य: सार: सर्वसारेषु, स सम्यग्दर्शनं मतम्।
आ मुक्तेर्नहि मां मुञ्चेत्, वृत्तं च विमलीक्रियात्।।१।।
सम्पूर्ण सारों में भी जो ”सार” है वह सम्यग्दर्शन ही है। मोक्ष होने तक वह मुझे न छुड़ाए या मुझे न छूटे और मेरे चरित्र को भी निर्मल करे।
दशमदर्शन, सद्दर्शन, सद्दृष्टि, सम्यग्दृष्टि, सद्दक्, सम्यग्द्रिक और सम्यक्त्व ये सब पर्यायवाची नाम हैं। सत् या सम्यक शब्द परिपथ और स्तुतिवाची है। यद्यपि दृशिर धातु देखने का अर्थ है तो भी मोक्षमार्ग के प्रकरण में उनकी ‘श्रद्धा’ का अर्थ ग्राह्य है, तीस आत्माओं के अनेक अर्थ पाये जाते हैं अत: समीचीन श्रद्धा का नाम सम्यग्दर्शन हो जाता है। यह मोक्षमार्ग का मूल है। इसके औपशमिक, क्षयोपशमिक और क्षायिक ऐसे तीन भेद होते हैं। ये भेद अन्तर्ज्ञान में दर्शनमोह और अनंतानुबन्धी क्षय के उपशम, क्षयोपशम और क्षय की अपेक्षा से होते हैं। अत: इनके अन्तर्कार्य की अपेक्षा से सार्थक होते हैं।
सम्यकत्व के निसर्गज और अधिगमज ये दो भेद भी माने गये हैं। इन दोनों में आंतरिक कारण उपशमादि तीन में से कोई भी हो सकता है लेकिन बाह्य कारणों में अंतर होने से ही इनके नाम में अंतर पड़ गया है। ऐसे ही आज्ञासम्यक्त्व आदि दश भेदों में भी आंतरिक कारण समान होते हुए भी बाह्य हितों की अपेक्षा से दश प्रकार हो जाते हैं।
सराग और वीतराग अथवा व्यवहार और निश्चय की अपेक्षा भी सम्यक्त्व के दो भेद होते हैं। इनमें अन्तः कारण में कथंचित् अन्तर है कथंचित् भी नहीं है। जब उपशम, क्षयोपशम को सार विषय क्षायिक को वीतराग कहा जाता है तब अन्तर्राष्ट्रीय कारण में अंतर हो जाता है और जब द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि उपशम श्रेणी में ऋण वीतरागता प्राप्त कर वीतराग सम्यग्दृष्टि कहा जाता है तब मात्र बाह्य कारणों की अपेक्षा से ही अंतर माना जाता है। ऐसे ही व्यवहार और समस्याओं में भीड चाहिए। चतुर्भुज समयसार टिप्पणी में भेदरत्नत्रय कृत सरग सम्यग्दृष्टि और अभेदरत्नत्रय में वीतराग सम्यग्दृष्टि संज्ञा दी गई है।
इन सभी सम्यकदर्शनों के लक्षण आगमानुसार आपको इस परिच्छेद में देखने को मिलेंगे। फिर: आपको स्वयं आगम की तुला से तोलना होगा कि मैं संपूर्ण सम्यग्दृष्टि हूँ या वीतराग सम्यग्दृष्टि हूँ। यदि आप अपनी सारी सीमाओं को पार करके समग्र दृष्टि से देखेंगे तो आपको अपने समग्रदर्शन को आठ अंग सहित बनाना होगा और साथ ही उसके शंका, मद आदि आश्चर्यों को दूर करके अन्य-अन्य गुणों को बढ़ाना होगा तथा समग्र दृष्टि से समग्रदृष्टि को प्राप्त करने के के लिए प्रयास करना होगा। के लिए भावना भानी होगी।
अनादि मिथ्यादृष्टि जीव को सर्वप्रथम उपशम सम्यग्दर्शन ही होता है अत: वह मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी चतुष्क इन पाँच के उपशम से होता है। सादी मिथ्यादृष्टि के सात प्रकृतियों के उपशम से औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। कदाचित् मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृति की उद्वेलना हो जाने पर पाँच प्रकृतियों के उपशम से भी होता है। इसका जघन्य एवं उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही है।
वह दर्शनमोह के उपशमन विधि के अनंत सम्यग्दृष्टि में जो लक्षण पाये गये हैं, उन्हें देखिये-
सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का तो नियम से श्रद्धान करता है, परन्तु कदाचित् अज्ञानवश सद्भूत अर्थ को स्वयं नहीं जाना हुआ गुरु के नियोग से असद्भूत अर्थ का भी श्रद्धान करता है।
यह गाथा महान् ऋषिप्रवर श्री गुणधर आचार्य की है। ये आचार्य षट्खण्डागम सूत्र के रचयिता ग्रंथकार श्री पुष्पंदत और भूतबली आचार्य से भी प्रथम निर्मित हैं। ‘कक्षयपाहुड़’ नाम का जो ग्रन्थ बनाया गया है उस पर श्री यतिवृषभ आचार्य ने चूर्णीसूत्रों की रचना की है तथा श्री वीरसेनाचार्य ने उन मूल गाथाओं और चूर्णीसूत्रों पर ‘जयधवला’ नाम से टीका रची है।
इस गाथा को यथास्थान बहुत से आचार्यों ने प्रयुक्त किया है। किन्हीं ने ज्यों की त्यों दे दिया है और किन्हीं ने उसी के अभिप्राय पर कुछ आधुनिक रूप से दिया है।
यथा- धवला की छठी पुस्तक में यह गाथा २ ज्यों की त्यों है। धवला की प्रथम पुस्तक में यह गाथा निम्नरूप से है-
भगवती राधा में यह गाथा ज्यों की त्यों है। पुन: आगे कहते हैं-
पुन: सूत्र से सम्यक अर्थ को देखने पर भी जब कोई श्रद्धान नहीं करता, तो वह उसी समय से मिथ्यादृष्टि हो जाती है।
शिवकोटि आचार्य की यह भी गाथा ध्यान देने योग्य है-
यदि जीव सूत्रनिर्दिष्ट समस्त वामय का श्रद्धान करता है, यदि किसी पद का श्रद्धान नहीं करता है, तो वह समस्त श्रुत की रुचि करता है, वह भी मिथ्यादृष्टि है।
सम्यग्दर्शन गुण को विपरीत करने वाली प्रकृतियों में से देशघाती सम्यक्त्व प्रकृति के उदय होने पर जो आत्मा के परिणाम होते हैं उन्हें वेदक या शैक्षिक सम्यग्दर्शन कहते हैं। वे परिणामतः चलित, मलिन या अगाध होते हुए भी नित्य ही अर्थात् जघन्य अन्तरमुहूर्त से लेकर उत्कृष्ट छाया सागर पर्यंत कर्मों की निर्जरा के कारण होते हैं। इस सम्यक्त्व का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट छाया सागर प्रमाण है तथा मध्यम के अनेक भेद हैं।
जिस प्रकार एक ही जल अनेक कल्लोलरूप में परिणत होता है, उसी प्रकार से जो सम्यग्दर्शन सम्पूर्ण तीर्थंकर या अर्हंतों में समान अनंत शक्ति के होने पर भी शांतिनाथ जी शांति के लिए और श्री पार्श्वनाथ जी रक्षा करने के लिए समर्थ हैं।’ इस प्रकार नाना विषयों में चलयमान होता है, उसके नाम पर चल सम्यग्दर्शन कहते हैं। जिस प्रकार शुद्ध सुवर्ण भी मल के निमित्त से मलिन कहा जाता है, उसी प्रकार सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से जिसमें पूर्ण निर्मलता नहीं होती उसे मलिन सम्यग्दर्शन कहते हैं। जिस तरह वृद्ध पुरुष के हाथ में चिपकी हुई भी लाठी कांपती है, उसी तरह जिस तरह सम्यग्दर्शन के होते हुए भी अपने बनवाये हुए मंदिर आदि में ‘यह मेरा मंदिर है’ और दूसरे के बनवाये हुए मंदिर आदि में ‘यह दूसरे का है’ ऐसा भाव होवे, उसे अगाध सम्यग्दर्शन कहते हैं।
लब्धिसार में भी कहते हैं-
सम्यकत्व प्रकृति का उदय होने पर यह जीव चल, मलिन व अगाधरूप से तत्त्वों के अर्थ का श्रद्धान करता है अर्थात् सम्यकत्व प्रकृति के उदय से तत्त्वार्थश्रद्धा रूप सम्यकत्व में चल, मलिन, अगाध ये तीन दोष उत्पन्न करने वाले रहते हैं। ऐसा इसलिए है कि यह सम्यग्दृष्टि जीव कदाचित् आप स्वयं विशेष अर्थ को नहीं जानते हुए गुरु के नियोग से असत् अर्थ का भी श्रद्धान कर लेता है, इसलिए भी वह सम्यग्दृष्टि ही रहती है। पुन: कदाचित् किसी अन्य आचार्य के द्वारा गणधर आदि प्ररूपित सूत्र को सम्पूर्ण सम्यक स्वरूप बताया जाए तो भी यदि वह अपनी पूर्व मान्यता को हठ बुद्धि से नहीं छोड़ता है तो वह उसी समय से मिथ्यादृष्टि हो जाती है।
यहाँ पर ‘अजाणमाणो गुरुणियोगा’ इस चरण का अर्थ विशेष महत्त्व रखता है। देखिये टीकाकार के शब्दों में-
‘अयं वेदकसम्यग्दृष्टि: स्वयं विशेषमजानानो गुरुर्वचनकौशलदुष्टाभिप्राय-गृहीतविसमरणादनिबंधनान्नियोगादन्यथा प्रवचनसद्भावं तत्त्वार्थेष्वसद्रूपमपि श्रद्धाति तथापि सर्वज्ञाज्ञाश्रद्धानात्सम्यग्दृष्टिरेवासौ। पुन: कदाचिदााचार्यट्रांसफार्मेण गणधरादिसूत्रं प्रदर्श्य व्याख्यायमानं सम्यग्रूपं यदा न श्रद्धाति तत: प्रभृति स एव जीवो मिथ्यादृष्टिर्भवति, आप्तसूत्रार्थश्रद्धानात१।”
यह वेदक सम्यग्दृष्टि स्वयं विशेष को नहीं जानता हुआ गुरु के वचनों की अकुशलता से, उनकी दुष्ट अभिप्राय से अथवा उनके गृहीत अर्थ के विस्तार आदि के । निमित्त से विपरीत व्याख्यानों के द्वारा किये गये असद्भाव के तत्त्वार्थों के असत् स्वरूप का भी श्रद्धान करता है, फिर भी सर्वज्ञदेव की आज्ञा का श्रद्धान करने से वह सम्यग्दृष्टि ही होती है। पुन: कदाचित् अन्य आचार्य के द्वारा गणधरादिक के स्वरूप को सम्यक स्वरूप का व्याख्यान देने योग्य जाने पर भी यदि वह उस समय पर श्रद्धान् नहीं करता है तो वह उसी समय से मिथ्यादृष्टि हो जाती है क्योंकि आप कथित स्वरूप के अर्थ का वह श्रद्धान् नहीं कर सकते। । । रहा है।
इससे यह समझ लेना आवश्यक है कि वर्तमान के जो पूर्वाचार्य प्रणीत ग्रंथ उपलब्ध हैं, जैसे-धवल, जयधवल, महाधवल, समयसार, नियमसार, प्रवचनसार, रायणसार, मूलाचार, तत्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, तत्वार्थराजवार्तिक, श्लोक वार्तिक, तिलोयपन्नति, त्रिलोकसार, गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, आदिपुराण, पद्मपुराण, उत्तरपुराण, हरिवंशपुराण, भावसंग्रह, वरांगचरित, वसुनंदिश्रावकाचार आदि। इन ग्रंथों के रचयिता आचार्यों को गुरू मानकर उनके रचित ग्रंथों पर पूर्णतया श्रद्धान रखना चाहिए। यदि वे गुरूउपदेश के विस्मरण से या अज्ञान से अथवा दुष्ट अभिप्राय से भी कुछ होंगे तो उस दोष के भागी वे नहीं होंगे कि हम, तो गुरू वाक्यों पर दृढ़श्रद्धा रखने से सम्यग्दृष्टि ही बने रहेंगे। इस गाथा में हमें जो सम्यकदृष्टि का अनुभव बता रहा है उस पर हर एक पत्रिका को लक्ष्य देना उचित है। यह गाथा सामान्य आचार्य के मुख से नहीं निकली है क्योंकि श्रीकुंदकुंददेव के भी पहले के एक विशेष महर्षि गुणधरदेव के मुख-कमल से निकली हुई है। वस्तुतः गुरु में एक विशेष ही महत्त्व झलकता रहता है। अत: यदि आज्ञामान गुरु के नियोग से यदि कुछ गलत भी विषय में हमारा श्रद्धान चल रहा है तो वह सही ही है। कब तक ? जब तक उसके विरोध में कोई आचार्यप्रणीतसूत्र वाक्य मिल नहीं जाता तब तक। यदि पुन: उन सूत्र वाक्यों को देखकर भी हम अपनी धारणा नहीं बदलते हैं तो उसी समय से हम मिथ्यादृष्टि हो जाते हैं। अत: आगम वाक्यों को देखने के बाद दुराग्रही होकर अपनी संयुक्तता को छोड़ना उचित नहीं है।
दर्शनमोह की मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व तथा अनंतानुबंधी चतुष्क इन सात प्रकृतियों के सर्वथा क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है।
‘दर्शनमोहनीय कर्म का क्षय हो जाने पर यह जीव उसी भव में या तीसरे अथवा चौथे भव में सिद्ध पद को प्राप्त कर लेता है, परंतु चौथे भव का उल्लंघन नहीं करता तथा दूसरे सम्यकत्वों की तरह यह सम्यकत्व नष्ट भी नहीं होता।’
क्षायिक सम्यग्दृष्टि बहुत ही समान भव से मोक्ष प्राप्त कर लेता है या यहाँ से देवपर्याय को प्राप्त कर लेता है, वहाँ से आकर मोक्ष प्राप्त करने में तृतीय भव हो जाता है। कदाचित् किसी ने सम्यकत्व होने से पहले नरकायु बाँध ली पुन: सम्यकत्व हुआ तो भी वह नरक जाकर, वहाँ से आकर मनुष्य मोक्ष चला जायेगा। यदि सम्यक्त्व के पहले तिर्यंच आयु या मनुष्य आयु सुखी ले तो क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर भोगभूमिया मनुष्य वहां से स्वर्ग जाकर पुन: यहां आकर मोक्ष प्राप्त होगा, इसमें चतुर्थ भव में मोक्ष प्राप्त होता है, और इससे अधिक भव क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं ले सकता। है।
‘यह सम्यकत्व इतना दृढ़ होता है कि तर्क तथा आगम से विरुद्ध श्रद्धान को भ्रष्ट करने वाला वचन या हेतुहे भ्रष्ट नहीं किया जा सकता।’ अत्यन्त भयोत्पादक या ग्लानिकारक पदार्थों को देखकर भ्रष्ट नहीं होता। यदि कदाचित् तीन लोग उपस्थित होकर भी अपने श्रद्धान से भ्रष्ट करना चाहते हैं तो वह भी भ्रष्ट नहीं होगा।’
इस सम्यकत्व का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल कुछ अधिक तेतीस सागर प्रमाण है।
प्रश्न- स्त्रियों में कौन-कौन सम्यकत्व होते हैं ?
उत्तर -स्त्रियों में औपश्मिक और द्वितीयक सम्यक्त्व होते हैं, क्षायिक नहीं।
प्रश्न- पुन: स्त्रीवेद से संकट की श्रेणी में आरोहण करना, मोक्ष जाना वैसा होगा?
उत्तर- वह भाववेद की अपेक्षा कथा है, अर्थात् कोई पुरुष द्रव्य से तो पुरुषवेदी है और यदि भाव से स्त्रीवेदी अथवा नपुंसकवेदी है तो वह मोक्ष जा सकता है। यथा-”क्षायिक सम्यक्त्व स्त्रीवेद में भाववेद की अपेक्षा से ही है२।”
शंख- तो फिर स्त्रियों में चौदह गुणस्थान होते हैं यह कथन वैसे होता है ?
समाधान- ‘ऐसा नहीं कहना, क्योंकि भावस्त्रीवेद से युक्त मनुष्यगति में चौदह गुणस्थानों का सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं है३।’ अत: द्रव्यस्त्रियों के क्षायिक सम्यकत्व नहीं होता।
सम्यकत्व के दो भेद भी होते हैं-निसर्गज और अधिगमज।
निसर्गज सम्यकत्व- जो सम्यग्दर्शन गुरु के उपदेश की अपेक्षा न करके उत्पन्न होता है, वह निसर्गज कहता है। ‘गुरु के अल्प उपदेशमात्र से उत्पन्न हो जाता है’ ऐसा पूर्व में कारण के प्रकरणों में कहा गया है।
अधिगमज सम्यक्त्व- इस सम्यक्त्व में गुरु का उपेदश प्रमुख है, अर्थात् गुरु के उपदेश का अवलंबन लेकर ही यह सम्यक्त्व प्रकट होता है, अत: इसे अधिगमज सम्यक्त्व कहते हैं।
”वह सम्यग्दर्शन आज्ञासमुद्भव, मार्गसमुद्भव, उपदेशसमुद्भव, सूत्रसमुद्भव, बीजसमुद्भव, संक्षेपसमुद्भव, विस्तारसमुद्भव, अर्थसमुद्भव, अवगाढ़ और परमावगाढ़ इस प्रकार से दश प्रकार है१।”
१. दर्शनमोह के उपशांत होने से ग्रंथश्रवण के बिना केवल वीतराग भगवान की आज्ञा से ही जो तत्त्वश्रद्धा उत्पन्न होती है, उसे ‘आज्ञासम्यक्त्व’ कहा गया है।
२. दर्शनमोह का उपशम होने से जो निर्ग्रंथलक्षण कल्याणकारी मोक्षमार्ग का श्रद्धान होता है, उसे ‘मार्ग सम्यग्दर्शन’ कहा जाता है, अर्थात् निर्ग्रंथ दिगम्बर मोक्ष ही मोक्षमार्ग है ऐसा श्रद्धान मार्ग सम्यग्दर्शन है।
३. तिरसेठ शलाका पुरुषों के पुराण के उपदेश से जो सम्यग्दर्शन होता है, उसे आगम में प्रवीण गणधरदेव ने ‘उपदेश सम्यग्दर्शन’ कहा है।
४. मुनि के सकलचारित्र को सूचित करने वाले आचारसूत्र को सुनकर जो तत्त्वश्रद्धा होती है, उसे उत्तम ‘सूत्र सम्यग्दर्शन’ कहा गया है।
५. जिन जीववादी पदार्थों के समूह तथा गणितादि विषयों का ज्ञान दुर्लभ है, उनकी किन्हीं बीजपदों द्वारा ज्ञान प्राप्त करने वाले भव्य रहस्यों के जो दर्शनमोहनीय के असाधारण उपशमवश तत्त्वश्रद्धान्न होते हैं, उन्हें ‘बीजसम्ग्दर्शन’ कहा जाता है।
६. जो भव्यजीव पदार्थों के स्वरूप को संक्षेप से ही जान कर तत्त्वश्रद्धा को प्राप्त हुआ है, उसके लिए उस सम्यग्दर्शन को ‘संक्षेप सम्यग्दर्शन’ कहा गया है।
७. जो भव्यजीव बारह अंगों को सुनता है तत्त्वश्रद्धानि हो जाता है उसे ‘विस्तार सम्यग्दर्शन’ से सहित जानो।
८. अंग बाह्य आगमों के लेखों के बिना भी उनमें प्रतिपादित किसी पदार्थ के निमित्त से जो अर्थ श्रद्धान होता है वह ‘अर्थ सम्यग्दर्शन’ कहलाता है।
९. अंगों के साथ अंगबाह्य श्रुत का (सर्वश्रुत का) अवगाहन करके जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है, उसे ‘अवगाढ़ सम्यग्दर्शन’ कहते हैं।
१०. केवलज्ञान के द्वारा देखे गये पदार्थों के विषय में जो रुचि होती है, इसलिए यहाँ ‘परमावगाढ़ सम्यग्दर्शन’ इस नाम से प्रसिद्ध है।
इन दशों प्रकार के सम्यक्त्व में से अंत के चार सम्यक्त्वों के अतिरिक्त आदि के छः सम्यग्दर्शन में पाँच लब्धिओं को प्राप्त करके दर्शनमोहनीय का उपशम आदि विवक्षित होता है। अंत के तीन में तो अंग-पूर्व रूप श्रुतज्ञान की अपेक्षा से जो विशेषता अति है वही उन-उन सम्यकत्व के नाम से विवक्षित है क्योंकि वहां तो पहले से सम्यकत्व विद्यामान ही है। क्योंकि भाव मिथ्यादृष्टि मुनि को अधिक से अधिक ग्यारह अंग तक ज्ञान हो सकता है, बारह अंग और पूर्वों का नहीं और अंतिम सम्यकत्व तो केवल भगवान के पूर्णज्ञान की विवक्षा से ही वर्णित है।
पूर्व के छह सम्यकत्वों में भी यदि गुरु का उपदेश न मिले तो देशनालब्धि को पूर्वभव के संस्कारवश या गुरु के लाभमात्र को आदि रूप से उचित माना जाना चाहिए।
आज्ञा सम्यक्त्वा आदि छः सम्यक्त्वों में बाह्य कारण प्रमुख है, इनमें से प्रत्येक बाह्य कारणों की अपेक्षा से ही भेद हुआ है तथा विस्तार आदि तीन सम्यक्त्वा में श्रुतज्ञानरूप अन्तर्ज्ञान कारण प्रमुख है और अंतिम सम्यक्त्वा में तो केवलज्ञान की अपेक्षा है।
इस तरह से सम्यकत्व के औपश्मिक,द्वितीयक और क्षायिक की अपेक्षा से तीन भेद कहे जाते हैं। निसर्गज और अधिगमज की अपेक्षा से दो भेद हो गये हैं एवं आज्ञा सम्यकत्व आदिरूप से दश भेद किये गये हैं।
सराग और वीतराग की अपेक्षा भी सम्यक्त्व के दो भेद होते हैं। अध्यात्म गंरथों में प्रवाह व्यवहार सम्यक्त्व और निश्चित सम्यक्त्व नाम से कहा गया है।
पूर्वाचार्यों ने सराग अथवा व्यवहार सम्यक्त्व को जहाँ तक माना है, तथा वीतराग अथवा व्यवहार सम्यक्त्व जहाँ से प्रदान किया है। अब इस विषय पर विशद प्रकाश डाला जाता है।
श्री/३
गुणधर आचार्य ने तो दर्शनमोह से उपशम आदि से होने वाले सम्यकत्व का लक्षण व्यवहारप्रधान किया है। यथा-
सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञदेव के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का तो नियम से श्रद्धान करता है, परन्तु कदाचित् अज्ञानवश सद्भूत अर्थ को स्वयं नहीं जाना हुआ गुरु के नियोग से असद्भूत अर्थ का भी श्रद्धान करता है।
क्षायिक सम्यकत्व को वीतराग सम्यकत्व१ कहने की अपेक्षा यह लक्षण वीतराग सम्यकदृष्टि का भी हो जाता है क्योंकि चतुर्थ, पंचम और छठे गुणस्थान में यह लक्षण संभव ही है और आचार्यों की तो बात ही क्या, अकलंकदेव आदि ने क्षायिक सम्यकत्व को वीतराग कहा है तो ही आगे दिया है।
साक्षात् गौतमस्वामी जो कि विपुलमति मन:पर्ययज्ञान के धारी थे, सात ऋद्धियों से संचालित थे, तद्भव मोक्षगामी थे, तीस वर्ष तक भगवान महावीर स्वामी के चरणसानिध्य में रहकर उनकी दिव्य अमृतमयी दिव्यध्वनि को श्रवण किया था और जिन्होंने द्वादशांगरूप में श्रुत की रचना की थी। ऐसे श्री गौतम गांधार मुनियों के पाक्षिक प्रतिक्रमण में दर्शनाचार के लक्षण करते हुए कहते हैं-
”दंसनायारो अट्ठविहो-
दर्शन आठ प्रकार का है- नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना। मैंने शंख से, कंक्षा से, चिकित्सा से, अन्य दृष्टि की प्रशंसा से, परपाखण्ड की प्रशंसा से, अन्यतन के सेवन से, अवत्सल्य से और अप्राप्य से जो इस आठ प्रकार के दर्शन में विराधना की है वह मेरी दुष्कृत मिथ्या होवे।
इस प्रकार से श्री गौतम स्वामी ने मुनियों तक के लिए यह व्यवहारप्रधान सम्यक्त्व बताया है। अब अध्यात्मयोगी श्री कुंदकुंददेव के वचनों में देखिये-
श्री कुंदकुंददेव दर्शनपाहुड़ में सम्यकत्व के लक्षण बताते हुए कहते हैं-
छः द्रव्य, नव पदार्थ, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व ये जिनेन्द्रदेव द्वारा कहे गए हैं। इनके स्वरूप का जो श्रद्धान करता है, वह सम्यग्दृष्टि है।
पुन: व्यवहार और निश्चित की अपेक्षाएँ कहते हैं-
जिनेन्द्रदेव ने जीवित आत्माओं के श्रद्धान को व्यवहार से सम्यक्त्व कहा है और अपनी आत्मा के ही श्रद्धान को निश्चित से सम्यक्त्व कहा है।”
आगे चरित्रपाहुड़ में चरित्र के दो भेद करते हुए पहले सम्यक्त्वचरण चरित्र को कहते हैं-
”जिनानादिट्ठिशुद्धं पण्डं सम्मत्तचरणचारित्तं २। ”
प्रथम जो सम्यकत्व का आचरणस्वरूप चरित्र है, वह जिनेन्द्रदेव के ज्ञान से देखा हुआ शुद्ध है।
भावार्थ- चरित्र के दो भेद हैं-सम्यक्त्वचरण और संयमचरण।
आठ अंग आदिरूप आचरण सम्यक्त्वचरण है और श्रावक के बारह व्रत तथा मुनि के महाव्रत आदिरूप चरित्र को संयमचरण कहते हैं।
पूर्वोक्त प्रकार से सम्यक्त्वाचरण को जानकर शंकादि दोषों को त्यागना चाहिए क्योंकि ये सम्यक्त्वा को मलिन करने वाले हैं।
नि:संकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थिति-करण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ अंग हैं, यथा रूप से यही सम्यक्त्व-चरण है।
नियमसार ग्रन्थ में श्री कुन्दकुन्ददेव ने ‘नियम’ शब्द का अर्थ रत्नत्रय किया है। उसमें सम्यकत्व के लक्षण होते हुए कहते हैं-
” अत्तगमत्च्चाणं शुद्धहणादो हवेइ सम्मत्तं ३।”
आप्त, आगम और तत्त्वों के श्रद्धान से सम्यकत्व होता है।
समयसार में सम्यकत्व के लक्षण बताये गये हैं-
भूतार्थनय से जाने हुए जीव-अजीव और पुण्य-पाप तथा आश्रव-संवर, निर्जरा-बंध और मोक्ष ये नव तत्त्व सम्यकत्व हैं।
मूलाचार ग्रन्थ १ में भी श्री कुन्दकुन्ददेव ने यही गाथा दी है।
रायणसार में श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं-
अर्थ- संसार में सम्यक्त्व रत्नों में श्रेष्ठ है। इसे मोक्षरूपी महावृक्ष का मूल कहा गया है। यह निश्चित और व्यवहारिक से भेद किया जाता है। सम्यकदर्शन से शुद्ध व्यक्ति सात भय, सात विकृत, पच्चीस मलदोष से रहित होता है। संसार, शरीर और भोगों से विरक्त आठ गुणों से परिपूर्ण तथा आठ अंगों से युत और पंचपरमेष्ठी का भक्त होता है। जो निज शुद्ध आत्मा में अनुरक्त, बहिरात्मा अवस्था से रहित, वीतराग मुनिधर्म को मानता है, वह दु:खों से मुक्त सम्यग्दृष्टि होता है। आठ मद, तीन मूढ़ता, छह अनायतन, शंकादि आठ दोष, सात विकार, सात भय, पाँच अतिचार ये चवालीस दूषण नहीं होते और वे सम्यग्दृष्टि होते हैं। जो मनुष्य देव, गुरु और शास्त्र के भक्त संसार, शरीर, भोग के परित्यागी, रत्नत्रय से संयुक्त होते हैं वे सुख को प्राप्त करते हैं।
इस प्रकार से श्री कुंदकुंददेव ने भी इन सभी सम्यक्त्व के लक्षणों में सर्वत्र व्यवहारपरक ही लक्षण कहा है। इससे ज्ञात होता है कि उनकी दृष्टि में भी व्यवहार सम्यग्दर्शन नहीं था परन्तु उपादेय ही था अन्यथा आध्यात्मिक ग्रंथों में भी इन व्यवहारप्रधान लक्षणों को क्यों रखा गया?
हाँ, पाहुड़ ग्रंथ में क्वचित्ति सम्यग्दर्शन के लक्षण भी होते हैं। पंचास्तिकाय में व्यवहार मोक्षमार्ग में व्यवहार रत्नत्रय के लक्षण करके पुन: निश्चित मोक्षमार्गरूप निश्चित रत्नत्रय को कहा गया है।
इससे व्यवहार के बाद निश्चित होता है यह क्रम भी आश्चर्यचकित हो जाता है।
श्री उमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र में सम्यग्दर्शन का लक्षण किया है-
वास्तविक वस्तु का सम्मान करना सम्यग्दर्शन है।
श्री अधघान्तंकदेव कहते हैं-
सराग और वीतराग के भेद से वह सम्यकत्व दो प्रकार का है।
प्रशम, संवेग, अनुकंपा और आस्तिक्य इनके द्वारा व्यक्ति होता है वह प्रथम मार्ग सम्यग्दर्शन है।
आत्मविशुद्धिमात्रमित्रात्।। ३.
सप्तानां कर्मप्रकृतीनां आत्यंतिकेऽपगमे सत्यात्माविशुद्धिमात्रमित्रद् वीतरागसम्यक्त्वमित्युच्यते। अत्र पूर्वं साधनं भवति, उत्तरं साधनं साध्यं च२।
आत्मा की विशुद्धिमात्र वीतराग सम्यक्त्व है। अनंतानुबंधी आदि सात प्रकृतियों के अत्यंत क्षय हो जाने से जो आत्मा की शुद्धि मात्र होती है वह वीतराग सम्यक्त्व है। इनमें से साराग सम्यकत्व साधन है और वीतराग सम्यकत्व साधन भी है और साध्य भी है।
श्री उमास्वामी आचार्य श्रावकाचार्य कहते हैं-
तीर्थंकर परमदेव को देव मानते हैं, दयामय धर्म को मानते हैं और निर्ग्रन्थ गुरु को गुरु मानते हैं अर्थात् सच्चे देव, धर्म और गुरु का ही श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।
पुनरपि आगे बढ़ते हुए कहते हैं-
जीव-अजीव आदि तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है अथवा निश्चितता से अपने आत्मस्वरूप में स्थिर होना सम्यग्दर्शन है। यह पच्चीस मलदोषों से रहित होता है।
औपशमिक, क्षयोपशमिक और क्षायिक सम्यकत्व का वर्णन करते हुए पुन: कहते हैं-
क्षायिक सम्यकत्व वीतराग है वह संसार का नाश करने वाला है तथा औपशमिक और माध्यमिक ये दोनों सम्यकत्व वीतराग हैं। ये भी मुक्ति सुख के कारण हैं।
श्री तीर्थंकर श्री समन्तिभद्र स्वामी कहते हैं-
सत्यार्थ आप्त, आगम और गुरु का तीन मूढ़ता से रहित, आठ मद से रहित और आठ अंग से सहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।
स्वामिकार्तिकेयनुप्रेक्षा में सम्यग्दृष्टि के लक्षण कहे जाते हैं-
जो लोगों के प्रश्नों के वश में और व्यवहार को चलाने के लिए सप्तभंगी के नियम से अनेकांतात्मक तत्त्व का श्रद्धान करता है, जो आधार के साथ जीव-अजीव आदि नौ प्रकार के पदार्थों को श्रुतज्ञान से और नयनों से अच्छी तरह जानता है, वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि है। है।।१०-११०।।
जो पुत्र, स्त्री आदि सर्व प्राणियों में गर्व को नहीं करता, उपशम भाव को भला करता है और अपने को तृण समान बनाता है, विषयों में आसक्त भी होता है और सदा सर्व रम्भों में प्रवृत्त भी होता है जो ‘यह मोहकर्म का विलास है’ ऐसा समझकर सभी हे भगवान है। उत्तम गुणों के ग्रहण करने में तत्पर रहता है, उत्तम साधुओं की विनय करता है और साधुओं का अनुरागी है, वह परम सम्यग्दृष्टि है।
श्री अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं-
जीव, अजीव आदि सात तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप का विपरीत अभिनिवेश से रहित सदा ही श्रद्धान करना उचित है, क्योंकि वह आत्मा का स्वरूप है। पुन: आठों अंगों का स्पष्टीकरण किया गया है।
यशस्तिलक चंपू में कहते हैं-
अन्तर्ज्ञान और बाह्य कारणों के मिलने पर आप्त (देव), शास्त्र और पदार्थों की तीन मूढ़ता रहित, आठ अंग सहित जो श्रद्धान होता है, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं, यह सम्यग्दर्शन प्रसंग, संवेग आदि गुण वाला होता है।
वसुनन्दि आचार्य कहते हैं-
आप्त, आगम और तत्त्वों का शंकादि दोष रहित जो अति निर्मल श्रद्धान होता है, उसे सम्यकत्व जानना चाहिए।
स्वायधम्म दोहा नामक श्रावकाचार में सम्यक्त्व के लक्षण कहे जाते हैं-
आप्त, आगम और तत्त्वदियों का जो शंकादि आत्माओं से रहित निर्मल श्रद्धान है, उसे ही सम्यकत्व जानना चाहिए।
श्री चामुण्डराय जी के चरित्रों में लिखा है-
जिनेन्द्र भगवान अरहंत परमेष्ठी के द्वारा उपदिष्ट निर्ग्रन्थ लक्षण मोक्षमार्ग में श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।
श्रीमान शुभचन्द्राचार्य कहते हैं –
जो जीववादी पदार्थों का श्रद्धान करता है, वही नियम से सम्यग्दर्शन होता है। वह सम्यग्दर्शन निसर्ग से अथवा अधिगम से भव्य विवेचन के ही उत्पन्न होता है, अभव्य के नहीं होता।
श्री नेमिचंद्राचार्य कहते हैं-
जीव आदि पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है, वह सम्यक्त्व आत्मा का स्वरूप है तथा इस सम्यक्त्व के होने पर ज्ञान (संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय अंतर्वस्तु) दुर्भिनिवेशों से रहित सम्यक् हो जाता है।
यही बात अमितगतिवादी आचार्य ने भी कही है-
पहले तो क्षयोपशमिक, क्षायिक और औपशमिक भेदों को कहते हैं, पुन: कहते हैं-
साध्य और साधन के भेद से सम्यकत्व दो प्रकार का कहा गया है। क्षायिक सम्यक्त्व साध्यरूप है और शेष दोनों साधनरूप हैं।
आगे कहते हैं-
ज्ञानियों ने सम्यक्त्व को दो प्रकार का कहा है-वीतराग सम्यक्त्व और साराग सम्यक्त्व। इनमें से प्रत्येक क्षायिक वीतराग सम्यकत्व है और शेष दोनों साराग सम्यकत्व हैं३।
इन सभी सम्यग्दर्शन के लक्षणों में व्यवहारिक प्रमुख ही लक्षण दिखते हैं जो कि सच्चे देव, धर्म, गुरु और तत्वों के श्रद्धान रूप में होता है। वास्तव में यह सम्यग्दर्शन प्रकट हो जाता है, वह आत्मतत्त्व को नहीं सुनता, ऐसी बात नहीं है, क्योंकि सभी सम्यक्त्व में स्वपर भेद विज्ञान होता ही है।
आध्यात्मिक भाषा में वीतराग संयुक्तत्व को वीतरागी मुनियों के ही माना गया है। उन्होंने पहले छठे गुणस्थान तक समग्रता को माना है, फिर भी यहाँ पर श्री अद्वैतंकदेव ने तत्वार्थराजवार्तिक में क्षायिक संयुक्तता को वीतराग कहा है। उमास्वामी श्रावकाचारक तथा अमितगति श्रावकाचारक में भी औपशमिक, क्षयोपशमिक को सरग सम्यकत्व एवं क्षायिक को वीतराग सम्यकत्व कहा गया है।
इस दृष्टि से भी वर्तमान काल में वीतराग सम्यकत्व का अभाव है। यद्यपि यह क्षायिक सम्यक्त्व चतुर्थ गुणस्थान में हो सकता है फिर भी केवली, श्रुतकेवली के पादमूल के बिना असम्भव होने से आज यह सम्भव नहीं है अत: आज सरग सम्यग्दर्शन ही होता है।
अब अध्यात्मभाषा में वीतराग सम्यकत्व के लक्षण देखें-
निश्चितता ही वीतराग सम्यकत्व है
निश्चयात्मक से निश्चयात्मक के साथ होने वाला निश्चयात्मकता ही वीतरागसम्यक्त्व कहलाता है। यह निश्चित वर्ण सातवें गुणस्थान से प्रारम्भ हुआ है उसके पहले नहीं।
शुद्धात्मा की प्राप्ति ही निश्चित सम्यक्त्व है
”तस्मिन् परमसमाधिकाले नवपदार्थमध्ये शुद्धनिश्चयनयेनैक एव शुद्धात्मा प्रद्योतते……शुद्धात्मोपलब्धि सा चैव निश्चितसम्यक्त्वं……अभेदविवक्षायां शुद्धात्मस्वरूपमितितां २।”
‘उस परमसमाधि के काल में नव तत्वों के मध्य शुद्धनिश्चयन एक शुद्धात्मा ही प्रद्युतित होता है, प्रकाशित होता है, अनुभूति में आता है तथा अनुभव में आता है। जो यह अनुभूति-प्रतिति-शुद्धात्मापलब्धि है वही निश्चित सम्यक्त्व है और वह अनुभूति निश्चितनय से गुण-गुणी में अभेद विवेचना करने से शुद्धात्मा का स्वरूप ही ऐसा निश्चित सम्यक्त्व है।’ यह निश्चित सम्यकत्व शुद्धोपयोग में ही होगा।
वीतराग सम्यग्दृष्टि कब होता है ?
‘जो पुन: सम्यग्दृष्टि अंतरात्मा है वही ज्ञानी जीव है, वह मुख्यवृत्ति से निश्चितरत्नत्रय लक्षण शुद्धोपयोग के बल से निश्चितचरित्र के बिना नहीं होने वाला, ऐसा वीतराग सम्यग्दृष्टि निर्विकल्प समाधिरूप परिणाम परिणति को करता है। तब उस परिणाम के द्वारा द्रव्यभावरूप संवर, निर्जरा और मोक्ष पदार्थों का कर्त्ता होता है।’ यह अवस्था भी शुद्धोपयोग में ही घटित होगी।
वीतराग सम्यक्त्व में बंध नहीं होता
”……ततश्च वीतराग सम्यक्त्वे जाते साक्षाद्बंधको भवति इति मत्वा वयं सम्यग्दृष्टयः सर्वथा बंधो नास्तिति न प्रेम नं२।”
सराग-वीतराग की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि दो प्रकार के होते हैं, उसमें जो सराग सम्यग्दृष्टि होते हैं हैं । अर्थात्-
१६, ५०, ०, १०,४, ६, १, ३६, ५, १६, १ इस प्रकार से बन्ध्व्युच्छित्ति के प्रकरण से चतुर्थ गुणस्थानान्तर दान रूप से प्रकृतियों का अबंधक होता है लेकिन ७७ प्रकृतियों को अल्पस्थितियनरूप से छूता भी संसार होता है है। स्थिति का छिद्रक होता है इसलिए वह अबंधक है। इसी प्रकार से अविरत सम्यग्दृष्टि के ऊपर के गुणस्थानों में उदित सरगमसम्यक्त्वपर्यंत नीचे-नीचे के गुणस्थानों की अपेक्षा से तरतमता रूप से अबंधक है जब उपरि गुणस्थानों की अपेक्षा से बंधक है। पुन: वीतरागसम्यक्त्व के हो जाने पर साक्षात् अबंधक होता है, ऐसा समझकर हम सम्यग्दृष्टि हैं हमें सर्वथा बंध नहीं है ऐसा नहीं कहना चाहिए।” यहाँ पर भी वीतराग सम्यक्त्व को सातवें से ही उतरना चाहिए।
आत्मा की भावना ही निश्चितात्मक है, वही निश्चितात्मक है
”भक्ति ही पुन: सम्यकत्व कहलाती है।” व्यवहार से सरग सम्यकदृष्टियों की भक्ति पंचपरमेष्ठी के ”
इस प्रकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि शुद्धात्म्य की भावनारूप भक्ति छठे गुणस्थान के ऊपर वाली वीतरागियों की ही होती है। ”
इसी बात की पुष्टि के लिए और भी प्रमाण मौजूद हैं-
क्या गृहस्थ को वीतराग सम्यकत्व हो सकता है?
”रागी सम्यग्दृष्टिर्न भवतिति भणितं भवद्भि:। तारहि चतुर्थपंचम गुणस्थान-वर्तिन:, तीर्थंकरकुमार-भरत-सागर-राम-पाण्डवदय: सम्यग्दृष्टयो न भवन्ति ? इति। तन्न, मिथ्यादृष्ट्यपेक्षया त्रिचत्वाइंरशत्प्रकृतीनां बन्ध्भावात् सर्गासम्यग्दृष्टयो भवन्ति। कथं! इति चेत्; चतुर्थगुणस्थानवर्तिनां…सर्वत्र प्रमाण ज्ञातव्यं१।”
”रागी सम्यकदृष्टि नहीं होती ऐसा हमने बहुत बार कहा है, पुन: चतुर्थपंचमगुणस्थानवर्त तीर्थंकरकुमार, भरतसम्राट, सागरचक्री, रामचन्द्र और पाण्डव आदि सम्यकदृष्टि नहीं माने जा सकते ?”
”ऐसी बात नहीं है, मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा से तेतालिस प्रकृतियों के बंधन का अभाव होने से वे साराग सम्यग्दृष्टि थे।”
‘तो वैसे ?”
”चतुर्थगुणस्थानान्तर रहस्य के अनंतानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ और मिथ्यात्व के उदय से होने वाले पाषाणरेखा आदि के समान रागादि भावों का अभाव हो चुका है। पुन: पंचम गुणस्थानान्तर प्रवृत्ति के अप्रियाख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ से होने वाले भूमिरेखा आदि के समान रागादि भावों का अभाव हो चुका है, ऐसा पहले भी कह चुके हैं। इस ग्रन्थ में पंचम गुणस्थान से ऊपर के गुणस्थानवर्ती वीतराग सम्यग्दृष्टियों का ही मुख्यरूप से ग्रहण किया गया है। सरगसम्यग्दृष्टियों का गौणरूप से ग्रहण है। ऐसा ही व्याख्यानों को समग्र दृष्टि के काल में सर्वत्र व्यापक रूप से समझना चाहिए।”
शुद्धोपयोग कहाँ से संभव है ?
”सातवें से।” तो ही देखिये-
”मिथ्यात्व-सासादन मिश्रगुणस्थानत्रये तारतम्येनाशुभोपयोग: तदनन्तरम-संयतसंयमग्दृष्टि-देशविरत-प्रमत्तसंयतगुणस्थानत्रये तारतम्येन शुभोपयोग:, तदनन्तरमप्रमत्तादीक्षीणकक्षयान्तगुणस्थान षट्केतारतम्येन शुद्धोपयोग:, तदनन्तरं सह्ययोगीजिनगुणस्थानद्वये शुद्धोपयोगफलमिति१।”
मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में तरतमता से अशुभोपयोग है, इसके बाद असंयतसम्यग्दृष्टि, देशवीर और प्रमत्तवीर इन तीन गुणस्थानों में तरतमता से शुभोपयोग है, इसके बाद अनंत अप्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकक्षय तक इन छह गुणस्थानों में तरतमता से शुद्धोपयोग है, इसके बाद संयोगकेवली वह केवल इन दो गुणस्थानों में शुद्धोपयोग का फल है।
”क्या कोई विद्वान गुणस्थान में शुद्धोपयोग का प्रारंभ मानता है ?”
”यदि इसमें ‘तारात्म्येन’ शब्द न होता तब तो मान सकते थे परन्तु ”तारात्म्य” का अर्थ यही है कि ‘सातवें से प्रारंभ होकर बारहवें गुणस्थान तक आगे ‘ ‘ -आगे शुद्ध होते हुए अंत में शुद्धोपयोग की प्रकाशना हो जाती है। अत: चतुर्थ गुणस्थान में शुद्धोपयोग का अंश भी संभव नहीं है। प्रत्युतर: चतुर्थ गुणस्थान में शुद्धोपयोग का अंश भी संभव नहीं है। प्रत्युतर: चतुर्थ गुणस्थान में शुद्धोपयोग का अंश भी संभव नहीं है। प्रत्युत्तर: चतुर्थ गुणस्थान में शुद्धोपयोग की समानता भी चतुर्थ गुणस्थान में शुद्धोपयोग के अंश नहीं हो सकती।
दूसरी बात यह है कि मुनियों के चरित्र में ही दो भेद हैं न कि श्रावकों के चरित्र में। जैसा कि प्रवचन में कहा गया है-
”चरित्त्तं खलु धम्मो” इति वचनात्। तच्च चारित्रम्पहृतसंयमोपेकक्षासंयमभेदेन सर्गवीतरागभेदेन वा शुभोपयोगशुद्धोपयोगभेदेन च द्विधा भवति२।।”
”चरित्र ही निश्चय से धर्म है, ऐसा कथन है।” वह चरित्र अपहृत और अल्प संयम के भेद से, सराग और वीतराग के भेद से अथवा शुभोपयोग और शुद्धोपयोग के भेद से दो प्रकार का होता है।
किसी भी ग्रंथ में श्रावकों के विकलचरित्र में सराग-वीतराग अथवा निश्चित-व्यवहार ऐसे दो भेद देखने को नहीं मिलते।
”योऽसौ वस्तुस्वरूपं जानाति स सर्गसम्यग्दृष्टिः सन्नशुभकर्मकर्तृत्वं मुंचति।”
इस प्रकार जो वस्तुस्वरूप को होना है वह सर्वगुणसंकल्प हुआ हुआ अशुभकर्म के कर्म को छोड़ता है । पुन: निश्चयात्मकचारित्र से अविनाशी ऐसी वीतरागसम्यग्दृष्टि उत्पन्न करने वाली शुभ-अशुभ सर्वकर्म के कर्तव्य को छोड़ता है।
‘ निश्चयेन वीतरागस्वसंवेदनज्ञानस्याभाव एव अज्ञानं भन्यते। तस्माद-ज्ञानदेव कर्म प्रभवतीति१। ”
निश्चय से वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान का अभाव ही अज्ञान है। उस अज्ञान से ही कर्म आते हैं।’ इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रेणी में बुद्धिपूर्वक राग का अभाव हो जाने से बहुत ही अल्प स्थिति-अनुभाग वाले कर्म आते हैं। आगे पूर्ण वीतरागता में कर्मों का आना पूर्णतया रुक जाता है।
”रागादिभ्यो भिन्न: शुद्धजीवोऽस्थिति पक्ष: परमसमाइधस्थपुरुषै: शरीररा-गादिभ्यो भिन्नस्य चिदानंदैकस्वभाव-शुद्धजीवस्योपलब्धेरति हेतु:२।’
‘रागादि से भिन्न शुद्ध जीव है’ यह पक्ष हुआ, ‘क्योंकि महर्षियों को शरीर परमसमाधि में स्थित है और रागादि से भिन्न चिदानंदक स्वभाव शुद्ध जीव की प्राप्ति होती है।’
इस प्रकार से कौन जानता है वैसे ? मिथ्यात्व, विषय और कषायों का त्याग करके वही ज्ञानी होता है न कि ज्ञान मात्र से।
इस प्रकार से वीतराग सम्यग्दृष्टि, शुद्धोपयोगी और ज्ञानी संज्ञाएं सातवें से ही प्रारंभ होती हैं। रयणसार में इसी बात को श्री कुंदकुंददेव कहते हैं –
णाणी खवेइ कम्मं णाणबलेणेदि सुबोले बुन्दाणी।
विज्जो भेषज्ज्महं जाने इदि नस्सदे वही।।तुली।।
ज्ञानी पुरुष अपने ज्ञान के बल से कर्मों का क्षय करता है ऐसा कथन करने वाला अज्ञानी है। क्योंकि मैं वैद्य हूँ, मैं औषधि को जानता हूँ। क्या उस दवा को सेवन न कर उसके ज्ञान मात्र से रोग दूर हो जायेगा ? नहीं।
अभिप्राय यही है कि चरित्र को धारण करना ही औषधि सेवन करना है। वह चरित्र ही संसार रोग को नष्ट करने वाला है। अत: रत्नत्रयधारी ही सच्चे ज्ञानी होते हैं।
जन बुननानि कामं, खेवेदि भवस्यसहस्सकोळिहिं।
तं नानि तिहिं गुत्तो, खवेइ उस्सासमेत्तेण१।।२३८।।
अज्ञानी कोटिहस्सर भावों में समस्त कर्मों की निर्जरा करता है, ज्ञानी तीन गुप्ति से गुप्त होकर एक श्वास मात्र में समस्त कर्मों की निर्जरा कर देता है। यहाँ पर ‘तीन गुप्तियाँ’ शामिल होना ही महत्त्व रखती है। जब आज के मुनियों में ये तीन गुप्तियाँ असंभव हैं, तब श्रावक व असंयमी में तीन गुप्तियों का होना व निश्चित निर्जरा का होना, तो सर्वथा आकाशपुष्प के समान है।
इस कथन से यही निष्कर्ष निकलता है कि वीतरागता त्रिगुप्ति से गुप्त महामुनियों के ही होती है, उसके पहले छठे गुणस्थानान्तर मुनि सरागचारित्र वाले होने से सरागी ही हैं। जैसा कि प्रवचनसार में कहा गया है-
अर्हंत आदि के प्रति भक्ति और प्रवचनरत संवेदनशीलता के प्रति वत्सलभाव करना तो यह शुभयुक्त चर्या है। इस अवस्था में मुनि पाई जाती है। वंदना, नमस्कार करना आदि, गुरुओं के आने पर उठकर खड़े होना, जब उनके पीछे-पीछे जाना, उनके श्रम को दूर करना आदि जो मुनियों की क्रियाएं हैं, वे सराग अवस्था में वर्जित नहीं हैं२।”
निष्कर्ष यह है कि अग्रेज चतुर्थ गुणस्थान से लेकर छठे गुणस्थानवर्ती समुदायों तक का समग्र समाधान ही है। उसी का नाम व्यवहार सम्यग्दर्शन है। सप्तम गुणस्थानवर्ती मुनि के शुद्धोपयोग की अवस्था में वीतराग सम्यकत्व होता है, उसी का नाम निश्चित सम्यकत्व है। व्यवहार में सम्यक्त्व में देव, शास्त्र, गुरु और तत्व का श्रद्धान तो होता ही है, साथ ही आत्मा के स्वरूप का भी श्रद्धान होता है! निश्चित सम्यक्त्व में शुद्धात्मा के स्वरूप की अनुपस्थित नामानुभूति होती है, क्योंकि इस वीतराग सम्यक्त्व के लक्षणों में सर्वत्र ही स्पष्ट रूप से प्रकट होता है। अकलंकदेव ने क्षायिक सम्यक्त्व के लक्षण भी बताए हैं ‘आत्मा की विशुद्धि मात्र ही कहा है और उसे वीतराग संज्ञा दी है।’ तो यह सिद्धांत का कथन भी मान्य ही है, परन्तु आज वह भी उपलब्ध नहीं है।
प्रश्न— सम्यकदृष्टि जीव मरण कर कहां-कहां जाते हैं?
उत्तर— सम्यकदृष्टि नरकी मरणकर गर्भ मनुष्य ही होते हैं। सम्यग्दृष्टि तिर्यंच आयु पूर्ण करके देवगति को ही प्राप्त करते हैं। देव और देवियाँ सम्यकत्व सहित मरण करके मनुष्य ही होते हैं। भोगभूमिज और कर्मभूमिज मनुष्य भी सम्यक्त्व सहित मरण करके सौधर्म स्वर्ग आदि में ही जाते हैं अथवा कोई क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उसी भव से मोक्ष भी प्राप्त कर लेते हैं।
प्रश्न— यदि कोई व्यक्ति सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है तो वह चारों ओर गतियों में जा सकता है तो वैसे?
उत्तर— यदि किसी जीव ने नरक, तिर्यंच या मनुष्य की आयु बांध ली है, तो उसे क्षयोपशम सम्यग्दर्शन हुआ है, तो मरते समय वह सम्यग्दर्शन छूट ज़। उपशम सम्यकत्व में तो मरण होता नहीं है कदाचित् द्वितीयोपशमसम्ग्दृष्टि श्रेणी में मरण करे तो वह देवगति में ही देय। हाँ, यदि क्षायिक सम्यग्दृष्टि है अथवा क्षायिकसम्यक्त्व पूर्ण होने में कुछ कार्य शेष रह रहा है उस समय वह कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि है। वह भी मरने के आसपास गतियों में जा सकता है। इस प्रकार क्षायिक सम्यग्दृष्टि और कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि यदि नरक में जाते हैं तो वे प्रथम नरक में ही होंगे। यदि तिर्यंच या मनुष्य की आयु बनी हुई थी तो वे भोगभूमि के तिर्यंच या मनुष्य होंगे।
वर्तमान में क्षायिक सम्यकत्व के न होने से कोई भी सम्यग्दृष्टि मनुष्य या तिर्यंच, स्त्री हो या पुरुष, वे मरणकर देवगति ही प्राप्त करेंगे, यह नियम है।
प्रश्न— सम्यकदृष्टि जीव कहाँ-कहाँ नहीं जाते हैं ?
उत्तर— एकेन्द्रिय स्थावरों में, विकलत्रय में, असंज्ञी, अपर्याप्त और सम्मूर्च्छन जीवों में, अल्पायु में, दरिद्र और बुरे जीवों में, नरकगति और तिर्यंचगति में, भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषीदेवों में, स्त्रीवेद और नपुंसक वेद में, सर्वदेवियों में सम्यग्दृष्टि जीव जन्म नहीं ले। हैं।
निष्कर्ष यह निकला कि कोई भी सम्यग्दृष्टि व्यक्ति यहाँ से विदेश का व्यक्ति नहीं हो सकता, वह सौधर्म आदि स्वर्गों में देव ही होवेगा।
(इस प्रकार सम्यग्दर्शन के भेदों को कहने वाला यह तृतीय परिच्छेद पूर्ण हुआ।)