जब किसी जिनप्रतिमा का दर्शन किया जाता है, तो उसकी प्राचीनता ज्ञात होने पर दर्शन करने वाले श्रद्धालु भक्त की भक्ति कुछ विशेष ही हो जाती है, यह सर्वमान्य तथ्य है। वास्तविकता यह है कि जिनप्रतिमा जितनी प्राचीन होती है, उसकी भक्तिभावपूर्वक दर्शन-वंदना करने से उतना ही अधिक फल प्राप्त होता है। वर्तमान काल में यही सत्य हमारे सामने साकाररूप ले रहा है पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के रूप में।
१८ वर्ष की अल्प आयु में घर का त्याग कर युग की प्रथम बालब्रह्मचारिणी के रूप में त्यागमार्ग में कदम बढ़ाने वाली इस लौह-बाला ने त्यागमयी जीवन के जो ५४ वर्ष पूर्ण किए हैं, उनसे एक विशेष प्रकार का अतिशय उनमें उत्पन्न हो गया है। पूज्य माताजी के अनेक कार्यकलापों को देखकर लोग अक्सर कहा करते हैं कि माताजी तो महान पुण्यशालिनी हैं और उस पुण्य के बल पर ही उनके द्वारा इतने बड़े-बड़े कार्य सम्पन्न हो रहे हैं, परन्तु वास्तव में पुण्य कहीं बाजार में नहीं मिलता है और न ही किसी दुकान से खरीदा जा सकता है।
पूज्य माताजी ने भी यह अपार पुण्य किसी से उधार नहीं लिया है वरन् इन ५४ वर्षों में एक-एक क्षण करके घट में बूँद-बूंद की भाँति उसे अर्जित किया है। अखण्ड असिधारा व्रत की स्वर्णिम धारा (५४ वर्ष), महाव्रतों को पालन करने की सूक्ष्म चर्या, मोक्षमार्ग के प्रणेता भगवान जिनेन्द्र के प्रति उनके कण-कण में व्याप्त अनुपमेय अपार भक्ति, प्रतिक्षण स्व एवं पर के कल्याण हेतु अटूट परिश्रम के महायज्ञ में समर्पण उनके इस महान पुण्यरूपी प्रासाद के सुदृढ़ स्तम्भ बने हैं।
किन्हीं नीतिकार का कथन पूर्ण सत्य है-
पुण्यस्य फलमिच्छंति, पुण्यं नेच्छन्ति मानवा:।
न पापफलमिच्छंति, पापं कुर्वन्ति यत्नत:।।
अर्थात् लोग पुण्य से प्रसूत सुखरूप फल की इच्छा करते हैं, परन्तु पुण्य करना नहीं चाहते हैं। वे पापरूप फल को नहीं चाहते हैं परन्तु पाप के संचय में सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। देखा जाये तो संसार में यही स्थिति बनी हुई है, लोग समस्त सुख-सम्पत्ति-वैभव की आधारभूत पुण्य क्रियाओं से तो अछूते बने रहते हैं और अपने जीवन में सदैव ऊँचाईयों की अभिलाषा से त्रस्त रहा करते हैं। ऐसे लोगों के लिए पूज्य माताजी का जीवन विशेषरूप से प्रेरणास्पद है।
पूज्य माताजी जिस तीर्थ को छूती हैं, वह आकाश की ऊँचाईयों को छूने लगता है, जिस मिट्टी को छूती हैं, वह सोना बन जाती है, जिस जंगल में पहुँच जाती हैं, वहाँ स्वर्ग बन जाता है, जिस ग्राम की धरती पर चरण रखती हैं, वह मंदिर बन जाता है, जिस व्यक्ति पर उनकी दृष्टि पड़ जाती है, वह अपने जीवन में इंसान से भगवान बनने की ओर अग्रसर हो जाता है और जिस बिन्दु का वह स्पर्श करती हैं, वह सिंधु बनने के लिए चयनित हो जाता है।
यही कारण है कि भगवान महावीर की जन्मभूमि-कुण्डलपुर (नालंदा) में मात्र २२ माह में हुए विशाल निर्माणकार्य को देखकर लोगों के मुख से सहसा निकलता है कि बीसों वर्ष का कार्य मानो स्वयं देवों ने आकर इतने अल्प समय में साकार कर दिया है। वस्तुत: देवोपुनीत इस कार्य को देखकर लोग आश्चर्य से दाँतों तले अँगुली दबा लेते हैं।
पूज्य माताजी के साथ जुड़ने वाले भक्तों का समर्पण भी इसीलिए रहता है क्योंकि वह मात्र मंदिर या तीर्थ नहीं बनातीr हैं वरन् जैन शासन की प्राचीन संस्कृति एवं अतिप्राचीन इतिहास की सुरक्षा में आचार्य कुन्दकुन्द एवं अकलंक देव जैसे उदाहरण प्रस्तुत कर देती हैं।
साररूप में यदि कहा जाये तो उनके द्वारा विशाल साहित्य सृजन, हस्तिनापुर-अयोध्या-मांगीतुंगी-अहिच्छत्र-प्रयाग-कुण्डलपुर जैसे अनेकानेक तीर्थों का जीर्णोद्धार एवं विकास, जैनधर्म की प्राचीनता को जन-जन तक पहुँचाने के लिए किए गए महान प्रभावनात्मक कार्य, जिनेन्द्र भगवान, जिनशासन एवं जिनवाणी के प्रति उनकी अटूट भक्ति एवं समर्पण के ही प्रतीक हैं।
प्रारंभ से ही जिनशासन को अपना सर्वस्व मानने वाली पूज्य माताजी ने अपना हर कदम आगमानुकूल एवं अपने मोक्षमार्ग को प्रशस्त करने के लिए बढ़ाया है। प्रतिदिन उनके मुख से यही निकला करता है कि हे भगवन्! यदि मेरे द्वारा किंचित् भी आपके प्रति भक्ति एवं गुणानुरागरूप क्रियाएँ सम्पन्न हो रही हैं, तो उनके पीछे मेरा एकमात्र यही स्वार्थ निहित है कि आने वाले कुछ ही भवों में मैं इस प्रकार की उच्चतम साधना एवं ध्यानाग्नि का प्रश्रय ले सवूँâ कि मेरे समस्त कर्म मलों की शृँखला चूर-चूर होकर मेरी शुद्ध चेतनस्वरूप आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति हो सके।
तीर्थंकर भगवन्तों एवं आगम में वर्णित मोक्षपथ की वर्तमानकालीन साधना के प्रति उनकी अतिशय भक्ति का ही यह परिणाम है कि तीर्थंकर भगवन्तों के पंचकल्याणकों की भूमियों विशेषरूप से संस्कृति की उद्गमस्थली-जन्मभूमियों के संरक्षण एवं विकास के प्रति उनके हृदय में विशेष संकल्प बना हुआ है। पाँच तीर्थंकरों की जन्मभूमि शाश्वत तीर्थ अयोध्या, तीन तीर्थंकरों की जन्मभूमि हस्तिनापुर, भगवान मुनिसुव्रतनाथ की जन्मभूमि राजगृही एवं भगवान महावीर स्वामी की जन्मभूमि कुण्डलपुर (नालंदा) में जो विकास पूज्य माताजी की प्रेरणा से सम्पन्न हुआ है, वह भला किसकी नजरों से छिपा है!
उनकी कर्मठता एवं संकल्पशक्ति के विषय में समाज को पूर्ण विश्वास है कि जिस कार्य को माताजी हाथ में लेंगी, वह निश्चित रूप से बहुत ही सुन्दर एवं व्यवस्थित रूप में अल्प समय में ही पूर्ण हो जायेगा, इसीलिए पूज्य माताजी के आह्वान पर समाज भी हृदय से उस उद्देश्यात्मक कार्य के प्रति समर्पित हो जाता है। ठीक ही है कि जो वास्तव में कार्य करके दिखाते हैं, उनके प्रति श्रद्धा का भाव सहज ही उमड़ता है।
जून सन् १९९२ में सरधना से एक महिला हस्तिनापुर पधारीं, उन्होंने यहाँ आकर दर्शन करते ही गद्गद स्वर में कहना शुरू किया कि माताजी की पिच्छी में तो जादू भरा है, असाध्यरोग भी इनकी पिच्छिका स्पर्श से ठीक हो जाते हैं। अनेक स्थानों से पधारे तीर्थयात्री एवं भक्तगण उत्सुकतावश जिज्ञासापूर्ण दृष्टि से उनकी ओर देखने लगे कि ये माताजी की पिच्छिका का कौन सा अतिशय बताने जा रही हैं।
वे महिला आगे कहने लगीं-‘‘मेरे ससुर बाबूराम जी शुगर के मरीज हैं। उनके पैर में तीन वर्ष से एक बड़ा घाव था। न जाने कितनी दवाईयाँ करने पर भी यह घाव भर नहीं रहा था जिससे वे बड़े परेशान रहते थे। घर में ही चौबिस घंटे लेटे-लेटे दुखी थे। एक दिन उनका कुछ पुण्योदय हुआ। पूज्य माताजी आहारचर्या के बाद वापस आ रही थीं, तभी मालियान मोहल्ले में स्थित हमारे घर के सामने से निकलीं।
पिताजी ने उन्हें नमोऽस्तु किया और हमने माताजी से उनकी तकलीफ बताई, तब पूज्य माताजी ने मंत्र पढ़कर उनके मस्तक पर पिच्छी लगाई तथा उनसे णमोकार मंत्र की माला फैरने को कहा। आश्चर्य क्या, महान अतिशय ही नजर तब आया, जब २-३ माह के अंदर ही बिना किसी दवाई के घाव बिल्कुल सूख गया और अब पिता जी स्वस्थ हैं, प्रतिदिन माताजी को याद कर परोक्ष में ही उनकी भक्तिपूर्वक वंदना करते हैं।
इसी प्रकार एक दिन मेरठ-सदर निवासी जीवन बीमा निगम के एजेंट श्री विजय कुमार जैन सपत्नीक हस्तिनापुर पधारे, साथ में उनकी सुपुत्री कु. प्रियांगना थी। वे बड़ी श्रद्धापूर्वक दर्शन करके माताजी से कहने लगे कि क्या आपने मुझे पहचाना नहीं? पूज्य माताजी द्वारा उन्हें पहचानने के लिए मस्तिष्क पर जोर डालने पर वे महानुभाव स्वयं अपना परिचय बताने लगे। मैं सन् १९८७ में अपनी बेटी को आपसे आशीर्वाद दिलवाने लाया था। १२ वर्ष से इसे गुर्दे की बीमारी थी।
डाक्टर ने १५ अगस्त सन् १९७५ को पूरा चेकअप करके घोषित किया कि इसे गुर्दे की बीमारी है, उसके बाद हमने किसी डाक्टर का कोई इलाज बाकी नहीं छोड़ा किन्तु सन् १९८७ में इसके दोनों गुर्दे बिल्कुल खराब हो गए। मैं बहुत परेशान था तभी एक दिन अमरचन्द जी होमब्रेड वालों की प्रेरणा से मैं लड़की को लेकर उन्हीं के साथ आपके पास आया।
आपने छोटा सा मंत्र पढ़कर इसे प्रतिदिन पानी देने को कहा और अपनी पिच्छी से आशीर्वाद दिया, तब से मेरी लड़की बिल्कुल स्वस्थ है पुन: चेकअप कराने पर अब इसके कोई बीमारी नहीं निकली। उन्होंने कहा-मेरी और मेरे परिवार की आपके प्रति अगाध श्रद्धा है, हम लोग तो प्राय: आपके दर्शनार्थ आते ही रहते हैं।
माताजी मुस्करार्इं और उन लोगों को एवं कु. प्रियांगना को खूब-खूब आशीर्वाद दिया तथा अपनी पहचानने में स्मरण शक्ति कमजोर कहकर खेद व्यक्त किया। वैसे उन्हे शास्त्रीय बातें तो ५० वर्ष की भी याद हैं। जो कभी किसी गंरथ में पढ़ी थीं, दीर्घकाल के बाद भी ज्यों की त्यों बता देती हैं। पूज्य माताजी कभी-कभी मित भाषा में कहा करती हैं कि ‘‘जिससे मेरा आत्महित होता है मैं उसी को याद रखती हूँ, शेष सब कुछ मुझे अनावश्यक प्रतीत होता है इसीलिए मेरा मस्तिष्क उन्हें याद नहीं रखता है।’’
६ जुलाई १९९२ को मेरठ से प्रेमचंद जैन तेल वाले सपत्नीक हस्तिनापुर पधारे, उनके साथ उनके भतीजे सुभाष जैन भी सपत्नीक तथा और भी कुछ महिलाएँ थीं। ये लोग पूज्य माताजी के सानिध्य में शांतिविधान करने आये थे। थोड़ी देर बातचीत के दौरान बताने लगे कि माताजी! आपके आशीर्वाद से सुभाष एवं उसकी बहू मृत्यु के मुँह से बच गए।
कैसेक्या हुआ? इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बताया कि अभी पिछले सप्ताह ही दो बार की गंभीर चोटों के बाद कुछ स्वस्थ होकर यह आपके दर्शनार्थ आया था। आपने इसे गले में पहनने के लिए यंत्र दिया और अपने सामने ही चांदी की डिब्बी में वह यंत्र बनवाकर पहनवाया था पुन: ये लोग आपका आशीर्वाद लेकर मेरठ के लिए वापस चले, तो रास्ते में एक बस से इनकी गाड़ी में तेज टक्कर लगी।
बस, पता नहीं यंत्र और पुण्य सामने आ गया और ये लोग बच गए जबकि उस गंभीर एक्सीडेंट में इन लोगों को अपने बचने की कोई उम्मीद नहीं थी। किसी तरह घर तक पहुँचकर ये हम लोगों से चिपककर खूब रोए और अपने गले का यंत्र दिखाकर बार-बार यही कहने लगे कि आज तो हमें माताजी के इसी आशीर्वाद ने बचाया है वर्ना हम घर तक वापस नहीं आ सकते थे। इस तेज टक्कर के बाद भी किसी को खरोंच तक न आई, मात्र गाड़ी कुछ खराब होकर रह गई।
पूज्य माताजी कहने लगीं-इसमें हमारा कुछ भी नहीं है, जिनधर्म और उसमें वर्णित मंत्रों में आज भी महान शक्ति है। जो हृदय से इसे धारण करता है, उसके अकाल मृत्यु जैसे महासंकट भी टल जाते हैं। तुम्हारा आयुकर्म शेष था अत: बच गए, अब धर्म में अडिग श्रद्धा रखना…….इत्यादि।
१८ जनवरी २००६ को श्रद्धालुभक्तों की श्रृंखला में एक श्रावक श्री श्रेयांसकुमार जैन जम्बूतवी से माताजी के दर्शनार्थ पधारे और वे अपनी पहचान के लिए बताने लगे कि १०-११ वर्ष पूर्व मुझे भयंकर लकवा आ गया था। उस समय माताजी ने मुझे एक बड़ा मंत्र देकर कहा था कि इसकी जाप करके मंत्रित जल पिओ।
उससे मेरा लकवा बिल्कुल ठीक हो गया। आज मैं एकदम स्वस्थ हूँ और कई बार माताजी के दर्शन भी कर चुका हूँ किन्तु इस बार कई वर्ष बाद दर्शन करके आज अपने को बड़ा सौभाग्यशाली मानता हूँ। पूज्य माताजी ने उन्हें आगे भी धर्मवृद्धि का खूब आशीर्वाद प्रदान किया।
इस प्रकार इनके जीवन की ऐसी सैकड़ों घटनाएँ हैं जो जैन दीक्षा की कठोर तपस्या एवं अखण्ड ब्रह्मचर्य का प्रभाव बतलाती हैं। कई महिलाओं ने तो पूज्य माताजी के शारीरिक स्पर्श मालिश करके अपने अनेक शारीरिक रोगों को नष्ट कर इन्हें अतिशयकारी ‘‘विशल्या’’ की संज्ञा प्रदान की है।
यद्यपि साधु बनने के बाद गृहस्थ जीवन के सारे सम्बन्ध समाप्त हो जाते हैं, फिर भी जैसे भगवान महावीर के मोक्ष जाने के बाद भी उनके परिचय के साथ नाथवंश, काश्यपगोत्र, क्षत्रिय वर्ण, माता-पिता, दादी-बाबा आदि के नाम, जन्मभूमि-निर्वाणभूमि के नाम आदि का भी प्रसंगोपात्त वर्णन किया जाता है, उसी प्रकार साधु-साध्वियों के भी जाति और कुल का संबंध अवश्य ज्ञातव्य होता है।
पूज्य ज्ञानमती माताजी बताती हैं कि जब आचार्यश्री वीरसागर महाराज ने मुझे आर्यिका दीक्षा देने के पूर्व मुझसे पूछा कि तुम्हारा गोत्र क्या है? उस समय तक मुझे अपने गोत्र के बारे में कुछ पता नहीं था अत: गुरुदेव ने ब्रह्मचारी सूरजमल जी से टिकैतनगर पत्र लिखवाकर पुछवाया था।
उसके बाद ही मुझे ज्ञात हुआ कि मेरा गोत्र गोयल है। देश-कुल-जाति की पूर्ण शुद्धि ज्ञात करके ही आचार्यश्री शांतिसागर महाराज की परम्परा में दीक्षा प्रदान की जाती है, यही कारण है कि आज भी सम्पूर्ण साधु संस्था के मध्य इस परम्परा के साधु-साध्वियों का अपना एक विशिष्ट गौरवपूर्ण स्थान है। कुल परम्परा के बारे में पूछने पर एक दिन माताजी मुस्कराकर कहने लगीं कि देखो चन्दनामती! मैं तुम्हें इस कुल की सात पीढ़ियों के बारे में बताती हूँ-
१. नौबतराय जैन (पड़बाबा)
२. धन्य कुमार जैन (बाबा)
३. छोटेलाल जैन (पिता)
४. कैलाशचंद जैन (भाई)
५. जम्बू कुमार जैन (भतीजा)
६. अध्यात्म जैन (पौत्र)
७. सम्यक् जैन (प्रपौत्र)।
वे बोलीं-इनमें से मैंने बाबा श्री धन्यकुमार जी की तो बचपन में सेवा भी की है और आज कैलाश के पौत्र अध्यात्म एवं प्रपौत्र सम्यक् के धार्मिक संस्कार देखकर भी मुझे खुशी होती है कि इस कुल परम्परा में सदैव साधु बनने की एवं सद्गृहस्थ के कर्तव्य निर्वाह की परम्परा चलती रहे, यही मानवजीवन का सार है।
इसी प्रकार अपनी गुरु परम्परा के प्रति भी उन्हें महान् गौरव है कि मैंने अपने जीवन में ३ बार चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर महाराज-दक्षिण (बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य) के दर्शन किए हैं, उनसे मंगल उद्बोधन और चारित्रवृद्धि की अमूल्य प्रेरणाएँ प्राप्त की हैं, उनकी अंतिम सल्लेखना देखने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ एवं उनकी आज्ञानुसार ही उनके प्रथम पट्टशिष्य आचार्यश्री वीरसागर महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की है।
तब से लेकर आज तक सैकड़ों नये साधु-साध्वियों की चर्या देखने के साथ ही उन्होंने गुरु परम्परा की सात पीढ़ियों को देखा और बनाने का गौरव भी प्राप्त किया है। उनके नाम इस प्रकार हैं-
१. आचार्यश्री शांतिसागर महाराज
२. आचार्य श्री वीरसागर महाराज (प्रथम पट्टाचार्य)
३. आचार्य श्री शिवसागर महाराज (द्वितीय पट्टाचार्य)
४. आचार्य श्री धर्मसागर महाराज (तृतीय पट्टाचार्य)
५. आचार्य श्री अजितसागर महाराज (चतुर्थ पट्टाचार्य)
६. आचार्य श्री श्रेयांससागर महाराज (पंचम पट्टाचार्य प्रथम) तथा आचार्य श्री वर्धमानसागर महाराज (पंचम पट्टाचार्य द्वितीय)
७. आचार्यश्री अभिनंदन सागर महाराज (षष्ठम पट्टाचार्य के रूप में वर्तमान पट्टाचार्य का दायित्व निर्वाह कर रहे हैं)।
इन आचार्यों में से स्व. श्री अजितसागर महाराज, स्व. श्री श्रेयांससागर महाराज, आचार्यश्री अभिनंदनसागर महाराज एवं आचार्यश्री वर्धमानसागर महाराज को अनेक उच्चकोटि के ग्रंथों का अध्ययन भी कराया है।
इन सभी संघ व्यवस्थाओं की जानकारी के बाद पूज्य मातुश्री का कहना है कि इस परम्परा के सभी आचार्य, मुनि एवं आर्यिका संघों में आज तक भी प्राचीन आर्ष परम्परानुसार आहार शुद्धि, वस्त्र शुद्धि, वर्ण शुद्धि आदि की व्यवस्था एकदम सुव्यवस्थित रूप से चल रही है, यह सब चारित्रचक्रवर्ती गुरुवर्य के दीर्घदर्शी शुभाशीर्वाद का प्रतिफल तथा पट्टाचार्यों-संघनायकों एवं गणिनी माताओं की कट्टरता का प्रतिफल ही समझना चाहिए।
मैंने जब से (सन् १९७१ से) संघ में प्रवेश किया है, तब से सदैव पूज्य माताजी के मुँह से यही सुनती आई हूँ कि दीक्षा धारण करने के बाद साधु की प्रथम दृष्टि ‘आत्महित’ की ओर ही होनी चाहिए। इसीलिए आचार्यों ने स्वाध्याय, प्रतिक्रमण, सामायिक आदि क्रियाओं के द्वारा उन्हें सदैव आत्मकल्याण में ही लगे रहने की प्रेरणा प्रदान की है।
वे जहाँ अपनी इन क्रियाओं में पूर्ण सजग रहती हैं, वहीं हम लोगों को भी प्रमादी न बनने देने के लिए समय पर समस्त क्रिया करने हेतु सम्बोधन प्रदान किया करती हैं एवं थोड़ी सी भी असावधानी होने पर यथायोग्य प्रायश्चित्त देती हैं। प्रतिक्रमणों से संबंधित (दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक) प्रायश्चित्तों की परम्परा तो प्राय: समस्त साधु संघों में पुरातन परम्परा से चली आ रही है
किन्तु मैंने दीक्षा लेने के बाद हमेशा देखा है कि संघ का जितने किलोमीटर का विहार होता है अर्थात् हम लोग जितने किलोमीटर रोज चलते हैं, विहार पूरा होने पर सम्पूर्ण किलोमीटर की गिनती करके पूज्य माताजी स्वयं उसका रस परित्याग, मंत्रजाप्य, उपवास आदिरूप प्रायश्चित्त ग्रहण करती हैं और हम लोगों को भी प्रायश्चित्त प्रदान करती हैं, इसे ‘‘मार्गशुद्धि’’ प्रायश्चित्त कहा गया है।
यदि कभी हम लोगों में उपवास की शक्ति नहीं होती है, तो एक उपवास के स्थान पर स्वासोच्छ्वासपूर्वक णमोकार महामंत्र की मालाएं जपने को बताती हैं। कहते हैं कि एक माला को ३०० श्वासोच्छ्वासपूर्वक जपने से एक उपवास का फल प्राप्त होता है इसीलिए प्रायश्चित्त में एक उपवास के स्थान पर एक माला फैरने का विधान भी रहता है।
इसी प्रकार यदि गर्मी में कभी पंखा आदि के नीचे बैठने वगैरह के प्रसंग आ जाते हैं, तो समय-समय पर उनका भी प्रायश्चित्त देकर कल्याणालोचना, सर्वदोषप्रायश्चित्त विधि आदि का पाठ करने को कहती हैं। इतना ही नहीं, उनके साथ-साथ मुझे भी कई बार (अयोध्या आदि के रास्ते में) चारित्रशुद्धि व्रत के मंत्रों की जाप्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। उनकी अपनी चर्या के प्रति ऐसी सावधानी एवं शोधनविधि देखकर हम लोगों को भी निर्दोष चर्या पालन करने की प्रबल प्रेरणा मिलती है।
जिन भूमियों पर तीर्थंकर भगवन्तों के गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान एवं मोक्षकल्याणक सम्पन्न हुए हैं, वे जिनसंस्कृति की धरोहरस्वरूप महान पवित्र भूमियाँ हैं, क्योंकि आज भी वहाँ की मिट्टी में वे पुण्य परमाणु उपस्थित हैं जो हम सबके द्वारा अर्चना-वंदना करने से हमारे लिए महान पुण्योपार्जन का कारण बन जाते हैं।
ऐसे स्थलों पर किये गये धार्मिक अनुष्ठान अनन्तगुणा फल देने वाले होते हैं, इसमें कुछ भी संशय नहीं समझना चाहिए। विशेष रूप से तीर्थंकर भगवन्तों की जन्मभूमियाँ तो हमारी शाश्वत संस्कृति की उद्गमस्थली हैं क्योंकि वहाँ जन्म लेकर ही उन भगवन्तों ने असंख्य जीवों के कल्याणार्थ धर्मपथ का प्रवर्तन किया है। जन्म लेने के पश्चात् ही मोक्ष जाना संभव है,
अत: जन्मभूमियों की महत्ता विशेष ही है। सौधर्म इन्द्र भी अपने परिकर के साथ मात्र भगवान का निर्वाणकल्याणक मनाने ही नहीं आते वरन् भगवान के गर्भ एवं जन्म के समय से ही वे महान उत्सव मनाया करते हैं। भगवान के गर्भ में आने के ६ माह पूर्व ही माता के आँगन में रत्नों की वृष्टि प्रारंभ हो जाती है और भगवान के जन्म लेने तक १५ माह यह रत्नों की वर्षा निरन्तर होती ही रहती है।
भगवान की जन्मनगरी एवं जन्ममहल को स्वयं इन्द्र अतिशयरूप से सुसज्जित कराते हैं अत: जिनधर्मियों के लिए ये जन्मभूमियाँ महान् पूज्य एवं विशेष श्रद्धा का केन्द्र सिद्ध होती हैं। इस प्रकार की मंगल भावनाओं को हर क्षण अपने हृदय में भाते हुए अन्य सभी को भी इसी प्रकार का उपदेश देने वाली जैन समाज की वरिष्ठतम साध्वी राष्ट्रगौरव पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी प्राण-प्रण से तीर्थंकर भगवन्तों की जन्मभूमियों एवं अन्य कल्याणकभूमियों के विकास हेतु स्वयं भी कटिबद्ध हैं एवं सम्पूर्ण समाज को भी इसी प्रकार प्रेरणा प्रदान करती हैं।
पूज्य माताजी का कहना रहता है कि जब अपने रहने का मकान पुराना हो जाता है, तब लोग अत्यन्त प्रयासपूर्वक उसमें नवनिर्माण करके नवीनता लाते हैं एवं उसको चिरस्थाई करने का प्रयत्न करते हैं, पुन: जिन तीर्थंकर भगवान के शासन में हमें रत्नत्रय निधि की प्राप्ति हुई है, उनकी जन्मभूमि के जीर्णोद्धार एवं विकास के प्रति तो हमारा विशेष ही दायित्व है। इसके अतिरिक्त जब घर में किसी बुजुर्ग सदस्य को कोई बीमारी हो जाती है
अथवा उनका कोई अंग निष्क्रिय हो जाता है तो किसी भी प्रकार से साधन बनाकर उनका इलाज किया जाता है अथवा उनका निष्क्रिय अंग भी प्रत्यारोपित करवाकर उन्हें नवजीवन देने का प्रयास किया जाता है, न कि उनकी उपेक्षा की जाती है। इसी प्रकार तीर्थंकर भगवन्तों के कल्याणकों से संबंधित भूमियों के संरक्षण, संवर्धन, जीर्णोद्धार एवं नवविकास के प्रति भी हमारा पूर्ण दायित्व है, यदि हम इन तीर्थों की उपेक्षा करते हैं तो आने वाली पीढ़ियों के प्रति यह हमारी अकर्मण्यता होगी, जिसके लिए हमें कभी भी क्षमा नहीं किया जायेगा।
हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए तीर्थों की धरोहर प्रदान की है, तो हमें भी अपने आगे तक की पीढ़ी को ये तीर्थ सौंपना है। इन्हीं सब भावनाओं को अपने हृदय में संजोकर पूज्य माताजी ने भगवान शांतिनाथ,कुंथुनाथ एवं अरहनाथ की जन्मभूमि-हस्तिनापुर को जम्बूद्वीप के निर्माण द्वारा सुन्दर रूप प्रदान किया है।
भगवान ऋषभदेव सहित पाँच तीर्थंकरों की जन्मभूमि अयोध्या को नया स्वरूप देकर सजाया है, भगवान मुनिसुव्रतनाथ की जन्मभूमि-राजगृही में भगवान की विशाल खड्गासन प्रतिमा विराजमान कराकर लोगों को इस स्थान को तीर्थंकर जन्मभूमि होने की बात पुन: बताई है क्योंकि यहाँ आने वाले अधिकांशत: जैन यात्री भगवान महावीर की प्रथम देशनास्थली के रूप में ही यहाँ के दर्शन करके तृप्त हो जाते थे।
जहाँ तक तीर्थंकर भगवन्तों की अन्य कल्याणक भूमियों की बात है, भगवान पार्श्वनाथ की केवलज्ञान कल्याणक भूमि-अहिच्छत्र में ११ शिखरों से युक्त विशाल तीस चौबीसी मंदिर का निर्माण, भगवान ऋषभदेव की दीक्षा एवं केवलज्ञान कल्याणक भूमि-प्रयाग (इलाहाबाद) में तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षास्थली का भव्य निर्माण, भगवान पद्मप्रभ की जन्मभूमि कौशाम्बी के प्रभासगिरि तीर्थ (दीक्षा एवं ज्ञानकल्याणक भूमि) पर भगवान की विशालकाय प्रतिमा की स्थापना एवं अन्य कितनी ही निर्माण एवं विकास प्रेरणाएं पूज्य माताजी के तीर्थोद्धारिका स्वरूप का दिग्दर्शन कराने में पूर्ण समर्थ हैं।
ऐसी तीर्थोद्धारिका माताजी के व्यक्तित्व को सकल रूप में जानने की जिज्ञासा होना स्वाभाविक ही है, परन्तु कितना भी प्रयास करके शब्दों के माध्यम से उनके व्यक्तित्व एवं गुणों का परिपूर्ण व्याख्यान करना किसी के लिए भी संभव नहीं है।
दिगम्बर मुनि-आर्यिकाओं द्वारा नित्य-नैमित्तिक क्रियाओं में पढ़ी जाने वाली आचार्यश्री कुन्दकुन्द स्वामी की (प्राकृत में) और आचार्यश्री पूज्यपादस्वामी की (संस्कृत में) सिद्ध, श्रुत, चारित्र आदि दश भक्तियाँ काफी प्रचलित हैं।
उन्हें ठीक से समझने-समझाने की दृष्टि से पूज्य माताजी ने हिन्दी में भी इन भक्तियों का पद्यानुवाद करके साधु समाज पर बड़ा उपकार किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने चिन्तन किया कि जैसे अनादिनिधन नंदीश्वर पर्व (आष्टान्हिक) में ‘‘नंदीश्वर पर्व क्रिया’’ साधुओं द्वारा की जाती है और उसमें नंदीश्वर भक्ति के माध्यम से पूरे मध्यलोक के चैत्यालयों की वंदना का पुण्य प्राप्त होता है
उसी प्रकार सोलहकारण, दशलक्षण आदि अनादि पर्वों में भक्तिपाठ की परम्परा होनी चाहिए किन्तु वे भक्तियाँ कहीं पृथक्रूप में थीं नहीं अत: माताजी ने स्वयं संस्कृत में लगभग २० वर्ष पूर्व सोलहकारण भक्ति, दशलक्षण भक्ति, पंचमेरु भक्ति, सुदर्शनमेरु भक्ति और जम्बूद्वीप भक्ति बनाकर प्राकृत में उनकी अंचलिका लिखी हैं, जो ‘‘मुनिचर्या’’ एवं ‘‘जिनस्तोत्र संग्रह’’ ग्रंथ में प्रकाशित हैं।
इन भक्तियों का पाठ वे प्रत्येक सोलहकारण एवं दशलक्षण पर्व में सामूहिक रूप में करती हैं। इसलिए हम लोगों को कण्ठस्थ भी हो गई हैं। ऐसा भक्तियों के प्रति अनुराग संभवत: सब संघों में देखने को नहीं मिल सकता है, जैसा कि वे पर्वों के साथ प्रत्येक भगवान के सभी कल्याणकों की क्रिया, तीर्थक्षेत्र-सिद्धक्षेत्रों की वंदना व्रिया, अभिषेक वंदना क्रिया तथा गुरुओं की वंदना क्रिया आदि करने में स्वयं की सजगता के साथ हम लोगों को भी सदैव इन्हें करने की प्रेरणा देते हुए कहा करती हैं
कि पंचमकाल में हम लोगों के लिए ये शुभ क्रियाएँ ही कर्म निर्जरा कराने में सक्षम हैं अत: इनमें कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए। जिन प्रतिमाओं का अभिषेक देखने में इन्हें अत्यधिक आल्हाद और उत्साह रहता है। ७२ वर्ष की उम्र में भी एक युवाशक्ति के समान रोज जम्बूद्वीप के चैत्यालयों का, अन्य मंदिरों की प्रतिमाओं का बड़े-बड़े घड़ों से जलाभिषेक, दुग्धाभिषेक देखने में इनकी तीव्र रुचि देखकर ऐसा प्रतीत होने लगता है कि आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज के संस्कार ही इनमें अवतरित हो गये हैं।
इसी प्रकार से १००८ सहस्रनाम मंत्रों के द्वारा इन्होंने पचासों बार अनेक भक्तों से कमल पुष्पों और गुलाब पुष्पों को चढ़ाकर पूजा कराई है और आज भी भक्त, समय तथा पुष्पों के उपलब्ध होते ही इनकी भावना बलवती होकर प्रभुचरणों में समर्पित हो जाती है।
यही कारण है कि ऐसी पूजा इनके सानिध्य में करने वाले श्रद्धालुभक्त भी भाव-विभोर होकर बार-बार उस भक्ति आयोजन के लिए उपयुक्त क्षणों का इंतजार किया करते हैं। पूज्यश्री की यह भक्ति निश्चितरूप से दर्शनविशुद्धि भावना का द्योतक है, जो आत्मा को शीघ्र परमपूज्य बनाने में माध्यम बन रही है।
भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर के जीर्णोद्धार-विकास लक्ष्य से जहाँ पूज्य माताजी को सन् २००३-२००४ में वहाँ प्रवास का अवसर प्राप्त हुआ, वहीं निकटवर्ती निर्वाणभूमि पावापुरी के दर्शन करके उन्हें असीम आल्हाद होता था। वे २२ माह के कुण्डलपुर प्रवास के मध्य २२ बार पावापुर गई और प्रतिमाह वहाँ जलमंदिर में जाकर घंटों पिण्डस्थ ध्यान करके भगवान महावीर के मोक्षगमन के क्षणों का अनुभव करतीं।
कई बार भगवान के चरणों में केशर, दूध से अभिषेक कराकर १००८ कमल पुष्प, १००८ रत्न, बादाम, लौंग आदि चढ़वाकर संघस्थ ब्रह्मचारिणी बहनों से वृहत् पूजा-आराधना करवातीं और हर बार निर्वाणलाडू अवश्य चढ़वाकर दीपावली पर्व जैसे सुख का स्मरण करतीं।
नवम्बर २००४ में वहाँ से अंतिम बार विहार करते हुए माताजी एकदम भावविह्वल होकर भगवान महावीर के चरण पकड़कर कहने लगीं कि प्रभो! मुझे जीवन में पहली आर आपकी सिद्धभूमि के अति निकट दो चातुर्मास करने का अवसर मिला, इसीलिए अनेकों बार पावापुरी के दर्शन हो सके हैं।
अब मुझे ये चरण जीवन में शायद कभी नहीं प्राप्त होंगे । पुन: बार-बार उन प्रभु वीर के चरणों की रज मस्तक पर लगाकर अपनी प्रगाढ़ भक्ति का परिचय प्रदान किया। आज भी वे पावापुर का नाम लेते ही जलमंदिर में स्थित चरणों के ध्यान में लीन हो जाती हैं और प्राय: पावापुरी सिद्धक्षेत्र की वंदना क्रिया में अनेक भक्तियों का पाठ आदि करती हैं।
पूज्य माताजी के व्यक्तित्व का सौन्दर्य उनकी अगाध जिनभक्ति की भावना में निहित है। उनका कहना है कि वर्तमान पंचमकाल में हमारे लिए यदि कोई चिन्तामणि रत्न है तो वह है जिनेन्द्र भगवान की भक्ति क्योंकि उसके माध्यम से ही इहलोक संबंधी समस्त अनुकूलताओं की प्राप्ति होने के साथ-साथ क्रम से स्वर्ग एवं मोक्ष की भी सिद्धि हो जाती है।
वास्तव में देखा जाये तो पूज्य माताजी के द्वारा किए गए कार्यों की गौरवशाली सफलता उनकी जिनेन्द्रभक्ति का ही सुन्दर प्रतिफल है। आत्मकल्याण एवं जिनधर्म प्रभावना हेतु जीवन के हर क्षण को प्रयोग करने की वह अद्भुत क्षमता रखती हैं। अनुशासन उन्हें अतिशय प्रिय है।
कर्मठता, एकाग्रता, विचारशीलता, दूरदर्शिता जैसे गुण एक साथ आकर उनमें एकत्रित हो गये हैं और इसीलिए जीवन भर कदम-कदम पर संघर्षों का सामना करते हुए भी आगम का पक्ष लेकर उन्होंने सदैव सुन्दर सफलता प्राप्त की है। अग्रिम भवों में कठोर तप कर अपने समस्त कर्मों को क्षय कर देने की एकमात्र अभिलाषा उनके हृदय में हर क्षण विद्यमान रहती है।
एक बार राजस्थान के एक नगर में (सन् १९८८ में) श्री कल्पद्रुम महामण्डल विधान का विशाल आयोजन हुआ। विधान करने वाले प्रमुख यजमान ने लाखों रुपये खर्च करके उत्साहपूर्वक यह अनुष्ठान एक मुनिसंघ के सानिध्य में करने का संकल्प लिया था। संघ के नायक आचार्यश्री की आज्ञा से उन्होंने ४-५ प्रतिष्ठाचार्यों को आमंत्रित किया पुन: शुभ लग्न में झण्डारोहणपूर्वक उस महायज्ञ का शुभारंभ हुआ। किन्तु यह क्या? पहले दिन से ही विघ्नों की बौछार शुरू हो गई।
जाने क्या हुआ कि संघ के साधु-साध्वियों ने झण्डारोहण में सानिध्य देने को ही मना कर दिया। किसी तरह मनुहार करने पर कुछ साधु गए और उन्मनस्क से बैठे रहे। इसी प्रकार विधानाचार्यगण भी अलग-अलग अपनी नुक्कड़ सभाएँ लगाए एक-दूसरे के विपक्ष में बातें करते रहें। किसी तरह से विधान शुरू हुआ।
परदेश से विधान के निमित्त पधारे मुख्य यजमान सेठ की अच्छी आफत थी। वे बेचारे जितना सामंजस्य बैठाने की कोशिश करते उनके ऊपर उतना ही अधिक संकट आता जाता था। पैसा तो पानी की तरह से बह ही रहा था क्योंकि पराए गाँव में इज्जत का प्रश्न था। नगर का कोई व्यक्ति बिना नगद नारायण लिए एक काम करने को भी तैयार नहीं था। रोज गाँव भर का प्रीतिभोज होता और सायंकालीन अल्पाहार भोजन से कई गुना महँगा पड़ता था।
किन्तु सेठ बेचारे की गर्दन चूँकि अब ऊखल में पड़ ही गई थी, तो मूसल की चोट से डर कर कहाँ जाते? उनकी सेठानी वहाँ के सारे नजारों से परेशान थीं। किन्तु उनका कुछ भी बोलना वहाँ उसी प्रकार था जैसे नक्कारखाने में तूती की आवाज। प्रतिष्ठाचार्यों का अन्तर्युद्ध इस कदर बढ़ गया कि एक पंडित जी को रातोंरात कुछ समझदार लोगों ने भगाया अन्यथा शायद वहाँ कबड्डी का मैदान बन जाता। उसके बाद कुछ शांति के लक्षण दिखे।
मुख्य यजमान तथा समस्त इन्द्र-इन्द्राणियों से विधान की जाप्य संख्या बढ़ाने को कहा गया किन्तु अब सेठ जी की जान पर ही आ पड़ी। नगर के कुछ लोग उनके विराध में हो गए और चारों ओर सेठ की बुराइयाँ करने लगे। जो भी हो, शांति-अशांति के मिले-जुले माहौल में विधान पूर्ण हुआ। इसी मध्य बाहर से पहुँची एक विज्ञ बहन ने विधान की जाप्य का कार्ड देखा, तो उसमें मूल मंत्र ही बदल दिया गया था।
उन्होंने यजमान सेठ को इस बारे में संकेत दिया, तो वे बोले कि यहाँ इतने ज्ञानी साधु और पंडितों के समक्ष मैं क्या कर सकता हूँ? जैसे-तैसे डरते-डरते उन्होंने किसी से बात भी की तो उत्तर मिला कि तुम नहीं जानते हो, ‘नम:’ के योग में तो चतुर्थी विभक्ति का ही प्रयोग होता है तथा इस मंत्र में ‘ह्रीं’ नहीं है अत: ह्रीं शब्द बढ़ाया गया है।
मूल मंत्र तो यह था
‘‘ॐ अर्हत्सिद्धसयोगकेवली स्वाहा।’’
उसमें परिवर्तन परिवद्र्धन करके उसे वहाँ यूँ छपाया गया था-
‘‘ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धसयोगकेवलिभ्यो स्वाहा।’’
मूल मंत्र में यह पाठ बढ़ाने और सुधारने का दु:साहस किस विज्ञ ने किया था यह तो भगवान जाने? कुछ दिनों बाद सेठानी पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के दर्शनार्थ हस्तिनापुर पहुँचती हैं और अश्रुपूरित आँखों से माताजी से पूछने लगती हैं-हे माता! मेरे विधान मे इतने उपद्रव, संकट क्यों आए, जबकि हमने दिल खोलकर खर्च किया तथा पूर्ण मनोयोग से अनुष्ठान किया था?
पूज्य माताजी ने एक बार करुणाभरी दृष्टि से उनकी ओर देखा, आशीर्वाद दिया पुन: कहने लगीं-पुत्री! इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। गलत मंत्र का जाप करने के कारण यह सब अनर्थ हुआ है। कल्पद्रुम विधान का यह १३ अक्षरी मंत्र महान आचार्य द्वारा बनाया हुआ मंत्र है, इसमें हानि, वृद्धि कथमपि नहीं करना चाहिए। उन्होंने कहा कि अभी कुछ दिन पूर्व ही मेरे पास भी कल्पद्रुम विधान हो चुका है, उसे करने वाले सभी यजमान खूब अच्छी सफलता प्राप्त कर रहे हैं।
यूँ तो समाज में सैकड़ों-हजारों संस्थाएँ अपने-अपने स्तर से धर्मप्रभावना, साहित्यप्रकाशन, शोधकार्य, तीर्थ निर्माण आदि के कार्य कर रही हैं किन्तु पूज्य माताजी का कहना है कि ‘‘भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी’ एक अत्यंत महत्वपूर्ण संस्था है। भारतवर्ष के समस्त दिगम्बर जैन तीर्थों का संरक्षण करना इस कमेटी का प्रमुख दायित्व है, इस दायित्व के निर्वाह में यदि कहीं कोई शिथिलता आती है तो उनकी हानि का दुष्परिणाम पूरे समाज को भुगतना पड़ता है।
इसलिए इस कमेटी के प्रमुख पदाधिकारी अत्यन्त उदार एवं व्यापक दृष्टिकोण वाले होना चाहिए। यदि कदाचित् किसी तीर्थ के बारे में सन्देह या विवाद की स्थिति समाज में उत्पन्न हो जाती है, तो ऐसी परिस्थिति में तीर्थक्षेत्र कमेटी को सम्पूर्ण साधु समूह और समाज की मीटिंग किये बिना कभी एकांगी निर्णय लेकर किसी तीर्थ को हटाने या नये तीर्थ की स्थापना करने का अधिकार कदापि नहीं है।
प्रत्युत् विवाद की स्थिति में दोनों तीर्थों को भले ही स्वीकार किया जा सकता है, इसी से सामाजिक शांति एवं संगठन बना रह सकता है। समय-समय पर इस प्रकार की सृजनात्मक प्रेरणा पूज्य माताजी ने स्व. साहू शांतिप्रसाद जैन, स्व. साहू श्री श्रेयांस कुमार जैन, स्व. साहू श्री अशोक कुमार जैन एवं स्व. साहू श्री रमेशचंद जैन (तत्कालीन अध्यक्ष) को भिजवाई हैं तथा तीर्थक्षेत्र कमेटी के वर्तमान अध्यक्ष श्री नरेश कुमार जैन सेठी को भी यही प्रेरणा प्रदान करते हुए उन्होंने सदैव उत्साहित किया है।
इस विषय में माताजी का व्यापक दृष्टिकोण इसलिए रहता है कि अन्य संस्थाएँ यदि कभी निष्क्रिय हो जाती हैं या कुछ गलती भी कर बैठती हैं अथवा एकांगी कार्यकलापों से अपना स्थान बना लेती हैं, तो भी सामाजिकरूप से उतना नुकसान नहीं होता है, किन्तु ‘‘तीर्थक्षेत्र कमेटी’’ की निष्क्रियता, एकांगीपना या किंचित् मात्र गलती भी भावी पीढ़ी के लिए अभिशाप बन सकती है,
जिसके नतीजे पूर्व में देखे भी जा चुके हैं। क्योंकि भारत में जितने भी दिगम्बर जैन तीर्थ हैं, वे केवल जैन समाज के लिए ही नहीं, सारे विश्व के लिए अमूल्य धरोहर हैं, निधि हैं और सर्वस्व हैं तथा जैनधर्म के तो आधार और प्राण हैं।
पूज्य माताजी अपने ५४ वर्षीय संयमी जीवन में अनेक बड़े-बड़े विद्वानों के शास्त्रीय ज्ञान एवं उनकी विविध मान्यताओं से भली भांति परिचित हैं इसीलिए वर्तमान के प्रोपेसर विद्वानों के भिन्न-भिन्न तर्वपरक दृष्टिकोण देखकर वे प्राय: कहने लगती हैं कि प्राचीन विद्वान् जैसे पं. इन्द्रलाल जी शास्त्री, पं. सुमेरचंद्र दिवाकर, पं. खूबचंद शास्त्री, पं. मक्खनलाल शास्त्री, पं. लालाराम जी शास्त्री, पं. पन्नालाल जी सोनी आदि तो हम लोगों के साथ बैठकर आर्ष ग्रन्थों के प्रमाणानुरूप ही किसी विषय का निर्णय किया करते थे
किन्तु अब तो कुछ नये विद्वान प्रान्तीय परम्परा और निजी मान्यता के अनुसार समाज के साथ-साथ साधुओं को भी चलाना चाहते हैं। वास्तव में देखा जाये तो विद्वान् चूँकि सरस्वती पुत्र कहे जाते हैं, इसलिए उनका कर्तव्य यही है कि प्राचीन आर्षग्रंथ, सर्वतोमुखीदृष्टि एवं प्राचीन गुरुपरम्परा को ध्यान में रखकर ही सभी विषयों का निर्णय करें।
अपने सानिध्य में होने वाले शिविर, सेमिनारों में पधारने वाले विद्वानों को पूज्य माताजी यही प्रेरणा प्रदान करती हैं। उनका कहना है कि विद्वान् लोग समाज के दिशा निर्देशक होते हैं, इसलिए उन्हें सर्वप्रथम स्वयं में सदाचारी, अणुव्रती और निष्पक्ष वक्ता के रूप में जिनवाणी के चारों अनुयोगों के अनुसार वस्तुतत्व का व्याख्यान करना चाहिए।
विवाद की स्थिति उत्पन्न होने पर भी आगम और वर्तमान प्रान्तीय परम्परा दोनों का कथन करना ही उनके लिए शोभास्पद है। इसी प्रकार ज्ञानमती माताजी कहती हैं कि वर्तमान की तेरह और बीसपंथ दोनों परम्परा में विभक्त साधु-साध्वियों को भी समाज में सामंजस्य की स्थिति बनाये रखने हेतु किसी एक विषय में खींचतान नहीं करना चाहिए तथा अपनी मान्यता को आगम के अनुकूल ही बनाना चाहिए।
इधर १०-१५ वर्षों से समाज में एक विवाद उत्पन्न हुआ है कि अंकलीकर परम्परा के कतिपय साधु-साध्वी चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज को आचार्य आदिसागर मुनिराज का शिष्य कहकर आदिसागर जी को बीसवीं सदी का प्रथम आचार्य प्रचारित करते हैं, जिसे देख-सुनकर माताजी को अत्यन्त खेद होता है क्योंकि उन्होंने संघ में आचार्यश्री महावीरकीर्ति महाराज आदि के मुख से ऐसी बातें कभी सुनी नहीं।
चूँकि यह निर्विवादित सत्य है कि शांतिसागर महाराज ने मुनिश्री देवेन्द्रकीर्ति जी से क्षुल्लक एवं मुनिदीक्षा लेकर बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की है। इस विषय में अनेक मुनि, आर्यिका, विद्वानों द्वारा समय-समय पर विभिन्न पुस्तके एवं लेख आदि प्रकाशित हुए हैं।
ऐसे वातावरण में साधु संघों के पारस्परिक मनोमालिन्य को देखकर पूज्य ज्ञानमती माताजी का यही कहना रहता है कि अंकलीकर परम्परा के सभी साधु-साध्वी स्वतंत्ररूप से आचार्य आदिसागर जी, आचार्य महावीर कीर्ति जी आदि का प्रचार-प्रसार करें, उस परम्परा का संरक्षण-संवर्धन करें, हमें कोई आपत्ति नहीं है।
किन्तु आचार्य शांतिसागर महाराज को आदिसागर जी का शिष्य या गुरु आदि कुछ न लिखकर उनके अस्तित्व को स्वतंत्र रहने दें और अंकलीकर परम्परा में उनका फोटो या नाम न जोड़ें। उनका मानना है कि जैसे हम यदि आप के पिता को अपने पिता का पुत्र कहें तो आपको कैसा लगेगा? असत्य लगेगा न, क्योंकि हमारे पिता और आप के पिता दोनों का अस्तित्व अलग-अलग है, दोनों अपनी-अपनी कुल परम्परा की यथायोग्य अभिवृद्धि कर रहे हैं।
उसी प्रकार चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज और आचार्यश्री आदिसागर महाराज (अंकलीकर) दोनों की सत्ता-परम्परा अलग-अलग ही मानना चाहिए। न तो आदिसागर जी शांतिसागर जी के गुरु थे और न शांतिसागर जी महाराज आदिसागर जी के गुरु थे, किसी को किसी का गुरु या शिष्य कहकर मात्र अविनय और अवर्णवाद का दोष ही लगता है न कि पुण्य का संपादन होता है।
इसी प्रकार सभी साधु-संघों के लिए माताजी सदैव यही कहा करती हैं कि हुण्डावसर्पिणी काल के दोषवश ही वर्तमान युग में अनादि चतुर्विध संघ परम्परा में कुछ मतभेद, पंथभेद आदि उत्पन्न हो गये हैं। फिर भी यदि संघ के नायक उदारतापूर्वक अपने-अपने संघों का संचालन करते हुए अपनी गुरु परम्परा की प्रसिद्धि एवं शिष्य परम्परा की अभिवृद्धि के साथ जिनधर्म की प्रभावना करें किन्तु दूसरे की गुरु परम्परा आदि पर कोई कुठाराघात न करें, इससे संघ समन्वय के साथ सामाजिक वातावरण बहुत ही सुखद, सुन्दर एवं प्रेरणादायी बनेगा
अर्थात् सत्य को सत्यरूप में ही उजागर करके सभी को मात्र जिनशासन की प्रभावना का ही लक्ष्य रखना चाहिए तभी मतभेदों में मनभेद को स्थान नहीं मिल पाता है और ‘‘कलौ संघे शक्ति:’’ का संदेश भी समाज में प्रसारित होता है।
जो अपने जीवन में ऐसे महान पुरुषार्थ एवं उससे उपार्जित पुण्य से अस्पर्शित रहते हैं, ऐसे कुछ दिग्भ्रमित लोग कभी-कभी इन ऊँचाइयों को नहीं समझ पाते हैं और दीर्घकालीन तपस्या से प्राप्त पुण्य के प्रताप से पूज्य माताजी द्वारा सम्पन्न कराये जा रहे चमत्कारिक निर्माण एवं प्रभावनात्मक कार्यकलापों को देख-सुनकर जहाँ यद्वा-तद्वा प्रलाप करने लगते हैं
वहीं असंख्य लोग प्रशंसा और साधुवाद देते हुए भावविह्वल होते देखे जाते हैं, यह सब उनके अपने-अपने पाप-पुण्य कर्म का ही उदय मानना पड़ेगा क्योंकि महान कार्यों में लगे हुए संत हमारे ईष्र्या-द्वेष के नहीं वरन् साधुवाद के ही पात्र होते हैं। जहाँ उनकी अनुमोदना बिना कुछ किए भी हमारे पुण्य को सहस्रगुणा वर्धित कर देती है
वहीं व्यर्थ प्रलाप एवं ईष्र्या प्राणी की अवनति को भी आश्वस्त कर सकती है। दुराग्रहों को छोड़कर अपने मानस को इस प्रकार सुव्यवस्थित करना चाहिए कि यदि हम स्वयं बहुत अधिक करने में समर्थ नहीं हैं, तो समाज को अपनी कर्मठता के माध्यम से महान धरोहर प्रदान करने वाले महान व्यक्तित्वों की अनुमोदना करें और यदि इतना भी न हो सके, तो कम से कम व्यर्थ निंदा के कंटकों को विकीर्ण करने का दुष्प्रयास तो न करें।
प्रारंभ से ही गुणीजनों के गुणों को ग्रहण करने का जो भाव हमारी शाश्वत संस्कृति द्वारा हममें आरोपित किया जाता है, उसको अपनाते हुए पुण्य से ईष्र्या नहीं वरन् आदर्श को ग्रहण करने का प्रयास करना चाहिए। विश्व में प्राचीनतम होते हुए भी जैनधर्म का प्रकाश मात्र जुगनू की भाँति ही देखने में आता है अत: इस महान धर्म की छत्रछाया में मोक्षमार्ग को प्राप्त करने वाले हम सभी का कृतज्ञता रूप में यही कर्तव्य है
कि हमें अपनी शक्ति के अनुसार जितनी हो सके, उतनी सच्ची रचनात्मक धर्मप्रभावना करनी चाहिए और कार्य में संलग्न महापुरुषों के प्रति सदैव आदरभाव रखना चाहिए। पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने अपने सुदीर्घतपस्वी जीवन में इसी सूत्र का परिपालन करते हुए सदैव सृजन में अपनी शक्ति लगाई है एवं परनिन्दा इत्यादि में अपने क्षण कभी भी विनष्ट नहीं किये हैं।
हमारा महानतम सौभाग्य है कि ऐसी महान आत्मा का साक्षात् सानिध्य हमें इस कलिकाल में भी प्राप्त हो रहा है। पूज्य माताजी के चरण- कमलों में बारम्बार अभिवंदन करते हुए जिनेन्द्र प्रभु से यही हार्दिक प्रार्थना है कि यह पुण्यधारा निरन्तर यूँ ही हम सबको सराबोर करती रहे।
सांसारिक दृष्टि से यद्यपि कोई भी संतान माता-पिता के ऋण को कभी चुका नहीं सकती है किन्तु ज्ञानमती माताजी और उनकी जन्मदात्री आर्यिका श्री रत्नमती माताजी का जीवन पारस्परिक उपकारों का जीता-जागता उदाहरण रहा है। मैंने उनके लिए एक जगह स्वयं लिखा है-
संतान मात की गोदी में, पलकर शैशव को प्राप्त करे।
विधि का विधान देखो यह भी, माता खुद उन्हें प्रणाम करे।।
इन अजब निराली बातों का, साक्षात् दर्श करना है यदि।
तो रत्नमती जी की विनम्रता, देखो ज्ञानमती के प्रति।।
अर्थात् सन् १९५२ में अपनी पुत्री मैना को दीक्षा की अनुमति देने के बाद माँ मोहिनी जी ने १८ वर्ष तक अपने गृहस्थोचित कर्तव्यों का निर्वाह करने के पश्चात् उन्हीं पुत्री से जगन्माता बन चुकीं ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा प्राप्त कर सन् १९७१ में पूज्य आचार्यश्री धर्मसागर महाराज से दीक्षा लेकर ‘‘आर्यिका रत्नमती’’ नाम प्राप्त किया था
पुन: सन् १९७२ से वे पूज्य माताजी की छत्रछाया में ही रहकर पूर्ण निर्दोष आर्यिका चर्या का पालन करती थीं। उन्होंने हमेशा ज्ञानमती माताजी को अपने गुरुरूप में ही देखा और कभी उनका नाम न लेकर केवल ‘‘माताजी’’ कहकर ही सम्बोधित करती थीं, उनसे विनयपूर्वक प्रायश्चित्त ग्रहण करती थीं और अन्त समय में भी स्वयं क्षपक बनकर माताजी से निर्यापकाचार्य के रूप में दिशा-निर्देश प्राप्त कर १५ जनवरी १९८५ को नारी जीवन के चरमलक्ष्य (समाधि) की सिद्धि कर ली।
आर्यिका श्री रत्नमती माताजी की यह विनम्रता, उनकी उदारता एवं गुणग्राहकता का ज्वलन्त उदाहरण है। मैंने अपने जन्म से लेकर उनके समाधिपर्यन्त २७ वर्षों तक उनके पास रहकर उनसे माँ की ममता और गुरु की समता दोनों का रसास्वादन प्राप्त किया है अत: अपने जीवन को सौभाग्यशाली मानती हूँ।
भगवान जिनेन्द्र से प्रार्थना है कि पूज्य रत्नमती माताजी के समान ही मुझे भी विनम्रता, समर्पण एवं निस्पृहता का गुण प्राप्त होवे, ताकि दीक्षित जीवन के एक-एक पल को सफलता की सीढ़ियाँ प्राप्त हो सके।
पूज्य ज्ञानमती माताजी के गृहत्याग (सन् १९५२ में) के पश्चात् उस घर में त्याग और वैराग्य का माहौल पनपने लगा था, जिसका प्रभाव उनकी छोटी बहन कु. मनोवती पर भी पड़ा और उन्होंने सन् १९६२ में किसी प्रकार घर छोड़कर ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया पुन: माताजी के संघ को सम्मेदशिखर की यात्रा कराई, वहीं पर सप्तम प्रतिमा के व्रत लेकर त्यागमार्ग प्रारंभ किया।
सन् १९६४ में हैदराबाद (आंध्रप्रदेश) के चातुर्मास में श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन माताजी ने इन्हें क्षुल्लिका दीक्षा प्रदान कर ‘‘अभयमती’’ नाम दिया पुन: सन् १९६९ में फाल्गुन शुक्ला अष्टमी के दिन श्रीमहावीर जी शांतिवीरनगर तीर्थ पर आचार्य श्री धर्मसागर महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की।
आर्यिका दीक्षा के बाद सन् १९७१ में संघ से निकलकर बुन्देलखण्ड के तीर्थों की यात्रा करते हुए १५ वर्षों तक खूब धर्मप्रभावना की, जगह-जगह अनेक महिला मण्डल खोले, रात्रि पाठशालाएँ खुलवाई एवं साहित्य सृजन के साथ-साथ स्वास्थ्य अत्यन्त कमजोर होते हुए भी अपनी आर्यिकाचर्या को निभाने में जिस दृढ़ता का परिचय प्रदान किया है, वह इनके आत्मबल का ही द्योतक है।
सन् १९८६ में ये पुन: हस्तिनापुर में पूज्य माताजी के दर्शनार्थ पधारीं, तब से पश्चिमी उत्तरप्रदेश में भ्रमण कर-करके धर्मप्रभावना भी करती हैं और माताजी के पास भी अनेक चातुर्मास करके गुरु वैयावृत्ति का लाभ प्राप्त करती हैं। इनके पास क्षुल्लिका शांतिमती शिष्या २५ वर्षों से लगातार रहकर धर्मध्यान एवं गुरुभक्ति कर रही हैं।
लोक में कहावत है कि अन्याय को करना जितना पाप है, अन्याय को सहन करना भी उससे ज्यादा पाप है। अर्थात् पाप क्रियाओं को करने, अनुमोदना देने एवं उन्हें बढ़ावा देने वालों को पापानुबंधी पाप का ही संचय होता है। वर्तमान में हमारी भारतीय संस्कृति पर पाश्चात्य संस्कृति तेजी से हावी हो रही है।
टेलीविजन के सैकड़ों चैनल, फिल्म जगत के बढ़ते प्रचार, पत्र-पत्रिकाओं एवं दैनिक अखबारों में छप रहे अश्लील चित्र भावी पीढ़ी की बुद्धि कुत्सित कर रहे हैं। इसी श्रृंखला में एक अन्य विषय भी तेजी से उभरकर समाज के बीच में आया है-नि:संतान और पुत्रविहीन दम्पत्तियों द्वारा सन्तान को गोद लेने की परम्परा।
यूँ तो प्राचीनकाल से भी आवश्यकतानुसार परिवारों में पुत्र या पुत्री सन्तान को गोद लेकर अपनी कुल की रक्षा एवं वृद्धि करने की परम्परा रही है चूँकि वे सन्तानें प्राय: अपने कुल और जाति से संबंधित ही हुआ करती थीं अत: पारिवारिक शुद्धि एवं अधिकारों के साथ-साथ मोक्षमार्ग का अधिकार भी उन्हें सहज में प्राप्त हो जाता था किन्तु आजकल लोग किसी भी अनाथालय से या पालना में से अज्ञात माँ-बाप के बच्चों को गोद लेकर उसे बड़े प्यार से पालते हैं
ऐसे लोग न तो बच्चे की जाति के बारे में पता करते हैं और न ही उन्हें अपने कुल की पवित्रता का लक्ष्य रहता है। ३-४ वर्ष पूर्व एक घटना सुनने में आई कि सड़क के किनारे कपड़े में लिपटा हुआ एक शिशु पड़ा था, उसे एक दम्पत्ति ने उठाकर पालन-पोषण किया पुन: सार्वजनिक घोषणा हुई कि ऐसे बच्चों को पालने वाली यशोदा माताएँ सामने आएँ आदि।
आए दिन इस प्रकार की घटनाएँ सुनकर और पालने या अस्पताल से गुमनाम माँ के बच्चों को गोद लेने की बात जानकर पूज्य माताजी हार्दिक कष्ट का अनुभव करती हैं। वे सदैव यही कहती हैं कि ‘‘अपने परिवार और जाति के बच्चों को ही गोद लेने से जाति एवं कुल परम्परा की शुद्धि रहती है तथा शुद्ध परिवारों में ही तीर्थंकर आदि महापुरुषों के जन्म होते हैं।’’
दूसरी बात यह है कि सामान्यरूप से जन्मे बच्चों को भला कौन सी माँ अनाथालय या पालने में डाल सकती है? ऐसे बच्चे या तो किसी कुंआरी लड़की द्वारा पैदा किए होते हैं अथवा अवैध संबंधों से जन्मे बच्चे सड़क से पालने तक पहुँचा दिये जाते हैं। इस स्थिति में आप सभी के लिए चिन्तन का विषय यह है कि जहाँ ऐसे अनाथ बच्चों को गोद लेकर कुल परम्परा की पवित्रता पर प्रश्नचिन्ह लगता है
वहीं पापाचार (व्यभिचार) पूर्वक सन्तान को उत्पन्न करने वाली युवा पीढ़ी को पाप का बढ़ावा भी मिलता है। उन बच्चों का पालन करने वाली माताओं को यशोदा की उपमा कभी नहीं दी जा सकती है। आप जरा सोचें तो सही कि नारायण श्री कृष्ण को किन परिस्थितियों में यशोदा की गोद में छोड़ा गया था?
क्या वे अवैध संबंधों के प्रतिफल में जन्मे थे? क्या देवकी ने उन्हें पैदा करके सड़क किनारे या अनाथालय में पहुँचाया था? इत्यादि अनेक प्रश्न यशोदा के गोदीपुत्र श्रीकृष्ण के प्रति उपस्थित हो जाते हैं। जबकि अन्यायी कंस का वध करने वाले कृष्ण का जन्म ७ माह में ही हो जाने पर, कहीं यह पापी कंस द्वारा मार न दिया जाए, इस भय से उन्हें अलका सेठानी (लोक व्यवहार में यशोदा नाम से प्रसिद्ध) के पास पहुँचाकर सुरक्षित मात्र रखा गया था।
आगे चलकर वह सारा इतिहास जगजाहिर हो गया था, जबकि वर्तमान में अनाथालयों से गोद लिए गए बच्चों के माता-पिता के नाम आदि का कोई अता-पता भी नहीं रहता है। यह परम्परा सर्वथा निंद्य है अत: सदाचारी परिवारों को, नई विचारधारा वाले दम्पत्तियों को अपनी खानदान शुद्धि का ध्यान अवश्य रखना चाहिए।
जैसा कि सम्पूर्ण जैन समाज को विदित है कि पूज्य ज्ञानमती माताजी ने जब से (सन् १९७६ से) इन्द्रध्वज, कल्पद्रुम, सर्वतोभद्र आदि महापूजा विधानों की रचना करके जिनेन्द्र भक्ति का मार्ग प्रशस्त किया है, तब से पूरे देश में बहुत बड़े-बड़े भक्ति के महाकुंभ आयोजित होते रहते हैं। दिगम्बर जैन आगम के चरणानुयोग से संबंधित ग्रंथों में पाँच प्रकार की पूजाओं का वर्णन आया है-नित्यमह, आष्टान्हिक, इन्द्रध्वज, कल्पद्रुम और सर्वतोभद्र।
इनमें से नित्यमह (रोज करने वाली) और आष्टान्हिक पूजा (सिद्धचक्र विधान के रूप में) की परम्परा तो समाज में प्राचीनकाल से होती रही है एवं इन्द्रध्वज नामक संस्कृत का हस्तलिखित विधान भी कहीं-कहीं ग्रंथालयों में उपलब्ध होने से यदा-कदा विशेष प्रसंगों पर करने की परम्परा सुनी है। इसमें मध्यलोक के तेरहद्वीप संबंधी ४५८ अकृत्रिम चैत्यालयों की पूजा का वर्णन है।
इसी को आधार बनाकर पूज्य माताजी ने ५० पूजाओं में रचकर इन्द्रध्वज विधान एक मौलिक कृति के रूप में प्रथम बार सन् १९७६ में प्रस्तुत किया, उसके कुछ वर्षों पश्चात् ही अन्य लेखकों ने भी उसी विधान का कुछ मैटर तोड़-मरोड़ कर अपने-अपने नामों से प्रकाशित कर लिया, जिन्हें देखकर किंचित् आश्चर्य हुआ था कि लोग किस प्रकार दूसरे की कृति का उपयोग अपने नाम से करने में संकोच नहीं करते हैं।
किन्तु अत्यंत दुखद आश्चर्य तो ३-४ वर्षों से कल्पद्रुम और सर्वतोभद्र विधान की डुप्लीकेट रचनाओं को देखकर हुआ है। जिनके बारे में लेखक-लेखिकाओं को यह भी पता नहीं था कि इन पूजा-विधानों की विषयवस्तु क्या होनी चाहिए। इनकी वास्तविकता यह है कि ग्रंथों में कल्पद्रुम और सर्वतोभद्र पूजन के नाम पढ़कर जब सन् १९८५-८६ में पूज्य माताजी के मन में इन पूजा-विधानों को लिखने की इच्छा प्रगट हुई, तो लगभग ६ माह तक उन्होंने इनमें प्रस्तुत करने योग्य विषय-वस्तु का खूब मनोयोगपूर्वक चिन्तन किया
डायरी में दो-तीन प्रकार से संकेत लिख-लिखकर अन्ततोगत्वा निर्णय लिया कि कल्पद्रुम विधान में चौबीसों तीर्थंकर भगवन्तों के समवसरण की प्रमुखता से २४ पूजाओं में २४२४ अघ्र्य देना है एवं सर्वतोभद्र विधान में १०१ पूजाओं में २००० अघ्र्यों के माध्यम से तीन लोक के समस्त चैत्य-चैत्यालयों का वर्णन समाविष्ट किया।
ये दोनों विधान पूज्य माताजी की बहुत प्रभावक मौलिक काव्य कृति के रूप में क्रमश: सन् १९८६-१९८७ में हम लोगों के समक्ष आये हैं और सम्पूर्ण समाज में देखते ही देखते इनका खूब चमत्कार फैला, पंचकल्याणकों से भी अधिक बड़े-बड़े स्तर पर पूरे देश में इनके आयोजन सम्पन्न हुए हैं
तथा सन् १९९७ में राजधानी दिल्ली के रिंग रोड पर सम्पन्न हुए एक साथ चौबीस समवसरणों की रचना करके चौबीस कल्पद्रुम विधान तो अमिट इतिहास के रूप में ही प्रसिद्ध हुआ है। इन सर्वांगीण विषय समन्वित विधानों को देखकर जिन लेखक-लेखिकाओं ने उनमें किंचित् मात्र परिवर्तन करके नये कल्पद्रुम और सर्वतोभद्र विधान गढ़ लिए हैं, उनको अवश्य ही इस विषय पर गहराई से चिन्तन करना चाहिए
कि किसी की कृति में परिवर्तन करके अपने नाम से छापने पर निन्हव दोष के साथ-साथ नैतिक अपराध भी है। इस प्रकार की नकल की गई कृतियों में न तो वास्तविक अतिशय आता है और न ही वे कृतियाँ श्रद्धालुओं की सच्ची श्रद्धा का केन्द्र बन पाती हैं। यदि प्रतिभासम्पन्न लेखकों के मन में ऐसी कुछ नई रचना करने की बात आती है, तो कम से कम आधार ली गई
कृति के रचनाकार यदि जीवित हैं, तो उनसे पूछकर मंत्रादि ग्रहण करने की आज्ञा अवश्य लेनी चाहिए तथा जिस प्रकार पूज्य ज्ञानमती माताजी ने इन्द्रध्वज विधान की काव्य प्रशस्ति में अत्यन्त उदारतापूर्वक पद्य देकर स्पष्ट कर दिया है क
‘‘श्री विश्वभूषण योगी विरचित, संस्कृत विधान को मान्य किया।
उसको आधार बना करके, मैंने मौलिक कृति काव्य किया।।’’
अर्थात् इसी प्रकार से अपनी प्रेरणास्रोत कृति का नाम लिखने में संकोच नहीं होना चाहिए, लेखक की ईमानदारी के साथ-साथ यह उनका नैतिक कर्तव्य भी है। हम लोगों के समक्ष जब ऐसी कृतियाँ कुछ लोग आलोचना के साथ लाकर प्रस्तुत करते हैं, तो किंचित् खेद के साथ यही मुँह से निकलता है कि भैय्या! आज कलियुग है।
किसी अच्छे माल को बाजार में ज्यादा बिकते देखकर जैसे कुछ लोग वैसा ही डुप्लीकेट माल बनाकर बेचने लगते हैं, वैसे ही अब साहित्य की डुप्लीकेसी हो रही है। मैं सोचती हूँ कि इन लेखक-लेखिकाओं ने पूज्य माताजी से जरा भी विमर्श किया होता, तो वे उन्हें अन्य और अच्छे-अच्छे विधान या ग्रंथ लिखने की प्रेरणा देकर योग्य दिशा-निर्देश भी प्रदान करतीं।
जैसे-उन्होंने अपनी शिष्या आर्यिका जिनमती जी को प्रमेयकमल मार्तण्ड पढ़ाकर उन्हीं को उसका हिन्दी अनुवाद करने की प्रेरणा दी, आर्यिका आदिमती जी को गोम्मटसार कर्मकाण्ड के हिन्दी अनुवाद की प्रेरणा दी, आर्यिका विशुद्धमती जी को त्रिलोकसार के अनुवाद की प्रेरणा दी, आर्यिका अभयमती जी से धर्मचक्र विधान बनवाया और मुझे भी तीर्थंकर जन्मभूमि विधान, षट्खण्डागम के अनुवाद की प्रेरणा भी उन्होंने ही प्रदान की है।
उन्हें तो बड़ा अच्छा लगता है कि कम से कम वर्तमान के कुछ युवा साधु-साध्वियों में कुछ करने की क्षमता तो प्रगट हुई है। तो उसका सदुपयोग करते हुए कभी अपने से बड़ों के कार्यकलापों में पंथवाद आदि का हठाग्रह करके प्रतियोगी भाव नहींr पनपने देना चाहिए। यह तो मैंने मात्र दो पूजा-विधानों के बारे में बताया कि माताजी की पूर्ण मौलिक वास्तविक कृतियों को तोड़-मरोड़ कर नये रूप में कुछ लोगों ने अपने नाम से प्रस्तुत किया है, इसी प्रकार कुछ छोटे विधान, पूजा आदि को अन्य लेखकों ने भी बदल-बदल कर छपाये हैं, जो समय-समय पर देखा गया है।
इसके अतिरिक्त एक पुस्तक के सम्पादक ने ज्ञानमती माताजी द्वारा सन् १९६५ में रचित कन्नड़ भाषा की बारह भावना में सबसे अन्त की उनके नाम वाली पंक्ति को निकालकर उसे छपा दिया है, जबकि पूरे दक्षिण भारत में आबाल-वृद्ध उस बारहभावना को रोज पढ़कर ज्ञानमती अम्मा को बड़ी श्रद्धापूर्वक नमन करते हैं।
ऐसे ही मेरे द्वारा सन् १९७६ में (ब्र. माधुरी की अवस्था में) रचित ज्ञानमती माताजी की पूजन को एक ब्रह्मचारिणी बहन ने पूरी ज्यों की त्यों (केवल माता-पिता के नाम बदलकर एवं मेरे नाम की जगह अपना नाम देकर) एक स्व. आर्यिका सुज्ञानमती की पूजा के नाम से छाप लिया है। मेरे द्वारा शक्तिपूर्वक उन्हें कहे जाने पर उन्होंने अपनी गलती भी स्वीकार की।
मेरी भक्तामर विधान पूजन की जयमाला में एक पण्डित नामधारी नेमीचंद नामक लड़के ने मेरा नाम हटाकर वहाँ अपना नाम देकर पूरी ज्यों की त्यों भक्तामर पूजन प्रकाशित कर लिया। ये सब अशोभनीय क्रियाएँ एक अच्छे विद्वान, लेखक के लिए कदापि उचित नहीं हैं, अत: इस विषय पर उन्हें गहराई से चिन्तन करके अपनी प्रौढ़ता का परिचय प्रदान करना चाहिए।
गणिनी माता ज्ञानमती, इतिहास बनीं धरती का,
दीक्षा स्वर्ण महोत्सव उनका करेगी अब धरती माँ
अब मैं पाठकों की दृष्टि आकृष्ट करना चाहती हूँ माताजी की दीक्षा स्वर्ण जयंती महोत्सव पर। बंधुओं! जब सारी दुनिया अपने सांसारिक जीवन के ५० वर्ष पूर्ण होने पर बड़ी धूमधाम से गोल्डन जुबली के रूप में उत्सव मनाती है, जहाँ राग की ही प्रधानता होती है तथा आगामी भवों के लिए राग का ही बंध होता है, वहाँ भला त्याग-संयम के इतने दीर्घकालीन जीवन की कल्पना भी कौन कर सकता है?
किन्तु यही परम सत्य आज के कलियुग में भी विद्यमान है और वह पाया जाता है भगवान महावीर के शासनानुवर्ती दिगम्बर जैन साधु-साध्वियों की कठोर तपस्या में। इसी शृंखला में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने बीसवीं शताब्दी की प्रथम बालब्रह्मचारिणी आर्यिका बनकर अपने दीक्षाकाल के ५० वर्ष पूर्ण किए हैं, यह इक्कीसवीं सदी की जैनसमाज के लिए अत्यधिक गौरवपूर्ण विषय है।
जहाँ हमने अपने नेत्रों से अब तक इतने वरिष्ठ दीक्षित संतों को नहींr देखा है, वहीं भावी पीढ़ी के लिए एक साध्वी की आर्यिका दीक्षा स्वर्ण जयंती (१४ अप्रैल से १६ अप्रैल तक) मनाने का अभूतपूर्व अवसर निश्चितरूप से ऐतिहासिक स्थाई स्तंभ का कार्य है। वास्तव में ऐसे ऐतिहासिक व्यक्तित्व के लिए कुछ भी कहना गंगा का जल गंगा को ही अर्पित करने के सदृश है अत: उन संस्कृतिसंरक्षिका, तीर्थोद्धारिका माताजी के श्रीचरणों में बारम्बार नमन करते हुए उनके स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन की मंगल कामना करती हूँ-
त्याग तपस्या की मूरत तुम, ज्ञान-ध्यान की प्रतिमा हो।
कलियुग की सुकुमार तपस्वी, नारी की गुण गरिमा हो।।
ब्राह्मी माँ के पद चिन्हों पर, चलकर लुटा रहीं चन्दन।
गणिनी माता ज्ञानमती जी, स्वीकारो मेरा वंदन।।
१. सुमेरु पर्वत तीनों लोकों में सबसे ऊँचा और पवित्र पर्वत है।
२. ४० करोड़ मील ऊँचे इसी सुमेरु पर्वत की पाण्डुक शिला पर तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है।
३. हस्तिनापुर तीर्थ पर जम्बूद्वीप रचना के मध्य यह सुमेरुपर्वत १०१ फुट ऊँचा बना है, जिसमें १३६ सीढ़ियाँ चढ़कर १६ चैत्यालयों के दर्शन होते हैं।
४. जम्बूद्वीप जैन भूगोल को दर्शाने वाली ब्रह्माण्ड की वह रचना है जिसके एक छोटे से भाग आर्यखण्ड में आज का पूरा विश्व विद्यमान है।
५. सम्पूर्ण भारत एवं विश्व में मंदिर के साथ समवसरण, नन्दीश्वर द्वीप, कैलाशपर्वत आदि रचनाएं तो अनेकों हैं किन्तु ‘‘जम्बूद्वीप रचना’’ मात्र एक हस्तिनापुर में ही है, इसीलिए उसका दर्शन करने देश-विदेश के पर्यटक हस्तिनापुर जाते हैं।
६. हस्तिनापुर तीर्थ यद्यपि भगवान शांति, कुंथु, अरहनाथ के जन्म से पावन, महाभारत के कथानक से प्रसिद्ध ऐतिहासिक तीर्थ तो प्राचीन काल से है, फिर भी गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से दर्शनीय स्थल जम्बूद्वीप के निर्माण के पश्चात् यात्रियों के साथ-साथ उत्तरप्रदेश पर्यटन विभाग के द्वारा ‘‘धरती का स्वर्ग’’ माना गया है।
७. जम्बूद्वीप स्थल पर श्वेत कमल मंदिर में अवगाहना प्रमाण भगवान महावीर की प्रतिमा विराजमान है जो बड़ी चमत्कारिक है। उन कल्पवृक्ष भगवान महावीर के समक्ष कुछ भी भावना भाने से मनवाञ्छित फल की प्राप्ति होती है।
८. जम्बूद्वीप स्थल पर बिल्कुल नये ढंग का एक ध्यान मंदिर है जहाँ भक्तगण ‘‘ह्री ’’ मंत्र की प्रतिमा के समक्ष मौनपूर्वक कुछ देर बैठकर आत्मशांति का अनुभव करते हैं।
९. पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी बीसवीं शताब्दी की प्रथम बालब्रह्मचारिणी आर्यिका हैं, जिन्होंने १८ वर्ष की उम्र में सन् १९५२ में गृहत्याग कर साध्वी परम्परा में ब्राह्मी एवं चन्दनबाला के समान दीक्षाधारण कर कुमारी कन्याओं के त्यागमार्ग का शुभारंभ किया।
११. श्री ज्ञानमती माताजी ने जैन न्याय के सर्वोच्च एवं क्लिष्टतम ग्रंथ ‘‘अष्टसहस्री’’ का हिन्दी अनुवाद करके न्याय दर्शन के उद्भट विद्वानों को भी आश्चर्यचकित कर दिया है।
१२. श्री ज्ञानमती माताजी ने ‘‘कातंत्ररूपमाला’’ नामक संस्कृत व्याकरण ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद करके दिगम्बर जैन चतुर्विध संघ परम्परा को संस्कृत भाषा के अध्ययन का अपूर्व अवसर प्रदान किया है।
१३. पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी ने नियमसार ग्रंथ की संस्कृत एवं हिन्दी भाषा में सरल टीका लिखकर जहाँ आचार्य अकलंकदेव, वीरसेन स्वामी एवं जयसेनाचार्य आदि का स्मरण कराया है, वहीं अध्यात्म प्रेमियों के लिए रत्नत्रय धारण करने हेतु सच्चे ज्ञान का मार्ग भी प्रशस्त किया है।
१४. पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी ने इन्द्रध्वज, कल्पद्रुम, सर्वतोभद्र, तीन लोक मण्डल विधान आदि अनेक पूजा-विधानों की रचना करके पंचमकाल में भक्तों के लिए कर्म निर्जरा का प्रबल माध्यम प्रस्तुत कर दिया है।
१५. श्री ज्ञानमती माताजी ने जैनधर्म के प्राचीनतम सिद्धान्त ग्रंथ ‘‘षट्खण्डागम’’ के सूत्रों पर ‘‘सिद्धान्तचिंतामणि’’ नामक सरल संस्कृत टीका लिखकर साधु जगत में कीर्तिमान् स्थापित किया है।
१६. पूज्य माताजी ने २०० से अधिक ग्रंथ लिखकर प्रथम लेखिका साध्वी के रूप में नारी जाति का इतिहास परिवर्तित कर दिया है।
१७. श्री ज्ञानमती माताजी के प्रचुर साहित्यिक अवदान से प्रभावित होकर अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद ने डी.लिट् की मानद उपाधि से उन्हें अलंकृत किया है।
१८. तीर्थंकर भगवन्तों की जन्मभूमियों को विकसित करने के क्रम में हस्तिनापुर के पश्चात् प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव एवं अन्य ४ तीर्थंकरों की जन्मभूमि अयोध्या को विकसित कर उसे ‘ऋषभ जन्मभूमि’ के रूप में विश्व के मानस पटल पर पूज्य माताजी ने ही अंकित किया है।
१९. भगवान महावीर की जन्मभूमि-कुण्डलपुर (नालंदा) बिहार में मात्र २२ माह के अल्प समय में अत्यन्त भव्य ‘नंद्यावर्त महल तीर्थ’ का निर्माण कराने वाली पूज्य ज्ञानमती माताजी ही हैं।
२०. ‘तीर्थंकर जन्मभूमि विकास समिति’ का गठन कराकर चौबीसों तीर्थंकरों की १६ जन्मभूमियों के विकास की प्रेरणा पूज्य ज्ञानमती माताजी ने ही प्रदान की है।
२१. भगवान ऋषभदेव की दीक्षा एवं केवलज्ञान कल्याणक भूमि-प्रयाग (इलाहाबाद) में ‘तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षास्थली’ का भव्य निर्माण कराकर पूज्य ज्ञानमती माताजी ने ही प्रयाग तीर्थ को विश्व के समक्ष जैन तीर्थ के रूप में स्थापित किया है।
२२. सम्पूर्ण देश में जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति, भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार एवं भगवान महावीर ज्योति रथों के प्रवर्तन द्वारा ३-३ बार जैनधर्म का डंका बजाने वाली पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ही हैं।
२३. २३वें तीर्थंकर भगवान पाश्र्वनाथ की जन्मभूमि-वाराणसी से उद्घाटित ‘भगवान पार्श्वनाथ जन्मकल्याणक तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव वर्ष’ पूज्य ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से ही सारे देश में सफलतापूर्वक मनाया गया है।
२४. पूज्य माताजी की अपार प्रतिभा शक्ति की स्तुति करते हुए समाज ने समय-समय पर उन्हें न्याय प्रभाकर, चारित्रचन्द्रिका, युगप्रवर्तिका, गणिनीप्रमुख, राष्ट्रगौरव, वाग्देवी, तीर्थोद्धारिका इत्यादि कितनी ही उपाधियों से सम्मानित करके स्वयं को गौरवान्वित अनुभव किया है।