जम्बूद्वीप ऐरावत क्षेत्र वर्तमानकालीन तीर्थंकर स्तोत्र
अडिल्ल छंद
ऐरावत के वर्तमान जिनराज हैं।
भव वारिधि से तारण तरण जिहाज हैं।।
भक्ति भाव से करूँ उन्हों की वंदना।
नितप्रति शीश नमाय करूँ यमतर्जना।।१।।
दोहा
कर्म मलीमस आत्मा, प्रभु तुम भक्ति प्रसाद।
शुद्ध बुद्ध होवे तुरत, अत: नमूँ तुम पाद।।२।।
पद्धड़ी छंद
जिन ‘बालचन्द्र’ त्रैलोक्यनाथ, गण ईश भजें नित नमित माथ।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं नमूँ सदा श्रद्धा समेत।।१।।
प्रभु ‘सुव्रत’ तीर्थंकर महेश, तुमको ध्यावें मुनिगण अशेष।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं नमूँ सदा श्रद्धा समेत।।२।।
श्री ‘अग्निसेन’ जिनदेव आप, भविजन के हरते सकल ताप।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं नमूँ सदा श्रद्धा समेत।।३।।
श्री ‘नंदिसेन’ के पाद कंज, योगी गण वंदत कर्म भंज।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं नमूँ सदा श्रद्धा समेत।।४।।
जिनवर ‘श्रीदत्त’ पदारविंद, जजते ही मिटता सकल द्वंद्व।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं नमूँ सदा श्रद्धा समेत।।५।।
जिनवर ‘व्रतधर’ हो श्रेष्ठ चंद्र, भविमन आल्हादक श्रेष्ठ मंत्र।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं नमूँ सदा श्रद्धा समेत।।६।।
श्री ‘सोमचन्द्र’ अद्भुत दिनेश, अज्ञान तिमिर को हरें शेष।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं नमूँ सदा श्रद्धा समेत।।७।।
श्रीमन ‘धृतिदीर्घ’ अपूर्व तेज, जनमन का तत्क्षण हरें खेद।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं नमूँ सदा श्रद्धा समेत।।८।।
जिन ‘शतायुष्य’ सब कर्मचूर, भक्तों के संकट करें दूर।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं नमूँ सदा श्रद्धा समेत।।९।।
जिनवर ‘विवसित’ अद्भुत महान्, सुरकिन्नर गावें कीर्तिगान।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं नमूँ सदा श्रद्धा समेत।।१०।।
‘श्रेयान’ जिनेश्वर मुक्तिकांत, वंदन से हरते मोहध्वांत।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं नमूँ सदा श्रद्धा समेत।।११।।
जिन ‘विश्रुतजल’ भवजलधिनाव, जो ध्यावें पावें शुद्धभाव।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं नमूँ सदा श्रद्धा समेत।।१२।।
जिन ‘सिंहसेन’ तीर्थेश आप, भाक्तिकजन के सब हरो पाप।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं नमूँ सदा श्रद्धा समेत।।१३।।
‘उपशांत’ जिनेश्वर सुनो टेर, हरिये भव भव का सकल फैर।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं नमूँ सदा श्रद्धा समेत।।१४।।
हे नाथ! ‘गुप्तशासन’ जिनेश, मेरे हरिये सब राग-द्वेष।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं नमूँ सदा श्रद्धा समेत।।१५।।
जिनवर ‘अनंतवीरज’ महान्, गुणमणिरत्नों की अतुल खान।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं नमूँ सदा श्रद्धा समेत।।१६।।
श्री ‘पाश्र्व’ जिनेश्वर देवदेव, भवसंकट करिये तुरत छेव।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं नमूँ सदा श्रद्धा समेत।।१७।।
जिनवर ‘अभिधान’ सुबोध पुंज, इंद्रादि नमें धर रत्नपुंज।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं नमूँ सदा श्रद्धा समेत।।१८।।
‘मरुदेव’ तीर्थकर सूर्य तुल्य, भविजनमनपंकज करें फुल्ल।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं नमूँ सदा श्रद्धा समेत।।१९।।
जिनवर ‘श्रीधर’ त्रैलोक्यदेव, शिवलक्ष्मी संयुत परमदेव।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं नमूँ सदा श्रद्धा समेत।।२०।।
जिन ‘शामकंठ’ की दिव्यवाणि, भव वल्ली काटन को कृपाणि।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं नमूँ सदा श्रद्धा समेत।।२१।।
जन ‘अग्निप्रभ’ भवदाहदूर, भविजन भव अग्नी शमन पूर।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं नमूँ सदा श्रद्धा समेत।।२२।।
श्री ‘अग्निदत्त’ जिनदेवदेव, शिवकांता इच्छुक करें सेव।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं नमूँ सदा श्रद्धा समेत।।२३।।
श्री ‘वीरसेन’ भगवान आप, निज स्वात्मसुधा पीकर अपाप।
शिवपद के विघ्न विनाश हेत, मैं नमूँ सदा श्रद्धा समेत।।२४।।
सकल अमंगल को हरें, श्री चौबीस जिनेश।
नमूँ ज्ञानमति पूर्ण हित, पूरें सौख्य हमेश।।२५।।