आज ये जैन समाज बहुत सौभाग्यशाली है कि गणिनीप्रमुख आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी इस समाज के लिए एक ऐसा प्रकाश स्तंभ है, जिसके आलोक ने बहुत सारी आत्माओं को प्रकाशित होने का मौका दिया है। एक तरफ आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की परम्परा के पट्टाचार्य श्री वर्धमानसागर जी महाराज पूज्य माताजी की ज्योति के ही प्रकाशपुंज हैं, जो इस परम्परा को वृद्धिंगत करके धर्मप्रभावना कर रहे हैं। मुझे गौरव होता है कि दूसरे क्षुल्लक मोतीसागर जी महाराज रहे, जिन्होंने आत्मकल्याण के साथ पूज्य माताजी की जम्बूद्वीप आदि विभिन्न योजनाओं को अथक प्रयास करके सफल करने एवं संचालित करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। मुझे लगता है कि पूज्य माताजी ने बहुत पहले ही यह सोच लिया था कि परम्परा का पोषण करने वाले व्यक्तित्व को पैदा करने की आवश्यकता है, इसीलिए उन्होंने ऐसे शिष्य रत्नों को समाज के लिए प्रदान किया। रामायण में २५०० पात्र हैं और उन पात्रों में राम की अभिव्यक्ति सबसे प्रमुख थी। इसी प्रकार मैं समझता हूँ कि आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के पात्रों में रवीन्द्रकीर्ति जी की अभिव्यक्ति को हम प्रमुखता के साथ सहर्ष स्वीकार करना चाहते हैं। किसी भी विशेष प्रतिभा का प्रोत्साहन अवश्य करना चाहिए। कहा है कि यदि हम बहुत काम न कर सवें, तो कार्य करने वाले व्यक्तियों का दोनों हाथ उठाकर सम्मान अवश्य करें। यह हमारा नैतिक दायित्व है। पूज्य माताजी इस धरती पर एक ऐसा अनूठा विश्वास और ज्योति बन गई हैं कि आने वाली पीढ़ियों में इतना पुरुषार्थ कोई कर पायेगा, यह कठिन महसूस होता है। वही संस्कार रवीन्द्रकीर्ति जी में भी आ गये, क्योंकि गुलाब जहाँ खिलता है, वहाँ की माटी भी सुगंधित हो जाती है। रवीन्द्र जी तो माताजी के परिवार में जन्में उनके अनुज रहे अत: उनको ऊँचाई पर ले जाने में कोई रोक नहीं सकता था। मोतीसागर जी महाराज के उपरांत रवीन्द्र भाई जी को पीठाधीश बनाकर रिक्त स्थान को पूर्णता दी गई है। पद से पहले ही रवीन्द्र जी तो सदा काम करते रहे हैं। सब मिलकर बहुत कुछ पैदा कर सकते हैं लेकिन कार्य करने वाले एक अच्छे व्यक्ति को पैदा करना अत्यन्त कठिन होता है। ज्ञानमती माताजी ने यह कार्य किया है और अच्छे लोगों को तैयार करके समाज की सेवा हेतु प्रस्तुत किया है। ज्ञानमती माताजी जैसी श्रेष्ठ आर्यिका ने भगवान महावीर के रथ को चलाने में सबसे प्रमुख भूमिका निभाई है। मैं रवीन्द्रकीर्ति जी को यही कहूँगा कि वे दीक्षा हेतु जल्दी न करें और जब तक कोई एक स्थाई स्तंभ मजबूती के साथ तैयार न कर लें, तब तक वे इसी प्रकार समाज व धर्म के कार्य करते रहें। दक्षिण भारत में भट्टारक परम्परा चल रही है और पूज्य माताजी ने हस्तिनापुर में पीठाधीश पद के रूप में उत्तर भारत में यह परम्परा प्रारंभ की है, तो इसमें कोई बुराई नहीं है। लोग आगे-पीछे कुछ भी कहते हैं, लेकिन जो कोई इसमें बुराई समझते हैं, उन्हें मैं समझा नहीं सकता हूँ। भट्टारकों को पिच्छी-कमण्डलु प्रतीक स्वरूप दिये जाते हैं, जिससे समाज में उनके प्रति सम्मान और विश्वास की भावना जागृत रहे। इसी प्रकार भाई जी के प्रति भी समाज में विश्वास और सम्मान की भावनाएँ लोगों के दिल में सदा रही है और आगे भी सदा स्थापित रहना चाहिए। रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी बहुत सक्षम हैं, जिन्होंने मांगीतुंगी में इतने बड़े कार्य का बीड़ा उठाया हुआ है। समाज करोड़ों रुपये का कार्यक्रम कर सकती है लेकिन शिल्प से कार्य का उद्घाटन करने के लिए वह सोच पैदा हो पाना अत्यन्त दुर्लभ होता है। यह पूज्य माताजी का अद्भुत चिंतन है जिसने उन्हें वहाँ पहुँचा दिया, जैसे नेमीचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती जैसी दिग्गज भव्यात्मा ने गोम्मटेश बाहुबली को जन्म दिया था। मैं जिनेन्द्र भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि माताजी दीर्घायु होवें, शतायु होवें, स्वस्थ रहें। उनके रहने से मैं बहुत सी धर्मप्रभावना देख रहा हूँ। अत: पूज्य माताजी जैसे अद्भुत व्यक्तित्व से समाज और धर्म की उन्नति सदा होती रहे, यही भावना है तथा रवीन्द्रकीर्ति जी के लिए भी मेरा बहुत-बहुत मंगल आशीर्वाद है, वे अपने प्रत्येक लक्ष्य के साथ मांगीतुंगी के मूर्ति निर्माण में शीघ्र ही सफल होवें और उनके इस कार्य में हमसे भी जो सहयोग हो सकेगा, हम अवश्य करेंगे। अंत में यही कहना है कि रवीन्द्र जी दीक्षा के लिए जल्दी न करें। सम्राट जब युद्ध पर जाते थे और उनको जीवन का खतरा लगता था, तब हाथी पर बैठे-बैठे ही केशलोंच कर दीक्षा ले लेते थे। अत: आप भी जल्दी न करें, जब मौका आयेगा, तब आप भी हाथी पर बैठे-बैठे दीक्षा ले लेना। लेकिन किसी योग्य स्तंभ को तैयार किए बिना दीक्षा की जल्दी उचित नहीं होगी। पुन: रवीन्द्रर्कीित जी के लिए मेरा बहुत-बहुत मंगल आशीर्वाद। (३० नवम्बर २०११ को स्वामी जी के सम्मान समारोह में प्रीतविहार-दिल्ली में प्रस्तुत वक्तव्यांश)