वर पूर्व पुष्कर द्वीप में, जो भरत क्षेत्र महान् है।
उसमें चतुर्थकाल में हों, तीर्थकर भगवान हैं।।
उन वर्तमान जिनेश्वरों की, मैं करूँ नित वंदना।
रुचि से अतुल बहु भक्ति से, चाहूँ सदा हित आपना।।१।।
श्री ‘जगन्नाथ’ तीर्थंकर, सुरगणनुत भव्य हितंकर।
मैं वंदूँ शीश नमाके, दुख संकट दूर भगाके।।१।।
तीर्थेश ‘प्रभास’ कहाते, सुरनर मुनिपति यश गाते।
मैं वंदूँ शीश नमाके, दुख संकट दूर भगाके।।२।।
श्री ‘स्वर स्वामी’ जिनदेवा, सुर करते तुम पद सेवा।
मैं वंदूँ शीश नमाके, दुख संकट दूर भगाके।।३।।
‘भरतेश’ जिनेश महंता, पूजें भविजन गुणवंता।
मैं वंदूँ शीश नमाके, दुख संकट दूर भगाके।।४।।
श्री ‘दीर्घानन’ जिन राजा, वे सिद्ध करें सब काजा।
मैं वंदूँ शीश नमाके, दुख संकट दूर भगाके।।५।।
‘विख्यात कीर्ति’ तीर्थंकर, उन वाणी सर्व प्रियंकर।
मैं वंदूँ शीश नमाके, दुख संकट दूर भगाके।।६।।
‘अवसानि’ जिनेश्वर जग में, उनका यश है त्रिभुवन में।
मैं वंदूँ शीश नमाके, दुख संकट दूर भगाके।।७।।
जिननाथ ‘प्रबोध’ सुहितकर, उन नाम मंत्र भी दुखहर।
मैं वंदूँ शीश नमाके, दुख संकट दूर भगाके।।८।।
जिन ‘तपोनाथ’ जग स्वामी, त्रिभुवन के अंतर्यामी।
मैं वंदूँ शीश नमाके, दुख संकट दूर भगाके।।९।।
जिन ‘पावक’ नाम तुम्हारा, आतम अनुभव दातारा।
मैं वंदूँ शीश नमाके, दुख संकट दूर भगाके।।१०।।
‘त्रिपुरेश्वर’ जगपति तुम हो, चिन्मूर्ति चिदंबर तुम हो।
मैं वंदूँ शीश नमाके, दुख संकट दूर भगाके।।११।।
श्री ‘सौगत’ देव हमेशा, तुम ध्याते देव-खगेशा।
मैं वंदूँ शीश नमाके, दुख संकट दूर भगाके।।१२।।
श्री ‘वासव’ नाथ हमारे, भवभव के संकट टारें।
मैं वंदूँ शीश नमाके, दुख संकट दूर भगाके।।१३।।
जिनराज ‘मनोहर’ नामी, सुखदायक त्रिभुवन स्वामी।
मैं वंदूँ शीश नमाके, दुख संकट दूर भगाके।।१४।।
‘शुभ कर्म ईश’ तीर्थंकर, सब भविजन को क्षेमंकर।
मैं वंदूँ शीश नमाके, दुख संकट दूर भगाके।।१५।।
जिनराज ‘इष्टसेवित’ तुम, कर इष्ट अनिष्ट हरो तुम।
मैं वंदूँ शीश नमाके, दुख संकट दूर भगाके।।१६।।
‘विमलेन्द्र’ जिनेन्द्र सुखालय, संपूर्ण गुणों के आलय।
मैं वंदूँ शीश नमाके, दुख संकट दूर भगाके।।१७।।
श्री ‘धर्मवास’ सुखदाता, भक्तों के भाग्य विधाता।
मैं वंदूँ शीश नमाके, दुख संकट दूर भगाके।।१८।।
जगमान्य ‘प्रसाद’ जिनेश्वर, तुम त्रिभुवन के परमेश्वर।
मैं वंदूँ शीश नमाके, दुख संकट दूर भगाके।।१९।।
श्री ‘प्रभामृगांक’ जिनेशा, तुम वंदें सकल सुरेशा।
मैं वंदूँ शीश नमाके, दुख संकट दूर भगाके।।२०।।
‘उज्झित कलंक’ जिनराजा, तुमही भव जलधि जहाजा।
मैं वंदूँ शीश नमाके, दुख संकट दूर भगाके।।२१।।
‘स्फटिक प्रभाख्य’ जिनेश्वर, सब प्राणिमात्र के ईश्वर।
मैं वंदूँ शीश नमाके, दुख संकट दूर भगाके।।२२।।
जिनराज ‘गजेन्द्र’ महंता, निज आतम सुख विलसंता।
मैं वंदूँ शीश नमाके, दुख संकट दूर भगाके।।२३।।
जिनदेव ‘ध्यान जय’ जिष्णू, तुम वंदत बनें सहिष्णू।
मैं वंदूँ शीश नमाके, दुख संकट दूर भगाके।।२४।।
इंद्रिय विषयों से विरत, परम अतींद्रिय सौख्य।
नमत ज्ञानमति पूर्ण हो, पाऊँ सौख्य मनोज्ञ।।२५।।