महिलाएं गृहलक्ष्मी कहलाती हैं, उनके ऊपरी पुरुषों के खान-पान का और बच्चों के प्रारंभिक संस्कारों का पूर्ण उत्तरदायित्व होता है। अत्यन्त आधुनिक जीवन जीने वाली नारियाँ भी पुरुष की अपेक्षा अधिक मात्रा में शाकाहारी जीवन जीना पसंद करती हैं, क्योंकि उनका हृदय अंततः माँ की ममता का प्रतीक होता है। जो माताएँ स्वयं या अपने बच्चों के लिए शक्ति बढ़ाने हेतु अंडों का सेवन घर में करती हैं, उन्हें इन दिनों से परिचित होना आवश्यक है-
पिछले कुछ वर्षों से यह समान देखने में आ रहा है कि दूरदर्शन, रेडियो और अन्य प्रचार माध्यमों के कारण शाकाहारी परिवार के कुछ व्यक्ति अंडों का सेवन करने लगे हैं। वे ऐसे अण्डों का सेवन करते हैं जिन्हें शाकाहारी अण्डे के नाम से प्रचार करके लोगों को लुभाया जा रहा है। ऐसे शाकाहारी व्यक्ति इस प्रकार के अण्डों का सेवन करते हुए भी यह समझते हैं कि वे फिर भी शाकाहारी हैं। यहाँ कथित तौर पर शाकाहारी अण्डे अथवा अहिंसक अण्डे के बारे में अण्डे उत्पादक कम्पनियों ने प्रचार-प्रसार के माध्यम से जो भ्रमजाल तैयार किया है, उसके बारे में सही वैज्ञानिक अण्डे के आधार पर यह बताने का प्रयास किया गया है कि कोई भी अण्डा शाकाहारी नहीं ऐसा होता है और हो सकता है। वह नहीं हो सकता।
दो प्रकार के अण्डे- अण्डे मूलत: दो प्रकार के होते हैं। एक अण्डे वे होते हैं जिनसे बच्चे निकल सकते हैं तथा दूसरे वे होते हैं जिनसे बच्चे निकल नहीं सकते। जिन अण्डों से संतान निकल सकती है उन्हें निशेचित या ”उपजाऊ फल” कहा जाता है। ऐसे अण्डे मुर्गे और मुर्गी के संसर्ग में आने से होते हैं। दूसरे प्रकार के जो अण्डे होते हैं उन्हें अनिशेचित अण्डे या ”अनर्थकारी गति” कहते हैं। ये अण्डे भी अन्य प्रकार के अण्डे की तरह मुर्गों में से ही पैदा होते हैं। इन अण्डों को अण्डाउत्पादक कम्पनियों ने अपने व्यापारिक लाभ के लिए ”शाकाहारी अण्डे” या ”अहिंसक अण्डे” नाम देकर शाकाहारी परिवारों में एक बड़ा भारी भ्रम पैदा किया है। उनके भ्रम के अनुसार ऐसे अण्डे में जीवन नहीं होता, जबकि यह सर्वथा निराधार है। आइए, अब हम वैज्ञानिक आधार पर यह जानने का प्रयास करें कि तथाकथित शाकाहारी अण्डे या अनिष्ट अण्डे कभी भी शाकाहारी नहीं होते।
(१) अनिशेचित अण्डे किसी भी प्रकार से शाकाहारी नहीं होते क्योंकि वे न तो चाय पर उगते हैं और न ही किसी पौधे पर, बल्कि वे सब प्राणियों के पेट में से ही उत्पन्न होते हैं। यह एक वैज्ञानिक प्रयोग के आधार पर देखा गया है कि विद्युतधारा के द्वारा अण्डों को देखा जा सकता है। अनिशेचित अण्डे में निशेचित अण्डे की मूढ़ ही यह विद्युतधारा होती है। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि निर्जीव वस्तु में कभी भी विद्युत धारा का अंकन नहीं किया जा सकता। भारतवर्ष के विश्वविख्यात वैज्ञानिक श्री जगदीशचंद्र वसु ने वृक्षों की रहस्यमयी प्रजातियों से विद्युतधारा का अंकन करके यह सिद्ध किया है कि वनस्पतियों में भी जीवन होता है। इसी आधार पर यह वैज्ञानिक तथ्य है कि सभी प्रकार के अण्डों में चाहे वे निशेचित हों या अनिशेचित हों उनमें भी जीवन होता है।
(२) निर्जीव जीव सार में किसी भी अनिश्चत अण्डे को अवैज्ञानिक तथ्य माना गया है क्योंकि ऐसे अण्डों को भी निश्चत किया जा सकता है और एक नये जीव की उत्पत्ति के रूप में वे प्रकट हो सकते हैं। एक सर्वमान्य बात जो सभी जानते हैं वह यह है कि संसार में कोई भी निर्जीव वस्तु निश्चित की नहीं जा सकती और न ही उससे किसी जीव की उत्पत्ति हो सकती है, लेकिन अनिष्ट अण्डे से कुछ वस्तुओं के प्रयोग के द्वारा नए जीव की उत्पत्ति होना संभव है। है। ।
(३) अक्सर अनिशेचित अण्डों के बारे में उन्हें शाकाहारी कहने के लिए यह तर्क दिया जाता है कि ऐसे अण्डे मुर्गी और मुर्गे के संसर्ग में बिना ही कृत्रिम तरीकों से उत्पन्न होते हैं, लेकिन विज्ञान ने यह साबित कर दिया है कि किसी भी प्राणी के जीवन का आधार मात्र प्रजनन क्रिया ही नहीं है बल्कि अलंगिक प्रजनन के द्वारा भी जीवन हो सकता है। जैसे अमीबा और अनेक एककोशीय प्राणी बिना निशेचन क्रिया के उत्पन्न होते रहते हैं। इसी प्रकार से टेस्ट ट्यूब बेबी के द्वारा उत्पन्न प्राणी निर्जीव नहीं हो सकते।
(४) अनिशेचित अण्डों का दूसरा भाग शुक्राणु होते हैं जो सूक्ष्मनाड़ीयंत्र के द्वारा नीचे चलते फिरते नजर आते हैं। यही शुक्राणु अण्डाशय अर्थात् ओबरीज से संकुचित मुर्गी के गर्भाशय अर्थात् यूटेरस तक पहुँचते हैं और इन अण्डों में गुणसूत्रों की संख्या निशेचन के बाद दुगुनी हो जाती है। तो क्या निशेचित अण्डे निर्जीव कहे जा सकते हैं ?
(५) निशेचित अण्डों की तुलना स्त्रियों में रज:स्राव से की जा सकती है। जिस प्रकार स्त्री के मासिक धर्म में होता है। इसी प्रकार मुर्गनों के भी यही धर्म अण्डों के रूप में होता है। यह अण्डा मुर्गी की आंतरिक गंदगी का परिणाम है। अण्डों के मोटे प्रवाह पर एक वायु क्षेत्र होता है। यह बहुत महत्वपूर्ण है। यह क्षेत्र की दो कवच झिल्लियों को अलग करता है और भ्रूण को श्वास की सुविधा देते हुए बाहरी दुनिया से जोड़ता है। यह सभी प्रकार के अण्डों में होता है। अण्डों के गर्भ से बाहर आते ही उसमें क्लीवेज शुरू हो जाता है। किसी भी अण्डे की रचनाओं में जब हम उसके सभी पहलुओं की समीक्षा करते हैं तो यह बात शत प्रतिशत सिद्ध होती है कि वह किसी भी प्रकार का अण्डा हो, वह सजीव या जीवनयुक्त होता है।
(६) ”शाकाहार क्रान्ति” के सम्पादक डॉ. नेमीचन्द्र ने लिखा है कि सन् १९९० में मिशिगन विश्वविद्यालय के अमेरिका के शोधार्थी ने यह सिद्ध किया था कि संसार का कोई भी अन्धा निर्जीव नहीं है, चाहे वह निशेचित हो या अनिशेचित। इसी प्रकार श्री फिलिप जे. स्वैम्बल ने अपनी विशिष्ट पुस्तक ”पोल्ट्रीवीडियो एवं पोषण” के पृष्ठ १५ पर साफ लिखा है ”अंधा बहुत प्रतिकूल होता है, यह प्रतिकूल वातावरण के प्रति भी संवेदनशील होता है। वस्तुत: अण्डे की उत्पत्ति बच्चे के सृजन के निमित्त होती है, मनुष्य की खुराक के लिए नहीं। अण्डे में हवा के आने-जाने की नैसर्गिक व्यवस्था है। सफेद खोल के अंदर बने सूक्ष्म तरंग में वृद्धिशील आक्सीजन अंदर आती है और चर्बी की भाप कार्बन डाइऑक्साइड को बाहर फेंकती है, जिससे अण्डे का भ्रूण जीवित रहता है, यही बात अन्य उपजाऊ अंगों पर भी लागू होती है।
(७) श्वास लेने की क्रिया जीवन की निशानी है। प्रत्येक अण्डे के ऊपरी भाग पर लगभग १५००० सूक्ष्म छिद्र होते हैं, इसलिए अण्डे का जीव सांस लेता है और जब कोई अण्डा सांस बंद कर देता है तो वह अण्डा सड़ने लगता है। इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि वह चाहे निशेचित हो या अनिशेचित, उसमें जीव होता है।
(८) तीस गर्भ में अण्डे का समग्र विकास होता है और अण्डा ज्यों ज्यों बड़ा होता है त्यों त्यों नितम्ब की हड्डियों में स्थान बनता है। सजीव अण्डे और निश्चिंत अण्डों के भीतर का प्रवाह एक-सा होता है। उस अण्डे के पोषण के लिए मुर्गी को मांसाहार करवाना पड़ता है, इसलिए अण्डे को जन्म देने के बाद मुर्गी को शाकाहारी नहीं कहा जा सकता। अब भारत सरकार की इंडियन मार्वेटिंग स्टैण्डर्डस इंस्टीट्यूट ने यह घोषणा की है कि अण्डा शाकाहारी नहीं है।
क्रूरतापूर्वक अण्डों का उत्पादन- जिन अण्डों को अनिशेचित या शाकाहारी अण्डे कहा जाता है यदि उनके उत्पादन की विधि का प्रचार लोगों में किया जाए और उन्हें ये पता हो जाए कि बड़ी क्रूरतापूर्ण प्रणाली के द्वारा ऐसे अण्डों का उत्पादन होता है, तो उनकी समझ में यह आ जायेगा कि ऐसे अण्डे कडापी शाकाहारी नहीं हो सकते। आजकल इस प्रकार के अण्डों का अधिकाधिक उत्पादन करने के लिए उनके चिकन फार्मों में कृत्रिम विधियों के द्वारा उत्पादन किया जाता है। सबसे पहले मुर्गी फार्मों में मादा बच्चों को अलग-अलग कर दिया जाता है। मादा बच्चों को जल्दी जवान होने के लिए एक विशेष खुराक दी जाती है और उन्हें चौबीस घंटे में तेज रोशनी में सोने नहीं दिया जाता है, ताकि वे दिन-रात खा-खाकर जल्दी ही रजोस्राव करने लगें और अंदा देने लायक हो जाएं। अमेरिका के प्रसिद्ध लेखक जॉन राबिन्स ने अपनी विश्वविख्यात पुस्तक ”डाइट फॉर ए न्यू अमेरिका” में इस प्रकार की पाकिस्तानियों के निर्माण के बारे में लिखा है कि इन पिंजड़ों में इतनी अधिक मुर्गियाँ भर दी जाती हैं कि वे पंख भी नहीं लगाते। फड़फड़ा सकती हैं और तंग जगह के कारण वे परेशानियों में फंस जाती हैं, दर्द होता है, गुस्सा करती हैं और कष्ट भोगती हैं। जब मुर्गी को २ घंटे लोहे की सलाख पर चिपकाया जाता है और ऐसी स्थिति में ही एक विशेष प्रकार की मशीन से एक ही रात में लगभग तीन हजार टुकड़ों की चोंच काट दी जाती है और गर्म—गर्म आग से तपते हुए लाल औजारों से मुर्गी के पंख भी काट दिए जाते हैं तो ये जल्दी से अण्डा उत्पन्न करने का तरीका कितना हिंसात्मक है यह समझा जा सकता है।
क्रेफ़्ट को दी जाने वाली खुराक में मछली का चूर्ण तो डालना ही पड़ता है। ऐसा करने के बाद जब मुर्गी अण्डे को जन्म देती है तो वह अण्डे को सेने के लिए उन तंग पिंजड़ों में भी दौड़ती है, मुर्गी उस अण्डे तक नहीं पहुंच पाती, क्योंकि ऐसे ठंडे फार्म में ढालवे निर्मित पटिए की ऐसी व्यवस्था रहती है कि जिससे अण्डा पैदा होता है होते ही उस पटिये पर से सीधा नीचे खिसक जाता है और इस चालाकी से जनता अनभिज्ञ रहती है। हर बार असफल प्रसूति होने पर मृत बच्चों को जन्म देने वाली किसी और से पूछा जाता है कि उसकी मानसिक स्थिति क्या होती है? बस ऐसी ही स्थिति उस मुर्गी की होती है। उस मुर्गी को मातृत्व से वंचित रखना कितना क्रूर है, यह सरलता से समझा जा सकता है। वह मुर्गी अपना अण्डा से नहीं कर सकती इसलिए वह अगला अण्डा जल्दी देती है और अधिक से अधिक और जल्दी से अधिक अण्डे किसानों को इस धीमी गति से मुर्गी को अण्डे सेने का मौका नहीं दिया जाता है और वह जिंदगी भर पंप की कीमत में रहती है । । चल फिर न कहे के कारण उसके टांगें गायब हो जाती हैं। जब उसकी उपयोगिता घट जाती है तो सभी जानते हैं कि उसे कत्लखाने भेज दिया जाता है। अब हम इससे सहज ही समझ सकते हैं कि ऐसे अण्डों को अहिंसक या शाकाहारी तरीके से कहा जा सकता है।
उपसंहार- इस प्रकार के पुराने वैज्ञानिक अवरोधों एवं अनिष्ट अपराधों की क्रूरतम उत्पत्ति करने की प्रणाली को जानने के पश्चात विज्ञान को निश्चित रूप से यह समझा जाएगा कि कोई भी अण्डा शाकाहारी नहीं होता है। चालीस अनिशेचित सभी प्रकार के अण्डों में जीव होता है, इसलिए वह शाकाहारी नहीं होते। अब शाकाहारी परिवारों का यह कर्तव्य है कि वे भारत सरकार से अनुरोध करें कि वे पशुपालकों के संचालकों को यह दबाव दें कि ऊपर लिखे गए जिन क्रूरतापूर्वक तरीकों से वे अनिच्छित अंडों का उत्पादन करते हैं, उनका स्पष्ट विवरण जनता के सामने रखें, ताकि वे यथार्थ होन। स्थिति लगभग। आशा है कि अण्डा जी के प्रचार से शाकाहारी लोग बचे रहेंगे और किसी भी अण्डे को शाकाहारी या अहिंसा नहीं समझेंगे।
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