पोदनपुर में महाराजा अरविंद अपनी राजसभा में स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान थे। उनकी विश्वभूति प्रधान मंत्री ने राज्य के कुशल समाचार बताकर महाराज से जीवन की आज्ञा मांगते हुए अपने पुत्र कमठ और मरुभूति को महाराज के चरणों में समर्पित कर दिया। उन मंत्रिवरों के अनुगृह के कारण ही महाराज अरविंद ने अपने दोनों पुत्रों को पारंपरिक मंत्री पद पर नियुक्त किया। पुन: एक दिन राजा अरविंद अपने शत्रु राजा वङ्कावीर्य को जीतने हेतु चतुरंगिणी सेना के साथ मरुभूति मंत्री को लेकर युद्ध करने चल पड़े और कामथ कुमार मंत्री पर पोदनपुर के राज्य की सम्पूर्ण व्यवस्था डाल दी। जो कामठ स्वभाव से ही कुटिल परिणामस्वरूप दुष्टात्मा था, वह समय में पूर्ववर्ती मंत्री पद में अत्यन्त निरंकुश हो गया और सर्वत्र अन्याय का साम्राज्य स्थापित कर दिया।
किसी समय मंत्री कामठ ने अपने छोटे भाई मरुभूति की पत्नी वसुंधरी को अप्सरा के समान सुन्दर देखकर उसके साथ जबर्दस्ती दुराचार किया। राजा के वापस आने पर जब उन्हें यह पता चला तो उनके आदेश से कोतवाल ने कटघरे का सिर मुंडा कर मुंह काला करके उसे पूरे शहर में घुमाकर देश से निकाल दिया। उस दण्ड से अपमानित होकर कमठ एक तपस आश्रम में जाकर हाथ में पत्थर की शिला लेकर तपश्चरण करने लगा।
इधर मरुभूति अपने भाई के वियोग से दुखी होकर उसे मनाकर वापस ले आई, आश्रम में गई और कामठ के पैरों में गिरकर क्षमायाचना करने लगी, परन्तु क्रोधी कामठ ने उसके सिर पर पत्थर की शिला पटक दी: मरुभूति तुरन्त मर गई और आर्त्तध्यान से मरकर वह सुल्लकी वन में हाथी उत्पन्न हुआ।
राजा अरविंद ने भी एक बार आकाश में मेघों को विघटते देखकर जैनेश्वरी उपदेश धारण कर लिए थे, पुन: अपने संघ के साथ सम्मेदशिखर की यात्रा करते हुए सल्लकी वन में रहते थे। तभी तो निष्क्रिय वङ्काघोष नामक विशालकाय हाथी (मरुभूति का जीव) सारे संघ में खलबली मचता हुआ विचार करने लगा। उस हाथी के पैरों के नीचे दबकर अनेक मनुष्य-पशु आदि मर गये अत: सर्वत्र हा-हाकार मच गया। पुन: ज्यों ही वह ध्यानस्थ गुरुदेव श्री अरविंद मुनिराज के निकट पहुंचे, उनके वक्षस्थल में श्रीवत्स का प्रतीक देखकर उन्हें जातिस्मरण हो गया और वह पूरी तरह शांत हो गए। तब मुनिराज कहने लगे-
हे गजराज! तू अपने भाई कामठ के मोह में मरकर इस पशु प्रयास में जन्मा है, अब तू समस्त अर्थध्यान छोड़कर सम्यकत्व को धारण कर और अपने अगले भव को अनुचित हेतु श्रावक के व्रतों को धारण कर। इस प्रकार गुरुदेव के मुख से विस्तारपूर्वक सम्यकत्व एवं व्रतों का उपदेश सुनकर हाथी ने गुरुदेव को नमन करके श्रावक व्रतों को स्वीकार कर लिया।
एक दिन वह हाथी पानी पीने के लिए वेगवती नदी के तट पर चली गई और कीचड़ में फंस गई। वहाँ से निकलने का साधन न देखकर उसने चतुराहार का त्याग कर सुलक्षणा धारण कर लिया और परमोकार महामंत्र के ध्यान में ले लिया। कुछ ही देर में एक कुक्कुट जाति के सांप ने (कमठ का जीव जो मरकर सांप हो गया था) पूर्व जन्म के युद्ध के संस्कारवश उसे दस ले लिया, तब वह हाथी शान्त भाव से बारहवें स्वर्ग में ”शशिप्रभ” नाम का देव हो गया। गया। गया।
स्वर्ग में उपपाद शय्या पर जन्म लेते ही शशिप्रभ देव को कालज्ञान से ज्ञात हो गया कि मैं तिर्यंचयोनि की हाथी पर्याय से मरकर यहाँ उत्पन्न हुआ हूँ। वहाँ पर गुरुदेव की कृपा से जो मैंने सम्यक्त्वरूपी रत्न एवं अणुव्रतरूपी निधि प्राप्त की थी, उसी के फलस्वरूप मुझे यह तेजोधाम स्वर्गपुरी का अतुल वैभव प्राप्त हुआ है।
स्वर्ग में सोलह सागर तक वह देव असीम सुखों को भोगता रहा। कभी वह जम्बूद्वीप, नंदीश्वरद्वीप आदि द्वीपों में जाकर अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना करता है, कभी तीर्थंकरों के पंचकल्याणों में भाग लेता है तो कभी चरणऋद्धिधारी मुनियों की एवं अपने सच्चे हितकारी गुरु अरविंद मुनिराज की पूजा करता है…….आदि।
देखो! धर्म एवं व्रतरूपी कल्पवृक्ष के प्रसाद से जहां एक हाथी का जीव स्वर्ग के सुखों को भोग रहा है, वहीं जिस कुक्कुट सर्प ने हाथी को दसा दिया था, उसने अपनी आयु पूर्ण कर अधोलोक के पांचवे नरक में जन्म ले लिया। वहाँ सत्रह सागर तक असीम दु:खों का अनुभव करता रहता है। पुन: शशिप्रभ देव तो पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग की आयु में जीवित रहने वाले मनुष्य विद्याधर हो गए एवं कुक्कुट सर्प का जीव, अजगर सर्प की योनि में आ गया।
जम्बूद्वीप के पूर्व विद्ध क्षेत्र में विजयार्ध पर्वत के लोकोत्तम नगर के विद्युत्गति विद्याधर राजा की रानी विद्युन्मालिनी से जन्मा शिशु अग्निवेग दूज चन्द्रमा के समान स्वयं बढ़ने लगा और सभी की खुशियों को भी बढ़ाने लगा।
राज्यसम्पदा को भोगते हुए सहसा भरी जवानी में ही अग्निवेग ने एक दिन समाधिगुप्त मुनिराज से जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर लिया और घोर तपश्चरण करते हुए वे अपनी शुद्धात्मा का ध्यान करने लगे।
एक दिन वे महामुनि हिमगिरि पर्वत की गुफा के अन्दर ध्यान में थे, तब वहां एक अजगर सांप आया और मुनि ने देखते ही देखते पूर्व भव के विभिन्न संस्कारों के कारण भयंकर क्रोध से प्रेरित होकर उन्हें निगल लिया। मुनिराज परम समताभाव से मरकर सोलहवें स्वर्ग के पुष्कर विमान में देव हो गए तथा कालांतर में वह अजगर सर्प मुनिहत्या के घोर पाप एवं जीव सिंह आदि क्रूर युगों से पूर्ण कर छठे नरक में चले गए, वहां बाईस सागर से अनंत दु:खों को भोगता है । रहा।
सरलता और क्षमा की प्रतिमूर्ति वह मरुभूति का जीव पांचवे भव में अच्युत स्वर्ग के दिव्य सुखों का अनुभव कर रही है। वहाँ बाईस सागर की आयु वैसे बीत गई उसे पता ही नहीं चलता है क्योंकि वह सम्यग्दर्शन से लेकर देव सदैव तत्त्व चर्चा, जिनेन्द्र भक्ति एवं अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना आदि में अपना समय व्यतीत करता है।
पुण्य फल के रूप में प्राप्त होने पर वह अलौकिक वैभव को भोगते हुए भी आत्मा और शरीर की भेदभिन्नता का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करता है, इसीलिए आयु के अंत में समाधिमरणीय रूप से शरीर छोड़कर अतिदुर्लभ मानवपर्याय में जन्म धारण कर लेता है तथा वहाँ छठी नरक की कमठ का जीव होता है। से निकलकर भील की पर्याय में जन्म लेता है।
स्वर्ग के वह देव जम्बूद्वीप के पश्चिमी विदेष के अश्वपुर नगर में जब राजा वङ्कावीर्य की रानी विजया के गर्भ में आईं तब रानी ने एक रात्रि को पिछले प्रहर में सुदर्शन मेरु, सूर्य, चन्द्रमा, देवविमान और सरोवर का दर्शन किया। ये पाँच स्वप्न देखे। पुन: पति से सपने के फल में चक्रवर्ती पुत्र को प्राप्त करने का समाचार जानकर रानी विजया अति प्रसन्न हुई।
चक्र में वङ्कानाभि राजा ने चक्ररत्न प्राप्त कर छह खण्ड वसुधा पर एकछत्र शासन किया और वे निरंतर श्रावक के षट्कर्तव्यों का पालन करते हुए जिनधर्म को कभी नहीं भूले। प्रतिदिन जिनेन्द्रभक्ति में उनकी रुचि बढ़ती ही गई। ठीक ही है कि पुण्यात्माजन पृथ्वी वैभव को पूरा करने वाले कभी धर्म से विमुख नहीं होते।
एक दिन शहर के बाहर महामुनिराज के दर्शन करके चक्रवर्ती महाराज ने उन्हें धर्मोपदेश सुनाया और तुरन्त ही उन्होंने अपना राजपाट त्याग कर सिद्धांतों को धारण कर लिया। वे वरकानाभि मुनिराज घोर तपश्चरण करते हुए एक बार वन में ध्यानलीन थे, तब उस कामठ के जीव ने जो छठे नरक से निकलकर जंगल में भील बाना था, उसने मुनि को देखते ही अपने ऊपर बाण चला-चला कर छेदन-भेदन का खूब उपसर्ग किया ।
वृकनाभि मुनिराज ने भील के तीक्ष्ण बाणों का उपसर्ग शांतिपूर्वक सहन किया और समाधिपूर्वक मरण करके वे सोलहवें स्वर्ग से भी ऊपर मध्यम ग्रैवेयक में अहमिन्द्र बन गए, वहां सर्वशक्तिमान सागर तक दिव्य सुखों को ग्रहण किया लेकिन वह पापी भील मुनिहत्या के फलस्वरूप सातवें नरक में चला गया, जहाँ के दु:खों का वर्णन मुख से करना भी असंभव है अर्थात् सत्ताईस सागर तक वह नरक में भीषण दु:ख भोगता रहा।
वहाँ उसे कुअवधिज्ञान के प्रभाव से पूर्व जन्मों की सब बातें याद आ गईं कि मैंने पिछले जन्मों में बहुत पाप पाये हैं। अनेकों पश्चात्ताप करने पर भी क्षेत्रजन्य प्रभाव के कारण उसे तिल-तुष्मात्र भी सुख की प्राप्ति नहीं होती है।
कर्म की विचित्रता देखो, मरुभूति का जीव जो मुनि अवस्था से अहमिन्द्र बना था, वह सत्ताईस सागरों तक स्वर्ग में तत्त्वचर्चा आदि के द्वारा असीम सुखों का भोग करता रहा।
ग्रैवेयक विमान के उस अहमदिन्द्र ने सत्ताईस सागर की आयु में मध्यलोक की अयोध्या नगरी में महामंडलीक राजा आनंद के रूप में मनुष्य को जन्म दिया और कामथ का जीव सातवें नरक से निकलकर निकटवर्ती वन में सिंह हो गया। ।
महाराज आनन्द ने राज्य सुखों का उपभोग करते हुए एक बार फाल्गुन अष्टाह्निका पर्व में मंदिर में नंदीश्वर पूजन के मध्य पधारे विपुलमती मुनिराज के मुखारविंद से तीन लोगों के अकृत्रिम चैत्यालयों का वर्णन सुना तो उन्हें सूर्य विमान के जिनमंदिर के प्रति अगाध श्रद्धा हुई: वे कुशल कलाकारों ने अयोध्या की धरती पर ही मणि और सुवर्ण का एक सूर्य विमान बनवाया और उसमें रत्नमयी जिनप्रतिमाएं विराजमान करवाए, पुन: शास्त्रोक्त विधि से अनेक प्रकार से महापूजा की।
उत्तरपुराण में कहा गया है कि इस लोक में उसी समय से सूर्य की उपासना चल रही है। आनन्द नरेश ने एक दिन राजसभा में बैठे दर्पण में अपना मुख देखा तो सिर में एक सफेद बाल देखते ही उन्हें राज्य-वैभव से वैराग्य हो गया और उन्होंने अपने सुयोग्य बड़े पुत्र को राज्यभारीलवधिकधारी सागरदत्त मुनिराज के पास नमूने को धारण कर लिया, पुनः : गुरुचरणों ने छह कारणों से भावनाओं को भड़काकर प्रकृति का बंधन कर लिया।
वे आनंद मुनिराज एक बार वन में ध्यान लगाए थे, तब सिंह उन्हें वहां आकर खा जाते हैं और मुनि समता भाव से उपसर्ग सहन करके तेरहवें स्वर्ग के विमान में इंद्र हो जाते हैं। आगे सिंह मर्कर पांचवे नरक में चला जाता है।
समता परिणामों की विशेषता के कारण आनंद मुनिराज ने तेरहवें स्वर्ग के इन्द्र का पद प्राप्त किया था। वहाँ उस इन्द्र को दिव्य अवधिज्ञान से ज्ञात हो जाता है कि पूर्व जन्म में मैंने महामुनि बनकर जो तपस्या की थी उसी के प्रभाव से यहाँ मुझे इन्द्र का वैभव प्राप्त हुआ है अत: वहाँ के वैभव को देखकर वे आनंदचर इन्द्रराज धर्म और धर्म के फल में और अधिक श्रद्धा करने लगते हैं।
वे इन्द्रराज अपने परिवार देवों के साथ कभी नन्दीश्वर द्वीप में पूजन करने जाते हैं, कभी विदेहक्षेत्र में सीमंधर स्वामी आदि तीर्थंकर के समवसरण में दिव्यध्वनि का पान करते हैं तो कभी देव-देवांगनाओं के साथ मनोविनोद करते हैं। भावी तीर्थंकर वे देवेन्द्र इस अतुल वैभव को भोगते हुए भी उसमें आसक्त नहीं हो रहे हैं और वहाँ बीस सागर तक दिव्य सुखों का अनुभव कर रहे हैं।
वाराणसी नगरी में महाराजा अश्वसेन अपनी महारानी वामा देवी के साथ नौ मंजिल वाले शिखराकार दिव्य महल में रहते थे। एक दिन उनके आंगन में धनकुबेर ने स्वर्ग से आकर रत्नवृष्टि शुरू कर दी और प्रतिदिन करोड़ों रत्न बरसाने लगा।
कुछ दिन (६ माह) बाद एक दिन (वैशाख वदी दूज) रात्रि के पिछले प्रहर में महारानी वामा देवी ने ऐरावत हाथी, बैल, सिंह आदि सोलह स्वप्न देखे पुन: प्रात: अपने पति से यह जानकर अत्यन्त प्रसन्न हुईं कि तुम्हारे पवित्र गर्भ से तीर्थंकर महापुरुष का जन्म होगा इसीलिए इन्द्र, देव, देवियाँ सभी तुम्हारी सेवा में लगे हुए हैं।
इस प्रकार अतिशय सुखपूर्वक दिन व्यतीत करते हुए वामा देवी ने पौष कृष्णा एकादशी के दिन सूर्य के समान तेजस्वी तीर्थंकर पुत्र को जन्म दिया। तब सौधर्म इन्द्र के साथ असंख्य देवों ने आकर प्रभु का जन्मकल्याणक महोत्सव मनाया। इन्द्र ने ऐरावत हाथी पर ले जाकर सुमेरु पर्वत की पाण्डुकशिला पर उनका जन्माभिषेक किया और उन्हें दिव्य वस्त्राभूषण से अलंकृत कर ‘‘पार्श्वनाथ’’ नाम से अलंकृत किया।
इन्द्र द्वारा अंगूठे में स्थापित अमृत का पान करते हुए जिनबालक पार्श्वनाथ ने शैशव से युवावस्था में प्रवेश किया। एक दिन पार्श्वकुमार ने अपने अनेक मित्रों के साथ बनारस नगरी के उद्यानों में विचरण करते हुए एक तापसी साधु को देखा जो पंचाग्नि तप कर रहा था। पार्श्वनाथ वहाँ खड़े होकर उसकी मिथ्या क्रियाएं देखने लगे, तब तापसी ने सोचा कि देखो! मैं इस बालक का नाना हूँ, फिर भी यह मेरी विनय नहीं कर रहा है पुन: वह क्रोधमें भड़क कर कुल्हाड़ी से लकड़ी चीरने लगा। तत्क्षण अवधिज्ञानी पार्श्वनाथ बोल उठे कि इस लकड़ी में नागयुगल हैं, इसे मत चीरो।
तापसी को यह सुनकर और अधिक गुस्सा आ गया, किन्तु उसने ज्यों ही लकड़ी के दो टुकड़े किये, उसमें से कटे हुए छटपटाते नागयुगल भी निकल पड़े। तब पार्श्वनाथ के सम्बोधन से वे दोनों मरकर धरणेन्द्र-पद्मावती नामक यक्ष जाति के देव-देवी हो गये।
इस प्रकार अपनी अमृतमयी वाणी से अनेक जीवों का कल्याण करते हुए युवराज पार्श्वनाथ तीस वर्ष की उम्र में एक दिन सुखपूर्वक बैठे हुए थे, उसी समय अयोध्या नरेश जयसेन महाराज का दूत आ गया और उसने अनेक प्रकार की भेंट समर्पित कर अयोध्या के वैभव एवं भगवान ऋषभदेव के दश भव आदि का वर्णन सुनाया। जिससे पार्श्वनाथ को वैराग्य हो गया अत: उन्होंने दीक्षा धारण कर ली।
वे भगवान एक बार किसी वन के अन्दर ध्यान में लीन थे, तभी कमठ का जीव जो पाँचवें नरक से निकलकर पशुयोनि के दु:ख सहन करते हुए राजा महीपाल के रूप में महीपालपुर का राजा हो गया, पुन: मिथ्यातप से मरकर शंवर नामक ज्योतिषी देव हो गया, इसने अब भी पार्श्वनाथ का पीछा नहीं छोड़ा और उनके ऊपर घोर उपसर्ग करने लगा। उसी समय धरणेन्द्र-पद्मावती ने आकर उपसर्ग दूर किया और भगवान को केवलज्ञान प्राप्त हो गया। इस उपसर्गविजय की भूमि को ही ‘‘अहिच्छत्र’’ तीर्थ की प्रसिद्धि प्राप्त हुई, जहाँ पार्श्वनाथ भगवान का प्रथम समवसरण अधर आकाश में निर्मित हुआ था।
प्रभु श्री कृष्ण ने लगभग सात वर्षों तक समवसरण में बारह सभाओं के मध्य धर्मोपदेश में विहार किया। अंत में जब उनकी आयु एक माह की शेष रह गई, तब उन्होंने विहार बंद कर सम्मेदाचल पर्वत के शिखर पर छत्तीस मुनियों के साथ प्रतिमा धारण कर विराजमान हो गए, पुन: श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन प्रात: समस्त कर्म नष्ट करके निर्वाणधाम को प्राप्त कर लिया। । इन्द्रों ने उस समय उनका निर्वाणकल्याणक बहु महोत्सव मनाया। तब से लेकर आज तक सम्मेदशिखर के स्वर्णभद्रकूट पर भगवान पार्श्वनाथ का मोक्षकल्याणक प्रतिवर्ष भक्तगण शुभ से सम्पूर्ण हुए निर्वाणलाडू चढ़ाते हैं।
जैन समाज की परम साध्वी पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी ने पूरे देश में भगवान पार्श्वनाथ जन्मकल्याणक तृतीय सहस्त्राब्दी महोत्सव मनाने की प्रेरणा प्रदान की, जिसका उद्घाटन ६ जनवरी २५ को जन्मभूमि वाराणसी में किया गया।
तीन साल तक इस त्यौहार को विभिन्न आयोजनों के साथ मनाया गया। उनमें गर्भ-जन्म एवं दीक्षाकल्याणक तीर्थ वाराणसी, केवलज्ञान कल्याणक तीर्थ अहिच्छत्र, निर्वाणकल्याणक तीर्थ सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र के साथ-साथ पार्श्वनाथ के समस्त अतिशय क्षेत्रों का भी प्रचार-प्रसार किया गया।