पुष्कर अपर के भरत में, संप्रति जिनेश्वर जो हुए।
समरस सुधास्वादी मुनी, उनके चरण में नत हुए।।
उन वीतरागी सौम्य मुद्रा, देख जन-मन मोदते।
उनकी करूँ मैं वंदना, वे सकल कल्मष धोवते।।१।।
अलंकार भूषण रहित, फिर भी सुन्दर आप।
आयुध शस्त्र विहीन हो, नमूँ-नमूँ निष्पाप।।२।।
श्री ‘सर्वांगस्वामि’ तीर्थंकर, अतिशय रूप सुहावे।
इंद्र हजार नेत्रकर निरखे, तो भी तृप्ति न पावे।।
मैं वंदूँ श्रद्धा उर धर के, समकित ज्योति जगाऊँ।
निज आतम अनुभव रस पीकर, पेर न भव में आऊँ।।१।।
श्री ‘पद्माकर’ जिनवर तुमही, भव्यकमल विकसाते।
केवलज्ञानमयी किरणों से, तम अज्ञान भगाते।।मैं.।।२।।
नाथ ‘प्रभाकर’ निजकांती से, दश दिश को नहलाते।
निज भामंडल में भव्यों को, सात जनम दिखलाते।।मैं.।।३।।
हे ‘बलनाथ’ आप बल पाके, भक्त बने बलशाली।
मन वच काय बली ऋद्धी पा, हो जाते गुणशाली।।मैं.।४।।
‘योगीश्वर’ जिनराज आपने, मुनि को योग सिखाया।
वृक्ष मूल अभ्रावकाश, आतापन आदि बताया।।मैं.।।५।।
श्री ‘सूक्ष्मांग’ वर्णगंधादिक, रहित अमूर्तिक चिन्मय।
इंद्रिय देहरहित हो फिर भी, परम अतीन्द्रिय सुखमय।।
मैं वंदूँ श्रद्धा उर धर के, समकित ज्योति जगाऊं।
निज आतम अनुभव रस पीकर, पेâर न भव में आऊँ।।६।।
श्री ‘व्रतचलातीत’ जिनवर जी, कभी न व्रत से डिगते।
सर्व शीलव्रत गुण के भर्ता, सबको व्रत में धरते।।मैं.।।७।।
नाथ ‘कलंबक’ निष्कलंक हैं, कर्मकलंक विनाशी।
भव्यों के कलिमल को धोकर, करें स्वच्छ अविनाशी।।मैं.।।८।।
श्री ‘परित्याग’ जिनेश्वर तुमने, सर्वजगत को त्यागा।
पूर्ण दिगंबर हो तप कीना, धरा न विंâचित् धागा।।मैं.।।९।।
नाथ ‘निषेधिक’ पाप क्रिया को, तुमने पूर्ण निषेधा।
स्वयं क्षपक श्रेणी पर चढ़कर, घाति शत्रु को बेधा।।मैं.।।१०।।
श्री ‘पापापहारि’ जिनवरजी, पाप समूह विनाशा।
भव्यों ने भी तुम भक्ती से, अंतर्मल को नाशा।।मैं.।।११।।
श्री ‘सुस्वामी’ जगके नामी, त्रिभुवन अंतर्यामी।
जो वंदें तुम चरण सरोरुह, वे होते शिवधामी।।मैं.।।१२।।
‘मुक्तिचंद’ तीर्थंकर तुमने, मुक्ति धाम को पाया।
तुम पद भक्त जनों ने भी तो, मुक्ती पथ अपनाया।।मैं.।।१३।।
‘अप्राशिक’ भगवान तुम्हीं हो, भवि जीवन सुखदाता।
जो जन वंदें भक्ति भाव से, हरते कर्म असाता।।मैं.।।१४।।
श्री ‘जयचंद’ करम अरि जेता, भविजन को उपदेशें।
जो जन आते चरण शरण में, उनको शिवपुर भेजें।।मैं.।।१५।।
‘मलाधारि’ मलमूत्र पसीना, रहित देह तुम धारा।
भक्तों का मन निर्मल करने, तुम धुनि अमृत धारा।।मैं.।।१६।।
नाथ ‘सुसंयत’ संयमियों के, आश्रयभूत तुम्हीं हो।
सभी असंयत को संयत, करने में एक तुम्हीं हो।।मैं.।।१७।।
‘मलयसिंधु’ जिन नाथ आपको, सुरपति खगपति पूजें।
नरपति मुनिपति भी नित वंदें, कर्म अरी से छूटें।।मैं.।।१८।।
प्रभू ‘अक्षधर’ तीर्थंकर हैं, सर्व हितंकर जग में।
उनके वचन परम प्रीतिंकर, भविजन रमते उसमें।।मैं.।।१९।।
नाथ ‘देवधर’ विंकर है नित, सौधर्मेन्द्र तुम्हारा।
त्रिभुवन के भव्यों ने मिलकर, लीना आप सहारा।।मैं.।।२०।।
प्रभू ‘देवगण’ द्वादश गण के, अधिपति आप बखाने।
समवसरण में दिव्यध्वनी सुन, सबजन निजहित ठाने।।मैं.।।२१।।
श्री ‘आगमिक’ तीर्थकर जग में, आ वृष तीर्थ चलाया।
भविजन खेती सिंचन हेतू, धर्मामृत बरसाया।।मैं.।।२२।।
श्री ‘विनीत’ तीर्थेश्वर तुमने, विनय धर्म उपदेशा।
दर्शन-ज्ञान-चरित-तप औ, उपचार सहित निर्देशा।।मैं.।।२३।।
‘रतानंद’ तीर्थंकर निज में, रत हो जिनके द्वारा।
परमानंद सुखामृत पीते, शत-शत नमन हमारा।।मैं.।।२४।।
क्रोध बिना भी आपने, कर्म शत्रु को घात।
निर्भय पद पाया नमूँ, ज्ञानमती हो सार्थ।।२५।।