द्वादशांग श्रुत और भावश्रुत की सुगंध के कारण चारों ओर अनुयोगरूपी समुद्र में मेरा मन नित्य ही अवगाहन करता रहता है।
(जिनेन्द्र भगवान के मुखकमल से निर्गत पूर्वापर विरोधरहित जो वचन उन्हें आगम कहते हैं। उनके ही प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग ये चार भेद हैं। इन चारों अनुयोगों को ‘चार वेद’ भी कहते हैं। ये चारों ही अनुयोग सम्यक्त्व की उत्पत्ति के हेतु कारण हैं। सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व को मल आदि आत्माओं से रहित निर्दोष करने वाले हैं और उनकी रक्षा करने में भी पूर्ण सहायक हैं। ऐसे ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को भी प्रकट करने वाले हैं तथा इनकी वृद्धि और रक्षा करके अंत में समाधि की सिद्धि कराने वाले हैं।
ये चारों अनुयोग मोक्षमार्ग में चलने के लिए दीपक हैं। यह अनुपयोगरूप द्रव्यश्रुत ही भावश्रुत के हेतु कारण है और यह भावश्रुत केवलज्ञान के लिए बीजभूत है। अतएव इस श्रुतज्ञान की उपासना का फल केवलज्ञान का प्राप्त होना ही है। ”इस शास्त्ररूपी अग्नि में भव्यजीव तपकर शुद्ध हो जाता है और दुष्टजन अंगार के समान तप्त हो जाते हैं १” वे शास्त्र बनाते हैं, अत: क्रम से और गुरुपरम्परा से शास्त्रों को कोहेले हैं। उनके अर्थ को सही समझकर अपनी आत्मा को शुद्ध करना चाहिए।)
सम्पूर्ण जिनागम द्वादशांगरूप है इसे शब्दब्रह्म भी कहते हैं। भगवान महावीर स्वामी की प्रथम देशना विपुलाचल पर्वत पर श्रावण वदी प्रतिपदा के दिन हुई थी उस समय सप्तऋद्धि से संचालित गौतम गणधर को पूर्वान्ह में सभी अंगों के अर्थ और पद स्पष्ट जान पड़े। उसी दिन स्पष्टीकरण के क्रम से उन्हें पूर्वों के अर्थ तथा अवलोकन का भी स्पष्ट बोध हो गया। पुन: मन:पर्यय ज्ञानधारी श्री गणधर देव ने उसी दिन रात्रि के पूर्णाक्षरों में अंगों की तथा पिछली घटना में पूर्वों की ग्रन्थ स्मृतियों की रचना की।
इस ग्यारह अंग चौदह पूर्व रूप श्रुतसमुद्र में कोई विषय अद्यतन नहीं है। अष्टांग निमित्त, अष्टांग आयुर्वेद, मंत्र, तंत्र आदि सभी विषयों में आ जाते हैं। आज द्वादशांगरूप से श्रुतज्ञान उपलब्ध नहीं है। हाँ, अग्रायणी नाम द्वितीय पूर्व के चयनलब्धि नाम चतुर्थ अधिकार का ज्ञान श्री धरसेनाचार्य को था जिसके प्रसाद से वह षट्खण्डागमरूप ग्रन्थ में निबद्ध हुआ है।
इस द्वादशांगरूप शास्त्र को आचार्यों ने चार अनुयोगों में विभक्त किया है। प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग। ये चारों ओर ही अनुयोग भव्य संक्रमण को रत्नत्रय की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के कारण हैं। इन अनुयोगरूप द्रव्यश्रुत से उत्पन्न हुआ भवश्रुत परंपरा से केवलज्ञान का कारण है। कहा भी है-
यदि प्रमाद से विस्मृत भी हो जाता है तो भी जन्मांतर में पूरा का पूरा प्रकट हो जाता है और अंत में केवलज्ञान को प्राप्त कर देता है।
यह समस्त श्रुतज्ञान की महिमा है न कि किसी अनुयोग की। श्री कुन्दकुन्द देव कहते हैं-
जिनेन्द्रदेव के वचन औषधिरूप हैं, ये विषयसुखों का विरेचन कराने वाले हैं, अमृतस्वरूप हैं, इसी प्रकार ये जन्म-मरणरूप व्याधि का नाश करने वाले हैं और सर्वदु:खों का क्षय करने वाले हैं।
अनादिकाल की अविद्या के संस्कार से प्रत्येक मनुष्य का मन मर्कट के समान अतीव चंचल है, जिसे रमण के लिए श्री गुणभद्रसूरि इस श्रुतज्ञान को महान वृक्ष की उपमा देते हुए कहते हैं-
जो श्रुतस्कन्ध रूप वृक्ष अनेक धार्मिक द्रव्यरूप फूल एवं फलों के भार से अतिशय मुखा हुआ है, वचनोंरूप पत्तों से व्याप्त है, विस्तृत नयन रूप सैकड़ों फूलों से युक्त है, उन्नत है तथा समीचीन एवं विस्तृत मतिज्ञानरूप जड़ से स्थिर है, वह श्रुतस्कन्ध वृक्ष के सर्वोच्च बुद्धिमता साधु अपने मनरूपी बंदर को प्रतिदिन रमण करावे।
इस श्रुतस्कंध वृक्ष के चारों ओर ही अनुयोग समाविष्ट हैं। तीसरे अनुयोग से होने वाला ज्ञान अद्यतन ही है।
समीचीन ज्ञान चारों पुरुषार्थों को कहने वाले चरित-पुराणों को प्रथमानुयोग कहा गया है। यह प्रथमानुयोग स्वयं पुण्यस्वरूप है और बोधिरत्नत्रय की प्राप्ति और समाधि का खजाना है।
टीकाकार श्री प्रभाचन्द्राचार्य कहते हैं – वह प्रथमानुयोग अर्थाख्यान अर्थात् परमार्थ विषय का प्रतिपादन करने वाला है, जिसके सुनने से पुण्य उत्पन्न होता है अत: पुण्य का हेतु होने से यह ‘पुण्य’ कहलाता है। प्राप्त हुए सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चरित्र की प्राप्ति होने वाली बोधि है, प्राप्त हुए रत्नत्रय को अंतपर्यंत रचना समाधि है अथवा धर्म-शुक्ल ध्यान को भी समाधि कहते हैं अर्थात् इस अनुयोग को सुनने वालों को सम्यग्दर्शन आदि की प्राप्ति होती है और धर्मध्यान आदि भी होते हैं हैं।
प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव अयोध्या में विराजमान हैं। उन्होंने ऐसी, मासी आदि छह प्रकार से स्वादिष्ट का उपाय बताया था। मृत्तिका मुनिमार्ग को दिखाया गया था। भगवान महावीर स्वामी अंतिम तीर्थंकर थे। वे आज से लगभग २ पवित्र वर्ष पूर्व इस भारत वसुन्धरा पर डूबे हुए थे, उन्होंने बारह वर्ष तक तपश्चरण करके केवलज्ञान को प्राप्त किया। क्या तीर्थयात्रियों के आदर्श जीवन को जाने उनके वचनों में श्रद्धा वैसे हो सकती है? नाम नहीं हो सकता। अतएव जिनागम को प्रमाण अनुरूपता के लिए प्रथमानुयोग का अध्ययन आवश्यक हो जाता है।
शंख- इन कथा पुराणों से सम्यकत्व की उत्पत्ति नहीं हो सकती ?
समाधान- सम्यक्त्व के दश भेदों में जो ‘उपदेश सम्यग्दर्शन’ नाम का तीसरा भेद है, उसका लक्षण यही है कि तीर्थंकर आदि शलाका पुरुषों के उपदेश को सुनकर जो तत्व श्रद्धान होता है, उसे ‘उपदेश सम्यग्दर्शन’ कहते हैं१।
इसी प्रकार से जातिस्मरण आदि के निमित्त से उत्पन्न होने वाले सम्यकत्व के उदाहरणों को प्रथमानुयोग में ही देखा जा सकता है।
राजा प्रीतिवर्धन विदेश क्षेत्र में प्रभाकरी नगरी के समीप पर्वत पर रहते थे। वहाँ पर मासोपवासी पिहितास्रव मुनिराज को आहारदान दिया गया। उस समय देवों द्वारा पंचाश्रय व्यय किये गये। इस दृश्य को देखकर, उस पर्वत पर एक सिंह था, जिसे जातिस्मरण हो गया, उसने सम्यकत्व और श्रावक के व्रत को ग्रहण कर चतुराहार त्याग कर दिया। कालान्तर में वही सिंह का जीव भरत चक्र हुआ है। २
नकुल, सिंह, वानर और शूकर इन चारों रोगों को भी आहारदान देखने से जातिस्मरण हो गया है, जिससे वे सभी संसार से वायरल हो जाते हैं और दान की प्रियता के फल से भोगभूमि में आर्य बनते हैं। अनंतर आठ भव में श्री वृषभदेव के पुत्र मोक्ष चले गये३।
मरीचि कुमार ने मान क्षय से मिथ्यात्व का प्रचार करके अनेक भवों तक त्रस स्थावर योनियों में परिभ्रमण किया। अनंतर सिंह की कोशिश में जब वह हरिण का शिकार कर रहा था। उस समय अजितंजय और अमितगुण नामक चरण मुनियों के द्वारा धर्मोपदेश को प्राप्त कर सम्यग्दर्शन ग्रहण कर लिया गया। श्रीगुणभद्रसूरि कहते हैं कि सिंह की दृष्टि से बहुत देर तक अश्रुरूपी जल गीरता रहती है, जिससे ऐसा जान पड़ता है कि मनो हृदय में सम्यक्त्व को स्थान देने के लिए मिथ्यात्व ही बाहर निकल रहा है।४
इस प्रयास में सम्यक्त्व, देशसंयम और बालपण्डितमरणरूप संलेखन को स्थान दिया गया है। ग्रहण किया जाता है। कर उस सिंह ने देव पद प्राप्त किया। इस सिंह से दसवें भव में वह भगवान महावीर हुए। इन उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि मुनियों का दर्शन, उनके उपदेश सम्यकत्वोत्पत्ति में कारण बन गया।
किसी समय अरिवंद महाराज अनेक सूत्र ले गए थे और संघ सहित सम्मेदशिखर की यात्रा को जा रहे थे। मार्ग में एक वन में प्रतिमायोग से वे मुनि विराजमान हो गए। उन्हें मदोन्मत्त हाथी (मरुभूति का जीव) देखकर उन्हें मारने के लिए दौड़ा। क्योंकि उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स का प्रतीक ही उन्हें जातिस्मरण हो गया। पुन: उन्होंने कहा कि शान्तचित्त मुनिराज के मुख से धर्मोपदेश श्रवण करके श्रावक के व्रत ग्रहण करने के लिए कहा गया है। इस हाथी के प्रयास में सम्यकत्व को प्राप्त करके वह जीव उससे आठवें भव में श्री पार्श्वनाथ तीर्थंकर हुआ।
इन उदाहरणों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि गुरुओं के उपदेश से मनुष्य ही नहीं तिर्यंच भी लाभ लेते थे तथा आचार्य भी संघ सहित सम्मेदशिखर की यात्रा करते थे।
इन अचेतन में भी तीर्थस्वरूप सम्मेदशिखर आदि की भक्ति में श्री गौतमस्वामी ने बहुत ही सुन्दर सूत्रवाक्यों का उच्चारण किया है, यथा-
ऊर्ध्व, अधो, मध्यलोक में जो सिद्धायतन हैं-कृत्रिम-अकृत्रिम जिनमंदिर हैं और जो सिद्धों की निषीधिकायें हैं अर्थात् निर्वाण क्षेत्र हैं, ये कौन-कौन हैं ? अष्टपद-वैलाशपर्वत, सम्मेदपर्वत, ऊर्जयंत-गिरनारपर्वत, चंपानगरी, पावानगरी, मध्यनगरी और हस्तिवालिकामंडप ये मुक्त धाराओं की निर्वाणभूमियाँ हैं, इनसे अतिरिक्त और जो निर्वाणभूमियाँ इस सूक्ष्म द्वीप में हैं, उन सबको मैं नमस्कार करता हूँ।’१
शंख -मुनि तीर्थों की वंदना क्या वे किसी विधान आदि उत्सवों में समाप्त नहीं हो सकते?
समाधान- क्यों नहीं हो सकता ? देखिये गुणभद्रसूरि कहते हैं कि ”अयोध्या के अधिपति, ‘आनंद’ महावैभव के धारक मण्डलेश्वर राजा बने हैं।” वसंत ऋतु के समय अष्टान्हिका में महापूजा की जाती है। उसे देखने के लिए वहां पर विपुलमति नाम के महामुनिराज पधारे थे। उन्होंने राजा के प्रश्नानुसार ‘अचेतन रत्नादि की प्रतिमाएँ अचिंत्य फल देने वाली हैं’ इस विषय पर बहुत ही विस्तृत उपदेश दिया था, फिर: अकृत्रिम चैत्यालयों का वर्णन करते हुए सूर्य विमान में स्थित अकृत्रिम जिनालय का वर्णन किया था।” वे सब आनन्दराजा को बताते हैं। видео на … ने कहा। भक्ति से विभोर हो सूर्यविमान में स्थित चैत्यालय का निर्माण किया और उसमें जिनप्रतिमायें विराजमान करके उसकी नित्यपूजा करने लगा। राजा ने उस सूर्य के मंदिर की पूजा करते हुए अज्ञानी लोगों को उसके रहस्य को समझाकर सूर्य को अर्घ्य चढ़ाना आदि पूजा यार्नने लगे यह ‘सूर्य पूजा’ उसी से चल पड़ी है१ इत्यादि।” ये ही आनंद महाराज तृतीय भव में पार्श्वनाथ तीर्थंकर बने हैं । ।
यदि हम प्राथमिकयोग का स्वाध्याय न करें तो हमारी इन शंकाओं का समाधान वैसे हो ?
इन पुराणों के पात्रों में शीघ्र ही महान पुण्यों का संग्रह होता है तथा अशुभ कर्मों की निर्जरा हो जाती है। चार ये भी जिनवचन हैं। बारहवें अंग के पाँच२ भेदों में से यह ‘प्रथमानुयोग’ तृतीय भेदरूप है, इसलिए द्वादशांग के भीतर ही है।
पद्मपुराण में मर्यादापुरुषोत्तम रामचंद्र के जीवन चरित्र में सहज ही भावना उत्पन्न होती है कि उनके गुणों में से कुछ भी गुणों का अंश मुझे प्राप्त होने का सौभाग्य मिला। रावण के दुराग्रह को पालने वाला कोई भी मनुष्य रावण बनने का डर नहीं होता है। प्रत्युत रामचन्द्र के जीवन को ही उनकी अदृश्य भावना करती है। पिता के आदेश का पालन करने के लिए अपने उचित और योग्य तरीकों से राज्य का मोह छोड़ना और वन में विचार करना, यह उदाहरण हर किसी को पिता की आज्ञा का पालन करने की शिक्षा देता है।
सीता के आदर्श जीवन से महिलाएं अपनी सतीत्व की रक्षा के प्रति उत्साहित होती हैं। अहो! शील का महात्म्य क्या है ? जिसने अग्नि को क्षणमात्र में जल का सरोवर बना दिया। इन पुराणों के आधार पर कुली स्त्रियां ही अपने शील रत्न को सुरक्षित रखती हैं।
‘पिता के लिए अपने सर्वस्व को तिलांजलि दे देना यह भीष्म पितामह का पूर्ण ब्रह्मचर्यव्रतरूप कठोर त्याग पितृभक्ति को उद्वेलित किये बिना नहीं रहता है।’ ३ लक्ष्मण की भ्रातृभक्ति भाई-भाई को प्रेम करने में देखकर ग्रहण करते हैं।
ब्राह्मी, सुंदरी, अनंतमती, चंदना आदि उदाहरण कन्याओं को ब्रह्मचर्य व्रत की प्रेरणा के स्रोत बन जाते हैं। इन आदर्श नारियों का इतिहास पढ़ने वाली लड़कियाँ कभी भी सुर्पणखा बनने की भावना नहीं करतीं, प्रत्युत चंदना,मनोरमा बनने की ही भावना प्रकाशित होती हैं।
अद्वैत निकेलंक नाटक देखने वाले नवयुवकों में धर्म की रक्षा के लिए बलिदान का भाव जागृत हो रहा है।
जैसे-आजकल सिनेमा और टेलीविजन के पोर्नोग्राफी क्रिएटिव और रेडियो के पोर्नोग्राफी गाने नवयुवक और नवयुवतियों के चरित्र च्युत होते हुए दिखाई देते हैं, ऐसी ही धार्मिक कथाएं और नाटक भी बेमेल कुछ न कुछ संस्कार अवश्य ही छोड़ देते हैं।
हालाँकि यह नियम है कि पानी का प्रवाह स्वभावत: नीचे की ओर ही जाता है। प्रयोग से, यंत्रों के निमित्त से ही वह ऊपर जाता है। उसी प्रकार से मन अनादिकालीन अविद्या के संस्कार से सदैव नीचे-आशुभ प्रवृत्तियों की ओर ही झुकता है, ऊपर की ओर पुनरुत्थान के लिए इन महापुरुषों का आदर्श सामने रखना ही चाहिए। इसका अभिप्राय यही है कि प्रत्येक प्रथमयोग ग्रंथ को अवश्य पढ़ना चाहिए। इससे चरित्र की प्रेरणा मिलती है और उसके चरित्र में अन्य लोगों को स्थिर करने की युक्ति सुझाई जाती है।
‘एक बार राजा श्रेणिक ने समवसरण में एक मुनि के बारे में प्रश्न किया, उत्तर में श्री गौतमस्वामी ने कहा-राजन्! तुम शीघ्र ही वहाँ जावो, उन मुनि के ध्यान में इस समय रौद्र भावना चल रही है यदि अंतर्मुहूर्त काल यही स्थिति हो तो उनके नरकायु का बंधन हो जायेगा: तुम जाकर उन्हें निर्देशित करो। राजा श्रेणिक ने उन्हें निर्देशित किया, उसी समय वे मुनि रौद्रध्यान से हटकर धर्मध्यान में आये और तत्क्षण ही शुक्लध्यान में आरुढ़ हो गए, अंतर्मुहूर्त में ही उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया।”१
सुकुमाल, गजकुमार आदि मुनियों ने उपसर्ग के समय भी संभवतः से । अपने परिणामों को धन्य और सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हो गये। सुलेखन के समय क्षपक मुनि को निर्यापकाचार्य ऐसे-ऐसे उदाहरण सुनाकर धर्मभावना में स्थिर करते हैं। अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों का उपसर्ग दूर करने के लिए श्री विष्णुकुमार महामुनि ने अपना वेष छोड़ दिया और अपनी विक्रिया ऋद्धि के बल से उन मुनियों की रक्षा की। यह घटना भी धर्मात्माओं के प्रति वात्सल्य का एक उदाहरण ही है।
सम्यग्दर्शन होते ही मोक्षप्राप्ति सुलभ नहीं है। तीर्थंकरदि महापुरुषों ने भी कई भव तक मृत्यु तक घोर तप किया है, जब कहीं सिद्धि मिली है। यह बात प्रथमयोग से ही तो जानी जाती है। देखिये-
भगवान वृषभदेव के जीव ने महाबल विद्याधर की प्रार्थना में स्वयंबुद्ध मंत्री के सम्बोधन से आठ दिन की आष्टान्हिक पूजा करके पच्चीस दिन की संलेखना ग्रहण की, पुन: ललितांग देव हुआ था। वहाँ से आकर वङ्काजंघ राजा श्रीमती रानी के साथ चरण मुनियों को आहार देकर जो पुण्य एकत्रित किया उसके फलस्वरूप भोगभूमि में उत्पन्न हुआ, तब तक उनमें सम्यकत्व नहीं था। भोगभूमि में मुनियों के उपदेश से सम्यकत्व प्राप्त किया गया पुन: श्रीधर देव ने अनंत सुविधि राजा श्रीमती के जीव केशव के मोह में दीक्षा देकर दीक्षा न ली, क्योंकि श्रावक के उत्कृष्ट व्रत (क्षुल्लक) को धारण करके अंत में दीक्षा लेकर सुलेखना से मरण कर अच्युतेन्द्र निर्मित। पुन: वाकणाभि चक्रवर्ती छह खण्डों का राज्य भोगकर उसका त्याग करके दीक्षित हो गया। उनके पिता वृकसेन तीर्थंकर थे, उनके समवसरण में दिन लेकर ‘सम्पूर्ण द्वादशांगरूप’१ श्रुत का अध्ययन करके आध्यात्मिक भावनाओं के द्वारा तीर्थंकर के मूल में तीर्थंकर प्रकृति बांध ली और जिनकल्पी मुनि उत्पत्ति विचार करने लगे। एक समय ध्यान में आरुढ़ थे, वह समय उपशम श्रेणी पर चढ़ गया और ग्यारहवें गुणस्थान में आनन्दकर यथाख्यात चरित्र के धारक पूर्ण वीतरागी हो गया। पुन: वहाँ से उतरकर वापस सातवें-छठे गुणस्थान में आ गया।
‘पुनर्पि द्वितीय बार उपशम श्रेणी में आरोहण करके पृथक्त्ववितर्क शुक्लध्यान को पूर्णकर उत्कृष्ट समाधि को प्राप्त होता है। उसी समय उनकी आयु पूर्ण हो गई और उस ग्यारहवें गुणस्थान में मरण कर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हो गए।’ वहाँ से चक्रधारी भगवान वृषभदेव विराजमान हैं।
इस प्रकार से भगवान के इन दश भावों को पढ़ने के बाद यह निश्चित हो जाता है कि जब तीर्थंकर होने वाले महापुरुषों को इतनी तैयारी करनी पड़ती है। अहो! पूर्वभव में दो बार उपशम श्रेणी में आरोहण करने की उत्कृष्ट विशुद्धि को प्राप्त करना पुन: अविरति हो जाना कितनी विचित्रता है। फिर तीर्थंकर के भव में भी हजार वर्ष तक तप करना पड़ता है, तब कहीं जाकर घटिया कर्मों के नाश हेतु संकट श्रेणी पर आरोहण कर पाए और उत्कृष्ट आत्मध्यान के ध्यानाभ्यास हो पाए।
‘महाबल विद्याधर के चार मंत्रियों में तीन मंत्री मिथ्यादृष्टि थे उनमें से संभिन्नमति और महामति तो मिथ्यात्व के पाप से निगोद में चले गए और शतमति नरक में चले गए।’ उस नरक में जाने वाले मंत्री के जीव को तो श्रीधर देव ने धर्म का उपदेश देकर सम्यकत्व को ग्रहण किया तथा निगोद में वैसे सम्बोधन दिया जा सकता है ?’१
इस उदाहरण को आचरण मिथ्यात्व से कितना भय उत्पन्न होता है, अहो! यदि मैं इनचित्त भी जिनवाणी के प्रति श्रद्धा करके मिथ्यात्व को प्राप्त होऊं तो पुन: यदि निगोद में चला गया तो क्या होगा ? मुझे कौन उपदेश दे ? क्योंकि शास्त्रों के वाक्यों पर अश्रद्धा करके अपनी सम्यकत्व को गंवाना नहीं चाहिए।
जिनप्रतिमा के अपमान से अंजना ने बाईस वर्ष तक पति वियोग का दु:ख सहन किया। इनचित् मुनिनिंदा के पाप से वेदवती ने जो निकाचित बंध किया, उसके फलस्वरूप सीता के प्रयास में लोकापवाद को प्राप्त कर, देश के रक्षक का दु:ख सहन किया। लक्ष्मीमती आदि अनेक स्त्रियों ने मुनियों का अपमान करके कुष्ठ रोग से पीड़ित होकर तिर्यंच योनियों के और नरकों के घोर दु:ख सहे हैं। पुनश्च: मुनियों के उपदेशों से रोहिणी व्रत, उत्सवादशमी व्रत आदि के अनुष्ठानों से उत्तम गति पाई जाती है। मनसुंदरी ने पति के कुष्ठ रोग को दूर करने के लिए मुनि के उपदेश से सिद्धचक्र विधान का अनुष्ठान किया था। मनसुन्दरी भी सम्यग्दृष्टि थी और यथार्थ संकट दूर करने का उपाय बताने वाले मुनि भी सम्यग्दृष्टि भवश्रमण ही थे।
राजा शुभौम ने जीवन के लोभ से महान मंत्र का अपमान कर सप्तम नरक को प्राप्त कर लिया। जीवनधर के द्वारा मरे गए महामंत्र को सुनने वाले कुत्ते ने प्राण-प्रतिष्ठा की तो यक्षेन्द्र हो गया और जीवनभर जीवनधर स्वामी के प्रति कृतज्ञ उपकार करता रहा। रात्रि भोजन त्याग करने से सियार ने तिर्यंच योनि छोड़कर मनुष्य पर्याय प्रकट करके प्रीतिंकर कुमार को उसी भव से मोक्ष प्राप्त कर लिया।
इस प्रकार से पुण्य और पाप के फलस्वरूप नाना उदाहरणों को देखकर सहज ही पाप से भय उत्पन्न होता है तथा धर्म में श्रद्धा, अनुराग और गाढ़ भक्ति जागृत होती है।
अत: श्रावकों को ही नहीं, मुनि आर्यिकाओं को भी प्रतिदिन प्रथमानुयोग का स्वाध्याय करना चाहिए।
जो श्रुतज्ञान लोक-अलोक के विभाग को, युग के परिवर्तन को और चतुर्गतियों के परिवर्तन को दर्पण के समान जानता है, उसे करणानुयोग कहते हैं।
जिसमें जीव, पुद्गल आदि छःों द्रव्य पाये जाते हैं, उसे लोकाकाश कहते हैं। यह तीन सौ तेतालिस सत्य प्रमाण है। इससे परे चारों तरफ अनंतानंत आलोककाश है। इस लोक के मध्य में एक सूर्य की चौड़ाई में अनेक द्वीप समुद्र हैं। सबसे पहले बीचोंबीच में जम्बूद्वीप है। तिलोयपन्नति आदि ग्रंथों में वर्णित है, नरक, स्वर्ग, सिद्धशिला आदि का जो भी वर्णन है, उसके अनुसार पूर्ण आस्तिक्य भावना रखना ही सम्यग्दर्शन है। इस मध्यलोक के अन्तः पञ्चम द्वीप हैं। उस पर जन्म लेने वाले मनुष्य मोक्ष पुरुषार्थ की सिद्धि कर सकते हैं अन्य नहीं।
सुषमासुष्मा आदि छह कालरूप युग के परिवर्तन को समझने वाले, चतुर्गतियों के परिभ्रमण को तथा पंच परावर्तन को भौतिक संसार से भय उत्पन्न होता है। मठ के कुल, योनि, जीवसमास, मार्गणा आदि को भीडी़ चाहिए। तभी तो मृत्यु की दया का पूर्णतया पालन किया जा सकता है। अध्यात्म गंरथ नियमसार में श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं-
कुल, योनि, जीव समास और मार्गणा आदि स्थानों में मृत्यु को जानकर उनके आरंभ में निप्रवृत्तिरूप परिणाम का होना प्रथम अहिंसा महाव्रत है।
यह सब वर्णन इस करणानुयोग के अध्ययन से ही जाना जा सकता है। खेद है कि आजकल कुछ लोग गुणस्थानों के लक्षणों को भी नहीं समझते और समयसार जैसे महान ग्रंथों को बगल में दबाते रहते हैं। सचमुच में वे लोग अध्यात्म के मर्म को नाम समझकर अपनी आत्मा की ही वंचना कर लेते हैं। गुणस्थानों को देखकर ही साराग चरित्र कहाँ तक है और वीतराग चरित्र कहाँ से शुरू होता है, इसकी जानकारी मिलती है।
श्री कुंदकुंद स्वामी ने कहा है कि मनुष्य के दो भेद हैं-कर्मभूमिज और भोगभूमिज। नरकी सात पृथ्वीवियों के भेद से सात प्रकार के हैं, तिर्यंच चौदह जीवसमास की अपेक्षा चौदह प्रकार के हैं तथा चतुर्णिकाय की अपेक्षा देव चार प्रकार के हैं। इन सबका विस्तार से वर्णन लोकविभाग ग्रंथों से जानना आवश्यक है। १
संस्था विचार धर्मध्यान भी करणानुयोग के अध्ययन से ही किया जाता है।
सम्यकत्व प्राप्त करने के लिए जो करण लब्धि होती है तथा चरित्र के लिए जो लब्धि होती है, इनका वर्णन भी करणानुयोग ही बताता है। किस गुणस्थान में कितनी प्रकृतियाँ बंधती हैं, कितने उदय में रहती हैं और कितनी की सत्ता रहती है इसका विवरण भी इसी अनुयोग से जाना जाता है। कर्णसूत्रों के सूक्ष्म से सूक्ष्म विवेचन द्वारा गणित की एकाग्रता के लिए सर्वोत्कृष्ट साधन है।
आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज की पीठ में एक बार अदीठ नाम का भयंकर फोड़ा हुआ था। उनकी शल्य चिकित्सा के समय सभी चिन्तित थे कि महाराज जितना वेदना को वैसे झेलेंगे। आचार्यश्री ने अपना उपयोग कर्म प्रकृतियों के बंध-उदय आदि के गणित में लगा लिया जिससे उन्हें उस विषय में तन्मयता होने से चिकित्सक ने सर्वोत्तम अनुकूलन कर दिया। इन प्रकृतियों के उदय आदि के चिंतन के समय विपाकविचय धर्मध्यान होता है।
यह जीव सम्यकत्व व संयम को प्राप्त कर भावलिंगी श्रमण शुद्धोपयोगी आत्मध्यानी आधारित ग्यारहवें गुणस्थान तक चला जाता है। पुन: वहाँ से गिरकर कदाचित् मिथ्यात्व में आकर यदि एकेन्द्रिय आदि घटनाओं में चला जाता है तो वह पुन: संसार में कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक परिभ्रमण करता रहता है। इन सभी प्रकरणों को अभ्यास बोधि को प्राप्त करके उसकी सुरक्षा के लिए पुरुषार्थ जागृत होता है और मिथ्यात्व से भय उत्पन्न होता है।
इस प्रकार से यह करणानुयोग भी सम्यक्त्व व संयम का कारण है। इसके प्रसाद से रत्नत्रय की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा होती है। इस विषय में भी प्रमाद न करके इस अनुयोग का निरंतर अध्ययन करना उचित है।
जो सम्यग्ज्ञान श्रावक और अनगार के चरित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा का साधन है, ऐसे शास्त्रों को आचार्य चरणानुयोग आगम कहते हैं।
श्री गौतमस्वामी ने मुनियों के पाक्षिक प्रतिक्रमण में ‘श्रुतं मे आयुष्मन्त:।’ ऐसा पादरी द्वारा स्पष्ट कहा गया है कि मुनियों के महाव्रत आदि मुनिधर्म का तथा श्रावक-श्राविकाओं के बारह व्रत, सप्तविश्राम, ग्यारह प्रतिमा आदि श्रावक धर्म का उपदेश भगवान महावीर ने दिया है और हे आयुष्मान् भव्यों! मैंने खुद सुना है।
श्री कुन्दकुन्ददेव भी चरित्रपाहुड़ में कहते हैं-
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये आत्मा के गुण हैं। वह चरित्र इसकी शुद्धि को करने वाला है और मोक्ष आराधना का कारण है ऐसे चरित्र प्रभृत को कहता हूँ।
पुन: सम्यक्त्वाचरण और संयमाचरण ऐसे दो भेद करके सम्यक्त्वाचरण में सम्यक्त्वा के आठ अंग आदि को लिया गया है तथा संयमचरण के मुनिधर्म और गृहस्थ धर्म की अपेक्षा दो भेद करके श्रावकों के बारह व्रतों का वर्णन किया गया है।
और तो क्या द्वादशांग में भी आचारांग नामक सबसे प्रथम अंग है जिसमें मुनियों के चरित्र का सांगोपांग वर्णन रहता है।
भगवान के समवसरण में भी बारह सभाओं में से भगवान के सन्मुख प्रथम सभा में मुनिगण ही विराजते हैं, वे भगवान के उपदेश को साक्षात् ग्रहण करके मोक्ष की सिद्धि करने वाले ही हैं।
बिना सम्यकत्व व बिना चरित्र के किसी को ‘पात्र’ संज्ञा नहीं है। विश्वधर स्वामी वन में विचार कर रहे थे। उनके मन में उनके बहुमूल्य वस्त्रों और अलंकारों को दान करने का भाव जागृत हुआ। उस समय उन्होंने एक कृषक को धर्म का उपदेश देकर पांच अणुव्रत ग्रहण कराए और फिर उसे रत्नों का दान दिया। चालीसा पात्र में दिया गया दान निरर्थक है और चालीसा पात्र में दिया गया दान कुफल को देने वाला है।
यह चरित्र ही ज्ञान को परम पूर्ण, सर्व अवधि तथा मन:पर्यय ज्ञान बना सकता है, पुन: आगे केवलज्ञान भी कर सकता है। इस चरित्र के बिना असंयमित मोक्षमार्गस्थ नहीं है।
श्री कुन्दकुन्ददेव स्वयं कहते हैं-
यदि वस्तु का श्रद्धान न हो तो आगम में सिद्धि नहीं होती और यदि वस्तु का श्रद्धान करने वाला भी असंयत है तो भी निर्वाण को प्राप्त नहीं किया जा सकता।
श्री अमृतचन्द्र सूरि के वचन देखिये-
क्योंकि संयमशून्य श्रद्धान व ज्ञान से सिद्धि नहीं होती। हे आगमज्ञान, तत्त्वार्थ श्रद्धान और संयतपना ये तीनों ही युगपत के पास नहीं हैं, उनका मोक्षमार्गत्व भी घटित ही होता है।
चतुर्थकाल में मुनि हजार वर्ष तप करके मनुष्य कर्मों की निर्जरा करते थे। आज पंचमकाल में हीन संहनन होने से एक वर्ष में उतने कर्मों की निर्जरा हो जाती है।
इस चरणानुयोग के बिना चरित्र के महत्त्व को कौन बता सकता है?
व्रतों में लगे हुए अतिचारों का शोधन, गुरु, विनय, वैयावृत्य, सोलह कारण भावनाएं, दशांशकरण धर्म आदि का उपदेश चरणानुयोग ही देता है। व्रतों के भंग हो जाने पर उनमें पुन: उपस्थापना का आदेश इसी अनुयोग का है। प्रियश्चित् विधि द्वारा व्रतों का प्रतिपादन करके भक्तों का विशोषण ही अनुयोग करता है।
द्रव्यलिंगी मुनि भी इस चरित्र के संपर्क से लोक में पूजे जाते हैं। जैसे ‘पुष्पदाल’ मुनि व ‘भवदेव मुनि’ पूजे जाते थे। श्रावक उन्हें आहार देने में कोई अंतर नहीं करते थे।
कुन्दकुन्दस्वामी ने यहाँ तक कहा है कि-
व्रत और तप से स्वर्ग प्राप्त कर लेना श्रेष्ठ है लेकिन अव्रत और तप से नरकगति में दु:ख उठाना ठीक नहीं है। किसी की प्रतीक्षा में छाया और आतप में बैठने वाले रोगियों के समान व्रत और अव्रत में महान अंतर है।
आगे कहते हैं कि-‘जो देव और गुरु के भक्त हैं, साध्मी और संतों में अनुरागी हैं, सम्यकत्व से युक्त हैं ऐसे योगी ही ध्यान में रत हो सकते हैं२।
जो अतिचार या अनाचार के भय से चरित्र ग्रहण नहीं करते, वे अपनी आत्मा की ही वंचना कर लेते हैं। सागर धर्मामृत में कहते हैं-
देश, काल, शक्ति आदि का विचार करके व्रत लेना चाहिए, ग्रहण किये जाने योग्य व्रतों का प्रायश्चितपूर्वक पालन करना चाहिए तथा यदि दर्प से अथवा प्रमाद से कदाचित व्रत भंग हो जाए तो शीघ्र ही गुरु के पास प्रायश्चित करके पुन: व्रत ग्रहण कर लेना चाहिए। ग्रंथकारों ने तो यहाँ तक कह दिया है कि-
‘जब तक आप किसी वस्तु का सेवन नहीं करते हैं, तब तक के लिए भी यदि आप उसका त्याग कर देते हैं, तो यदि कदाचित् कर्मवश उस त्याग सहित अवस्था में मरण हो गया, तो वह परलोक में सुखी हो जाता है४।
‘वसुभूति ब्राह्मण को दयामित्र सेठ ने धन के लोभ में मुनि बना दिया, कालान्तर में वह सच्ची भावलिंगी बन गई।’५
सूर्यमित्र ब्राह्मण ने भी गिरि वस्तु का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उपदेश लिया था लेकिन उस चरित्र के प्रसाद से वे भावलिंगी महाश्रमण थे। ६
शंख- आत्मतत्त्व के जान लेने से ही सिद्धि होती है तप आदि से शरीर को शोषण करने से आत्मा की सिद्धि नहीं हो सकती है ? तेरहवें तप आदि में साकार होती है।
समाधान- तप में अनुरूप अभ्यास के समय साकार होना सर्वथा आवश्यक है। वे अभ्यास के द्वारा सरल हो जाते हैं। फिर बिना कष्ट सहन किये मुक्ति असम्भव है। आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं-
तपरहित ज्ञान और ज्ञानरहित तप दोनों भी अकार्यकारी हैं अर्थात् मुक्ति को प्राप्त करने में असमर्थ हैं अत: ज्ञान और तप से संयुक्त योगी ही निर्वाण प्राप्त करते हैं। पुन: उसी बात को दृढ़ करते हैं।
जिनको नियम से मोक्ष होना है ऐसे तीर्थंकर भी जो कि दीक्षा लेते ही अंतर्मुहूर्त में मन:पर्ययज्ञान से युक्त हो जाते हैं तो भी वे तपश्चरण करते हैं ऐसा समझकर ज्ञानयुक्त भी तपश्चरण करना चाहिए।
तपश्चरण आदि से जो शरीर को कष्ट नहीं देना चाहते उनके प्रति श्री कुंदकुंददेव क्या कहते हैं-
सुख में भया गया ज्ञान दु:ख के आने पर नष्ट हो जाता है, क्योंकि योगी यथाशक्ति दु:खों के द्वारा अर्थात् अनशन-कायक्लेश आदि तपों के द्वारा आत्मतत्त्व की भावना करता है।
आगे और भी कहते हैं कि ‘आहार, आसन और निद्रा को गुरु तथा जीवन के अनुसार प्रसाद से समझकर निज आत्मा का ध्यान करना चाहिए।’
चरित्र की तरह आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने की जो बात है वह कहाँ तक ठीक है। देखिए-
जब तक मनुष्य इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्ति करता है, तब तक वह आत्मा को नहीं जानता। विषयों से विरक्त हुआ योगी ही आत्मा को जानता है।
रामचन्द्र जैसे महापुरुष क्षायिक सम्यकदृष्टि थे, फिर भी क्षयोपशम सम्यक्वी तो उपचार से महाव्रतिनी ऐसी आर्यिकाओं की भी पूजा करते थे। त्याग की ही सर्वत्र पूजा देखी जाती है। गृहस्थी चाहे जिस ज्ञानी हो परन्तु उसकी पूजा का विधान आगम में नहीं है।
मूलाचार में भी श्री कुंदकुंद ने कहा है कि-‘जो धीर पुरुष वैराग्य सहित हैं, वे अल्प भी भाग सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं तथा वैराग्य शून्य मनुष्य सर्व शास्त्र को भाग भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते।’
श्री समन्तभद्रस्वामी ने भी आप्तमीमांसा में ज्ञान के एकान्त का निरसन बहुत ही सुन्दर शब्दों में किया है-
‘यदि कहा जाय कि अज्ञान से नियम से बंध होता है, तो ज्ञेय वस्तु अनंत हैं, उनका ज्ञान न हो जिसकी वजह से कोई भी सर्वज्ञ नहीं हो सकता। । यदि कहा जाय कि अल्पज्ञान से मोक्ष होता है, तब तो जो उसके साथ बहुत-सा अज्ञान है, वह बंध का कारण बनेगा, उससे भी मोक्ष नहीं हो पायेगा२।
पुन: समाधान करते हुए कहते हैं कि—
मोहयुक्त अज्ञान से बंध होता है, वीतमोह पुरुष के अज्ञान से बंध नहीं होता। उसे (मोहरहित) अल्पज्ञान से ही मोक्ष प्राप्त हो जाता है लेकिन मोहयुक्त ज्ञान से बंध ही होता है।
यही निष्कर्ष है कि वीतरागता को प्राप्त करने के लिए चरित्र ही आवश्यक है। वह आज तक कोई वितरगी नहीं बनी हैं। ऐसा समझकर इस चरणानुयोग के आश्रय से चरित्र को ग्रहण करना उचित है। पुन: लगातार उसका मनन करते स्वस्थ चरित्र को निष्पक्ष निरतिचार बनाना चाहिए। श्रावकों का भी कर्तव्य है कि पहले देशचरित्र को ग्रहण करके सकल चरित्र की भावना भाते रहें यही क्रम मोक्ष का साधक है।
द्रव्यानुयोगरूपी दीपक जीव-अजीव तत्व का, पुण्य-पाप का और बंध-मोक्ष का श्रुत विद्या के प्रकाश से विस्तार रूप से प्रकाशन करता है।
यह द्रव्यानुयोग जीव के बाह्यात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा रूप से तीन भेद करता है। अजीव के पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल का विस्तार से वर्णन करता है। पुण्य और पापरूप प्रकृतियों का वर्णन करता है और बंध-मोक्ष की व्यवस्था रखता है।
समयसार, तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थ इसी अनुयोग में आते हैं।
शंख- पुण्य-पाप और बंध-मोक्ष की व्यवस्था को आत्महित वैसे जानना क्या होगा? क्योंकि ये चर्चाएँ तो हमेशा करते ही आये हैं आत्महित तो आत्मा के ज्ञान से ही होगा ? कहा भी है-
‘सभी को काम, भोग और बंध की कथा सदैव सुनने में, परिचय में और अनुभव में आई होती है: वह भिन्न आत्माओं के एकत्व की पूर्ण सुलभ नहीं होती।’ यह उसी की कहानी है।
समाधान- जब तक पुण्य-पाप और बंध-मोक्ष पदार्थों को नहीं समझेंगे, तब तक पाप से व बंध के अनुकूल से बचने का उपाय भी वैसा ही करेंगे तथा पुण्यरूप साधन सामग्री के बिना मोक्ष की सिद्धि नहीं होगी। अत: इनका ज्ञान भी आवश्यक ही है। पुण्य में तीर्थंकर प्रकृति, वृकवृषभनाराच संहनन आदि मोक्ष में सहायक हैं। यहाँ गाथा में काम, भोग, बंध से विषयभोग संबंधी कथा का भी अभिप्राय है अथवा बंध की कथा प्राप्त करने के लिए वर्जित है जो बंध के स्वरूप को पहले अच्छी तरह समझ चुके हैं।
इस प्रकार प्रथमानुयोग से महापुरुषों का आदर्श ग्रहण कर करणानुयोग से संसार से प्रभावित होकर चरणानुयोग के अवलम्बन से चरित्र को धारण कर द्रव्यानुयोग के बल से शुद्ध आत्मा का ध्यान करके श्रुतज्ञान का फल जो अच्युत (मोक्ष) पद की प्राप्त होता है, उसे हस्तगत करना चाहिए ।
(इस प्रकार चारों अनुयोगों की सार्थकता को कहने वाला यह छठा परिच्छेद पूर्ण हुआ)