पश्चिम सुपुष्कर द्वीप के, उत्तर दिशा में जानिये।
शुभ क्षेत्र ऐरावत वहाँ पर, कर्म भूमी मानिये।।
होंगे वहाँ तीर्थेश भावी, आज उनकी वंदना।
मैं करूँ श्रद्धा भक्ति धरके, मोह की कर वंचना।।१।।
कोटि सूर्य शशि से अधिक, तुम प्रभु जोतिर्मान।
शीश नमाकर मैं नमूँ, करिये द्योतित ज्ञान।।२।।
नाथ ‘अदोषिक’ क्षुधा तृषादिक, अठरह दोष नशाते।
उनके वचनामृत जो पीते, अजर अमर हो जाते।।
तीर्थंकर के चरण कमल में, जो भवि शीश नमाते।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, आनंद मंगल पाते।।१।।
‘वृषभदेव’ के वचन सुधारस, भव की दाह मिटाते।
जो उनको शिर पर धर लेते, त्रिभुवन तिलक कहाते।।ती.।।२।।
‘विनयानंद’ आप निश्चित ही, सबके हित उपदेष्टा।
भविजन को कृतकृत्य बनाके, करते त्रिभुवन वेत्ता।।ती.।।३।।
श्री ‘मुनि भारत’ सर्वगुणों से, पूर्ण दोष विरहित हो।
इसीलिये शतइंद्रों वंदित, प्रभु त्रैलोक्य महित हो।।ती.।।४।।
श्री ‘इंद्रक’ जिन आप कथा भी, जन को पावन करती।
बोधि समाधी की खानी है, पुण्य तिजोरी भरती।।ती.।।५।।
‘चंद्रकेतु’ प्रभु सब त्रिभुवन में, ज्ञान उजेला करते।
जो तुम भक्ती से विहीन हैं, वे दुख झेला करते।।
तीर्थंकर के चरण कमल में, जो भवि शीश नमाते।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, आनंद मंगल पाते।।६।।
‘ध्वजादित्य’ जिन आप विश्व में, नित्य उदित ही रहते।
राहुग्रह तुमको नहिं ग्रसता, मेघ नहीं ढक सकते।।ती.।।७।।
श्री ‘वसुबोध’ मेघ लोकोत्तर, अमृत जल बरसाते।
जो उसमें अवगाहन करते, पूर्ण तृप्त हो जाते।।ती.।।८।।
नाथ ‘मुक्तिगत’ आप नित्य ही, मुक्तिरमा के प्यारे।
अवधि मन:पर्ययज्ञानी भी, तुम गुण वरणत हारे।।ती.।।९।।
‘धर्मबोध’ प्रभु ज्ञान आपका, क्रम इंद्रिय से विरहित।
युगपत त्रिभुवन की सब वस्तू, जाने नित्य अपरिमित।।ती.।।१०।।
श्री ‘देवांग’ सुमेरु सदृश ही, अचल आप अपने में।
सुरललनाएँ तुम्हें चलित नहिं, कर सकतीं सपने में।।ती.।।११।।
श्री ‘मारीचिक’ तीर्थंकर की, भक्ती गंगा में ही।
नित स्नान किया करते जो, निर्मल होते वे ही।।ती.।।१२।।
नाथ ‘सुजीवन’ के वचनामृत, जो कानों से पीते।
गर्भ अवस्था की दुरवस्था, के दुख को भी जीतें।।ती.।।१३।।
नाथ ‘यशोधर’ के गुण गाकर, उसमें ही रम जाते।
इस जग में वे नित्य महोत्सव, आनंदित सुख पाते।।ती.।।१४।।
श्री ‘गौतम’ जिनराज आपका, नाम मात्र जो पाते।
नित्य निगोद इतर निगोद के, दु:खों से छुट जाते।।ती.।।१५।।
श्री ‘मुनिशुद्धि’ जिनेश्वर भक्ती, भव भव दुख हरणी है।
भव सागर से तरने हेतू, वही एक तरणी है।।ती.।।१६।।
नाथ ‘प्रबोधिक’ तुम प्रभाव से, मुनी ज्ञान धन धरते।
द्वादशांगमय द्रव्य-भावश्रुत, का अवगाहन करते।।ती.।।१७।।
‘सदानीक’ जिन आप मोह की, सेना मार भगाई।
नाम मंत्र भी प्रभो आपका, भविजन को सुखदाई।।ती.।।१८।।
श्री ‘चारित्रनाथ’ पद पंकज, का जो आश्रय लेते।
पंचम यथाख्यात चारित को, वे निश्चित पा लेते।।ती.।।१९।।
‘शतानंद’ प्रभु तुम वंदत ही, सज्जाती को पाते।
सद्गृहस्थ बन देशचरित धर, क्रमश: शिवपद पाते।।ती.।।२०।।
श्री ‘वेदार्थ’ जिनेश्वर प्रभु की, जो आराधन करते।
दीक्षा जैनेश्वरी प्राप्तकर, सुरपति का पद धरते।।ती.।।२१।।
‘सुधानीक’ प्रभु तुम भक्ती ही, चक्रवर्ति पद देती।
छह खंडों की प्रभुता देकर, सुख संपति भर देती।।ती.।।२२।।
श्री ‘ज्योतिर्मुख’ आप ज्योति का, कण भी यदि मिल जावे।
तो निश्चित ही तुम भाक्तिक जन, अर्हत्पदवी पावें।।ती.।।२३।।
श्री ‘सुरार्ध’ जिन आप चरण रज, जो मस्तक पर धरते।
वे निर्वाण परम लक्ष्मी पा, मोक्षमहल पग धरते।।ती.।।२४।।
तुम भक्ति अकेली, मुक्ति सहेली, समसुखमेली जो करते।
निज कर्मबंध अघ, खंड खंड तब, पुण्य पुंज सब वे भरते।।
भक्तिभाव से, शीश नमाके, तुम गुण गाके मैं ध्याऊँ।
वैवल्य ज्ञानमति, आत्मिक संगति, त्रिभुवन वंदित मैं पाऊँ।।२५।।
सर्व सात सौ बीस जिन, पंचकल्याणक ईश।
हो कल्याणक कल्पतरु, नमूँ नमूँ नत शीश।।२६।।
शंभु छंद
ये भरत और ऐरावत हैं, बस ढाईद्वीप तक पंच पंच।
इन मध्य आर्यखण्डों में ही, षट्काल परावर्तन प्रपंच।।
चौथे युग में चौबिस चौबिस, तीर्थंकर होते रहते हैं।
चौबीसी तीस भूत संप्रति, भावी से मुनिवर कहते हैं।।१।।
ऐसे अनंत चौबीसी भी, हो गर्इं अतीत काल में जो।
होंगी अनंत चौबीसी भी, आगे के भाविकाल में जो।।
तीसों चौबीसी का स्तोत्र, करके उनको शत वंदन है।
संपूर्ण अनंतानंत रूप, चौबीसी को भी वंदन है।।२।।
संपूर्ण विदेहों में जितने, तीर्थेश हुए औ होवेंगे।
हैं वर्तमान में भी जितने, निजकर्मकालिमा धोवेंगे।।
जो पंचकल्याणकयुत अथवा, दो तीन कल्याणक पाते हैं।
उन सब तीर्थंकर को नित प्रति, हम झुक-झुक शीश नवाते हैं।।३।।
जो भव्य तीस चौबीसी को, हर्षित हो वंदन करते हैं।
वे सर्व असाता को हरके, निजसुखमय साता भरते हैं।।
बहुविध सुख अनुभव कर इनकी, कोटी में भी आ सकते हैं।
फिर शाश्वत सुख को पाकर के, अपने में ही नित रमते हैं।।४।।
भूत भविष्यत् संप्रती, तीर्थंकर भगवान।
नमो भव्यजन भक्ति से, ‘ज्ञानमती’ सुखदान।।५।
गीता छंद
सन्मति प्रभू को नित नमूँ, शासन जिन्हों का आज है।
संपूर्ण विघ्नों का प्रणाशन, ही जिन्हों का काम है।।
उन धर्म संतति में हुए, श्री कुंदकुंदचार्य हैं।
जो हम सभी जन के लिए, बस एक ही आधार हैं।।१।।
श्री कुंदकुंदम्नाय में शुभ, गच्छ सरस्वति मान्य है।
उनमें प्रसिद्धी प्राप्त गण, सु बलात्कार प्रधान है।।
उस संतती माला के मणि, श्री शांतिसागर सूरिवर।
उन पट्ट के आचार्य गुरुवर, वीरसागर धुर्यधर।।२।।
उनसे लिए व्रत आर्यिका के, ‘ज्ञानमति’ मैं हो गई।
जिन शास्त्र के स्वाध्याय से, विद्या निधी कुछ मिल गई।।
श्री देशभूषण सूरि मेरे, क्षुल्लिका गुरु ख्यात हैं।
श्रुत की कृपा से ज्ञानधन, कुछ आज मेरे पास है।।३।।
तीर्थंकरों की परम भक्ती, प्रेरती मुझ को रही।
श्री तीस चौबीसी स्तोत्र, रचा गया जिससे सही।।
वीराब्द यह पच्चीस सौ चालिस जगत विख्यात है।
कार्तिक सुदी प्रतिपद तिथी नववर्ष जैनी मान्य है।।४।।
श्री हस्तिनापुर क्षेत्र में, पूर्ण स्तोत्र हुआ सही।
जो स्वपर के हित हेतु अतिशय, पुण्यकर महिमामयी।।
यावत् रहे जिनधर्म जग में, भव्यजन हित साधता।
तावत् रहें स्तोत्र गणिनी ज्ञानमती कृत सासता।।५।। ।।
श्रीतीसचौबीसीस्तोत्रं समाप्तम्।।