जैन मत के अनुसार यह ब्रह्माण्ड अनंत हैं। सदा से हैं, और सदा रहेगा। काल के अनुसार परिवर्तनशील हैं और रहेगा। इसी प्रकार ज्योतिष भी ब्रह्माण्ड की तरह अनादि है। सदा से है और रहेगा । और काल की गणना का मुख्य बिन्दु ही यह ज्योतिष शास्त्र ही है। जैन मान्यता से बीस कोडा कोडी सागर का एक कल्पकाल बताया गया है। इस के दो भाग होते हैं। एक अवसर्पिणी और दूसरा उत्सर्पिणी काल यह दोनों काल क्रमशः से आते जाते रहते हैं । इनके छः भाग होते हैं – क्रमशः – 1. सुषम सुषमा 2.सुषमा 3. सुषम दुःषमा 4. दुःषम सुषमा 5. दुःषम 6. अति दुःषमा । ऐसे अवसर्पिणी काल के 6 भेद हैं। इसी प्रकार इनके उलटे क्रम से उत्सर्पणी काल के छः भेद हैं –
1.अति दुःषमा
2. दुःषमा
3. दुःषम सुषमा
4. सुषम दुःषमा
5. सुषमा
6.सुषम सुषमा होते हैं।
दस कोडा कोडी सागर प्रमाण का अवसर्पण तथा दस कोडा कोडी की आयु प्रमाण का उत्सर्पणी काल होता है। इन में अवसर्पणी में आयु – बल आदि की हानि और उत्सर्पणी काल में आयु – बलादि की वृद्धि होती है । इस समय जैन ज्योतिष के अनुसार 1 .सुषम सुषमा 2. सुषमा 3 .सुषम दुःषमा 4 .दुःषम सुषमा हो व्यतीत हो चुके हैं और पंचम काल दुःषम काल चल रहा है। जो कि 21 हजार वर्ष का है। इसके बाद छटवाॅंकाल अति दुषम काल आऐगा। सुषम दुःषम जघन्य भोग भूमि काल के समय मेें 14 कुलकर (मनु) होते हैं । जब दिपांग जाति के कल्पवृक्षों का लोप हुआ तो सूर्य चन्द्रमा दिखलाई पडे। इस समय प्रथम कुलकर प्रतिश्रुति थे। प्रजा अपनी शंका को दूर करने के लिए इन के पास गई, इन्होने सूर्य और चन्द्रमा सम्बन्धी ज्योतिष-विषय ज्ञान दिया। इन के ज्ञान देने से मनुष्य परिचित होकर अपने अपने समय के कुलकरों ने प्रजा को आकाशमण्डल की सभी बाते बताई। यह समस्त ज्ञान भण्डार मुखाग्र था। उस समय उसके लिपिबद्ध करने की अावश्यकता नही थी। फिर भी उस काल में मानना पडेगा कि ज्योतिष पूर्ण रुप से विकसित था। भारतीय संतों ने अपनी दिव्य ज्ञान शक्ति द्वारा आकाशमण्डल के समस्त तत्वों को ज्ञात कर लिया था।
और जैसे – जैसे आगे जाकर अभिव्यंजना की प्रणाली विकसित हुई, ज्योतिष तत्व साहित्य द्वारा प्रकट होने लगा मेरा तो पूर्व अनुमान है कि प्रजा अपने दैनिक कार्यों में सम्पादनार्थ उपयोगी पाक्षिक तिथि पत्र भी उस समय भी काम में लाये जाते थें । उस युग में प्रत्येक व्यक्तियांे को ग्रह नक्षत्रो का इतना ज्ञान था जिससे व केवल आकाश की स्थिति को देखकर समय दिषा आदि को ज्ञात कर लेते थे। इस का स्पष्ट उदहारण है कि हमारे अकृत्रिम पर्व हैं। आष्टाह्निका पर्व, सोलह कारण, दशलक्षण, पर्यूषण, रत्नत्रय पर्व, यह पर्व शाश्वत है अनादि से चले आ रहे हैं और रहेगें । इन का कभी लोप नहीं होता । शाश्वत ही रहेगें । ==काल का विभाग== श्वास-श्वास से ही दिन पक्ष मास ऋतु- अयन -वर्ष – युग – कल्प सभी इसी से बनते हैं ।वह जो श्वास (प्राण) से आरंभ होता है यथार्थ कहलाता हैं। और जो त्रुटि से आरम्भ होता है, अवास्तविक कहलाता है। छः श्वासांे की एक विनाडी, साठ विनाडीयों से एक दिन और रात्रि बनता । तीस दिवस का एक मास एक नागरिक सावन मास सूर्योदयों की सख्याओं के बराबर होता है। एक चन्द्र मास उतनी चन्द्र तिथियों से बनता है । एक सौर मास सूर्य के राशिप्रवेष से निश्चित होता है। बारह मास मिलकर एक वर्ष बनाते हैं। ज्योतिर्विज्ञान के सिद्धान्त ग्रन्थों में काल का विभाग चक्र भी स्पष्टतया विवेचित है।
समय का सबसे छोटा मापन त्रस रेणू होता हेै। उस से बडी त्रुटी, उससे बडा वेघ, वेघ से बडा लावा, लावा से बडा निमेष, निमेष से बडा क्षण,क्षण से बडा काष्ठ, काष्ठ से बडा लघु, लघु से बडा दण्ड, दण्ड से बडा मुहूर्त , मुहूर्त से बडा याम, याम से बडा प्रहर, प्रहर से बडा दिवस, दिवस से बडा अहोरात्रम्, अहोरात्रम् से बडा पक्ष (कृष्ण पक्ष व शुक्ल पक्ष ), पक्ष से बडा मास, दो मास से मिलकर एक ऋतु, तीन ऋतु से मिलकर अयन (उत्तरायण-दक्षिणायण) आयन से बडा वर्ष, वर्ष से बडा युग, कल्प हाता है।
1प्राण =60 लीक्षक = 90 दीर्घाक्षर उच्चारण काल = 60/15 =4 सैकेण्ड 1 पल=60 विपल =6 प्राण = 24 सैकेण्ड =2/5 मिन्ट अतः 5/2 पल= 2 पल = 1 मिनट 1 घटी=60 पल = 1 दण्ड =24 मिन्ट अतः=5/2 घटी =5/2 दण्ड =60 मिन्ट=1 घण्टा 60 घटी=60 दण्ड = 1 अहोरात्र =8 प्रहर=24 घण्टा 15 अहोरात्र =1 पक्ष, 2 पक्ष =1 मास 30 अहोरात्र=1 मास = 1 महीना ,2मास= 1 ऋतु , 6ऋतु =1वर्ष 12 मास व 1 साल के बाद युग , काल – कल्प काल बताया गया है । दूसरे रूप में- 60प्रतिपल=1विपल 60 प्रतिकला=1 विकला 60 विपल =1 पल 60 विकला =1 कला 60 पल =1 घटी या दण्ड 60कला = 1 अषं 24 मिन्ट =1 घटी 30अंष = 1 राषि पल = 1 मिन्ट 12 राषि =1 भगण 2 विपल =1 सैकेण्ट 8 यव =1 अगुंल 2 घटी = 1 घण्टा 24 अगुंल =1 हाथ 60घटी = 1 अहोरात्र या दिन रात 4 हाथ = 1 दण्ड या बांस 2000बांस =1 कोस