हमारी इस शस्यश्यामला भूमि पर आदिकाल से ही मानव ने आदि ब्रह्मा, परमपिता भगवान् ऋषभदेव के द्वारा सिखाई गई जीवनकला के अनुसार अन्न, फल, सब्जी, मेवा आदि खाद्य पदार्थों को खेतों में अपने परिश्रम द्वारा उत्पन्न कर ‘‘कृषि’’ कला का परिचय प्रदान किया है। जिसके आधार पर हम सभी शाकाहारी जीवन जीकर अपनी ‘‘भारतीय संस्कृति’’ पर गौरव करते हुए दुनिया भर की दृष्टि में सदाचारी के रूप में स्वीकार किये जाते हैं।
परन्तु इसे कलियुग का अभिशाप कहा जाए अथवा पाश्चात्य संस्कृति का आक्रमण ? इसे मानवीय अत्याचार कहें अथवा अत्याधुनिक बनने की होड़ में छिपा अमानुषिक व्यवहार ? समझ में नहीं आता कि राम, कृष्ण, महावीर के जिस देश में सदैव दूध की नदियाँ बहती थीं, खेतों में सुगन्धित हरियाली लहराती थी, सड़क के आजू—बाजू वृक्षों पर लगे स्वादिष्ट फल मन को मुग्ध करते थे तथा जहाँ गरीब, अमीर सभी के घर गोधन से समाविष्ट रहते थे, प्रत्येक घरों में दूध की पौष्टिक सुगन्धि महकती थी और बच्चे, बूढ़े सभी मिल—बांटकर काजू, बादाम, मूंगफलियाँ खाते—खाते मनोरंजन करते तथा रामलीलाएँ देखा करते थे किन्तु आज बीसवीं सदी के समापन दौर पर इस उपर्युक्त जीवन प्रक्रिया में बहुत तेजी से विकृति आ रही है। जैसे पशुपालन केन्द्रों के स्थान पर लगभग समस्त राज्यों में अनेक बड़े—बड़े बूचड़खाने खुल गये हैं, जिनसे सतत खून की नदियाँ बहकर धरती माता की छाती कम्पित कर रही हैं। हरे—भरे खेतों की जगह धरती का तमाम—प्रतिशत भाग मुर्गी पालन केन्द्र (पॉल्ट्री फार्म), मत्स्यपालन, सुअरपालन, कछुवा पालन आदि केन्द्रों के रूप में कृषि के नाम को कलंकित कर रहा है जिसके कारण सड़क पर चलते पथिकों को वहाँ से निकलती दुर्गन्ध के कारण नाक बन्द करके द्रुतगति से कदम बढ़ाने पड़ते हैं। यदि भूल से कभी उधर नजर पड़ जाए तो पेड़ों के फलों की जगह अण्डों के दुर्दर्शन होने लगते हैं जो हृदय को दुर्गन्धित घृणा से पूरित कर देता है।
गरीब—अमीर सभी भारतीयों के कुछ प्रतिशत घरों में अब प्रात:काल से ही गरम—गरम दूध की जगह नशीली चाय और उसके साथ अण्डों से बनी वस्तुएँ—बिस्कुट, केक, पेस्ट्री आदि तथा डायरेक्ट अण्डों का मांसाहारी नाश्ता और भोजन प्रचलित हो गया है जो बालक, वृद्ध सभी के मन और तन को विकृत कर रहा है। इसी प्रकार गाँव—गाँव की चौपालों पर अब सामूहिक रूप से देशी—विदेशी शराबों का दौर तथा जुआ व्यसन का वृिंद्धगत रूप देखने में आने लगा है।
ऐसी न जाने कितनी विकृतियाँ भारतीय समाज में व्याप्त हो गई हैं जो परिवार, समाज एवं देश के पतन का कारण तो हैं ही, भारत को पुन: परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ने की भूमिका भी निभा रही हैं। देश के सम्भ्रान्त वर्ग को इस ओर शीघ्रता से ध्यान देना होगा अन्यथा भारतीयता की रीढ़ टूटते देर नहीं लगेगी और लकवायुक्त मनुष्य की भाँति भारत पुन: दाने—दाने का मोहताज होकर दूसरे देशों की ओर दयनीय मुद्रा से ताकता हुआ नजर आएगा।
भगवान ऋषभदेव के वंशज एवं भारतीय होने के नाते हमें यह अटल विश्वास रखना चाहिए कि पेड़ से उत्पन्न होने वाली प्रत्येक वस्तु शाकाहारी और पेट से उत्पन्न होने वाली सभी वस्तुएं मांसाहारी होती हैं। शाकाहारी वस्तु में खून, पीव, मांस, हड्डी आदि का सम्मिश्रण नहीं होता है तथा मांसाहारी वस्तुएं अण्डा, मछली सभी खून, मांस वगैरह का पिण्ड होने से अखाद्य ही कहलाती हैं। इन्हें शाकाहारी कभी भी नहीं कहना चाहिए और न ही ऐसे उत्पत्ति स्थलों को कृषि संंज्ञा प्रदान करनी चाहिए।
आधुनिक युग में इन उपर्युक्त िंहसक केन्द्रों एवं राज्य सरकारों के द्वारा जो प्रोत्साहन प्रदान किया जा रहा है तथा विभिन्न बैंकों के द्वारा इन व्यापार केन्द्रों को कृषि के नाम पर ऋण दिये जा रहे हैंं वह तीव्र पापबन्ध के कार्य हैं। इन क्रियाकलापों से भारत देश की गरीबी कभी भी मिट नहीं सकती है प्रत्युत उसकी आर्य संस्कृति का विनाश होकर क्रूर म्लेच्छ संस्कृति का विकास होगा।
हम सबके लिए यह अत्यन्त विचारणीय विषय है कि जिस देश में हमेशा आध्यात्मिकता और अिंहसा धर्म का विदेशों में निर्यात होता था, जिसके कारण हमने आजादी प्राप्त की थी उस देश से आज मांस का निर्यात करना अथवा अण्डों को शाकाहार कहकर जनता को स्वतंत्र रूप से मांसाहार की प्रेरणा देना क्या अपनी संस्कृति पर कुठाराघात नहीं है ? धरती माता आखिर इन पशु अत्याचारों को कितना सहन कर सकती है? उस माँ की ममता पर मानव और पशु सभी का समान अधिकार है। यहाँ जब मनुष्य अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके पशुओं पर अत्याचार करने लगा, उनकी गर्दनों पर छुरी चलाने लगा तो धरती माँ काँप उठी और उसने भूकम्प, प्रलय आदि अनेक प्राकृतिक प्रकोपों के द्वारा मनुष्य को दण्ड देने का निर्णय ले लिया अर्थात् इन हिंसात्मक कृत्यों के कारण ही आज जगह—जगह भूकम्प, बाढ़, गैसकाण्ड, रेल दुर्घटना आदि अनेक दुर्घटनाएँ घटित हो रही हैं जिससे मानव विनाश के कगार पर पहुँच गया है।
आधुनिकता की होड़ में निरन्तर आगे बढ़ रहे भारतीय नागरिकों की स्थिति को देखते हुए परम पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री १०५ ज्ञानमती माताजी ने सन् १९९८ से २००१ तक भगवान ऋषभदेव समवसरण रथ का श्रीविहार सारे देश में करवाया। भारत के प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी के करकमलों से इसका प्रवर्तन राजधानी दिल्ली से हुआ जिसने प्रत्येक ग्राम, नगर और शहर में अिंहसा, शाकाहार और पारस्परिक मैत्री का सन्देश प्रदान करता हुआ जन—जन तक आदिपुरुष तीर्थंकर ऋषभदेव का संदेश पहुँचाया।
देश से बाहर मांस का निर्यात करना आर्य संस्कृति के साथ बहुत बड़ा विश्वासघात और नैतिक अपराध है। जैसे कोई नारी अपनी अस्मिता को बेचकर यदि पैसा कमाने का धन्धा करती है तो उसे सभी दुराचारिणी एवं वेश्या के नाम से बुरी नजरों से देखते हैं, उसी प्रकार भारत देश अपनी अस्मितारूप पशुधन को क्रूरतापूर्वक पश्चिमी देशों के हाथों बेचकर क्या अन्य देशों की नजरों में िंहसक क्रूर नहीं बन गया है ? क्योंकि राष्ट्रपति महात्मा गांधी ने भी कहा था कि—
‘‘किसी भी राष्ट्र की महानता और उसकी नैतिक प्रगति का मापदण्ड पशुओं के प्रति उसका व्यवहार है।’’
बन्धुओं ! हम जब इतिहास के पन्ने पलट कर देखते हैं तो ज्ञात होता है कि आजादी प्राप्त होने के बाद देश की पशु सम्पदा का जो बेहिसाब संहार हुआ है उसके लिए भविष्य का इतिहास सत्तारूढ़ों को कभी माफ नहीं करेगा। पुराने सरकारी आंकड़ों से ज्ञात होता है कि भारत के स्वतन्त्र होने के चार वर्ष बाद तक देश से मांस का निर्यात नहीं हुआ पुन: सन् १९५१ से मांस और चमड़े का निर्यात लघु स्तर पर प्रारम्भ हुआ तो सन् १९६१ से उसमें लगातार वृद्धि हुई। वर्तमान की स्थिति तो यह है कि देश के वैध और अवैध कत्लखानों के द्वारा लगभग करोड़ों पशुओं को मौत के घाट उतारा जाता है। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय के द्वारा प्रस्तुत की गई एक रिपोर्ट की भविष्यवाणी है कि—
‘‘कत्ल और निर्यात की रफ्तार यदि यही रहती है तो कुछ ही दिनों में भारत से बकरी या भेड़ का नामोनिशां मिट जाएगा।’’
मांस निर्यात से होने वाली भीषण हानियों से देश की जनता को परिचित कराने हेतु डॉ. नेमीचन्द जैन, इन्दौर ने ‘‘मांस निर्यात १०० तथ्य’’ नाम की एक ३२ पृष्ठीय सचित्र पुस्तक लिखकर समाज पर अनन्य उपकार किया है। इस पुस्तक को मंगाकर समस्त अहिंसाप्रेमी समाज को उसका सूक्ष्मता से अवलोकन कर अपने निकटवर्ती ग्राम पंचायत, तहसील, जिला, राज्य एवं केन्द्रीय स्तरीय कार्यवाही करके इस हिंसक व्यापार को रोकने में सहयोग कर पुण्योपार्जन करना चाहिए।
उपर्युक्त पुस्तक में लेखक ने अनेक आँकड़ों की प्रस्तुति के साथ ही बतलाया है कि मांस निर्यात के क्षेत्र में भारत ने तेज प्रगति करके द्वितीय नम्बर प्राप्त कर लिया है। बम्बई का ‘‘देवनार कत्लखाना’’ एशिया का सबसे बड़ा कत्लखाना घोषित किया गया है और उस एक कत्लखाने के द्वारा सन् १९७४ से सन् १९९१ तक ९ लाख १२ हजार छह सौ बत्तीस निरीह पशुओं को मारा गया है, जिनके मांस, खून, हड्डी, सींग, गुर्दे, फेफड़े, कलेजे, जीभ आदि को अलग—अलग निर्यात करके अरबों रुपयों की विदेशी मुद्रा भारत ने प्राप्त की है। इन पशु आंकड़ों को अब तक करोड़ों होने में कोई सन्देह नहीं है। इसी प्रकार पश्चिम बंगाल का ‘‘अलकबीर कत्लखाना’’ प्रति वर्ष ६ लाख भेड़—बकरियों का तथा न जाने कितनी गाय—भैंसों का कत्ल करता है और रुद्रारम (आन्ध्र प्रदेश) स्थित ‘‘अलकबीर’’ २ लाख गाय—भैंसों का प्रतिवर्ष कत्ल करता है। ऐसे हजारों कत्लखाने देश की पशु सम्पदा को समूलचूल नष्ट करने में लगे हैं और केन्द्र तथा राज्य सरकारें उन्हें अंधाधुंध मदद कर रही हैं। ऐसा लगता है कि भारत को शायद देश की धरती और पशु सम्पदा के पूरी तरह उजड़ जाने के बाद कुछ होश आएगा किन्तु तब कोई लाभ नहीं होगा क्योंकि समय रहते सचेत होने की यह प्रेरणा विशेष ज्ञातव्य है कि—
मांस निर्यात के पूर्व आंकड़ों के अनुसार सर्वेक्षण अधिकारियों का अनुमान है कि अब तक हजारों करोड़ रुपये से भी अधिक कीमत का मांस भारत से निर्यात हो चुका है, यदि यह निर्यात समय रहते बन्द नहीं हुआ तो हम अनावृष्टि, जल—दुष्काल और भीषण भूकम्पों का शिकार होते रहेंगे।
भारत जैसे कृषिप्रधान देश में पशुओं को कत्लखानों की ओर हांकना एक अत्यन्त आत्मघाती अर्थव्यवस्था तो है ही, पर्यावरण को प्रदूषित करने में इन कत्लखानों का सबसे बड़ा हाथ है क्योंकि देश के १० कत्लखानों में प्रतिदिन ढाई लाख पशुओं का कत्ल होता है जिनमें ५० हजार गायें होती हैं जिनकी भीषण चीत्कारों से धरती का कण—कण रुदन कर रहा है किन्तु उसके रुदन को सुनने वाला कोई नहीं है। इस विषय में सन्तों का कहना है कि मांस निर्यात हमारी आर्थिक परतन्त्रता के काले युग की शुरुआत है और इस देश से लाल या सफेद किसी भी किस्म के मांस का निर्यात किया जाता है या अपने पशु—पक्षियों को जहाज पर लादते हैं तब असल में समझना चाहिए कि यहाँ का मानव अपनी वसुन्धरा का मांस और समुद्र के लहू का ही निर्यात करता है क्योंकि उसे ज्ञात नहीं है कि हम विदेशी मुद्रा के लोभ—लालच मेंं अपने देश के अर्थतन्त्र पर कहर हाr ढा रहे हैं।
यह तो मैंने मांस निर्यात का किंचित मात्र नमूना प्रस्तुत किया है इसके अतिरिक्त न जाने कितनी मछलियाँ, मुर्गियाँ, खरगोश, बन्दर आदि भी निर्यात किये जाते हैं। जब केवल पाकिस्तान और बांग्लादेश को भारत प्रतिवर्ष बीस हजार पशुओं का लुक—छिपकर निर्यात करता है तो अन्य और देशों को मिलाने से यह संख्या शायद लाखों तक पहुँचने में कोई विशेष बात नहीं है।
‘‘मांस निर्यात १०० तथ्य’’ नामक पुस्तक ने अत्यन्त दर्दनाक सत्य तथ्यों को देश के सामने उजाकर करके रखा है उसको पढ़ने वाला या तो घबड़ाहटवश पूरी पुस्तक न पढ़ पाकर रोने को विवश हो जाएगा अथवा दिल पर पत्थर रखकर यदि कोई पढ़कर सम्पूर्ण तथ्यों से परिचित हो जाएगा तो मांसाहार क्या उसकी बात भी सुनना पसन्द नहीं करेगा। लेकिन अफसोस है कि ऐसी मार्मिक पुस्तकें तो केवल अिंहसा के पुजारी ही पढ़ रहे हैं, कत्लखानों के प्रबन्धक अथवा कत्ल करने वाले कसाइयों के पास तो उन्हें पढ़ने या देखने की फुर्सत भी नहीं है क्योंकि उन्होंने तो पशुओं को साग-सब्जी की तरह एक खाद्य वस्तु के रूप में ही स्वीकार करके उन्हें मौत के घाट उतारना अपना कर्त्तव्य समझ लिया है।
अफसोस की बात यह है कि अब खुलेआम मांस का खाना, बेचना कोई पाप कार्य न होकर व्यापाररूप से प्रतिष्ठित हो रहे हैं किन्तु ऐसा करने एवं उसमें अनुमति देने वालों को भी भूलना नहीं चाहिए कि ऐसी िंहसक प्रवृत्ति साक्षात् नरक का द्वार खोलने वाली है तथा आपके द्वारा मारे गये ये पशु भी जन्म-जन्मान्तर तक आपसे बदला लिए बिना नहीं रहेंगे। इस विषय में एक सत्य कथानक प्रसिद्ध है—
पंजाब में सरहिन्द नाम का एक कस्बा है। वहां कवैâया ईंट से बनी एक हवेली के बाहर ‘‘उर्दू’’ में शिलालेख लगा हुआ है जिसके बारे में वहां के निवासी बताते हैं कि ‘‘वहां एक सतना नामक कसाई रहा करता था। जो पशुओं को मारकर गोश्त बेचकर अपनी आजीविका चलाता था।
एक दिन शाम को उसका एक पुराना ग्राहक गोश्त लेने आया तो कसाई ने सोचा कि मेरे पास इस समय गोश्त तो है नहीं किन्तु ग्राहक को वापस करना भी ठीक नहीं है अत: उसने नई तरकीब सोचकर बकरे के पिछले भाग पर कटार मारी तो बकरा हंसने लगा। कसाई के पूछने पर बकरा कहने लगा—अभी तक तो तू मुझे मस्तक से काटता था और मैं भी तुझे आगे से ही काटा करता था लेकिन आज यह नई परम्परा देखकर मैं हंस रहा हूँ। सतना कसाई ने बकरे की यह बात सुनकर उसी दिन से हिंसा का त्याग कर दिया था। यही अमर कहानी इस शिलालेख में लिखी है।
इसके यह तथ्य निकला कि अपने द्वारा सताये जाने वाले प्राणियों की आहें निश्चित रूप से हमें दु:ख और अशांति ही प्रदान करती हैं अत: हमें इंसान की शक्ल में रहकर हैवानियत का सर्वथा त्याग करना चाहिए। अन्त में अधिक न कहकर यही कहना है कि देश की कृषि व्यवस्था से मांसाहारी वस्तुओं का शीघ्र निष्कासन करके उसे सच्ची कृषि की कोटि में लाएं और संसार के कोने—कोने में अिंहसा, सत्य, करुणा, दया, मानवता का शुभ सन्देश पहुँचाएँ क्योंकि िंहसा, क्रूरता, कत्ल, हत्या तथा हैवानियत की भारतीय संस्कृति के साथ कोई संगति नहीं है। कत्लखाने भारतीय इतिहास के साथ क्रूर खिलवाड़ और गम्भीर कपट हैं। मांस चाहे लाल हो या सफेद, भारत और उसकी ऋषि एवं कृषि परम्परा के पवित्र ललाट पर कलंक का टीका ही है।
प्रभु कत्लखानों के प्रबन्धकों को सद्बुद्धि दे जिससे भारत की धरती शीघ्र बेगुनाह लहू प्रवाह से मुक्त हो सके।
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