आचार्योपाध्यायसाधूनामपि देवत्वं पूज्यत्वं च-अरिहंत और सिद्ध का क्रम-
यहाँ पर शंकाकार की शंका है कि ‘‘सर्वप्रकार के कर्म लेप से रहित सिद्ध परमेष्ठी के विद्यमान रहते हुए अघातिया कर्मों के लेप से युक्त अरिहंतों को आदि में नमस्कार क्यों किया जाता है ?’’
इसका समाधान करते हुए कहा है-यह कोई दोष नहीं है। क्योंकि सबसे अधिक गुणवाले सिद्धों में श्रद्धा की अधिकता के कारण अरिहंत परमेष्ठी ही हैं अर्थात् अरिहंत परमेष्ठी के निमित्त से ही अधिक गुण वाले सिद्धों में सबसे अधिक श्रद्धा उत्पन्न होती है। अथवा यदि अरिहंत परमेष्ठी न होते तो हम लोगों को आप्त, आगम और पदार्थ का परिज्ञान नहीं हो सकता था। किन्तु अरिहंत परमेष्ठी के प्रसाद से हमें इस बोध की प्राप्ति हुई है। इसलिए उपकार की अपेक्षा भी आदि में अरिहंतों को नमस्कार किया जाता है। यदि कोई कहे कि इस प्रकार आदि में अरिहंतों को नमस्कार करना तो पक्षपात है? इस पर आचार्य उत्तर देते हैं कि ऐसा पक्षपात दोषोत्पादक नहीं है किन्तु शुभ पक्ष में रहने से वह कल्याण का ही कारण है। कहा भी है- श्लोकार्थ-जिसके समीप धर्ममार्ग प्राप्त करे, उसके समीप विनय युक्त होकर प्रवृत्ति करनी चाहिए तथा उसका शिरपंचक अर्थात् मस्तक, दोनों हाथ और दोनों घुटने इन पंचांगों से एवं काय, वचन, मन से निरन्तर सत्कार-नमस्कार करना चाहिए। आचार्य, उपाध्याय और साधुओं के भी देवपना तथा पूज्यपना है। (षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. १, पृ. २५-२६)
२ – महामंत्र में आचार्य, उपाध्याय, साधु को नमस्कार नहीं करना चाहिए ?
शंका –घातिकर्म से रहित सकल परमात्मा अर्हंतों को तथा अघातिया कर्मों से रहित निकल परमात्मा सिद्धों को तो तीन लोक के अधिपति परम देव मानकर नमस्कार करना ठीक है, किन्तु आचार्य आदि जो अष्टकर्मों से युक्त हैं उन्हें नमस्कार नहीं करना चाहिए क्योंकि इनमें देवत्व का अभाव है ?
समाधान – ऐसा नहीं है, क्योंकि अपने-अपने भेदों से अनन्त भेदरूप रत्नत्रय ही देव है, अतएव रत्नत्रय से युक्त जीव भी देव हैं अन्यथा यदि रत्नत्रय की अपेक्षा देवपना न माना जाये तो सम्पूर्ण जीवों को देवपना प्राप्त होने की आपत्ति आ जाएगी। इसलिए यह सिद्ध हुआ है कि आचार्यादिक भी रत्नत्रय के यथायोग्य धारक होने से देव हैं।
शंका – सम्पूर्ण रत्न अर्थात् पूर्णता को प्राप्त रत्नत्रय ही देव हैं, रत्नों का एक देश देव नहीं हो सकता है?
समाधान – ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि रत्नत्रय के एक देश में देवपने का अभाव होने पर उसकी समग्रता में भी देवपना नहीं बन सकता है। अर्थात् जो कार्य जिसके एक देश में नहीं देखा जाता है वह उसकी पूर्णता में कहाँ से आ सकता है ? यहाँ पुन: शंकाकार कहता है कि ‘‘आचार्यादिक में स्थित रत्नत्रय समस्त कर्मों का क्षय करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं क्योंकि उनमें एक देशपना ही है, पूर्णता नहीं है ? इसका समाधान करते हुए श्री वीरसेन स्वामी ने कहा है- तुम्हारा यह कथन भी समुचित नहीं है क्योंकि जिस प्रकार पलाल राशि-घास के ढेर का दाहरूप अग्नि समूह का कार्य अग्नि के एक कण से भी होता देखा जाता है, उसी प्रकार यहाँ पर भी आचार्यादिक के विषय में भी समझना चाहिए कि वे आचार्य, उपाध्याय, साधु सभी देव हैं यह बात निश्चित हो जाती है। (षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. १, पृ. २६-२७)
३ – महामंत्र में सम्पूर्ण द्वादशांग समाविष्ट है
णमोकारमहामंत्रस्याक्षरपदमात्रादयो वण्र्यन्ते- अस्मिन् महामंत्रे पंचत्रिंशदक्षरा:, पंच पदानि, चतुस्त्रिंशत् स्वरा: त्रिंशद् व्यंजनानि सन्ति। अत्र सर्वे वर्णा: अजन्ता:, तर्हि पंचत्रिंशदक्षरेषु चतुस्त्रिंशत्स्वरा: कथमिति चेत्, उच्यन्ते-‘णमो अरिहंताणं’ अस्मिन् पदे सप्ताक्षरा: षट् स्वरा: ज्ञातव्या:। मंत्रशास्त्रस्य व्याकरणानुसारेण ‘अरिहंताणं’ अस्याकारस्य लोप: भवति। प्राकृतव्याकरणे ‘‘एङ:’’ नेत्यनुवर्तते। एङित्येदोतौ। एदोतो: संस्कृतोक्त: सन्धि: प्राकृते तु न भवति। यथा-देवो अहिणंदणो, अहो अच्चरिअं, इत्यादि। उपर्युक्तसूत्रानुसारेण सन्धिर्न भवत्यत: अकारस्यास्तित्वं यथावत् दृश्यते, अकारस्य लोप: खंडाकारो वा नास्ति। किन्तु मंत्रशास्त्रे ‘बहुलम्’ इति सूत्रानुसारेण ‘स्वरयोरव्यवधाने प्रकृतिभावो लोपो वैकस्य’ इति नियमेन ‘अ लोपो’ विकल्पेनात: अस्मिन् पदे षडेव स्वरा:। इति न्यायेन चतुस्त्रिंशत्स्वरा भवन्ति। तथैव अष्टपंचाशन्मात्रा: सन्ति। तावदष्टपंचाशन्मात्रा दर्शयन्ति- । ऽ । । ऽ ऽ ऽ । ऽ । ऽ ऽ । ऽ ऽ । । ऽ ऽ णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं। । ऽ । ऽ ऽ ऽ ऽ । ऽ ऽ ऽ ऽ । ऽ ऽ ऽ णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।। अस्मिन् मंत्रे प्रथमपदे एकादश (११) द्वितीयपदे अष्टौ (८) तृतीय पदे एकादश (११) चतुर्थपदे द्वादश (१२) पंचमपदे षोडश (१६) मात्रा गण्यन्ते (५८) अथवा ‘अरिहंताणं’ अस्य अकारलोपस्य मात्राभावे ‘सिद्धाणं’ इति पदे संयुक्ताक्षरस्य पूर्वो दीर्घ: इति नियमेनापि अष्टपंचाशन्मात्रा: सन्तीति ज्ञातव्यं। अत्र मंत्रस्य विश्लेषणे कृते सति- ण्±अ±म्±ओ±अ±र्±इ±ह्±अं±त्±आ±ण्±अं। ण्±अ±म्±ओ±स्±इ±द्±ध्±आ±ण्±अं। ण्±अ±म्±ओ±आ±इ±र्±इ±य्±आ±ण्±अं। ण्±अ±म्±ओ±उ±व्±अ±ज्±झ्±आ±य्±आ±ण्±अं। ण्±अ±म्±ओ±ल्±ओ±ए±स्±अ±व्±व्±अ±स्±आ±ह्±ऊ±ण्±अं। एषु स्वरव्यञ्जनानां पृथक्करणे चतुस्त्रिंशत्स्वरा: त्रिंशद्व्यञ्जनानि इति चतु:षष्टि: वर्णा: भवन्ति। किं च-‘द्धा ज्झा व्व’ इति संयुक्ताक्षराणां त्रय एव वर्णा गृहीता अत्र। पुनरत्र ‘‘अ, इ, उ, ए’’, ‘‘ज, झ, ण, त, द, ध, य, र, ल, व, स, ह’’ इति मूलस्वरव्यञ्जनानि समाहितानि भवन्ति। तथा च मूलवर्णा अपि चतु:षष्टिरेव। अतएव अस्मिन् महामंत्रे द्वादशांग: समाहितोऽस्ति- ‘‘चउसट्ठिपदं विरलिय, दुगं च दाऊण संगुणं किच्चा। रूऊणं च कए पुण, सुदणाणस्सक्खरा होंति।।’’ इति नियमेन गुणकारे कृते सति- एकट्ठ च च य छस्सत्तयं च च य सुण्णसत्ततियसत्ता। सुण्णं णव पण पंच य, एक्वं छक्केक्कगो य पणयं च।। इति गाथासूत्रेण- ‘‘१८४४६७४४०७३७०९५५१६१५’’ समस्तद्वादशांगश्रुतज्ञानस्याक्षरा: भवन्ति। अतएव णमोकारमहामंत्रे सर्वं द्वादशांगश्रुतज्ञानं समाहितं वर्तते।५ अथवायं मंत्रो द्वादशांगश्रुतज्ञानरूप एव। सर्वमंत्राणामाकरश्च वर्तते। अस्य माहात्म्यं शारदापि वर्णयितुं न शक्नोति। उक्तं च श्रीमदुमास्वामिना- एकत्र पंचगुरु मंत्रपदाक्षराणि, विश्वत्रयं पुनरनन्तगुणं परत्र। यो धारयेत्किल तुलानुगतं तथापि, वंदे महागुरुतरं परमेष्ठिमंत्रम्।। अत्रपर्यन्तं णमोकारमहामंगलगाथासूत्रस्य संक्षिप्तार्थ: कृत:।णमोकार महामंत्र के अक्षर-पद-मात्रा आदि का वर्णन करते हैं- इस महामंत्र में ३५ अक्षर हैं, पाँच पद हैं, चौंतीस स्वर हैं और तीस व्यंजन हैं। यहाँ सभी वर्ण अजन्त हैं तब पैंतीस अक्षरों में चौंतीस स्वर कैसे हो सकते हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं- ‘‘णमो अरिहंताणं’’ इस प्रथम पद में कुल सात अक्षर हैं जिनमें ६ स्वर जानना चाहिए। मंत्र व्याकरण शास्त्र के अनुसार ‘अरिहंताणं’ पद के अकार का लोप हो जाता है। प्राकृत व्याकरण में ‘‘एङ:’’-नेत्यनुवर्तते। एङित्येदोतौ। एदोतो: संस्कृतोक्त: सन्धि: प्राकृते तु न भवति। यथा देवो अहिणंदणो, अहो अच्चरिअं। इत्यादि सूत्र के अनुसार संधि नहीं होती है अत: अकार का अस्तित्व ज्यों का त्यों रहता है, अकार का लोप अथवा खंडाकार (ऽ) नहीं होता है। किन्तु मंत्रशास्त्र में ‘‘बहुलम्’’ इस सूत्र के अनुसार ‘स्वरयोरव्यवधाने प्रकृतिभावो लोपो वैकस्य’ इस नियम से ‘अ’ का लोप विकल्प से हो जाता है, अत: ‘णमो अरिहंताणं’ इस पद में छह स्वर ही माने गये हैं। इस न्याय से पूरे णमोकार मंत्र में चौंतीस स्वर होते हैं। इसी प्रकार से उसमें अट्ठावन मात्रा हैं। उन अट्ठावन मात्राओं का दिग्दर्शन कराते हैं-। ऽ । । ऽ ऽ ऽ । ऽ । ऽ ऽ । ऽ ऽ । । ऽ ऽ णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं। । ऽ । ऽ ऽ ऽ ऽ । ऽ ऽ ऽ ऽ । ऽ ऽ ऽ णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।इस मंत्र के प्रथम पद में ग्यारह मात्राएँ हैं, द्वितीय पद में आठ, तृतीय पद में ग्यारह, चतुर्थ पद में बारह और पंचम पद में सोलह मात्राएँ ऐसे कुल मिलाकर ११±८±११±१२±१६·५८ मात्राएँ हैं। अथवा अरिहंताणं के अकार का लोप हो जाने पर एक मात्रा का वहाँ अभाव हो गया और ‘‘सिद्धाणं’’ इस पद में ‘‘संयुक्ताक्षर के पूर्व का अक्षर दीर्घ हो जाता है’’ इस नियम से भी अट्ठावन मात्राएँ हो जाती हैं। भावार्थ – यहाँ त्रिविक्रम प्राकृत व्याकरण के अनुसार नियम बताया है कि एकार और ओकार से अवर्ण के आने पर संधि नही होती है इसीलिए णमो अरिहंताणं में ओ के बाद अ ज्यों का त्यों रखा गया है किन्तु मंत्र शास्त्र के विधान से अ का लोप कर देने पर णमो अरिहंताणं पद में १० मात्राएँ ही रह जाती हैं और इसी प्रकार से ५८ मात्राओं का जोड़ भी समुचित बैठता है। तब १०±९±११±१२±१६·५८ का योग बन जाता है। इस मंत्र का विश्लेषण करने पर-ण्±अ±म्±ओ±अ±र्±इ±ह्±अं±त्±आ±ण्±अं। ण्±अ±म्±ओ±स्±इ±द्±ध्±आ±ण्±अं। ण्±अ±म्±ओ±आ±इ±र्±इ±य्±आ±ण्±अं। ण्±अ±म्±ओ±उ±व्±अ±ज्±झ्±आ±य्±आ±ण्±अं। ण्±अ±म्±ओ±ल्±ओ±ए±स्±अ±व्±व्±अ±स्±आ±ह्±ऊ±ण्±अं।इन सभी वर्णों मे स्वर और व्यंजन पृथक् करने पर चौंतीस स्वर और तीस व्यंजन इस प्रकार चौंसठ वर्ण होते हैं। क्योंकि यहाँ ‘‘द्धा ज्झा व्व’’ इन संयुक्ताक्षरों के तीन वर्ण (व्यंजन) ही ग्रहण किए हैं न कि छह, पुन: यहाँ ‘‘अ इ उ ए’’ ‘‘ज झ ण त द ध य र ल व स ह’’ ये स्वर व्यंजन ही मूलरूप से इस मंत्र में समाहित हैं तथा मूलवर्ण भी चौंसठ ही होते हैं।
भावार्थ-इस महामंत्र में समस्त स्वर-व्यंजनों के अक्षर जोड़ने पर तो ६७ वर्ण होते हैं किन्तु जहाँ इसकी व्याख्या मिलती है वहाँ ६४ अक्षर ही माने गये हैं किन्तु कहीं खुलासा नहीं आया कि कौन से वर्णो को इसमे नहीं जोड़ा गया है। अत: संस्कृत टीकाकत्र्री विदुषी आर्यिका पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने उपर्युक्त तीन वर्णों के संयुक्ताक्षरों में एक-एक व्यंजन हटा कर ६४ मूलवर्णों की संख्या का दिग्दर्शन कराया है जो समुचित ही प्रतीत होता है। अतएव इस महामंत्र में सम्पूर्ण द्वादशांग श्रुत समाहित है, ऐसा जानना चाहिए। गाथार्थ – उक्त चौंसठ अक्षरों को अलग-अलग लिखकर (विरलन करके) प्रत्येक के ऊपर दो का अंक देकर परस्पर में सम्पूर्ण दो के अंकों का गुणा करने से लब्ध-प्राप्त हुई राशि-संख्या में एक घटा देने से जो प्रमाण रहता है उतने ही श्रुतज्ञान के अक्षर होते हैं। इस नियम से गुणकार करने पर- गाथार्थ – एक, आठ, चार, चार, छह, सात, चार, चार, शून्य, सात, तीन, सात, शून्य, नौ, पाँच, पाँच, एक, छह, एक, पाँच यह संख्या आती है। इस गाथा सूत्र के अनुसार-१८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ ये समस्त द्वादशांग रूप श्रुतज्ञान के अक्षर होते हैं। अतएव णमोकार महामंत्र में द्वादशांगरूप समस्त-सम्पूर्ण श्रुतज्ञान समाहित है ऐसा जानना चाहिए अथवा यह मंत्र बारह अंगमयी श्रुतज्ञान रूप ही है, समस्त मंत्रों की यह खानि है अर्थात् इस मंत्र से ही सभी मंत्र उत्पन्न होते हैं अत: ८४ लाख मंत्रों का उद्भव इस णमोकार मंत्र से ही माना जाता है। इसका माहात्म्य-अतिशय शारदा माता-साक्षात् सरस्वती देवी भी वर्णन करने में समर्थ नहीं है। श्री उमास्वामी आचार्यवर्य ने कहा भी है- श्लोकार्थ-यदि कोई व्यक्ति तराजू के एक पलड़े पर पंचपरमेष्ठी के णमोकार के पद और अक्षरों को और दूसरे पलड़े पर अनन्तगुणात्मक तीनों लोकोें को रखकर तुलना करें तो भी वह णमोकार मंत्र वाले पलड़े को ही अधिक भारी (वजनदार) अनुभव करेगा, उस महान गौरवशाली णमोकार मंत्र को मैं नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ – णमोकार मंत्र पूजन की जयमाला में भी लिखा है कि- -शेर छंद-इक ओर तराजू पे अखिल गुण को चढ़ाऊँ। इक ओर महामंत्र अक्षरों को धराऊँ।। इस मंत्र के पलड़े को उठा ना सके कोई। महिमा अनन्त यह धरे न इस सदृश कोई।।तात्पर्य यह है कि यह पंचनमस्कार मंत्र तीनों लोकों में सारभूत-महान है, इसके चिन्तन, मनन और ध्यान से परमेष्ठी पदों की प्राप्ति तो परम्परा से होती ही है तथा यह संसार में भी लौकिक सम्पदाओं को प्रदान कराता है। पुराण ग्रंथों में अनेकों उदाहरण मिलते हैं कि इस मंत्र को तिर्यंच प्राणियों को भी मरणासन्न अवस्था में सुनाने से उनको देवगति प्राप्त हो गई। इसका माहात्म्य जानकर योगीजन भी जीवन के अन्तकाल तक इस महामंत्र का आश्रय लेकर अपने समाधिमरण की सिद्धि करते हैं। (षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. १, पृ. २७ से ३०)
४ – सरस्वती की प्रतिमा द्वादशांगवाणी-जिनवाणी रूप हैं
अस्या: सरस्वतीमातु: षोडशनामान्यपि गीयन्ते- भारती, सरस्वती, शारदा, हंसगामिनी, विदुषांमाता, वागीश्वरी, कुमारी, ब्रह्मचारिणी, जगन्माता, ब्राह्मणी, ब्रह्माणी, वरदा, वाणी, भाषा, श्रुतदेवी गौश्चेति१०। अन्यत्र-अष्टोत्तरशतनाममंत्रा:११ अपि विद्यन्ते। सरस्वतीदेव्या: मूर्तयो जैनमंदिरेषु अपि दृश्यन्ते। नेयं चतुर्णिकायदेवानां देवी। प्रत्युत द्वादशांगजिनवाणी स्वरूपा माता एव अतएव इयं मुनिभिरपि वंद्या भवति इति ज्ञातव्य:। वस्त्रालंकारभूषितापि न सरागिणी वस्त्रवेष्टितशास्त्रमिव सर्वदा पूज्या एव सर्वैस्तस्मान्नाशंकनीयं किचिदपि विद्वद्भि:।यह द्वादशांग वाणी ग्रंथों में श्रुतदेवीरूप से भी वर्णित की गई है। प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ में कहा भी है—
गाथार्थ —श्रुतदेवी के बारह अंग हैं, सम्यग्दर्शन यह तिलक है, चारित्र उनका वस्त्र है, चौदह पूर्व उनके आभरण हैं ऐसी कल्पना करके श्रुतदेवी की स्थापना करनी चाहिए। बारह अंगों में से प्रथम जो ‘‘आचारांग’’ है, वह श्रुतदेवी-सरस्वती देवी का मस्तक है, ‘‘सूत्रकृतांग’’ मुख है, ‘‘स्थानांग’’ कण्ठ है, समवायांग और व्याख्याप्रज्ञप्ति ये दोनों अंग उनकी दोनों भुजाएँ हैं, ज्ञातृकथांग और उपासकाध्ययनांग ये दोनों अंग उस सरस्वती देवी के दो स्तन हैं, अंतकृद्दशांग यह नाभि है, अनुत्तरदशांग श्रुतदेवी का नितम्ब है, प्रश्नव्याकरणांग यह जघन भाग है, विपाकसूत्रांग और दृष्टिवादांग ये दोनों अंग उन सरस्वती देवी के दोनों पैर हैं। ‘‘सम्यक्त्व’’ यह उनका तिलक है, चौदह पूर्व अलंकार हैं और ‘‘प्रकीर्णक श्रुत’’ सुन्दर बेल-बूटे सदृश हैं। ऐसी कल्पना करके यहाँ पर द्वादशांग जिनवाणी को सरस्वती देवी के रूप में लिया गया है। श्री जिनेन्द्रदेव ने सर्व पदार्थों की सम्पूर्ण पर्यायों को देख लिया है, उन सर्व द्रव्य पर्यायों की यह ‘‘श्रुतदेवता’’ अधिष्ठात्री देवी हैं अर्थात् इनके आश्रय से पदार्थों की सर्व अवस्थाओं का ज्ञान होता है। परमब्रह्म के मार्ग का अवलोकन करने वाले लोगो के लिए यह स्याद्वाद के रहस्य को बतलाने वाली है तथा भव्यों के लिए भुक्ति और मुक्ति को देने वाली ऐसी यह सरस्वती माता है। हे अम्ब! आप सम्पूर्ण स्त्रियों की सृष्टि में चूड़ामणि हो। आपसे ही धर्म की और गुणों की उत्पत्ति होती है। आप मुक्ति के लिए प्रमुख कारण हो, इसलिए मैं अतीव भक्तिपूर्वक आपके चरणकमलों को नमस्कार करता हू।
श्रीवीरसेनाचार्य ने भी कहा है- गाथार्थ –जो श्रुतज्ञान के प्रसिद्ध बारह अंगों से ग्रहण करने योग्य हैं अर्थात् बारह अंगों का समूह ही जिसका शरीर है, जो सर्व प्रकार के मल (अतीचार) और तीन मूढ़ताओं से रहित सम्यग्दर्शन रूप उन्नत तिलक से विराजमान है और नाना प्रकार के निर्मल चारित्र ही जिनके आभूषण हैं ऐसी भगवती श्रुतदेवता चिरकाल तक प्रसन्न रहो। अन्यत्र भी कहा है- गाथार्थ — जिसका आदि-मध्य और अन्त से रहित निर्मल शरीर, अंग और अंगबाह्य से निर्मित है और जो सदा चक्षुष्मती अर्थात् जागृतचक्षु हैं ऐसी श्रुतदेवी माता को नमस्कार हो। सरस्वती स्तोत्र में भी सरस्वती देवी के लक्षण कहते हैं। जैसे— श्लोकार्थ—करोड़ों सूर्य और चन्द्रमा के एकत्रित तेज से भी अधिक तेज धारण करने वाली, चन्द्र किरण के समान अत्यंत स्वच्छ एवं श्वेत वस्त्र को धारण करने वाली तथा कलहंस पक्षी पर आरूढ़ दिव्यमूर्ति श्री सरस्वती देवी हमारी प्रतिदिन रक्षा करें। अन्यत्र भी कहा है—
श्लोकार्थ—दिव्य कमल के समान नेत्रों वाली, हंस वाहन पर आरूढ़, वीणा और पुस्तक को हाथ में धारण करने वाली सरस्वती देवी मैंने देखी है। उस सरस्वती माता के सोलह नाम भी गाये जाते हैं— १. भारती २. सरस्वती ३. शारदा ४. हंसगामिनी ५. विद्वानों की माता ६. वागीश्वरी ७. कुमारी ८. ब्रह्मचारिणी ९. जगन्माता १०. ब्राह्मिणी ११. ब्रह्माणी १२. वरदा १३. वाणी १४. भाषा १५. श्रुतदेवी १६. गो। अन्यत्र एक सौ आठ नाम मंत्र भी सुने जाते हैं। सरस्वती देवी की मूर्ति जैन मंदिरों में भी देखी जाती हैं, ये चार निकाय वाले देवों में से किसी निकाय की देवी नहीं हैं बल्कि द्वादशांग जिनवाणी स्वरूप माता ही हैं इसलिए मुनियों के द्वारा भी वंद्य हैं ऐसा जानना चाहिए। वस्त्र-अलंकारों से भूषित होने पर भी वे सरागी नहीं हैं। वस्त्र से वेष्टित शास्त्र के समान वे सरस्वती की प्रतिमाएँ भी सभी के द्वारा सर्वदा पूज्य ही हैं इसलिए विद्वानों को इस विषय में किंचित् भी शंका नहीं करनी चाहिए। (षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. १, पृ. ६६-६७-६८) ==
अक्षरज्ञान को कहते हैं— सर्वोत्कृष्ट पर्याय समास ज्ञान को अनंत से गुणा करने पर अर्थाक्षर श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। इसी का विस्तार करते हैं- एक कम एक ही मात्र अपुनरुक्त अक्षरों की रचना रूप द्वादशांग श्रुतस्कन्ध से उत्पन्न हुए ज्ञान को श्रुतकेवलज्ञान कहते हैं। उस श्रुतकेवलज्ञान का संख्यातभागमात्र अर्थाक्षरज्ञान कहलाता है। अक्षर से उत्पन्न हुआ ज्ञान अक्षरज्ञान है, अर्थ के विषय को अथवा अर्थ के ग्राहक ज्ञान को अर्थाक्षरज्ञान कहते हैं। अथवा अक्षर तीन प्रकार का है—लब्ध्यक्षर, निर्वृत्यक्षर और स्थापनाक्षर। उनमें से पर्याय ज्ञानावरण से लेकर श्रुतकेवलज्ञानावरण पर्यन्त के क्षयोपशम से उत्पन्न आत्मा के अर्थ को ग्रहण करने की शक्ति लब्धिरूप भावेन्द्रिय है। उस रूप अक्षर लब्ध्यक्षर है क्योंकि वह अक्षर ज्ञान की उत्पत्ति में कारण है। कण्ठ, ओष्ठ, तालु आदि स्थानों की हलन-चलन आदि रूप क्रिया तथा प्रयत्न से जिनके स्वरूप की रचना होती है वे अकारादि स्वर, ककारादि व्यंजनरूप मूलवर्ण और उनके संयोग से बने अक्षर निर्वृत्यअक्षर हैं। पुस्तकों में उस-उस देश के अनुरूप लिखित अकारादि का आकार स्थापनाक्षर है। इस प्रकार के एक अक्षर के सुनने पर उत्पन्न हुआ अर्थज्ञान एकाक्षर श्रुतज्ञान है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। उसी के आधार से मैंने किंचित् कहा है। अब श्रुत के विषय को तथा श्रुत में कितना निबद्ध है इसे कहते हैं— गाथार्थ — अनभिलप्य पदार्थों के अनंतवें भाग प्रमाण प्रज्ञापनीय पदार्थ होते हैं और प्रज्ञापनीय पदार्थों के अनंतवें भाग प्रमाण श्रुत में निबद्ध है।।३३४।। जो भाव अनभिलप्य अर्थात् वचन के द्वारा कहने में नहीं आ सकते, मात्र केवलज्ञान के ही विषय हैं ऐसे पदार्थ जीवादि के अनंतवें भाग मात्र प्रज्ञापनीय हैं अर्थात् तीर्थंकर की सातिशय दिव्यध्वनि के द्वारा कहे जाते हैं। पुन: प्रज्ञापनीय जीवादि पदार्थों का अनंतवाँ भाग द्वादशांग श्रुतस्कन्ध के विषयरूप से निबद्ध होता है ऐसा भावार्थ हुआ। अब अक्षर समास का लक्षण कहा जाता है— एक अक्षर से उत्पन्न अर्थज्ञान के ऊपर पूर्वोक्त षट्स्थान पतित वृद्धि के क्रम के बिना एक-एक अक्षर बढ़ते हुए दो अक्षर, तीन अक्षर आदि रूप एक हीन पद के अक्षर पर्यन्त अक्षर समूह के सुनने से उत्पन्न अक्षरसमास ज्ञान के विकल्प संख्यात हैं अर्थात् दो हीन पद के अक्षर प्रमाण हैं। वर्तमान काल में ये अक्षर और अक्षरसमास ज्ञान ही हम लोगों के हैं ऐसा माना जाता है। षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका
६ – स्थापना निक्षेप से सुपाड़ी में क्षेत्रपाल स्थापना होती है
स्थापनानिक्षेप:-तत्र स्थापनामंगलं नाम आहितस्य नाम्न: अन्यस्य सोऽयमिति स्थापना स्थापनामंगलं। सा द्विविधा सद्भावासद्भावस्थापना चेति। तत्राकारवति वस्तुनि सद्भावस्थापना यथा चन्द्रप्रभप्रतिमायां सोऽयं चन्द्रप्रभो भगवान्, तद्विपरीते असद्भावस्थापना यथा पूगादिषु क्षेत्रपालस्थापना इति।टीकार्थ – मंगल में स्थापना निक्षेप दिखाते हैं- किसी नाम को धारण करने वाले दूसरे पदार्थ की ‘वह यह है’ इस प्रकार स्थापना करने को स्थापना कहते हैं। वह स्थापना दो प्रकार की है-सद्भावस्थापना, असद्भावस्थापना। इन दोनों में से आकारवान वस्तु में सद्भाव स्थापना होती है और इससे विपरीत असद्भावस्थापना जाननी चाहिए। उनमें स्थापना मंगल में किसी दूसरे नाम को धारण करने वाले पदार्थ में ‘‘यह वही है’’ इस प्रकार स्थापना करने को ‘स्थापना मंगल’ कहते हैं। वह स्थापना दो प्रकार की है-सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थापना। उनमें से किसी आकार वाली वस्तु में सद्भाव स्थापना होती है। जैसे-चन्द्रप्रभ की प्रतिमा में ‘ये चन्द्रप्रभ भगवान् हैं’ ऐसा मानना, इससे विपरीत में-बिना आकार वाली वस्तु में असद्भावस्थापना होती है, जैसे-सुपारी, नारियल आदि में क्षेत्रपाल की स्थापना कर लेना। भावार्थ – इन्हें तदाकार और अतदाकार स्थापना के नाम से भी जाना जाता है। ये दोनों स्थापनाएँ वर्तमान में व्यवहार में प्रचलित हैं। पंचपरमेष्ठी, नवदेवता, पंचबालयति, चौबीस तीर्थंकर, भरत, बाहुबली आदि प्रतिमाओं की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सद्भाव स्थापना मंगल को ही दर्शाने वाली है तथा क्षेत्रपाल आदि की स्थापना जो नारियल, सुपारी आदि से की जाती है वह असद्भाव स्थापना की प्रतीक है एवं अनेक मंदिरों में इनकी तदाकार प्रतिमाएँ भी देखी जाती हैं। (षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. १, पृ. ३२)
७ – स्त्रीभाव वेदी व नपुंसक वेदी मुनि बन सकते हैं न कि द्रव्य स्त्रीवेदी, द्रव्य नपुंसकवेदी
पुन: मानुषीषु शेषगुणस्थानव्यवस्थानिरूपणार्थं सूत्रावतार: क्रियते श्रीपुष्पदन्तभट्टारकेण- सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजद-संजद-ट्ठाणे णियमा पज्जत्तियाओ।।९३।। सिद्धान्तचिंतामणिटीका-स्त्रीवेदविशिष्टमानुष्य: सम्यग्मिथ्यादृष्टि-असंयत-सम्यग्दृष्टि-संयतासंयत-संयतगुणस्थानेषु नियमात् पर्याप्तिका: एव भवन्ति। हुण्डावसर्पिण्यां स्त्रीषु सम्यग्दृष्टय: किन्नोत्पद्यन्ते इति चेत् ? नोत्पद्यन्ते। कुतोऽवसीयते ? अस्मादेवार्षात्। अस्मादेवार्षात् द्रव्यस्त्रीणां निर्वृत्ति: सिद्ध्येदिति चेत् ? न, सवासस्त्वादप्रत्याख्यानगुणस्थितानां संयमानुपपत्ते:। भावसंयमस्तासां सवाससामप्यविरुद्ध इति चेत् ? न तासां भावसंयमोऽस्ति, भावासंयमाविनाभाविवस्त्राद्युपादानान्यथानुपपत्ते:। कथं पुनस्तासु चतुर्दश गुणस्थानानीति चेत् ? न, भावस्त्रीविशिष्टमनुष्यगतौ तत्सत्त्वाविरोधात्। भाववेदो बादरकषायान्नोपर्यस्तीति न तत्र चतुर्दशगुणस्थानानां संभव इति चेत् ? न, अत्र वेदस्य प्राधान्याभावात्। गतिस्तु प्रधाना, न साराद्विनश्यति। वेदविशेषणायां गतौ न तानि संभवन्तीति चेत् ? न, विनष्टेऽपि विशेषणे उपचारेण तद्व्यपदेशमादधानमनुष्यगतौ तत्सत्त्वाविरोधात्। मनुष्यापर्याप्तेष्व-पर्याप्तिप्रतिपक्षाभावत: सुगमत्वान्न तत्र वक्तव्यमस्ति।’’१६ एवं श्रीवीरसेनाचार्येण धवलाटीकायां स्पष्टतया कथितं नात्र संदेह: कर्तव्य:। अत्रायमर्थ:-द्रव्यपुरुषवेदी कश्चिद् जीव: भावस्त्रीवेदेन चतुर्दशगुणस्थानानि लभते। श्रीकुंदकुंददेवेनापि सिद्धभक्तौ प्रोत्तं- पुंवेदं वेदंता जे पुरिसा खवगसेढिमारूढा। सेसोदयेण वि तहा झाणुवजुत्ता य ते हु सिज्झंति।।१७ एषा वेदविषमता तिर्यग्गतौ मनुष्यगतौ चैव न देवनारकाणामिति, न च भोगभूमिषु। एतदेव प्रोत्तंâ श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवत्र्तिना- पुरुसिच्छिसंढवेदोदयेण पुरुसित्थिसंढवो भावे। णामोदयेण दव्वे पाएण समा कहिं विसमा।।२७१।। पुरुषस्त्रीषण्ढाख्यत्रिवेदानां चारित्रमोहभेदनोकषायप्रकृतीनामुदयेन भावे-चित्परिणामे यथासंख्यं पुरुष: स्त्री षण्ढश्च जीवो भवति। निर्माणनामकर्मोदययुक्ता-ङ्गोपाङ्गनामकर्मविशेषोदयेन, द्रव्ये पुद्गलद्रव्यपर्यायविशेषे पुरुष: स्त्री षण्ढश्च भवति। तद्यथा-पुंवेदोदयेन स्त्रियां अभिलाषरूपमैथुनसंज्ञाक्रान्तो जीवो भावपुरुषो भवति। स्त्रीवेदोदयेन पुरुषाभिलाषरूपमैथुनसंज्ञाक्रान्तो जीवो भावस्त्री भवति। नपुंसक-वेदोदयेन उभयाभिलाषरूपमैथुनसंज्ञाक्रान्तो जीवो भावनपुंसकं भवति। पुंवेदोदयेन निर्माणनामकर्मोदय-युक्ताङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयवशेन श्मश्रुवूच्र्चशिश्ना-दिलिङ्गाज्र्तिशरीरविशिष्टो जीवो भवप्रथमसमयमादिं कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्तं द्रव्यपुरुषो भवति। स्त्रीवेदोदयेन निर्माणनामकर्मोदययुक्ताङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयेन निर्लोममुखस्तनयोन्यादिलिङ्गलक्षितशरीरयुक्तो जीवो भवप्रथमसमयमादिं कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्तं द्रव्यस्त्री भवति। नपुंसकवेदोदयेन निर्माणनामकर्मोदय-युक्ताङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयेन उभयलिङ्गव्यतिरिक्तदेहाज्र्तिो भवप्रथमसमयमािद कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्तं द्रव्यनपुंसकं जीवो भवति। एते द्रव्यभाववेदा: प्रायेण-प्रचुरवृत्या देवनारकेषु भोगभूमिसर्वतिर्यग्मनुष्येषु च समा: द्रव्यभावाभ्यां समवेदोदयाज्र्तिा भवन्ति। क्वचित् कर्मभूमिमनुष्यतिर्यग्गतिद्वये विषमा:-विसदृशा अपि भवन्ति। तद्यथा-द्रव्यत: पुरुषे भावपुरुष: भावस्त्री भावनपुंसकं इति विषमत्वं द्रव्यभावयोरनियम: कथित:। कुत: ? द्रव्यपुरुषस्य क्षपकश्रेण्या-रूढ़ानिवृत्ति-करणसवेदभागपर्यन्तं वेदत्रयस्य परमागमे ‘‘सेसोदयेण वि तहा झाणुवजुत्ता य ते दु सिज्झंति।’’ इति प्रतिपादितत्वेन संभवात्।। अस्यायमर्थ:-मनुष्या: कर्मभूमिजा: द्रव्येण पुरुषा: अपि यदि भावेन स्त्रीवेदिन: नपुंसकवेदिनो वा तर्हि अपि मोक्षं प्राप्नुवन्ति। पुन: मनुष्यिनियों में शेष गुणस्थानों की व्यवस्था का निरूपण करने हेतु श्रीपुष्पदंतभट्टारक के द्वारा सूत्र का अवतार किया जाता है— सूत्रार्थ— मनुष्यिनियाँ सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक होती हैं।।९३।।सिद्धान्तिंचतामणिटीका—स्त्रीवेदी मनुष्यिनियाँ तृतीय, चतुर्थ, पंचम और छठे आदि गुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक होती हैं।
शंका —हुण्डावसर्पिणी काल के दोष से स्त्रियों में सम्यग्दृष्टि जीव क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ?
समाधान — उनमें सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते हैं।
शंका — यह किस प्रमाण से जाना जाता है ?
समाधान — इसी आर्षवचन से जाना जाता है।
शंका — तो इसी आर्षवचन से द्रव्य स्त्रियों का मुक्ति जाना भी सिद्ध हो जाएगा ?
समाधान — नहीं, क्योंकि वस्त्र सहित होने से उनके संयतासंयत गुणस्थान होता है अतएव उनके संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती है।
शंका — वस्त्र सहित होते हुए भी उन द्रव्य स्त्रियों के भाव संयम के होने में कोई विरोध नहीं होना चाहिए ?
समाधान — उनके भावसंयम नहीं है क्योंकि अन्यथा अर्थात् भावसंयम के मानने पर उनके भाव असंयम का अविनाभावी वस्त्रादिक का ग्रहण करना नहीं बन सकता है।
शंका — तो फिर स्त्रियों में चौदह गुणस्थान होते हैं यह कथन कैसे बनेगा ?
समाधान — नहीं, क्योंकि भावस्त्री अर्थात् स्त्रीवेदयुक्त मनुष्यगति में चौदहों गुणस्थानों के सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है।
शंका — बादरकषाय गुणस्थान के ऊपर भाववेद नहीं पाया जाता है इसलिए भाववेद में चौदह गुणस्थानों का सद्भाव नहीं हो सकता है ?
समाधान — नहीं, क्योंकि यहाँ पर अर्थात् गतिमार्गणा में वेद की प्रधानता नहीं है, किन्तु गति प्रधान है और वह पहले नष्ट नहीं होती है।
शंका —यद्यपि मनुष्यगति में चौदह गुणस्थान हो सकते हैं फिर भी उसे वेद विशेषण से युक्त कर देने पर उसमें चौदह गुणस्थान संभव नहीं हो सकते हैं ऐसा क्यों ?
समाधान — नहीं, क्योंकि विशेषण के नष्ट हो जाने पर भी उपचार से उस विशेषण युक्त संज्ञा को धारण करने वाली मनुष्यगति में चौदह गुणस्थानों का सद्भाव होने में कोई विरोध नहीं आता है। मनुष्य अपर्याप्तकों में अपर्याप्ति का कोई प्रतिपक्षी नहीं होने से और उनका कथन सुगम होने से इस विषय में कुछ अधिक कहने योग्य नहीं है। इसलिए इस संबंध में स्वतन्त्ररूप से नहीं कहा गया है। ऐसा श्रीवीरसेनाचार्य ने धवला टीका में स्पष्टरूप से कह दिया है अत: इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं करना चाहिए। यहाँ अभिप्राय यह है कि द्रव्य पुरुषवेदी कोई कर्मभूमियाँ मनुष्य भाव से स्त्रीवेद के द्वारा भी चौदहों गुणस्थानों को प्राप्त करते हैं। श्रीकुन्दकुन्ददेव ने भी सिद्धभक्ति में कहा है—
गाथार्थ —जो पुरुष द्रव्य से पुरुषवेद के द्वारा क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हैं, वे ही द्रव्यपुरुषवेदी भाव से स्त्री या नपुंसकवेदी होते हुए भी शुक्लध्यान के द्वारा सिद्ध पद को प्राप्त करते हैं। इसी भाव को सिद्धभक्ति के पद्यानुवाद में लिया है-जो भाव पुरुषवेदी मुनिवर वर क्षपकश्रेणि चढ़ सिद्ध हुए। जो भाव नपुंसकवेदी भी थे पुरुषध्यान धर सिद्ध हुए।। जो भाववेद स्त्री होकर भी द्रव्यपुरुष अतएव उन्हें। हो शुक्लध्यान सिद्धि जिससे सब कर्म नाश कर सिद्ध बनें।।यह वेद की विषमता तिर्यंचगति और मनुष्यगति में ही है, देव और नारकियों में नहीं है और भोगभूमि में भी नहीं है। श्री नेमिचंद्रसिद्धान्तचक्रवर्ती ने भी यही बात कही है—
गाथार्थ — पुरुष, स्त्री और नपुंसकवेद कर्म के उदय से भावपुरुष, भावस्त्री, भावनपुंसक होता है और नामकर्म के उदय से द्रव्यपुरुष, द्रव्यस्त्री, द्रव्यनपुंसक होता है। सो यह भाववेद और द्रव्यवेद प्राय: करके समान होता है परन्तु कहीं-कहीं विषम भी होता है।।२७१।। चारित्रमोहनीय का भेद नोकषाय की पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद नामक प्रकृतियों का उदय होने पर जीवभाव अर्थात् चित्परिणाम में पुरुष, स्त्री या नपुंसक होता है। निर्माण नामकर्म के उदय से युक्त आंगोपांगनामकर्म विशेष के उदय से द्रव्य अर्थात् पुद्गलद्रव्य की पर्यायविशेष में पुरुष, स्त्री और नपुंसक होता है। वह इस प्रकार जानना कि पुरुषवेद के उदय से स्त्री में अभिलाषा रूप मैथुन संज्ञा से आक्रान्त जीव भावपुरुष होता है। स्त्रीवेद के उदय से पुरुष की अभिलाषारूप मैथुन संज्ञा से आक्रान्त जीव भावस्त्री होता है। नपुंसकवेद के उदय से स्त्री और पुरुष दोनों की अभिलाषा रूप मैथुन से आक्रान्त जीव भावनपुंसक होता है। पुरुषवेद के उदय से तथा निर्माणनामकर्म के उदय से युक्त आंगोपांग नामकर्म के उदयवश दाढ़ी, मूँछ, शिश्न आदि चिन्हों से अंकित शरीर से विशिष्ट जीव भव के प्रथम समय से लेकर उस भव के अंतिम समय पर्यन्त द्रव्यपुरुष होता है। स्त्रीवेद के उदय से तथा निर्माण नामकर्म के उदय से युक्त आंगोपांग नामकर्म के उदय से रोमरहित मुख, स्तन, योनि आदि चिन्हों से युक्त शरीर वाला जीव भव के प्रथम समय से लेकर उस भव के अंतिम समय पर्यन्त द्रव्यस्त्री होता है। नपुंसकवेद के उदय से तथा निर्माण नामकर्म के उदय से युक्त आंगोपांग नामकर्म के उदय से दोनों लिंगों से भिन्न शरीर वाला जीव भव के प्रथम समय से लेकर उस भव के अंतिम समय पर्यन्त द्रव्यनपुंसक होता है। ये द्रव्यवेद और भाववेद प्राय: देव, नारकियों और भोगभूमि के सब तिर्यंचों तथा मनुष्यों में सम होते हैं किन्तु क्वचित् तिर्यंचगति और मनुष्यगति में विषम होते हैं। जैसे-द्रव्य से पुरुष भाव से पुरुष, स्त्री या नपुंसक होता है। द्रव्य से स्त्री भाव से पुरुष, स्त्री या नपुंसक होता है। द्रव्य से नपुंसक भाव से पुरुष, स्त्री या नपुंसक होता है। इस प्रकार द्रव्य और भाव का अनियम विषम शब्द से कहा है क्योंकि क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ जीव के अनिवृत्तिकरण से सवेद भागपर्यन्त तीनों वेदों का अस्तित्व परमागम में कहा है। शेष वेदों के उदय से भी ध्यान में मग्न जीव मुक्ति प्राप्त करते हैं। इसका अर्थ यह है कि कर्मभूमिज मनुष्य आदि द्रव्य से पुरुषवेदी होते हुए भी भाव से स्त्रीवेदी अथवा नपुंसकवेदी भी हैं तो भी मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका
टिप्पणी-
१. पंचमेण इति पाठान्तरं।
२. षट्खण्डागम (धवला टीका समन्वित) पुस्तक १, पृ. ५५।
३. षट्खण्डागम (धवला टीका समन्वित) पुस्तक १, पृ. ५४।
४. ‘मंगलमंत्र णमोकार-एक अनुचिन्तन’ पुस्तक, पृ. ४३।
५. ‘मंगलमंत्र णमोकार’ : एक अनुचिन्तन पुस्तक, पृ. ४४।
६. षट्खण्डागम (धवला टीका समन्वित) पुस्तक १, पृ. ६।
७. कसायपाहुड़ पु. १, पृ. ३।
८-९. जिनस्तोत्रसंग्रह (वीर ज्ञानोदय गंरथमाला, जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर से प्रकाशित)।
१०. जिनस्तोत्रसंग्रह (वीर ज्ञानोदय गंरथमाला, जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर से प्रकाशित)।
११. श्रुतस्वंधविधान (वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला, जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर से प्रकाशित)।