अचलमेरु के दक्षिण में शुभ भरत है।
उसके चौथे युग में जिन वृष करत हैं।।
भाविकाल के चौबिस जिनवर जानिये।
आज यहीं पर वंदन विधिवत् ठानिये।।१।।
‘रक्तकेश’ जिननाथ, भव भय व्याधि विनाशी।
मैं वंदूँ नित आप, चिन्मय ज्योति विकासी।।
सात भयों से दूर, पूर्ण अभय पद दाता।
जो वंदें तुम नित्य, पावें अनुपम साता।।१।।
‘चक्रहस्त’ जिनदेव, धर्मचक्र के धारी।
समरस अमृत हेतु, मैं वंदूँ भवतारी।।सात.।।२।।
श्री ‘कृतनाथ’ जिनेंद्र, जो नित मन तुम धारें।
आप तरें भवसिंधु, औरन को भी तारें।।सात.।।३।।
श्री ‘परमेश्वर’ आप, ब्रह्मा विष्णु महेशा।
शुद्ध बुद्ध जिननाथ, परमानंद हमेशा।।सात.।।४।।
नाम सुमूर्ति स्वरूप, चिन्मय मूर्ति तुम्हीं हो।
ज्ञानमूर्ति अनमूर्ति, अनुपम ज्योति तुम्हीं हो।।सात.।।५।।
‘मुक्तिकांत’ भगवान, त्रिभुवन के गुरु माने।
अगुरुलघू गुण पूर्ण, लोक शिखर स्थाने।।सात.।।६।।
देव ‘निकेशि’ महान्, तुम पद हृदय कमल में।
जो धारें धर प्रीति, होते पूर्ण विमल वे।।सात.।।७।।
श्री ‘प्रशस्त’ जिनराज, कर्म कुलाचल चूरे।
जो तुम भक्ति करंत, समरसमय सुख पूरें।।
सात भयों से दूर, पूर्ण अभय पद दाता।
जो वंदे तुम नित्य, पावें अनुपम साता।।८।।
‘निराहार’ जिन तृप्त, कवलाहार न करते।
केवलज्ञानी आप, अनंत चतुष्टय धरते।।सात.।।९।।
देव ‘अमूर्त’ स्वरूप, चिन्मूरति गुणराशी।
वर्णादिक से शून्य, चिन्मय ज्योति प्रकाशी।।सात.।।१०।।
नाममंत्र ‘द्विजनाथ’, जो सुमिरे नित मन में।
मोहसर्प विष दूर, करता वह इक क्षण में।।सात.।।११।।
‘श्रेयोगत’ तीर्थेश, भविजन को सुखदाता।
जो तुम नमत हमेश, पावें निज सुख साता।।सात.।।१२।।
‘अरुजनाथ’ भगवान्, भवरुज वैद्य तुम्हीं हो।
तुम पदकंज प्रणाम, इंद्र करें नत ही हो।।सात.।।१३।।
‘देवनाथ’ महादेव, तुम देवन के देवा।
गणधर मुनिगण नित्य, करते तुम पद सेवा।।सात.।।१४।।
नाम ‘दयाधिक’ आप, करुणािसधु जगत में।
जो तुम पद अनुरक्त, होते मगन अपन में।।सात.।।१५।।
‘पुष्पनाथ’ जिनदेव, कुसुमवाण को जीता।
करते देव हमेश, पुष्पवृष्टि मन प्रीता।।सात.।।१६।।
प्रभु ‘नरनाथ’ जिनेन्द्र, नरसुर के सुख भोगे।
तीर्थंकर पद धार, मुक्ति रमापति होंगे।।सात.।।१७।।
श्री ‘प्रतिभूत’ महान, धर्मधुरंधर मानें।
सुरकिन्नरगण आय, रुचि से पूजा ठानें।।सात.।।१८।।
श्री ‘नागेंद्र’ जिनेंद्र, तुम अनुराग करे जो।
कर्म अरी को चूर, पूरण सौख्य भरे सो।।सात.।।१९।।
नाथ ‘तपोधिक’ आप, आराधन के स्वामी।
दर्शन ज्ञान स्वरूप, द्वादश गण के स्वामी।।सात.।।२०।।
प्रभो ‘दशानन’ देव, दश विध धर्म प्रकाशे।
समवसरण के बीच, भवि मन कमल विकासें।।सात.।।२१।।
श्री ‘आरण्यक’ देव, परम पुरुष जगनामी।
पुण्य महोदधि आप, यश गावें शिवगामी।।सात.।।२२।।
‘दशानीक’ भगवान्, चौंतिस अतिशय पाके।
सुख पावेंगे नित्य, मोक्षपुरी में जाके।।सात.।।२३।।
श्री ‘सात्विक’ जिनराज, सब सत्त्वों के पालक।
षट्कायों की नित्य, दया करें अघ नाशक।।सात.।।२४।।
परमहंस परमेश, श्री चौबीस जिनेशा।
परम पिता भुवनेश, नमत शतेंन्द्र हमेशा।।
सात भयों से दूर, पूर्ण अभय पद दाता।
ज्ञानमती हो पूर्ण, वंदत अनुपम साता।।२५।।