हे प्रभु! इन दो दु:ध्यानों को आपके प्रसाद से निर्मूल करके मैं धर्मध्यान को क्रम से मोक्ष प्राप्त करूंगा।
एकाग्रचिंतानिरोध होने के कारण किसी विषय पर मन का स्थिर ध्यान होना आवश्यक है। यह ध्यान उत्तम संहनन वाले मनुष्य के अधिक से अधिक अन्तर्मुखता तक ही हो सकता है। इस ध्यान के अर्थ, रौद्र, धर्म और शुक्ल ऐसे चार भेद होते हैं। उसमें अर्थध्यान व रौद्रध्यान संसार के कारण हैं और ”पर मोक्ष हेतू” सूत्र से धर्मध्यान व शुक्लध्यान मोक्ष के कारण हैं। धर्मध्यान चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सातवें तक होता है। धवला में तो दसवें गुणस्थान तक भी धर्मध्यान माना जाता है और शुक्लध्यान में तो उत्तमसंहननधारी महामुनियों के तथा केवली भगवान के ही होता है।
इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदनाजन्य और निदान ये चार भेद अर्थध्यान के हैं। ऐसे ही सिंहानन्द, मृषानन्द, चौर्यन्द और परिग्रहानन्द ये चार भेद रौद्रध्यान के हैं। गृहस्थाश्रम में प्रिय आर्त्तध्यान चलता ही रहता है और कभी-कभी रौद्रध्यान भी हो जाता है।
इन अप्रशस्त ध्यानों को हटाने व घटित होने के कारण ही धर्मध्यान किया जाता है। यद्यपि गृहस्थाश्रम में ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती है जैसा कि श्री शुभचंद्राचार्य ने कहा है कि ‘आकाशपुष्प या गृह के बीज हो सकते हैं क्योंकि किसी भी देश या काल में गृहस्थाश्रम में ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती है।’१ फिर भी इस धर्मध्यान की सिद्धि के लिए गृहस्थाश्रम में ध्यान का अभ्यास और भावना करना ही चाहिए। श्रावक जो दान, पूजा, शील और उपवास इन चार गुणों को अथवा देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन षट्क्रियाओं को करते हैं। वह सब धर्मध्यान की भावना ही है।
आगे बढ़ते हुए श्री शुभचंद्राचार्य ने यह भी कहा है कि ”किन्नियों ने धर्मध्यान के असंयत सम्यग्दृष्टि, देशसंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत ऐसे चार स्वामी भी माने हैं।”१
अत: गृहस्थाश्रम की नाना चिंता में उलझे मन को कुछ विश्रान्ति देने के। श्रावकों को आज्ञाविचय आदि अथवा पदस्थ के लिए, पदस्थ आदि ध्यान का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। यद्यपि इन विचारों को ध्यान की सिद्धि कठिन है, इसलिए इन नामों की सार्थकता को भी प्रतिदिन प्राप्त किया जाता है और कालान्तर में भी अभ्यास ध्यान की सिद्धि में सहायक बन जाता है।
धर्मध्यान के चार भेद हैं-आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थाविचय।
जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित तत्त्व सूक्ष्म हैं, उनके नाना प्रकार के तर्क कुतर्कों से खण्डन नहीं किया जा सकता, आज्ञामात्र से ही वे ग्रहण करने योग्य हैं क्योंकि जिनेन्द्रदेव अन्यथावादी नहीं हैं। इस प्रकार आज्ञा का प्रमाण मानकर जो चिंतवन होता है, वह आज्ञाविचय धर्मध्यान है।
अपने और पर के कर्मों के नशे के उपायों का चिंतावन करना। ‘मैं इन दु:खी को दु:ख से सर्व उत्तम सुख में वैसे ही आऊँ’। इस प्रकार से चिंतावन करना अविचय धर्मध्यान है।
कर्मों के उदय से होने वाले सुख-दु:ख का विचार करना अथवा कर्मों के बंध, उदय, सत्व का चिंतन करना विपाकविचय धर्मध्यान है।
तीन लोकों के आकार का चिंतन करना, अधो, मध्य और ऊर्ध्व लोकों के आकार व तथ्यात्मक चिंतन के सुख-दु:ख का चिंतन करना संस्थात्मक धर्मध्यान है।
इस संस्थानविचय धर्मध्यान के पण्डस्थ, पण्डस्थ, रूपस्थ और रूपतीत ऐसे चार भेद होते हैं।
यहाँ पर ध्यान के लक्षण प्रकट हो रहे हैं। इस ध्यान के अभ्यास के लिए ध्याता, ध्येय, ध्यान और ध्यान का फल इन चार बातों को कोडित किया जाना चाहिए। प्रसन्नात्मा भव्य जीव जो सम्यग्दृष्टि होते हैं, पापभीरुता आदि गुणों से युक्त होते हैं ऐसे चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सप्तम गुणस्थान तक के जीव धर्मध्यान के ध्याता होते हैं। पंचपरमेष्ठी, उनके वाचक अक्षर, दशधर्म व द्वादशांग के कोई भी वर्ण या पद ध्येय हैं और उनकी शुद्ध आत्मा भी ध्येय है। एक विषय पर मन का ध्यान है और उसके फल परिवेश से मोक्ष है।
इस ध्यान के लिए सर्वप्रथम मंदिर या पवित्र स्थान में जाकर विधिपूर्वक ‘देववंदना’ करना चाहिए। अनंत योगमुद्रा से कृतज्ञता निराकुल भाव रखते हुए आगे कथित ध्यान के अंतर्गत पांच धारणाओं का क्रम से चिंतवन करना।
‘छिद्र-शरीर में स्थित आत्मा का ध्यान करना छिद्रस्थ ध्यान है। इसके लिए पाँच धारणाएँ होती हैं। पार्थिवी, अग्नियी, श्वसना, वरुणी और तत्त्वरूपवती।
१. पार्थिवीधारणा- स्थिरयोग मुद्रा से अनुग्रह ध्यान करना कि स्वयंभूरमण समुद्र पर्यंत, मध्यलोक प्रमाण विस्तृत एक क्षीरसमुद्र है, यह नि:शब्द और कल्लोल रहित है। इसके बीच में एक लाख योजन विस्तृत जम्बूद्वीप प्रमाण एक हजार पत्रों वाला सुवर्णमयी एक कमल खिल हुआ है। इसकी कर्णिका सुमेरु पर्वत के ऊपर कोम्य हुई है। वह कर्णिका पर श्वेतवर्ण का सर्वोच्च सिंहासन है। उस पर मैं अपनी आत्मा का ध्यान कर रहा हूँ। यह पार्थिवधारणा है।
२. अग्नियीधारणा- पुन: उसी तरह बैठे हुए ऐसा चिंतावन करना कि मेरे नाभिस्थान में सोलह दिन वाला समापन हुआ एक श्वेत कमल है। उसकी कर्णिका पर ‘र्हं’ ऐसा बीजाक्षर लिखा हुआ है और पूर्व दिशा के क्रम से पर ‘अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋृ ऌ ऌृ ए ऐ ओ औ अं अ:’ ये सोलह स्वर लिखे हुए हैं। इसी प्रकार कमल के ठीक ऊपर हृदय स्थान में आठ पंखुड़ी वाला काले वर्ण का एक कमल है जिसके आधार पर ‘ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय ये आठ कर्म लिखे हुए हैं। यह कमल औंधे मुख वाला है। पुन: ऐसा चिंतन करना कि नाभिकमल की कर्णिका के ‘रहं’ बीजाक्षक के रेफ से वायु निकल रही है, पुन: उसमें से अग्नि के स्फूर्तिदायक होने लगे, धीरे-धीरे अग्नि की लौ ऊपर उठती है और उसमें से लपटें निकलने लगती हैं। वे लपेटे के ऊपर कमल को जला देते हैं। धीरे-धीरे वह अग्नि की लौकिक मस्तक के ऊपर पहुंच गई और ऊपर से उसे एक खुली ओर और एक खुली ओर को निकाल दिया गया। इन दोनों क्षणों को नीचे आकर दोनों कोनों को मिलाकर त्रिकोणाकार अग्निमण्डल बना दिया। अब अंदर में धड़गती अग्नि अंदर के कमल आदि को जला रही है और बाहर की अग्नि औदारिक शरीर को भस्म कर रही है। इस त्रिकोण में त्रिभुजों में ‘रं रं रं रं’ ऐसे अग्नि बीजाक्षर लिखे हुए हैं, जो त्रिभुजों में स्वस्तिक बना हुआ है तथा स्वस्तिक के पास भीतरी भाग में ‘ऊँ र्र’ ऐसे बीजाक्षर लिखे हुए हैं। इस त्रिकोणकार अग्निमण्डल की अग्नि को जब अग्नि को कुछ शेष नहीं रहता तो वह शान्त हो जाती है और अग्नि का पुंज इकट्ठा हो जाता है। यह अग्नियी धारणा हुई।
३. श्वसनाधारणा- पुन: ऐसा चिंतावन करना कि आकाश में चारों ओर से बहुत जोर से हवा चलने लगी जो कि मेरु को भी कम्पाने में समर्थ हो। ऐसा लगता है कि यह हवा का समूह एक गोलाकार वायुमण्डल बन गया है। इस मण्डल में ‘स्वयं स्वय’ जैसे वायुमण्डल के बीजाक्षर लिखे हुए हैं। यह वायुमण्डल आत्मा के ऊपर एकत्रित हुए समस्त भस्मपुंज को उड़ा रहा है। तत्पश्चात वह वायु स्थिर हो गई है। ऐसा चिंता करना सांस लेना या वायवी धारणा है।
४. वरुणिधारणा- पुन: ऐसा दृष्टिकोण कि आकाश में चारों ओर मेघ छा गए हैं, बिजली चमक रही है, इंद्रधनुष दिख रहा है, बादल गरजने लगे। इस जल का अपना ऊपरी अर्धचन्द्राकार मण्डल बन गया है और उससे अमृतमय जल की सहस्र धाराएं बरसती हुई मेरी आत्मा के ऊपरी हुई कर्म की भस्म को प्रक्षालित कर रही हैं। इस वरुणमण्डल में ‘प प प’ जैसे बीजाक्षर लिखे हुए हैं। वह वरिधारणा हुई।
५. तत्त्वरूपवतीदर्शन-तत्पश्चात ऐसा चिंतावन करना कि मेरी आत्मा सप्तधातु से रहित, पूर्णचन्द्र के सदृश प्रभावशाली सर्वज्ञ समान हो गई है। अब मैं अतिशयों से युक्त और कल्याणों की महिमा से युक्त हूँ, देव, दानव, धरणेन्द्र आदि से पूजित हो गया हूँ, ऐसा ध्यान करना तत्त्वरूपवती धारणा है।
इस पितृ ध्यान का निश्चल अभ्यास करने वाले योगीजन मोक्षसुख को भी प्राप्त कर लेते हैं। इस ध्यान के प्रभाव से शाकिनी, ग्रह, भूत, पिशाच आदि कुछ भी विद्रोह करने में समर्थ नहीं होते।
शंख- इस ध्यान में पाँच धारणाओं में बहुत सा विषय आ जाने से इसका अभ्यास दुष्कर होता है। अत: किसी एक पद या एक विषय के ध्यान को बताइये ?
समाधान- आगे के पदस्थ ध्यान में किसी एक पद या मंत्र के ध्यान का उपदेश है लेकिन इस पदस्थ को उसके पहले क्यों रखा है? यह भी काम की बात है। वास्तव में गृहस्थाश्रम के अनेकों प्रपंचों में उलझे हुए मन को कोई भी एक मंत्र पर क्षण भर के लिए भी नहीं देखा जा सकता है और मन को खाली सुनना भी नहीं आता है, अत: वह इधर-उधर के चक्कर में ही पुन: घूमती हुई लगती है। है। अत: उसके लिए अधिक सामग्री भरना बहुत ही अच्छा है। बहुत देर तक तो कम से कम बाहर के विषयों से अपनी को निकालकर इन धारणाओं के चिंतन में ही उलझेगा तो अच्छा ही है। यदि एक पद पर ही मन को स्थिर करना सरल होता है तो आचार्य पहले पद को फिर पदस्थ कहता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ध्यान का ही पहले अभ्यास करना चाहिए। अनंत अभ्यास के विकसित होने पर पदस्थ ध्यान का भी अभ्यास करना आवश्यक है।
पवित्र मंत्रों के अक्षर पदों का अवलंबन लेने वाला ध्यान पदस्थध्यान है। इसके बहुत भेद हो जाते हैं।
१. ‘ॐ’ यह प्रणव मंत्र है, यह पंचपरमेष्ठी वाचक मंत्र समस्त वामय द्वादशांग श्रुत को प्रकाशित करने में दीपक के समान है। इसे हृदय-कमल की कर्णिका पर या ललाट आदि पवित्र स्थान में स्थापित कर, इसे श्वेत वर्ण के समान चिंतावन करना चाहिए।
२. हृदय में आठ दल के कमल की कर्णिका पर ‘णमो अरहंताणं’, पूर्वादि मुख के अनुरूप ‘णमो सिद्धाणं’, णमो आइरियाणं, णमो उवज्जयाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं’ इन चार पदों को तथा विदिशा के अनुरूप ‘सम्यग्दर्शनाय नम:’ ‘सम्यग्ज्ञानाय नम: ‘सम्यक्चारित्राय नम:, संयुक्तपसे नम:’ इन चार परिस्थितियों को स्थापित करके, इन नव मंत्र परिस्थितियों का ध्यान करना चाहिए।
३. ‘ह्रीं’ इस बीजाक्षर में ऋषभदेव आदि चौबीस तीर्थंकर स्थित हैं। वे अपने-अपने वर्णों से युक्त हैं। उनका ध्यान करना चाहिए।
यदि ध्यान करने की क्षमता न हो तो महामंत्र आदि मंत्रों का जप करना चाहिए। जप के वाचिक, उपांशु और मानस ऐसे तीन भेद होते हैं। वाचिक जप में मंत्र के शब्दों का उच्चारण स्पष्ट रहता है, उपांशु में शब्द भीतर ही भीतर, वहंठ स्थान में गूँजते रहते हैं बाहर नहीं निकलते।
मानस जप में बाह्य और भीतरी शब्दोच्चारण का प्रयास रुक जाता है। हृदय में ही मंत्रों का ध्यान चलता रहता है। यह मानस जप ही एकाग्रचिन्तानिरोधरूप होने से ध्यान का रूप लेता है।
वाचिक जाप से सौ गुना अधिक पुण्य उपांशु जाप से होता है और उससे हजार गुना पुण्य मानस जाप से होता है।
महामंत्र के पाँच पदों के उच्चारण में तीन श्वासोच्छ्वास होते हैं। अत: ९ बार महामंत्र के जाप में उच्छ्वास हो जाते हैं। मुनियों के देववन्दना आदिरूप में इन उच्छ्वासों से ही गणना बताई गई है। इस विधि से जप करने में सहज ही प्राणायाम का अभ्यास हो जाता है।
अरहंत भगवान के स्वरूप का चिंतवन करना रूपस्थ ध्यान है। इसमें समवसरण में स्थित अर्हंत परमेष्ठी का ध्यान किया जाता है।
सिद्धों के गुणों का चिंतवन करते हुए लोकाग्र में स्थित सिद्धों का ध्यान करना रूपातीत ध्यान है अथवा सिद्ध का ध्यान करना रूपातीत ध्यान है अथवा सिद्ध का ध्यान करते हुए अपनी आत्मा को सिद्ध समझकर उसी में तन्मय हो जाना रूपातीत ध्यान है।
इन ध्यानों के अभ्यास से योगीजन निर्विकल्प ध्यान में निहित की योग्यता प्राप्त कर लेते हैं।
शंख- क्या सम्यग्दृष्टि को तो मात्र अपनी शुद्ध आत्मा का ध्यान करना चाहिए क्योंकि पर का अवलम्बन तो अनादिकाल से होता है?
समाधान- यदि असंयत सम्यकदृष्टि को गृहस्थाश्रम में रहते हुए सवस्त्र अवस्था में शुद्धात्मा का ध्यान हो जाए तो आचार्य सप्तम गुणस्थान तक इन ध्यानों को क्यों ध्यान देना चाहिए? बल्कि ज्ञानार्णव में तो स्पष्ट कहा गया है कि मुख्य रूप से इस ध्यान के ध्याता अप्रमत्त मुनि ही हैं, इसके नीचे के जीव गौणरूप से हैं।
शुद्धात्मा का ध्यान तो सप्तम गुणस्थान में निर्विकल्प अवस्था में ही प्रारम्भ होता है, उसी स्थान से शुद्धोपयोग की शुरुआत होती है। इस बात को पहले ‘निश्चय-व्यवहार’ के परिच्छेद में कही जा चुकी है और सविकल्प अवस्था तक पंचपरमेष्ठी आदि के या इन आश्रय के अथवा मंत्र पद आदि के आश्रय से ही ध्यान किया जा सकता है। हाँ, शुद्धात्मा तत्त्व का श्रद्धान करना और उसकी भावना करना तो ठीक ही है, परन्तु उसका ध्यान नाम नहीं दे सकता। यह बात नियमसार की गाथा १५४ के आधार से व टीकाकार के शब्दों से कही जा चुकी है कि ”पंचमकाल में हीन संहनन में ध्यानमय प्रतिक्रमण आदि संभव नहीं है और इस काल में शुद्धात्मा तत्व का ध्यान भी सम्भव नहीं है: उस अवस्था को प्राप्त’ ‘ १
निष्कर्ष यह निकला कि पिण्डस्थध्यान के द्वारा आत्मा को शुद्ध करने का पुरुषार्थ पिण्डस्थआदि ध्यान के द्वारा शुद्ध हुआ और साधक ऐसी आत्मा का और उसके नाम के पद का आश्रय लेकर ध्यान करना चाहिए। ।
(इस प्रकार ध्यान की आवश्यकता को कहने वाला यह नवमाँ परिच्छेद पूर्ण हुआ।)