जम्बूद्वीप ऐरावत क्षेत्र भविष्यत्कालीन तीर्थंकर स्तोत्र
अडिल्ल छंद
जंबूद्वीप सुबीच सुदर्शन, मेरू के उत्तर में।
ऐरावत है क्षेत्र सातवां, आर्यखंड के मधि में।।
चौथे काल विषे तीर्थंकर, होंगे भावी युग में।
भक्ती से मैं करूँ वंदना, फैर भ्रमूँ ना भव में।।१।।
तीर्थंकर श्री ‘सिद्धार्थदेव’, भविजन को सिद्धी देते हैं।
जो हृदय कमल में भक्ती से, उनको विधिवत् धर लेते हैं।।
हम वंदें शीश नमा करके, श्रद्धा से प्रभु गुणगान करें।
सब इष्ट वियोग अनिष्ट योग, भय रोग शोक की हान करें।।१।।
श्री ‘विमल’ जिनेश्वर इंद्रिय क्रम, विरहित वर ज्ञान सहित माने।
जो सकल विमल केवल बोधामृत, इच्छुक हैं वे सरधानें।।हम..।।२।।
‘जयघोष’ जिनेश्वर तीर्थरूप, अगणित जीवों को पार करें।
सुर नर किन्नर वीणा लेकर, गुण गावें तन का भार हरें।।हम..।।३।।
जिन ‘नंदिसेन’ निज भक्तों को, आनंदामृत से तृप्त करें।
निज आत्म सुधारस के प्यासे, नित प्रति उनका संस्तव उचरें।।हम..।।४।।
जिनराज ‘स्वर्गमंगल’ जग में, सर्वत्र स्वर्ग सा सुख देते।
जो उनकी श्रद्धा भक्ति करें, उनके सब संकट हर लेते।।हम..।।५।।
श्री ‘वङ्काधारी’ तीर्थंकर, रत्नत्रय वङ्का धरें कर में।
निज कर्म महागिरि को तत्क्षण, शतखंड करें शिव लें पल में।।हम..।।६।।
तीर्थंकर श्री ‘निर्वाण’ नाथ, इनकी पूजा निर्वाण फले।
इस हेतू से ही गणधर भी, नित ध्यान धरें सब दोष दलें।।हम..।।७।।
जिनराज ‘धर्मध्वज’ पद चिन्हों के, पथिक धर्म की ध्वज धरते।
फिर धर्मचक्र के स्वामी बन, मुक्ती साम्राज्य तुरत लभते।।हम..।।८।।
श्री सिद्धसेन’ के भाक्तिकगण, सर्वार्थसिद्धि वर लेते हैं।
फिर गर्भवास के दु:खों से, छुटकर निज सुख रस लेते हैं।।हम..।।९।।
जिन ‘महासेन’ की यश बल्ली, तीनों लोकों तक फैल रही।
जो उनकी भक्ती करते हैं, उनके सब संकट फैल सही।।हम..।।१०।।
‘रविमित्र’ जिनेश्वर परमेश्वर, भक्तों के मन का तिमिर हरें।
वर भेदज्ञान की ज्योती से, अंतर में पूर्ण प्रकाश भरें।।हम..।।११।।
श्री ‘सत्यसेन’ तीर्थंकर की, कल्याणी वाणी अमृत है।
जो कर्ण कटोरे से पीते, वे समरस तृप्त सुखास्पद हैं।।हम..।।१२।।
तीर्थंकर ‘चंद्रप्रभ’ जग में, मुनिमन वैरव को विकसाते।
योगीश्वर चित्त कर्णिका पर, स्थापित कर उनको ध्याते।।हम..।।१३।।
श्री ‘महीचंद’ जिनदेवदेव के, गुण सुर-नर-खग गाते हैं।
अतिशयकारी पुण्यार्जन कर, चिर संचित कर्म नशाते हैं।।हम..।।१४।।
जिनराज ‘श्रुतांजन’ भविजन के, नेत्रों को ज्ञान शलाका से।
अतिशीघ्र खोल देते तब वे, जग देखें ज्ञानमयी दृग से।।हम..।।१५।।
जिन ‘देवसेन’ के चरणकमल, सौ इंद्रों से नित वंदित हैं।
जो वंदन-भक्ती करते हैं, वे नर नितप्रति आनंदित हैं।।हम..।।१६।।
जिन ‘सुव्रतनाथ’ महाव्रतगुण, उत्तरगुण से भी पूर्ण रहें।
जो श्रद्धा से वंदें ध्यावें, वे भी व्रत चारित पूर्ण लहें।।हम..।।१७।।
तीर्थंकर श्री ‘जिनेंद्र’ जग में, अतिशय महिमा को विस्तारें।
सुर ललनाएँ वीणा लेकर, उनकी गुणगाथा उच्चारें।।हम..।।१८।।
जिनवर ‘सुपाश्र्व’ भव पाश छेद, मुक्तिकांता के वल्लभ हैं।
सब राग-द्वेष-मद-मोहशून्य, उनका यश गाना दुर्लभ है।।हम..।।१९।।
जिननाथ ‘सुकौशल’ मुक्ति रमा, वश करने में अति कुशल कहे।
जो उनकी भक्ति करें वे भी, शिव पाने में गुण कुशल गहे।।हम..।।२०।।
जिनवर ‘अनंत’ के गुण अनंत, गणधर भी पार नहीं पाते।
जो लेशमात्र भी गुण उचरें, वे भी भव वारिधि तर जाते।।
हम वंदें शीश नमा करके, श्रद्धा से प्रभु गुणगान करें।
सब इष्ट वियोग अनिष्ट योग, भय रोग शोक की हान करें।।२२।।
जिन ‘विमल’ अमल गुण के धारी, जग का अघमल हर लेते हैं।
खगपति नरपति फणिपति चक्री, प्रभु के चरणाम्बुज सेते है।।हम..।।२२।।
जिन ‘अमृतसेन’ स्व वचन अमृत, बरसा भवि चातक तृप्त करें।
जिन वचन रसायन से सचमुच, सब जनम मरण रुज नष्ट करे।।हम..।।२३।।
जिन ‘अग्निदत्त’ भव अग्नी से, झुलसे प्राणी को इस जग में।
निज वचन नीर से शीतल कर, आत्यंतिक शांति भरें चित मे।।हम..।।२४।।
दोहा
ऐरावत के भावि जिन, चिंतामणी अनूप।
ज्ञानमती वैवल्य हो, भक्त बने शिवरूप।।२५।।