समय—समय पर आए भूकंपों ने जहाँ जन्मों में आशा की स्थिति उत्पन्न की है, वहीं मानवता के प्रति कुछ सोच को भी विचार दिया है। इस धरती पर जब भी भूकम्प या कोई वायुयान, रेलगाड़ी आदि की भीषण दुर्घटनाएँ होती हैं, तब उन विषयों की सरकारी और गैर-सरकारी जाँच-पड़ताल के कारण उनके होने के कारण ज्ञात किये जा सकते हैं। यही भूकंप के अनुयायी भी होते हैं कि अनेक वैज्ञानिक अपनी—अपनी खोज के आधार पर यह बताते हैं कि भूकंप क्या है ? ये क्यों आते हैं ? और इनसे भारी जन—धनहानी क्यों होती है ?
उन वैज्ञानिक बाधाओं से तो यह निष्कर्ष निकला है कि ऊर्जा के तीव्र कार्य से उत्पन्न पृथ्वी का ढांचा ही भूकंप है, यह सभी प्राकृतिक आपदाओं में से सबसे भयानक आपदा है जिसे रोकना मानव द्वारा नहीं हो सकता है। ११ अप्रैल १९९९ के ”दैनिक जागरण” अखबार की एक रिपोर्ट में श्री ओमप्रकाश तिवारी ने सन् १५५६ से लेकर अब तक विश्व भर में आने वाले भूकंपों के आंकड़े प्रस्तुत किए और यह भी बताया कि कभी-कभी इन भूकंपों के पूर्व स्थापित जाने वाले पूर्वानुमान भी सही निकले हैं। जैसा कि सन् १९७५ में चीन के एक शहर हाइचेंग में भूकम्प का पूर्वानुमान हो जाने से कुछ घंटे पहले शहर खाली करा लिया गया था, जिससे लाखों लोग मरने से बच गए थे, लेकिन उससे पहले भी कई बार शहर खाली करा लिया गया था, तब भूकम्प नहीं आया था।
अपनी खोजों के आधार पर कुछ सर्वेक्षणों ने बताया है कि भूकम्पनीयता के अनुसार भारत दशम स्थान पर आता है। यहाँ १८८५, १९८५, १९८४ एवं १९८५ में चार भयंकर भूकम्प आ चुके हैं। इनके अतिरिक्त सन् १९९३ के लातूर और सन् १९९६ के जबलपुर भूकम्पों को अब तक महाराष्ट्र एवं मध्य प्रदेश की जनता निराश नहीं कर सकती, पुनश्च २५ अप्रैल के भूकम्पों ने हिमालय क्षेत्र को पुनर्जीवित करने का प्रयास करके सभी को जीवन की क्षणभंगुरता से परिचित करा दिया था। ।
भूकम्प के अनेक वैज्ञानिक कारणों में एक प्रबल कारण भी है, जिसे किसी अन्वेषक ने महत्त्व प्रदान नहीं किया है कि देश में मूक-प्रभु की हिंसा के ताण्डव नृत्य ने धरती माता के सुख—चैन को छीनकर उसे ज्वालामुखी और बाढ़ आदि के रूप में संयोजित किया है। प्राकृतिक संपत्ति को उजागर करना मजबूरी है।
कुछ साल पहले एक घटना घटी थी कि लखनऊ के निकट एक गांव में रहने वाली एक मां के बेटे और पुत्र की कार दुर्घटना में मौत हो गई थी। यूँ तो उस परिवार के ऊपर इस घटना से मानो विपत्ति का पहाड़ ही टूटा पड़ा था और माँ का रोम-रोम उस दिन से इतनी प्रकंपित हो गई कि वह छह माह के अन्दर ही भयंकर रोग से ग्रसित होकर मरण को प्राप्त हो गई।
ऐसी कोई अनेक चीजें नहीं हैं जो प्रतिदिन घटित होती हैं जिनमें सन्तानों के वियोग में माताएँ विक्षिप्त, पागल, रोगग्रस्त एवं मरणासन्न तक की स्थिति में आती हैं और इससे विपरीत सुखसम्पन्नता से युक्त परिवार की माताएँ खुश और स्वस्थ अवस्था में जाती हैं।
सन्तान को जन्म देने वाली माता के समान ही धरती को भी ”माता” की संज्ञा प्राप्त होती है। जिस भूतल पर हम सभी निवास करते हैं, उसे ”भारतमाता” कहा जाता है और उसी माता के सीन पर प्रतिदिन लाखों बेकसूर जानवरों—पक्षियों की निर्मम हत्या हो रही है। अब आप तुलना करें एक माँ की ममता से धरती माता के कष्टों की, जो अपने असंख्य निर्दोष पुत्रों की हत्या प्रतिदिन देख रही है। मानसिक पीड़ा से जब उसका रोम प्रकम्पित हो जाता है तब वह हिल जाती है और धरती पर भूकंप आ जाता है जिससे दुष्ट प्रकृति के मनुष्य को गंभीर क्षति पहुँचती है।
पृथ्वी माँ का वही कष्ट वैज्ञानिक स्वरूप में भी निमित्त बन जाता है क्योंकि उसकी स्थिरता में भी दु:ख की पराकाष्ठा से सुसंगति आती है इसीलिए उसके भीतर जड़ें पड़ जाती हैं और भूगर्भ की प्लेटों को सरकने के कारण पृथ्वी की ऊर्जा भूकंप के रूप में उभरती है। । यह भूकंप जब ज्वालामुखी का विकराल रूप धारण करके अग्नि उगलते हैं तो उसे इतना छोटा किया जाना चाहिए कि धरती माँ का क्रोध भीषण चीत्कार करता है क्रूरकर्मा मनुष्यों को जलाकर भस्म करना चाहता है और मनुष्यों से उत्पन्न भूकंपीय प्रतिक्रियाओं को भूकंपी सिंधु के नाम से जाना जाता है। धरती माँ के दु:खी अश्रु हैं जो रो-रोकर अपनी करुणा कथा का बखान करते हैं।
कुल मिलाकर जब तक धरती पर हिंसा का तांडव नृत्य चलता रहेगा तब तक भूकम्प, ज्वालामुखी फटना तथा बाढ़ आदि की रोकथाम पर रोकना लगना अति कठिन बात है। इस विषय में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का कथन है कि सम्पूर्ण देश की धर्मप्रेमी अहिंसक सार्वजनिक जगह-जगह सामूहिक रूप से विश्वशांति महायज्ञ, शांतिमंत्र, पूजा विधान आदि के कार्यक्रम आयोजित किए जाएं ताकि हिंसाप्रेमियों को कुछ सद्बुद्धि प्राप्त हो और धरती के प्राकृतिक विद्रोहों से बचाव हो सके। हो सके।
प्राचीन अभिलेखों के अनुसार भी धार्मिक अनुष्ठानों के बल पर अकालमृत्यु वगैरह संकटों पर विजय प्राप्त की गई थी और वर्तमान युग का भी एक जीवंत उदाहरण है कि—
२५ अक्टूबर १९९६ का दिन महाराष्ट्र में भीषण तूफान का दिन पूर्वघोषित हुआ था: वहां की सरकार एवं प्रशासन ने उस दिन मुंबई में सभी लोगों पर रोक लगा दी, सरकारी छुट्टी घोषित कर दी और सभी को अपने—अपने घरों से बाहर निकलने को मना किया। उन दिनों पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी संघ सहित महाराष्ट्र के वस्तुतुंगी (जिला-नासिक) सिद्धक्षेत्र में विराजमान थे, उन्होंने सोलह से साठ अक्टूबर तक कल्पद्रुम महापूजा विधान का आयोजन किया था, जिसमें भक्तों द्वारा किए गए सवा लाख मंत्रों का प्रभाव पूरे महाराष्ट्र प्रदेश में पड़ा था। पैआला और पूर्वघोषित तूफान अंशमात्र भी नहीं आया।
इसी प्रकार से उपर्युक्त भविष्यवाणी को भी आप अपने रक्षामंत्रों से पूर्णतया रोक सकते हैं। इसके साथ-साथ जम्बूद्वीप पूजाञ्जलि नाम जिनवाणी में प्रकाशित आधुनिक कष्टों और संकटों से मुक्ति दिलाने वाली शांतिधारा भी प्रतिदिन मंदिर में की जावे, उसके गंधोदक घर में छिड़का जाए तो भूकम्प, अग्निकाण्ड, गैसकाण्ड आदि अनेक दुःख तल जायेंगे क्योंकि उस शांतिधारा में वर्तमान की निराशा के निवारण हेतु भगवान से प्रार्थना करके विश्वशांति की भावना भरी हुई है।
भारत की वसुंधरा पर आज भी जैन, हिन्दू आदि अनेक सम्प्रदाय के तपस्वी सन्त अपनी तपसाधना में लवलीन हैं। प्राणियोंमात्र पर करुणा का मुख्य लक्ष्य है, दयालु वाणी का मुख्य उद्देश्य है, उनके सत्संग सभाओं में भाग लेकर आप अपना कल्याण करें और अपने एवं उनकी अहिंसात्मक क्रियाओं से देश की रक्षा का प्रयास करें।
र : श