पुष्कर अपर में उत्तरी दिश, क्षेत्र ऐरावत कहा।
उस मध्य आरजखंड में, षट्काल परिवर्तन कहा।।
तीर्थेश चक्री आदि चौथे-काल में होते वहाँ।
चौबीस जिनवर वर्तमानिक, को सदा वंदूँ यहाँ।।१।।
समवसरण प्रभु आपका, दिव्य सभा का रूप।
मध्य कमल आसन उपरि, राजें तिहुँजग भूप।।२।।
श्री ‘गांगेयक’ देव, सोलह कारण भाके।
तीर्थंकर पद पाय, बसे मोक्ष में जाके।।
मैं वंदूँ धर प्रीति, कर्म कलंक नशाऊँ।
पंचम गति को पाय, फेर न भव में आवूँ।।१।।
‘नल्लवासव’ जिनराज, वासव शत तुम वंदें।
अनुपम सुख की आश, धरके तुम अभिनंदें।।मैं.।।२।।
श्रीमत् ‘भीम’ जिनेन्द्र, भवभयभीत जनों को।
आप एक आधार, अत: नमें जन तुमको।।मैं.।।३।।
नाथ ‘दयाधिक’ आप, कर्म हनें निर्दय हो।
भक्तों के प्रति आप, पूरणसदय हृदय हो।।मैं.।।४।।
श्री ‘सुभद्र’ जिनराज, भद्रजीव तुम वंदें।
करें आत्म कल्याण, ऐसी युक्ती सूझे।।मैं.।।५।।
श्री ‘स्वामी’ का नित्य, जो जन आश्रय लेते।
पाते शिवपथ शुद्ध, भवजल को जल देते।।मैं.।।६।।
नाथ ‘हनिक’ ने घाति, कर्म हने शांती से।
किया भुवन परकाश, अनुपम निजकांती से।।मैं.।।७।।
‘नंदिघोष’ का धर्म-घोष जगत में व्यापा।
भविजन हर्षित चित्त, वंदत हों निष्पापा।।मैं.।।८।।
‘रूपबीज’ जिन आप, वचनामृत जो पीते।
नष्ट करें भवबीज, मृत्युमल्ल भी जीते।।मैं.।।९।।
‘वङ्कानाभ’ जिनदेव, तुम पद की भक्ती से।
पाऊँ ऐसी युक्ति, मुक्ति वरूँ शक्ती से।।मैं.।।१०।।
श्री ‘संतोष’ जिनेश, तृष्णा नदी सुखाते।
अतिशय निस्पृह चित्त, फिर भी मार्ग दिखाते।।मैं.।।११।।
नाथ ‘सुधर्म’ महान, धर्मामृत की वर्षा।
करते करुणावान, भविको हर्षा-हर्षा।।मैं.।।१२।।
नाथ ‘फणीश्वर’ आप, मोह सर्प विष हरते।
जो वंदें तुम पाद, सब सुख संपत्ति भरते।।मैं.।।१३।।
‘वीरचंद’ जिनचंद्र, कर्म अरी के जेता।
जो तुम आश्रय लेय, वे होते दु:ख भेत्ता।।मैं.।।१४।।
श्री ‘मेधानिक’ नाथ, इंद्रिय सुख सब त्यागा।
निज आतम में वास, करके शिव सुख साधा।।मैं.।।१५।।
‘स्वच्छनाथ’ जिनराज, पूर्ण विशुद्ध हुए हो।
त्रिविध करम मल धोय, अनुपम शुद्ध हुए हो।।मैं.।।१६।।
नाथ ‘कोपक्षय’ आप, क्रोधादिक क्षय करके।
फिर भी जीता आप, कर्म अरी शमदम से।।मैं.।।१७।।
श्री ‘अकाम’ जिन आप, चरण कमल जो ध्यावें।
कामदेवमद नाश, निज समरस सुख पावें।।मैं.।।१८।।
‘धर्मधाम’ जिन नाम, जो नित मुख से बोलें।
निज में लें विश्राम, वे संसार न डोलें।।
मैं वंदूँ धर प्रीति, कर्म कलंक नशाऊँ।
पंचम गति को पाय, फेर न भव में आवूँ।।१९।।
‘सूक्तिसेन’ जिनदेव, द्वादशगण संबोधें।
निज-निज भाषा माहिं, सब जनमन प्रतिबोधें।।मैं.।।२०।।
‘क्षेमंकर’ जिननाथ, सब जग क्षेम करे हैं।
सब जन वंदें आप, सर्व अनिष्ट हरे हैं।।मैं.।।२१।।
‘दयानाथ’ जिनदेव, अगणित गुणगण धारें।
सुरनर मुनिगण आय, भक्ति स्तवन उचारें।।मैं.।।२२।।
श्री ‘कीर्तिप’ प्रभु आप, कीर्ति लता जग व्यापी।
जो गुण गावें नित्य, पावें यश अविनाशी।।मैं.।।२३।।
नाथ ‘शुभंकर’ आप, सर्व अशुभ परिहारी।
करके शुभ तत्काल, हरो अमंगल भारी।।मैं.।।२४।।
वंदूँ शीश नमाय के, प्रभु तुम हो निर्दोष।
नमत ज्ञानमती पूर्ण हो, बनूँ पूर्ण निर्दोष।।२५।।