गुरुओं की परंपरा से श्रुतज्ञान प्राप्त करके मैंने दोनों नयनों के आश्रय से जिनशासन की उन्नति के लिए भव्यों को उपदेश दिया।
अध्ययन नाम ग्रंथों को पढ़ना और उनका मनन करना तथा अध्यापन नाम शिष्यों को पढ़ाना, अभ्यास करना। किसी भी शास्त्र को गुरुमुख से ही पढ़ना चाहिए, तभी उसका समीचीन-संगत-निर्दोष अर्थ ग्रहण किया जा सकता है अन्यथा गलत अर्थ धारणा में बैठ जाने से प्रिय: उसका दुराग्रह भी हो सकता है अत: कुछ मूल ग्रंथ तो गुरुमुख से ही पढ़ना चाहिए हां।
पुनश्च: यदि किसी ग्रंथ का स्वाध्याय किया जाता है तो उसे एक बार चरण दूसरी बार अवश्य पढ़ना चाहिए जिससे उसके अध्यायोपांत संदर्भ को समझ में आ जाता है। हो सके तो तीन, चार या कई बार भी उस ग्रंथ का स्वाध्याय करना चाहिए। तब किसी को पढना चाहिए और तभी उस ग्रंथ का प्रवचन करना चाहिए।
समयसार आदि ग्रंथों की गाथाएँ सूत्र रूप में हैं। उनका संबंध आगे के पीछे से ही रहता है। जैसे कि ”तत्त्वार्थसूत्र” टीकाकार श्री पूज्यपाद स्वामी और अकलंकदेव आदि आचार्यों ने एक-एक सूत्र की टीका में कहीं पीछे के या कहीं आगे के सूत्र से संबंध मानकर तथा पूर्वापर विरोध न हो जाए इस बात को ध्यान में रखकर ही विशेष अर्थ स्फुट किया है। उदाहरण के लिए ‘न देवा:।’ इस सूत्र का अर्थ कोई भी ऐसा ही करेगा कि ‘देव नहीं हैं’ और ऐसा अर्थ पूर्वापर-विरुद्ध होने से इसमें पूर्व के ‘नरकसंमूर्च्छिनो नपुंसकानि’ है। इस सूत्र से ‘नपुंसक’ शब्द का अध्याय लेकर ‘देव नपुंसक नहीं होते’ ऐसा अर्थ किया जाता है। ऐसे ही सर्वत्र ग्रंथों में खरा उतरना चाहिए।
इस अध्ययन-अध्यापन की शैली में हमें किन-किन बातों को जोड़ना चाहिए? देखिये-
गुरु वैसे होने चाहिए ? छात्र कैसा होना चाहिए ? गुरु परम्परा से पढ़ने का क्या महत्त्व है ? किस ग्रंथ को कोहेल याहेल समय में ‘पापभीरुता’ होना चाहिए? ग्रंथ कोहेल समय से पहले उसके रहस्य को कैसे समझाना चाहिए? श्रावक को क्या करना चाहिए ? पूर्वाचार्यों ने किस क्रम से उपदेश दिया है? मुनियों को आशीर्वाद देने का क्रम क्यों है? पहले मुनिधर्म का उपदेश देना, वह किसको ? मद्या, माँसादि के त्याग और दया, दान आदि का उपदेश भगवान ने क्या दिया है ? गृहस्थ रत्नत्रय का उपदेश दे सकते हैं क्या ? नागरिक शिकायत का उपदेश देना ? इन सब बातों को समझने वाले ही अध्ययन-अध्यापन अथवा प्रवचन करने से अर्थ का अनर्थ नहीं होता है।
ग्रंथों का अध्ययन करने वाले मुनि या विद्वान श्रावक उपाध्याय, गुरु या अध्यापक कहलाते हैं तथा उपदेश देने वाले भी उपाध्याय या गुरु होते हैं और विद्वान पंडितगण वक्ता होते हैं। कहते हैं। गुरु में क्या गुण होना आवश्यक है ? छात्र या अध्यापक वैसे हैं ? गुरुपरम्परा से अध्ययन करने या उपदेश सुनने का क्या महत्त्व है ? पहले इन सभी बातों को अच्छी तरह से विकसित किया जाना चाहिए, परिणामस्वरूप: गुरु या वक्ता बनना चाहिए।
जो गुरु परम्परा से ग्रन्थ, अर्थ और उभयरूप से सूत्र को यथावत् सुनता है और उसे अवधारित करके स्वयं संसार से प्रभावित करता है, उभय नीति-निश्चय-व्यवहारनय की शक्तियों के बल से उपदेश करता है, उन रत्नत्रय के धारक आचार्यों की हम स्तुति करते हैं। । ।
श्री अमृतचंद्रसूरि भी कहते हैं-
जो मुख्य-निश्चय और उपचार-व्यवहारनय अथवा मुख्य और गौण प्रतिपादन शैली से शिष्यों के दुस्त अज्ञान को नष्ट कर दिया है, ऐसे व्यवहार और निश्चय के ज्ञाता महामुनि ही जगत में धर्मतीर्थ का अनुपालन करते हैं, अर्थात् मोक्षमार्ग को चलाते हैं२।
गुणभद्रसूरि ने और भी अनेक लक्षण पाये हैं कि ‘जो बुद्धिमान हो, सभी शास्त्रों के रहस्य को जानने वाला हो, प्रश्नों को सहने में समर्थ हो, प्रत्येक प्रश्न के उत्तर में कुशल हो, उसके गुणों से युक्त आचार्य ही वक्ता होते हैं।’ ३
श्री गुणभद्रसूरि पुन: कहते हैं कि-
पूर्वकाल में उभय लोक में हितकर ऐसे व्याख्यान करने के लिए तथा सुनने के लिए भी बहुत से जन सरल थे, लेकिन तदनुकूल आचरण करने के लिए दुर्लभ ही थे, परन्तु वर्तमान में ऐसे व्याख्यान कहने के लिए तथा सुनने के लिए भी लोग दुर्लभ हैं: ऐसा आचरण करना तो बहुत ही दूर की बात हो गई है।
उभय लोक के लिए हितकर परन्तु कठोर भी गुरु के वचन कैसे होते हैं-
कठोर भी गुरु के वचन भव्यों के मन को इस प्रकार से प्रफुल्लित करते हैं कि जिस प्रकार से सूर्य की कठोर व्रतियों को भी निरर्थक बनाया जाता है।
शिष्य भी दुराग्रह से रहित हो तथा श्रवण, धारण आदि बुद्धि के विभव से युक्त हो, उसके गुणों से युक्त शिष्य ही ‘शस्य’-उपदेश के लिए पात्र है। ३
‘जिनेन्द्रदेव के वचनों को सुनने का पात्र कौन है ?’ श्री अमृतचन्द्रसूरि बताते हैं उनके लक्षण-
अनिष्ट और बुरे पाप के स्थानस्वरूप मद्य, माँस, मधु और पंच उदंबर फल इन आठों का त्याग करके शुद्ध बुद्धि वाले जन ही जिनधर्म की देशना के पात्र होते हैं।
जीवन पर्यंत के लिए मद्य आदि आठ महापापों को छोड़कर जो शुद्ध बुद्धि हो गई है और जिसका उपनयन संस्कार हुआ है, ऐसे श्रावक जिनधर्म को सुनने के लिए उपयुक्त होता है।
इस प्रकार आगम कथित गुणों से युक्त शिष्य या श्रोता गुरु परंपरा से ही तत्वों को समझने का उपाय करे अन्यथा अर्थ का अनर्थ बिना नहीं रहता। इस विषय में ज्ञानार्णव में कहा गया है कि-
जो गुरुकुल की-गुरु समूह की उपासना की नहीं है, उसकी विज्ञान प्रशंसा करने योग्य नहीं है, बल्कि निंदा सहित ही होता है। देखो! मयूर नृत्य करते समय अपने पृष्ठ भाग (मालद्वार) को उगड़ा कर नृत्य करता है, अर्थात् मयूर ने नृत्य कला किसी गुरु से नहीं सीखी है, क्योंकि वह नृत्य करते समय अनुष्ठान से नृत्य करता है। वैसे ही जो गुरुओं से अध्ययन नहीं करता, उसकी अध्ययन विपरीत बुद्धि को भी उत्पन्न कर देता है।
आप आचार्यों की परंपरा देखते तो स्पष्ट हो जाते हैं कि सभी आचार्य गुरुमुख से ही गंरथों का अध्ययन करते थे। धरसेनाचार्य तक गुरु प्राप्ति से ही ज्ञान आया और जैसा कि पुष्पदंत भूतबली आचार्यों ने भी आचार्य धरसेन से ज्ञान पाया तथा श्री कुंदकुंददेव ने भी इन ग्रंथों की ज्ञान परंपरा से प्राप्त किया। यथा-
कर्म प्राभृत (षट्खण्डागम) और कषायप्राभृत इन दोनों सिद्धान्तों का ज्ञान गुरु-परीपति से कुन्दकुन्दपुर के ‘पद्मनन्दि’३ मुनि को प्राप्त हुआ और उन्होंने सबसे पहले षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्डों पर बारह हजार श्लोक प्रमाण ‘परिकर्म’ नाम की टीका रची।
जब महान अध्यात्म शिरोमणि श्री कुंदकुंददेव ने गुरु परम्परा से ज्ञान प्राप्त किया तब ग्रन्थ की रचना की। पुन: आज यदि उनके ग्रंथों का स्वाध्याय करने वाले लोग-गुरुओं के प्राचीन अर्थ की अपेक्षा करके मनाना अर्थ करेंगे तो अनर्थ होना स्वाभाविक ही है।
गुरुओं की परंपरा से ज्ञान प्राप्त करने का महत्त्व गुरुवली में बहुत ही अच्छी तरह से बताया गया है। उन गुरुवली, पटवली आदि का भी मनाना चाहिए।
प्राचीन काल में ईश्वर के मुख से पूर्वाचार्यों के प्रति श्रद्धा का निर्झर प्रवाह होना चाहिए। जैसे कि आचार्य विद्यानंदी, आचार्य वीरसेन और आचार्य वसुनंदी आदि शब्दों में दिखता है। यथा-
”अब पुष्पदंत भट्टारक अंतिम गुणस्थान के प्रतिपादन हेतु, अर्थरूप से अर्हंत परमेष्ठी के मुख से निकले हुए, गणधर देव के द्वारा गूँथकर गए शब्द रचना वाले, प्रवाहरूप से कभी भी नाश को प्राप्त न करने वाले और सम्पूर्ण उपहार से रहित होने से आगे के सूत्र में कहा गया है- ”१
यहाँ श्री वीरसेनस्वामी को श्री पुष्पदंत आचार्य के प्रति कितनी श्रद्धा है और उनके वचनों को वे साक्षात् भगवान की वाणीरूप ही मान रहे हैं। यह स्पष्ट दिख रहा है। आगे और देखें-
”हमारे यहाँ अर्शपरंपरा का विच्छेद भी नहीं है क्योंकि जिसका दोष-आवरण रहित अरहंत देव ने अर्थरूप से व्याख्यान किया है, छोटे चार ज्ञानधारी, निर्दोष गणधर देव ने धारण किया है, जो ज्ञान-विज्ञान युक्त गुरु परंपरा से चला आ ‘शंख-
आधुनिक आगम’ – … अप्रमाणित है क्योंकि अर्वाचीन पुरुषों ने इसका अर्थ किया है ?
समाधान- ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ज्ञान-विज्ञान से युक्त होने से प्रमाणता को इस युग के आचार्यों द्वारा इसके अर्थ का व्याख्यान किया गया है, क्योंकि आधुनिक युग का भी प्रमाण है।
शंख -सदृश्य सत्यवादी वैसे हो सकते हैं ?
समाधान- ऐसा नहीं है, क्योंकि श्रुत के अनुसार व्याख्याता आचार्यों को प्रमाण अनुरूपता का कोई विरोध नहीं होता।
शंख -आगम का यह अर्थ प्रामाणिक गुरु परंपरा के क्रम से आया है और यह वैसे ही निश्चित किया जाए?
समाधान- ”नहीं, क्योंकि…ज्ञान-विज्ञान से युक्त इस युग के अनेक आचार्यों के उपदेश से उसकी प्रमाणता जाननी चाहिए।……”१ और भी देखें-
क्षय प्रभृतकार से पहले आठ क्षय का क्षय, पीछे सोलह प्रकृति का क्षय मानते हैं और सत्कर्मप्राभृतकार (षट्खंडागमकार) पहले सोलह का नाश मानकर आठ क्षयों का नाश मानते हैं। इस पर चर्चा चली कि दोनों में से कोई एक ही वाक्य सूत्ररूप प्रमाणिक होना चाहिए। इस पर आचार्य वीरसेन दोनों आगम को सूत्र कह रहे हैं। वे कह रहे हैं कि-
”जिनका अर्थरूप से तीर्थंकरों ने प्रतिपादन किया है और गणधरदेव ने ऐसे द्वादशांग आचार्य परम्परा के मूलों को निरंतर प्रसारित किया है। परन्तु काल के प्रभाव से उत्तरोत्तर बुद्धि के क्षीणन होने पर और उन प्राणियों को धारण करने वाले उचित प्राणियों के अभाव में वे उत्तरोत्तर क्षीणन होते हुए आ रहे हैं। क्योंकि जिन आचार्यों ने आगे श्रेष्ठ बुद्धिवाले पुरुषों का अभाव देखा था जो अत्यन्त पापभीरु थे और जिन्होने गुरु परम्परा से श्रुतार्थ ग्रहण किया था उन आचार्यों ने तीर्थ विच्छेद के भय से उस समय अवशिष्ट रहे हुए अंगक्षीय अर्थ को पोथियों में लिपिबध्द किया, अतएव उनमें असूत्रपना नहीं । । आ सकता है।
शंका- यदि ऐसा है तो इन दोनों ही वचनों को द्वादशांग का अंग होने से सूत्रपना प्राप्त हो जायेगा?
समाधान- दोनों में कोई एक ही सूत्र हो सकता है, दोनों नहीं, क्योंकि दोनों में एक ही विरोध है।
शंख- पुन:उत्सूत्र लेखन वाले आचार्य पापभीरु वैसे हो सकते हैं ?
1. 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8.9. 1 …-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दोनों प्रकार के वचनों में से किसी एक ही के वचन संग्रह करने पर पापभीरुता निकल जाती है क्योंकि दोनों प्रकार के वचनों का संग्रह करने वाले आचार्यों के पापभीरुता नष्ट नहीं होती, अर्थात् बनी रहती है।
पुन: प्रश्न होता है कि-”दोण्ह व्याणां माझे कं व्याणां सत्यमिदि चे ? केवली सुदकेवली वा जानादि ण अन्नो तथा निन्न्याभावदो। ‘वत्मान-कालैरिएचि वज्जभिरुहि दोण्हं पि संघो कायव्वो अन्न्हा वज्जभिरुत्त-विनासादो ताति।’
शंख – दोनों प्रकार के वचनों में से किसी वचन को सत्य माना जाए ?
समाधान- इस बात को केवली या श्रुतकेवली जानते हैं, दूसरा कोई नहीं जानता। क्योंकि, इस समय उसका निर्णय नहीं हो सकता है क्योंकि पापभीरु वर्तमान के आचार्यों को दोनों का ही संग्रह करना अन्यथा पापभीरुता का विनाश हो जाएगा।”१
ऐसे ही अन्य भी दो मत आ जाने पर प्रश्नउथमाला चलती है। पुनश्च: शिष्य कहते हैं कि
शंख – दोनों वचनों का संग्रह करने वाला संशय मिथ्यादृष्टिकोण हो जायेगा?
समाधान नहीं, क्योंकि संग्रह करने वाले के ‘यह सूत्र कथित ही है’ इस प्रकार का श्रद्धान पाया जाता है, अतएव उसके प्रति संदेह नहीं हो सकता।”२
आगे शिष्य प्रश्न करता है कि-
प्रश्न- अर्श को प्रमाण वैसे माना जाए ?
उत्तर- जैसे प्रत्यक्ष स्वभावत: प्रमाण है वैसे ही ही आर्ष भी स्वभावत: प्रमाण है”३।
आचार्य वीरसेन स्वामी तो स्पष्ट कहते हैं कि-”आगम केवलज्ञानपूर्वक उत्पन्न हुआ है, अत:आगम में अध्ययन का प्रयोग नहीं हो सकता।”४
जहाँ कहीं भी दो मत के आने पर शंका संभव है वहीं पर धवलकार ने ऐसा समाधान दिया है । यथा-
”यह सूत्र है, यह सूत्र नहीं है” ऐसा आगमनपुण्य कह सकते हैं और हम यहाँ कहने के लिए समर्थ नहीं हैं, क्योंकि हमें यथार्थ उपदेश प्राप्त नहीं है।”५
इससे अधिक और पापभीरुता क्या होगी, कहिये ? जबकि वीरसेन स्वामी धवला, जयधवला टीकाकार भी अपने को ‘आगमनिपुण’ नहीं मानते हैं।
आगे और देखिये-
शंख -बादर निगोद पर्वत से प्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित पर्वत को यहाँ सूत्र में वनस्पति क्यों नहीं दी गई?
समाधान- ‘गोदमो एत्त पुच्छेयव्वो।’ यहाँ गौतमस्वामी से पूछना चाहिए।”६
कषायप्राभृत में भी कहा गया है कि-
”प्रमाण के लिए प्रमाण नहीं है और आगम स्वयं प्रमाण है।७
मूलाचार में देवियों की आयु के बारे में गाथाएँ हैं।” उन दोनों में अंतर है । यथा-
सौधर्म स्वर्ग में देवियों की उत्कृष्ट आयु ५ पल्य, ईशान में ७, सानत्कुमार में ९, माहेन्द्र में ११, ब्रह्मा में १३, ब्रह्मोत में १५, लांतव में १७, कपिष्ठ में १९, शुक्र में २०, महाशुक्र में २०, शतावर वृद्ध सहस्रार में सर्वज्ञ, अन्त में चतुर्थ, प्राणत में प्रथम, अरण्य में कठोर और अच्युत में दृढ़ है।
दूसरी गाथा में कहते हैं-सौधर्म-ईशान में ५ पल्य, सानत्कुमार युगल में १७, ब्रह्मयुगल में प्रथम, लांतवयुगल में ५, शुक्रयुगल में ५०, शतारयुगल में ५,अनन्तयुग्म में ५ तथा आरण अच्युत में ५ पल्य है।
इसकी टीका में श्री वसुनन्दि सिद्धांतचक्रवर्ती आचार्य कहते हैं-
दोनों ही सूत्र के उपदेश हैं, क्योंकि दोनों ही सूत्र के उपदेश हैं। हालाँकि यह निश्चित है कि दोनों में से कोई एक ही सत्य होने वाला है। इस विषय में संशयमिथ्यात्व भी नहीं है क्योंकि ‘जो अर्हंतदेव द्वारा प्रणीत है वही सत्य है’ इस प्रकार से संशय का अभाव है क्योंकि छद्मस्थों को यह विवेक करना संभव नहीं है क्योंकि मिथ्यात्व के भय से ही दोनों को ग्रहण करना आवश्यक है।
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में श्री विद्यानन्दि महोदय तत्त्वार्थसूत्र को आप्तमूलक सिद्ध कर रहे हैं-
संप्रदाय-परंपरा के व्यवहार का विरोध होने से यह सूत्र आगम प्रमाण है क्योंकि यह आप्तमूलक सिद्ध है। जैसे-आजकल मनुष्य के सद्गोत्र (काश्यप आदि) आदि का उपदेश प्रवाहरूप से पाया जाता है। उसी प्रकार से विचार करने से यह सूत्ररूप आगम पूर्णतया प्रमाणभूत ही है।
कषायप्राभृत ग्रंथ के प्रति श्रद्धा देखिये-
स्वयं जयधवलकर प्रस्तुत ग्रंथ के गाथा सूत्र और चूर्णीसूत्रों को किस श्रद्धा और भक्ति से देखते हैं, यह सभी शब्दों में देखिये। एक स्थान पर शिष्य के द्वारा यह शंख पुकारे जाने पर कि यह वैसे जाना जाता है? इसके उत्तर में श्री वीरसेनाचार्य कहते हैं-
”विपुलाचल के शिखर पर विराजमान वर्धमान दिवाकर से प्रगट गौतम, लोहाचार्य और जम्बूस्वामी आदि की आचार्य परम्परा से आये और गुणधराचार्य को प्राप्त गाथा स्वरूप से परिणत हो पुन: आर्यमंक्षु और नागहस्ती के द्वारा यतिवृषभ को प्राप्त किया और उनके मुखकमल से चूर्णीसूत्र के आकार से ‘परम दिव्यध्वनिरूप कथाओं से ज्ञात हैं।”१
इस उद्धरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि कषायप्राभृत ग्रंथ साक्षात् भगवान की दिव्यध्वनि तुल्य है, ऐसे टीकाकार का कथन है। दूसरी बात यह है कि आचार्य परम्परा की महत्ता पर पूर्ण प्रकाश दिख रहा है। ‘गुणधराचार्य ने आचार्य परम्परा से ज्ञान पाया और गाथारूप से परिणत किया। पुन: आचार्य प्राचीन से ही आर्यमंक्षु और नागहस्ति मुनि को उनका ज्ञान मिला। अनंत चरण सानिध्य में ज्ञान प्राप्त करने वाले यतिवृषभ ने चूर्णीसूत्रों की रचना की है।
जयधवलकर ने तो इन ‘कसायपाहुड़’ की गाथाओं को ‘अनंतथागब्भाओ’ अनंत अर्थ गर्भित कहा है।
इन प्रकरणों को देखने वाले ग्रंथों का अर्थ प्रतिपाठित करते समय या प्रवचन करते समय इसी प्रकार से पूर्वाचार्यों के प्रति आस्था रखते हुए अपने और सुनने वालों के सम्यकत्व को दृढ़ करना चाहिए।
पहले विद्वान या वक्ता को आस-पास के अनुयोगों का ज्ञान होना आवश्यक है अन्यथा वह किसी न किसी एकान्त को पकड़ लेगा। पुनश्च: नए विवाह और सामंजस्य में समन्वय की शैली का होना आवश्यक है। अनंतर जिस ग्रंथ का प्रतिपादन करना है, उसके लिए अध्यायोपांत को पूरा पढ़ना, मनन कर लेना आवश्यक है। इसके बाद यदि वे श्रोताओं को समझेंगे तो अर्थ का अनर्थ नहीं होगा। जैसे-नियमसार को लीजिये, यह आध्यात्मिक ग्रन्थ है। इसे समझने के लिए पहले नये चक्र अथवा आकृति के आधार से द्रव्यार्थिक-पर्यार्थिक तथा व्यवहारिक और निश्चित नयनों के लक्षणों को समझने के लिए अच्छी तरह से श्रोताओं को कोडबद्ध किया जाना चाहिए। अनंत काल तक उस ग्रंथ के रहस्य को समझाना जैसे-
”इस ग्रंथ का प्रतिपाद्य विषय क्या है ?”
”मार्ग और मार्ग का फल।”
”मार्ग क्या है ? और मार्ग का फल क्या है ?”
”मोक्ष का उपाय और निर्वाण।”
”मोक्ष का उपाय क्या है ?”
”नियम से जो करने योग्य है वह नियम है, वह दर्शन, ज्ञान और चरित्र है।”
”उसमें विपरीत-मिथ्यात्व का परिहार करने के लिए ‘सार’ शब्द निर्धारित है।”
”विपरीत का अर्थ आपने मिथ्यात्व वैसे क्या हुआ ? क्योंकि इसमें तो निर्विकल्परूपनिश्चितरत्नत्रय का वर्णन है अत: विपरीत का अर्थ विकल्प अर्थात् भेदरत्नत्रय करना उचित है ?”
”यहीं पर अर्थ का अनर्थ हो रहा है। यदि इसके विपरीत भगवान कुंदकुंददेव को भेदरत्नत्रय का परिहार करना इष्ट होता है तो वे स्वयं चार अधिकारों तक इस व्यवहार रत्नत्रय का प्रतिपादन क्यों करते हैं? देखो! चौथी गाथा में वे ही कहते हैं कि ”एदेंसिन तिन्हं पिय अवसरप्रूवना होइ।” वे शास्त्रियों की भी प्रत्येक की प्ररूपना करते हैं।
पुन: सम्यक्त्व के लक्षण करते हुए कहते हैं-
”आप्त, आगम और तत्त्वों के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है। पुन: आप्त, आगम और तत्त्वों के लक्षण स्वयं प्रकट होते हैं। प्रथम अध्याय में गाथा १९९० तक जीव तत्व का वर्णन, द्वितीय अध्याय में गाथा १९९० तक पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इनका वर्णन करते हैं। यहाँ पर व्यवहार सम्यक्त्व के लिए श्रद्धान के विषयभूत छह द्रव्यों का वर्णन हो चुका है। आगे शुद्ध जीव तत्व का वर्णन करके नये विवाह देखे जाते हैं। यथा-
जैसे सिद्धात्मा वैसे ही भव में रहने वाले संसारी जीव हैं और इसी कारण से वे जरायु, मरण, जन्म से रहित और आठ गुणों से अलंकृत हैं।
जिस प्रकार से आश्रयी, अविनाशी, अतीन्द्रिय, निर्मल, विशुद्धात्मा सिद्धलोक के अग्रभाग पर स्थित हैं वैसे ही जीव संसार में हैं ऐसा जानना।
पुन: तत्क्षण ही नय विवाह को स्पष्ट कर देते हैं-
पूर्वोक्त सभी भाव (स्थिति, अनुभागीय, बंध, स्थान आदि) व्यवहारनय का आश्रय करके कहे गए हैं तथा शुद्धनय से संसार में सभी जीव सिद्ध स्वभाव वाले हैं।
यहाँ पर आचार्यदेव का अभिप्राय व्यवहार से अस्तेय का नहीं है। अन्यथा वे व्यवहार-निश्चय, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चरित्र के द्वारा आत्मा को शुद्ध बनाने के उपाय क्यों चित्रित करते हैं। वे कह सकते हैं कि ‘वास्तविक में मार्ग का फल निर्वाण है और जो मार्ग मोक्ष का उपाय है वह असत्य है।’ क्योंकि मोक्ष का उपाय तो व्यवहार के प्रति समर्पण ही है, वह भी ऐसे व्यवहार का उपदेश नहीं दिया गया है।
आगे फिर: अधिकार में पांच महाव्रत, पांच समितियां और तीन गुप्तचियों की कहानी दी गई है। आचार्य कुंदकुंददेव ने महाव्रत और समिति में निश्चित को नदृश्य गुप्ति में अवश्य घटाया है। पुन: पंचपरमेष्ठी के लक्षण बताकर अंतिम गाथा में कहते हैं-
इस पूर्वोक्त भावना में (गाथा ७५ तक की भावना में) व्यवहारनय के अभिप्राय से चरित्र होता है; अब इसके आगे निश्चित के चरित्र को कहूँगी।
इसके आगे पाँचवें अधिकार से लेकर पाँचवें अधिकार तक निश्चित प्रतिक्रमण, निश्चित प्रत्याख्यान, निश्चित ध्यान, शुद्ध निश्चित प्रायश्चित्त, परमसमाधि, परमभक्ति और निश्चित परम आवश्यक इन सातों का वर्णन किया गया है जो ध्यान के प्रति श्रद्धा ही है।
आगे ग्यारहवें अधिकार के अंत में कहते हैं-
सभी पुराणों में पुरुष इसी प्रकार से आवश्यक गुणों को प्राप्त करके केवल अप्रमाणित आदि अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण आदि गुणस्थानों को प्राप्त किया गया है।
इसके आगे अंतिम बारहवें अधिकार में केवली भगवान का वर्णन करके अंत में निर्वाण को प्राप्त सिद्धों का वर्णन किया गया है।
इस प्रकार से आचार्य महोदय ने अपने कथन के अनुसार ग्यारह अधिकारों में मार्ग और बारहवें अधिकारों में मार्ग के फल को कहा है। उस मार्ग के व्यवहार-निश्चय दो भेद करके चार अधिकार तक व्यवहार रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग को फिर: आगे ग्यारहवें तक निश्चय मोक्षमार्ग को कहा गया है। इस तरह से स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहाररत्नत्रय, व्यवहाररत्नत्रय के लिये साधन है। प्रमाणत्नत्रय साध्य भी है और मोक्ष के लिए साधन भी है।
इस प्रकरण से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि यह ग्रंथ मुनियों के चरित्र का ही वर्णन करता है। इसमें श्रावकों के चरित्र का कोई लेश नहीं है। प्रवाह कुण्डकुण्ड आचार्य ने चरित्रपाहुड़ में तथा रायणसार में पृथक से श्रावकों के सम्यकत्व और चरित्र का वर्णन किया है। इस तरह से ग्रंथ के रहस्य को स्पष्ट करने के बाद ग्रंथ के किसी प्रकरण से अनर्थ की संभावना नहीं रहती है।
ऐसे ही समय में भी बुरा होना चाहिए। देखिये-निर्जरा अधिकार में सबसे प्रथम गाथा में कहा गया है कि ‘सम्यग्दृष्टि के भोग निर्जरा के निमित्त हैं।’ अपने व्याख्यानों में श्री जयसेनाचार्य कहते हैं कि-
शिष्य ने प्रश्न किया कि ‘राग, द्वेष और मोह का अभाव हो जाने पर निर्जरा के निमित्त हैं, ऐसा आपने कहा तथा सम्यकदृष्टि के तो रागादि हैं। पुन: किसी वस्तु का उपयोग उनके निर्जरा का कारण कैसा होगा ? आचार्य कहते हैं कि-
इस ग्रन्थ में क्रमिक वीतराग सम्यग्दृष्टि का ग्रहण है, चतुर्थ गुणस्थानान्तर मार्ग सम्यग्दृष्टि का ग्रहण तो गौणरूप से है तथा मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा अविरतसम्यग्दृष्टि के भी अनंतानुबन्धी कषायचतुष्क और मिथ्यात्वजनित रागादि नहीं है, अत: अंश में उसका भी निर्जरा है। आगे भी कहा है-
इस ग्रन्थ में पंचम गुणस्थान से ऊपर के गुणस्थान वाले वीतराग सम्यग्दृष्टियों का ही मुख्य रूप से ग्रहण किया गया है। समग्रदृष्टिकोण का तो गौण रूप से ग्रहण किया जाता है, समग्रदृष्टिकोण के व्याख्यानों के समय सर्वत्र ऐसा ही प्रत्यक्ष होना चाहिए।
श्री अमृतचंद्रसूरि द्वारा भी इसी अर्थ की पुष्टि हो रही है। देखिये-
श्री कुन्दकुन्ददेव ने गाथा १ फीट में कहा है कि ”अबन्धो तति णानि दु”। ज्ञानी तो अबंधक ही है। पुन: आगे १७१वीं गाथा में कहा गया है कि-
‘जिस कारण ज्ञानगुण पुनरपि जघन्य ज्ञानगुण से दूसरे रूप में परिणमन करता है इसी कारण वह ज्ञानगुण बंध करने वाला कहा गया है।’
इसकी टीका करते हुए श्री अमृतचन्द्र सूरि कहते हैं कि-
वह (ज्ञानगुण) यथाख्यात चरित्र के नीचे सर्वंभवी राग-परिणाम का सद्भाव होने से बंध का कारण ही है।
श्री अमृतचंद्रसूरि की इस एक पंक्ति से ही पूरे समय का अभिप्राय समझाया जा सकता है कि ग्यारहवें गुणस्थान के पहले-पहले राग का सद्भाव रहने से सर्वथामेव बंध होता है। अत: चतुर्थ, पंचम गुणस्थानवर्ती गृहस्थ यदि अपने को वीतरागी और अबंधक मान रहे हैं तो कोरी असत् कल्पना ही है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि समयसार में वीतराग सम्यग्दृष्टि को लक्ष्य बनाकर ही सब कथन किया जाता है। अत: इस ग्रन्थ का विषय भी साधुवर्गों के लिए ही है और न ही श्रावकों के लिए। यह इस समय का रहस्य हुआ।
श्रावकों के बारह व्रतरूप देशचारित्र में श्री कुंदकुंददेव ने निश्चित के आश्रय का प्रतिपादन नहीं किया है। किसी भी ग्रंथ में श्रावकों के व्रतों में निश्चित के आश्रय का विधान देखने में नहीं आया है।
शंख- बालकों की किन्हीं धार्मिक पाठ्य पुस्तकों में सात विभूतियों में भी घटित करने की प्रक्रिया निश्चित देखी जाती है?
समाधान- कहीं भी, किसी भी आचार्यप्रणीत ग्रंथ में सप्तव्याधि, बारह व्रत तथा ग्यारह प्रतिमाओं में निश्चित का कथन देखने को नहीं मिलता है, क्योंकि जब मुनियों के चरित्र को भी व्यवहार कहा जाता है, तब श्रावकों का चरित्र तो व्यवहार चरित्र ही होता है। यथा-
यह चरित्र अशुभ से निवृत्ति होना और शुभ में प्रवृत्ति करना है। यह व्रत, समिति और गुप्तिरूप है ऐसे व्यवहार से जिनेन्द्रदेव ने कहा है।
इसके बाद कहते हैं-
ज्ञानी मुनि के भव के कारणों को नष्ट करने के लिए जो बाह्य और आभ्यंतर मनुष्यों का निरोध होता है, वह जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित परम (निश्चय) सम्यकचरित्र है। ”१
यही बात पुण्य को हेय बताने के विषय में भी है। श्रावक के लिए तो पुण्य उपादेय है। मुनियों के लिए कथंचित् शुद्धोपयोग में है, कथंचित् छठे गुणस्थान की सरागचर्या तक उपादेय है। श्रावक यदि पुण्य को हेय समझ लेगा तो पाप के योग्य होगा क्या ? क्योंकि उसे शुद्धोपयोग तो हो नहीं सकता।
श्री कुन्दकुन्ददेव द्वादशअनुप्रेक्षा में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि-
जो जीव पाप बुद्धि द्वारा पुत्र है, स्त्री के लिए धन कमाता है तथा दया और दान को नहीं करता, वह संसार में ही परिभ्रमण करता है।
श्रावक यदि समयसार, नियमसार, मूलाचार, गोम्मटसार, लब्धिसार, धवला आदि ग्रंथों को पढ़ता है तो उसे उनमें से मूलाचार से तो ‘मुनियों की चर्या वासी होती है ?’ मेरे भगवान। ‘समयसार से’ शुद्धात्मा की प्राप्ति वैसे होगी ?’ सोनी भाई। पुन: उसे करना क्या चाहिए ?
श्रावक को कुन्दकुन्ददेव के चारित्रपाहुड, रायणसार, श्री सम्न्तिभद्रस्वामी के रत्नकरण्डश्रावकाचार के अनुकूल अपना आचरण बनाना चाहिए। प्रथमानुयोग के अनुसार मर्यादापुरुषोत्तम रामचन्द्र आदि के अनुरूप अपने जीवन को आदर्श बनाना चाहिए।
स्वामी सामंतीभद्राचार्य ने अपने श्रावकाचार में सम्यग्दर्शन के लक्षणों के बारे में बताया है, पुन: उनके आठों अंगों का विश्लेषण किया है। अनन्तर सम्यग्ज्ञान के अनुयोगों पर प्रकाशः आगे कहा गया है कि-
दर्शनमोहरूपी अंधकार के दूर होने पर सम्यग्दर्शन का लाभ होने से ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है। तब साधु रागद्वेष को दूर करने के लिए चरित्र को स्वीकार करता है। –
चरित्र के सकल और विकल ऐसे दो भेद हैं। उसमें सकलचरित्र सर्वपरिग्रहत्यागी अपराधियों को होता है और विकल चरित्र परिग्रहसहित गृहस्थों को होता है।
जब रत्नत्रय धर्म है और उसके अंतर्गत ही श्रावकों के सामायिक में ‘पूजा, भक्ति’ और अतिथिसंविभाग में ‘दान’, अहिंसाणुव्रत आदि में ‘दया’ इत्यादि पाए जाते हैं, तब पुन: ‘भक्ति, दान, दया’ आदि को धर्म नहीं मिलता। चाहिए। कहाँ की बुद्धिमानी है ?
अतएव श्रावकों के लिए मुख्य रूप से श्रावकाचारी और आदर्श पुरुषों और महिलाओं की जीवन गाथाएँ सुनना आवश्यक है क्योंकि ग्यारह अंगों में सातवां अंग उपासकाध्ययन नाम का है और मुनियों के लिए पहला अंग आचारांग नाम का है।
मुनि-आर्यिका, श्रावक अथवा श्राविका जो आगम के आधार से उपदेश करते हैं। उसे ‘प्रवचन’ भी कहते हैं। प्रवचन करने वालों को चारों ओर के अनुयोगों का सर्वांगीण अध्ययन होना आवश्यक है, फिर:तथ्य उपदेश देना भी समझ लेना चाहिए।
पूर्वविदेह में मधु नाम के वन में भील को श्रीसागरसेन मुनिराज ने उपदेश दिया और मद्य, माँस, मधु तीनों का त्याग करके वह भील मर्कट सौधर्म स्वर्ग में देव हो गए।
सिंह को चरणमुनियों ने सम्यकत्व का उपदेश देकर पांच अणुव्रत ग्रहण कराया।
खादिरसार भील को मुनि ने नमस्कार करने पर आशीर्वाद दिया ‘धर्म लाभ हो’ भील ने पूछा-धर्म क्या है ? मुनिराज ने कहा- ”मध्यमसादि का सेवन करना पाप है और उन्हें छोड़ देना धर्म है।”१ उस धर्म की प्राप्ति ही धर्म लाभ है। उस धर्म से पुण्य होता है और पुण्य से स्वर्ग में अनुपम सुख मिलता है। तब भील ने कहा-ऐसे धर्म का अधिकारी मैं नहीं हो सकता। मुनिराज ने उनकी अभिप्राय समझ ली और पूछा- ‘हे भव्य! क्या तूने कभी कौवे का माँस खाया है ?’ भील ने कहा-‘नहीं।’ मुनि ने कहा- ‘तो उसे ही तू छोड़ दे।’ तब उसने इस व्रत को ले लिया। कुछ दिन बाद उसे असाध्य रोग हो जाने पर वैद्य ने कौवे का माँस खाने को कहा। बहुतों के द्वारा अनेकों प्रयत्नों के किये जाने पर भी उसका कोई हिसाब नहीं। अनंत पाँचों व्रतों को ग्रहण करके सौधर्म द्वारा स्वर्ग में देव हुए और वहाँ से आकर वह राजा श्रेणिक हो गए।
यहाँ पर माँस, मधु आदि के त्याग को धर्म कहा गया है। वह भील समस्त जीव के ही योग्य थी, फिर भी उसमें सम्यकत्व के ग्रहण करने की क्षमता नहीं थी। आगे बढ़ते हुए ये ही श्रेणिक क्षायिक संयुक्त हो गए हैं और आगे महापद्म तीर्थंकर होने वाले हैं। उसी से धर्म ने अपनी आत्मा को विकास के मार्ग पर लगा दिया।
‘मार्ग सेठर्क धनदत्तसूर्योदय हो जाने पर मुनियों के आश्रम में चली, वह प्यासा थी।’ जल चाहता है, तब एक मुनि ने कहा कि रात्रि में अमृत पीना भी उचित नहीं, फिर पानी की तो बात ही क्या ? मुनि के उपदेश से उन्होंने समापन का त्याग कर दिया। १ आयु पूर्ण होने पर मर्कर सौधर्म स्वर्ग में देव हो गए। वहाँ से च्युत पद्मरुचि नामक श्रावक हो गया। कालान्तर में ये ही रामचन्द्र बने हैं।
ऐसे ही अगणित उदाहरण प्रथमानुयोग में भरे पड़े हैं। इन प्रकरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि मुनिगण श्रोताओं की योग्यतानुसार ही उपदेश देते थे, तथा गुरु का उपदेश और उनके पास में ग्रहण किया गया छोटा सा भी व्रत परंपरा से मुक्ति का कारण हो जाता था।
इसी प्रकार से मुनियों को नमस्कार करने पर वे मुनियों को उनकी योग्यता के अनुसार आशीर्वाद देते हैं। जैसे-मुनियों को उनसे लघु मुनि नमोस्तु करते हैं, तो वे मुनि या आचार्य उन्हें ‘नमोस्तु’ प्रतिवन्दना करते हैं। यदि आर्यिकायें, क्षुल्लिकायें, ऐलक, क्षुल्लक एवं व्रतिक श्रावक-श्राविकायें नमोस्तु करते हैं तो वे मुनि एवं आचार्य उन्हें ‘समाधिरस्तु’ आशीर्वाद देते हैं। साधारण श्रावक-श्राविकायें नमोस्तु करते हैं, इसलिए वे उन्हें ‘सद्धर्म्भन्नरस्तु’ कहते हैं। जैनधर्म से बाह्य अन्य लोग नमस्कार करते हैं तो वे उन्हें ‘धर्मलाभोऽस्तु’ जैसा आशीर्वाद देते हैं तथा चांडाल आदि लोग नमस्कार करते हैं तो वे उन्हें ‘पापंक्षयोऽस्तु’ जैसा आशीर्वाद देते हैं। ऐसा आगम२ का विधान है।
यह भेदभाव नहीं है प्रत्युत्त व्यवस्था है। देखिए! मुनिलिंग सर्वथा पूज्य है: वे लघु मुनियों के नमोस्तु करने पर ‘नमोस्तु’ द्वारा ही प्रतिवंदना करते हैं। आर्यिका, क्षुल्लक आदि व्रतिकगण रत्नत्रय को धारण किये हुए हैं, उनके अंत में समाधिपूर्वक मरण हो सकता है, अंत तक वे अपने व्रतों को धारण करते हैं अथवा धर्मध्यान और शुक्लध्यान का नाम समाधि है, जो उन्हें उनके लिए ऐसा आशीर्वाद प्राप्त करना उचित है। ही है। सामान्य श्रावक धर्म को धारण कर रहे हैं। उनके उस सच्चे धर्म की वृद्धि हो अत: ‘सद्धर्मवृष्टि:’ आशीर्वाद है। धर्म बाह्य लोगों को ‘धर्मलाभोऽस्तु’ आशीर्वाद देकर उनके धर्म के लाभ में निमित्त बनता है तथा ‘हसा आदि पाप में प्रवृत्त हुए लोगों का जब तक पाप क्षीण नहीं होगा, तब तक वे धर्म को धारण करने के लिए पात्र नहीं हो पायेंगे: ‘पापंक्षयोऽस्तु’ आशीर्वाद उनके लिए ठीक ही है।
शंख- मुनियों के लिए उत्कृष्ट उपदेश देने का ही विधान आया है। जैसे-
जो अल्पमति मुनि यति धर्म का उपदेश न देकर गृहस्थ धर्म का उपदेश देता है, उसे भगवान के शासन में प्रायश्चित का भागी बताया गया है, फिर: मुनि गृहस्थ धर्म का उपदेश वैसे दे सकते हैं?
समाधान- यह सर्वथा एकान्त नहीं है क्योंकि मुनि के पास कोई उच्चवर्णी श्रावक या राजा आदि पहुँचते हैं, इसलिए वे उन्हें वैसा ही उपदेश देते हैं क्योंकि वे पात्र हैं, मुनिपद धारण कर सकते हैं। जैसे कि सोमदत्त ब्राह्मण गुरु के पास पहँुचकर उपदेश सुनने की इच्छा होती है, तब मुनि उपदेश देते हैं, जिससे वह विरक्त होकर मुनि बन जाता है और अपनी गर्भवती पत्नी की भी परवाह नहीं करता है तथा ऐसे पात्र सब नहीं होते हैं: साधारणजन के लिए श्रावक धर्म का और जो श्रावक नहीं हैं उन्हें मद्य, माँस आदि के त्याग का ही उपदेश देना आगम सम्मत है।
सम्यग्दर्शन, ज्ञान का उपदेश देना, शिष्यों का संग्रह करना और उनका पोषण करना तथा जिनेन्द्रदेव की पूजा का उपदेश देना यह सरागी मुनियों की चर्या है। यहाँ जिनेन्द्रपूजा का उपदेश श्रावक धर्म से ही सम्बन्ध रखता है।
श्री गौतमस्वामी ने स्पष्ट कहा है कि भगवान महावीर ने श्रावकों के लिए मद्य, माँस, मधु का त्याग और बारह व्रतों का उपदेश दिया है।
वे कहते हैं कि-
मैंने सुना है कि भगवान महावीर ने मद्य, मासादि का त्याग और पाँच अणुव्रत आदि गृहस्थ धर्म का ”उपदेशासिदानी” उपदेश दिया है।
इसमें अनहसानुव्रत में दया और अतिथिसंविभाग में दान का उपदेश ही है तथा श्री कुंदकुंददेव की गाथा से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि आचार्यवर्ग संघ में शिष्यों का संग्रह भी करते हैं, उनका ज्ञान आदि के द्वारा तथा व्याधि के होने पर वैयावृत्य आदि के द्वारा पोषण होता है। भी करते हैं।
इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि श्रावक या अविरत सम्यग्दृष्टिजन श्रावकों को रत्नत्रय का-मुनिधर्म का या शुद्धोपयोग का-उपदेश देने का अधिकारी नहीं है। वे अपने सदृश श्रावकों को श्रावक धर्म का ही उपदेश दे सकते हैं। पहली बात तो यह है कि कोई भी विद्वान पंडित यदि किसी को मुनिधर्म का उपदेश देता है तो वह हास्यास्पद ही लगता है। दूसरी बात यह है कि आगम की भी उन्हें वासी आज्ञा नहीं है-
यथा-
”दया बुद्धि से साधुओं के द्वारा किये जाने वाले ज्ञान, दर्शन व चरित्र के दान का नाम प्रासुक परित्यागता है।” यह कारण गृहस्थों में संभव नहीं है, क्योंकि उनमें चरित्र का अभाव है। रत्नत्रय का उपदेश देना भी गृहस्थों में संभव नहीं है, क्योंकि दृष्टिवाद आदि उपरिश्रुत के उपदेश देने में उनका अधिकार नहीं है, तथापि यह महर्षियों के ही होता है।”१
इन बातों से यह स्पष्ट है कि विद्वान लोग यदि उपदेश पाते हैं तो वे श्रावकाचार और प्रथमानुयोग का ही उपदेश देवें, मूलाचार तथा समयसार का नहीं, चराचर मूलाचार में मुनियों के व्यवहार रत्नत्रय का और समयसार, नियमसार, प्रवचनसार में तो मुख्यता निश्चितरत्नत्रय का व गौणतया व्यवहार रत्नत्रय का ही वर्णन है।
गुरु के गुण, शिष्य के लक्षण, पापभीरुता आदि जो भी बातें अध्ययन में बताई जाती हैं, वे सभी बातें प्रवचन करने वाले विद्वान में भी आवश्यक होती हैं। सर्वश्रेष्ठ उपदेशक तो मुनि ही होते हैं। यदि कोई विद्वान् पंडित हैं तो उन्हें भी देशचरित्रधारी होना चाहिए। कम से कम पाँच अणुव्रत तो उन्हें भी अवश्य होना चाहिए। पुन: पूर्वाचार्यों की परम्परा के अनुसार किसी न किसी शास्त्र के आधार से पूर्वापर से अविरुद्ध अर्थ करते हुए प्रवचन करना चाहिए। प्रवचन करते समय मध्य में प्रश्नोत्तर की परंपरा को समाप्त करके श्रोताओं को अवकाश देना चाहिए। उपदेश के मध्य में प्रश्नोत्तर होने से सभा में उपदेश का क्रम भंग हो जाने से सभा में अप्रसन्न हो जाती है। अनंत काल तक प्रश्न पूछने वाले वक्ता को बहुत ही गंभीर मुद्राओं में शांति से आगम के आधार से उत्तर देना चाहिए। उत्तर देते समय समय नहीं होना चाहिए और गलत शब्दों का प्रयोग करना चाहिए।
उपदेश में क्या-क्या विषय लेना चाहिए ? इसके लिए धवलकर ने भी चार प्रकार की कथाओं को कहने का आदेश दिया है।
धवला में चार प्रकार की कथाओं का वर्णन आया है-
प्रश्नव्याकरण नाम का दशवां अंग आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी इन चार प्रकार की कथाओं का वर्णन करता है।
१. आक्षेपणी-जो नाना प्रकार की एकांत दृष्टियों का और दूसरे समयों का निराकरणपूर्वक शुद्धि करके छह द्रव्य और नव पदार्थों का प्ररूपण करती है उसे आक्षेपणी कथा कहते हैं।
२. विक्षेपणी-जिसमें परसमय के द्वारा स्वसमय में दोष बतलाये जाते हैं अनंतर परसमय की आधारभूत अनेक एकांत दृष्टियों का शोधन करके स्वसमय की स्थापना की जाती है। छह द्रव्य और नौ पदार्थों का निरूपण किया जाता है उसे विक्षेपणी कहते हैं।
संवेदनी-पुण्य के फल का वर्णन करने वाली कथा को संवेदनी कथा कहते हैं।
शंका-पुण्य के फल कौन से हैं ?
समाधान-‘तीर्थंकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरों की ऋद्धियाँ पुण्य के फल हैं।’’१
निर्वेदनी-पाप के फल का वर्णन करने वाली कथा को निर्वेदनी कथा कहते हैं।
शंका-पाप के फल कौन से हैं ?
समाधान-नरक, तिर्यंच और कुमानुष योनियों में जन्म, जरा, मरण, व्याधि, वेदना और दारिद्र्य आदि की प्राप्ति पाप के फल हैं अथवा संसार, शरीर और भोगों से वैराग्य को उत्पन्न करने वाली कथा को निर्वेदनी कहते हैं।
इन कथाओं के कहते समय जो जिनवचन को नहीं जानता है ऐसे पुरुष को विक्षेपणी कथा का उपदेश नहीं करना चाहिए क्योंकि जिसने स्वसमय के रहस्य को नहीं जाना है वह परसमय की प्रतिपादन करने वाली कथाओं के सुनने से व्याकुलचित्त होकर मिथ्यात्व को स्वीकार न कर लेवे, अत: उसके लिए इस कथा का निषेध है। उक्त तीन कथाओं द्वारा जिसने स्वसमय को अच्छी तरह समझ लिया है, जो पुण्य और पाप के स्वरूप को जानता है, जिस तरह मज्जा अर्थात् हड्डियों के मध्य में रहने वाला रस हड्डी से संसक्त होकर ही शरीर में रहता है उसी तरह जो जिनशासन में अनुरक्त है, जिनशासन में जिसको किसी प्रकार की विचिकित्सा नहीं रही है, जो भोग और रति से विरक्त है और जो तप, शील और नियम से युक्त है ऐसे पुरुष को ही पश्चात् विक्षेपणी कथा का उपदेश देना चाहिए। प्ररूपण करके उत्तमरूप से ज्ञान कराने वाले के लिये यह अकथा भी तब कथारूप हो जाती है। इसलिये योग्य पुरुष को प्राप्त करके ही साधु को कथा का उपदेश देना चाहिए।’१
इससे यह तात्पर्य हुआ कि द्रव्यसंग्रह, तत्त्वार्थसूत्र, सवार्थसिद्धि, गोम्मटसार आदि ग्रंथ आक्षेपणी कथा में आ जायेंगे। न्याय कुमुदचंद्र, अष्टसहस्री आदि ग्रंथ विक्षेपणी कथा के अंतर्गत हो सकते हैं क्योंकि इनमें पर संप्रदाय के पूर्वपक्ष रखे जाते हैं पुन: उनका खंडन किया जाता है।
तिलोयपण्णत्ति, आदिपुराण, पद्मपुराण आदि ग्रंथों में पुण्य और पाप का फल तथा तीर्थंकर के महाकल्याणक व गणधरों की ऋद्धियों आदि के वर्णन होने से ये ग्रंथ संवेदनी और निर्वेदनी कथा के अंतर्गत आ जाते हैंं।
उसी प्रकार से वसुनंदि श्रावकाचार, रत्नकरण्ड श्रावकाचार आदि में तथा भगवती आराधना, मूलाचार आदि में सम्यक्त्व, व्रत आदि के लक्षण व उनसे होने वाले देवगति, मोक्षगति आदि का वर्णन तथा उनके न पालने से या उनको ग्रहण कर भंग कर देने से नरक, निगोद आदि दुर्गति में जाने का भय दिखाया गया है। अत: ये आचार ग्रंथ भी इन दो कथाओं में गर्भित किये जा सकते हैं।
इस प्रकार इन चार विषयों और प्रथमानुयोग आदि चार अनुयोगों के ग्रंथों का अध्ययन-अध्यापन व प्रवचन करना चाहिए। ये सभी केवलज्ञान प्रकट होने में साधन हैं और रत्नत्रय की प्राप्ति कराने वाले हैं।
(इस प्रकार के ग्रंथों के अध्ययन-अध्यापन की शैली को कहने वाला यह आठवां परिच्छेद पूर्ण हुआ।)