वीर निर्वाण के लगभग सौ वर्ष बाद मगध नरेश नंदिवर्धन ने अयोध्या में मणिपर्वत नामक उत्तुंग जैन स्तूप बनवाया था, जो आज मणि पर्वत टीला के नाम से प्रसिद्ध है। मौर्य सम्राट संप्रति और वीर विक्रमादित्य ने इस क्षेत्र के पुराने जिनमंदिरों का जीर्णोद्धार एवं नवीन मंदिरों का निर्माण कराया था। गुजरात नरेश कुमारपाल चौलुक्य (सोलंकी) ने भी यहाँ जिनमंदिर बनवाये थे।
यह टोंक ला. केसरी सिंह के समय से पूर्व ही विद्यमान थी और उन्होंने २४ ई. में इसका जीर्णोद्धार कराया था, पुन: १८९९ ई. में लखनऊ के पंचों ने तथा १९५६ ई. में ला. जम्बू प्रसाद जैन, गोटे वाले-लखनऊ ने जीर्णोद्धार कराया था। यह टोंक स्वर्गद्वार मोहल्ले में स्थित है।
कटरा मुहल्ले में स्थित प्राचीन दिगम्बर जैन मंदिर है, शिखरयुक्त इस मंदिर में चार वेदियाँ हैं, यहाँ पर एक प्रतिमा वि. सं. १२२४ की हैं। चौथी वेदी में भगवान ऋषभदेव की ९ फुट उत्तुंग प्रतिमा व आजू-बाजू में भरत-बाहुबली की प्रतिमा आचार्यश्री देशभूषण महाराज की प्रेरणा से सन् १९५२ में विराजमान की गई हैं। मंदिर के आंगन में भगवान सुमतिनाथ की टोंक है, जिसमें भगवान सुमतिनाथ के चरण विराजमान हैं। कटरा मोहल्ले में ही एक टोंक है, जिसमें अयोध्या में ही जन्में श्री भरत चक्रवर्ती और कामदेव बाहुबली के चरण विराजमान हैं तथा कटरा मंदिर के पास ही पाण्डुक शिला परिसर में भगवान शांति, कुंथु व अरहनाथ भगवान के चरण विराजमान हैं। कटरा मोहल्ले में ही भगवान अभिनंदननाथ के जन्मस्थान के प्रतीकरूप में टोंक है जो शिखरबंद है, इसमें भी भगवान के चरण स्थापित हैं। इसका जीर्णोद्धार भी सन् १७२४ व सन् १८९९ में हुआ है। बकसरिया टोले में जिसे बेगमपुरा भी कहते हैं, भगवान अजितनाथ की टोंक है। जन्मस्थान के प्रतीक रूप में इसमें भगवान अजितनाथ के चरण चिन्ह विराजमान हैं, यह शिखरबंद टोंक है। सरयू नदी के पास राजघाट पर भगवान अनंतनाथ के चरण चिन्ह सहित मंदिर है। इसका जीर्णोद्धार १७२४ ई. में व १८९९ ई. में कराया गया है। इस टोंक से लगे हुए टीले की पुरातत्व विभाग ने खुदाई कराई थी और अब से लगभग १०० वर्ष पूर्व जनरल कनिंघम ने उस टीले का वर्णन ‘‘जैन टीला’’ नाम से किया था। कुछ वर्ष पूर्व सरयू नदी की बाढ़ से इस टोंक को क्षति पहुँचने पर तीर्थक्षेत्र कमेटी ने जीर्णोद्धार कराया था। मुहल्ला रायगंज में रियासती बाग के मध्य में एक भव्य जिनमंदिर का निर्माण हुआ है। इसमें मूलनायक के रूप में ३१ फुट ऊँची विशाल एवं मनोज्ञ भगवान ऋषभदेव की खड्गासन प्रतिमा विराजमान हैं। सन् १९६५ में आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज की प्रेरणा से और दिल्ली आदि स्थानोेंं के अनेक श्रद्धालु उत्साही श्रावकों के सहयोग से यह भव्य जिनमंदिर बना है, आजू-बाजू में अन्य और छह प्रतिमाएँ विराजमान हैं। ऊपर भी दो वेदियाँ हैं।
धनतेरस कार्तिक कृ. त्रयोदशी, सन् १९९२ के दिन ब्राह्ममुहूर्त में हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप स्थल पर विराजमान जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के मन में अयोध्या में विराजमान ३१ फुट उत्तुंग विशाल जिनप्रतिमा के महामस्तकाभिषेक कराने की अन्तर्प्रेरणा जागृत हुई, फलस्वरूप ११ फरवरी १९९३ को हस्तिनापुर से विहार कर १६ जून १९९३ को अयोध्या में मंगल पदार्पण किया, उनके अवध विहार से सम्पूर्ण अवधवासियों में खुशी की लहर दौड़ गई और अवधवासी अपनी ब्राह्मी सदृश माता को पाकर कृतकृत्य हो उठे। उस समय माताजी ने भगवान की विशाल प्रतिमा के प्रथम दर्शन किए और मात्र कुछ ही दिन के प्रवास में अयोध्या तीर्थ की जीर्ण-शीर्ण अवस्था देख उनका अन्तर्हृदय रो पड़ा और उन्होंने उसी क्षण वहाँ के पदाधिकारियों की विनती स्वीकार कर अपनी जन्मभूमि के उत्साह व स्नेह को ठुकराकर अयोध्या के विकास हेतु अपना चातुर्मास स्थापित करने की स्वीकृति प्रदान कर दी, फिर तो राम जन्मभूमि के नाम से विख्यात अयोध्या देखते ही देखते ऋषभ जन्मभूमि के नाम से विश्व के मानसपटल पर अंकित हो गई। २४ फरवरी १९९४ को उत्तरप्रदेश में प्रथम बार भगवान ऋषभदेव का महामस्तकाभिषेक हुआ, साथ ही प्रथम भेंट के रूप में पूज्य माताजी ने मंदिर के आजू-बाजू तीन चौबीसी मंदिर एवं समवसरण मंदिर का निर्माण कराया। इन नूतन जिनमंदिरों में तीन चौबीसी मंदिर में तीन मंजिल वाला एक ७२ दल का विस्तृत कमल है। उन दलों पर तीन चौबीसी के कुल बहत्तर तीर्थंकर भगवान की प्रतिमाएँ विराजमान हैं। बायीं तरफ समवसरण में भगवान ऋषभदेव के समवसरण में गंधकुटी में ४ प्रतिमाएँ हैं और मानस्तंभ, चैत्य प्रासादभूमि, उपवनभूमि, कल्पतरु भूमि, भवनभूमि आदि में १५२ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं। श्रीमण्डप भूमि में गणधर देव, मुनिगण व आर्यिकाओं की प्रतिमाएँ भी हैं। सुन्दर बाग-बगीचे से समन्वित इस रायगंज मंदिर परिसर में प्राचीन धर्मशाला के अतिरिक्त तीन नूतन धर्मशालाएँ (डीलक्स फ्लैट युक्त), आचार्य शांतिसागर निलय, आचार्य देशभूषण निलय एवं गणिनी ज्ञानमती निलय हैं तथा सुंदर भोजनशाला भी चल रही है। पूज्य माताजी की प्रेरणा से यहाँ होने वाली पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में पधारने वाले तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने अयोध्या में भगवान ऋषभदेव नेत्र चिकित्सालय की स्थापना की तथा पैâजाबाद स्थित ‘‘डा. राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय’’ में ‘ऋषभदेव जैन शोधपीठ’ की भी स्थापना हुई। माताजी की ही प्रेरणा से अयोध्या के राजघाट पर स्थित राजकीय उद्यान ‘‘ऋषभदेव उद्यान’’ के नाम से घोषित हुआ, जहाँ २१ फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा विराजमान की गई तथा टोकों का जीर्णोद्धार कर वहाँ अनेक शिलालेख लगाए गए, जो अयोध्या के इतिहास की गौरव गाथा गा रहे हैं। सरयू तट पर स्थित भगवान अनंतनाथ टोंक परिसर में २४ तीर्थंकरों के परिचय व चरण चिन्ह तथा ब्राह्मी-सुन्दरी माता के चरण विराजमान किए गए हैं।
सन् १९९४ में माताजी की प्रेरणा प्राप्त कर वहाँ के पदाधिकारियों ने प्रत्येक ५ वर्ष के अनन्तर भगवान का महामस्तकाभिषेक महोत्सव आयोजित करने की घोषणा की थी, मगर शायद उस धरा को पुन: उन्हीं ब्राह्मी माता का इंतजार था, इसलिए सन् २००५ में टिवैâतनगर में नवनिर्मित जिनमंदिर के पंचकल्याणक हेतु अवध की ओर विहार करते हुए पूज्य माताजी के श्रीचरण एक बार पुन: अयोध्या की धरा पर पड़े और उनके संघ सानिध्य में ११ वर्षों बाद उन आदीश्वर बाबा का महामस्तकाभिषेक अप्रैल २००५ में धूमधाम से सम्पूर्ण विश्व में अयोध्या की कीर्तिपताका को फहराता हुआ सम्पन्न हुआ।
एक बार पुन: अयोध्या में स्वर्णिम अवसर आया, जब पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का संकल्प साकार होकर भगवान ऋषभदेव की जन्मभूमि टोंक पर भव्य जिनमंदिर बनकर पूर्ण हुआ है, उसका पंचकल्याणक महोत्सव फरवरी २०११ में सम्पन्न हुआ है।
पुन: सन् २०१३ में भगवान अनंतनाथ की टोंक पर विशाल जिनमंदिर का निर्माण होकर पद्मासन लालवर्णी ग्रेनाइट की भव्य प्रतिमा प्रतिष्ठापित हो चुकी है, विकास के उसी क्रम में भगवान भरत—बाहुबली की टोंक पर सुन्दर जिनमंदिर का निर्माण होकर भगवान भरत एवं बाहुबली की श्वेतवर्णी खड्गासन प्रतिमा विराजमान हो चुकी है। भगवान अभिनंदननाथ एवं अजितनाथ की टोंक का भी उद्धार होकर वहाँ अत्यन्त मनोज्ञ श्वेतवर्णी पद्मासन जिनप्रतिमाएँ नवनिर्मित जिनमंदिर में विराजित हो चुकी हैं एवं भगवान सुमतिनाथ जन्मस्थली का निर्माणकार्य द्रुतगति पर है।
इस प्रकार वर्तमान में अयोध्या का स्वरूप ही परिवर्तित हो चुका है जिसका सम्पूर्ण श्रेय इस युग की प्रथम बालसती साक्षात् सरस्वती स्वरूपा परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी को जाता है जिनकी महान अनुकम्पा उस तीर्थ पर हुई और वर्तमान चौबीसी में से अयोध्या नगरी में जन्में पांचों तीर्थंकरों की टोंकों का जीर्णोद्धार—विकास होकर वहाँ भव्य जिनमंदिर निर्मित हो चुके हैं जिसमें अत्यन्त मनोज्ञ दिगम्बर जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं जो सम्पूर्ण विश्व को जैनधर्म की प्राचीनता, उनके अिंहसामयी सिद्धान्तों एवं उनकी त्याग—तपस्या का दिग्दर्शन करवा रही हैं।
इस अयोध्या तीर्थ में अन्य इतिहास ग्रंथों के अनुसार सन् १३३० में अनेक मंदिर थे। महाराजा नाभिराज का मंदिर, पार्श्वनाथ बाड़ी, गोमुख यक्ष, चक्रेश्वरी यक्षी की रत्नमयी प्रतिमा, सीताकुंड, सहस्रधारा, स्वर्गद्वार आदि अनेक जैनायतन विराजमान थे। यहाँ एक श्वेताम्बर जैन मंदिर भी है तथा वैष्णव सम्प्रदाय के हजारों मंदिर हैं, जिनमें हनुमानगढ़ी, सीता रसोई, दशरथ महल, कनक भवन आदि अनेक दर्शनीय स्थल हैं।
ऐसी पावन शाश्वत जन्मभूमि का कण-कण परम पूज्यनीय व वंदनीय है, जिसका दर्शन-वंदन अनेक पाप कर्मों का नाश कर सातिशय पुण्य प्राप्ति में सहायक है। ऐसे पवित्र तीर्थ के लिए मेरा शत-शत नमन है।