समाज के नाम स्वस्तिश्री स्वामी जी के कतिपय संदेश बिन्दु
स्वस्तिश्री स्वामी रवीन्द्रकीर्ति जी ने अपने सामाजिक जीवन के अनेक उतार-चढ़ाव एवं अनुभवों के आधार पर जो निष्कर्ष पाया, उस संदर्भ में भारत वर्ष की समस्त जैन समाज एवं राष्ट्रीय/क्षेत्रीय संस्थाओं से धर्मसंरक्षण एवं धर्मप्रभावना हेतु कतिपय संदेश बिन्दु प्राप्त करके हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं, जो निम्नानुसार हैं-
(१)तीर्थों के उचित विकास, रख-रखाव एवं प्रबंधन के लिए उस तीर्थ से संबंधित समस्त पदाधिकारीगण अपने समर्पित भावों के साथ निष्ठापूर्वक कर्तव्यों का पालन करें। अथवा किसी भी तीर्थ के संचालन हेतु ऐसे ही पदाधिकारियों का चयन किया जाये, जो अपने गृहकार्य के समतुल्य ही तीर्थ संचालन की जिम्मेदारियों का भी पूर्ण निर्वहन करें और वहाँ की प्रत्येक समस्याओं का प्रत्यक्ष समाधान करने का प्रयास करें।
(२)तीर्थों पर यात्रियों के आवागमन की संख्या अधिक बढ़ाने हेतु विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन करके समय-समय पर समाज को तीर्थ पर आने का निमित्त प्रदान करते रहें, जिससे तीर्थ का रख-रखाव (संरक्षण-संवर्धन) दान आदि के माध्यम से बना रहे और विकास की शृँखला चलती रहे।
(३)पंथवाद को नगण्यता की विचार कोटि में रखकर सदैव पंथवाद के विवाद से दूर रहने का प्रयास करें। साथ ही जिस तीर्थ पर जिस मान्यता/परम्परा से जो प्राचीनकालीन व्यवस्था चल रही है, उसमें कभी कोई फैरबदल करने का प्रयास न स्वयं करें और न अन्य को ही करने देवें। बल्कि उन प्रत्येक मंदिरों में चल रही परम्परा का एक शिलालेख अवश्य दीवार में लगावें।
(४)किसी भी तीर्थक्षेत्र के सफल संचालन हेतु उस तीर्थ की स्थानीय कमेटी में संगठन एवं सामंजस्य की स्थिति अत्यन्त महत्वपूर्ण होती है। अत: आपसी प्रेम और सौहार्द को बनाये रखने का प्रथम प्रयास करना चाहिए तथा समाज के किसी एक नि:स्वार्थ, निष्पक्ष तथा वरिष्ठ, प्रतिष्ठित व कर्तव्यनिष्ठ व्यक्तित्व के निर्देशों पर चलकर सबको संगठित रहने का प्रयास करना चाहिए। पद की गरिमा हेतु प्रत्येक पदाधिकारी को उसके स्वतंत्र अधिकार देकर उसका विशेष महत्व कायम रखने का प्रयास करना चाहिए। लेकिन समय-समय पर सामूहिक बैठकों के माध्यम से सभी के कार्यों की समीक्षा अवश्य किसी प्रमुख व्यक्तित्व के निर्देशन में होना चाहिए।
(५)विभिन्न तीर्थक्षेत्रों पर चल रहे किन्हीं भी विवादों के कोर्ट केस में यदि कहीं किसी प्रकार के समझौते की स्थिति बनती है, तो अवश्य ही परिस्थिति के अनुसार निर्णय लेने का प्रयास करना चाहिए।
(६)वर्तमान में जैन समाज का बाहुल्य अत्यन्त अल्प स्थिति में आ चुका है अत: इस समय हमारी जनसंख्या चिंता का विषय है। ऐसी स्थिति में समाज के प्रबुद्धजनों को समाज में जनसंख्या बढ़ोत्तरी का आह्वान खुलकर करना चाहिए। एक परिवार में अधिक बच्चे होने पर ही कोई धर्म की राह पर, कोई उच्च शिक्षा की राह पर, कोई समाज सेवा की राह पर, तो कोई राजनीति की राह पर चलने में समर्थ हो सकेगा और लम्बे समय के उपरांत जैन समाज का प्रभाव हर क्षेत्र में दिखाई देगा।
(७) विद्वानों को साहित्य लेखन की दिशा में आगम परख ज्ञान प्राप्त करके ही अपनी कलम विश्वास के साथ चलाने का प्रयास करना चाहिए। अन्यथा शोधात्मक अध्ययन के आधार पर लिखे गये धार्मिक आलेखों में कभी-कभी जानकारी के अभाव अथवा अज्ञानता के कारण बड़ी गलतियाँ होने का खतरा रहता है। ये गलतियाँ हमारी संस्कृति, इतिहास और भविष्य के लिए हानिकारक बन सकती हैं।