संसार को सत्य अहिंसा रूप शाश्वत मूल्यों का उत्कृष्ट पथ प्रदर्शित करने वाले इस युग के तीर्थंकर भगवन्तों की परम्परा में अंतिम एवं २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी ने लगभग २६०० वर्ष पूर्व बिहार प्रान्त की कुण्डलपुर नगरी (नालन्दा) में महाराजा सिद्धार्थ एवं महारानी त्रिशला के आंगन में चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को जन्म लिया था। अपने उज्ज्वल शरीर की कान्ति से अन्धकार को विनष्ट करने वाला, जगत का हित करने वाला, मति,श्रुत, अवधि तीनों ज्ञान को धारण करने वाला, महादेदीप्यमान एवं धर्मतीर्थ का प्रवर्तक ऐसा यह जिनशिशु प्रारम्भ से ही महान अलौकिक व्यक्तित्व का धारी था। सुमेरुपर्वत पर १००८ कलशों का जन्माभिषेक सहज रूप से झेलने की सामर्थ्य तीर्थंकर शिशु में ही हो सकती थी।
भगवान की बाल्यावस्था—
वीर, वर्धमान, सन्मति जैसे नामों से अलंकृत भगवान की सेवा के लिए सौधर्म इन्द्र अनेक देव, देवियों को राजमहल – नंद्यावर्त में नियुक्त कर गए थे। उनमें से कोई धाय का काम करती, कोई स्वर्ग से लाए गए वस्त्र-आभूषण आदि से उनके अंगों को सजाती, कोई अनेक प्रकार के खिलौनों आदि के द्वारा उनका विशेष मनोरंजन करती थी। जब वे देवियां उन्हें सम्बोधन कर बुलातीं तो भगवान मुस्कुराते हुए उनके पास चले जाते थे। तीर्थंकर भगवान चन्द्रकला की भांति बढ़ने लगे। उनकी बाल-सुलभ चपलता से माता-पिता एवं कुटुम्बियों को बड़ा ही आनन्द होता था।
जब उनकी अवस्था कुछ अधिक बढ़ी तो उनके मुख से सरस्वती की भांति वाणी निकलने लगी। रत्नजटित भूमि पर चलते हुए उनके आभूषण सूर्य की किरणों की तरह दमदमाते थे एवं वे स्वयं किरणों से परिवेष्टित सूर्य सम प्रतीत होते थे। उनकी क्रीडा के लिए देव स्वयं गजराज, अश्व आदि का कृत्रिम रूप ले लिया करते थे। वे उनके साथ क्रीडा किया करते थे। इस प्रकार विभिन्न क्रीडाओं से स्वयं प्रसन्न होकर दूसरों को प्रसन्न करते हुए वे भगवान कुमार अवस्था को प्राप्त हुए।
उस समय प्रभु के दिव्य शरीर में स्वाभाविक मति-श्रुत-अवधि आदि ज्ञान वृद्धि को प्राप्त हुए। उन्हें समस्त कलाएं एवं विद्याएं स्वतः प्राप्त हो गईं इसलिए वे प्रभु मनुष्यों तथा देवों के लिए गुरु सदृश हो गए, पर उनका कोई गुरू नहीं था। प्रभु का शरीर स्वेद रहित कांतिवान एवं मल-मूत्रादि से रहित स्वर्ण सदृश था। श्वेत रुधिरयुक्त एवं महान दिव्य सुगंधित एक हजार आठ शुभ लक्षणों से वे शोभायमान थे। वे सबके हितकारक एवं कर्णमधुर शब्दों का उच्चारण करते थे। जन्मकाल से ही दिव्य दश अतिशयों से युक्त, धीरज आदि अपरिमित गुण, कीर्ति -कला-विज्ञान आदि सभी से वे सुशोभित थे। आगे चलकर भगवान वङ्कावृषभनाराचसंहनन एवं समचतुरस्र संस्थान वाले उत्तम रूपयुक्त एवं विशालकाय बलवान पुरुष हुए।
संगमदेव द्वारा बालक वर्धमान की परीक्षा—
एक बार इन्द्र की सभा में देवों ने भगवान की दिव्य कथा पर चर्चा की। उनकी धीरता, वीरता, अतुल पराक्रम, दिव्य रूप आदि का वर्णन सुन संगम नामक देव ने भगवान की परीक्षा लेने की ठान ली। वह उस वन में आया, जहां प्रभु अन्य राजपुत्रों के साथ क्रीडा कर रहे थे। प्रभु को डराने के उद्देश्य से उसने काले सर्प का भयंकर विकराल रूप बनाया और वह एक वृक्ष की जड़ से लेकर स्कन्ध तक लिपट गया। उस सर्प के भय से अन्य सभी राजकुमार वृक्ष से कूदकर घबराते हुए दूर भाग गए परन्तु कुमार महावीर जरा भी विचलित नहीं हुए प्रत्युत् उस भयंकर नागराज पर आरूढ़ होकर माता की गोद के समान क्रीडा करने लगे। कुमार का धैर्य देखकर सर्परूपी देव बड़ा चकित हुआ एवं अपने असली रूप में प्रगट होकर प्रभु की स्तुति करने लगा एवं जिनके नामस्मरण से ही प्रयोजनों की सिद्धि करने वाला धैर्य प्राप्त हो जाता है ऐसे वीर प्रभु को ‘‘महावीर’’ नाम से अलंकृत करके स्वर्ग को चला गया।
कुण्डलपुर के राजकुमार—
इस प्रकार बालक वर्धमान वन क्रीडा, जलक्रीडा , नृत्य, नाटक आदि में संलग्न हो बड़े सुखपूर्वक समय को व्यतीत कर रहे थे। काव्य आदि की गोष्ठी तथा धर्मचर्चा इत्यादि के साथ कुमार ने धीरे-धीरे यौवनावस्था को प्राप्त कर लिया। उस समय उनके मस्तक का मुकुट धर्मरूपी पर्वत के शिखर की भाँति शोभायमान होता था। उनके कपोल तथा मस्तक की कांति ऐसी प्रतीत होती थी , मानो पूर्णिमा के चन्द्रमा की ज्योत्स्ना ही हो। सुन्दर भौहों से शोभित उनके कमल-नेत्र एवं मुखरूपी चन्द्रमा अतुलनीय थे।
प्रभु के कानों के कुण्डल बड़े ही भव्य दीखते थे। उनकी नासिका-ओष्ठ-दन्त एवं कण्ठ की स्वाभाविक सुन्दरता को बतलाना तो संभव ही नहीं है। उनका विस्तृत वक्षस्थल रत्नों के हार से ऐसा सुसज्जित होता था, मानो लक्ष्मी का निवास ही हो।
अनेक प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित उनकी भुजाएं ठीक कल्पवृक्ष के सदृश प्रतीत होती थीं। अंगुलियों के दशों नख अपनी किरणों से ऐसे प्रतिभासित हो रहे थे मानो वे धर्म के दश अंग ही हों। इनकी गहरी नाभि सरस्वती एवं लक्ष्मी की क्रीडास्थली (सरोवर) जैसी प्रतीत होती थी। प्रभु के वस्त्र-पट की करधनी ऐसी मालूम होती थी, जैसे वह कामदेव को बांधने के लिए नागपाश ही हो। इन्द्र-धरणेन्द्र आदि सभी देवों द्वारा सेवित प्रभु के चरणकमलों की तुलना भला किससे की जा सकती है ?
इस प्र्ाकार नख से शिख तक प्रभु के अंग-प्रत्यंग की अपूर्व शोभा को देखकर ऐसा प्रतिभासित होता था मानो ब्रह्मा अथवा कर्म ने तीनों जगत् में रहने वाले समस्त दिव्य प्रकाशमान, पवित्र एवं सुगन्धित परमाणुओं से प्रभु का अद्वितीय शरीर बनाया हो। इस शरीर का पहला गुण था—वङ्कावृषभनाराच संहनन।
प्रभु के शरीर में मल-मूत्र, स्वेद, दोष, रागादिक तथा वातादिक तीन दोषों से उत्पन्न रोग किसी समय भी नहीं होते थे। उनकी वाणी समस्त संसार को प्रिय थी। वह सबको सत्य एवं शुभ मार्ग दिखलाने वाली धर्ममाता के समान थी, दूसरे खोटे मार्ग को व्यक्त करने वाली नहीं थी। दिव्य शरीर को पाकर वे प्रभु ऐसे सुशोभित हो रहे थे, जैसे धर्मात्माओं को पाकर धर्मादि गुण सुशोभित होते हैं। भगवान के लक्षण ये हैं—
श्रीवृक्ष, शंख, पद्म, स्वस्तिक, अंकुश, तोरण, चमर, श्वेतछत्र, ध्वजा, सिंहासन, दो मछलियां, दो घड़े, समुद्र, कछुआ, चक्र, तालाब, विमान, नागभवन, पुरुष-स्त्री का जोड़ा, बड़ा भारी सिंह, तोमर, गंगा, इन्द्र, सुमेरु, गोपुर, चन्द्रमा, सूर्य, घोड़ा, बींजना, मृदंग, सर्प, माला, वीणा, बांसुरी, रेशमी वस्त्र, देदीrप्यमान कुण्डल, विचित्र आभूषण, फल सहित बगीचा, पके हुए अनाज वाला खेत, हीरा रत्न, बड़ा दीपक, पृथ्वी, लक्ष्मी, सरस्वती, सुवर्ण कमलबेल, चूड़ारत्न, महानिधि, गाय, बैल, जामुन का वृक्ष, पक्षिराज, सिद्धार्थ वृक्ष, महल, नक्षत्र, ग्रह, प्रातिहार्य आदि दिव्य एक सौ आठ लक्षणों से तथा नौ सौ श्रेष्ठ व्यंजनों से, विचित्र आभूषणों से एवं मालाओं से प्रभु का स्वाभाविक सुन्दर, दिव्य, औदारिक शरीर अत्यन्त सुशोभित था।
अधिक क्या कहा जाए, संसार में जितनी भी शुभ लक्षणरूप सम्पदा एवं प्रिय वचन-विवेकादि गुण हैं, वे सब पुण्य कर्मों के उदय से तीर्थंकर भगवान में स्वतः ही समाविष्ट थे। अधिष्ठित स्वामी सदा उनकी सेवा में रत रहते थे। वे कुमार महावीर धर्म की सिद्धि के लिए मन-वचन-काय की शुद्धि से अतिचार रहित भक्तिपूर्वक गृहस्थों के बारह व्रतों का पालन करते थे। सर्वदा शुभध्यान में प्रभु लीन रहते थे। इस प्रकार पुण्य के शुभोदय से प्राप्त हुए सुखों का उपभोग करते हुए कुमार ने तीस वर्ष का समय व्यतीत कर दिया।
युवा चरण तीर्थंकरत्व की ओर—
एक बार उन्हें स्वतः अपने पूर्व जन्मों का जातिस्मरण हो गया, तत्क्षण ही वैराग्य उत्पन्न होने से युवराज महावीर ने मोहरूपी महान शत्रु का सर्वनाश करने के लिए रत्नत्रयरूप तप का पालन करने हेतु जैनेश्वरी दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया। मगशिर बदी दशमी को ज्ञातृषण्डवन में सालवृक्ष के नीचे प्रभु ने पंचमुष्टि लोंच करके जिनदीक्षा को धारण कर लिया। बारह वर्षों की घनघोर तपश्चर्या के पश्चात् जृम्भिका ग्राम के निकट ऋजुकूला नदी के किनारे मनोहर नामक उद्यान में वैशाख शुक्ला दशमी को भगवान ने दिव्यकेवलज्ञान को प्राप्त करके अर्हंत परमेष्ठी का पद प्राप्त कर लिया। ३० वर्षों तक दिव्य समवसरण में असंख्य जीवों को अहिंसामयी शासन का अमृतपान कराते हुए कार्तिक कृष्णा अमावस्या को भगवान महावीर ने पावापुरी (बिहार) नगरी के सरोवर के मध्य जाकर योगों का निरोध कर अघातिया कर्मों का नाश करके परम सिद्धपद को प्राप्त कर लिया। ऐसे उन त्रैलोक्यपति भगवान महावीर के चरणों में कोटि-कोटि नमन।