेकों शुभ समाचार मिल रहे थे। विहार से पूर्व हुई विशेष सभा में अनेकों गणमान्य महानुभाव उपस्थित थे, जिनमें श्री निर्मल जी सेठी, श्री चव्रेश जैन, प्रो. रतन जैन, श्री सरोज जैन-तह. फतेहपुर, श्री वैलाशचंद जैन-लखनऊ रहे और सभी लोग इण्डिया गेट तक झण्डा लेकर अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक चले। कनॉट प्लेस से इण्डिया गेट तक पहुँची इस पदयात्रा में सभी के मुख पर प्रसन्नता थी कि भगवान महावीर की जन्मभूमि अब शीघ्र ही विश्व के मानस पटल पर छा जाएगी। पदविहार करने वाला प्रत्येक व्यक्ति भगवान महावीर एवं पूज्य माताजी के जयकारों से हर गली को अनुगुंजित कर रहा था। इण्डिया गेट पर पहुँचकर पूज्य माताजी ने देश के नाम अपना मंगल संदेश प्रसारित किया और फिर तो उस ऐतिहासिक स्थल से बढ़े माताजी के कदमों ने मानो कुण्डलपुर के इतिहास का प्रथम पृष्ठ ही लिख दिया।
संघपति की विनम्र प्रार्थना
पूज्य माताजी के कुण्डलपुर विहार की बात जब संघपति महावीर प्रसाद जी-बंगाली स्वीट सेंटर, दिल्ली ने सुनी, तो वे तुरंत बोल पड़े-माताजी! आपके विहार की बात सुनकर मुझे हर्ष और विषाद दोनों हो रहे हैं। विषाद तो इसलिए कि आप हम भक्तों को छोड़कर इतनी दूर जा रही हैं और हर्ष इसलिए कि अब आपके करकमलों से एक और तीर्थ का उद्धार होने वाला है। उन्होंने आगे कहा- माताजी! वैदिक महाभारत में यह वर्णन आता है कि जब कौरवों और पाण्डवों का युद्ध होने वाला था, तो श्रीकृष्ण ने दोनों पक्षों से एक-एक वर मांगने के लिए कहा था तो कौरवों ने अक्षौहिणी सेना मांगी थी जबकि पांडवों ने श्रीकृष्ण को ही मांग लिया था उसी प्रकार पूज्य माताजी! लोग भले ही सरकार द्वारा घोषित १०० करोड़ के अनुदान को पाने में लगे हुए हैं किंतु मैं तो समाज से आप जैसी तपस्वी साध्वी को पाने की इच्छा रखता हूँ, जिनके माध्यम से समय-समय पर हमें मार्गदर्शन प्राप्त होता रहे। पुन: उन्होंने वैदिक रामायण का भी एक उदाहरण प्रस्तुत किया कि जिस प्रकार चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात् जब रामचन्द्र अयोध्या में वापस आए, तो राम के राज्याभिषेक की तैयारियाँ की जा रही थीं। राज्याभिषेक से पूर्व श्री रामचन्द्र ने माता कौशल्या से कहा-माते! आज बहुत ही प्रसन्नता का दिवस है, इस अवसर पर मेरी इच्छा है कि राजतिलक की खुशी में चारों पुत्रवधुओं को भी कुछ न कुछ भेंट दी जाए। माता कौशल्या द्वारा सभी से पूछने पर किसी ने कुछ और किसी ने कुछ मांगा परन्तु शत्रुघ्न की पत्नी श्रुतिकीर्ति खामोश रहीं। उनसे पूछा गया कि आप भी कुछ मांगे, आप खामोश क्यों हैं? जब कई बार उनसे कहा गया तो वे बोलीं-पहले आप वचन दें कि मैं जो मांगूंगी, वह आप अवश्य देंगे। तब राम ने कहा-तुम अधिक से अधिक अयोध्या का राज्य मांगोगी, वह तो मैंने भरत-शत्रुघ्न को दिया हुआ ही है, अभी तो मैं उस सिंहासन पर बैठा भी नही हूँ। फिर भी मैं वचन देता हूँ कि तुम जो भी मांगोगी, मैं अवश्य दूँगा। इस प्रकार के वचनों को सुनकर श्रुतिकीर्ति आश्वस्त हो गर्इं और बोलीं-मुझे आप लोगों के वो वस्त्र चाहिए, जो आप लोगों ने वनवास में पहने थे, ताकि मैं भी आने वाली पीढ़ियों को बता सवूँâ कि हमारे वंश में ऐसे आज्ञाकारी महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने अपने सुखों की परवाह न करके अपने पिता के वचनों का पालन किया। उसी प्रकार माताजी! मुझे भी आपके कुण्डलपुर जाते समय आपकी एवं चंदनामती माताजी की वह पवित्र साड़ी चाहिए, जिसे पहनकर आप लोगों ने कुण्डलपुर के विषय में चिंतन किया है क्योंकि यह सब सिद्धायिनी देवी की प्रेरणा का फल है। आपकी ये पवित्र साड़ी मेरे परिवार की भावी पीढ़ी को भी आप जैसे महान गुरुओं की भक्ति करने की प्रेरणा प्रदान करती रहेगी। इसके साथ ही उन्होंने एक पंक्ति भी गुनगुनाई- ‘‘रहके साथ तुम्हारे मैंने मांग लिए कुण्डलपुर के भगवान’’
२६०१/-की राशि कुण्डलपुर के लिए वरदान बन गई-यूँ तो भारत जैसे धर्मपरायण देश में अनेक ऐसे धर्मपरायण श्रेष्ठी उपस्थित हैं, जो चाहें तो केवल अपने ही धन से एक-एक तीर्थ को विकसित कर सकते हैं परन्तु माताजी का सदैव यही कहना रहता है कि तीर्थ विकास में जन-जन की भावनाएँ जुड़नी चाहिए, जिससे प्रत्येक श्रावक को यह लगे कि यह तीर्थ मेरा है और मैंने भी इसमें अपनी कुछ अर्थांजलि समर्पित की है। फिर बिना सबके सहयोग के तीर्थविकास संभव नहीं है। अत: जन-जन की भावनाएँ उस तीर्थ के साथ जोड़ने के उद्देश्य से भगवान महावीर के २६०० वर्षों के प्रतीकरूप २६०१/- की अनुदान राशि की घोषणा की गई। फिर तो देखते ही देखते २६०१/- की राशि देने वालों की लाइन लग गई, जिसमें सर्वप्रथम राशि देने का सौभाग्य श्री महेन्द्र जैन, मुकेश जैन, जिनेन्द्र प्रसाद जैन-ठेकेदार परिवार ने प्राप्त किया। इस प्रकार उस २६०१/-की राशि ने बूंद-बूंद से सागर भरने की सूक्ति को चरितार्थ करते हुए कुण्डलपुर तीर्थ को साकार रूप दे दिया।
एक श्राविका की दान भावना–चूँकि अब पूरा वातावरण कुण्डलपुरमय हो रहा था अत: प्रत्येक दर्शनार्थी को भगवान महावीर की जन्मभूमि के बारे में बताते हुए उन्हें उससे जुड़ने की प्रेरणा दी जा रही थी। इसी मध्य एक दिन वहाँ की योजना पर प्रकाश डाला जा रहा था, तभी दिल्ली में रहने वाली श्रीमती अंजू जैन ध.प. श्री विकास जैन (ब्र. रवीन्द्र जी की भतीजी) ने तीन चौबीसी मंदिर की एक प्रतिमा की स्वीकृति करते हुए कहा कि माताजी! मेरी ओर से भी कुण्डलपुर में एक प्रतिमा रहेगी। मैंने उससे कहा कि अंजू! अपने पति से एक बार पूछ लो, तब वह कहने लगी कि क्या हुआ अगर मैं एक गहने का सेट कम पहन लूँगी। अगर मेरे द्रव्य से ऐसे महान तीर्थ के विकास में कुछ योगदान लगता है और प्रतिमा विराजमान करने का मुझे पुण्य प्राप्त होता है, तो मुझे खुशी होगी। यह सुनकर मुझे बड़ी खुशी हुई और मन में आया कि ऐसी दान भावना प्रत्येक गृहिणी के लिए प्रेरणास्पद है।
मागीतुंगी सिद्धक्षेत्र पर १०८ फुट विशालकाय मूर्ति निर्माण हेतु शिलापूजन
३ मार्च २००२ को ९९ करोड़ महामुनियों की निर्वाणभूमि महाराष्ट्र प्रांत के मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र के पर्वत की अखण्ड शिला में भगवान ऋषभदेव १०८ फीट विशालकाय मूर्ति निर्माण हेतु शिलापूजन समारोह में भाग लेने हेतु २७ फरवरी को ब्र. रवीन्द्र जी पूज्य माताजी के शुभाशीर्वाद के साथ रवाना हुए, उस समय मैंने खूब मांगलिक मंत्र पढ़ते हुए यही भावना व्यक्त की कि युग का इतिहास बनाने वाली इस युवा शक्ति को भगवान बहुत शक्ति दें और ये खूब स्वस्थ व चिरायु रहें। पुन: १ मार्च को दिल्ली से लगभग ८० महानुभाव एवं संघस्थ ब्रह्मचारिणी कु. बीना, कु. इन्दु एवं कु. मंजू भी रवाना हुए। यहाँ एक घटना उल्लेखनीय है कि फरवरी में अहमदाबाद के गोधरा काण्ड से सभी जगह भय व्याप्त था अत: दिल्ली से मांगीतुंगी जाने वाले यात्रियों की एक रेलबोगी जो पहले से बुक हो चुकी थी, उसके व्यवस्थापक भी जिम्मेदारी से कुछ घबराने लगे, तो माताजी ने सबको निर्भय होकर जाने की प्रेरणा दी और रेलवे स्टेशन पर मंत्रित कलावा सभी यात्रियों के हाथ में बंधवा दिया, फलस्वरूप सभी की यात्रा निर्विघ्न सम्पन्न हुई। ३ मार्च २००२ को इस विशालकाय मूर्ति का शिलापूजन समारोह संघपति लाला महावीर प्रसाद जैन-संघपति, बंगाली स्वीट सेंटर-दिल्ली (सपरिवार) द्वारा सानन्द सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर विशाल धर्मसभा में दूर-दूर से हजारों श्रद्धालु भक्त मांगीतुंगी पधारे। समारोह की अध्यक्षता माननीय श्री वी.धनंजय कुमार जैन (केन्द्रीय टेक्सटाइल राज्यमंत्री-भारत सरकार) ने की तथा विशिष्ट अतिथि श्री अरुण भाई गुजराती-सभापति विधान सभा (महा. सरकार), श्री स्वरूप सिंह नाइक-वनमंत्री महाराष्ट्र राज्य, श्री प्रकाश कल्लपप्पा अवाड़े-वस्त्रोद्योग एवं आदिवासी राज्यमंत्री (महा.), श्री राजेन्द्र दर्डा-ऊर्जा राज्यमंत्री (भारत सरकार), श्री ए.टी.पवार -वन राज्य मंत्री (महाराष्ट्र राज्य), श्री चन्द्रकांत खैरे-सांसद, श्री शंकर राव अहिरे-विधायक,श्री राजेन्द्र जी पाटनी वाशिम-विधायक मुख्य रहे। आगत मंत्री महोदय ने एक स्वर से भव्य प्रतिमा के निर्माण में केन्द्र सरकार एवं महाराष्ट्र सरकार द्वारा अपना पूर्ण सहयोग प्रदान करने का आश्वासन देते हुए इस भव्य प्रतिमा द्वारा सम्पूर्ण विश्व में शांति की कामना के साथ पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का वंदन करते हुए इस कार्य की प्रशंसा की। इस अवसर पर अनेक विशेष सहयोगी इंजीनियर, भूगर्भशास्त्री भी उपस्थित थे। सभा का मंगलाचरण संघस्थ बहनों कु. बीना व इन्दू ने किया तथा सभा का संचालन डॉ. पन्नालाल पापड़ीवाल महामंत्री-मूर्ति निर्माण कमेटी ने किया। कार्यक्रम में उपस्थित पूज्य आर्यिकारत्न श्री श्रेयांसमती माताजी का आशीर्वाद भी सभी को प्राप्त हुआ व अनेक भक्तों ने इस विशालमूर्ति निर्माण हेतु दानराशि घोषित की। लगभग १० हजार की जनता को देखकर नेता भी चकित हो उठे तथा शिलापूजन में भाग लेने वाले सभी अतिथियों का भावभीना स्वागत किया गया।
किं न स्यात्साधुसंगमात्-महापुराण ग्रंथ में ६२वें सर्ग में लिखा है कि साधु समागम से सब कुछ संभव है, यही बात होडल की ओर विहार करते समय चरितार्थ हुई। बल्लभगढ़ से ३-४ पुरुष और १ महिला रोज मेरे साथ पद विहार करने हेतु आते थे, एक दिन बातों-बातों में पता लगा कि उनमें से २-३ पुरुषों को कोई न कोई व्यसन है पुन: जब मैंने उन्हें प्रेरणा प्रदान की, तो उन्होंने तुरंत ही मेरी बात मान ली और उनमें से एक ने तम्बाकू, एक ने गुटखा और एक ने शराब का हमेशा के लिए त्याग कर दिया। अनेक भव्यात्माओं ने लिए ‘‘मनोकामना सिद्धि महावीर व्रत’’- जिस मनोकामना सिद्धि महावीर व्रत ने मेरे मनोभावों को फलीभूत किया, उस महान व्रत को हजारों लोग ग्रहणकर अपनी मनोकामनाओं को सफलीभूत करें, ऐसी मेरी हार्दिक भावना थी, अत: माताजी की आज्ञा से मैंने स्थान-स्थान पर अनेकों श्रावक-श्राविकाओं को इस व्रत का महत्त्व बताया। फिर तो अनेकों स्त्री-पुरुषों ने इस व्रत को ग्रहण किया, आगरा शहर में तो एक स्थान पर १५० लोगों ने ‘‘महावीर व्रत’’ को ग्रहण किया। इसी प्रकार अनेकों स्थानों पर हजारों लोगों ने इस व्रत को ग्रहण किया, जिसमें से कई भाई-बहनों के व्रत पूर्ण भी हो चुके हैं और कुछ लोग तो २-३ बार इस व्रत को कर चुके हैं और इसके प्रत्यक्ष चमत्कार का वर्णन करते नहीं थकते हैं। =
कुण्डलपुर जैन तीर्थ के मंत्री अजय जी के द्वारा तीर्थ विकास की विस्तृत चर्चा-१० मार्च को हम लोग छटीकरा नामक छोटे से ग्राम के पंचायत भवन में ठहरे हुए थे, वहाँ पटना से कुण्डलपुर तीर्थ के मानद मंत्री अजय कुमार जैन एवं राजगृही के मैनेजर माताजी के दर्शनार्थ पधारे। उस समय अजय जी ने माताजी को बताया कि किस प्रकार वैशाली स्थापना के बाद कुण्डलपुर को उपेक्षित किया गया किन्तु फिर भी वैशाली का न जाने कैसा योग रहा कि अनेक प्रयत्नों के बावजूद भी उसका विकास नहीं हो पाया। पुन: जब पूज्य माताजी से उनकी कुण्डलपुर विकास के संदर्भ में विस्तृत चर्चा हुई, तो सारी बात होने के बाद अजय जी मुझसे बोले कि माताजी! आज बड़ी माताजी से बात करके मेरा दिमाग एकदम ठीक हो गया और मेरा हो गया है।
सिद्धक्षेत्र चौरासी मथुरा में मंगल पदार्पण-११ मार्च को प्रात: ९.३० बजे अंतिम अनुबद्ध केवली श्री जम्बूस्वामी की निर्वाणभूमि चौरासी मथुरा तीर्थ पर पहुँचकर मंदिर दर्शन कर मन आल्हादित हो उठा। यहाँ आकर पता लगा कि आज से २०० वर्ष पूर्व यहाँ खुदाई में जिस स्थान पर जम्बूस्वामी के पाषाण चरण मिले हैं, तब से उसी स्थान पर तीर्थ बनाया गया है, उससे पूर्व यह तीर्थ नहीं था, हाँ! गाँव में अवश्य मंदिर रहे होंगे। यहाँ तीर्थ पर लगे शिलालेख में लिखा है कि जम्बूस्वामी ने ८४ वर्ष की आयु में ८४ लाख योनियों से छूटकर यहाँ से मोक्ष प्राप्त किया था, इसलिए इस क्षेत्र का ‘‘चौरासी मथुरा’’ नाम पड़ा। शाम ४ बजे पूज्य माताजी एवं हम सभी ने क्षेत्र परिसर का भ्रमण किया। १२ मार्च को मथुरा के जिनमंदिर में पूज्य माताजी ने जम्बूस्वामी के श्रीचरणों में केशलोंच किया। इस अवसर पर बल्लभगढ़, फरीदाबाद, पलवल, कामा, भरतपुर, कोसीकलां आदि स्थानों से बसों द्वारा काफी लोग इस केशलोंच समारोह को देखने हेतु पधारे। दिल्ली से संघपति लाला महावीर प्रसाद जी (सपत्नीक), प्रेमचंद जी, कमलचंद जी, अनिल जी, सत्येन्द्र जी, जिन्नो जी आदि कई लोग पधारे तथा समारोह के बाद जब कुण्डलपुर के शिलान्यास संबंधी मीटिंग हुई, तो कमलचंद जी-खारीबावली ने प्रसन्नमना होकर दिल्ली से पूरी एक रेलबोगी नि:शुल्क ले जाने एवं भोजन आदि संबंधी व्यवस्था अपनी ओर से करने की स्वीकृति प्रदान की। मथुरा के ६ दिवसीय प्रवास में जहाँ हमने जिनमंदिरों के दर्शन के साथ-साथ कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा संग्रहालय, कंकाली टीला आदि का अवलोकन किया, वहीं आचार्य श्री सुबलसागर महाराज की शिष्याओं-आर्यिका श्री अजितमती माताजी एवं सुमतिमती माताजी से मिलकर मन में बड़ी खुशी हुई। सरल स्वभावी माताद्वय पूज्य ज्ञानमती माताजी के दर्शन कर भावविभोर हो गर्इं और माताजी से दूर होते समय इनकी आँखों में अश्रु आ गए। वास्तव में साधु-साध्वियों का पारस्परिक मिलन भी बड़ा रोमांचक और वात्सल्यमयी रहता है।
ताज नगरी आगरा में संघ का मंगल पदार्पण एवं महती धर्मप्रभावना-मुगल सम्राट् शाहजहाँ और उनकी बेगम मुमताज के युग की याद दिलाती ताज नगरी आगरा जहाँ पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र है, वहीं यह धर्मपरायण नगरी के रूप में भी जानी जाती है, जहाँ अनेकों जिनमंदिर जैनत्व की पताका को फहरा रहे हैं। २० मार्च को संघ का मंगल पदार्पण प्रभावनापूर्वक आगरा शहर में हुआ। हरिपर्वत कालोनी के शांतिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर में दर्शन के पश्चात् परिसर में निर्मित विशाल हॉल में प्रवचन सभा हुई। आगरा की दिगम्बर जैन परिषद यहाँ की सबसे प्रमुख संस्था मानी जाती है। प्रवचन सभा में क्षुल्लक मोतीसागर जी ने अपने ओजस्वी प्रवचन में आगरावासियों को कुण्डलपुर के विकास अभियान के साथ जोड़ने हेतु आह्वान किया तथा उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि यह कुण्डलपुर जन-जन के २६०१ रु. के सहयोग से निर्मित किया जा रहा है और पूरे देश की जनता के साथ-साथ आगरावासियों के भी अधिक से अधिक नाम कुण्डलपुर की इस विकास योजना में आना चाहिए। उनके उद्बोधन के पश्चात् परिषद के महामंत्री तथा सभा के कुशल संचालक श्री जितेन्द्र जी ने पूरी आगरा समाज को सम्बोधित करते हुए कहा कि पूज्य माताजी द्वारा कुण्डलपुर विकास का यह अभियान हम सभी के लिए गौरव का विषय है। पुन: इसमें आगरा के ५०० लोगों के नाम लिखवाने की उन्होंने घोषणा की। उनकी भावना के अनुसार आगरा से ३०० से भी अधिक नाम हुए, जो कुण्डलपुर के शिलालेख पर अंकित हो चुके हैं।
गाधी के दाण्डी मार्च का प्रतीक है यह कुण्डलपुर यात्रा-आवश्यकता ही आविष्कार की जननी होती है। जैसे परतन्त्र भारत को आजाद कराने के लिए महात्मा गांधी ने मार्च १९३० में दांडी मार्च प्रारंभ किया था और उस यात्रा का महत्त्व १५ अगस्त १९४७ को दिल्ली के लाल किले पर तिरंगा झण्डा फहराने के बाद देशवासियों को ज्ञात हुआ था, वैसे ही आज हमारी राष्ट्रगौरव पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की इण्डिया गेट दिल्ली से प्रारंभ हुई महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर-नालंदा (बिहार) तक की यह यात्रा जैन समाज के लिए दांडी मार्च से अधिक महत्त्वपूर्ण है। कुण्डलपुर का विकास होकर जिस दिन महावीर जन्मभूमि का वास्तविक रूप निखरकर आएगा, उस दिन माताजी की यात्रा सारे जैन समाज के लिए एक असली इतिहास का दिग्दर्शन कराएगी। उक्त विचार कमलानगर-आगरा में पूज्य माताजी के पदार्पण अवसर पर प्रवचन सभा के कुशल युवा संचालक श्री मनोज कुमार जैन ने प्रकट करते हुए कहा कि हम सोच भी नहींr सकते थे कि पूज्य माताजी जैसी महान साध्वी के चरण कभी हमारे आगरा शहर में भी पड़ेंगे।’’ वास्तव में भक्तिगंगा में सराबोर आगरा की जनता फरवरी २००३ में कुण्डलपुर में होने वाले पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं महाकुंभ मस्तकाभिषेक महोत्सव में जाने हेतु जहाँ अभी से संकल्पित हो रही थी, वहीं उसके विकास के लिए पूर्ण समर्पण भाव को भी दर्शा रही थी।
अन्य स्थानों पर भी लोगों का उत्साह विशेष था-धूलियागंज-आगरा में प्रवचन सभा के बाद सन्तभवन का शिलान्यास होना था, जब मैंने इसका नाम ‘‘महावीर जयंती भवन’’ रखने की प्रेरणा प्रदान की, तो सामाजिक निर्णयानुसार स्वरूपचंद जी मार्शन्स ने खड़े होकर इस बात की घोषणा कर दी। यहाँ के मंदिर में बहुत ही सुन्दर वेदी में पीतल के कमलासन देखकर मन खुश हुआ। धूलियागंज में नशिया मंदिर होकर प्रात: वहाँ से प्रस्थान हुआ, पुन: वहाँ से ७ मंदिरों के दर्शन करके मोतीकटरा पहुँचे, यहाँ के जिनमंदिर में काफी प्राचीन-प्राचीन ७०० जिनप्रतिमाएं हैं तथा दीवालों पर काँच के कई एक चित्र हैं। इसके साथ ही भक्तामर के ४८, चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज आदि १०-१५ आचार्यों एवं पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी आदि कुछ आर्यिकाओं के भी सुन्दर चित्र बने हैं। यहाँ से विहार कर बेलनगंज में ३ दिवसीय प्रवास रहा।
पूज्य माताजी का ५०वाँ क्षुल्लिका दीक्षा दिवस-चैत्र वदी एकम् की वह पवित्र तिथि आगरा में आ गई, जब श्री महावीर जी अतिशय क्षेत्र पर भारत गौरव आचार्य श्री देशभूषण महाराज ने इस युग की प्रथम कुंवारी कन्या को क्षुल्लिका दीक्षा प्रदान कर ‘‘वीरमती’’ नाम से सुशोभित किया था, आज वीरमती से ज्ञानमती तक के उन ५० वर्षों में उन महातपस्विनी माताजी ने जैन जगत को अनगिनत चेतन-अचेतन निधियाँ प्रदान कीं, जिनका उपकार यह जगती युगों-युगों तक नहीं चुका सकती, आगरा वालों का यह महान सौभाग्य ही था कि उन्हें इस तिथि को आत्मसात करने का सुनहरा मौका मिल गया था अत: प्रात: ८.३० बजे से ११.३० बजे तक धर्मशाला प्रांगण में सभा का आयोजन किया गया, जिसमें अनेक लोगों ने पूज्य माताजी के प्रति अपनी विनम्र विनयांजलि समर्पित की। =
=आर्यिका श्री सुभूषणमती माताजी ने भी समर्पित की विनयांजलि-==
आगरा नगरी में पूज्य माताजी संघ एवं पूज्य मुनि स्व. श्री दयासागर महाराज की शिष्या पू. आर्यिका श्री सुभूषणमती माताजी संघ का पारस्परिक सौहार्दपूर्ण मिलन हुआ। पूज्य माताजी के प्रथम बार दर्शन कर गद्गदमना होकर उनके ५०वें क्षुल्लिका दीक्षा दिवस पर अपनी विनयांजलि समर्पित करते हुए उन्होंने कहा कि आज हम लोगों की जितनी शारीरिक उम्र नहीं है, उससे भी बहुत अधिक वर्ष पुराना पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का दीक्षित जीवन हो चुका है। इन्होने चारित्र चक्रवर्ती प्रथम दिगम्बराचार्य श्री शांतिसागर महाराज से लेकर आज तक उस परम्परा के सात आचार्यों को देखा है, इनमें से अनेक आचार्यों को जैन शास्त्रों का गहन अध्ययन कराया है। इस अपूर्व ज्ञान की धनी पूज्य माताजी के तेजस्वी मुख पर इस उम्र में भी अतीव सरलता, वात्सल्य और निद्र्वन्दता झलक रही है। जीवन में पहली बार इनके दर्शन करके मैंने अपनी गुरु परम्परा की पवित्रता और महानता को स्वयं इनके मुख से सुनकर जो अनुभव प्राप्त किया है, उसे ही वृद्धिंगत करने की शक्ति मुझे प्राप्त हो, इसी आशीर्वाद की इच्छा से पूज्य माताजी के श्रीचरणों में मेरा त्रय प्रदक्षिणा पूर्वक कोटि-कोटि नमन। पुन: महावीर जन्मभूमि के प्रकरण पर अपनी ओजस्वी वाणी में उन्होंने कहा कि जब बच्चा जन्म लेता है तो पहचान शक्ति आते ही उसे माँ जिस ओर उंगली दिखाकर कह देती है कि यह तुम्हारे पिता हैं’’ उसी को पिता मानकर बालक अपने भविष्य निर्माण का स्वप्न संजोता है न कि वह पड़ोसियों से पूछने जाता है कि मेरा पिता कौन है? ठीक उसी प्रकार से हमारे तीर्थंकरों की जन्मभूमियों का निर्णय केवल हमारी जिनवाणी माता के अनुसार होगा। सरकार, इतिहासकार या आधुनिक शोधकर्ताओं को उनका निर्णय करने का कोई अधिकार नहीं है।
==‘‘आधी रोटी खाएंगे, पर कुण्डलपुर को बनाएंगे’’-==
समाजसेवी श्रावक श्री शिखरचंद जैन-आगरा के द्वारा अपनी विनयांजलि समर्पित करते हुए कहे गए उक्त वाक्य ने आगरा समाज की भक्ति भावनाओं को आंदोलित कर दिया और उनके इस नारे के साथ अनेकानेक भक्तों ने ‘‘महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर’’ को सिर आँखों पर रखकर उसके विकास में भारी योगदान दिया। परिषद के यशस्वी अध्यक्ष श्री मनोहरलाल जैन ने असीम उत्साह के साथ कुण्डलपुर में भगवान महावीर स्वामी के महाकुंभ मस्तकाभिषेक महोत्सव में भारी जनसमूह के साथ भाग लेने का उद्घोष किया। बेलनगंज से छीपीटोला और छीपीटोला से ताजगंज में पदार्पण हुआ, यहाँ का मंदिर ४०० वर्ष से भी अधिक प्राचीन है और यहाँ भगवान पाश्र्वनाथ की अत्यन्त सुन्दर वि.सं. १४९७ की प्रतिमा विराजमान हैं। ताजगंज से ज्योतिनगर पुन: जयपुर हाउस होते हुए हरिपर्वत पहुँचे। इस प्रकार आगरा के ३० मंदिरों के दर्शन कर पूज्य माताजी एवं हम सभी का मन प्रसन्न हो उठा, वस्तुत: ये जिनमंदिर हमारी जिनसंस्कृति के गौरव हैं, उनकी शान हैं। इस प्रकार आगरा की २६ कालोनियों की ओर से लोगों ने माताजी के श्रीचरणों में श्रीफल समर्पित कर वहाँ पधारने का अनुरोध किया। लगभग१९ दिवसीय आगरा प्रवास के मध्य संघ का आगरा की विभिन्न कालोनियों में भ्रमण हुआ।
==हरिपर्वत-आगरा में ऋषभदेव जयंती-==
चैत्र वदी नवमी, ६ अप्रैल को भगवान ऋषभदेव के जन्म-तपकल्याणक के शुभ अवसर पर हरिपर्वत में माताजी की प्रेरणा से ऋषभदेव जयंती धूमधाम से मनाई गई, जिसमें प्रात: पाण्डुकशिला पर भगवान ऋषभदेव का १०८ कलशों से अभिषेक हुआ तत्पश्चात् सभागार के अन्दर अति सुन्दर संगीत ध्वनि के साथ ऋषभदेव विधान सम्पन्न हुआ। विधान के मध्य पूरी आगरा की जैन समाज एवं दिगम्बर जैन परिषद-आगरा के अध्यक्ष मनोहर लाल जैन, महामंत्री-श्री जितेन्द्र कुमार जैन आदि सभी ने पूज्य माताजी को श्रीफल चढ़ाकर पूज्य माताजी से अत्यधिक आग्रह किया कि आप महावीर जयंती तक आगरा में अवश्य रुके, हम सभी आपको आश्वासन देते हैं कि कुण्डलपुर की पूरी जिम्मेदारी हम लोग संभालेंगे। रात्रि में ‘‘सती चंदना’’ नामक नाटक का मंचन हुआ। ७ अप्रैल २००२ को सभागार में ऋषभदेव संगोष्ठी एवं महिला सम्मेलन का आयोजन किया गया, जिसमें जहाँ प्राचार्य श्री नरेन्द्र प्रकाश जैन-फिरोजाबाद का विद्वत्तापूर्ण ओजस्वी वक्तव्य हुआ, वहीं दिल्ली से पधारे संघपति लाला महावीर प्रसाद जी ने लगभग ४० मिनट भाषण करते हुए जनसमूह को गुरुभक्ति एवं माताजी के कार्यकलापों का वर्णन सुनाकर भक्ति में सराबोर कर दिया पुन: मैंने अपने प्रवचन में सभी धार्मिक एवं सरकारी प्रमाण प्रस्तुत करते हुए कुण्डलपुर की बात बताई।
==आगरावासियों ने दी भावभीनी विदाई-==
९ अप्रैल को प्रात: सरलाबाग से ७ बजे प्रस्थान करके कमलानगर में जिनमंदिर के दर्शन किए, संक्षिप्त प्रवचन सभा हुई पुन: अनेकों घरों के सामने आरती करते हुए बैण्ड बाजे के साथ भारी उत्साहमय वातावरण में आगरावासियों ने संघ को भावभीनी विदाई दी और पूज्य माताजी से पुन:-पुन: आगरा पधारने का नम्र निवेदन किया। महिला संगठन, दिल्ली प्रदेश द्वारा ५वाँ वार्षिकोत्सव- कवि अज्ञात ने नारियों के बारे में कहा है कि- नारी संस्कृति की संवाहिका है। इसी प्रकार महाकवि जयशंकर प्रसाद ने अपनी कामायिनी नामक कृति में यहाँ तक कह दिया कि-
नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नभ पग तल में। पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दरतम पल में।।
फिर जहाँ नारियों की मसीहा, कुमारिकाओं की पथप्रदर्शिका पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का वरदहस्त हो, उनकी मंगल प्रेरणा हो, तो नारियाँ देश का उज्ज्वल भविष्य बनकर देश की उन्नति में सहकारी बन जाएं, यह कोई अतिशयोक्ति की बात नहीं है। इसी का ज्वलंत उदाहरण है अखिल भारतीय दि. जैन महिला संगठन, जो पूज्य माताजी का वरदहस्त पाकर पुष्पित, पल्लवित व सुरभित हो चुका है। भगवान महावीर २६००वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव वर्ष के अन्तर्गत पूज्य माताजी की पावन प्रेरणा एवं आशीर्वाद से अखिल भारतीय दिगम्बर जैन महिला संगठन-दिल्ली प्रदेश के द्वारा राष्ट्रीय महिला सम्मेलन, त्रिशला माता सम्मान समारोह एवं ५वाँ वार्षिकोत्सव ३१ मार्च २००२ को फिक्की ऑडिटोरियम, नई दिल्ली में सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर दिल्ली प्रदेश इकाई द्वारा धर्म, समाज एवं परिवार में जागृति व चेतना लाकर सात्त्विक व धर्मपरायण जीवन का निर्वहन करने वाली २६ महिलारत्न को ‘‘माता त्रिशला पुरस्कार’’ से सम्मानित किया गया। दिल्ली प्रदेश की ५० इकाइयों ने कार्यक्रम में अपनी गरिमापूर्ण उपस्थिति दर्ज कराई और तीन माह से पूरी कर्मठतापूर्वक कार्यक्रम को आयोजित करने हेतु तत्पर श्रीमती आशा जैन (अध्यक्ष दिल्ली प्रदेश) की समस्त समाज ने मुक्त कण्ठ से सराहना की। समारोह में ‘‘त्रिशला ज्योति’’ नामक स्मारिका का विमोचन भी हुआ। चूँकि पूज्य माताजी उस समय आगरा में विराजमान थीं अत: उनकी आज्ञा से संघस्थ ब्र. कु. सारिका एवं स्वाति ने इस समारोह में भाग लिया एवं पूज्य माताजी के मंगल संदेश एवं आशीर्वाद का वाचन कर्मयोगी ब्र.रवीन्द्र कुमार जी ने किया।
==केन्द्रीय कार्यकारिणी द्वारा इंदौर में आयोजित की गई राष्ट्रीय संगोष्ठी-==
अखिल भारतीय दिगम्बर जैन महिला संगठन द्वारा देवी अहिल्या विश्वविद्यालय-इंदौर, दि.जैन महिला संगठन-इंदौर, दिगम्बर जैन समाज-इंदौर, गणिनी ज्ञानमती प्राकृत शोधपीठ-हस्तिनापुर एवं तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ के सहयोग से ‘‘भगवान महावीर-जीवन एवं दर्शन’’ शीर्षक पर द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी २४-२५ फरवरी २००२ को इंदौर प्रीमियर को-ऑपरेटिव बैंक लिमिटेड महारानी रोड, इंदौर के भव्य सभागृह में आयोजित की गई। संगोष्ठी के उद्घाटन एवं समापन सत्र के अतिरिक्त सम्पन्न ‘‘भू्रणहत्या एवं उसके दुष्प्रभाव’’ ‘‘भगवान महावीर एवं उनकी जन्मभूमि कुण्डलपुर’’ ‘‘जैन इतिहास के उपेक्षित पहलू’’ तथा ‘‘जैनधर्म की वैज्ञानिकता’’ शीर्षक पर चार सत्रों में ४० वक्ताओं ने अपने आलेखों का वाचन किया, जिसमें ८८ विद्वान, नेतागण सम्मिलित हुए। श्रीमती सुमन जैन की अध्यक्षता एवं सूरजमल बोबरा के महामंत्रित्व में गठित आयोजन समिति ने सम्पूर्ण कार्यक्रम की प्रभावी संयोजना की। संगोष्ठी के संयोजक एवं प्रमुख परामर्शदाता गणिनी ज्ञानमती प्राकृत शोधपीठ-इंदौर के निदेशक डॉ. अनुपम जैन-इंदौर थे। केन्द्रीय महिला एवं बालविकास राज्यमंत्री श्रीमती सुमित्रामहाजन के मुख्य आतिथ्य तथा न्यायमूर्ति श्री एन.के. जैन, म.प्र. उच्च न्यायालय की अध्यक्षता में सम्पन्न उद्घाटन सत्र में विशेष अतिथि के रूप में पूर्व राजदूत डॉ. एन.पी.जैन उपस्थित थे। परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के आशीर्वाद सहित वहाँ पहुँची संघस्थ ब्रह्मचारिणी बहनों कु. आस्था एवं कु. चन्द्रिका ने महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर में २४ मार्च को सम्पन्न होने वाले कीर्तिस्तंभ शिलान्यास समारोह की आमंत्रण पत्रिका का विमोचन मुख्य अतिथि के हाथों कराया। साथ ही अतिथियों को कुण्डलपुर के राजकुमार भगवान महावीर का चित्र भी
समर्पित किया। मंचासीन संगोष्ठी के संरक्षक श्री दिग्विजयसिंह जैन ने गणिनी ज्ञानमती प्राकृत शोधपीठ के इंदौर केन्द्र के विकास हेतु सुदामानगर में एक भूखण्ड के दान की घोषणा की। ==भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर के संदर्भ में विभिन्न संस्थाओं द्वारा पारित प्रस्ताव-==
अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद के अध्यक्ष प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाश जैन, फिरोजाबाद की अध्यक्षता में महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर के संदर्भ में कंपिल जी में पारित प्रस्ताव अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद की कार्यकारिणी की यह बैठक वैशाली को भगवान महावीर की जन्मभूमि स्वीकार नहीं करती क्योंकि हमारे किसी भी आगम ग्रंथ में जन्मभूमि के रूप में वैशाली का उल्लेख नहीं है। आगम ग्रंथों में जन्मभूमि के रूप में कुण्डलपुर, कुण्डपुर (विदेह) का उल्लेख है, किन्तु विदेह की सीमाओं का वर्णन दिगम्बर जैन आगम ग्रंथों में नहीं मिलता। सदियों से कुण्डलपुर (नालंदा) को जन्मभूमि के रूप में मानने की श्रद्धा जन-जन में है। इसलिए भूगोल या जैनेतर ग्रंथों की मान्यता के अनुसार जन्मभूमि के संदर्भ में कोई निर्णय लेना उचित नहीं है। परम्परागतरूप से मान्य कल्याणक क्षेत्रों को विवादास्पद नहीं बनाना चाहिए। समाज में जन्मभूमि प्रकरण को लेकर चल रहे विसंवाद को विराम देने के लिए यही उचित है कि सदियों से जन्मभूमि के रूप में लोग जिसे मानते रहे हैं, उसे हम आदर देते रहें। दिनाँक-९ दिसम्बर २००२ अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन युवा परिषद के रजतजयंती
==समारोह में पारित प्रस्ताव==
भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर-बिहार वर्तमान में नालंदा जिले में स्थित है, जहाँ पर पिछले २६०० वर्ष से समस्त दिगम्बर जैन अनुयायी श्रद्धा से यात्रा करके पुण्य अर्जित करते आ रहे हैं तथा सम्पूर्ण दिगम्बर जैन आगम ग्रंथों एवं पूजन आदि में कुण्डलपुर ही भगवान महावीर की जन्मभूमि बताई है, कहीं पर भी वैशाली को जन्मभूमि के रूप में नहींr माना गया है। वैशाली तो राजा चेटक की राजधानी एवं माता त्रिशला की जन्मभूमि है। कोई भी तीर्थंकर ननिहाल में जन्म नहीं लेते हैं, माता के आंगन में ही पन्द्रह महिनों तक रत्नों की वर्षा होती है। अभी पिछले लगभग ४५ वर्ष पूर्व से कुछ आधुनिक इतिहासकारों की सोच के आधार पर कुछ लोग वैशाली को भगवान महावीर की जन्मभूमि बनाना चाहते हैं, इस संदर्भ में ‘‘अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन युवा परिषद’’ यह प्रस्ताव पारित करती है कि इस वर्ष सरकार एवं समाज द्वारा भगवान महावीर का २६००वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जा रहा है अत: कुण्डलपुर, जो पिछले २६०० साल से अब तक भगवान महावीर की जन्मभूमि के रूप में आस्था का केन्द्र बना हुआ है, उसे केवल आधुनिक सोच के आधार पर विवाद में नहीं डाला जावे। समस्त दिगम्बर जैन समाज की मान्यता के अनुसार कुण्डलपुर को ही जन्मभूमि के रूप में सरकार एवं समाज के द्वारा विकसित किया जावे। वैशाली आदि अन्य स्थानों पर भगवान महावीर की स्मृति में स्मारक बनाए जावें, लेकिन २६०० साल की जन्मभूमि की धरोहर को न खो दिया जावे। ६ जनवरी २००२ प्रस्तावक-अनिल कुमार जैन, प्रीतविहार-दिल्ली (अध्यक्ष-दिल्ली प्रदेश) अनुमोदक-उदयभान जैन, भरतपुर (राज.) (अध्यक्ष-राजस्थान)
==अखिल भारतीय दिगम्बर जैन महिला संगठन की केन्द्रीय कार्यकारिणी की दिनाँक २४ फरवरी २००२ को इंदौर में सम्पन्न बैठक में पारित प्रस्ताव== ‘
‘प्राचीन जैन पुराणों, तिलोयपण्णत्ति, धवला आदि प्राचीन ग्रंथों के अनुसार भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर की वंदना कर हम स्वयं को धन्य करते रहे हैं। कोई भी तीर्थयात्री जन्मभूमि की वंदना हेतु वैशाली नहीं जाता रहा किन्तु विगत ३-४ दशकों से कतिपय शोधकर्ताओं ने भ्रान्तिवश महावीर की ननिहाल वैशाली को जन्मभूमि बताना शुरू कर दिया, यह समाज के लिए अत्यन्त घातक एवं षड्यंत्रकारी विचार है। अखिल भारतीय दिगम्बर जैन महिला संगठन की यह सभा समाज एवं सरकार से अनुरोध करती है कि भगवान महावीर की जन्मभूमि के रूप में नालंदा जिले में स्थित कुण्डलपुर को ही मान्यता प्रदान करने का कष्ट करें।’’ प्रस्तावक-श्रीमती उषा पाटनी (मंत्री-दि. जैन महिला संगठन, इंदौर) समर्थक-१. श्रीमती निर्मल जैन, दिल्ली (राष्ट्रीय अध्यक्षा) २. श्रीमती सुमन जैन इंदौर (महामंत्री) ३. श्रीमती आशा जैन, दिल्ली ४. श्रीमती दर्शन जैन, दिल्ली ५. श्रीमती कांति जैन, ग्वालियर ६. श्रीमती रमा जैन, छतरपुर ७. श्रीमती वंदना जैन, शाहजहांपुर ८. श्रीमती मीना विनायका, इंदौर ९. श्रीमती उषा पाटनी, इंदौर १०. श्रीमती प्रेमलता वेद, इंदौर ११. श्रीमती लीला जैन, इंदौर १२. श्रीमती तारा जैन, इंदौर १३. श्रीमती माला बुखारिया, इंदौर । तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ की कार्यकारिणी की इंदौर में दिनाँक २४-२-२००२ को सम्पन्न बैठक में पारित प्रस्ताव समस्त दिगम्बर जैन प्राचीन गंरथों में वर्णित भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर ही है। बिहार प्रांत के अन्तर्गत नालंदा जिले में स्थित कुण्डलपुर ही सदियों से जन-जन की आथा का केन्द्र रहा है एवं सभी दिगम्बर जैन धर्मावलम्बी परम्परागतरूप से इसी जन्मभूमि कुण्डलपुर की वंदना करते रहे हैं। महासंघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी सरकार से अनुरोध करती है कि भगवान महावीर की जन्मभूमि के रूप में जैन परम्परामान्य कुण्डलपुर (नालंदा-बिहार) को ही मान्यता प्रदान करते हुए इसके विकास में सहयोग प्रदान करें। प्रस्ताव-डॉ. अभयप्रकाश जैन, ग्वालियर (प्रचार मंत्री) समर्थक-सर्वानुमति
==कुण्डलपुर (नालंदा-बिहार) में कीर्तिस्तंभ शिलान्यास समारोह-==
कुण्डलपुर तीर्थ विकास की शृंखला में प्रथम कृति के रूप में प्राचीन मंदिर में भगवान महावीर स्वामी कीर्तिस्तंभ के शिलान्यास का सुयोग २४ मार्च २००२, रविवार, फाल्गुन शु. १० को आया, जब दिल्ली से लाला कमलचंद जी (कीर्तिस्तंभ निर्माणकर्ता) ट्रेन की एक बोगी द्वारा अनेक श्रद्धालुभक्तों के साथ कुण्डलपुर की पावन धरा पर पहुँचे। संघ से ब्र.रवीन्द्र जी एवं ब्र. बहनों- कु. आस्था एवं कु. सारिका जैन ने भी पूज्य माताजी की आज्ञानुसार वहाँ जाकर उसे सानन्द सम्पन्न करवाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। समाजरत्न श्री कमलचंद जैन-खारीबावली, दिल्ली ने अपने पांचों भाइयों एवं समस्त परिवार सहित कीर्तिस्तंभ का शिलान्यास किया। इस अवसर पर अनेक स्थानों से लोग पधारे तथा बिहार प्रान्त के पूर्व शिक्षामंत्री ने भी पधारकर पूज्य माताजी को परोक्षरूप में नमन करते हुए अपार प्रसन्नता व्यक्त की।
==श्री कमलचंद जैन की मनोभावना-==
भगवान महावीर स्वामी के २६००वें जन्मकल्याणक महोत्सव वर्ष में भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर में ‘‘भगवान महावीर स्वामी कीर्तिस्तंभ’’ का शिलान्यास करने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ, यह सब पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की ही कृपाप्रसाद का फल है। पूज्य माताजी के हम भक्तों पर अनन्त उपकार हैं जिन्हें कई जन्मों तक भी चुका पाना असंभव है। मैं तो कई वर्षों से पूज्य माताजी के कार्यकलापों को देख रहा हूँ। जहाँ तक मैंने अपनी बुद्धि से इनकी अन्तर्भावनाओं को जाना, तो मैंने महसूस किया कि इनका केवल एक ही लक्ष्य है कि किस प्रकार मैं चौबीसों तीर्थंकरों की जन्मभूमियों का उद्धार कर सकू और इनकी सच्चे मन से भाई गई भावना का ही प्रतिफल है कि जो कुछ भी ये अपने मन में ठान लेती हैं, वह कार्य पूर्ण निर्विघ्नता के साथ सफल होता है। पूज्य माताजी जब भी किसी तीर्थ का विकास करने की बात सोचती हैं, तो हम जैसे लोगों से पूज्य माताजी जो भी आदेश देती हैं, हम उसे यथाशक्ति पूरा करने का प्रयास करते हैं और तीर्थंकरों के चरणकमल में अपनी कुछ अर्थांजलि समर्पित करके गौरव का अनुभव करते हैं।
==सुहाग नगरी फिरोजाबाद में हुई ज्ञानामृत वर्षा-==
आगरा शहर में भारी धर्मप्रभावना करने के पश्चात् एत्मादपुर, टूण्डला आदि होते हुए १५ अप्रैल २००२ को पूज्य माताजी एवं समस्त संघ का मंगल प्रवेश सुहाग नगरी के रूप में विख्यात फिरोजाबाद के छदामी लाल जैन ट्रस्ट के दिगम्बर जैन मंदिर में हुआ। पूज्य माताजी की प्रेरणा से यहाँ विराजमान भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा का १०८ कलशों से मस्तकाभिषेक हुआ। फिरोजाबाद में १५ दिवसीय प्रवास के मध्य अनेकों जिनमंदिरों के दर्शन का सुयोग प्राप्त हुआ, जिसमें यहाँ के अतिशयकारी चन्द्रप्रभु जिनमंदिर में एक ८४ वर्षीय प्रेमचंद जैन ने हमें बताया कि माताजी! चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज ने कहा था कि यह चन्द्रप्रभु भगवान बनारस की शिवपिंडी से निकले हुए हैं अत: यह १००० वर्ष प्राचीन प्रतिमा है, उनके दर्शन करके मन अति प्रसन्न हुआ।
==सर्वोदय शासन में वर्गोदय पनप रहा है-==
जिस महावीर जयंती की पावन घड़ियों में अनेक शहरों के लोग पूज्य माताजी का संघ सानिध्य पाने को लालायित थे, वह अवसर मिला फिरोजाबाद को। वहाँ महावीर जयंती समारोह के साथ ही अगले दिन ‘‘रइधू पुरस्कार’’ के द्वारा दक्षिण भारत से पधारे जीवनदादा पाटिल (सन्मति सेवा दल के अध्यक्ष) को सम्मानित किया गया। उस कार्यक्रम में भी पूज्य माताजी का सानिध्य रहा। उस मंच पर एक वर्ग विशेष से जुड़े श्रावक का कुछ आगमविरुद्ध अनुचित व्यवहार देखकर मंचासीन प्रबुद्ध लोगों के मन में बड़ी पीड़ा हुई। उस समय पूज्य माताजी ने अपने प्रवचन में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में साधुवर्ग में हो रहे बिखराव को देखते हुए अत्यन्त मार्मिक शब्द कहे, जिसे उद्धृत करना मैं आवश्यक समझती हूँ-भव्यात्माओं! आज महावीर स्वामी का सर्वोदय शासन वर्गोदय में परिवर्तित हो रहा है, विभिन्न साधुओं के विभिन्न वर्ग बन गए हैं, जो समाज के लिए खतरनाक हैं अत: सर्वोदय शासन में वर्गोदय को नहीं पनपने देना चाहिए।
==पूज्य माताजी का ४७वाँ आर्यिका दीक्षा दिवस-==
महापुराण में आचार्य जिनसेन स्वामी कहते हैं- पुण्ये प्रसेदुषि नृणां किमिवास्त्यलङ्घ्यम्? अर्थात् पुण्य के प्रसाद से मनुष्यों को सब कुछ प्राप्त हो सकता है। शायद यही कारण था कि फिरोजाबाद की जनता को एक के बाद एक सुअवसर प्राप्त हो रहे थे, इसी क्रम में उन्हें पूज्य माताजी का ४७वाँ आर्यिका दीक्षा जयंती महोत्सव मनाने का सुअवसर भी प्राप्त हुआ। वैशाख कृष्णा दूज की इस दीक्षा तिथि पर आयोजित ४७वें आर्यिका दीक्षा दिवस समारोह में पूज्य माताजी को फिरोजाबाद दिगम्बर जैन समाज द्वारा ‘‘युगनायिका’’ की उपाधि से अलंकृत किया गया। आयोजित विनयांजलि सभा में डॉ. विमला जैन, डॉ. रश्मि जैन, एडवोकेट अनूप चंद जैन, श्री भागचंद जैन, श्री कांतिचंद-फिरोजाबाद, पण्डित सुधर्मचंद शास्त्री-जबलपुर, श्री अनिल जैन (कमल मंदिर), लाला महावीर प्रसाद जैन संघपति-दिल्ली आदि महानुभावों ने अपनी विनम्र विनयांजलि पूज्य माताजी के चरणों में अर्पित की। प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाश जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि मात्र सरकार से करोड़ों रुपया पाने के लालच में भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर को उपेक्षित कर कतिपय नेताओं द्वारा पाश्चात्य एवं स्वदेशी विद्वानों-जैकोबी, योगेन्द्र मिश्र आदि के समर्थन से वैशाली को भगवान महावीर की जन्मभूमि सिद्ध किया जा रहा है, ऐसे समय में पूज्य माताजी ने समस्त समाज को जागृत करके महान उपकार किया है। पूज्य माताजी का कुण्डलपुर की ओर विहार ही सबसे बड़ा प्रमाण है कि कुण्डलपुर ही भगवान महावीर की जन्मभूमि है, जो भी इस ऐतिहासिक तथ्य को बदलना चाहते हैं, उन्हें इतिहास कभी माफ नहीं करेगा।
==ओजस्वी एवं विद्वत्तापूर्ण वक्तव्यों ने कुण्डलपुर की सत्यता को उजागर किया-==
महापुराण ग्रंथ में आचार्य जिनसेन स्वामी ने आठवें सर्ग में कहा है कि- ‘‘तदेव ननु पाण्डित्यं यत्संसारात् समुद्धरेत्’’ अर्थात् पाण्डित्य वही है, जो संसार से उद्धार कर दे। विद्वानों की उस शृंखला में अनेक ऐसे विद्वान हुए हैं, जिन्होंने निष्पक्ष रूप से सदैव धर्म का डंका बजाते हुए जिनधर्म की पताका को समुन्नत किया है और जिनवाणी माता की भक्ति तथा गुरुभक्ति का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए इस संसार में यश-कीर्ति प्राप्त करने के साथ अपनी आत्मा का भी कल्याण किया है, उसी शृंखला में वर्तमान समय में विद्वानों के शिरमौर पण्डितप्रवर प्राचार्य श्री नरेन्द्र प्रकाश जी हैं, जिनकी ओजस्वी एवं विद्वत्तापूर्ण वाणी दिग्भ्रमित मानव को सद्राह दिखाने में और मन शुद्ध करने में सफल माध्यम बनती है। कम शब्दों में यथार्थ वाणी का प्रतिपादन करने वाले प्राचार्य जी ने समय-समय पर आकर पूज्य माताजी से विस्तृत एवं गहराई से चर्चा कर और मेरे द्वारा एकत्रित आगम प्रमाण देखकर जब भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर की यथार्थता को जाना और उसे अपने अन्तर्हृदय में उतारा, तो उनके द्वारा समय-समय पर दिये गये वक्तव्यों ने जन-जन के अन्तस् को कुण्डलपुरमय करते हुए उनके रोम-रोम को झंकृत कर दिया और उन्होंने इस समसामयिक एवं आगमोक्त भगवान महावीर जन्मभूमि में सहभागी बनकर स्वयं भी महान पुण्य का संचय कर लिया। उन्होंने कहा कि माताजी केवल तीर्थ विकास करने नहीं जा रही हैं, अपितु एक इतिहास का निर्माण करने जा रही हैं। उन्हें किसी के अवलम्बन की आवश्यकता नहीं है।
==तीर्थंकर जन्मभूमियों का विकास जैन अस्मिता की रक्षा है-==
अर्थात् जिस प्रकार शक्कर-चीनी के मिश्रण से आटा मीठा-सुस्वादु हो जाता है, उसी प्रकार पुण्यात्मा महापुरुष की चरण रज से यह धरती भी पवित्र तीर्थ का स्वरूप प्राप्त करती है। तीन लोक के अग्रभाग पर सिद्धशिला के ऊपर अनन्तानन्त सिद्ध परमात्मा विराजमान हैं, उन सभी सिद्धों को तथा सिद्धपद के प्राप्तिस्थल समस्त तीर्थों को मेरा बारम्बार नमस्कार है। ऐसे तीर्थों को जैनाचार्यों ने तीन भेदों में विभक्त किया है-१. तीर्थक्षेत्र २. सिद्धक्षेत्र ३. अतिशय क्षेत्र। तीर्थंकर भगवन्त, सामान्य केवली तथा विशिष्ट आचार्य एवं मुनियों के गर्भ-जन्म-तप-ज्ञानकल्याणक अथवा उनके मंगल विहारों से पावन स्थल तीर्थक्षेत्र कहलाते हैं, जहाँ से भगवन्तों ने मोक्ष प्राप्त किया, उन्हें सिद्धक्षेत्र या निर्वाणक्षेत्र कहते हैं और विशेष इतिहास या चमत्कारों से संबंधित भूमियाँ अतिशय क्षेत्र के रूप में मानी जाती हैं। इन पवित्र भूमियों की शृंखला में भारत की धरती पर अहिंसा के अवतार माने जाने वाले जैनधर्म के चौबीसवें तीर्र्थंकर भगवान महावीर की वह जन्मभूमि, जहाँ २६०० वर्ष पूर्व देवोपुनीत असंख्य वैभव था, रत्नों के भण्डार भरे थे एवं इन्द्रों से भी पूज्य महाराजा सिद्धार्थ एवं महारानी त्रिशला के सुख की तुलना संसार का कोई प्राणी नहीं कर सकता था, वह कुण्डलपुर पिछली शताब्दियों के परतन्त्रकालीन युग में अत्यन्त अल्प सीमा में सिमट कर रह गया पुन: जैन समाज ने कुछ अतिशय-चमत्कारों की ओर अधिक आकर्षित हो जाने के कारण अपने शाश्वत एवं महत्वपूर्ण तीर्थों को उपेक्षित कर दिया। यही कारण रहा कि अयोध्या एवं सम्मेदशिखर जैसे अनादिकालीन तीर्थ तथा वर्तमानकालीन अन्य तीर्थंकरों की जन्मभूमियाँ कुण्डलपुर, सिंहपुरी, चन्द्रपुरी, काकन्दी, मिथिला, भद्दिलपुर आदि तीर्थ भी उपेक्षा के क्रम में आ गए और आज वे अपने सौभाग्य को पुन: प्राप्त करने के इंतजार में हैं किन्तु वास्तव में देखा जाए, तो तीर्थंकर जन्मभूमियों का विकास जैन अस्मिता की रक्षा है। यदि हम और आप सभी मिलकर प्राथमिक तौर पर इन तीर्थंकर जन्मभूमियों के जीर्णोद्धार एवं विकास में संलग्न हो जावें, तो वह दिन दूर नहीं, जब हम स्वयं अपनी आँखों से उनका वास्तविक विकसित रूप देख सकेगे।
==यादव जी को मिला आशीर्वाद-==
आगरा, फिरोजाबाद के सुखद प्रवास के पश्चात् हम लोग शिकोहाबाद पहुँचे, जहाँ ४-४ जिनमंदिरों के दर्शन कर मन प्रसन्न हो उठा। प्रात:कालीन सभा में नगर के विधायक श्री हरिओम् यादव पधारे और अपने भाषण में पूज्य माताजी के प्रति सुन्दर उद्गार प्रस्तुत करते हुए कहने लगे कि माताजी! मैंने यहाँ के सभी कत्लखाने अपने कार्यकाल में बंद करवाए हैं और मैं पूर्णरूपेण शाकाहारी हूँ। तब माताजी बड़ी खुश हुर्इं और उन्हें खूब उन्नति का आशीर्वाद दिया।
==शोरीपुर की चरण रज को छुआ-==
जिनशासन के वर्तमानकालीन २४ तीर्थंकरों में २२वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ के वैराग्य की गाथा एवं उनके तीन कल्याणक से पवित्र गिरनार सिद्धक्षेत्र आज प्रत्येक जनमानस की चर्चा के विषय हैं। उन नेमि तीर्थंकर के साथ वह राजुल सती भी धन्य हो गर्इं, जिन्होंने नेमिप्रभु के विवाह के वक्त वैरागी हो जाने पर स्वयं भी उनके पादमूल में आर्यिका दीक्षा लेकर अपना नाम अमर कर लिया और सिद्धपद की अनुगामिनी हो गई थीं। उन नेमि जिनेश्वर ने जिस पवित्र भू पर जन्म लिया, जहाँ अपनी शैशवावस्था, कुमारावस्था बिताई, उसके बारे में कतिपय लोग ही जानते हैं, जो जैन समाज के लिए चिन्तन का विषय है। ३ मई २००२ को उस पवित्र धरा की धूलि को मस्तक पर चढ़ाकर उन प्रभुवर को नमन करने का सौभाग्य पूज्य माताजी के कुण्डलपुर विहार के मध्य हम सभी को प्राप्त हुआ। यहाँ पास में बटेश्वर में रुकने की अच्छी व्यवस्था है, जिनमंदिर में नेमिनाथ भगवान की मनोज्ञ, प्राचीन प्रतिमा विराजमान है परन्तु उससे २ किमी. दूर शौरीपुर, जो वास्तविक जन्मभूमि है, अत्यन्त उपेक्षित है और वहाँ लोग जाने से भी डरते हैं। जब पूज्य माताजी ने वहाँ जाने की बात कही, तो तीर्थ के पदाधिकारियों एवं शिरसागंज व आसपास से पधारे दर्शनार्थियों ने कहा कि-माताजी! आप कल ही शौरीपुर जाना और दर्शन करके वापस आकर यहीं ठहरना किन्तु माताजी ने कहा कि मैं एक दिन अपने असली तीर्थ पर अवश्य रुकूगी। सो शाम को विहार कर रात्रि विश्राम वहीं किया। चूँकि ५० वर्षों में कोई साधु इस शौरीपुर तीर्थ पर नहीं रुका था और पूज्य माताजी संघ की छोटी-छोटी सुकुमार बालिकाओं को लेकर निर्भयमना इस तीर्थ पर रुकी थीं अत: अज्ञात भय के कारण यहाँ कमेटी के लोगों ने पुलिस चौकी से दो बंदूकधारी सिपाही बुलाकर पहरे पर तैनात कर दिए लेकिन पूज्य माताजी का यही कहना रहा कि भइया! अपन साधु हैं और साधु को किसी उपसर्ग, भय अथवा मृत्यु का डर व चिंता नहीं रहती। वैसे क्षेत्र सुंदर होने के साथ साफ-सुथरा है किन्तु बटेश्वर से शौरीपुर आने का रास्ता बड़ा सुनसान व निर्जन है। ४ मई को पूज्य माताजी ने प्रात:५ बजे तीर्थ के मंदिर जी में जाकर सामायिक व ध्यान किया, दोनों मंदिर के दर्शन कर अभिषेक देखा तथा वरुआमठ के बड़े मंदिर वाले खड्गासन नेमिनाथ बाबा का १०८ कलशों से अभिषेक कराया। यहाँ की प्रतिमा की प्रशस्ति में ५० वर्ष पूर्व के गणतंत्र शासन एवं राष्ट्रपति श्री राजेन्द्र प्रसाद जी व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का नाम भी अंकित है। प्रतिमा के आजू-बाजू में सुन्दर यक्ष-यक्षी हैं। आगरा से आए क्षेत्र के पदाधिकारी श्री स्वरूपचंद जैन मार्शन्स (अध्यक्ष), श्री मनोहरलाल जी, श्री निर्मल जैन आदि ने क्षेत्र की प्रगति के लिए पूज्य माताजी से काफी विस्तृत चर्चा की। =
=भयंकर लू के थपेड़े भी सहन किये-==
जसवन्तनगर से इटावा की ओर जब संघ का प्रस्थान हुआ, तो भयंकर गर्मी पड़ रही थी। वहाँ उस समय ४८ डिग्री तापमान चल रहा था। आगे-पीछे, ऊपर-नीचे चारों ओर से चल रहे भयंकर लू के थपेड़ों के कारण पदविहार करना अत्यन्त कठिन प्रतीत हो रहा था और साथ चलने वाले लोग बार-बार यही कह रहे थे कि माताजी! इतनी भयंकर गर्मी में आप किस प्रकार नंगे पैर चल रही हैं, हम तो पैरों में चप्पल-जूते पहने हैं, फिर भी हमारे लिए चलना मुश्किल है। सचमुच जैनी दीक्षा तलवार की धार पर चलने के समान है। माताजी! इतनी गर्मी में तो आप कहीं एक जगह विश्राम करें। परन्तु साधु के लिए क्या गर्मी, क्या सर्दी? उन्होंने तो इन सभी परीषहों को सहन करने के लिए ही दीक्षा ली है अत: मन में भगवान महावीर की भक्ति को संजोए हम अपने पथ पर बढ़ते रहे। उस समय संघ की ब्रह्मचारिणी बहनों के भी स्वास्थ्य काफी गड़बड़ हुए। इटावा में भी प्रवेश के समय हवा बंद होने के कारण चलने में बहुत कठिनाई हुई और उसमें भी लगभग २ किमी. का जुलूस था। १५ मई को इटावा में ही अक्षय तृतीया पर्व का विशेष कार्यक्रम रखा गया और पूरे नगरवासियों ने भगवान को इक्षुरस का आहार दिया पुन: सभी को प्रसाद वितरित किया गया। १७ मई को इटावा के छिपैटी मंदिर में वेदी प्रतिष्ठा का कार्यक्रम उत्साहपूर्वक सम्पन्न हुआ।
==पूज्य माताजी का नागरिक अभिनंदन-==
इटावा नगरी में १८ मई को खुशियों का माहौल था क्योंकि आज वहाँ के नागरिक माताजी का अभिनंदन करना चाहते थे। प्रात:कालीन भव्य सभा का आयोजन उन्होंने मंदिर परिसर के ही भव्य प्रांगण में किया था। उसमें अनेक गणमान्य महानुभावों ने पूज्य माताजी के प्रति अपने सुन्दर विचार प्रस्तुत किए और जन्मभूमि कुण्डलपुर विकास की मुक्तकंठ से प्रशंसा की। लेकिन भीषण गर्मी के कारण माताजी वहाँ इतनी अस्वस्थ हो गर्इं कि वे कमरे से बाहर पाण्डाल में भी न आ सकीं। पुन: पूरी सभा मेरे एवं क्षुल्लक मोतीसागर जी के सानिध्य में चली और सम्पूर्ण जैन समाज इटावा की ओर से पूज्य माताजी का अभिनंदन करके प्रशस्ति पत्र भेंट किया गया, उस समय भी माताजी ने यही वाक्य दोहराए कि भाई! मैंने जो कदम बढ़ाए हैं अथवा जो मैं तीर्थंकर जन्मभूमि का विकास करवा रही हूँ, वह अपनी प्रभावना अथवा अपने अभिनंदन के लिए नहीं, अपितु तीर्थ एवं तीर्थंकर भगवन्तों की प्रभावना हेतु निकली हूँ, मेरे लिए तो मेरा सब कुछ मेरी आर्यिका पदवी ही है। माताजी की एकदम निढाल अवस्था देखकर इटावा वाले माताजी को २-४ दिन वहीं रोकने के लिए अत्यर्थ निवेदन कर रहे थे किन्तु माताजी अगले दिन प्रात: विहार करके जब आगे खुले स्कूल में आकर ठहरीं, तो उनका स्वास्थ्य कुछ ठीक हो गया। शहर के प्रदूषण एवं गर्मी से उन्हें गर्मी में प्राय: तकलीफ हो जाया करती है। इसीलिए देखा है कि गर्मी का विहार इनके लिए अति हानिकारक रहता है।
==बदलते मौसम से बढ़ गई विहार की गति-==
पिछले दिनों की पड़ी भयंकर गर्मी को देखकर एक बार तो यही लगा कि शायद विहार की गति मंद पड़ जाएगी और हम लोग नियत समय पर प्रयाग तीर्थ पर नहीं पहुँच सकते हैं परन्तु हमें निश्चित रूप से मौसम को धन्यवाद देना पड़ेगा कि २८ मई की रात्रि में २ बजे अत्यधिक आंधी और बारिश के कारण सुबह मौसम बेहद सुहावना रहा और हम लोगों को जिस स्थान घाटमपुर में रुकना था, उसे छोड़कर आगे जाकर रुके और चूँकि वहाँ २-३ जैन घर हैं अत: घाटमपुर के स्त्री-पुरुषों ने वहीं परासगांव के विद्यालय में आकर प्रवचन का लाभ लिया। मौसम अच्छा हो जाने के कारण आगे विहार का कार्यक्रम कुछ द्रुतगति से बनने लगा और हमें ऐसा लगा कि हम जल्दी ही प्रयाग-इलाहाबाद पहुँच जायेंगे।
==सैनी ग्राम में हुआ दो संघों का मिलन-==
पदविहार करने वाले साधु का परस्पर मिलन बड़ी ही दुर्लभता से संभव हो पाता है, क्योंकि दिगम्बर जैन साधु की आगमचर्या बड़ी ही दुरूह है और जब भी उनका परस्पर मिलन होता है, विशेष आल्हाद के साथ-साथ कुछ न कुछ अविस्मरणीय विशेष उपलब्धियाँ हो ही जाती हैं, यही बात सैनी ग्राम में हुई, जब परमपूज्य वात्सल्य रत्नाकर स्व. आचार्य श्री विमलसागर महाराज के शिष्य आचार्य श्री भरतसागर महाराज एवं पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के संघ का परस्पर मिलन ७ जून २००२ को सैनी के गुरुकुल में हुआ। चूँकि हमें पूर्व में सूचना प्राप्त हो गई थी अत: वहाँ ४ दिवसीय प्रवास रहा। आचार्य श्री से मिलने के लिए माताजी ने यहीं रुकने का निर्णय लिया। यहाँ गुरुकुल के व्यवस्थापक का व्यवहार बहुत ही अच्छा था, उन्होंने संघस्थ बहनों के एक बार कहने पर ही कई कमरे खाली करके अनजाने में ही वसतिका दान देकर महान पुण्य का संचय कर लिया। उनके संघ में आचार्यश्री सहित ४ मुनि, ३ आर्यिकाएँ और दो क्षुल्लिका माताएँ, इस प्रकार ८ साधु थे। चूँकि आचार्य श्री भरतसागर महाराज की ७ माह से आवाज बंद हो गई थी अत: संघ में बड़ा मायूस वातावरण था, पूज्य माताजी ने प्रात: ही संघ के साथ १ घंटा तक वार्ता की और आर्यिका श्री स्याद्वादमती माताजी के आग्रह पर आचार्यश्री के स्वास्थ्य के लिए मंत्र भी दिया, जिसे सभी ने करने का संकल्प किया, और अब वर्तमान में यह जानकर बड़ी ही प्रसन्नता होती है कि आचार्यश्री की आवाज वापस आ गई है। ८ जून को प्रात: ५ बजे दोनों संघों का मंगल विहार अलग-अलग दिशा में हो गया, यह संघ का पारस्परिक मिलन बड़ा ही सुखद रहा।
==४४वें वर्ष की पूर्णता पर वात्सल्यपूर्ण आशीष मिला-==
सन् १९५८ की ज्येष्ठ वदी अमावस्या की तिथि में मुझे भी माता मोहिनी की पवित्र कुक्षि से १२वीं संतान के रूप में जन्म लेकर बीसवीं शताब्दी की महान साध्वी पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की छोटी बहन होने का गौरव प्राप्त हुआ था पुन: १३ वर्ष की लघुवय में अजमेर नगरी में माताजी से ब्रह्मचर्य व्रत लेने के पश्चात् मुझे सदैव गुरू की छत्रछाया मिली, जिसने मेरे अंधियारे जीवन (अमावस्या के जन्म) को शरदपूर्णिमा की चांदनी से परिपूर्ण कर उसे आलोकित कर दिया और १३ अगस्त १९८९ को मुझे नारी जीवन का सर्वोत्कृष्ट पद आर्यिका दीक्षा की प्राप्ति हुई, जिससे मुझे मुक्ति पथ का रास्ता सहज ही मिल गया तथा मेरे प्रत्येक जन्मदिवस व दीक्षादिवस पर माताजी जैसी वात्सल्यमयी देवीस्वरूपा माता का वात्सल्यपूर्ण आशीर्वाद मिला, उसी क्रम में १० जून २००२ ज्येष्ठ वदी अमावस्या को जब हम इलाहाबाद से १७ किमी. दूर सुलेमसराय नामक स्थान पर थे, तब मुझे मेरे कायिक जन्मदिवस की ४५वीं वर्षगांठ पर माताजी का वात्सल्यपूर्ण एवं चारित्रवृद्धि का स्नेहिल आशीर्वाद प्राप्त हुआ जो कि संसार की सभी निधियों से बढ़कर था। वास्तव में गुरु की कृपादृष्टि मानव को संसार समुद्र से पार कराने में सहकारी कारण बनती है, जिसके बारे में आचार्यदेव ने कहा है-
११ जून २००२ को पूज्य माताजी ने संघ सहित एक बार पुन: इलाहाबाद नगरी में मंगल प्रवेश किया था। यह सूक्ति लोक व्यवहार में बड़ी प्रसिद्ध है-बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न भीख।’’ अथवा यो कहें कि कभी-कभी अनायास ही व्यक्ति को ऐसी अनमोल वस्तु मिल जाती है जिसकी उसने कल्पना भी न की हो और शायद यही इलाहाबादवासियों के साथ हो रहा था। क्योंकि एक बार पुन: पूज्य माताजी के दर्शनों का सौभाग्य उन्हें प्राप्त हो रहा था। यहाँ बैण्ड-बाजे के साथ सारे समाज के लोग भव्य स्वागत हेतु उमड़ पड़े थे। एकदिवसीय प्रवास नई धर्मशाला में रहा। पिछले वर्ष इस नई धर्मशाला का उद्घाटन पूज्य माताजी के सानिध्य में विश्वशांति महावीर विधानपूर्वक हुआ था और उस समय मैंने वहाँ के कार्यकर्ताओं को प्रेरणा दी थी कि आप लोग इस भवन का नाम ‘‘महावीर जयंती भवन’’ रखें, सो वहाँ देखा कि भवन के आगे ‘‘महावीर जयंती भवन’’ का उद्घाटन पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के सानिध्य में ६ अप्रैल २००१ को हुआ’’ इस मैटर का शिलालेख लगा था। जिसे देखकर मन में खुशी हुई क्योंकि माताजी की इस भगवान महावीर २६००वाँ जन्मकल्याणक महामहोत्सव के अन्तर्गत प्रत्येक जैन श्रावक के लिए यही प्रेरणा रही है कि आप सब अपने शहर में नूतन जिनमंदिर, धर्मशाला आदि के निर्माण कराते समय ‘‘भगवान महावीर २६००वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव वर्ष के अन्तर्गत’’ अवश्य लिखें तथा धर्मशाला आदि का नामकरण भगवान महावीर के नाम पर करें।
==कुण्डलपुर की यात्रा ने ऋषभदेव दीक्षास्थली के दर्शन कराये-==
पदविहार करने वाले साधु के लिए एक बार किसी तीर्थ से निकलने के बाद वापस पुन: आना कोई निश्चित नहीं होता है, यह एक सुखद और अनहोना संयोग ही था कि कुण्डलपुर की ओर हो रहे विहार के कारण एक बार पुन: हमें दीक्षास्थली तीर्थ के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हो गया और उस क्षण की स्मृति हो आई, जब इस तीर्थ को छोड़ते समय अत्यन्त विह्वलता के कारण मेरी आँखों में अश्रु आ गए थे, उस समय मैंने भगवान ऋषभदेव की चरण वंदना करते हुए यही भावना निवेदित की थी-
‘‘यह प्रार्थना है मेरी, श्री ऋषभ प्रभु जी तुमसे। इक बार फिर बुलाना अपनी तपस्थली पे।’’
शायद मेरी उस सच्ची भावना को, उस प्रार्थना को पूर्ण होने में मात्र १ वर्ष का ही समय लगा और एक वर्ष के बाद ही पुन: न सिर्क दिल्ली से मंगल विहार के पश्चात् ११३ दिनों में तीर्थ पर आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ अपितु सन् २००२ के चातुर्मास का योग भी यहीं आ गया। मन के उस आल्हाद को शब्दों के माध्यम से प्रकट करने में मैं असमर्थता महसूस कर रही हूँ। =
=माताजी के द्वारा प्रदत्त मंत्रों में अद्भुत शक्ति है-==
१४ जून की बात है, प्रात: ७ बजे माताजी दर्शन-वंदन करके अभिषेक देखकर त्यागी भवन में बैठी थीं, तभी लगभग ८ बजे ब्र. रवीन्द्र जी ने आकर बताया कि ब्र. प्रभा पाटनी का (मालवा से) फोन आया है कि आज प्रात: ३ बजे से आचार्यश्री भरतसागर महाराज पता नहींr कहाँ चले गए हैं अत: संघ में सभी लोग बहुत परेशान हैं, आप कृपया पूज्य माताजी से पूछकर बताएँ कि हम लोग क्या करें? महाराज जी कहाँ मिलेंगे? सुबह से हम सभी चारों ओर ढूंढते-ढूंढते परेशान हैं। रवीन्द्र जी के कहने पर माताजी ने मंत्र बताते हुए कहलाया कि आप लोग चिन्ता न करें, महाराज जी सुरक्षित हैं, थोड़ी देर में आ जाएंगे। उसके बाद भी लगातार कई फोन आ जाने से हम लोगों को भी थोड़ी चिंता हुई पुन: थोड़ी देर बाद फोन आया कि इधर स्याद्वादमती माताजी एवं संघ के साधुओं ने जाप्य शुरू की थी, उधर आधा किमी.दूर गांव में ही एक पुलिया के नीचे महाराज जी बैठे थे, वह अपने आप उठकर बाहर आ गए और हम लोग उन्हें संघ में ले आए हैं, अब हम आहार की व्यवस्था कर रहे हैं, यह सुनकर सभी को संतोष हुआ। उन दिनों आचार्यश्री अस्वस्थता के कारण मानसिक रूप से कुछ परेशान थे। वस्तुत: दीर्घतपस्विनी माताजी के मंत्रों के ऐसे चमत्कार हमने एक नहींr अनेकों बार देखे हैं।
==ग्रंथों का जन्मदाता है श्रुतपंचमी पर्व-==
आज से लगभग २०० वर्ष पूर्व जब धरती पर अंगज्ञान लुप्तप्राय हो रहा था, उस समय गिरनार पर्वत पर विराजमान धरसेनाचार्य ने श्रुत रक्षा की चिंता होने पर महिमा नामक नगरी में होने वाले विशाल साधु सम्मेलन से पत्र द्वारा दो योग्य महामुनियों को अपने पास बुलाकर उनकी परीक्षा लेकर अंगज्ञान प्रदान किया और परीक्षा में विजय प्राप्त करने के कारण उनका पुष्पदंत-भूतबलि नाम पड़ा। इन्हीं पुष्पदंत-भूतबलि आचार्य ने गुरु द्वारा प्रदत्त उस ज्ञान से षट्खण्डागम नामक महान सिद्धान्त ग्रंथ की रचना की और जिस दिन वह ग्रंथ अंकलेश्वर-गुजरात में पूर्ण हुआ, वह तिथि ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी थी, जो श्रुतज्ञान की रचना के पूर्ण होने पर श्रुतपंचमी कहलाई। ऐसे महान दिवस को प्रतिवर्ष माताजी के संघ सानिध्य में विशेष रूप से मनाया जाता है, हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी १५ जून २००२ को प्रयाग तीर्थ पर उसे प्रभावनापूर्वक मनाया गया। श्रुतपंचमी पर्व का संघ में एक विशेष महत्त्व और भी है कि जन-जन में भाई जी के नाम से मशहूर एवं कर्मयोगी की उपाधि से अलंकृत, युवाओं के आदर्श, अपनी शांत एवं मधुर मुस्कान से सभी को जीतने वाले और अनेक संस्थाओं को सुचारू रूप से संचालित करने वाले संघस्थ ब्र.रवीन्द्र जी ने इसी श्रुतपंचमी पर्व के दिन सन् १९५० में माता मोहिनी से जन्म लेकर अपने अंदर उस श्रुतज्ञान को समाहित कर लिया और माताजी के सुयोग्य शिष्य के रूप में अपनी प्रतिभा का चहुँमुखी विकास कर जिनधर्म प्रभावना का महान कार्य किया है। आज के दिन उनके जन्मदिवस पर उन्हें पूज्य माताजी एवं संघस्थ सभी साधुओं का शुभाशीर्वाद प्राप्त हुआ और अनेक लोगों ने उनका स्वागत किया।
==भव्य वैलाशपर्वत पर ७२ प्रतिमाएँ विराजमान हुईं-==
पूज्य माताजी की प्रेरणा से ‘‘तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षास्थली’’ प्रयाग दिगम्बर जैन तीर्थ के नाम से एक ही वर्ष में प्रसिद्ध हो जाने वाले इस तीर्थ पर दीक्षाकल्याणक तपोवन में धातु के वटवृक्ष के नीचे महामुनि ऋषभदेव की पिच्छी-कमण्डलु सहित खड्गासन प्रतिमा, केवलज्ञान कल्याणक समवसरण, निर्वाणकल्याणक वैलाशपर्वत एवं भगवान ऋषभदेव कीर्तिस्तंभ इत्यादि रचनाएँ इस प्राचीनतम तीर्थ ‘‘प्रयाग’’ में भगवान ऋषभदेव के स्वर्णिम इतिहास की गाथा प्रत्यक्ष उच्चारित कर रहे हैं। २४ जून २००२, ज्येष्ठ शु. पूर्णिमा को पूज्य माताजी के संघ सानिध्य में भारतवर्ष में प्रथम बार निर्मित सुन्दर वैलाशपर्वत का उद्घाटन एवं लोकार्पण समारोह आयोजित किया गया। ऋषभदेव दीक्षास्थली तीर्थ पर १०८ फुट लम्बे, ७२ फुट चौड़े एवं ५१ फुट ऊँचे कैलाशपर्वत की अत्यन्त सुन्दर एवं आकर्षक रचना का निर्माण मात्र एक वर्ष की अल्प अवधि में किया गया। पानी के झरनों, फव्वारों एवं प्राकृतिक सौन्दर्य से समन्वित इसकैलाशपर्वत पर ७२ जिनमंदिर स्थापित किए गए, जो सम्राट भरत चक्रवर्ती द्वारा वास्तविककैलाशपर्वत पर विराजमान ७२ जिनचैत्यालयों की याद दिलाते हैं। भूत, भविष्यत् एवं वर्तमानकाल की तीन चौबीसी की ७२ जिनप्रतिमाओं कोकैलाशपर्वत पर निर्माण का सौजन्य प्रदान करने वाली स्व. श्रीमती सुलोचना जैन ध.प. श्री चेतनलाल जैन के सुपुत्र श्री सत्येन्द्र कुमार जैन, प्रीतविहार-दिल्ली ने अपने विशाल परिकर के साथ प्रात: ९.३० बजे पर्वत पर स्थापित जिनचैत्यालयों में तीर्थंकर भगवन्तों की प्रतिमाओं को विराजमान किया, साथ ही राजधानी दिल्ली, महाराष्ट्र, म.प्र., उ.प्र., अवध प्रान्त इत्यादि सभी अंचलों के श्रावकों ने भी प्रतिमाएं विराजमान करने का पुण्य प्राप्त किया। इसके साथ ही अनिल कुमार जैन, कमल मंदिर, प्रीतविहार-दिल्ली के सौजन्य से निर्मित ३१ फुट ऊँचे ‘‘भगवान ऋषभदेव कीर्तिस्तंभ’’ में भी ८ प्रतिमाएँ विराजमान की गर्इं। इस अवसर पर सतेन्द्र कुमार जी को ‘दानवीर’ की उपाधि से अलंकृत करते हुए रजत प्रशस्ति भेंट की गई।
==श्री वीरेन्द्र हेगड़े ने तीर्थ को नमन कर जीवन धन्य किया-==
जब से पूज्य माताजी का प्रयाग तीर्थ पर आगमन हुआ, तब से किसी न किसी स्थान से अनेक धर्मावलम्बियों के तीर्थ पर पधारने तथा अनेक स्थानों से लोगों का वहाँ आकर लघु एवं वृहत् विधानों को करने का क्रम जारी था। इसी क्रम में कर्नाटक के धर्मस्थल से श्री वीरेन्द्र जैन-हेगड़े अपनी धर्मपत्नी एवं माँ के साथ पधारे तथा तीर्थ और पूज्य माताजी के दर्शन करके अतीव प्रसन्न हुए। साथ ही उन्होंने पूज्य माताजी से विस्तृत चर्चा भी की। हेगड़े जी की माता भी यहाँ आकर बहुत प्रसन्न थीं। उन्होंने पूज्य माताजी द्वारा लिखित कन्नड़ की बारह भावना कण्ठस्थ कर रखी थी, उसे भी उन्होंने बड़ी भक्तिपूर्वक सुनाया और इस तीर्थ पर पूज्य माताजी कृत समसामयिक कार्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
==वर्षायोग स्थापना में कलश स्थापना की परम्परा कब से चली?-==
इलाहाबाद-बनारस हाइवे पर स्थित इस प्रथम दिगम्बर जैन तीर्थ पर परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी एवं हम सभी को मंगल चातुर्मास स्थापित करने का सुयोग २३ जुलाई २००२ को प्राप्त हुआ। पूज्य माताजी का वर्षायोग स्थापना के बारे में सदैव यही कहना रहा है कि मुझे ‘‘वर्षायोग स्थापना’’ के दिन मंगल कलश स्थापना करना इष्ट नहींr है और मैं जानना चाहती हूँ कि यह परम्परा कब, कैसे एवं किसके द्वारा प्रारंभ की गई तथा अनेक साधुसंघ उसका अनुकरण क्यों करने लग गये? उनका कहना है कि मैंने बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज, उनके प्रथम शिष्य एवं प्रथम पट्टाचार्य गुरुवर्य श्री वीरसागर जी महाराज, आचार्य श्री शिवसागर महाराज एवं आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज के संघ सानिध्य में वर्षायोग-चातुर्मास स्थापना देखी है एवं उनके साथ स्थापना की है। इनमें से किन्हीं भी आचार्यों ने एवं आचार्य देशभूषण जी आदि आचार्यों ने चातुर्मास स्थापना के समय मंगल कलश स्थापित नहीं कराया था। यह चिन्तनीय है कि यह परम्परा १५-२० वर्षों में कब और वैâसे चली? माताजी तो यह सुनकर ही आश्चर्यचकित हो उठती हैं कि कोई साधु एक मंगल कलश स्थापना करते हैं तो कोई-कोई तीन, सात, नौ, इक्कीस तथा कोई साधु एक सौ आठ मंगल कलश भी स्थापित करने लगे हैं और उनकी ऊंची-ऊंची बोलियों से ही साधुओं की महानता को आंका जाने लगा है। सबसे अधिक आश्चर्य एक स्थान पर दिखा, जब एक गांव के मंदिर में एक कांचकेस में मंगल कलश रखा था। चातुर्मास के बाद साधु वहाँ से विहार कर चुके थे, फिर भी प्रतिदिन लोग भगवान के दर्शन के बाद उस कलश के आगे चावल चढ़ाकर घुटने टेककर पंचांग नमस्कार कर रहे थे। तब उन श्रावक से माताजी ने पूछा-ऐसा क्यों कर रहे हो? तब उसने कहा-मुझे गुरुदेव की आज्ञा है इत्यादि………..वर्तमान में पोस्टर एवं कुंकुम पत्रिका में भी ‘‘चातुर्मास स्थापना समारोह’’ या ‘‘वर्षायोग स्थापना समारोह’’ न छपाकर ‘‘मंगल कलश स्थापना समारोह’’ छपने लगा है। यह ‘‘मंगल कलश स्थापना’’ न तो कहीं आचारसार, मूलाचार, भगवती आराधना आदि मुनियों के आचार ग्रंथों में है और न कहीं उमास्वामी श्रावकाचार, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, वसुनंदि श्रावकाचार, सागार धर्मामृत आदि श्रावकाचार ग्रंथों में ही है।
==मोक्ष सप्तमी के दिन कुण्डलपुर में नई जमीन की रजिस्ट्री हुई-==
४ अगस्त २००२ को ब्र. रवीन्द्र जी पूज्य माताजी का मंगलमय आशीर्वाद लेकर कुण्डलपुर-नालंदा (बिहार) में भूमि क्रय हेतु कई पदाधिकारियों के साथ गए थे, ६ अगस्त को वहाँ से ब्र. रवीन्द्र जी का फोन आया कि वहाँ जमीन की रजिस्ट्री हेतु लिखा-पढ़ी शुरू हो गई है। यह सुनकर पूज्य माताजी एवं हम सभी को बड़ा आल्हाद हुआ कि आज श्रावण कृष्णा त्रयोदशी-मंगलवार के दिन जमीन के कार्य का आरंभ हुआ है, उस समय माताजी के मुख से सहसा निकल पड़ा कि यहाँ सभी लोग खूब मंत्र जाप्य करो, निश्चित ही मंगलत्रयोदशी के दिन आरंभ हुआ कुण्डलपुर का निर्माण खूब विश्वव्यापी होगा। पुन: दुबारा जाने पर १४ अगस्त (श्रावण शु. सप्तमी) को जमीन की पूरी रजिस्ट्री हो गई, यह सुनकर प्रयाग में हम सभी खुशी से झूम उठे, पुन: माताजी ने वहाँ के कार्यकर्ताओं से कहा कि कल प्रात: भगवान के सामने १०८ दीपक जलाकर भगवान की आरती करो और सबको खुशी से लड्डू बांटो। वस्तुत: जिनके रग-रग में मात्र तीर्थंकर प्रभु की भक्ति ही समाई हो, उन मातुश्री को तीर्थंकर जन्मभूमि उद्धार के प्रारंभीकरण की मंगल सूचना कितना आल्हाद प्रदान करेगी, उसका वर्णन शायद लेखनी द्वारा शक्य नहीं है।
==इलाहाबाद विश्वविद्यालय में ‘‘धर्म एवं संस्कृति’’ विषय पर संगोष्ठी-==
३ सितम्बर २००२ को इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मध्यान्ह ३ से ५ बजे तक पूज्य माताजी के मुख्य उद्बोधन के साथ ‘धर्म एवं संस्कृति संगोष्ठी’ का भव्य आयोजन सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर पूज्य गणिनी माताजी ने अपने मंगल उद्बोधन में कहा कि धर्म शाश्वत है जबकि सम्प्रदाय समय-समय पर बनते-बिगड़ते रहते हैं। वस्तुत: अहिंसा, संयम और तप ही धर्म हैं, जिन्हें धारण कर हम भी तीर्थंकर बन सकते हैं। अहिंसा से ही विश्वशांति संभव हो सकती है। हिंसक वृत्ति से, आतंकवाद से विश्व में कभी भी शांति नहीं हो सकती। संस्कृति की परिभाषा करते हुए उन्होंने कहा कि संस्कृति संस्कार से नि:सृत है, संस्कार ही व्यक्ति को आशावान व सृजनशील बनाता है। संस्कृति विकृत हो सकती है, पर धर्म नहीं। धर्म का मूल दया है, दया धर्म के निमित्त से ही आपसी प्रेम-सौहार्द वृद्धिंगत होता है। जीवन में यत्नपूर्वक आचरण करने से पापबंध नहीं होता है। पूज्य माताजी ने कहा कि विश्वविद्यालय सृजन के लिए हैं, संघर्ष के लिए नहीं। विश्वविद्यालय से विश्व को शांति का संदेश प्राप्त हो, आध्यात्मिकता एवं संस्कृति का ज्ञान प्राप्त हो, वही आज के युग की आवश्यकता है। सभी धर्मों का इतिहास काफी सोच-समझकर लेखकों को लिपिबद्ध करना चाहिए क्योंकि धर्म के संबंध में अनर्गल प्रलाप से धर्मावलम्बियों को ठेस पहुँचती है तथा उनके साथ अन्याय होता है। जैसे कि भगवान महावीर स्वामी जैनधर्म के २४वें तीर्थंकर थे न कि संस्थापक, लेकिन कुछ इतिहासकारों ने उन्हें संस्थापक लिख दिया है। पुन: मैंने अपने सम्बोधन में कहा कि जो उत्तम सुख में धरे, वह धर्म है तथा जो संस्कारों से संस्कारित करे, वह संस्कृति है। धर्म एक सुई की भांति है जो कपड़े की तरह लोगों को जोड़ती है, जबकि वैंची विघटन का कार्य करती है। सच्चा धर्म कभी आपस में वैरभाव की शिक्षा दे ही नहीं सकता-‘मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना।’ धर्म की जड़ सदैव हरी है, संस्कृति उसका आधार है। प्रो. ओमप्रकाश यादव (प्राचीन इतिहास विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष) ने कहा कि संस्थाओं के भाग्य जगते हैं तो संतों के चरण वहाँ पड़ते हैं, पूज्य माताजी के विश्वविद्यालय आगमन से इसका मंगल ही होगा। धर्म व्यक्ति को प्रेरणा प्रदान करता है, जीवन की गति निर्धारित करता है। ब्रह्माण्डीय व्यवस्था का नियम भी धर्म से अनुप्राणित है। संस्कृति प्रकृति का संशोधित स्वरूप है। यदि व्यक्ति के अंदर संस्कृति नहीं है, तो वह जानवर के समान है। श्री श्रीराम यादव, प्रो. ए.आर.एन. श्रीवास्तव, डा. बी.डी.मिश्र इत्यादि वक्ताओं ने भी पूज्य माताजी के सारगर्भित, शिक्षाप्रद एवं प्रेरणादायक उद्बोधन की भावभीनी प्रशंसा करते हुये अपने विचार व्यक्त किये। इस अवसर पर प्रयाग तीर्थ के अध्यक्ष कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जी की ओर से विश्वविद्यालय के लिए साहित्य रखने हेतु एक अलमारी तथा पूज्य माताजी द्वारा लिखित साहित्य भेंट किया गया। पूज्य माताजी ने विश्वविद्यालय, प्राध्यापकों, विद्यार्थियों एवं उपस्थित श्रोताओं को अपना मंगलमय आशीर्वाद प्रदान किया। इस प्रभावक संगोष्ठी की विश्वविद्यालय में काफी प्रशंसा की गई। सुधी श्रोताओं का कहना था कि संत विनोबा भावे के पश्चात् आज किसी महान संत के चरण विश्वविद्यालय परिसर में पड़े हैं, यदि इस प्रकार के मंगल उद्बोधन छात्रों को समय-समय पर प्राप्त होते रहें, तो उन्हें शाश्वत नैतिक मूल्य प्राप्त हो सकते हैं, जिनकी आज सर्वाधिक आवश्यकता है।
==विद्या मंदिरों में हुई धर्मामृत की वर्षा- ==
२ सितम्बर २००२ का दिवस जीरोरोड, इलाहाबाद स्थित विद्यामंदिरों में धर्मामृत की वर्षा को साकार रूप प्रदान करने वाला सिद्ध हुआ जबकि पूज्य माताजी एवं मेरे द्वारा प्रातःकाल से लेकर अपरान्ह तक क्रमशः इलाहाबाद इंटर कालेज, इलाहाबाद डिग्री कालेज एवं जैन विद्यालय-प्रयाग के हजारों विद्यार्थियों, शिक्षकों एवं अन्य विद्यालय-परिवार को उनके विद्यालय परिसर में तीन धर्म सभाओं द्वारा नैतिक मूल्यों का पाठ पढ़ाया गया।
==श्री अशोक सिंघल प्रयाग तीर्थ पर-==
विहिप कार्याध्यक्ष श्री अशोक सिंघल १४ सितम्बर को पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी का मंगल आशीर्वाद प्राप्त करने प्रयाग तीर्थ पधारे। कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जी ने श्री सिंघल का हार्दिक स्वागत किया। श्री सिंघल जी ने अपने संक्षिप्त उद्बोधन में कहा कि इतने अल्पसमय में इस भव्यतीर्थ का निर्माण अपने आप में एक रिकार्ड है। उन्होंने मिलिट्री एरिया-इलाहाबाद में स्थित प्राचीन ‘अक्षयवटवृक्ष’ को जनसाधारण के दर्शनों हेतु उपलब्ध कराने के प्रयास करने का आश्वासन भी प्रदान किया। ज्ञातव्य है कि ११ से २२ सितंबर तक प्रयाग में महाराष्ट्र प्रांतीय गणिनी ज्ञानमती भक्तमण्डल के (७० श्रद्धालु भक्त) द्वारा आयोजित इन्द्रध्वज विधान के मध्य सिंघल जी पधारे थे।
==दीक्षास्थली तीर्थ पर इतिहासकारों का सम्मेलन-==
पूज्य माताजी के मंगल सान्निध्य में १५ सितम्बर को तीर्थ पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इतिहासकारों का एक लघु सम्मेलन सम्पन्न हुआ। डा. राधाकांत वर्मा, प्रो. ओम प्रकाश यादव, डा. ओ.पी. श्रीवास्तव, डा. धननारायण दुबे, डा. हर्ष कुमार, डा. सुषमा श्रीवास्तव, डा. नीरा वर्मा आदि इतिहासलेखकों ने इसमें भाग लिया। इतिहास की पुस्तकों में जैनधर्म से संबंधित भ्रांतियों के निराकरण हेतु पूज्य गणिनी माताजी एवं मेरे द्वारा सभी को महत्वपूर्ण तथ्यों से परिचित कराया गया तथा विशेष लेख इत्यादि सामग्री भी प्रदान की गयी। उस समय सभी ने इस बात का एक स्वर से समर्थन किया कि इतिहास लेखन में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं की मान्यताओं को सम्मिलित करके उसे एकांगी होने से बचाना चाहिए।
==ऐसा पर्वत दुनिया में कहीं नहीं होगा –==
दिल्ली से सम्मेदशिखर की यात्रा करते हुएकैलाशपर्वत की भव्य प्रतिकृति के निर्माता श्री चेतनलाल जी अपने चार साथियों के साथ एक दिन दीक्षास्थली पर पधारे। आते ही प्रसन्नतापूर्वक बोले कि माताजी! आप सबकी महान कृपा थी, जो हमारे परिवार की ओर से यहाँ पर ऐसा सुन्दरकैलाशपर्वत बन गया है, सचमुच ऐसा पर्वत दुनिया में कहीं नहीं होगा। मैं तो आज इस पर्वत के दर्शन करके धन्य हो गया।
==स्वर्णिम शरदपूर्णिमा एवं कुण्डलपुर राष्ट्रीय महासम्मेलन-==
प्रयाग तीर्थ की पावन वसुन्धरा पर पूज्य माताजी का ६९वाँ जन्मदिवस एवं ५१वाँ त्यागदिवस-स्वर्णिम शरदपूर्णिमा १९ से २१ अक्टूबर २००२ तक विविध आयोजनों के साथ अत्यंत सफलता एवं स्वर्णिम आभा सहित सम्पन्न हुआ। उसमें झण्डारोहण के पश्चात् प्रात: १०.३० बजे ‘‘कुण्डलपुर राष्ट्रीय महासम्मेलन’’ का उद्घाटन हुआ। माननीय मुख्य अतिथि न्यायमूर्ति श्री सुधीर नारायण जी अग्रवाल (न्यायाधीश-इलाहाबाद उच्च न्यायालय) द्वारा द्वीप प्रज्वलन कर इस त्रिदिवसीय कार्यक्रम का उद्घाटन हुआ, जिसके अन्तर्गत दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ, अखिल भारतीय दिगम्बर जैन महिला संगठन, अखिल भारतीय दिगम्बर जैन युवा परिषद द्वारा आयोजित विभिन्न सत्रों में ‘भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर ही है’ इस बात पर विशेषरूप से सभी का ध्यान केन्द्रित कराया गया।
==कुण्डलपुर का पलड़ा हमेशा भारी रहेगा-==
इस महासम्मेलन में प्राचार्य श्री नरेन्द्र प्रकाश जी ने प्रभावशाली ढंग से अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि हर क्षेत्र का विकास होना चाहिए, वैशाली का भी और कुण्डलपुर का भी, पर वैशाली का विकास भगवान महावीर के स्मारक के रूप में हो और कुण्डलपुर का विकास जन्मभूमि के रूप में हो। अब तक वैशाली का विकास नहीं हो पाया उसका कारण यही था कि उसके आस-पास भगवान महावीर से संबंधित कोई क्षेत्र ही नहीं है जबकि कुण्डलपुर (नालंदा) के पास गुणावां, नवादा, सम्मेदशिखर इत्यादि सभी तीर्थक्षेत्र विद्यमान रहे हैं अत: सैकड़ों वर्षों से उसे ही जन्मभूमि के रूप में मान्यता प्राप्त है। ५६ वर्ष से स्मारक के रूप में वैशाली के विकास की बात पर विश्वास करके इसका विरोध नहीं किया गया किन्तु यह तो समाज के साथ धोखे जैसी बात रही कि उसे जन्मभूमि के रूप में प्रचारित करने की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई जबकि सत्यता तो ये है कि कम से कम वैशाली को जन्मभूमि का रूप देने से पूर्व साधु संगीति बुलाई जाती और उनसे इस विषय में शास्त्र सम्मत निर्णय लिया जाता। जनता की श्रद्धा तो कुण्डलपुर के प्रति ही रही है और रहेगी, उसको कोई बदल नहीं सकता। चिंता जमीन के टुकड़े की नहीं है वरन् महावीर के सिद्धान्तों को सुरक्षित रखने की है। हमें हर हाल में आगम की बात माननी है। जहाँ सदियों से भगवान महावीर का जन्मकल्याणक मनाया जा रहा है, वह तो पूजा प्रतिष्ठा के द्वारा जन्मभूमि बन ही गया है, सदियाँ बीत जाएंगी परन्तु श्रद्धा नहीं बदलेगी। कुण्डलपुर का सवाल अदम्य रूप से साहसी पूज्य ज्ञानमती माताजी के द्वारा पूरी शक्ति के साथ उठाया गया है, अब उसे कोई नहीं रोक सकता। वास्तव में अगर माताजी के द्वारा विकसित सारे तीर्थों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए और कुण्डलपुर का कार्य एक पलड़े पर, तो कुण्डलपुर का पलड़ा भारी रहेगा क्योंकि यह कार्य इतिहास की सुरक्षा का है न कि केवल मंदिर निर्माण का है। =
=पंचामृत अभिषेक आगम कथित है-==
वर्तमान में अनेक स्थानों पर श्री जिनेन्द्र भगवान का पंचामृत अभिषेक नहीं होता है जबकि प्राचीन आगम ग्रंथों में पूर्वाचार्यों द्वारा कथित वाणी के अनुसार पंचामृत अभिषेक करना चाहिए। वर्तमान में आचार्य पूज्यपाद स्वामी रचित अभिषेक पाठ सर्वमान्य है जिसमें पूज्यपाद स्वामी ने पंचामृत के एक-एक श्लोक में बड़ा सुन्दर विवेचन किया है और उसका हिन्दी पद्यानुवाद पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने किया है, जो कि कई एक संघों में तथा कई एक श्रावकों द्वारा भक्तिपूर्वक किया जाता है। आचार्य जटासिंहनन्दि कृत वरांग चरित्र में २३वें सर्ग के ७७वें पद्य में लिखा है-
अर्थात् जो पुरुष दूध, दही, इक्षुरस आदि के द्वारा जिनेन्द्र देव का पंचामृत अभिषेक करते हैं, वे स्वयं राज्य अभिषेक आदि के अधिकारी होते हैं। उमास्वामी श्रावकाचार में आचार्य उमास्वामी (द्वितीय शताब्दी) ने कहा है-
अर्थात् शुद्धजल, इक्षुरस, घी, दूध, दही, आम्ररस और सर्वौषधि इत्यादिकों से जिन भगवान का अभिषेक करता हूँ। इसी प्रकार यशस्तिलक महाकाव्य, सकलकीर्ति आचार्य विरचित श्रीपाल चरित्र, आचार्य वसुनंदिकृत वसुनन्दि श्रावकाचार, देवसेनाचार्य रचित भावसंग्रह आदि महान ग्रंथों में पंचामृत अभिषेक पाठ का वर्णन है। जिसे विस्तारपूर्वक पढ़कर श्रावकों को उससे शिक्षा ग्रहण कर आगमपरम्परानुसार पंचामृत अभिषेक करना चाहिए। यदि अपनी प्रांतीय परम्परानुसार कोई केवल जलाभिषेक ही करते हैं, तो भी पंचामृत अभिषेक करने वालों को गलत कभी नहीं मानना चाहिए। आज भी तमाम उत्तर भारत के तेरहपंथी लोग दक्षिण भारत में जाकर भगवान बाहुबली का खूब पंचामृत अभिषेक करते हैं और स्त्रियाँ भी अभिषेक करके अपनी स्त्रीपर्याय को सार्थक करती हैं। =
=पं. श्री सुमेरचंद्र जैन दिवाकर का मरणोपरांत सम्मान-==
जैन शासन के महान मनीषी विद्वान् पं. सुमेर चंद जी दिवाकर द्वारा सन् १९६८ में लिखित ‘‘महाश्रमण महावीर’’ के पूज्य गणिनी माताजी की प्रेरणा से किये गये पुनप्र्रकाशन का विमोचन प्रा. नरेन्द्र प्रकाश जी द्वारा संपन्न किया गया। साथ ही पं. जी को दगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा मरणोपरांत ‘‘जिनशासन रत्न’’ की उपाधि प्रदान की गयी। जिसे उनके परिवार के श्री अभिनंदन दिवाकर-सवनी, श्री ऋषभ दिवाकर, श्री पवन दिवाकर (सुपुत्र- श्री श्रेयांस दिवाकर ) आदि ने ग्रहण किया। इस अवसर पर श्री अभिनंदन जी ने कहा कि इस ग्रन्थ का प्रथम प्रकाशन आचार्य देशभूषण महाराज जी की कृपा प्रसाद से हुआ था और अब उन्हीं की शिष्या पूज्य गणिनीश्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से इसका द्वितीय बार प्रकाशन हुआ है। मेरे दादा पं. सुमेर चंद जी कहा करते थे कि कुण्डलपुर (नालंदा) के अतिरिक्त भगवान महावीर की कोई अन्य जन्मभूमि हो ही नहीं सकती। पूर्णत: आगम की वाणी पर लिखित यह महान पुस्तक पं. सुमेरचंद जी की विद्वत्ता का अनुपम उदाहरण है।
==कुण्डलपुर राष्ट्रीय महासम्मेलन का समापन-==
कुण्डलपुर राष्ट्रीय महासम्मेलन के विविध सत्रों से प्राप्त तथ्यों एवं विचार धाराओं को समन्वित करते हुए तीर्थ क्षेत्र कमेटी के अध्यक्ष साहू रमेश चंद जैन-दिल्ली को भेजे जाने वाले एक पत्र का वाचन किया गया, जिस पर उपस्थित जनसमूह ने अपने हस्ताक्षरों के माध्यम से अपनी सम्मति प्रदान की। भगवान ऋषभदेव समवसरण स्थापना- भगवान ऋषभदेव के जिस समवसरण रथ ने पूरे देश में घूमकर अहिंसा धर्म का प्रचार किया, उसे २१ अक्टूबर २००२, शरदपूर्णिमा के दिन प्रयाग तीर्थ परिसर में नवनिर्मित समवसरण मंदिर में विराजमान किया गया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के माननीय मुख्य न्यायाधीश महोदय श्री श्यामल कुमार ने भगवान ऋषभदेव समवसरण स्थापना के शिलापट्ट का अनावरण किया और समवसरण के दर्शन कर अपने को सौभाग्यशाली माना। इस अवसर पर पूज्य माताजी के ६९वें जन्मदिवस एवं ५१वें त्यागदिवस को ‘स्वर्णिम शरदपूर्णिमा’ के रूप में मनाने हेतु पूरे देश से हजारों श्रद्धालु भक्तों ने पधारकर तीर्थ एवं गुरु दर्शन का अपूर्व पुण्य प्राप्त किया। प्र्२९ मार्च १९११ को श्री हर्मन जैकोबी द्वारा श्वेताम्बर जैनमुनि श्री विजयधर्म जी महाराज को महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर-नालंदा विषयक यह पत्र सम्पूर्ण जैन समाज के लिए वास्तव में ==
एक ऐतिहासिक दस्तावेज है-=
= Dear Sir, I had much pleasure in the receiving your letter dated Feb. 27 Which Wishes for me. I also beg to acknoledge receipt of material, which contaions useful information of Nalanda and Kundalpur being birthplace of lord Mahavira. It becomes very useful to me, in many ways. You have urged me to rewrite my article on “Jainism” in the Encyclopedia of religion & ethics. Regarding Kundalpur near Nalanada, there are some references in Tiloipanntti, I agree with them. I hope, however to induce Prof. W. Sohribring who is without doubt best Jain Scholan, Historian, well groomed in Siddhanta to undertake a similar work. I am sure that he will do important work. for Jain world. Mr. K.P. Modi sent me some photographs of Kundalpur. Hoping yor well.
I remain yours sincerely
(Hermann Jacobi)
==प्रयाग जैन समाज की ओर से विनम्र विनयांजलि रूप अभिनंदन पत्र-==
प्रयाग तीर्थ पर २१ अक्टूबर २००२ को सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज-प्रयाग की ओर से विशिष्ट महानुभावों के द्वारा पूज्य माताजी के करकमलों में भक्तिपूर्वक विनयांजलि स्वरूप निम्न अभिनंदन पत्र समर्पित किया गया- हमारे जीवन में महान पुण्य का उदय हुआ जबकि हम सब लोगों ने एक प्राचीनतम तीर्थ को तीर्थ स्वरूप में पुनः स्थापित होते हुए अपनी आँखों से देखा। पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने एक कुशल शिल्पी की भाँति भगवान ऋषभदेव की दीक्षा एवं केवलज्ञान कल्याणक भूमि-प्रयाग को अपने प्रज्ञाबल की छेनी से तराश कर ‘तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षास्थली-प्रयाग तीर्थ’ जैसी अनुपम भेंट पूरे विश्व को प्रदान कर दी और हम सब इस स्वर्णिम इतिहास के साक्षी बन गये। प्रयाग की यह भूमि करोड़ों वर्ष उपरांत एक बार पुनः वैराग्य, संयम से सिंचित होते हुए सदैव के लिए जैन तीर्थ के रूप में स्थापित हो गई, धन्य है उन गणिनी माताजी की अपूर्व दूरदर्शिता, उत्कृष्ट प्रतिभा एवं महान प्रज्ञा कि जिसने हम सब प्रयागवासियों सहित समस्त विश्व को एक विस्मृत इतिहास को इतने उत्कृष्ट रूप में स्मरण करने हेतु माध्यम प्रदान कर दिया। मात्र डेढ़ वर्ष के अल्प समय में निर्मित इस आकर्षक जैन तीर्थ ने देशभर में अपनी सुगंधि वितरित करके भक्तों को अपनी ओर कदम बढ़ाने के लिए विवश कर दिया है, हमारा पूरा इलाहाबाद नगर धन्य हो उठा है। पूर्व में भी हम सब जैन समाज की महान साध्वी के रूप में पूज्य ज्ञानमती माताजी का नाम सदा से सुनते आये थे, उनके द्वारा लिखित साहित्य पढ़ते थे, उनके द्वारा लिखे सरस भक्ति विधानों को भक्तिभाव से किया करते थे, पर जब उनका साक्षात् सानिध्य मिला तो जैसे सहज, सरल वात्सल्य से युक्त मोक्ष का मार्ग दिखलाने वाली सच्ची माता ही हमें प्राप्त हो गयींं। ऐसी सरस्वती माता का यश युगों-युगों तक निश्चित ही चिरंजीव रहने वाला है। आपके प्रभावी नायकत्व एवं अनुशासन की छाप हमने आपके संघ में देखी है। प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी, क्षुल्लकरत्न श्री मोतीसागर जी महाराज एवं कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन का आपके दिशा-निर्देश के प्रति जो समर्पण, आपसी सामंजस्य एवं कर्मठ परिश्रम दृष्टिगत होता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। क्षुल्लिका श्रद्धामती माताजी एवं संघस्थ ब्रह्मचारिणी बहनें भी अहर्निश धर्मसाधना एवं गुरुसेवा में ही तत्पर दिखायी पड़ती हैं, यह सब आपके यशस्वी व्यक्तित्व का ही प्रतिबिम्ब है। आपके ६९वें जन्मदिवस एवं ५१वें संयम दिवस-स्वर्णिम शरद पूर्णिमा २१ अक्टूबर २००२ को इस मंगल अवसर पर हम अत्यंत विनीत भाव से आपके श्रीचरणों में अपनी कोटिशः विनयांजलि प्रस्तुत करते हुए आपके सुदीर्घ एवं स्वस्थ जीवन की कामना करते हैं।
==न्यायाधीश सम्मेलन एक उपलब्धि-==
प्रयाग तीर्थ पर चातुर्मास के मध्य यूँ तो अनेक प्रभावनात्मक कार्यक्रम सम्पन्न हुए, फिर भी पूज्य माताजी की प्रेरणा से उत्तरप्रदेश हाईकोर्ट के न्यायाधीशों को आमंत्रित करके ३ नवम्बर २००२ को अहिंसा एवं न्याय विषय पर एक ‘‘न्यायाधीश सम्मेलन’’ आयोजित हुआ, जिसमें न्यायमूर्ति श्री सुधीर नारायण अग्रवाल एवं न्यायमूर्ति श्री एम.सी. जैन की भूमिका विशेष सराहनीय रही। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों सहित प्रशासनिक विभाग, सरकारी स्वास्थ्य विभाग, शैक्षणिक क्षेत्र इत्यादि के विशिष्ट महानुभावों ने इस सम्मेलन में भाग लिया। सम्मेलन में न्यायमूर्ति श्री आर.के. शुक्ला,न्यायमूर्ति श्री सुधीर नारायण, न्यायमूर्ति श्री सखाराम सिंह, न्यायमूर्ति श्री एम.सी. जैन, न्यायमूर्ति श्री एस.के. अग्रवाल, न्यायमूर्ति श्री एस.पी. मेहरोत्रा ने ‘अहिंसा एवं न्याय’ विषय पर अपने सारगर्भित विचार प्रस्तुत किए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग की प्रो. गीता देवी, डॉ. उर्मिला जैन (इला.), अधिवक्ता श्री राजीव गुप्ता आदि ने सभी को अपने विचारों से परिचित कराया। ब्र. रवीन्द्र जी ने अपने स्वागत भाषण में जैन साधु-साध्वी चर्या पर प्रकाश डालते हुए सभी पधारे अतिथियों के लिए आभार व्यक्त किया। पूज्य माताजी ने अपने विस्तृत उद्बोधन में प्रयाग की भूमि को प्रारंभ से ही न्याय की भूमि के रूप में बताते हुए भारतीय संस्कृति, जैनधर्म, अहिंसा आदि शाश्वत मूल्यों की उपादेयता, अल्पसंख्यक इत्यादि विषयों पर प्रभावी विचार व्यक्त किए। उच्च शिक्षा आयोग (इला.) के सचिव श्री विक्रमाजीत तिवारी, अपर नगर मजिस्ट्रेट श्री मुन्नीलाल पाण्डेय, हरीशचंद अनुसंधान संस्थान-झूसी के निदेशक प्रो. रवि एस. कुलकर्णी एवं वैज्ञानिक डॉ. भाई वी.एस. पासी, उपमुख्य चिकित्सा अधिकारी (इला.), डॉ. वी.डी.पाण्डेय, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अधिवक्ताओं एवं अन्य विशिष्टगणों ने भी सम्मेलन में भाग लिया। सभी आगंतुक अतिथियों को तीर्थ का प्रतीक चिन्ह एवं साहित्य प्रदान कर सम्मानित किया गया। इस अवसर पर दीक्षास्थली तीर्थ की ओर से इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पुस्तकालय हेतु एक अलमारी सहित साहित्य प्रदान किया गया।
==२०१ वन्दना कर हृदय प्रपुल्लित हो उठा-==
तीर्थ पर मंगल पदार्पण से लेकर चातुर्मास एवं वहाँ प्रवास तक पूज्य माताजी एवं हम सभी को तीर्थ पर स्थित जिनमंदिरों के बार-बार दर्शन का सौभाग्य तो मिला ही,कैलाशपर्वत की वंदना का भी महान सुयोग प्राप्त हुआ। पूज्य माताजी नेकैलाशपर्वत की १४८ वंदना पूर्ण कीं एवं मैंने २०१ वंदना पूर्ण करके परम तृप्ति का अनुभव किया। दीपावली पर जगमगा उठा तीर्थ-४ नवम्बर २००२, कार्तिक कृष्णा अमावस्या, भगवान महावीर की निर्वाण बेला में दीक्षास्थली तीर्थ परकैलाशपर्वत के सामने निर्मित पावापुरी की अत्यन्त आकर्षक रचना के समक्ष सैकड़ों लोगों द्वारा सामूहिक रूप से भगवान महावीर का निर्वाणलाडू चढ़ाया गया।कैलाशपर्वत पर विराजमान ७२ प्रतिमाओं में से भगवान महावीर की प्रतिमा के समक्ष भी निर्वाणलाडू चढ़ाया गया एवं विशालकाय भगवान ऋषभदेव का मस्तकाभिषेक भी सम्पन्न किया गया। ब्रह्म मुहूर्त में पूज्य माताजी एवं संघस्थ साधुओं द्वारा वर्षायोग निष्ठापना क्रिया के साथ चातुर्मास का समापन हुआ। रात्रि में असंख्य दीप जलने पर नूतन तीर्थ सचमुच जगमगा उठा।
==कुण्डलपुर की ओर मंगल विहार-==
सफलतापूर्वक एवं विशेष उल्लासपूर्ण वातावरण में सम्पन्न हुए तीर्थ के इस चातुर्मास के अनन्तर १० नवम्बर २००२ को पुन: कुण्डलपुर तीर्थ की ओर मंगल विहार हुआ। यद्यपि तीर्थ से मंगल विहार होने के कारण मन में थोड़ा कष्ट तो हुआ, फिर भी यहाँ ५ माह का प्रवास मिल जाने से हृदय में तृप्ति और मानसिक शांति भी थी। प्रात: ९ बजे से दीक्षाकल्याणक मंदिर एवं समवसरण मंदिर के कलशारोहण-ध्वजस्थापना की विधि सम्पन्न हुई तथा वटवृक्ष मंदिर के महामुनि ऋषभदेव का पंचामृत अभिषेक हुआ। मध्यान्ह में २ बजे से मंगल विहार की प्रवचन सभा हुई तथा इलाहाबाद के अनेक महानुभावों का सम्मान हुआ। हाईकोर्ट के जस्टिस श्री एम.सी. जैन ने सभाध्यक्षता की तथा विहार में पूरे रास्ते पैदल चले। इस विहार की सभा में इलाहाबाद के ए.डी.एम.-श्री मुन्नीलाल पांडे आए और काफी दूर पैदल चले पुन: २ किमी. दूर जब हम सरायइनायत पहुँचे तो वहाँ के थाने में वहाँ के आफीसर के कहने से माताजी अंदर तक गर्इं, वे माताजी को वहाँ ले गए, जहाँ उन्होंने ४-५ ट्रक गाय-भैसों को कत्लखाने जाने से रोका था। इस अहिंसक कार्य के लिए माताजी ने उन्हें खूब-खूब आशीर्वाद दिया।
==एक श्रावक की गुरुभक्ति-==
आचार्यों ने गुरुभक्ति के महत्त्व को बताते हुए कहा है-
नामापि य: स्मरति मोक्षपथस्य साधोराशु क्षयं व्रजति तद्दुरितं समस्तम्। यो भक्त-भेषज-मठादिकृतोपकार: संसारमुत्तरति सोऽत्र नरो न चित्रम्।।
अर्थात् जो मोक्षमार्ग में स्थित साधु के केवल नाममात्र का भी स्मरण करता है, उसके समस्त पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, फिर जो मनुष्य दिगम्बर साधु का भोजन, औषधि, मठ-वसतिका आदि के द्वारा उपकार करते हैं, वे यदि संसार से पार हो जावें, तो भला इसमें आश्चर्य ही क्या है? कुण्डलपुर की यात्रा के मध्य वाराणसी तीर्थ के यशस्वी अध्यक्ष श्री रिसबदास जी के एक मात्र सुपुत्र श्री दीपक जैन पूज्य माताजी के दर्शनार्थ पधारे और माताजी की सौम्य छवि एवं वात्सल्यपूर्ण वाणी के प्रभाव से माताजी के अनन्य भक्त बन गए, फिर तो वे अनेक छोटे-बड़े स्थानों पर समय-समय पर माताजी के दर्शनार्थ आने लगे और विहार का वास्तविक आनन्द प्राप्त करते हुए संघ व्यवस्था में भी रुचि ली। भगवान पाश्र्वनाथ जन्मभूमि भेलूपुर-वाराणसी में मंगल प्रवेश की सुन्दर रूपरेखा बनाकर पूरे मनोयोगपूर्वक उसे अच्छे ढंग से सम्पादित किया। वाराणसी प्रवेश के पूर्व १७ नवम्बर २००२ को वीरभानपुर में सेठ रिसबदास जी की बगीची पर संघ का एक दिवसीय प्रवास रहा। वास्तव में गुरु के प्रति की गई नि:स्वार्थ एवं अटूट भक्ति एक दिन जीव को संसार समुद्र से पार लगा देती है। दीपक कुमार जी के साथ उनकी धर्मपत्नी सौ. सुभाषिनी जैन भी अत्यन्त सेवाभावी एवं धर्मपरायण महिला हैं।
==पार्श्वनाथ जन्मभूमि वाराणसी में अपूर्व उत्साह-==
वाराणसी नगरी में १९ नवम्बर २००२ को बिल्कुल उत्सव जैसा माहौल था और हो भी क्यों नहीं, शायद ही उन्होंने कभी सोचा होगा कि इतनी महान साध्वी माता का हमारे बनारस में भी मंगल पदार्पण होगा अथवा यूँ समझिये कि आज तो कुंआ स्वयं प्यासे के पास चलकर आ गया था। कई दिनों से वहाँ की स्थानीय समाज के लोग उत्साहपूर्वक माताजी के स्वागत की तैयारियों में लगे हुए थे, प्रात:कालीन इस स्वागत जुलूस में हाथी, घोड़े एवं शहनाई, बैण्ड के साथ अपार जनसमूह उपस्थित था। ४-५ किमी. लम्बे इस जुलूस में ३-४ सरकारी नेता माताजी के दर्शनार्थ पधारे, कई न्यूज पेपर एवं टी.वी. चैनल की कई टीमें पूरे जुलूस-सभा आदि का कवरेज कर रही थीं, पूरे रास्ते में कई स्थानों पर मंगल आरती, पुष्पवृष्टि आदि हुई। मध्यान्ह में २.३० बजे से मंदिर के बाहर बने भव्य पाण्डाल में विशाल प्रवचन सभा हुई, जिसमें वाराणसी नगरी के सभी गणमान्य महानुभाव उपस्थित हुए, पूरा प्रांगण भरा रहा। इस अवसर पर इलाहाबाद से भी अनेक महानुभाव पूज्य माताजी के दर्शनार्थ पधारे, जिसका स्वागत वाराणसी जैन समाज द्वारा किया गया। रात तक चले इस कार्यक्रम को देखकर लोगों का यही कहना रहा कि माताजी! बनारस में पहली बार ऐसा उत्साह देखा जा रहा है।
==भगवान सुपाश्र्वनाथ जन्मभूमि की चरणरज मस्तक पर चढ़ाई-==
२० नवम्बर को हम लोग वाराणसी में ही स्थित भदैनी मंदिर के दर्शनार्थ गए जो कि भगवान सुपाश्र्वनाथ की जन्मभूमि है, गंगा के तट पर बसे इस रमणीक स्थल को भी जीर्णोद्धार की आवश्यकता है। पुन: स्याद्वाद महाविद्यालय में भी मंदिर के दर्शन करके माताजी ने संक्षिप्त उद्बोधन दिया, जिसमें डॉ. फूलचंद जैन प्रेमी, डॉ. कमलेश जैन, पं. बाबूलाल जी फागुल्ल आदि विद्वान उपस्थित थे। वहाँ के प्राचार्य जी ने संस्कृत भाषा में पूज्य माताजी के प्रति आभार एवं सम्मान व्यक्त किया। =
=काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में गूंज उठा धर्म का शंखनाद-==
२१ नवम्बर को मध्यान्ह १.३० बजे वाराणसी के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के मालवीय भवन में गूंजे धर्म के शंखनाद से वहाँ के विद्वत्वर्ग पूज्य माताजी के चरणों में नतमस्तक हो गये। प्रवचन सभा में कार्यक्रम का शुभारंभ संघस्थ बहनों कु. चन्द्रिका एवं इन्दु के भजन से हुआ, पुन: वैदिक मंगलाचरण डॉ. नरेन्द्र तिवारी ने प्रस्तुत किया। संस्कृत विभाग की छात्राओं द्वारा कुलगीत की प्रस्तुति एवं माननीय कुलपति एवं मुख्य अतिथि प्रो. रेवा प्रसाद द्विवेदी जी के द्वारा महामना की प्रतिमा पर माल्यार्पण के पश्चात् प्रवचन शृँखला का शुभारंभ हुआ। सर्वप्रथम प्रो. सुदर्शनलाल जैन ने पूज्य माताजी का परिचय देते हुए माताजी को फैजाबाद यूनिवर्सिटी से प्राप्त डी.लिट्. की मानद् उपाधि का विस्तृत वर्णन किया पुन: मैंने और संघस्थ पीठाधीश क्षुल्लक मोतीसागर जी ने ‘‘धर्म और संस्कृति’’ विषय पर सभी को उद्बोधन दिया। मुख्य अतिथि प्रो. रेवा प्रसाद द्विवेदी ने धर्म और संस्कृति पर विशिष्ट व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए पूज्य माताजी एवं हम लोगों के संस्कृत उच्चारण की शुद्धता की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की। सारस्वत अतिथि सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. राजेन्द्र मिश्र ने धर्म और संस्कृति को राष्ट्रीय महत्त्व प्रदान करते हुए वर्तमान समय में सन्तों की उपादेयता पर प्रकाश डाला। पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने अणुव्रत के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि हमारी उत्तम भारतीय संस्कृति में किसी की मृत्यु को मरा हुआ न कहकर देवलोक हो गया कहा जाता है। वास्तव में संस्कारों से संस्कारित जीवन ही संस्कृति है। काटना, तोड़ना हमारी संस्कृति नहीं है। जब हम संस्कार से पाषाण को भगवान बना सकते हैं तो आत्मा को संस्कारित कर भगवान नहीं बना सकते क्या? आत्मा की सत्ता शाश्वत है, उसकी शाश्वत दृष्टि हमारी संस्कृति है। जैनधर्म के सारे ग्रंथ संस्कृत और प्राकृत में हैं। पूज्य माताजी ने कुलपति महोदय को विश्वविद्यालय में प्राकृत विभाग की महत्ता बताते हुए प्रतिवर्ष विश्वविद्यालय में भगवान ऋषभदेव एवं भगवान पाश्र्वनाथ पर संगोष्ठी हेतु प्रेरणा प्रदान की, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. रामचन्द्र राव ने अपने उद्बोधन में कहा कि धर्म सामान्यजनों के लिए समझना आसान नहीं है अत: सन्त-महात्माओं की आवश्यकता होती है। दिगम्बर जैन समाज काशी की ओर से श्री मुन्नीबाबू एवं संकल्प संस्था (वाराणसी) के पदाधिकारी श्री दीपक जैन एवं अन्य गणमान्य बंधुओं द्वारा दोनों कुलपति एवं प्रो. रेवा प्रसाद द्विवेदी को विशेष स्मृति चिन्ह भेंट किए गए। कर्मयोगी ब्र.रवीन्द्र जी (अध्यक्ष-जम्बूद्वीप, हस्तिनापुर) ने संस्थान की ओर से एक अलमारी एवं पूज्य माताजी द्वारा लिखित साहित्य विश्वविद्यालय के केन्द्रीय पुस्तकालय हेतु प्रदान किया गया।
वर्तमानकालीन चौबीसी के ११वें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ के जन्म से पावन भूमि शास्त्र पुराणों में सिंहपुरी के नाम से वर्णित है, जिसे वर्तमान में सारनाथ के नाम से जाना जाता है और मुख्यरूप से यह बौद्धतीर्थ के रूप में प्रसिद्धि को प्राप्त है। उस पवित्र भूमि पर पूज्य माताजी के चरण पड़े २४ नवम्बर २००२ को, वहाँ के जिनमंदिर के दर्शन के पश्चात् जब हम दिगम्बर जैन धर्मशाला में पहुँचे, तो वहाँ के कार्यकर्ताओं ने भगवान श्रेयांसनाथ की बड़ी मूर्ति दिखाते हुए माताजी को बताया कि काफी दिनों से यह मूर्ति आई हुई रखी है और इसकी पंचकल्याणक का कोई योग नहींr आ रहा है। अगर आप चाहें, तो शीघ्र ही इसका पंचकल्याणक संभव हो सकेगा, उस समय माताजी ने उसे विचारणीय विषय के अन्तर्गत रख दिया, चूँकि अभी माताजी का लक्ष्य कुण्डलपुर तीर्थ का विकास था। उस समय माताजी ने उस तीर्थ को ‘‘श्रेयांसनाथ धर्मस्थल’’ के नाम से घोषित किया।
==चन्द्रप्रभू की जन्मभूमि चन्द्रपुरी के दर्शन-==
जिन अतिशयकारी चन्द्रप्रभु तीर्थंकर के अतिशय क्षेत्र तिजारा में चमत्कारों के कारण अतिशायी भीड़ रहती है और निरन्तर यात्रियों का तांता लगा रहता है, उन तीर्थंकर भगवान ने किस स्थल पर जन्म लिया तथा उस तीर्थ की वर्तमान में क्या स्थिति है, शायद किसी ने जानने की भी कोशिश नहीं की। शास्त्र-पुराणों में वर्णित उन अष्टम तीर्थंकर भगवान चन्द्रप्रभु की जन्मभूमि पर जब २७ अक्टूबर को पूज्य माताजी ने पदार्पण किया, तो उसकी वीरानियत देखकर उनके मन को अत्यधिक कष्ट हुआ। चन्द्रावती के नाम से मशहूर उस तीर्थ पर दो दिवसीय प्रवास के मध्य धर्मोपदेश के साथ-साथ दो दिवसीय ‘‘पंचकल्याणक विधान’’ आदि विविध धार्मिक कार्यक्रम हुए। वहाँ के कार्यकर्ताओं को तीर्थ विकास की प्रेरणा देने के पश्चात् माताजी ने २८ नवम्बर को भगवान का विधिवत् पंचामृत अभिषेक देखा और भगवान चन्द्रप्रभु एवं उनके जन्म से पावन चन्द्रपुरी तीर्थ को बारम्बार नमन कर आगे की ओर विहार किया।
==सेठ रिसबदास जी की प्रसन्नता देखते ही बनती थी-==
१ दिसम्बर को हम लोग महाराजगंज नाम के छोटे से गाँव के स्कूल में रुके हुए थे, प्रात: ६.३० बजे बनारस से दीपक जी अपने माता-पिता और पुत्री को लेकर महाराजगंज आ गए और अपने पिताजी से यह कहकर नारियल चढ़वाया कि मुझे कुण्डलपुर में सौधर्म इन्द्र बनना है। सेठ रिसबदास जी बहुत ही प्रसन्नतापूर्वक बोले कि माताजी! आपने तो मेरे बेटे-बहू को बिल्कुल ही बदल दिया है। चूँकि आज रिसबदास जी का जन्मदिवस था अत: उन्होंने माताजी को श्रीफल समर्पित कर उनका आशीर्वाद भी प्राप्त किया। माताजी ने इन्हें आशीर्वादस्वरूप अपने हाथ से फैरी हुई जपमाला प्रदान की। जब माताजी ने वहाँ से प्रस्थान किया तो दीपक जी हर दिन की भाँति माताजी के साथ दौड़-दौड़कर चलते रहे, जिसे देखकर उनके पिता जी ने अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव किया। दीपक जी की पुत्री कु. स्तुति जैन मेरे साथ उस दिन १३ कि.मी.पूरा पैदल चली।
==अध्यापकों के अनुनय विनय पर कॉलेज में भी एकदिवसीय प्रवास हुआ-==
जब से माताजी ने प्रयाग से विहार किया था, तब से प्रत्येक स्थान पर वह एक-दो दिन से ज्यादा नहींr रुक रही थीं, हाँ! कभी विशेष कार्यक्रम हो तो भले ही लम्बा प्रवास हुआ और छोटे-छोटे गांवों में तो सुबह-शाम दोनों टाइम विहार होता आ रहा था। इसी प्रकार भांवरकोल से होती हुई जब माताजी कोटवां बाजार के श्री सिद्धेश्वर इंटर कालेज में सायंकाल पहुँचीं, तो यहाँ के कई अध्यापकों ने पूज्य माताजी से अत्यन्त विनम्रतापूर्वक आग्रह किया कि माताजी! आपको पहले यहाँ ४ दिसम्बर को आना था अत: हमने २-३ दिन पूर्व से ही अपने कॉलेज के ६०० विद्यार्थियों को आपके प्रवचन की सूचना कर दी थी किन्तु आपका आगमन एक दिन पूर्व ही हो गया और आप कल प्रात: ही विहार करना चाहती हैं, तो हमारा आपसे यही निवेदन है कि आप कल बच्चों को अपना मार्गदर्शन एवं प्रवचन करके ही जावें। जब उन्होंने ज्यादा आग्रह किया तो पूज्य माताजी ने निर्णय किया कि मैं यहाँ प्रात: प्रवचन करके आगे आ जाऊँगी और तुम लोग प्रात: जल्दी चले जाना। पूज्य माताजी की आज्ञानुसार हम आगे की ओर विहार कर गए और आगे पहुँचकर वहाँ के विद्यालय में प्रवचन व प्रश्नमंच किया। वैसे विहार के मध्य प्राय: सभी विद्यालयों में रोज प्रवचन करके प्रश्नमंच में बच्चों को पुरस्कृत किया गया है।
==मंत्र जाप्य से प्रतिमा जी वापस मिल गर्इं-==
आरा शहर से २० किमी. दूर मसाढ़ नाम के गांव के स्कूल में हमारा प्रवास था, जहाँ आरा से लगभग १५० लोग माताजी के दर्शनार्थ पधारे थे, मध्यान्ह में शांतिविधान एवं माताजी का मंगल प्रवचन हुआ, उन्होंने बताया कि मसाढ़ में व्यक्तिगत ट्रस्ट वालों का भगवान पाश्र्वनाथ जिनमंदिर है, जिसकी मुखिया शांतिदेवी जैन हैं, जो वहाँ उपस्थित थीं और आगन्तुक सभी के भोजन की व्यवस्था भी कर रही थीं। उस मंदिर से ८-९ वर्ष पूर्व संवत् १८७६ में प्रतिष्ठित काले पाषाण की २ फुट पद्मासन भगवान पाश्र्वनाथ प्रतिमा चोरी चली गई थीं, तो उस समय कई लोग अयोध्या जाकर पूज्य माताजी से मंत्र लेकर आए थे और उस मंत्र जाप्य के प्रभाव से प्रतिमा जी वापस मिल गर्इं। इसीलिए माताजी के उसी मंदिर में आगमन पर सभी लोग विशेष प्रसन्न हुए।
==धर्मनगरी आरा हो उठी कुण्डलपुरमय-==
कुण्डलपुर (नालंदा) की ओर मंगल विहार करते हुए संघ का १० दिसम्बर से १६ दिसम्बर २००२ तक आरा शहर में मंगल प्रवास विशेष धर्मप्रभावना सहित जन-जन को कुण्डलपुर के साथ एकाकार करते हुए पूर्ण हुआ। हरप्रसाद दास जैन विद्यालय, आरा के प्रांगण में षड्दिवसीय धर्मामृत की वर्षा आरावासियों को लम्बे समय तक स्मरण रहेगी। १० दिसम्बर को प्रात:काल भारी जनसमूह के मध्य गली-गली को गुंजायमान कर देने वाली भव्य स्वागत यात्रा निकली, सारी समाज में अत्यन्त उत्साह था, पूरे शहर में स्थान-स्थान पर अनेक तोरणद्वार, बैनर आदि लगाए गए था। मध्यान्ह २ बजे ‘धर्म की महासभा’ नाम से विशाल प्रवचन सभा का आयोजन हुआ। प्रतिदिन प्रवचनों के माध्यम से जिनेन्द्रभक्ति, ध्यान, तीर्थदर्शन, तीर्थोद्धार इत्यादि विविध विषयों के ज्ञान ने जनसमूह को नवीन चेतना से समन्वित किया।
==सरस्वती सम माता ज्ञानमती जी को दी ‘‘वाग्देवी’’ की उपाधि-==
१५ दिसम्बर २००२ को दिल्ली एवं अनेक स्थानों से पधारे प्रतिनिधियों के मध्य कुण्डलपुर विकास संबंधी एक महत्त्वपूर्ण बैठक कर्मयोगी ब्र.रवीन्द्र कुमार जी की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई, जिसके मध्य कुण्डलपुर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में बनने वाले सौधर्म इन्द्र-इन्द्राणी श्री दीपक जैन एवं उनकी धर्मपत्नी सहित उनके माता-पिता तथा पुत्र-पुत्री का कुण्डलपुर दिगम्बर जैन समिति की ओर से विशेष सम्मान किया गया। इसी बैठक के मध्य सम्पूर्ण आरा जैन समाज ने पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी को ‘‘वाग्देवी’’ की उपाधि प्रदान करते हुए अपने को सौभाग्यशाली माना।
==नाम की अद्भुत साम्यता देखी-==
१३ दिसम्बर को ११ बजे आरा शहर के प्रमुख श्रेष्ठी श्री हरखेन कुमार जैन के सुपुत्र कृष्ण कुमार जैन आए और उन्होंने पूज्य माताजी से अपने ट्रस्ट द्वारा संचालित अनेक धार्मिक संस्थाओं के बारे में बताते हुए कहा कि मैंने अपनी माँ मोहिनी के नाम पर विद्यालय का निर्माण कार्य प्रारंभ किया है और उसमें आपका आशीर्वाद चाहता हूँ। माताजी ने दिन मेंं ४ बजे मुझे और मोतीसागर जी को वहाँ भेजा, तो हमने देखा कि बहुत बड़ा विद्यालय लगभग बन चुका है और कृष्णकुमार जी की इच्छा है कि बड़ी माताजी के चरण भी यहाँ पड़ें, मैं उनके नाम का शिलालेख यहाँ लगाऊँ, उनका गोत्र भी गोयल है और माताजी का जन्म गोत्र भी गोयल है, माताजी की माँ का नाम भी मोहिनी देवी था और कृष्ण कुमार की माँ का नाम भी मोहिनी देवी था। पहले से ये ज्ञानस्थली नाम से एक शिक्षण संस्था चला रहे हैं अब नाम, गोत्र आदि सब एक जैसा होने से उन्हें बहुत आत्मीयता जुड़ गई है अत: उनके निवेदन पर माताजी ने १५ दिसम्बर को वहाँ पधारने की स्वीकृति प्रदान की, प्रात:काल माताजी ‘‘माता मोहिनी कन्या विद्यालय’’ गर्इं, वहाँ यंत्र स्थापित किया और शिलालेख का अनावरण भी हुआ। अपने निवेदन को स्वीकृत हुआ देखकर श्रावकरत्न श्री कृष्ण कुमार जी फूले नहीं समाये। आगे भी उनके सुपुत्र कमल कुमार एवं सौ. अनुपमा पूज्य माताजी के अनन्य भक्त के रूप में कुण्डलपुर के साथ जिस आत्मीयता से जुड़े, वह वास्तव में सराहनीय है।
==बाहुबली मस्तकाभिषेक देखकर मन फूला नहीं समाया-==
आरा शहर से विहार करके सर्वप्रथम हमने पूज्य माताजी के साथ जैन सिद्धान्त भवन देखा, जहाँ डॉ. राजाराम जी से भेंट हुई एवं कुछ सामयिक चर्चाएं भी हुर्इं। पुन: जैन बाला विश्राम (चंदाबाई आश्रम) पहुँचे, जहाँ स्कूल की बालिकाएँ स्वागत के लिए खड़ी थीं। वहाँ भगवान बाहुबली का दर्शन एवं भव्य पंचामृत अभिषेक देखकर मन फूला नहीं समाया। बाला विश्राम के सामने सड़क पार करके दो जिनमंदिर हैं, उनके दर्शन किए तथा सहस्रकूट, पाश्र्वनाथ आदि की बड़ी-बड़ी सुन्दर प्रतिमाओं के दर्शन किए और अभिषेक भी देखा। मध्यान्ह में सैकड़ों छात्राओं के लिए मंगल उद्बोधन प्रदान करते हुए संघ ने पटना की ओर मंगल प्रस्थान किया।
==पटना शहर में ज्ञानामृत की वर्षा-==
१३ दिसम्बर २००२ को आरा शहर में पटना के वरिष्ठ कार्यकर्ता श्री रामगोपाल जी, अजय जी आदि अनेक गणमान्य महानुभावों ने पटना पदार्पण के लिए पूज्य माताजी को श्रीफल चढ़ाया, उनके आग्रह पर माताजी ने संघ सहित १९ दिसम्बर को पटना में मंगल प्रवेश किया। ४ दिवसीय इस प्रवास में संघ सानिध्य का लाभ पटनावासियों के लिए महान सौभाग्य का सूचक बनकर अवतरित हुआ, जब पूज्य माताजी के मुखारविंद से हुई ज्ञानामृत की वर्षा ने समस्त जैन समाज को सराबोर कर दिया। १९ व २० दिसम्बर को दिगम्बर जैन मंदिर मीठापुर के प्रवास में प्रवचन सभाओं के अतिरिक्त ध्यान साधना का आयोजन हुआ तथा दिन में १ बजे से मंदिर जी में १००८ अघ्र्य से समन्वित वीरगुणसंपद् विधान हुआ। उसी के मध्य हुए वक्तव्य से जनसमूह ने माताजी के मुखारविंद से कुण्डलपुर के महत्व को जाना। २१ व २२ दिसम्बर २००२ को जैनभवन, कांग्रेस मैदान-कदमकुंआ में संघ का प्रवास रहा, जहाँ २२ दिसम्बर को माताजी के पावन सानिध्य में दश दिवसीय शिक्षण शिविर का विधिवत् उद्घाटन भी सम्पन्न हुआ। पूज्य माताजी ने जिस दिन से पटना में मंगल पदार्पण किया, तब से बिहार दिगम्बर जैन तीर्थ न्यास बोर्ड के अध्यक्ष श्री रामगोपाल जी पूरा दिन संघ की सेवा में लगे रहते थे जबकि यहाँ के लोगों ने बताया कि ये इस प्रकार कभी किसी साधु के साथ नहीं लगे हैं। वैसे पटना के लोगों में वैशाली के संस्कार कुछ ज्यादा थे किन्तु तीन दिनों के अन्तर्गत पूज्य माताजी एवं हम लोगों के प्रवचन से सभी को वास्तविकता समझ में आई और उनके हृदय में कुण्डलपुर के प्रति सहयोग की भावनाएँ भी वृद्धिंगत हुईं।
==सिद्धक्षेत्र गुलजारबाग के दर्शन किए-==
पटना से विहार कर ७ किमी. दूर सिद्धक्षेत्र गुलजारबाग में मंगल पदार्पण हुआ। सेठ सुदर्शन की निर्वाणभूमि के नाम से विख्यात यह स्थल कभी दिगम्बर जैन धर्मावलम्बियों का पूज्य पवित्र तीर्थ था परन्तु वर्तमान में कालदोषवश अथवा समाज की सुप्ततावश वह अपने लिए केवल दर्शन हेतु उपलब्ध रहता है। दिगम्बर जैन धर्मशाला में स्थित भगवान नेमिनाथ जिनमंदिर के दर्शन कर उपस्थित जनसमुदाय को पूज्य माताजी ने अपना मंगल आशीर्वाद प्रदान किया। मध्यान्ह ३ बजे हम लोग पुरानी पटना सिटी में गए, वहाँ ४ दिगम्बर जैन मंदिर हैं किन्तु जैन घर केवल ५-७ होने से उन मंदिरों की स्थिति नाजुक है। वहाँ के लोगों ने बताया कि पहले कभी यहाँ ५०० जैन घर थे किन्तु धीरे-धीरे लोगों के बाहर चले जाने से अब पटना सिटी में धर्मरुचि बहुत कम हो गई है। यह सुनकर मन में बड़ा दुख हुआ कि जिनसंस्कृति की इन अमिट धरोहरों की दिगम्बर जैन समाज अगर देखरेख नहीं करेगा, तो एक न एक दिन फिर कोई अराजक तत्त्व इन पर अपना कब्जा जमा लेंगे, वस्तुत: अभी दिगम्बर जैन समाज के जागृत होने की अत्यधिक आवश्यकता है।
==बना नंद्यावर्त महान हे माता तेरी कृपा से (स्वप्न में दिखा तीर्थ का साकाररूप)-==
शास्त्र पुराणों में वर्णन आता है कि स्वस्थ अवस्था में देखा गया स्वप्न उचित फल को प्रदान करता है।’’ फिर इस समय तो हम सभी के मन में उठते-बैठते कुण्डलपुर तीर्थ विकास की ही धुन रहती थी। २६ दिसम्बर की रात्रि, जब हम अपनी मंजिल से कुछ ही दूर पर थे, रात्रि में ३ बजे मैंने स्वप्न में देखा कि एक बहुत बड़े पाण्डाल में खूब पूजा-भक्ति हो रही है और उसी के मध्य वाद्य यंत्र बजाने की प्रतियोगिता चल रही है, तो सब लोग बांसुरी, ढपली, मंजीरा, बैण्ड आदि बजा रहे हैं, उसी में वाराणसी निवासी सेठ रिसबदास जी की पुत्रवधू (दीपक जी की धर्मपत्नी) श्रीमती सुभाषिनी ने अपनी बेटी स्तुति को एक भजन लिखकर भेजा, तो वह बजाती, गाती और नाचती हुई एकदम पीछे से आगे तक आ गई और माताजी की गोद में सिर रखकर भावविह्वल हो बोलने लगी। कु. स्तुति ने जो गीत गाया, उसके पूरे शब्द तो मुझे याद नहीं हैं किन्तु भाव थे कि माता! हम लोगों ने तो आपके द्वारा ही धर्ममार्ग और ज्ञान प्राप्त किया है और आप अब हमें मत छोड़ना। उस भजन की एक कर्णप्रिय पंक्ति मुझे अवश्य याद रही-बना नंद्यावर्त महान, हे माता! तेरी कृपा से। मैंने तुरंत यह सपना माताजी से ३ बजे रात्रि में ही बताया, तो उसे सुनकर माताजी को बड़ी प्रसन्नता हुई। ठीक इसी प्रकार का तीर्थ के साकाररूप को प्रदर्शित करता स्वप्न मैंने २८ दिसम्बर को रात्रि में देखा कि कुण्डलपुर में चलते-चलते मुझे ठोकर लगी और कंकर उठाते ही धरती से एक चांदी की प्रतिमा निकल पड़ी, पुन: ५-६ पीतल धातु की प्रतिमाएँ निकल पड़ीं और उन प्रतिमाओं को मैंने जल्दी से उठा लिया है। सुबह उठते ही मन में बड़ी प्रसन्नता हुई और मैंने पूज्य माताजी को बताया तो उन्होंने कहा कि ये स्वप्न तीर्थ के विकसित स्वरूप और २६०० वर्षों के पुन: जीवन्त होते इतिहास को सूचित कर रहे हैं।
==अतिशयकारी है प्रयाग के भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा-==
प्रयाग तीर्थ में मंगल चातुर्मास के अनन्तर १० नवम्बर २००२ को जब माताजी ने कुण्डलपुर की ओर मंगल विहार किया, उस समय विहार करते समय अचानककैलाशपर्वत पर विराजमान भगवान ऋषभदेव के चरणों में नमन करते हुए पूज्य माताजी के मुँह से निकल गया कि हे भगवन्! मैं और कुछ नहीं अपितु आपके पोते का ही उत्सव करने जा रही हूँ, अब मेरी पतवार आपके हाथ में है।’’ दरअसल बात यह थी, उन दिनों रवीन्द्र जी चिंतित रहते थे कि माताजी ने फरवरी २००३ में कुण्डलपुर में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा और मस्तकाभिषेक महोत्सव घोषित कर दिया है किन्तु वहाँ अभी मैं कोई निर्माण ही प्रारंभ नहीं कर पाया हू, तो दो-तीन माह के अन्दर फरवरी में महोत्सव वैâसे संभव हो पाएगा? उन्होंने पूज्य माताजी से बार-बार तारीख बढ़ाने का आग्रह किया किन्तु माताजी ने कहा कि जो तारीख घोषित हो गई है, उसे मत टालो। पुन: माताजी को भी विंâचित् आकुलता हुई कि सब कुछ इतनी जल्दी वैâसे हो पाएगा? लेकिन शायद प्रयाग के भगवान ऋषभदेव का अतिशय ही था कि प्रयाग से निकलकर बनारस पहुँचते ही एकमात्र प्रेरणा पर कुण्डलपुर के महोत्सव में सौधर्म इन्द्र बनने हेतु श्री दीपक कुमार जैन (वाराणसी) तैयार हो गये और ज्यों-ज्यों संघ आगे बढ़ा,त्यों-त्यों बनारस, आरा-पटना सभी स्थान के लोग कुण्डलपुर के साथ जुड़ते चले गए। इस प्रकार भक्तों के विशाल समूह के साथ २९ दिसम्बर २००२ को पूज्य माताजी एवं हम सभी का संघ सहित मंगल पदार्पण भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर (नालंदा) में हो गया और प्रभु के दर्शन कर हम सभी ने अपने को धन्य माना।
==एक ऐतिहासिक यात्रा की सुखद पूर्णता-==
जिन शासनपति भगवान महावीर की छत्रछाया में हम और आप रहकर धर्म का निराबाध पालन करते हुए संसार भ्रमण को समाप्त करने हेतु अग्रसर हैं, उनकी जन्मभूमि की चरण रज मस्तक पर लगाना, साक्षात् रूप में वहाँ पहुँचना, एक स्वप्न की भाँति ही था किन्तु पूज्य माताजी जैसी दैवी शक्ति के लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं है। तभी तो इतनी कठिन यात्रा सुखद पूर्णता के साथ सम्पन्न हो गई। पग-पग करके धर्म का अलख जगाते हुए, १३०० किमी. की दूरी तय करके हृदय में अपूर्व उल्लास एवं आनन्द के साथ पूज्य माताजी एवं समस्त संघ के साथ जब हमने २९ दिसम्बर २००२ को भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर (नालंदा) में प्रवेश किया, तो ५० वर्षों के पश्चात् इस भूमि पर आयोजित जुलूस ने चारों दिशाओं को भगवान महावीर की जयकारों से गुंजायमान करते हुए २६०० वर्ष पूर्व के इतिहास को साकार करने का ऐतिहासिक प्रयास किया। राजधानी दिल्ली, वाराणसी, आरा, पटना, कोडरमा, इलाहाबाद, महाराष्ट्र आदि विविध अंचलों से पधारे भक्तों के अतिरिक्त सैकड़ों स्थानीय ग्रामवासियों ने अपूर्व उत्साह के साथ शोभायात्रा एवं धर्मसभा में भाग लिया। नालंदा स्थित श्वेताम्बर जैन मंदिर से प्रारंभ होकर जुलूस मध्यान्ह लगभग १.३० बजे कुण्डलपुर अवस्थित प्राचीन भगवान महावीर मंदिर में पहुँचा, वहाँ के पदाधिकारियों श्री अजय जी-आरा आदि ने संघ का स्वागत किया, मंदिर जी में प्रवेश कर भगवान महावीर का दर्शन करके पूज्य माताजी ने २० फरवरी को राजधानी दिल्ली से प्रारंभ यात्रा की सकुशल सुखद पूर्णता पर विशेष आंतरिक आल्हाद एवं प्रसन्नता का अनुभव किया। तत्पश्चात् पुराने मंदिर के समक्ष नवीन निर्माण के लिए क्रय की गई भूमि पर आयोजित धर्मसभा में स्थानीय प्रो. विजय कुमार शर्मा ने सभी कुण्डलपुरवासियों की ओर से जैन समाज को यह विश्वास दिलाया कि पूज्य माताजी द्वारा उठाये गए हर कदम को हम सिर-माथे पर लेंगे। पूर्व शिक्षा मंत्री (बिहार सरकार) श्री तरुण जी ने कहा कि पूज्य माताजी के आने से तो सारा विवाद ही समाप्त हो गया है क्योंकि माता ही संतान को वास्तविकता का बोध कराती है। बिहार तीर्थ क्षेत्र कमेटी के मंत्री श्री अजय कुमार जैन ने जन्मभूमि के रूप में पूज्य माताजी द्वारा कुण्डलपुर के विकास के संकल्प की पुरजोर प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि ५० वर्ष पूर्व वैशाली को जन्मभूमि के रूप में प्रचारित करना प्रारंभ किया गया, पर ९५ प्रतिशत जनता की श्रद्धा कुण्डलपुर (नालंदा) के साथ ही जुड़ी रही और आज भी जुड़ी है। पूज्य माताजी के कुण्डलपुर मंगल प्रवेश की पावन बेला में भक्तों द्वारा खूब रत्नवृष्टि की गई एवं रात्रि में १०८ दीपकों से भगवान महावीर की मंगल आरती सम्पन्न की गई। वस्तुत: अत्यन्त शुभ एवं उल्लासपूर्ण वातावरण में भगवान महावीर जन्मभूमि का एक नूतन पृष्ठ प्रारंभ हुआ, जिसका भविष्य अत्यन्त उज्ज्वल रहा।
==कुण्डलपुर विकास के प्रारंभिक चरण-==
कुण्डलपुर में संघ का मंगल पदार्पण होते ही उत्तरमुखी नूतन क्रीत भूमि पर भगवान महावीर मंदिर का शिलान्यास पूज्य माताजी के संघ सानिध्य में श्री दीपक जैन-वाराणसी (सपत्नीक) ने २९ दिसम्बर २००२ को किया। शिलान्यास करके ज्यों ही माताजी आगे बढ़ीं, तो सामने सुसज्जित हाथी दिखाई दिया, उसे सभी ने लड्डू एवं गुड़ खिलाकर भगवान महावीर की जयकारों से कुण्डलपुर को गुंंजायमान कर दिया। पूज्य माताजी को इस दृश्य के शुभ शकुन ने कार्य की मंगलमयी पूर्णता हेतु आश्वस्त किया पुन: हम सभी लोग प्राचीन दिगम्बर जैन मंदिर परिसर के कमरों में आकर ठहरे और भक्तों की भीड़ ने अपने-अपने घर की ओर प्रस्थान कर दिया पुन: संघ की दिनचर्या ३० दिसम्बर से प्रारंभ हो गई। माताजी प्रतिदिन नवविकसित तीर्थ भूमि पर जाकर बाहर मैदान में ही संघस्थ ब्रह्मचारिणी बहनों से पूजा, विधान और जाप्य आदि का अनुष्ठान कराने लगीं। नवविकसित तीर्थ पर निर्माणकार्य द्रुतगति से चल रहा था तथा भीषण सर्दी ने भी उसमें कोई व्यवधान नहीं पैदा होने दिया।
==असली जन्मभूमि का चमत्कार-==
भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर तीर्थ पर पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के आशीर्वादपूर्वक ईसवी सन् के नववर्ष २००३ का सुप्रभात हुआ, प्रात:काल भगवान का पंचामृत अभिषेक हुआ और प्रतिदिन के क्रमानुसार प्रात: ६.३० से ७ बजे संघस्थ शिष्याओं को अध्ययन कराया, पुन: गुरुवंदना के पश्चात् जब माताजी की ब्र.रवीन्द्र जी के साथ नूतन तीर्थ नंद्यावर्त महल के मास्टर प्लान पर चर्चा हुई तो मात्र डेढ़-दो घंटे के अंदर ही पूरा मास्टर प्लान निर्णीत हो गया कि परिसर में तीन मंदिर उत्तरमुखी (महावीर मंदिर, ऋषभदेव मंदिर एवं नवग्रहशांति मंदिर) रहेंगे, पूर्वमुखी तीन मंजिला तीन चौबीसी मंदिर और उसके सामने नंद्यावर्त महल बनेगा। त्यागी भवन, धर्मशाला दक्षिण में मंदिर के पीछे एवं बाजू में रहेंगे।
==अनेक शंकाओं का समाधान करने वाली सच्ची वीर जन्मभूमि है कुण्डलपुरी-==
ईसवी सन् के नये वर्ष के शुभारंभ में सम्पूर्ण देशवासियों, देश के शासक-प्रशासक तथा भारत की सीमा पर तैनात वीर सुरक्षा सैनिकों के लिए नववर्ष का मंगलमयी आशीर्वाद प्रदान कर, भारत देश के गौरव को सदा वृद्धिंगत होने का शुभाशीर्वाद प्रदान करते हुए अपने उद्बोधन में पूज्य माताजी ने कहा कि जब से मैंने कुण्डलपुर में कदम रखा है, तब से मुझे अनेक प्रकार की सुखद अनुभूतियाँ हुई हैं तथा २-३ दिन के प्रवास में ही मेरी अनेक समस्याओं का समाधान हुआ है और इन सब उपलब्धियों से मुझे यह पक्का विश्वास हो गया है कि जहाँ २६०० वर्ष पूर्व भगवान महावीर ने जन्म लिया था, जहाँ उन वीर प्रभु को पालने में झूलते हुए देखने मात्र से संजय-विजय नामक चारण ऋद्धिधारी मुनियों की शंका का निवारण हो गया था, वह यही भगवान महावीर की सच्ची जन्मभूमि कुण्डलपुरी है। उस पवित्र स्थल की चरणरज प्राप्त कर वर्तमान युग के साधुओं की शंका का समाधान एवं भक्तों की मनोकामना की सिद्धि हो जाए, तो कोई अतिशयोक्ति वाली बात नहीं है।’’ यदि आप लोग भी सच्ची भक्ति के साथ कुण्डलपुर के ‘महावीर बाबा’ का दर्शन करेंगे, तो निश्चित रूप से मनोकामनाओं की सिद्धि होगी तथा समस्याओं का समाधान प्राप्त होगा।
==घर-घर चर्चा कुण्डलपुर की-==
पूज्य गणिनी माताजी के मुख में वास्तव में साक्षात् सरस्वती माता वास करती हैं और उनका उच्चरित प्रत्येक शब्द आगम का अटल वाक्य और अकाट्य सत्य है, उनकी उस सारभूत वाणी का ज्ञान जब जैन टी.वी. चैनल के माध्यम से १० जनवरी २००३ से घर बैठे लोगों को प्रात: ७ बजे से सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, तो भगवान महावीर २६००वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव के संदर्भ में जनता ने जैन आगम से संबंधित समस्त तथ्यों का विवेचन पूज्य माताजी के मुखारविंद से सुनकर भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर के वास्तविक तथ्यों की जानकारी प्राप्त की, जिससे स्वत: ही घर-घर कुण्डलपुर की चर्चा फैल गई। वास्तव में आज के भौतिकवादी युग में मीडिया एवं टी.वी. चैनल प्रचार-प्रसार के सशक्त माध्यम हैं।
==नद्यावर्त महल तीर्थ पर भगवान ऋषभदेव की वेदी का शिलान्यास-==
तीर्थ परिसर में द्रुतगति से निर्माणकार्य चल रहा था, उसी क्रम में नंद्यावर्त परिसर में भगवान महावीर मंदिर के दाहिने हाथ निर्मित होने वाले भगवान ऋषभदेव मंदिर की वेदी का शिलान्यास ५ जनवरी २००३ को प्रात: ९.३० बजे किया गया , जिसमें भगवान ऋषभदेव की सवा ग्यारह फुट पद्मासन प्रतिमा विराजमान होनी थीं और ३१²४८ फुट लम्बा-चौड़ा एवं २१ फुट ऊँचा मंदिर बनाने का निर्णय हुआ। यह प्रतिमा वाराणसी निवासी श्री रिसबदास दीपक कुमार जैन की ओर से विराजमान होने की स्वीकृति प्राप्त हुई। नंद्यावर्त महल परिसर की जिस भूमि का क्रय किया गया था, वहाँ ऊबड़-खाबड़ जमीन के अतिरिक्त कंटीली झाड़ियाँ और जीव-जन्तु भरे पड़े थे। धीरे-धीरे उस स्थल को सपाट एवं स्वच्छ कर निर्माण के योग्य बनाया जा रहा था किन्तु वहाँ के कर्मचारी और स्टॉफ के कार्यकर्ता आकर माताजी को बताते कि माताजी! यहाँ तो जरा सी मिट्टी फावड़े से हटाने में ही एक साथ कई-कई बिच्छू निकल आते हैं, हर दिन साँप भी निकलते हैं लेकिन आपके आशीर्वाद से हम निराबाध अपना कार्य कर रहे हैं परन्तु थोड़ा भय तो लगता ही है। एक दिन तो दो बड़े जीव-गोह निकल पड़े, जिसे स्टॉफ के ही सतवीर सिंह ने बांधकर हम लोगों को दिखाया। मैंने तो पहली बार ही इस जानवर को देखा था अत: उसे देखकर तो एकदम रोंगटे खड़े हो गए। उस समय सतवीर ने बताया कि माताजी! यह बड़ा जहरीला और तेज पकड़ वाला जानवर होता है, चोर लोग पूर्व में इसे किसी की मकान की छत पर डालकर उसमें रस्से बांधकर ऊपर चढ़ जाते थे, तो भी यह गिरने वाला जीव नहीं है अर्थात् अपने पंजों से यह उस स्थान को एकदम जकड़ लेता है। इन सबको देखकर माताजी ने सरसों मंत्रित कर सभी दिशाओं में क्षेपण करवार्इं, तब से इन जीवों की बहुलता समाप्तप्राय सी हो गई। हाँ! यदा-कदा कभी कोई जीव निकले भी, तो इतने दिन के प्रवास में कभी किसी का कोई अहित नहीं हुआ।
==जोर-शोर से तैयारियाँ प्रारंभ हो गर्इं-==
७ फरवरी से १२ फरवरी २००३, माघ शु. ६ से १० तक होने वाले महोत्सव को सम्पन्न करने हेतु कई बैठ सम्पन्न हुर्इं, जिनमें पटना, आरा, कोडरमा, गया, हजारीबाग तथा दिल्ली-मेरठ आदि के श्रावकों ने अपनी-अपनी विभागीय जिम्मेदारियाँ संभालीं और रवीन्द्र जी के साथ सभी ने कंधे से कंधा मिलाकर कार्य में सहयोग प्रदान किया। कुण्डलपुर में नवविकसित हो रहे परिसर का नाम भगवान महावीर के जन्म से पावन महल के नाम पर ‘‘नंद्यावर्त महल’’ रखा गया। भगवान महावीर के जन्म महल के नाम से इंगित किए गए इस तीर्थ परिसर के अनेकों बोर्ड, बैनर, पोस्टर आदि देश के कोने-कोने में लगाए गए और पंचकल्याणक की व्यापक तैयारियाँ होने लगीं। १४ जनवरी २००३ को उस नंद्यावर्त महल परिसर में सर्वप्रथम जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर से भगवान ऋषभदेव तीर्थंकर की सवा ग्यारह फुट लालवर्णी पद्मासन प्रतिमा का मंगल पदार्पण हुआ। उन्हें यथास्थान वेदी पर विराजमान करने हेतु भगवान महावीर मंदिर के दार्इं ओर वेदी का निर्माण पहले शुरू कर दिया गया। इसी प्रकार मूल मंदिर के बार्इं ओर नवग्रहशांति जिनमंदिर का शिलान्यास ९ फरवरी २००३ को श्री ज्ञानचंद जैन-आरा ने किया। इस परिसर में इन तीन मंदिरों के अतिरिक्त त्रिकाल चौबीसी मंदिर (तीन मंजिला), नंद्यावर्त महल विशेष रूप से बनाने का निर्णय हुआ, किन्तु सर्वप्रथम फरवरी में होने वाले पंचकल्याणक में जिन-जिन प्रतिमाओं की प्राण-प्रतिष्ठा होनी थी, उनको विराजमान करने हेतु वेदी आदि के निर्माण प्राथमिक स्तर पर दु्रतगति से हुए पुन: कुछ अस्थाई कच्चे कमरे बनाकर भाई जी ने पूज्य माताजी एवं हम सभी को नंद्यावर्त परिसर में ३० जनवरी २००३ को प्रवेश कराया, इससे पूर्व २५ जनवरी को मैंने नंद्यावर्त स्थल-कुण्डलपुर में प्रथम बार अपने दीक्षित जीवन का ४३वाँ केशलोंच किया। लगभग १ माह से पूज्य माताजी एवं हम सभी प्राचीन मंदिर के कमरों में थे चूँकि पंचकल्याणक के दिनों में बार-बार वहाँ से नंद्यावर्त परिसर में आने लायक पूज्य माताजी का स्वास्थ्य नहीं था, इसलिए माताजी ने टीन के कमरों में रहना उचित समझा। इस मध्य कुण्डलपुर में दूर-दूर से भक्तों के समूह आए और सब तेज गति से कुण्डलपुर का विकास कार्य होते देखकर खूब प्रसन्न होते एवं प्रशंसा करते-करते सबके नेत्रों से हर्षाश्रु निकल पड़ते, वस्तुत: यह सब कलियुग में जिनेन्द्र भगवान का प्रभाव मानना चाहिए कि अच्छे कार्यों को देखकर असली भक्त गद्गद हुए बिना नहीं रहते।
==कुण्डलपुर यात्रा ने लिया सार्थक रूप-==
महोत्सव की तैयारी में कुण्डलपुर के अन्दर आयोजन समिति द्वारा आगन्तुक श्रद्धालुओं के लिए बसाई गई नगरी को देखकर लोग इसे देवोपुनीत अतिशय ही मान रहे थे क्योंकि लगभग १०० वर्षों में वहाँ ऐसा कोई अद्वितीय आयोजन हुआ ही नहीं था। श्रद्धालुओं के निरन्तर आगमन के साथ माताजी को बार-बार मूलनायक भगवान महावीर के आने और उन्हें यथास्थान वेदी पर विराजमान करने की चिंता थी, जिसका निवारण ७ फरवरी को गर्भकल्याणक के दिन ही हुआ। प्रतिमा तो ५ फरवरी, माघ शु. चतुर्दशी की रात्रि में जयपुर से कुण्डलपुर पहुँच गई, अगले दिन ६ फरवरी को व्रेâन ने प्रतिमा की पेटी २५ फुट ऊँचे महावीर मंदिर के प्लेटफार्म पर पहँुचा दी किन्तु वेदी पर विराजमान करना व्रेन के लिए भी असंभव था अत: चैनपुली के द्वारा ७ फरवरी की मध्यान्ह १ बजे से प्रतिमा विराजमान का उपक्रम प्रारंभ हुआ। पूज्य माताजी उस समय वहीं बैठकर मंत्र जाप्य करती रहीं पुन: मैंने, संघस्थ क्षु. मोतीसागर जी, रवीन्द्र जी आदि के साथ सेठ रिसबदास जी-वाराणसी आदि श्रावकों ने शाम तक वहीं बैठकर मंत्र जाप्य किया और जब शाम ७ बजकर ५० मिनट पर भगवान महावीर यथास्थान विराजमान हो गए, तब भक्तगणों ने रत्नवृष्टि, जय-जयकारों के स्वरों से सम्पूर्ण परिसर को गुंजायमान कर दिया।
==जम्बूद्वीप के सभी कार्यकर्ता आशीर्वाद के पात्र हैं-==
भगवान महावीर की श्वेतवर्णी मनोज्ञ प्रतिमा को ऊँचाई पर विराजमान करने के इस जोखिम भरे कार्य को सम्पन्न करने में जहाँ कुछ आगन्तुक इंजीनियर भयभीत हो रहे थे, वहीं जंबूद्वीप-हस्तिनापुर के कुशल सुपरवाइजर शरीफ अहमद एवं जयपुर के मिस्त्री आत्माराम ने पूरी हिम्मत के साथ इस कार्य को सम्पन्न करके अपना कर्तव्य निभाया। पूज्य माताजी ने उन दोनों पुण्यात्माओं के लिए खूब मंगल आशीर्वाद प्रदान किया और भक्तों ने उन्हें पुरस्कार प्रदान किया। वास्तव में जो पुण्यशाली जीव होते हैं, वे मात्र थोड़ा सा अवलम्बन पाकर भी अपने आगामी पुण्य का संचय करने में कभी पीछे नहीं रहते हैं, इसीलिए आचार्यों ने पुण्यात्मा जीव के बारे में बताते हुए कहा है कि- जीवानां कृतपुण्यानां, माङ्गल्यं च दिने दिने। अर्थात् पुण्यशाली जीवों का हमेशा कल्याण होता है। शायद पुण्य के फलस्वरूप ही माताजी की प्रेरणा से सम्पन्न होने वाले सभी निर्माणकार्यों में शरीफ का हाथ अवश्य लगता है बल्कि यूँ कहें कि उसका हाथ लगे बिना माताजी को कोई कार्य पसंद ही नहीं आता है। पूज्य माताजी को इस बात का गौरव है कि जम्बूद्वीप में २५-३० वर्षों से कार्यरत शरीफ अहमद जाति से मुस्लिम होने पर भी पूर्णरूपेण शाकाहारी है और उसका पूरा परिवार भी पूर्ण शाकाहारी है। आज भी उसकी पूज्य माताजी के प्रति अगाढ़ भक्ति है, तभी वह परिवार का मोह छोड़कर जहाँ भी माताजी निर्माण कार्य करवाती हैं, महीनों रहकर निर्माण कराने का पुण्य अर्जित कर लेता है। उसके समान ही हस्तिनापुर-जम्बूद्वीप के सभी कर्मचारी जैन-अजैन आदि पूरे मनोयोग एवं अपनत्व भाव से कार्य करके पुण्य सम्पादन कर लेते हैं। पूज्य माताजी यह बात गौरव के साथ कहती हैं कि ‘‘मेरी चर्या में बाधा आए बिना तीर्थोद्धार एवं विकास के जो महान कार्य सम्पन्न हो रहे हैं, उसमें कर्णधार भक्तमंडली के साथ-साथ मेरे संघस्थ शिष्य-शिष्याओं का एवं जम्बूद्वीप की सशक्त टीम का बहुत बड़ा योगदान रहता है, तभी मैं बड़े कार्यों की प्रेरणा देकर एकदम निश्चिंत रहती हूँ और अपने लेखन में व्यस्त रहती हूँ। जिस दिन मुझे ये संयोग नहीं प्राप्त होगें संभवत: मैं प्रभावना के कार्यों से विमुख होकर मात्र आत्मसाधना करूँगी क्योंकि आर्यिका चर्या में अपने संयम की साधना ही मेरा प्रमुख लक्ष्य है।
==आन्तरिक वेदना से हुआ अद्भुत चमत्कार-==
२८ जनवरी २००३ को कुण्डलपुर के प्राचीन मंदिर में राजधानी दिल्ली से भगवान महावीर २६००वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव की केन्द्रीय समिति के महामंत्री श्री डी.के. जैन (नोएडा) शिखर जी से पूज्य माताजी के दर्शनार्थ पधारे और यहाँ तीर्थ का प्रस्तावित स्वरूप देखकर बड़े खुश हुए। उस समय जब उनसे कुण्डलुपर तीर्थ विकास की विस्तृत चर्चा चलने लगी, तो उनसे पूज्य माताजी ने कहा कि यदि आप लोग सरकारी मीटिंग में से कुण्डलपुर का नाम न निकालते, तो यह विकास का अवसर न आता, उस समय उन्होंने जो एक तथाकथित विशिष्ट श्रावक की वूâटनीति पूर्ण बातें बतार्इं, उनकी असलियत जानकर माताजी को बड़ा क्षोभ हुआ कि देखो! उस व्यक्ति ने तीर्थंकर प्रभु की जन्मभूमि को बदलने की कुटिल भावनाओं से कितना पापबंध कर लिया। पुन: माताजी ने २ घंटे तक अयोध्या के भगवान ऋषभदेव का खूब ध्यान किया कि भगवन्! संसार में थोड़ी सी पदलिप्सा एवं स्वार्थसिद्धि के लिए लोग बड़ा से बड़ा पापबंध करने में भी नहीं डरते हैं। प्रभो! सभी प्राणियों को सद्बुद्धि प्राप्त हो……..इत्यादि। उधर सायंकाल ७ बजे अयोध्या के मंत्री सरोज जैन का फोन ब्र.रवीन्द्र जी के पास आया और रवीन्द्र जी आकर हम लोगों को बताने लगे कि माताजी! अयोध्या के भगवान ऋषभदेव का आज दोपहर से स्वत: ही (अपने आप) खूब अभिषेक हो रहा है, वहाँ न तो छत गीली है और न छत पर पानी है, न ही बारिश हुई है और न आस-पास ही कुछ है, ऐसा चमत्कार आज तक कभी नहीं हुआ है। तब सुनकर मन में यही लगा कि पूज्य माताजी के ध्यान परमाणुओं ने वहाँ पहुँचकर इन्द्रों से अभिषेक करवाया है। अभिषेक की बात सुनकर माताजी को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने कहलाया कि उस दृश्य का वीडियो-फोटो करवा लो। रात्रि ९ बजे तक लगातार यही समाचार मिलता रहा कि अभी अभिषेक चल रहा है और ऊपर से नीचे तक जलधारा बह रही है।
==तपस्या के प्रभाव से होती है बड़े-बड़े कार्यों की पूर्णता-==
नंद्यावर्त परिसर में यूं तो कार्य तेजी से चल रहा था लेकिन कभी-कभी बारिश हो जाने से कार्य में व्यवधान आने की संभावना प्रतीत होती थी । १ फरवरी को प्रात: ५ बजे से बरसात प्रारंभ हो गई अत: मिस्त्री-मजदूरों के काम में थोड़ी बाधा आई किन्तु पूर्व निर्धारित कार्यक्रमानुसार ११ बजे से भगवान महावीर मंदिर का लिन्टर पड़ना शुरू हुआ, जो रात को ११ बजे तक चला। दिन भर पता लगता रहा कि बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ, दिल्ली आदि सब जगह मूसलाधार बारिश हो रही है किन्तु यहाँ दिन भर थोड़ी हवा चलती रही और कुछ-कुछ धूप भी निकली अत: छत पड़ने में कोई बाधा नहींr आई। वस्तुत: यह सब पूज्य माताजी की तपस्या का प्रभाव ही है कि किसी न किसी तरह समय पर बड़े-बड़े कार्य पूर्ण हो ही जाते हैं।
==सत्यमेव जयते-==
यह अटल सत्य है कि अंतत: ‘‘सत्य की ही विजय होती है’’ भ्रांत व्युत्पत्तियों के बादल भले ही कितने सघन क्यों न हों, सत्य का सूर्य चमचमाते हुए सारे अंधकार को नष्ट करता ही है। भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर (नालंदा) में मात्र डेढ़ माह के अल्प समय में हुए नवनिर्माण एवं उसके पश्चात् आयोजित राष्ट्रीय स्तर की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं महावुंâभ मस्तकाभिषेक महोत्सव की अत्यन्त शालीन, पूर्ण निर्विघ्न एवं उत्कृष्ट भावना ने इस सर्वकालिक सिद्धान्त को और भी दृढ़ता से सुस्थापित कर दिया है। प्रतिष्ठा महोत्सव के छह दिनों (७ से १२ फरवरी २००३) के मध्य मानों कुण्डलपुर की धरती पर स्वर्ग ही उतर आया था। चारों ओर फैले जंगल के बीच मानों महामंगल ही घटित हो रहा था, ऐसा प्रतीत हो रहा था कि देवताओं ने आकर कुण्डलपुर महानगरी बसा दी है, जहाँ महान उत्सव, महान हर्ष का माहौल था। देश के विविध प्रान्तों से पधारे जैन श्रद्धालुओं एवं अजैन समाज की प्रतिदिन इतनी भीड़ रही कि ‘नंद्यावर्त मंडप’ में पैर रखने मात्र की जगह नहीं बची थी। सारे धार्मिक विधिविधान, रात्रिकालीन सांस्कृतिक कार्यक्रम इत्यादि सभी इतने सुव्यवस्थित एवं निर्विघ्न रूप से सम्पन्न हुए कि बार-बार ऐसा लगता था कि मानों स्वयं देवगण ही स्वर्ग से सारी व्यवस्था संचालित कर रहे हैंं। प्रतिष्ठा के मध्य मौसम ने भी पूरा साथ दिया, ठंड की कठोरता में समुचित कमी आ जाने से यात्रियों को भी किसी कष्ट का आभास नहीं हो रहा था। चारों ओर खुशियों का ऐसा सैलाब उमड़ रहा था जिसको कहने में असमर्थता सी अनुभव हो रही है और मेरे शब्द भी कम पड़ रहे हैं। यह सब देखकर बिहार प्रांत के लोगों का कहना था कि मात्र कुण्डलपुर में ही नहींr अपितु पूरे बिहार प्रांत में इतना विशाल, इतना भव्य एवं इतना सफल-सुव्यवस्थित कार्यक्रम हमारी कभी देखने में नहींr आया है। खैर! कठोर परिश्रम के पश्चात् ऐसी अभिव्यक्ति हृदय को शीतल तो लगती ही है। जनसाधारण के अतिरिक्त आगन्तुक प्रशासनिक अधिकारी एवं मंत्रीगण भी जहाँ कुण्डलपुर के इस वैभव से अभिभूत दिखाई पड़े, वहीं दिग्गज राजनेताओं ने भी कार्यक्रम में पधारकर जब भगवान महावीर जन्मभूमि के रूप में कुण्डलपुर के प्रति अपनी आस्था व्यक्त की, तो हृदय को अपार प्रसन्नता हुई।
==जाकी रहे भावना जैसी, प्रभु मूरत दीखे तिन तैसी-==
प्रसंगोपात्त यहाँ मैं इस बात का उल्लेख करना भी आवश्यक समझती हूँ क्योंकि अच्छे कार्य करने वालों के पीछे सदैव से ही कुछ छिद्रान्वेषी तथ्यहीन कथन करते देखे जाते हैं। प्राचीनकाल से मान्य भगवान महावीर जन्मभूमि के विकास का संकल्प माताजी के हृदय में इस जन्मोत्सव वर्ष में विशेषरूप से प्रभावी हो उठा, इसका कारण यही था कि भगवान के जन्ममहोत्सव का पूरा वर्ष मना लिया जाये और उस तीर्थंकर जन्म से परम पावन भूमि को उपेक्षित ही छोड़ दिया जाए! तो यह पूज्य माताजी को कथमपि स्वीकार नहीं था। सरकार से जन्मभूमि के नाम पर वैशाली और लिछवाड़ को उनकी कार्यसूची में नामांकित कराया गया तथा कुण्डलपुर का नाम नहीं लिया गया, तब माताजी ने स्वयं समाज के आधार से ही सम्पूर्ण समाज द्वारा मान्य जन्मभूमि कुण्डलपुर (नालंदा) को उसका खोया वैभव लौटाने का पक्का मन बना लिया। उनका कहना रहा कि आखिर जैन समाज ने ही अपने समस्त तीर्थों को सदियों से बनाया है, सरकार के पैसों से तीर्थ नहींr बनते हैं। इसी बात को लक्ष्य करके माताजी की कुण्डलपुर के लिए यह ऐतिहासिक मंगल पदयात्रा प्रारंभ हुई और उसी के साथ प्रारंभ हो गया घटिया आरोपों का दौर भी। पत्र-पत्रिकाओं में छपाया गया कि धन इकट्ठा करने का एक नया प्रपंच है। समाज में भ्रम उत्पन्न करने का यह सूत्र है। खैर! प्राचीन मान्यताओं की पुनसर्थापना के प्रयास में, जनसाधारण की सदा से चली आई श्रद्धा को दृढ़ आधार देने के प्रयास में, आगम की वाणी की रक्षा के प्रयास में यदि कुछ गिने-चुने लोगों का पेट दु:खता है, तो यही कहना पड़ेगा कि ‘‘जाकी रहे भावना जैसी, प्रभु मूरत दीखे तिन तैसी।’’ पूज्य माताजी के बारे में तो पूर्व में कही गई निम्न नीति वास्तव में सार्थक बैठती है-
प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचै:, प्रारभ्य विघ्नविहिता विरमन्ति मध्या:। विघ्नै: पुन: पुनरपि प्रतिहन्यमाना:, प्रारभ्य चोत्तमजना: न परित्यजन्ति।।
अर्थात् अधम प्रकृति के लोग विघ्नों के भय से निश्चित ही किसी कार्य को प्रारंभ ही नहीं करते। मध्यम कोटि के मनुष्य विघ्नों के आने पर प्रारंभ किए गए कार्य को बीच में ही छोड़ देते हैं, किन्तु उत्तम प्रकृति के मनुष्य बार-बार विघ्न आने पर भी प्रारंभ किए हुए कार्य को नहीं छोड़ते हैं अर्थात् उसे पूरा ही करते हैं। धर्म और सिद्धान्त की रक्षा में चाहे कितनी विघ्न बाधाएँ उत्पन्न की जाएं, तो भी यदि माताजी ने आगम के परिप्रेक्ष्य में कोई निर्णय कर लिया है, तो वे अपना कदम किंचित् भी वंâपायमान नहीं होने देती हैं, समस्त क्षुद्र विरोधों को गौण करके जिनधर्म, जिनायतन एवं जिनवाणी की सेवार्थ प्रतिक्षण अपने कार्य में लगे रहने का महामंत्र ही उन्होंने हम लोगों की रग-रग में फूका है। =
=गाधी के दांडी मार्च की तरह हजारों कदम बढ़ चले-==
इधर पूज्य माताजी के कुण्डलपुर की ओर बढ़ते कदमों के साथ समाज के कदम भी महात्मा गांधी के दांडी मार्च की भांति उस ओर जुड़ने लगे और उधर ब्र. रवीन्द्र जी एवं उनकी सक्रिय टीम ने माताजी के स्वप्न को साकार रूप देना प्रारंभ कर दिया परन्तु बरसात के कारण कुण्डलपुर की भूमि पर निर्माण कार्य में बाधा आने लगी, समय की अल्पता थी, फिर भी शुरू हुआ जन्मभूमि की पावन मिट्टी का चमत्कार। १६ दिसम्बर २००२ को मकराना (राज.) में ४० वर्षों बाद बेदाग श्वेत पाषाण की एक बड़ी शिला मिली। भगवान महावीर की अवगाहना प्रमाण अर्थात् ७ हाथ ऊँची (११ फुट) खड्गासन प्रतिमा बनाने के लिए यह शिला पर्याप्त थी, इस खबर से हम सभी को आंतरिक संतुष्टि एवं हर्ष हुआ। यद्यपि फरवरी की प्रतिष्ठा का समय निकट था, फिर भी जयपुर के प्रसिद्ध मूर्तिकार श्री सूरज नारायण नाठा, उनके पुत्र राजेश नाठा एवं सहयोगियों द्वारा मूर्ति निर्माण का कार्य रात-दिन लगकर प्रारंभ किया गया। इधर पूज्य माताजी एवं हम सभी संघ सहित कुण्डलपुर पहुँच गए और मात्र डेढ़ माह का अल्प समय था फिर भी जन्मभूमि की धरती का अतिशय, कि एक के बाद एक कार्य बनते चले गए। कड़ाके की ठण्ड के बावजूद कार्य पूरे जोर-शोर से प्रारंभ हो गया, प्रतिष्ठा हेतु आवास-पाण्डाल आदि सभी कार्य तीव्र गति से चलने लगे और धीरे-धीरे प्रतिष्ठा महोत्सव की घड़ियाँ समीप आ गर्इं। क्रमश: मूर्तियों का आना, एक-एक कर विराजमान होना, सब चमत्कार जैसा हो रहा था, श्वेत पाषाण की बेदाग आकर्षक प्रतिमा तो इतनी मनोरम लग रही थी कि सभी नजरें एकटक उनको निहार रही थीं, तभी तो संघपति जी ने जल्दी से उसमें काला धागा बांध दिया था और उस समय का माहौल एकदम दिव्य प्रतीत हो रहा था।
==निर्मल भावनाएँ अप्रत्यक्ष रूप से कार्यसिद्धि में सहायक हैं-==
वास्तव में यह भगवान महावीर जन्मभूमि के पुण्य परमाणुओं, भगवान की अवगाहना प्रमाण दिव्य प्रतिमा एवं पूज्य माताजी की निर्दोष साधना तथा तपस्या का ही सुफल था। यदि किंचित् मात्र भी आगम की अवहेलना की गई होती, तो कार्यक्रम का नैसर्गिक सौन्दर्य, निर्विघ्न सफलता एवं निर्दोष गरिमा अवतरित ही नहीं हो सकती थी। सोचने का विषय उन लोगों के लिए है जो मिथ्या आरोपों के द्वारा कार्य में विघ्न डालना चाहते थे। पूज्य माताजी ने एक वर्ष पूर्ण होने के पूर्व ही अपने अखण्ड पुरुषार्थ के बल पर उपेक्षा के गर्त में विलीन होने जा रही प्राचीनकाल से मान्य एक तीर्थंकर जन्मभूमि को पुन: नवयौवन प्रदान कर दिया, वस्तुत: जब भावनाएं निर्मल होती हैं, तो शासन देव-देवी भी अप्रत्यक्ष रूप से कार्यसिद्धि में सहायक हुआ करते हैं, यह इस पंचमकाल में भी सत्य सिद्ध हुआ है।
==शासन देवी-देवता पूज्य हैं-==
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह बात अत्यन्त चिन्तनीय है कि चौबीस तीर्थंकर भगवन्तों के यक्ष-यक्षिणी, शासन देव-देवी को मिथ्यादृष्टि कहकर कुछ लोगों के द्वारा उन्हें जिनमंदिरों से हटवाया जा रहा है। यक्ष-यक्षिणी यद्यपि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती हैं, पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक उनकी पूजा कैसे करें, कैसे उनको मंत्रों से अघ्र्य चढ़ाएँ इत्यादि प्रश्न उठते हैं लेकिन पूज्य माताजी का सदैव यही कहना रहता है कि शास्त्रों में जो वर्णन है, उस पर अनेक प्रकार के तर्क नहीं उठाना चाहिए क्योंकि पूज्यपाद स्वामी एक महान आचार्य हुए हैं, हजारों वर्ष पूर्व उनके द्वारा रचित सर्वार्थसिद्धि, समाधिशतक, जैनेन्द्र व्याकरण आदि प्रसिद्ध ग्रंथ हैं, उसके अतिरिक्त उन दिगम्बर परम्परा के महान आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी का बनाया हुआ पंचामृत अभिषेक पाठ भी उपलब्ध होता है और दक्षिण के शिलालेखों में भी उनका खूब वर्णन आया है, उन्होंने पंचामृत अभिषेक पाठ में भगवान की पूजा विधि का वर्णन करते हुए एक जगह बताया है-
अर्थात् भगवान की पूजा करते हुए उसी में वहीं पर पन्द्रह तिथि देवता, नवग्रह, सुरपति आदि और यक्ष-यक्षिणी (जिसमें २४ यक्ष व २४ शासन देवी मानी हैं), पाँच क्षेत्रपाल, द्वारपाल, लोकपाल आदि की क्रम से मंत्रों से स्थापना की जानी चाहिए। उन्होंने उसमें दश दिक्पालों का मंत्र भी दिया है-ॐ ह्रीं क्रों प्रशस्तवर्णसर्वलक्षण सम्पूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवारा इन्द्राग्नियम-नैत्र्र+तवरुणवायुकुबेरेशानधरणेन्द्रसोमनामदशलोकपाला:! आगच्छत आगच्छत संवौषट्, स्वस्थाने तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठ:, अत्र मम सन्निहिता भवत-भवत वषट् इदं अघ्र्यं पाद्यं गृह्णीध्वं गृह्णीध्वं ॐ भूर्भु: स्व: स्वाहा स्वधा। यह पूज्यपाद स्वामी का दिक्पाल के आह्वान का मंत्र है। अत: विचार करने का विषय है कि जब पूज्यपाद स्वामी जैसे महान आचार्य के द्वारा दिक्पाल, यक्ष-यक्षिणी आदि के आह्वान व अघ्र्य के मंत्र ग्रंथों में वर्णित हैं, तो इसे मिथ्यात्व कहना और इन देवी-देवताओं की मूर्तियों को मंदिर से हटाने का प्रयत्न करना आगम के विपरीत है। आज हम जितने भी प्राचीन मंदिर एवं मूर्तियाँ देखें, उन सबमें भगवान के आजू-बाजू में यक्ष-यक्षिणी की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं चूँकि यह शासन देव-देवी हमेशा धर्म की रक्षा करने वाले माने गए हैं। कोई इन्हें अरहंत या सिद्ध भगवान मानकर नहींr पूजते हैं, इन्हें शासन देव-देवी मानकर ही इनकी आराधना करते हैं और इनकी उपासना पद्धति में थोड़ा अन्तर है, वह सभी को ग्रंथों से समझना चाहिए। वस्तुत: आगम की आज्ञा का उल्लंघन करने से, पूज्यपाद जैसे महान आचार्यों की अवहेलना करने से अवश्य मिथ्यात्व आ जाता है। अत: शासन देव-देवी की उपासना या भक्ति मिथ्यात्व नहीं है बल्कि किसी न किसी रूप में वर्तमान में प्राय: घर-घर में मिथ्यात्व डेरा डाले हुए है, वे पता नहींr किन-किन देवी-देवताओं की पूजा करते हैं, तो ऐसी स्थिति में यदि अपने गार्हस्थ्य जीवन में अनेक प्रकार के इच्छाओं की पूर्ति के लिए वे लोग शासन देव-देवी की भक्ति करते हैं तो वह मिथ्यात्व नहीं है, यह निश्चित है। जैन ग्रंथों-तिलोयपण्णत्ति, उमास्वामी श्रावकाचार, वसुनंदि श्रावकाचार आदि के आधार से या और भी अनेक श्रावकाचार गं्रथों से, प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ एवं पूज्यपाद आदि आचार्यों के अभिषेकपाठादि की व्यवस्थानुसार इसे मिथ्यात्व नहीं कहकर धर्म के मर्म को समझना चाहिए।
==सच्ची जन्मभूमि में लहराया ध्वज विश्व को देगा सुख-शांति-==
यहाँ आयोजित ऐतिहासिक भव्य पंचकल्याणक प्रतिष्ठा का शुभारंभ झण्डारोहण पूर्वक हुआ। पूज्य माताजी ने आगत अतिथियों एवं उपस्थित जनसमुदाय को अपना मंगल आशीर्वाद प्रदान करते हुए इस सुअवसर पर कहा कि आज भगवान महावीर की सच्ची जन्मभूमि में लहराया धर्मध्वज सारे विश्व में लहराएगा और इस ध्वज की शीतल छाया में अगणित भव्यात्मा सुख और शांति का अनुभव करेंगे। यह सत्य है कि अब हर माह अनेकों स्थानों पर अनेक पंचकल्याणक प्रतिष्ठाएँ होती हैं परन्तु कुण्डलपुर की यह पंचकल्याणक प्रतिष्ठा और महाकुंभ मस्तकाभिषेक महोत्सव इसलिए महत्वपूर्ण है, इसलिए ऐतिहासिव है क्योंकि यह संस्कृति की सुरक्षा है, जन्मभूमि, धर्म और आर्ष परम्परा की सुरक्षा है। बात यह है कि दृढ़ संकल्पी साधुओं, आगम परम्परा की रक्षा करने वाले साधुओं, संस्कृति की सुरक्षा करने वाले साधुओं, तीर्थों की जन्मभूमि की रक्षा का संकल्प करने वाले साधुओं के किसी कदम से कदाचित् उनके भक्त उनसे विमुख हो सकते हैं, पर उस साधु के अंतरंग में दृढ़ विश्वास होता है कि शास्त्र जो कह रहा है, जिनवाणी जो कह रही है, उसी के अनुरूप मेरा आचरण है। ‘‘आगम चक्खू साहू’’ अर्थात् साधु के पास आगम चक्षु होता है। हम अपनी विचारधारा को अपने मन के अनुकूल नहीं करते हैं, हवा के अनुकूल नहीं करते हैं। वह साधु-साधु नहीं है, जो अपने मन, देश या पाश्चात्य संस्कृति अथवा समाज के अनुकूल चले। साधु तो आगम के अनुकूल चलते हैं, उन्हें न कोई देश, न कोई राष्ट्र, न कोई सरकार, न कोई समाज और न कोई भक्त चला सकता है, साधु तो मात्र आगम की आज्ञानुसार चला करते हैं। यह जैनेश्वरी दीक्षा, यह मयूर पंख की पिच्छी इसी बात को दृढ़ता से अनुमोदित करती है।
==ऐतिहासिक पंचकल्याणक प्रतिष्ठा-==
भगवान महावीर की खड्गासन मनोज्ञ प्रतिमा के विराजमान होते ही ७ फरवरी से पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव प्रारंभ हो गया। यह प्रतिमा विराजमान करने का सौभाग्य पूज्य माताजी के संघपति लाला श्री महावीर प्रसाद जैन-साउथ एक्स. दिल्ली एवं उनके परिवार को प्राप्त हुआ। प्रतिष्ठा में भी उन्होंने एवं उनकी धर्मपत्नी सौ. कुसुमलता जैन ने भगवान के माता-पिता बनने का पुण्य प्राप्त किया। सौधर्म इन्द्र-इन्द्राणी बनारस के श्री दीपक जैन एवं उनकी धर्मपत्नी सौ. सुभाषिनी जैन बने। धनकुबेर का प्रमुख पद आरा निवासी श्री कमल कुमार जैन एवं सौ. अनुपमा जैन को प्राप्त हुआ। इन इन्द्र परिवार के द्वारा किये गये गर्भकल्याणक महोत्सव के सुन्दर मंचन ने सभी को २६०० वर्ष पूर्व के इतिहास को पुनस्र्मरण करने हेतु बाध्य कर दिया। सौधर्म इन्द्र-इन्द्राणी एवं कुबेर आदि इन्द्र-इन्द्राणी द्वारा बीच-बीच में बोले गए अंगे्रजी संवाद भी विशेष आकर्षक रहे। ८ फरवरी को जन्मकल्याणक हुआ, जिसमें अंतरंग एवं बाह्य क्रियाओं के साथ-साथ जिनबालक को जन्माभिषेक के लिए सुमेरु पर्वत पर ले जाने का ‘जन्मकल्याणक जुलूस’ विश्ोष आकर्षण का केन्द्र रहा, जो कि नंद्यावर्त स्थल कुण्डलपुर से नालंदा खण्डहर तक गया। सैकड़ों वर्षों के इतिहास में कुण्डलपुर की गलियों में निकलने वाला यह ऐतिहासिक जुलूस था। धनकुबेर सभी स्थानीय निवासियों को रत्न वितरित करते जा रहे थे। देश के कोने-कोने से पधारे श्रद्धालुओं एवं स्थानीय समाज का उत्साह देखते ही बनता था। पूरे नालंदा व बड़गाँव निवासियों को लड्डू का प्रसाद दिया गया। रात्रि में शास्त्र प्रवचन की सभा में मूर्धन्य विद्वान पं. शिवचरनलाल जैन-मैनपुरी ने भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर, उनके सर्वोदयी सिद्धान्तों एवं ब्राह्मी माता के रूप में प्रतिष्ठित पूज्य माताजी के प्रति अपने सारगर्भित विचार प्रस्तुत किए। १२ फरवरी २००३ को भगवान के निर्वाणकल्याणक की क्रियापूर्वक निर्वाण लाडू समर्पण के पश्चात् पूर्णाहुति हवन सम्पन्न किया गया, साथ ही लगभग १०० प्रतिष्ठित जिनप्रतिमाओं (त्रिकाल चौबीसी की ७२ सहित) को नवनिर्मित वेदी में विराजमान कर दिया गया। उस समय भक्तगणों ने अत्यन्त हर्षोल्लास के साथ नृत्य करते हुए भगवान विराजमान करने का सौभाग्य प्राप्त किया। इसके साथ ही पूज्य माताजी की प्रेरणा से निर्मित कुण्डलपुर के प्राचीन मंदिर प्रांगण में ‘‘भगवान महावीर स्वामी कीर्तिस्तंभ’’ में श्री कमलचंद जैन-खारीबावली-दिल्ली एवं परिवार द्वारा भगवान महावीर की८ जिनप्रतिमाएँ भी विराजमान की गईं।
==कुण्डलपुर का विकास संस्कृति सुरक्षा के लिए बना नींव का पत्थर –==
९ फरवरी को नवग्रह शांति मंदिर एवं रत्नत्रय निलय के शिलान्यास के बाद ‘‘नंद्यावर्त मण्डप’’ में आयोजित हुआ ‘‘कुण्डलपुर राष्ट्रीय महासम्मेलन’’। जिसका संचालन किया अखिल भारतीय दि. जैन शास्त्री परिषद के अध्यक्ष-प्राचार्य श्री नरेन्द्र प्रकाश जैन-फिरोजाबाद ने। डॉ. पन्नालाल पापड़ीवाल (महा.) की अध्यक्षता, अ.भा.दिगम्बर जैन महासमिति के राष्ट्रीय महामंत्री-श्री माणिकचंद पाटनी के मुख्य आतिथ्य तथा पं. शिवचरनलाल जैन-मैनपुरी, डॉ. अनुपम जैन-इंदौर, श्री रमेश कासलीवाल-इंदौर, पं. लालचंद जैन ‘राकेश’, श्री उमेश जैन-फिरोजाबाद, पं. जयसेन जैन-इंदौर आदि विद्वानों सहित बिहार दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी के मंत्री श्री अजय जैन (आरा) एवं बिहार दि. जैन तीर्थक्षेत्र न्यास बोर्ड के अध्यक्ष-श्री रामगोपाल जैन (पटना) एवं अन्य गणमान्य महानुभावों की उपस्थिति में प्राचार्य श्री नरेन्द्र प्रकाश जी ने अपने प्रभावपूर्ण उद्बोधन में कहा कि यह इस जन्मभूमि की मिट्टी का चमत्कार है जो मात्र सवा महीने में ही हमें इतना विशाल निर्माणकार्य एवं वृहद् पंचकल्याणक देखने का अवसर प्राप्त हो रहा है। वस्तुत: कुण्डलपुर के अतिरिक्त भगवान महावीर की जन्मभूमि न कहीं और थी, न है और न कभी आगे हो सकती है। डॉ. अनुपम जैन-इंदौर ने भी अपने वक्तव्य में जन्मभूमि कुण्डलपुर के विकास की प्रारंभ से लेकर अब तक की सम्पूर्ण गतिविधियों का प्रभावक विवरण प्रस्तुत किया। स्थानीय डॉ. रामदेव सिंह ने अपने उद्बोधन में कहा कि पूज्य माताजी द्वारा इस क्षेत्र के विकास से हम क्षेत्रवासियों को जो खुशी हुई है, वह वर्णनातीत है। श्री अजय कुमार जी-आरा तो कहने लगे कि आज पूज्य माताजी के प्रयासों के कारण ही हम सबमें यह साहस आ गया है कि हम इस वैभवशाली कुण्डलपुर को पुन: भगवान महावीर की जन्मभूमि घोषित कर सके हैं। किन्हींr भी विद्वानों को अपनी सोच अथवा शोध के आधार पर कोई भी ऐसा वक्तव्य अथवा लेखन समाज के बीच में नहीं प्रस्तुत करना चाहिए, जिसके माध्यम से समाज में भ्रम उत्पन्न हो अथवा विवाद की स्थितियाँ आ जावें। मुख्य अतिथि श्री माणिकचंद जी ने कहा कि जन्मभूमि कुण्डलपुर का विकास पूज्य माताजी का समाज पर बहुत बड़ा उपकार है। साररूप में इस महासम्मेलन से यही तथ्य प्रकट में आया और विद्वानों द्वारा सारगर्भित उद्बोधनों में एक स्वर से यह घोषित किया गया कि जन्मभूमि कुण्डलपुर का विकास संस्कृति सुरक्षा के लिए नींव के पत्थर के रूप में सिद्ध होगा।
==राजनेताओं का आगमन हुआ-==
पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के अन्तर्गत आयोजित कार्यक्रमों में जहाँ अनेक विधायक, सांसद, प्रशासनिक अधिकारी, विद्वानों, श्रेष्ठियों ने आकर इस पावन धरती की धूलि से मस्तक को पावन किया, वहीं समय-समय पर अनेक राजनेताओं का भी कुण्डलपुर की धरा पर आगमन हुआ, जिसमें ९ फरवरी को भगवान की राजसभा के मध्य भारत सरकार के रक्षामंत्री माननीय श्री जार्ज फर्नांडीस मुख्य अतिथि के रूप में पधारे। उस समय जब ब्र. रवीन्द्र जी एवं प्राचार्य श्री नरेन्द्र प्रकाश जी ने भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर पर प्रकाश डालते हुए ग्रामवासियों के जनकल्याण हेतु सरकार द्वारा कुण्डलपुर तक सड़क को पक्का करने, स्कूल, अस्पताल इत्यादि बनवाने हेतु एवं क्षेत्र में शाकाहार को बढ़ावा देने की इच्छा व्यक्त की, तब माननीय रक्षामंत्री जी ने भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर के नवविकास एवं इस विशाल कार्यक्रम के आयोजन का सारा श्रेय पूज्य माताजी को देते हुए उनसे प्रार्थना की कि वह अपनी शक्ति को सम्पूर्ण बिहार प्रान्त की जनता को इंसानियत के पथ पर आरूढ़ काने हेतु भी अवश्य प्रदान करें। उन्होंने कहा कि आज देश की सीमाओं की सुरक्षा नीति, अपनी ओर से आक्रमण न करने की नीति इत्यादि सभी भगवान महावीर के सिद्धान्तों को ही प्रतिपादित कर रही हैं। ऐसे युगपुरुष की जन्मभूमि मेरे इस संसदीय क्षेत्र का महान गौरव है। यह बड़ी प्रसन्नता की बात है कि ऐसी पावन भूमि का विकास करने का संकल्प हमारे देश की विभूतिस्वरूप महान जैन साध्वी श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा लिया गया है। भारत की समाज पर यदि किसी का गहरा असर होता है, तो वे और कोई नहीं, ये आध्यात्मिक संत ही हैं, जिनकी वाणी जन-जन के लिए प्रामाणिक हो जाती है। भगवान महावीर के बाद ढाई हजार वर्षों के इतिहास में पहली बार विशाल ग्रंथ लेखन करने वाली महान विद्वान माताजी के दर्शन का सौभाग्य मुझे मेरे ही संसदीय क्षेत्र में प्राप्त हुआ है, जो मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण बात है। माताजी के आह्वान पर भगवान महावीर जन्मभूमि के विकास का जो महानतम कार्य सम्पन्न हो रहा है, वह मात्र जैन समाज के लिए ही नहीं, सम्पूर्ण नालंदा क्षेत्र एवं बिहार प्रान्त की कीर्ति को संसार में प्रसारित करने वाला है। १० फरवरी को पधारे भारत सरकार के रेलमंत्री श्री नितीश कुमार जी ने कुण्डलपुर पदार्पण पर अपार प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि मेरे लिए इससे अधिक गौरव क्या हो सकता है कि हम सब लोग जो इस नालंदा की मिट्टी से वास्ता रखते हैं। आपने यहाँ इतना बड़ा आयोजन, इतने भव्य तीर्थ का निर्माण किया है कि देश-विदेश के लोग पुण्य कमाने हेतु यहाँ माथा टेकने आएंगे फिर उसमें सरकार भी ऐसा कर दे कि हमारा कुछ लगे भी न और जैन समाज भी प्रसन्न हो जाये। वास्तव में माताजी ने जिस चीज को प्रतिष्ठित करने की कोशिश की है, ऐसी प्रतिष्ठा कोई चाहे जितना भी खर्च कर ले, चाहे कितना भी परिश्रम कर ले, यह प्रतिष्ठा किसी को प्राप्त नहीं हो सकती। जब मैं यहाँ आ रहा था तो ‘‘क्लीन स्लेट’’ वाली मेरी मानसिकता थी, इसलिए रास्ते में मैं क्षेत्र विधायक श्री श्रवण कुमार जी से इस विषय में पूछ रहा था। फिर हमने आपस में विचार करके सोचा कि २-३ साल पहले जो हमने दीपनगर को ‘हाल्ट स्टेशन’ की मान्यता दिलाई है, उसके साथ कुण्डलपुर को इस प्रकार जोड़ दिया जाये और उसको पूर्ण स्टेशन का दर्जा दिया जाये ताकि आप को आने में कोई असुविधा न हो, पावापुरी की भांति ही इस स्टेशन का विकास करने की हमारी पूरी कोशिश होगी। ==भगवान महावीर ज्योति रथ का मंगल उद्घाटन-==
आचार्य समन्तभद्राचार्य ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार नामक ग्रंथ में सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का वर्णन करते हुए प्रभावना अंग का लक्षण बताया है-
अर्थात् अज्ञानरूपी अंधकार के विस्तार को दूर कर अपनी शक्ति के अनुसार जिनशासन के माहात्म्य को प्रकट करना सम्यग्दर्शन का प्रभावना अंग है। मोक्षमार्ग की गाड़ी के दो पहिये माने गए हैं-साधु और श्रावक। इन दोनों के परस्पर पूरक होने से ही संसार व मोक्षमार्ग की परम्परा निरन्तर प्रवाहमान है। आचार्यों द्वारा कहे गये समस्त आगमोक्त तथ्यों का परिपालन जहाँ पूर्णरूपेण साधुगण करते हैं, वहीं श्रावक भी एकदेश रूप, उसका परिपालन करते हैं। चूँकि यहाँ चर्चा प्रभावना अंग की हो रही है, उस क्रम में वर्तमान में साधु जिनशासन के माहात्म्य को प्रकट करने हेतु महती धर्मप्रभावना करते हुए आत्म व परकल्याण में सदैव तत्पर रहते हैं और श्रावक भी अपनी शक्ति के अनुसार अपनी अर्थांजलि, भावांजलि व पुष्पांजलि समर्पित कर जिनशासन के माहात्म्य को प्रकट कर महान पुण्य का संचय करते हैं और अपनी भवभ्रमण परम्परा को अल्प कर लेते हैं। उसी प्रभावना अंग का परिपालन कर पूर्वाचार्यों द्वारा निर्दिष्ट आगम वाक्य को प्रमाण मानने वाली पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के द्वारा किए गए अद्वितीय कार्यों का सीमित शब्दों में वर्णन करना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। उनके द्वारा किए गए धर्मप्रभावना के प्रत्येक कार्य प्रशंसनीय, वंदनीय एवं अनुकरणीय हैं। वर्तमान युग में जब भारत के अंदर भी पाश्चात्य संस्कृति की होड़वश आधुनिक शैली जैसे-पत्र-पत्रिकाएँ, मोबाइल, कम्प्यूटर, इण्टरनेट, पैक्स आदि के माध्यम से प्रचार-प्रसार का युग आ गया है, ऐसे समय में माताजी द्वारा जिनधर्म की प्रभावना, जिनधर्म की प्राचीनता एवं तीर्थंकर भगवन्तों के सर्वोदयी सिद्धान्तों से जन-जन को परिचित करवाने में रथ भ्रमण का ऐसा माध्यम बनकर आया, जिसके द्वारा भारत की जनता ने न सिर्पâ इन उद्देश्यों को जाना, समझा व हृदयंगम किया अपितु जिन जानकारियों व तीर्थ विकास को लेकर इन रथों का भ्रमण हुआ, उससे पूरे देश की भावनाएँ जुड़ीं और उन्होंने अपनी अर्थांजलि, भावांजलि के कुछ पत्र-पुष्प समर्पित कर प्राणप्रण से उसे अपना मानकर उसकी सुरक्षा व उत्तरोत्तर वृद्धि का संकल्प भी लिया जिसमें प्रथम रथ ‘‘जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति रथ’’ का भ्रमण (माननीय प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा प्रवर्तित) सम्पूर्ण भारत के कोने-कोने में हुआ, जिसके द्वारा भारत की जनता ने जैन भूगोल का विस्तृत ज्ञान प्राप्त कर जम्बूद्वीप के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त की और उससे एकत्रित राशि का प्रतिफल ‘धरती का स्वर्ग’ कही जाने वाली जम्बूद्वीप रचना है, इसी शृंखला में द्वितीय रथ ‘‘भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार’’ रथ का भारत भ्रमण (तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा प्रवर्तित) जैनधर्म की प्राचीनता, अहिंसा-शाकाहार एवं भगवान ऋषभदेव के अहिंसामयी-सर्वोदयी सिद्धान्तों की अनुगूंज के उद्देश्य को लेकर निकला और उसका प्रतिफल ‘‘तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षास्थली-प्रयाग तीर्थ’’ है पुन: तृतीय ‘भगवान महावीर ज्योति रथ का प्रवर्तन’ भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर से पूज्य माताजी की प्रेरणा से हुआ, जिसके भारत भ्रमण का उद्देश्य। भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर का प्रचार-प्रसार। ११ फरवरी २००३ को बिहार के महामहिम राज्यपाल डॉ. विनोद चंद पाण्डेय जी के द्वारा भगवान महावीर ज्योतिरथ पर स्वस्तिक बनाकर एवं दीप प्रज्वलन करके रथ का उद्घाटन सम्पन्न हुआ, उस समय प्रसन्नमना राज्यपाल जी ने रथ का उद्घाटन कर स्वयं को अत्यन्त गौरवान्वित अनुभव किया पुन: महावीर जयंती के शुभ दिवस १५ अप्रैल २००३ को माताजी के शुभाशीर्वाद को प्राप्त कर उस रथ को भारत भ्रमण हेतु प्रवर्तित किया गया। देश के विभिन्न अंचलों में लगभग डेढ़ वर्ष तक भ्रमण कर जन-जन को भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर की यथार्थता का परिज्ञान कराते हुए इस रथ ने तीर्थ विकास में कुछ आर्थिक योगदान भी समर्पित किया। इससे पूर्व आयोजित रथ उद्घाटन की धर्मसभा में महामहिम जी ने माताजी द्वारा लिखित ‘महावीर देशना ग्रंथ’ का विमोचन किया। प्रस्तुत ग्रंथ में दिगम्बर जैन मान्यतानुसार भगवान महावीर के सम्पूर्ण जीवन चरित्र की व्याख्या के साथ-साथ उनकी देशना से प्राप्त सिद्धान्तों का विशद वर्णन है।
==तीर्थंकर जन्मभूमि विकास महाधिवेशन-==
१० फरवरी को पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के मध्य विशेष महाधिवेशन हुआ, जिसका विषय था-तीर्थंकर जन्मभूमि विकास महाधिवेशन। चन्द्रप्रभु भगवान की जन्मभूमि चन्द्रपुरी, भगवान पाश्र्वनाथ-सुपाश्र्वनाथ की जन्मभूमि वाराणसी, भगवान संभवनाथ की जन्मभूमि श्रावस्ती, भगवान नेमिनाथ की जन्मभूमि शौरीपुर, भगवान धर्मनाथ की जन्मभूमि रौनाही, ५ तीर्थंकरों की जन्मभूमि अयोध्या, भगवान मुनिसुव्रतनाथ की जन्मभूमि राजगृही से पधारे पदाधिकारियों ने अपने-अपने क्षेत्र के विषय में विशेष जानकारी प्रदान करते हुए भविष्य में आवश्यक विकास योजनाओं से सभा को अवगत कराया। मैंने उन लोगों को सम्बोधित करते हुए यही प्रेरणा प्रदान की कि आज लोग अतिशय क्षेत्रों के पीछे तो भागते हैं परन्तु तीर्थंकर भगवन्तों की जन्मभूमियों के विकास के विषय में सोचने वाले बहुत ही कम व्यक्ति हैं। पूज्य माताजी का यह जैन समाज पर महान उपकार है कि उन्होंने हमें इस विषय में कदम उठाने के लिए प्रेरित किया है पुन: मैंने माताजी की प्रेरणानुसार जन्मभूमि विकास के निम्न बिंदु बताए- १. प्रत्येक तीर्थंकर जन्मभूमि पर संबंधित तीर्थंकर भगवान की बड़ी प्रतिमा विराजमान की जाये। २. प्रत्येक जन्मभूमि पर संबंधित तीर्थंकर भगवान के नाम के कीर्तिस्तंभ बनाए जाएं, जिसमें दिगम्बर जैनागम के अनुसार उनका जीवन चरित्र, सिद्धान्त आदि उत्कीर्ण हों। ३. जन्मकल्याणक के दिवस पर उन भगवान का मस्तकाभिषेक किया जाए। ४. निर्वाण तिथि में निर्वाणलाडू चढ़ाने का सामूहिक आयोजन सम्पन्न किया जाये।
==महावीर जैन शब्दकोश एक विशेष उपहार बना-==
भगवान महावीर २६००वाँ जन्मोत्सव वर्ष के अन्तर्गत वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकता को देखते हुए मैं माताजी से एक जैनधर्म के हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोश के बारे में कहने लगीं तो माताजी ने कहा कि चंदनामती! अगर तुम्हें इतने दुरुह कार्य को करना ही है, तो तुम भगवान महावीर के नाम पर इस शब्दकोश को बनाओ। उसी के फलस्वरूप मैंने डॉ. अनुपम जैन (महामंत्री-विद्वत् महासंघ), जीवन प्रकाशन जैन-इंदौर एवं संघस्थ ब्र. कु. स्वाति जैन के साथ परिश्रम करके तीन वर्षों में लगभग १५ हजार शब्दों का शब्दकोश तैयार किया, जिसे मैंने माताजी के निर्देशन से शास्त्रीय प्रामाणिकरूप में प्रस्तुत किया है। यह शब्दकोश वर्तमान एवं भावी पीढ़ी के लिए जैनधर्म के ज्ञान हेतु अत्यन्त उपयोगी है। ६ जनवरी २००५ को वाराणसी में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति ने उस शब्दकोश का विमोचन किया।
==भगवान महावीर का महाकुम्भ मस्तकाभिषेक-==
पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के समापन अवसर पर हुआ उन श्वेतवर्णी, मनोहारी, अवगाहना प्रमाण शासनपति भगवान महावीर का १००८ महाकुंभों से मस्तकाभिषेक। जिस मनोहारी दृश्य की प्रतीक्षा प्रत्येक नेत्रों को आकुलित किए हुए थी, आखिरकार वह स्वर्णिम घड़ियाँ नजदीक आ ही गर्इं, जिसमें प्रथम कलश करने का सौभाग्य मूर्ति सौजन्यकर्ता श्री महावीर प्रसाद जी ने प्राप्त किया। अहोभाग्य था उन नर-नारियों का, जिन्होंने प्रभु के तन पर बहती पंचामृत की धाराओं को किया, देखा और जीवन को धन्य किया, जल, नारियल रस, इक्षुरस, अनार रस, मौसमी रस, सन्तरा रस, अंगूर रस, घृताभिषेक, दुग्धाभिषेक, दधि अभिषेक, सर्वौषधि, चतुष्कोण कलश, केशर, पुष्पवृष्टि, मंगल आरती सुगंधित जल एवं शांतिधारा के क्रमानुसार अभिषेक ने करने-कराने वालों को मंत्रमुग्ध कर दिया। उस समय जहाँ अनार रस की धारा से श्वेत प्रतिमा जामुनी होकर चमकने लगी, वहीं संतरा रस के अभिषेक ने प्रभु को पीतवर्णी कर दिया। सर्वौषधि से प्रभु लालवर्णी हो उठे तो केशर से केशरिया हुए प्रभु मन को लुभाने लगे और पुष्पवृष्टि होते ही तो नभमण्डल जयकारों से गुंजित हो उठा। भगवान महावीर के मस्तकाभिषेक के पश्चात् भगवान महावीर मंदिर के दाहिनी ओर विराजमान भगवान ऋषभदेव की १४ फुट उत्तुंग लालवर्णी पद्मासन प्रतिमा पर प्रथम कलश करने का सौभाग्य मूर्ति सौजन्यकर्ता श्री रिसभदास दीपक कुमार जैन-वाराणसी ने प्राप्त किया, साथ ही उन लालवर्णी प्रभुवर का दुग्धाभिषेक भी हुआ, जिससे कुछ क्षण को प्रतिमा श्वेतवर्णी हो उठी, पुन: शांतिधारा के पश्चात् अत्यन्त हर्षोल्लास के वातावरण में भगवान का मस्तकाभिषेक महोत्सव पूर्ण हुआ। देश के सुदूरवर्ती प्रांतों से पधारे हजारों श्रद्धालुओं द्वारा पीले वस्त्रों में १००८ चमचमाते स्वर्ण, रजत आदि कलशों से भगवान के महाकुंभ मस्तकाभिषेक की छटा देखते ही बनी थी। इस महाकुंभ में सभी कलश करने वाले महानुभावों को वे कलश भेंट स्वरूप प्रदान किये गये। इस प्रकार जन्मभूमि-कुण्डलपुर को चार चांद लगा देने वाला २१वीं सदी का यह ऐतिहासिक पंचकल्याणक इतिहास के रूप में सदैव के लिए स्थापित हो गया।
==नालंदा म्यूजियम एवं खण्डहर भी बताते हैं जैन इतिहास-==
कुण्डलपुर में अवस्थित नालंदा खण्डहर जहाँ पुरातात्त्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, वहीं उसका सूक्ष्मता से अवलोकन एवं वहाँ उपलब्ध प्राचीन खण्डहर, उत्कीर्ण जैनमूर्तियाँ, गाइड्स द्वारा बताई गई गौरवमयी कथाएँ इस बात की ओर इंगित करती हैं कि कभी यह खण्डहर ही नंद्यावर्त महल था, जो सात मंजिल का था और यहीं महावीर प्रभु जन्मे थे, कालदोष के कारण आज उसका यह रूप है, फिर भी इसमें जैनत्व ही दृष्टिगत होता है। १६ फरवरी २००३ को पूज्य माताजी एवं हम लोग नालंदा का खण्डहर देखने गये, साथ में और भी अनेक श्रेष्ठी महानुभाव थे, वहाँ म्यूजियम में उपस्थित पाण्डेय जी ने खूब रुचिपूर्वक हमें पूरा म्यूजियम दिखाया। वहाँ दो जैन मूर्तियाँ भी रखी हैं, जो भगवान ऋषभदेव एवं भगवान पाश्र्वनाथ की हैं, उसके पश्चात् हमने नालंदा का खण्डहर भी देखा और उस विशाल महल के खण्डहरों को देखकर उन क्षणों का स्मरण किया, जब वीर प्रभु ने २६०० वर्ष पूर्व यहाँ जन्म लिया होगा और यह एक समृद्धिशाली नगरी एवं स्वर्णमयी महल रहा होगा।
==शाश्वत तीर्थ सम्मेदशिखर यात्रा-==
जैनधर्म में दो ही अनादिनिधन तीर्थ माने गये हैं-१. अयोध्या और २. सम्मेदशिखर। इनमें शाश्वत जन्मभूमि का गौरव जहाँ अयोध्या नगरी को प्राप्त है, वहीं अनन्तानन्त तीर्थंकरों की निर्वाणभूमि सम्मेदशिखर परम पावन, पूज्यनीय एवं वंदनीय है और जिसका कण-कण पवित्र है, उस पवित्र तीर्थ की वंदना करने वाला नियम से भव्य है और ४९ भवों में मोक्ष को प्राप्त कर लेगा, ऐसा वर्णन है। कहा भी है-‘‘एक बार वंदे जो कोई, तांहि नरक पशुगति नहिं होई’’। उस पवित्र तीर्थराज की वंदना पूज्य माताजी ने आर्यिका दीक्षा लेने के बाद सन् १९६२-६३ में की थी तथा स्वयं मैंने भी दीक्षा के पूर्व ही की थी, दीक्षा के पश्चात् मुझे उस तीर्थराज की वंदना का सौभाग्य अभी तक नहीं प्राप्त हो सका था, पुन: अब उस यात्रा का संयोग भगवान महावीर की कृपा से ही प्राप्त हो रहा था इसलिए इस यात्रा को लेकर मन में बड़ा आल्हाद था। पंचकल्याणक के पश्चात् १९ फरवरी २००३ को पूज्य माताजी ने संघ सहित सम्मेदशिखर के लिए कुण्डलपुर से मंगल विहार किया। उस मार्ग में भगवान मुनिसुव्रतनाथ की जन्मभूमि एवं भगवान महावीर की प्रथम देशनास्थली राजगृही तीर्थ, भगवान महावीर की निर्वाणभूमि पावापुरी एवं गौतम गणधर स्वामी की निर्वाणभूमि गुणावां जी सिद्धक्षेत्र का दर्शन कर उन महापुरुषों की चरण रज से पावन धरा को नमन कर अत्यन्त प्रसन्नता हुई। इसी विहार के मध्य माताजी ने राजगृही के जवाहर नवोदय विद्यालय में भगवान महावीर की पद्मासन प्रतिमा तथा जैन तीर्थ परिसर में भगवान मुनिसुव्रतनाथ की बड़ी प्रतिमा, पावापुरी सिद्धक्षेत्र पर भगवान महावीर की बड़ी प्रतिमा, गुणावां सिद्धक्षेत्र पर गौतम गणधर स्वामी की प्रतिमा आदि विराजमान करने की प्रेरणा देते हुए झुमरीतलैया (कोडरमा), सरिया आदि जैन समाज के नगरों में होते हुए १२ मार्च २००३ (फाल्गुन शु. नवमी) को शाश्वत तीर्थ सम्मेदशिखर में पदार्पण किया। पूज्य माताजी को ४० वर्षों बाद क्षेत्र पर अनेक संस्थाओं द्वारा अनेक निर्माण देखकर मन में असीम आल्हाद हुआ और इस अनादि तीर्थ के पुन: दर्शन होने पर हम सभी ने अपने भाग्य की सराहना की।
==जीवन की अमिट देन बनी पर्वत वंदना-==
१३ मार्च २००३, फाल्गुन शु. १० को पूज्य माताजी ने बीसपंथी कोठी में प्रात:काल केशलोंच किया और पर्वत वंदना की तीव्र उत्कण्ठा में उसी उपवास के दिन मध्यान्ह में २ बजे संघ सहित पहाड़ पर चली गर्इं। वहाँ चोपड़ा कुंड पर निर्मित जिनमंदिर एवं धर्मशाला में ठहरकर पर्वत की तीन वंदनाएं सम्पन्न कीं। १५ मार्च को हस्तिनापुर से रवीन्द्र जी, वाराणसी से दीपक जी एवं आरा से कमल कुमार जी आ गए पुन: वे लोग एवं अनेकों भक्तों ने १६ मार्च को माताजी के साथ सम्मेदशिखर की वंदना करके जीवन को धन्य माना। वंदना के मध्य प्रत्येक टोंक पर जल, दूध, चंदन से भगवान के चरणों का सभी श्रावकों ने अभिषेक किया, अघ्र्य चढ़ाया, रत्नवृष्टि की, चांदी की लौंग एवं चांदी के कमलपुष्प चढ़ाए तथा निर्वाणलाडू चढ़ाकर आरती करके अपनी भक्ति को प्रदर्शित किया। भगवान पाश्र्वनाथ की टोंक पर पहुँचकर पूज्य माताजी ने पिण्डस्थ ध्यान में लीन होकर भगवान के मुक्तिगमन के क्षणों की पावन अनुभूति की, पश्चात् पाश्र्वनाथ प्रभु के चरणों का अभिषेक, पूजन हुआ और निर्वाणलाडू चढ़वाने के बाद हम सभी लोग पहाड़ से नीचे धर्मशाला (बीसपंथी कोठी) में वापस आ गए। उसके बाद २१ मार्च को हम लोग दोबारा पहाड़ पर गए, वहाँ चोपड़ा कुण्ड की धर्मशाला में रहकर चार वंदना कीं, इस प्रकार कुल ७ वंदना करके हमारी सम्मेदशिखर यात्रा इस जीवन की अमिट देन बन गई। चोपड़ा कुंड पर बने दिगम्बर जैन मंदिर को देखकर हम सभी का हृदय फूला नहीं समाया और पूज्य माताजी ने सभी कार्यकर्ताओं को लाखों-लाख आशीर्वाद प्रदान कर जिनधर्म की प्रभावना में सदैव लगे रहने की प्रेरणा दी। पर्वत से शाम को वापस आकर हमने पूरे संघ के साथ पूज्य माताजी की सात प्रदक्षिणाएँ लगार्इं, पाद प्रक्षाल, अघ्र्य समर्पण कर उनकी आरती उतरवाई पुन: मैंने कहा कि इनका महान उपकार हम लोगों पर है, जिनके निमित्त से सम्मेदशिखर की ७ वंदना हुर्इं अत: इनकी जितनी विनय आदि की जाए, उतनी ही कम है।
==धर्म की महिमा से दुर्घटना टली-==
धर्म की महिमा का वर्णन करते हुए आचार्य कहते हैं- जैनधर्म प्रसादेन,किं शुभं यन्न जायते। अर्थात् जैनधर्म के प्रसाद से ऐसा कौन सा शुभफल है, जो प्राप्त नहीं होता। यह प्रसंग यहाँ पर लेखनीबद्ध करने का तात्पर्य वह घटना है जो हमारे संघ के साथ चल रहे एक नवयुवक विजय कुमार जैन-कानपुर के साथ घटी, जब हम सम्मेदशिखर यात्रा हेतु विहार कर रहे थे, तो विजय कुमार २७ फरवरी को सम्मेदशिखर तक रूट सर्वे करने गये और जब वह वहाँ से वापस आये, तो उन्होंने बताया कि माताजी! आज मैं आप लोगों के आशीर्वाद एवं धर्म की महिमा से ही बचा हूँ। मैं सर्वे कर रहा था, मेरी गाड़ी के आगे यात्रियों की ७ गाड़ियाँ थीं जो मधुबन मोड़ पर लुट गर्इं और मैं अपनी गाड़ी में बैठा जाप्य कर रहा था, तो ड्राइवर रास्ता भूलकर सम्मेदशिखर से २०-२५ किमी. आगे चला गया और जब हम रात्रि ९.३० बजे लौटे, तो पता चला कि शाम को ८.४० बजे से ९.३० तक उन गाड़ियों को बदमाशों ने लूट लिया, मेरी गाड़ी आगे चली जाने के कारण मैं बच गया, यह सब धर्म की ही महिमा है।
==श्रावक सम्मेलन एवं ५१वाँ क्षुल्लिका दीक्षा समारोह-==
होली के अवसर पर सम्मेदशिखर का जैनमेला प्राचीनकाल से प्रसिद्ध रहा है। देश के विभिन्न प्रान्तों के लोग वहाँ फाल्गुन मास की आष्टान्हिका में सिद्धचक्र, इन्द्रध्वज आदि विधान करने अथवा होली के रंगों से बचने के लिए बड़ी संख्या में लोग सम्मेदशिखर यात्रा हेतु जाते हैं और वहाँ भगवान पाश्र्वनाथ के भक्तिरूपी रंग से परस्पर में केशरिया होली खेलते हैं। ऐसी होली के दिन चैत्र कृ. एकम् को ही ५० वर्ष पूर्व महावीर जी अतिशयक्षेत्र पर आचार्य श्री देशभूषण महाराज के करकमलों से बाल ब्र. मैना ने क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहणकर ‘‘वीरमती’’ नाम प्राप्त किया था। सम्मेदशिखर में चैत्र कृ. एकम् को माताजी ने अपने दीक्षित जीवन के ५० वर्ष पूर्ण किए थे। उस पावन अवसर पर वहाँ पधारे सभी भक्तों ने पूज्य माताजी के प्रति अपनी भक्ति भावनाएँ प्रस्तुत कीं। इसी मेले के अवसर पर पूज्य माताजी की प्रेरणा से वहाँ १९ मार्च को श्रावक महासम्मेलन का कार्यक्रम आयोजित किया गया, उसमें माताजी ने श्रावक के कत्र्तव्यों पर प्रकाश डालते हुए सम्मेदशिखर तीर्थरक्षा हेतु सभी को विशेष प्रेरणा प्रदान की तथा तीर्थरक्षा हेतु मुनि श्री आर्यनंदी महाराज के उपकारों का स्मरण करते हुए तीर्थक्षेत्र कमेटी को कहा कि सम्मेदशिखर में उनका एक स्मारक अवश्य बनाना चाहिए। पुन: अनेक वक्ताओं ने वर्तमान में चल रहे तीर्थ विकास के प्रति अपने श्रद्धाभाव व्यक्त करते हुए सभी को अष्टमूलगुण, पँच अणुव्रत आदि धारण करके गुरुभक्ति, तीर्थभक्ति के लिए प्रेरित किया।
==ऋषभजयंती के दिन हुआ ऋषभदेव मंदिर का शिलान्यास-==
पूज्य माताजी एवं हम सभी ने शिखरजी में नीचे सभी मंदिरों का दर्शन किया, तब मन में आए चिंतन के अनुसार उन्होंने आपस में विचार-विमर्श किया कि भगवान पाश्र्वनाथ की इस धरती पर प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का अस्तित्व होना भी अति आवश्यक है, जिससे प्रत्येक यात्री जैनधर्म की प्राचीनता से परिचित हो सके पुन: पूज्य माताजी की प्रेरणानुसार वहाँ की बीसपंथी कोठी के पदाधिकारियों ने इस विषय में रुचि ली और चौबीस टोंक बाहुबली मंदिर में प्रवेश करते ही जो प्रांगण अभी खाली था, वहाँ २७ मार्च २००३ ऋषभदेव जन्मजयंती के दिन मंदिर का शिलान्यास डॉ. पन्नालाल जैन पापड़ीवाल-पैठण (महा.) (अध्यक्ष-महाराष्ट्र प्रांतीय तीर्थक्षेत्र कमेटी एवं महामंत्री-१०८ फुट मूर्ति निर्माण ट्रस्ट मांगीतुंगी) सपरिवार ने किया। डॉ. पापड़ीवाल परिवार के ही अर्थ सौजन्य से वहाँ मंदिर निर्माण एवं ९ फुट उत्तुंग पद्मासन मूर्ति स्थापित हुई, जिसकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा दिसम्बर २००५ मगशिर शु. १ से सप्तमी तक में संघस्थ पीठाधीश क्षुल्लक मोतीसागर जी के सानिध्य में सानन्द सम्पन्न हुई। डॉ. पापड़ीवाल जी को शाश्वत तीर्थ पर जो यह पुण्य अवसर प्राप्त हुआ है, इस हेतु वे पूज्य माताजी एवं समस्त संघ के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। वास्तव में यह उनका जन्म-जन्मातर का पुण्य ही है, जो उन्हें शाश्वत तीर्थ पर जिनमंदिर बनाकर मूर्ति विराजमान करने का पुण्य प्राप्त हुआ। ऋषभजयंती के दिन सम्मेदशिखर में प्रथम बार माताजी की प्रेरणा से भगवान ऋषभदेव की जन्मजयंती धूमधाम से मनाई गई तथा रथयात्रा के साथ-साथ १०८ कलशों से भगवान का अभिषेक भी हुआ।
==कुण्डलपुर में संघ का पुनरागमन-==
सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र की अविस्मरणीय यात्रा के उपरांत पूज्य माताजी एवं हम सभी ने २९ मार्च को पुन: कुण्डलपुर की ओर मंगल विहार किया।१० अप्रैल को ८.१५ बजे नंद्यावर्त महल परिसर में संघ का मंगल पदार्पण हुआ। दीपनगर रेलवे लाइन के पास से आते हुए देखा कि वहाँ ‘‘दीपनगर कुण्डलपुर हाल्ट’’ का बोर्ड लगा है, देखकर प्रसन्नता हुई कि पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर पधारे रेलमंत्री नितीश कुमार जी के आदेशानुसार यह कार्य किया गया है। इस हाल्ट स्टेशन का कुछ विस्तारीकरण भी हुआ है =
=कुण्डलपुर में पुन: प्रारंभ हुआ महावीर जयंती मनाने का क्रम-==
हम सभी की तीव्र भावना थी कि भगवान महावीर की जन्मभूमि पर उनकी जन्मजयंती खूब धूमधाम से मनाई जाए, अत: हम लोगों ने माताजी से बार-बार आग्रह किया कि आप शीघ्र ही कुण्डलपुर की ओर विहार करें, फलस्वरूप माताजी ने सम्मेदशिखर से विहार कर कुण्डलपुर पहुँचकर महावीर जयंती को व्यापक रूप प्रदान किया, निर्णीत विचारानुसार उसके पोस्टर भी समिति ने छपवाकर देश भर में भेज दिए थे, पुन: १५ अप्रैल, चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को कुण्डलपुर में भारी प्रभावनापूर्वक महावीर जयंती का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ, जिसमें झुमरीतलैया, नवादा, इस्लामपुर, हरिद्वार, कलकत्ता, औरंगाबाद, लखनऊ आदि स्थानों से अनेकों महानुभाव पधारे और बहुत ही प्रभावनापूर्ण कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। धर्मसभा के पश्चात् रथयात्रा नालंदा तक गई, तो पूरे रास्ते नागरिकों को रत्न एवं लड्डू वितरित किए गए। सायं ४ बजे प्राचीन मंदिर में भगवान महावीर का १०८ कलशों से अभिषेक हुआ, जिसमे पूज्य माताजी एवं समस्त संघ का सानिध्य रहा, पुन: नंद्यावर्त परिसर में पालना झुलाया गया।
==तीर्थक्षेत्रों को बदलने का अधिकार किसी को नहीं है-==
पूज्य माताजी की तीर्थरक्षा के प्रति समर्पित भावनाओं को देखकर वास्तव में ये पंक्तियाँ मुझे बड़ी ही सुन्दर लगती हैं-
दुर्गम पथ को सुगम बनाना ही सच्ची कर्मठता है। जंगल में मंगल कर महल बनाना सच्ची गुरुता है।। तीरथ को नवतीर्थ बनाना ही सच्ची सक्रियता है। तीरथ का उद्धार न करना मानव की निष्क्रियता है।।
माताजी सदा यही कहती हैं कि तीर्थंकर भगवन्तों की कल्याणक भूमियाँ, जो कि इन्द्रों द्वारा भी पूज्य हैं, तथा जहाँ की पवित्र रज देवता भी अपने मस्तक पर धारण करते हैं, ऐसी महान भूमियों के विकास एवं संरक्षण का दायित्व यदि वर्तमान में तीर्थक्षेत्र कमेटी को सौंपा गया है, तो उसे समझना चाहिए कि तीर्थक्षेत्र किसी की बपौती नहीं हैं वरन् सम्पूर्ण जैनसमाज की धरोहर हैं, इसलिए किसी को भी तीर्थ बदलने का अधिकार नहीं है। किसी भी संस्था अथवा व्यक्ति विशेष को जनता के श्रद्धाभाव का उचित समादर करते हुए प्राचीनकाल से चले आ रहे तीर्थों के संरक्षण एवं विकास का ही दायित्व संभालना चाहिए।
==मुनिसुव्रतनाथ जन्मभूमि में जन्मकल्याणक-==
जिनशासन के २०वें तीर्थंकर भगवान मुनिसुव्रतनाथ ने बिहार प्रांत के राजगृही तीर्थ पर जन्म लेकर उसे सनाथ किया था लेकिन वर्तमान में वह भगवान महावीर की प्रथम देशना स्थली के नाम से विख्यात है। शायद ही कोई जानता हो कि वह भगवान मुनिसुव्रतनाथ की जन्मभूमि भी है। पूज्य माताजी की पावन प्रेरणा प्राप्त कर जब वहाँ के कार्यकर्ताओं ने सैकड़ों वर्षों के इतिहास में प्रथम बार भगवान मुनिसुव्रतनाथ का जन्मकल्याणक महोत्सव २८ अप्रैल २००३, वैशाख बदी द्वादशी को ऐतिहासिक रूप में मनाया, तो दूर-दूर से पधारे महानुभावों, स्थानीय एवं आसपास के श्रद्धालुओं ने भी उसके बारे में जाना। इस अवसर पर राजगृही स्थित प्राचीन लाल मंदिर में भगवान मुनिसुव्रतनाथ का १०८ कलशों से महाभिषेक सम्पन्न किया गया तथा पूज्य माताजी, मैंने एवं संघस्थ क्षुल्लक मोतीसागर जी ने तीर्थंकर भगवन्तों की जन्मभूमियों पर विस्तृत प्रकाश डाला। उसके पश्चात् कुण्डलपुर से उद्घाटित ‘‘भगवान महावीर ज्योति’’ का राजगृही में प्रवर्तन किया गया, जिसमें स्थानीय समाज सहित आगन्तुक यात्री महानुभावों ने उत्साहपूर्वक भाग लिया।
==भगवान महावीर वेदी की खनन विधि-==
पावापुरी का वह मनोरम एवं पवित्र स्थल, जहाँ से शासनपति भगवान महावीर ने आज से २५३१ वर्ष पूर्व निर्वाणधाम को प्राप्त किया, जहाँ प्रभु के मोक्षगमन के पश्चात् इन्द्र ने प्रभु के चरण स्थापित किए, जो जैनत्व की शान है। माताजी सदैव कहती हैं कि हमें अपने भगवन्तों की जन्मभूमियों एवं निर्वाणभूमियों की सुरक्षा हेतु प्राणप्रण से संकल्पित रहना चाहिए। आज हमारी सुप्ततावश ही अनेक तीर्थ हमारे हाथों से निकल गए हैं, पंचमकाल के अन्त तक विद्यमान रहने वाले उस सच्चे दिगम्बर जैनधर्म के प्रति अपना सर्वस्व न्योछावर कर हमें समर्पित रहना है और उसके लिए हमें समय-समय पर जिनमंदिर-जिनप्रतिमा के निर्माण, जीर्णोद्धार व विकास में सतत संलग्न रहना चाहिए। माताजी की इन्हीं प्रेरणाओं को प्राप्तकर बिहार तीर्थ न्यास बोर्ड के पदाधिकारियों ने पावापुरी में भगवान महावीर का एक कमलाकार सुन्दर मंदिर का निर्माण करवाया, जिसे निर्मापित करने वाले महानुभाव श्री विजय कुमार जैन-दरियागंज, दिल्ली महान पुण्य के भागी और कोटि-कोटि आशीर्वाद के पात्र हैं। उस महावीर मंदिर एवं वेदी की खनन विधि एवं भूमि शोधन पूज्य माताजी के संघ सानिध्य में ६ मई २००३, वैशाख शु. ५ को किया गया, पुन: ७ मई को उस पाण्डुक शिला परिसर में भगवान महावीर की वेदी का शिलान्यास कराया गया। श्री रामगोपाल जी एवं अजय जी ने वेदी का शिलान्यास कर पूज्य माताजी का आशीर्वाद प्राप्त किया और खूब प्रसन्नता का अनुभव किया पुन: माताजी व हम सभी ने कुण्डलपुर की ओर प्रस्थान किया।
=कोलकाता का प्रतिनिधिमण्डल कुण्डलपुर में-==
१८ मई २००३, ज्येष्ठ कृ. ३ को हम लोग कुण्डलपुर में ही विराजमान थे, मध्यान्ह ३ बजे कलकत्ता दिगम्बर जैन समाज के प्रतिनिधिमण्डल के रूप में ४-५ महानुभाव डॉ. चिरंजीलाल बगड़ा, श्री भागचंद जैन, श्री पवन कुमार जैन, श्री वैलाशचंद जैन इत्यादि आए और पूज्य माताजी को श्रीफल चढ़ाकर कलकत्ता पधारने का खूब आग्रहपूर्ण निवेदन कर माताजी के विराट व्यक्तित्व के प्रति अपना भक्तिभाव प्रदर्शित करते हुए कहा कि माताजी! यदि चातुर्मास संभव न हो तो बाद में सही, किन्तु कलकत्ता आना अवश्य पड़ेगा। कुण्डलपुर का कार्य देखकर ये लोग अत्यन्त प्रभावित हुए और बोले कि आज समाज में चारों ओर आपकी ही कर्मठता का यशगान हो रहा है, हम जबसे कलकत्ता से चले हैं, तब से लेकर यहाँ तक सबके मुंह से माताजी की खूब प्रशंसा सुनते आए हैं। उस समय पूज्य माताजी ने भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर के विकास हेतु अपना संकल्प स्पष्ट करते हुए सभी को इस कार्य में समर्पण हेतु प्रेरित किया। कलकत्तावासियों के मस्तिष्क में सन् १९६३ की वह स्मृतियाँ अंकित हैं, जब पूज्य माताजी ने अपने आर्यिका संघ सहित वहाँ चातुर्मास किया था। उन्हीं स्मृतियों को पुनर्जीवित करने हेतु प्रतिनिधिमण्डल के सभी सदस्यों ने पूज्य माताजी से पुन: कोलकाता में आकर वहाँ की युवा शक्ति, नारी शक्ति एवं समाज की समग्र शक्ति को संगठित करके उन्हें पुनर्चेतना प्रदान करने हेतु हार्दिक प्रार्थना की थी।
==राष्ट्रपति अब्दुल कलाम को भी आकर अच्छा लगा-==
भारतवर्ष के प्रथम नागरिक-राष्ट्रपति डॉ. ए.पी. जे. अब्दुल कलाम का तीन दिवसीय बिहार यात्रा के मध्य भगवान महावीर की निर्वाणभूमि पावापुरी तीर्थ पर ३० मई २००३, ज्येष्ठ कृ. अमावस को आगमन हुआ। चूँकि कई दिनों से श्वेताम्बर जैन समाज के पदाधिकारी श्री सुनील कुमार जैन सुचंती का आग्रह था कि माताजी! आप उस कार्यक्रम में अपना सानिध्य अवश्य प्रदान कर हमें गौरवान्वित करें अत: उनके विशेष आग्रह पर माताजी ने उस कार्यक्रम में पधारने की स्वीकृति दे दी। मध्यान्ह १ बजे दिगम्बर व श्वेताम्बर प्रतिनिधियों के साथ पावापुरी के प्रसिद्ध जलमंदिर अर्थात् भगवान महावीर की निर्वाणस्थली का दर्शन करके डॉ. कलाम ‘गांव मंदिर के दर्शनार्थ पधारे और वहाँ के प्रवचन हाल में आयोजित सभा में सर्वप्रथम अत्यन्त विनम्र भाव से राष्ट्रपति जी ने पूज्य माताजी के चरणों में नारियल चढ़ाकर आशीर्वाद ग्रहण किया और बहुत प्रसन्न हुए। उस समय पूज्य माताजी ने राष्ट्रपति जी की शाकाहार रूप अहिंसात्मक प्रवृत्ति की र्हािदक प्रशंसा करते हुए आशीर्वाद प्रवचन में कहा कि-यह महान गौरव एवं आत्मसंतुष्टि का विषय है कि अहिंसा के अवतार भगवान महावीर के सिद्धान्तों को आत्मसात करते हुए भारतवर्ष के प्रथम नागरिक अर्थात् राष्ट्रपति के रूप में आप पूर्णतया शाकाहारी जीवन का परिपालन करने वाले हैं, जीवदया की इस भावना हेतु आपके लिए मेरा बहुत-बहुत हार्दिक आशीर्वाद है तथा यही मंगलकामना है कि भगवान महावीर के सर्वोदयी शासन की छत्रछाया सदैव आप पर बनी रहे एवं मातृभूमि की निश्छल भाव से सेवा करते हुए आपका यश दिग्दिगन्त व्यापी बने। महामहिम राष्ट्रपति पूज्य माताजी के आशीर्वचन से अत्यन्त प्रभावित हुए एवं खड़े होकर पूज्य माताजी की ओर से विशेष रूप से अवलोकन करते हुए अपने अंगे्रजी उद्बोधन में कहा कि आज जब मैंने जलमंदिर के दर्शन किए, तो यह सोचकर कि कभी इसी भूमि पर स्वयं भगवान महावीर चले होंगे, मैं अत्यन्त रोमांचित हो गया। जिस प्रकार जैसे-जैसे सरोवर में पानी बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे उसमें खिले कमल और ऊपर उठते जाते हैं, उसी प्रकार हमें भी अपने विचारों को ऊध्र्वगामी बनाना है, हम शांति को अपनी सांस के साथ अंदर ले जाएं और समस्त हिंसा, अन्याय एवं बुराइयों के विचारों को बाहर आने वाली सांस के साथ बाहर निकाल दें। आप जैसे संत अपनी साधना से समस्त जनता को खुशी प्रदान करें, यही मेरी मंगल भावना है। पुन: मैंने राष्ट्रपति जी को भगवान महावीर के चित्र का प्रतीक चिन्ह प्रदान किया एवं संघस्थ ब्र. रवीन्द्र जी ने डॉ. कलाम को माताजी द्वारा लिखित साहित्य व चित्र भेंट किया।
==राजगृही में भगवान मुनिसुव्रतनाथ जिनमंदिर का शिलान्यास-==
१ जून २००३, ज्येष्ठ शु. एकम को पूज्य माताजी एवं संघ सानिध्य में राजगृही के लाल मंदिर परिसर में भगवान मुनिसुव्रतनाथ जिनमंदिर का शिलान्यास समस्त धार्मिक विधि-विधानपूर्वक किया गया, जिसमें अनेक महानुभावों ने इसे माताजी की तीर्थ के प्रति अटूट भक्ति मानते हुए इस कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की। वस्तुत: पूज्य माताजी द्वारा किया गया प्रत्येक कार्य ऐतिहासिक है क्योंकि वह सदैव तीर्थंकरों के सर्वोदयी सिद्धान्तों को प्रसारित करने में ही संलग्न हैं। उन तीर्थंकर भगवन्तों ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप महान विज्ञान का उपदेश दिया है, उन्होंने बताया है कि भेद-विज्ञानरूपी मिसाइल से आत्मा पर लगी हुई समस्त कर्मकालिमा का विनाश करके शुक्लध्यान द्वारा आत्मा को पूर्ण विजयी बनाया जा सकता है, ऐसे तीर्थंकर भगवन्तों की वाणी का ज्ञान प्राप्त करने हेतु दिगम्बर आम्नाय के प्राचीन ग्रंथों के तथ्यों को प्रकाश में लाना चाहिए, जिससे समस्त भ्रांत धारणाएँ मिट सके।
==माताजी ने तीर्थ को बनाया नहीं, बचाया है-==
पूज्य माताजी द्वारा किए गए इस कार्य की आज सर्वत्र प्रशंसा का होना इस बात का द्योतक है कि उन्होंने कुण्डलपुर नाम के किसी नए तीर्थ को बनाने का संकल्प नहीं लिया वरन् सदियों से बसी हुई जो भगवान महावीर जन्मभूमि थी, उसे भुलाने का जब प्रयास किया गया तब उन्होंने इसको पुनर्जीवन प्रदान करने की प्रेरणा मात्र देकर प्राचीन तीर्थ को नया रूप देकर उसे बचाया है। आज तीर्थंकर भगवन्तों की जन्मभूमियाँ तो उपेक्षित पड़ी हैं और उनके नाम के अतिशयक्षेत्र हजारों-लाखों दीपकों से शोभायमान हो रहे हैं, यह किस प्रकार का न्याय है? यह सही है कि अतिशय क्षेत्र भी पूज्य हैं पर माताजी का कहना है कि जन्मभूमियों की इस उपेक्षा के प्रति समाज को अब जागृत होना चाहिए। प्राथमिकता के साथ सभी श्रावकों को तीर्थंकर जन्मभूमियों के विकास का उद्यम करना चाहिए क्योंकि जन्म लिए बिना न अतिशय क्षेत्र बन सकते हैं और न निर्वाणभूमियाँ बन सकती हैं। तीर्थंकर जन्मभूमियाँ हमारी संस्कृति की उद्गम स्थलियाँ हैं, उनकी सुरक्षा अपनी संस्कृति की सुरक्षा है।
==जम्बूद्वीप में ऋषभदेव पंचकल्याणक एवं बीस विद्यमान तीर्थंकर स्थापना-==
पूज्य माताजी की पावन प्रेरणा से दिल्ली के श्रावकभक्त श्रीमती शकुन्तला जैन ध.प. श्री रघुनाथप्रसाद जैन-गुजरावाला टाउन, दिल्ली के सौजन्य से भगवान ऋषभदेव जिनमंदिर एवं टिकैतनगर (बाराबंकी) के श्रेष्ठी श्री प्रद्युम्न कुमार जी के द्वारा ‘‘विद्यमान बीस तीर्थंकर जिनमंदिर’’ का निर्माण किया गया, जिसकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा वैशाख शु. ११ से वैशाख शु. १५,१२ मई से १७ मई २००३ तक पूज्य माताजी के शुभाशीर्वाद से संघस्थ पीठाधीश क्षुल्लक मोतीसागर जी के सानिध्य में हुई, साथ ही नूतन जिनमंदिरों पर कलशारोहण एवं ध्वजारोहण भी किया गया।
==नवग्रहशांति मंदिर की प्रतिमाओं का पंचकल्याणक-==
दिनाँक ५ जुलाई से ९ जुलाई २००३, (आषाढ़ शु. षष्ठी से दशमी) तक आरा निवासी श्री ज्ञानचंद जैन एवं उनकी धर्मपत्नी सौ. शशिलता जैन ने सम्पूर्ण समाज के साथ मिलकर कुण्डलपुर में नवग्रह की ९ तीर्थंकर प्रतिमाओं का लघु पंचकल्याणक प्रभावना के साथ सम्पन्न किया। ९ तीर्थंकर भगवन्तों से समन्वित सुन्दर कमल पर विराजमान मनोज्ञ मूर्तियाँ देखकर एक बार तो कदम ठिठक ही पड़ते हैं और वहाँ बैठकर स्वत: अपने ग्रहों की शांति हेतु उन प्रभुवर को भजने की इच्छा प्रकट हो उठती है। सर्वग्रह अरिष्ट निवारक यह नवग्रहशांति जिनमंदिर भारत का प्रथम एवं अनूठा जिनमंदिर है।
==अष्टमी-चतुर्दशी को हरी का त्याग आगम आज्ञा नहीं-==
२१ जुलाई २००३ को श्रावण वदी अष्टमी थी, पूज्य माताजी आहारचर्या के पश्चात् जब आकर बैठीं, तो मैंने अचानक माताजी से प्रश्न किया कि माताजी! क्या आपने पचास वर्षों से ही अष्टमी-चतुर्दशी को अन्न का त्याग कर रखा है? तब उन्होंने बताया कि हाँ, एक बार मैं क्षुल्लिकावस्था में अष्टमी को आहार में हरी सब्जी और फल लेकर आई, तो किसी सुधारक श्रावक ने हरी खाने पर विरोधात्मक रूख दिखाया, तब मैंने आचार्य श्री देशभूषण महाराज से कहा, तो वे कहने लगे कि अन्य (सप्तमी, नवमी आदि तिथि) दिनों में हरी खाने से क्या अभक्ष्य का दोष है? यदि नहीं, तो पर्व में ऐसा क्यों करते हैं? यह सब सुधारकों की विचारधारा है, आगम आज्ञा नहीं है। अत: प्राचीन गुरु परम्परा एवं शास्त्रीय विधि अनुसार अष्टमी-चतुर्दशी को अभक्ष्य पदार्थों का त्याग करके हरी सब्जियाँ खाने में कोई दोष नहीं है। देखो! आचार्य शांतिसागर जी महाराज की परम्परा के सभी साधु अष्टमी-चतुर्दशी आदि पर्वों में हरी सब्जी-फल लेते हैं और मैं भी तो लेता हूँ। यदि उसमें दोष मानें तो सप्तमी- नवमी आदि तिथियों में हरे फल-सब्जी नहीं लेना चाहिए।
==तीर्थंकर जन्मभूमि विधान मेरे लिए तीर्थंकर भक्ति का अनुपम ध्येय बना-==
पूज्य माताजी जहाँ सतत तीर्थंकरों की जन्मभूमियों के विकास में अग्रसर हैं, वहीं उनकी तीव्र इच्छा थी कि एक ‘‘तीर्थंकर जन्मभूमि विधान’’ की रचना भी होनी चाहिए, जिसके कार्यक्रम से भक्ति गंगा में अवगाहन करने वाले लोग सरल भाषा में तीर्थंकरों की प्रत्येक जन्मभूमियों एवं उनके इतिहास को समझ जावें, अत: माताजी ने मुझे इस विधान की रचना हेतु प्रेरणा प्रदान की। पूज्य माताजी की आज्ञानुसार मैंने प्रभु महावीर एवं पूज्य माताजी को नमन कर उस विधान रचना को प्रारंभ किया, फिर तो देखते ही देखते प्रभु एवं गुरुकृपा से वह विधान रचना मूर्त रूप ले उठी और वह जन्मभूमि विधान धर्मवत्सल श्रावकों के लिए तो आराधना का अनुपम माध्यम बना ही, मेरे लिए तीर्थंकर प्रभु की भक्ति का अनुपम ध्येय बन गया और मानसिक एकाग्रता के साथ-साथ मैंने अपूर्व प्रसन्नता का अनुभव भी किया।
==कुण्डलपुर में सैकड़ों वर्षों के इतिहास में प्रथम चातुर्मास हुआ-==
तीर्थ के उभरते स्वरूप को देखने की अभिलाषा एवं भगवान महावीर के कल्याणकों से पवित्र तीर्थ त्रिवेणी (कुण्डलपुर, राजगृही, पावापुरी) में भक्ति स्नान करने की भावना से पूज्य माताजी ने यह निर्णय लिया कि सन् २००३ का वर्षायोग मुझे यहीं कुण्डलपुर में भगवान महावीर की छत्रछाया में सम्पन्न करना है पुन: जब १२ जुलाई आषाढ़ शु. चतुर्दशी को चातुर्मास स्थापना की सभा हुई, तो बिहार प्रान्त के भक्तों ने बताया कि सौ वर्षों के इतिहास में कुण्डलपुर के अंदर किसी साधु का चातुर्मास होना अब तक नहीं सुना गया। अब पूज्य माताजी के चातुर्मास से यह तीर्थ देश-विदेश के यात्रियों का पर्यटन केन्द्र बन जायेगा। उनका यह मूल्यांकन वास्तव में खरा उतरा और दूर-दूर से यात्री कुण्डलपुर आकर चलते निर्माण कार्य को देखकर अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने अपूर्व सहयोग की भावना व्यक्त करते थे। उसी के फलस्वरूप तीर्थ का स्वरूप अति शीघ्र साकार हुआ। =
=महाराष्ट्र के भक्तमण्डल का समर्पण भाव-==
औरंगाबाद (महा.) के प्रमुख श्रेष्ठी स्व. श्री जम्मनलाल जैन कासलीवाल ने वहाँ पूज्य माताजी के नाम से ‘‘गणिनी ज्ञानमती भक्तमण्डल’’ बना लिया, उसके समर्पित भक्तों ने कुण्डलपुर के पंचकल्याणक (फरवरी २००३) में समस्त आगन्तुकों एवं निकटवर्ती ग्रामवासियों के लिए अपनी ओर से प्रीतिभोज-भण्डारा का आयोजन तो किया ही था पुन: वर्षायोग स्थापना में भी उस भक्तमण्डल ने पधारकर प्रतिनिधित्व किया और चातुर्मास के मध्य दशलक्षण पर्व में कुण्डलपुर आकर उन लोगों ने १ सितम्बर से १० सितम्बर २००३ तक कल्पद्रुम मण्डल विधान का भक्ति आयोजन सम्पन्न किया। इसके पश्चात् अक्टूबर में पूज्य माताजी के जन्मदिवस एवं कुण्डलपुर महोत्सव में भी पंचदिवसीय भण्डारा उसी भक्तमण्डल द्वारा आयोजित किया गया। आर्थिक भारवहन के साथ इन सभी की गुरुभक्ति वास्तव में अनुकरणीय रही।
==कुण्डलपुर महोत्सव में पर्यटन विभाग बिहार सरकार का संयुक्त तत्वावधान-==
भगवान महावीर जन्मभूमि की प्रगति के बढ़ते चरण राज्य सरकार की दृष्टि का भी केन्द्र बने और पर्यटन विभाग के अधिकारी आए दिन कुण्डलपुर में आकर उसकी वास्तविकता से परिचित होने लगे। तब एक दिन पूज्य माताजी एवं हम लोगों ने अक्टूबर में ‘‘कुण्डलपुर महोत्सव’’ आयोजित करने की रूपरेखा बनाई। समिति के अल्प प्रयासों से पर्यटन विभाग का संयुक्त तत्वावधान उस महोत्सव में जुड़ा और ८ से १० अक्टूबर २००३ (आसोज शु. तेरस से शरदपूर्णिमा) तक खूब धूमधाम से महोत्सव आयोजित हुआ। उसमें पूरे देश से एवं विशेषरूप से दिल्ली तथा बिहार प्रान्त से हजारों की संख्या में पधारे नर-नारियों ने कुण्डलपुर के निखरे स्वरूप को देखकर माताजी को कोटि-कोटि धन्यवाद दिया तो माताजी कहने लगीं कि यह सारा स्वरूप आप श्रावकों के श्रम का ही प्रतीक है, मेरा इसमें कुछ नहीं है। मुझे तो इस माध्यम से महावीर स्वामी की चरण रज प्राप्त हो गई है, यही मेरा धन्य भाग्य है।
==भगवान ऋषभदेव नेशनल अवार्ड से श्री धनंजय जैन सम्मानित-==
फरवरी २००३ में संस्थान और अनिल जैन-प्रीतविहार, दिल्ली (कमल मंदिर) के संयुक्त सौजन्य से घोषित किए गए भगवान ऋषभदेव नेशनल अवार्ड से श्री वी. धनंजय कुमार जैन को सम्मानित करने का अवसर इसी पावन धरा पर आया। १० अक्टूबर २००३, आश्विन शुक्ला शरदपूर्णिमा को बिहार के महामहिम राज्यपाल श्री एम.रामा. जोइस ने महोत्सव में पधारकर विशाल जनसमूह की गरिमामयी उपस्थिति में भगवान ऋषभदेव के प्रचार-प्रसार में अपना अमूल्य सहयोग प्रदान करने वाले पूज्य माताजी के अनन्य भक्त श्री धनंजय जैन (सांसद एवं पूर्व केन्द्रीय मंत्री) को इस संस्थान एवं जैन समाज के सर्वोच्च पुरस्कार से पुरस्कृत कर भावभीना सम्मान किया, तो सभा तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठी, सभी ने पुरस्कार एवं धनंजय जी के व्यक्तित्व की भूरि-भूरि प्रशंसा की। इस पुरस्कार में ढाई लाख रुपये की नगद राशि, प्रशस्तिपत्र, शॉल, पूâलमाला से सम्मान किया गया।
==तीर्थंकर जन्मभूमि विकास समिति की घोषणा-==
कुण्डलपुर महोत्सव में ही १० अक्टूबर शरदपूर्णिमा को पूज्य माताजी ने धनंजय जी एवं उपस्थित श्रद्धालुभक्तों, देश के शासक-प्रशासकगण को अपना मंगल आशीर्वाद प्रदान करते हुए भारत की सम्पूर्ण जैन समाज को चौबीसों तीर्थंकरों की १६ जन्मभूमियों के जीर्णोद्धार एवं विकास करने को संस्कृति सुरक्षा बताते हुए प्रेरणा प्रदान की और एक विकास समिति की घोषणा कर दी, जो प्राथमिक स्तर पर कुण्डलपुर की देखरेख पुन: अन्य तीर्थों का सर्वे प्लान बनाते हुए तीर्थ विकास कार्य में संलग्न है। तीर्थ विकास की उस शृंखला में भगवान पुष्पदंतनाथ की जन्मभूमि काकन्दी की बारी आई, जिसका शिलान्यास मगशिर कृ. पंचमी, २० नवम्बर २००५ में श्री राजकुमार जैन-वीरा बिल्डर्स, दिल्ली द्वारा किया गया और उसका निर्माण कार्य प्रारंभ हो चुका है, शीघ्र ही वह तीर्थ भी दुनिया की दृष्टि में छा जाने वाला है।
==निर्वाणस्थली में निर्वाणकल्याणक-==
भगवान महावीर के निर्वाणकल्याणक से पावन जल मंदिर पावापुरी कुण्डलपुर से मात्र १५ किमी. (कच्चे रास्ते से) की दूरी पर है। दीपावली की पावन बेला में पूज्य माताजी एवं हम सभी लोग एक दिन पूर्व ही पावापुरी स्थित दिगम्बर जैन मंदिर में पहुँच गए और माताजी के संघ सानिध्य में प्रथम बार २३ से २५ अक्टूबर २००३ तक त्रिदिवसीय भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव भारी प्रभावनापूर्वक मनाया गया। कार्तिक वदी अमावस्या, २५ अक्टूबर को निर्वाणस्थल जलमंदिर में प्रात:काल ४ बजे भारी भीड़ के मध्य भगवान महावीर के चरणों में सिद्धि, रत्न एवं स्वर्ण निर्वाणलाडू चढ़ाए गए। अपने ५१ वर्ष के दीक्षित जीवन में प्रथम बार भगवान की निर्वाणबेला में जलमंदिर में निर्वाणलाडू कार्यक्रम में सानिध्य प्रदान करके पूज्य माताजी को जिस हार्दिक आनन्द की अनुभूति हुई, वह वचनातीत है। रिमझिम फुहारों के बीच सैकड़ों श्रद्धालुओं ने रजत निर्वाणलाडू, मुक्ता निर्वाणलाडू एवं भक्ति निर्वाणलाडू चढ़ाकर अपने जीवन को धन्य माना। ==भव्य पंचकल्याणकों से जगमगा उठीं पंचकल्याणक भूमियाँ-==
भारतवर्ष में उत्तरप्रदेश एवं बिहार प्रान्त को ही तीर्थंकर भगवन्तों की पंचकल्याणक भूमियों का गौरव प्राप्त है, पूज्य
माताजी की प्रेरणा से यूँ तो अनेक पंचकल्याणक हुए हैं और हो रहे हैं परन्तु जहाँ स्वयं ही पंचकल्याणक मनाए गए हों, उस स्थल पर पंचकल्याणक का होना अभूतपूर्व होने के साथ-साथ ऐतिहासिक भी है। माताजी की पावन प्रेरणा से विकासोन्मुखी कुण्डलपुर के साथ-साथ भगवान महावीर की निर्वाणभूमि पावापुरी एवं भगवान मुनिसुव्रतनाथ की जन्मभूमि तथा भगवान महावीर प्रथम देशना भूमि राजगृही तीर्थ पर आयोजित हुए पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव से वह दोनों कल्याणक भूमियाँ जगमगा उठीं। सर्वप्रथम भगवान महावीर की निर्वाणभूमि पावापुरी सिद्धक्षेत्र के पाण्डुकशिला परिसर में श्री विजय कुमार जैन-दरियागंज एवं श्री सुभाषचंद जैन-ऋषभविहार, दिल्ली के सौजन्य से भगवान महावीर की सवा ग्यारह फुट खड्गासन प्रतिमा कमलाकार नूतन जिनमदिर में मगसिर सुदी पंचमी २८ नवम्बर से मगसिर सुदी दशमी, ३ दिसम्बर तक महती प्रभावनापूर्वक प्रतिष्ठित हुर्इं तथा राजगृही तीर्थ पर श्री अनिल कुमार जैन (कमल मंदिर)-प्रीतविहार, दिल्ली के सौजन्य से ३ दिसम्बर २००३ से ८ दिसम्बर २००३ (मगसिर सुदी दशमी से पूर्णिमा तक) श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनबिंब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव (लाल मंदिर के प्रांगण में ) विशेष धर्मप्रभावना के साथ सम्पन्न हुआ। =
=नवग्रहशांति जिनबिंब स्थापना एवं कलात्मक शिखरों पर कलशारोहण-==
कुण्डलपुर में तीनों मंदिरों (भगवान महावीर मंदिर, भगवान ऋषभदेव मंदिर एवं नवग्रहशांति जिनमंदिर) के ऊपर दक्षिण भारतीय डिजाइन वाले कलात्मक शिखरों का निर्माण बिहार प्रान्त के लिए अत्यन्त आकर्षक सिद्ध हुआ। ११ फरवरी से २३ फरवरी २००४ फाल्गुन कृ. तेरस से फाल्गुन शु. तीज तक लघु पंचकल्याणक, वेदी प्रतिष्ठा एवं कलशारोहण समारोह आयोजित किया गया, जिसमें महावीर मंदिर के शिखर पर विराजमान होने वाली ४ प्रतिमाएं (भगवान महावीर की सवा फुट पद्मासन) तथा दीक्षा मुद्रा वाली (पिच्छी-कमण्डलु सहित) भगवान महावीर स्वामी की सवा पाँच फुट खड्गासन श्वेत प्रतिमा प्रतिष्ठित हुर्इं। नवग्रहशांति जिनमंदिर में बिल्कुल नए ढंग से बनाए गए नौ कमलों पर नवग्रहशांति निवारक ९ तीर्थंकर भगवान (जिनकी प्रतिष्ठा जुलाई २००३ में हो चुकी थी) श्री ज्ञानचंद जैन-आरा ने विराजमान किए पुन: शिखर में चारों दिशा में चार प्रतिमा श्री रिसबदास दीपक कुमार जैन-बनारस परिवार ने विराजमान कीं। इसके पश्चात् प्रवचन सभा का आयोजन हुआ, जिसमें नालंदा के डी.एम. श्री आनन्द किशोर जी एवं विधायक श्री श्रवण कुमार जी ने सभा को सम्बोधित किया और कलशारोहण करने वाले बनारस एवं आरा के परिवारों को कुण्डलपुर समिति की ओर से सम्मानित किया गया। पुन: शुभ मुहूर्त में प्रात:११ बजे भगवान महावीर के मूलमंदिर एवं ऋषभदेव मंदिर के शिखर पर श्री ऋषभदास दीपक कुमार जैन, बनारस वालों ने सपरिवार कलशारोहण एवं ध्वज स्थापना किया, इसी प्रकार नवग्रहशांति मंदिर के शिखर पर श्री ज्ञानचंद जैन-आरा परिवार ने कलशारोहण तथा ध्वज स्थापना करके सातिशय पुण्य सम्पादित किया। तीन मंदिरों पर एक साथ कलशारोहण होने का यह सुखद संयोग हम सभी के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण रहा।
==भगवान पाश्र्वनाथ तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव की प्रथम घोषणा-==
उत्सव और महोत्सवों को मनाने की परम्परा भारत देश में प्राचीनकाल से रही है, उसी परम्परानुसार सन् १९७४ में भगवान महावीर का २५००वाँ निर्वाण महोत्सव, सन् २००० में भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महोत्सव एवं सन् २००१ में भगवान महावीर का २६००वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव सरकार और समाज ने मिलकर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया है, इसी प्रकार अब तेईसवें तीर्थंकर भगवान पाश्र्वनाथ के माध्यम से जैनधर्म का प्राचीन इतिहास दुनिया के कोने-कोने तक पहुँचाने हेतु पूज्य माताजी ने ५ दिसम्बर २००३ मगशिर शु. १२ को राजगृही में भगवान मुनिसुव्रतनाथ जिनबिंब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के मध्य ‘‘भगवान पाश्र्वनाथ जन्मकल्याणक तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव’’ मनाने हेतु घोषणा की और उसे वाराणसी तीर्थ (भगवान पाश्र्वनाथ जन्मभूमि) से उद्घाटित करने हेतु विचार-विमर्श प्रारंभ हो गया।
==षट्खण्डागम ग्रंथ की टीका की पूर्णता पर हुई महापूजा-==
भगवान पाश्र्वनाथ जन्मकल्याणक के पावन अवसर पर पौष कृ. ११,१९ दिसम्बर २००३ को वर्तमान जैन समाज में सर्वाधिक ग्रंथों की लेखिका पूज्य माताजी ने जैनधर्म के प्रथम सिद्धान्त ग्रंथ षट्खण्डागम की १२वीं पुस्तक की टीका पूरी करके चतुर्थ खण्ड का कार्य पूर्ण किया और १३वीं पुस्तक का लेखन प्रारंभ किया। अत: जिस प्रकार षट्खण्डागम गंरथ की पूर्णता पर ग्रंथ के कर्ता श्री पुष्पदंत एवं भूतबलि आचार्यों की चतुर्विध संघ द्वारा भक्तिभावपूर्वक पूजन सम्पन्न की गई थी, उसी प्रकार प्रथमत: पूज्य माताजी द्वारा लिखित संस्कृत टीका के पृष्ठ का महाभिषेक करने के साथ-साथ सरस्वती विधान पूर्वक ग्रंथराज षट्खण्डागम की महापूजा सम्पन्न की गई पुन: मैंने संघस्थ ब्र. बहनों से पूज्य माताजी की महापूजा सम्पन्न कराई और भक्तों ने पूज्य माताजी के ऊपर चांदी के पुष्पों की वृष्टि कर अपने को धन्य माना। क्योंकि मेरे मन में बार-बार यही चिन्तन चल रहा था कि आचार्य पुष्पदंत एवं भूतबलि ने जब षट्खण्डागम ग्रंथ लिखकर पूर्ण किया था तो देवों ने तथा चतुर्विध संघ ने उनकी पूजा की थी अत: हम लोग भी माताजी द्वारा किये गए इतने महान कार्य पर माताजी की जितनी पूजा अर्चना कर लें, उतना कम है।
==मैराथन धावकों ने प्राप्त किया अहिंसा एवं शाकाहार का संदेश-==
ऋषभदेवपुरम् स्थित तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षास्थली प्रयाग तीर्थ पर भारत की पूर्व प्रधानमंत्री स्व. श्रीमती इन्दिरा गांधी के जन्मदिवस, १९ नवम्बर २००३ को आयोजित ‘‘इन्दिरा मैराथन दौड़’’ के १५-२० वर्ष आयु वर्ग के रेस समापन पर तीर्थ सम्प्रेरिका पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के मंगल आशीर्वाद स्वरूप संघस्थ ब्र.कु. स्वाति द्वारा शाकाहार, सदाचार, अहिंसा जैसे सिद्धान्तों से समन्वित जीवन निर्माण की शिक्षा प्राप्त कर लगभग १५०० प्रतिभागियों ने विशेष लाभ प्राप्त किया। आनन्द भवन (इला.) से प्रारंभ १० किमी. क्रास कन्ट्री रेस में १५-२० वर्ष आयु वर्ग रेस का समापन प्वाइन्ट ‘‘तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षास्थली-ऋषभदेवपुरम्’’ को रखा गया था। इसमें प्रथम छह प्रतियोगियों को विशेष पुरस्कार एवं नगद राशि प्रदान करने के साथ-साथ लकी ड्रा द्वारा २५ और प्रतियोगियों को सम्मानित किया गया।
==पूर्व विदेश राज्यमंत्री ने किया मांसाहार का त्याग-==
१३ फरवरी २००४ की बात है, आहार के बाद मैं अपने कमरे में बैठी शब्दकोश की वाचना से उसमें उचित संशोधन आदि के बारे में चिंतन कर रही थी कि पूज्य माताजी के दर्शनार्थ पधारे श्री हरिकिशोर सिंह (पूर्व विदेश राज्यमंत्री) माताजी के दर्शन कर मेरे पास आकर बैठ गए, ये सज्जन बिहार में ही सीतामढ़ी के निवासी हैं अत: वर्तमान के चुनावों में खड़े होने हेतु पूज्य माताजी का आशीर्वाद लेने आए थे। अत: बातों-बातों में जब उनसे शाकाहार संबंधी चर्चा की, तो उन्होंने अपने मन से एक वर्ष तक मांसाहार का त्याग कर दिया और पुन: माताजी के दर्शनार्थ आने की इच्छा व्यक्त की। शायद इसीलिए आचार्यों ने सत्संगति की महत्ता बताते हुए कहा है कि- महतां संश्रयान्नूनं, लभन्तेऽन्ये सुमान्यतां।। अर्थात् महान् पुरुषों का आश्रय लेने पर सामान्य पुरुष भी मान्यता प्राप्त कर लेते हैं।
==प्र्स्वप्न ने दिलाया अग्रिम आशीर्वाद-==
आचार्य जिनसेनस्वामी ने महापुराण में स्वप्न के संबंध में लिखा है कि-
ते च स्वप्नाद्विधाऽऽम्नाता: स्वस्थास्वस्थात्मगोचरा:। समैस्तु धातुभि: स्वस्था विषमैरितरे मता:।।५६-पर्व ४१।। तथ्या: स्यु: स्वस्थ सन्दृष्टा मिथ्यास्वप्ना विपर्ययात्। जगत्प्रतीतमेतद्धि विद्धि स्वप्नविमर्शनम्।।६०।।
अर्थात् स्वप्न दो प्रकार के माने गये हैं। एक अपनी स्वस्थ अवस्था में दिखने वाले और दूसरे अस्वस्थ अवस्था में दिखने वाले। जो धातुओं की समानता रखते हुए दिखते हैं, वे स्वस्थ अवस्था के कहलाते हैं और जो धातुओं की विषमता-न्यूनाधिकता रहते हुए दिखते हैं, वे अस्वस्थ कहलाते हैं। फरवरी २००४ में कुण्डलपुर प्रवास के मध्य मैं पूज्य माताजी द्वारा लिखे जा रहे महान षट्खण्डागम ग्रंथ की सिद्धान्तचिंतामणि संस्कृत टीका की द्वितीय पुस्तक का हिन्दी अनुवाद कर रही थी। १६ फरवरी फाल्गुन शु. ११ को मैंने प्रात: ७.३५ बजे भगवान ऋषभदेव प्रतिमा के सानिध्य एवं पूज्य माताजी की छत्रछाया में बैठकर षट्खण्डागम द्वितीय पुस्तक की हिन्दी टीका पूर्ण की। यूँ तो ३१ दिसम्बर २००३ को औपचारिक रूप से मैंने अंतिम पृष्ठ लिख दिया था किन्तु मध्य में २०-२५ पृष्ठों का कार्य शेष था, जो ३१ जनवरी २००४ को शुरू करके आज पूर्ण किया और पूज्य माताजी के करकमलों में पूरे हस्तलिखित पृष्ठ समर्पित करके असीम संतुष्टि का अनुभव किया। चूँकि इस समय हर समय शुभोपयोग ही चल रहा था पुन: सुबह ही मुझे ४ बजे स्वप्न हुआ कि एक हाथी (फूलमाला पहने हुए) ने आकर मुझे नमस्कार किया, इससे पूर्व भी मैंने ४ फरवरी की रात्रि में यही स्वप्न देखा था कि पूâलों से सजा हुआ एक हाथी घुटने टेकर मुझे नमस्कार कर रहा है। प्रात:काल जब मैंने माताजी को वह स्वप्न बताया तो माताजी बहुत ही प्रसन्न हुर्इं और अग्रिम उन्नति का खूब आशीर्वाद देते हुए उन्होंने कहा कि चंदनामती! तुम जल्दी-जल्दी मेरी सब पुस्तकों की हिन्दी कर दो, मुझे तुम्हारे अनुवाद से बहुत संतोष मिलता है। उस समय मुझे यही लगा कि इसी प्रकार गुरु कृपा से मिलने वाली शक्ति से मैं आगे भविष्य में भी बहुत कुछ कार्य कर सकूगी।
==अनुपम छटा बिखेरता नंद्यावर्त महल दर्शनीय एवं वंदनीय हो गया-==
सन् २००४ के द्वितीय चातुर्मास के मध्य भगवान महावीर के जन्म से पावन नंद्यावर्त महल की भव्य प्रतिकृति ने जब अपना साकार स्वरूप प्राप्त किया और उसके अन्दर २६०० वर्ष पूर्व का इतिहास चित्रमय प्राचीन कलाकृतियों के साथ दर्शाया गया, तो उसकी छटा देखते ही बनती थी, जहाँ पर्यटकों का आकर्षण पूर्व में नालंदा के खण्डहर थे, आज यह भव्य प्रतिकृति हो गई और सम्पूर्ण बिहार क्या पूरे देश में इसकी चर्चा पैâल गई, दूर-दूर से आने वाला यात्री इसे देखकर आल्हादित हो उठता और माताजी के समयोचित कार्य की प्रशंसा करते नहींr थकता था। भीतर में तीन मंजिल परन्तु बाहर से सात मंजिल का रूप दर्शाते इस महल को दर्शनीय होने के साथ-साथ वंदनीय होने का सौभाग्य तब प्राप्त हुआ, जब इसमें ऊपर की मंजिल पर भगवान शांतिनाथ जिनालय की स्थापना की गई और उसका पंचकल्याणक इसी प्रवास के मध्य पूज्य माताजी के संघ सानिध्य में २८ जून से २ जुलाई २००४, आषाढ़ शु. १० से पूर्णिमा तक विशेष भक्तिभावपूर्वक सम्पन्न हुआ। भगवान शांतिनाथ, चन्द्रप्रभु एवं भगवान पाश्र्वनाथ की प्रतिमाओं की यह लघु पंचकल्याणक प्रतिष्ठा युवारत्न प्रतिष्ठाचार्य पं. अकलंक जैन के प्रतिष्ठाचार्यत्व में सम्पन्न हुई। इस पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में श्री कमल कुमार जैन-आरा ने सौधर्म इन्द्र बनने एवं सेठ श्री रिसबदास जी-वाराणसी ने सपत्नीक भगवान के माता-पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त किया। इसी प्रतिष्ठा में संघपति श्री महावीर प्रसाद जैन-दिल्ली के सौजन्य से राजगृही में निर्मित होने वाले मानस्तंभ की ४ प्रतिमाओं एवं गुणावां जी में विराजमान होने वाली गौतम गणधर की खड्गासन प्रतिमा तथा राजस्थान के लावा मंदिर व गोम्मटगिरि-इंदौर में विराजमान होने वाली ह्री मंत्र की २४-२४ प्रतिमाओं की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा भी सम्पन्न हुई। २ जुलाई २००४ को तीर्थ परिसर में नवनिर्मित त्रिकाल चौबीसी मंदिर की दो मंजिलों में क्रमश: भूतकाल एवं वर्तमानकाल की चौबीसी प्रतिमाओं को वेदी में विराजमान किया गया तथा नंद्यावर्त तीर्थ के मेनगेट सर्वार्थसिद्धि द्वार एवं कल्पवृक्ष कार्यालय का शिलान्यास भी हुआ।
==क्षुल्लिका श्रद्धामती जी का समाधिमरण-==
आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्डश्रावकाचार ग्रंथ में सल्लेखना की विधि बताते हुए कहा है- जीवन भर जो तप, व्रत और चारित्र आदि का पालन किया जाता है, उनको यदि अगले भव में अपने साथ ले जाना है, तो मरण के काल में अवश्य ही सल्लेखना करनी चाहिए। जैसे किसी देश में कमाए धन की यदि कोई मनुष्य वहाँ से प्रस्थान करते समय याद न करे और किसी दूसरे को सौंपा जावे तो उसका वह धन प्राय: व्यर्थ ही जाता है, इसी प्रकार परलोक यात्रा के समय अर्थात् मरण के अंत में यदि सल्लेखना न की जावे और परिणाम भ्रष्ट हो जावें तो दुर्गति हो जाती है। इसलिए मरण के समय में सल्लेखना करना एक शिक्षाव्रत माना गया है। वास्तव में सल्लेखना का महत्व अचिन्त्य है। ऐसी ही एक सल्लेखना हमारे संघ की वयोवृद्ध क्षुल्लिका श्रद्धामती जी की हुई। भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर में नंद्यावर्त महल परिसर में २२ सितम्बर २००४ को दशलक्षण महापर्व के मध्य भाद्रपद शु. नवमी को उन्होंने पूज्य माताजी का सम्बोधन प्राप्त करते-करते एवं णमोकार मंत्र सुनते-सुनते इस नश्वर शरीर का त्यागकर देवपद प्राप्त कर लिया, वह ८५ वर्ष की थीं। वे सन् १९८५ से हमारे संघ में थीं और सन् १९८९ में पूज्य माताजी से क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण कर १५ वर्षों से क्षुल्लिका के व्रतों का दृढ़तापूर्वक पालन कर रही थीं। वस्तुत: जीवन के अंत समय में समाधिपूर्वक मरण करना महान पुण्य के उदय से ही संभव होता है।
==तीर्थ त्रिवेणी का अपूर्व संगम-==
पूज्य माताजी के साथ-साथ हम सबको भी एक साथ तीन-तीन तीर्थों के दर्शन का सुयोग प्राप्त हुआ अत: सबके हृदय में बड़ा आल्हाद रहा। कुण्डलपुर प्रवास करते हुए प्रतिमाह एक बार राजगृही और एक बार पावापुरी जाकर पर्वत वंदना, जल मंदिर में ध्यान आदि करना वास्तव में जन्म-जन्म में संचित पुण्य का फल प्रतीत होता था।
==कुण्डलपुर अभिनंदन ग्रंथ का प्रकाशन-==
भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर का एवं वहाँ की प्राचीन सांस्कृतिक नगरी की ऐतिहासिकता, भगवान के राजवंश की महत्ता, तीर्थंकर पद की सार्थकता आदि से जन-जन को परिचित कराने हेतु कुण्डलपुर समिति ने पूज्य माताजी की प्रेरणा से एक अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशन की योजना बनाई। उसके प्रधान सम्पादक कर्मयोगी ब्र.रवीन्द्र कुमार जी, प्राचार्य श्री नरेन्द्र प्रकाश जी जैन-फिरोजाबाद तथा सम्पादक मण्डल के सभी सम्पादकों के कुशल सम्पादन में तथा संघस्थ ब्र. बहनों की कार्यकुशलता, मेरे व संघस्थ क्षु. मोतीसागर जी के अथक परिश्रम तथा पूज्य माताजी के शुभाशीर्वाद से भगवान महावीर जन्मभूमि की गरिमा के अनुरूप सुन्दर गं्रथ का प्रकाशन हुआ। दानवीर समाजरत्न श्री कमलचंद जी-खारीबावली-दिल्ली परिवार के अर्थ सौजन्य से प्रकाशित हुए इस ग्रंथ का विमोचन ‘जन्मभूमि कुण्डलपुर’ की पावन धरा पर ‘कुण्डलपुर महोत्सव-२००४’ के मध्य हुआ।
==सिद्धायिनी माता बोल उठीं यह ही है सच्ची जन्मभूमि-==
१७ अक्टूबर को एक सुखद स्वप्न ने गिरनार तीर्थ पर आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा घटित उस घटना की याद दिला दी, जब पाषाण की अम्बिका देवी बोल पड़ी थीं, कि सत्य पंथ निग्र्रंथ दिगम्बर……………. ऐसा ही एक स्वप्न में मैंने देखा कि एक मंदिर में सिद्धायिनी माता विराजमान हैं, मैं उनके समीप में बैठी हूँ, पीछे पूज्य माताजी खड़ी हैं और बहुत सारी भीड़ है। मैं कह रही हूँ कि किस प्रकार इस सच्ची जन्मभूमि को विश्वव्यापी स्वरूप प्राप्त हो, तभी पाषाण की सिद्धायिनी माता ३ बार बोल पड़ीं कि सच्ची जन्मभूमि यह ही है, पुन: माताजी ने कहा-जयतु सिद्धायिनी माता, तब पुन: सिद्धायिनी माता ने वही शब्द ३ बार बोला और उनके ऐसा बोलते ही अपार जनसमूह के जय-जयकारों से आकाशमण्डल गुंजायमान हो रहा है। यह स्वप्न देखकर जब मेरी आंख खुली, तो सचमुच में नेत्रों से हर्ष के अश्रु बह रहे थे। उस समय ३.१५ बजा था, पुन: ५ बजे जब मैंने माताजी को इस स्वप्न के बारे में बताया तो वे बोलीं कि चंदनामती! वीर प्रभु की जन्मभूमि यही थी, यही है और यही रहेगी। देखना, मात्र कुछ ही समय में यह जन्मभूमि विश्व के मानस पटल पर छा जायेगी और वास्तव में पूज्य माताजी के वचन सत्य निकले।
==मेरे ज्ञानार्जन का अपूर्व केन्द्र बनी कुण्डलपुर तीर्थ यात्रा-==
इस कुण्डलपुर यात्रा का मेरे लिए जो सर्वाधिक विशिष्ट पहलू रहा, वह रहा ज्ञानार्जन का अमूल्य उपहार, जो इस वास्तविक जन्मभूमि को जन्मभूमि सिद्ध करने हेतु मुझे विशेषरूप से प्राप्त हुआ। वर्षों पहले से पूज्य माताजी के मुख से इन तीर्थों के बारे में सुनती थी और मैंने स्वयं भी दीक्षा लेने से पूर्व इस स्थान की वंदना की थी। पुन: जब वैशाली को भगवान महावीर जन्मभूमि मानने वाली विचारधारा विशेषरूप से समक्ष आई, तब तो चिंतन के माध्यम से वास्तविक शोध को उजागर करने का मानस और भी दृढ़ होता गया । विहार के मध्य भी जहाँ कहीं भी पुस्तकालय उपलब्ध होता, वहाँ ही विविध ग्रंथों से साक्ष्य एकत्रित करने की भावना बनी रहती। मन में बार-बार यही विचार आता कि शोध तो वही सार्थक है, जिसके माध्यम से प्राचीन दिगम्बर जैनागम एवं जैनाचार्यों के कथन को ही परिपुष्टता प्राप्त हो, वही बुद्धि सार्थक है, जो अपनी प्राचीन संस्कृति के प्रति कटिबद्ध रहे। इन्हीं भावनाओं से ओत-प्रोत होकर जन्मभूमि कुण्डलपुर से संबंधित ज्ञानार्जन एवं आगमिक शोध में मुझे जो हार्दिक आनन्द प्राप्त हुआ वह वचनातीत है। कुण्डलपुर की धरती पर बैठकर भी अध्ययन-स्वाध्याय का विशेष ही अवसर रहा क्योंकि यहीं पर ही मैंने ‘‘भगवान महावीर हिन्दी-अंग्रेजी जैन शब्दकोश’’ को पूज्य माताजी की छत्रछाया में बैठकर गहन मनन-चिंतन के बाद निर्णयात्मक स्वरूप प्रदान किया, इसी प्रकार कुण्डलपुर अभिनंदन ग्रंथ हेतु गुरु आज्ञापूर्वक इसे सर्वांगीण बनाने का प्रयास भी ज्ञानार्जन की दिशा में सार्थक कदम ही सिद्ध हुआ। वास्तविकता तो यही है कि ज्ञान की प्राप्ति में जो आनन्द आत्मा से उद्भूत होता है, वह अनुपम एवं अतुलनीय है, जितनी संतुष्टि सम्यग्ज्ञान के माध्यम से प्राप्त होती है, वह संसार की किसी भी अन्य सामग्री से नहीं प्राप्त हो सकती। इस कुण्डलपुर विकास ने मुझे स्वाध्याय एवं अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग का जो अवसर प्रदान किया है, वह ही मेरे लिए अनुपम निधि है।
==मत जाओ माँ इस नगरी से, यह धरा तुम्हारे बिन सूनी-==
भगवान महावीर जन्मभूमि के मात्र २२ माह के अल्प समय में नंद्यावर्त महल तीर्थ के रूप में ऐतिहासिक नवविकास सम्पन्न करवाकर जब १४ नवम्बर २००४, कार्तिक शु. दूज को अपरान्ह ३ बजे पूज्य माताजी एवं हम लोगों ने कुण्डलपुर से हस्तिनापुर की ओर मंगल विहार किया, तो बिहारवासी एकदम अधीर हो उठे, बार-बार पूज्य माताजी से अनुनय-विनय करके वे सब कहने लगे कि माताजी! अभी तो इस तीर्थ ने अपने विकसित स्वरूप को प्राप्त ही किया है, अभी तो यह २२ माह का बालक है, जिसे आपको और परिपक्व करना है, आपने अभी यहाँ का आनंद ही क्या लिया, मात्र यहाँ की धूल-मिट्टी ही मिली है आपको, अब जब इस विकसित तीर्थ पर कुछ क्षण रहने का समय है, तब आप विहार कर रही हैं, माताजी! कृपया इस तीर्थ और हम बिहारवासियों को छोड़कर मत जाइए, इतना कहते-कहते बेचारे दुखी होकर रोने लगे और जब भी माताजी की मौनपूर्वक मुस्कान देखी तो बेचारे पुन:-पुन: पधारने का निवेदन करने लगे। उस समय माताजी ने उन सबको यही सम्बोधन प्रदान किया कि देखो! साधु के लिए क्या जंगल, क्या महल! हमने कोई अपने लिए तीर्थ नहीं बनाया प्रत्युत् भारत की समस्त जैन जनता के लिए बनाया है और जिनसंस्कृति की सुरक्षा मात्र की है, बस आप सब प्राणप्रण से सदा इस तीर्थ की सुरक्षा करते रहें, यही मेरे प्रति आपका सच्चा समादर होगा। हालांकि तीर्थ को छोड़ते हुए एक बार पूज्य माताजी एवं हम सभी की आँखों में अश्रु आ गए कि अब ना जाने कब इस पवित्र माटी को छूने और वीरप्रभु को नमन करने का सौभाग्य प्राप्त हो, किन्तु सन्त तो नदियों की बहती धारा के समान होते हैं, जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण कर सदैव निज-परकल्याण में ही तत्पर रहते हैं।