स्थिति-अहिच्छत्र उत्तरप्रदेश के बरेली जिले की आँवला तहसील में स्थित है। दिल्ली से अलीगढ़ १२६ किमी. तथा अलीगढ़ से बरेली लाइन पर (चन्दौसी से आगे) आँवला स्टेशन १३५ किमी. है। आँवला स्टेशन से अहिच्छत्र क्षेत्र सड़क द्वारा १८ किमी. है। आँवला से अहिच्छत्र तक पक्की सड़क है। स्टेशन पर ताँगे मिलते हैं। इसके अतिरिक्त इसी रेलवे लाइन पर रेवती बहेड़ाखेड़ा स्टेशन से ५ किमी. पूर्व दिशा में पड़ता है किन्तु आँवला स्टेशन पर उतरना अधिक सुविधाजनक है। इसका पोस्ट ऑफिस रामनगर है।
कल्याणक क्षेत्र-अहिच्छत्र आजकल रामनगर गाँव का एक भाग है। इसको प्राचीन काल में संख्यावती नगरी कहा जाता था। एक बार भगवान पार्श्वनाथ मुनि अवस्था में विहार करते हुए संख्यावती नगरी के बाहर उद्यान में पधारे और वहाँ प्रतिमायोग धारण करके ध्यानलीन हो गये। संयोगवश संवर नामक एक देव विमान द्वारा आकाश मार्ग से जा रहा था। ज्यों ही विमान पार्श्वनाथ के ऊपर से गुजरा कि वह वहीं रुक गया। उग्र तपस्वी ऋद्धिधारी मुनि को कोई सचेतन या अचेतन वस्तु लाँघकर नहीं जा सकती। संवरदेव ने इसका कारण जानने के लिए नीचे की ओर देखा। पार्श्वनाथ को देखते ही जन्म-जन्मान्तरों के वैर के कारण वह क्रोध से भर गया। विवेकशून्य हो वह अपने पिछले जीवन में पार्श्वनाथ के हाथों हुए अपमान का प्रतिशोध लेने को आतुर हो उठा और अनेक प्रकार के भयानक उपद्रव कर उन्हें त्रास देने का प्रयत्न करने लगा किन्तु स्वात्मलीन पार्श्वनाथ पर इन उपद्रवों का रंचमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा। न वे ध्यान से चल-विचल हुए और न उनके मन में आततायी के प्रति दुर्भाव ही आया। तभी नागकुमार देवों के इन्द्र धरणेन्द्र और उसकी इन्द्राणी पद्मावती के आसन कम्पित हुए। वे पूर्व जन्म में नाग-नागिन थे। संवरदेव तापसी था। पार्श्वनाथ उस समय राजकुमार थे। जब पार्श्वनाथ सोलह वर्ष के किशोर थे तब गंगा-तट पर सेना के साथ हाथी पर चढ़कर वे भ्रमण के लिए निकले। उन्होंने एक तपस्वी को देखा, जो पंचाग्नि तप कर रहा था। कुमार पार्श्वनाथ अपने अवधिज्ञान के नेत्र से उसके इस विडम्बनापूर्ण तप को देख रहे थे। इस तपस्वी का नाम महीपाल था और यह पार्श्वनाथ का नाना था। पार्श्वनाथ ने उसे नमस्कार नहीं किया। इससे तपस्वी मन में बहुत क्षुब्ध था। उसने लकड़ी काटने के लिए अपना फरसा उठाया ही था कि भगवान पार्श्वनाथ ने मना किया ‘इसे मत काटो, इसमें जीव हैं।’ किन्तु उनके मना करने पर भी उसने लकड़ी काट डाली। इससे लकड़ी के भीतर रहने वाले सर्प और सर्पिणी के दो टुकड़े हो गये। परम करुणाशील पार्श्व प्रभु ने असह्य वेदना में छटपटाते हुए उन सर्प-सर्पिणी को संबोधन करके महामंत्र सुनाया जिससे वे अत्यन्त शांत भाव के साथ मरे और नागकुमार देवों के इन्द्र और इन्द्राणी के रूप में धरणेन्द्र और पद्मावती हुए।
महीपाल अपनी सार्वजनिक अप्रतिष्ठा की ग्लानि में अत्यन्त कुत्सित भावों के साथ मरा और ज्योतिष्क जाति का देव बना। उसका नाम अब संवर था। उसी देव ने अब मुनि पार्श्वनाथ से अपने पूर्व वैर का बदला लिया। धरणेन्द्र और पद्मावती ने आकर प्रभु के चरणों में नमस्कार किया और भगवान का उपसर्ग दूरकर अपनी भक्ति का परिचय प्रदान किया। पार्श्वनाथ तो इन उपद्रवों, रक्षाप्रयत्नों और क्षमा प्रसंगों से निर्लिप्त रहकर आत्मध्यान में लीन थे। उन्हें तभी केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। वह चैत्र कृष्णा चतुर्थी का दिन था। इन्द्रों और देवों ने आकर समवसरण में भगवान के ज्ञानकल्याणक की पूजा की। उस समय संवरदेव ने भी प्रभु के चरणों में जाकर अपने पापों का प्रायश्चित किया। भगवान पार्श्वनाथ का वहाँ पर प्रथम जगत्कल्याणकारी उपदेश हुआ।
उक्त घटना का चित्रण आचार्य समंतभद्र (३-४ शताब्दी) ने अपने वृहत् स्वयंभू स्तोत्र के ‘पार्श्वनाथ-स्तोत्र’ में इस प्रकार किया है-
अर्थात् तमालवृक्ष के समान नीले, इन्द्रधनुष तथा बिजली से युक्त और भयंकर वङ्का, वायु और वृष्टि को सब ओर पेंâकने वाले मेघों से, जो कि पूर्व जन्म के वैरी देव के द्वारा लाये गये थे, पीड़ित होने पर भी महामना पार्श्वदेव ध्यान से विचलित नहीं हुए। उस समय धरणेन्द्र नामक नाग ने चमकती हुई बिजली के समान पीत कान्ति को लिए हुए अपने विशाल फणामण्डल का मण्डप बनाकर उपसर्ग से ग्रस्त पार्श्वनाथ को उसी प्रकार ढक लिया जिस प्रकार कृष्ण संध्या में बिजली से युक्त मेघ पर्वत को ढक लेते हैं।
भगवान आत्मध्यान में विचरण करते हुए निरन्तर शुक्लध्यान में आगे बढ़ रहे थे। उनके कर्म नष्ट हो रहे थे। आत्मा की विशुद्धि बढ़ती जा रही थी। तभी उन्हें लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त हो गया। सारे उपसर्ग स्वत: ही समाप्त हो गये। देवों और इन्द्रों के आसन कम्पित हुए।
अतिशय क्षेत्र—नागेन्द्र द्वारा भगवान के ऊपर छत्र लगाया गया था, इस कारण इस स्थान का नाम संख्यावती के स्थान पर अहिच्छत्र हो गया। साथ ही भगवान के केवलज्ञान कल्याणक की भूमि होने के कारण यह पवित्र तीर्थक्षेत्र हो गया।
भगवान पार्श्वनाथ के सिर पर धरणेन्द्र द्वारा स्ार्प फण लगाने और भगवान के केवलज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् लगता है कि यहाँ की मिट्टी में ही कुछ अलौकिक अतिशय आ गया। यहाँ पर पश्चाद्वर्ती काल में अनेक ऐसी चमत्कारपूर्ण घटनाएँ घटित होने का वर्णन जैन साहित्य में अथवा अनुश्रुतियों में उपलब्ध होता है। इन घटनाओं में आचार्य पात्रकेशरी की घटना तो सचमुच ही विस्मयकारी है। आचार्य पात्रकेशरी का समय छठी-सातवीं शताब्दी माना जाता है। आचार्य पात्रकेशरी का आनुमानिक समय छठी शताब्दी का अंतिम अथवा सातवीं शताब्दी का प्रारंभिक काल माना जाता है। वे इसी पावन नगरी के निवासी थे। उस समय नगर के शासक अवनिपाल थे। उनके दरबार में पाँच सौ ब्राह्मण विद्वान थे, जो प्राय: तात्त्विक गोष्ठी किया करते थे। पात्रकेशरी इनमें सर्वप्रमुख थे। एक दिन यहाँ के पार्श्वनाथ मंदिर में ये विद्वान गोष्ठी के निमित्त गये। वहाँ एक मुनि, जिनका नाम चारित्रभूषण था, आचार्य समंतभद्र विरचित देवागम स्तोत्र का पाठ कर रहे थे। पात्रकेशरी ध्यानपूर्वक उसे सुन रहे थे। उनके मन की अनेक शंकाओं का समाधान स्वत: होता गया। उन्होंने पाठ समाप्त होने पर मुनिराज से स्तोत्र दोबारा पढ़ने का अनुरोध किया। मुनिराज ने दोबारा स्तोत्र पढ़ा। पात्रकेशरी उसे सुनकर अपने घर चले गये और गहराई से तत्त्व-चिन्तन करने लगे। उन्हें अन्य दर्शनों की अपेक्षा जैन दर्शन सत्य लगा किन्तु अनुमान प्रमाण के संंबंध में उन्हें अपनी शंका का समाधान नहीं मिल पा रहा था। इससे उनके चित्त में कुछ उद्विग्नता थी।
तभी पद्मावती देवी प्रगट हुईं और बोलीं-‘विप्रवर्य! तुम्हें अपनी शंका का उत्तर कल प्रात: पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा द्वारा प्राप्त हो जायेगा।’ दूसरे दिन पात्रकेशरी पार्श्वनाथ मंदिर में पहुँचे। जब उन्होंने प्रभु की मूर्ति की ओर देखा तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। पार्श्वनाथ प्रतिमा के फण पर निम्नलिखित श्लोक लिखा हुआ था-
श्लोक को पढ़ते ही उनकी शंका का समाधान हो गया। उन्होंने जैनधर्म को सत्य धर्म स्वीकार कर उसे अंगीकार कर लिया। तत्पश्चात् वे जैन मुनि बन गये। अपनी प्रकाण्ड प्रतिभा के कारण जैन दार्शनिक परम्परा के प्रमुख आचार्यों में उनकी गणना की जाती है।
पात्रकेशरी के पश्चाद्वर्ती सभी दार्शनिक जैन आचार्यों ने अपने ग्रंथों में और जैन राजाओं ने शिलालेखों में इस घटना का बड़े आदरपूर्वक उल्लेख किया है। वादिराज सूरि के ‘न्यायविनिश्चयालंकार’ नामक भाष्य में उल्लेख है कि यह श्लोक पद्मावती देवी ने तीर्थंकर सीमंधर स्वामी के समवसरण में जाकर गणधरदेव के प्रसाद से प्राप्त किया था।
श्रवणबेलगोल के ‘मल्लिषेण प्रशस्ति’ नामक शिलालेख (नं. ५४/६७) में, जो शक सं. १०५० का है, लिखा है-
उन पात्रकेशरी गुरु का बड़ा माहात्म्य है जिनकी भक्ति के वश होकर पद्मावती देवी ने ‘त्रिलक्षण-कदर्थन’ की रचना में उनकी सहायता की।
यह ज्ञातव्य है कि उपर्युक्त श्लोक के आधार पर ही आचार्य पात्रकेशरी ने ‘त्रिलक्षणकदर्थन’ नामक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रंथ की रचना की थी।
इसी प्रकार की एक दूसरी चमत्कारपूर्ण घटना का उल्लेख ‘आराधनासार कथाकोष’ में उपलब्ध होता है।
उस समय इस नगर का शासक वसुपाल था। उसकी रानी का नाम वसुमती था। राजा ने एक बार अहिच्छत्र नगर में बड़ा मनोज्ञ सहस्रकूट चैत्यालय का निर्माण कराया और उसमें पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा स्थापित करायी। राजा की आज्ञा से एक लेपकार मूर्ति के ऊपर लेप लगाने को नियुक्त हुआ। लेपकार मांसभक्षी था। वह दिन में जो लेप लगाता था रात में गिर जाता था। इस प्रकार कई दिन बीत गये। लेपकार पर राजा बहुत क्रुद्ध हुआ और उसे दण्डित कर निकाल दिया। एक दिन एक अन्य लेपकार आया। अकस्मात् उसकी भावना हुई और उसने मुनि के निकट जाकर कुछ नियम लिये, पूजा रचायी। दूसरे दिन से उसने जो लेप लगाया, वह फिर मानो वङ्कालेप बन गया।
यहाँ क्षेत्र पर एक प्राचीन शिखरबन्द मंदिर है। उसमें एक वेदी तिखाल वाले बाबा की है। इस वेदी में श्यामवर्णी भगवान पार्श्वनाथ की एक मूर्ति है तथा उनके आगे भगवान के चरण विराजमान हैं। इस तिखाल के संबंध में बहुत प्राचीनकाल से एक िंकवदन्ती प्रचलित है। कहा जाता है कि जब इस मंदिर का निर्माण हो रहा था, उस दिन एक रात लोगों को ऐसा लगा कि मंदिर के भीतर चिनाई का कोई काम हो रहा है। ईंटों के काटने-छाँटने की आवाज स्पष्ट सुनाई दे रही थी। लोगों के मन में दु:शंकाएँ होने लगीं और उन्होंने उसी समय मंदिर खोलकर देखा तो वहाँ कुछ नहीं था। अलबत्ता एक आश्चर्य उनकी दृष्टि से छिपा नहीं रह सका। वहाँ एक नयी दीवाल बन चुकी थी, जो संध्या तक नहीं थी और उसमें एक तिखाल बना हुआ था। अवश्य ही किन्हीं अदृश्य हाथों द्वारा यह रचना हुई थी। तभी से लोगों ने इस वेदी की मूर्ति का नाम ‘तिखाल वाले बाबा’ रख दिया। कहते हैं, जिनके अदृश्य हाथों ने कुछ क्षणों में एक दीवार खड़ी करके भगवान के लिए तिखाल बना दिया, वे अपने आराध्य प्रभु के भक्तों की प्रभु के दरबार में हाजिर होने पर मनोकामना भी पूरी करते हैं।
पुरातत्त्व एवं इतिहास-यह नगरी भारत की प्राचीनतम नगरियों में से एक है। भगवान ऋषभदेव ने जिन ५२ जनपदों की रचना की थी, उसमें एक पांचाल भी था। परवर्तीकाल में पांचाल जनपद दो भागों में विभक्त हो गया-उत्तर पांचाल और दक्षिण पांचाल। पहले सम्पूर्ण पांचाल की ही राजधानी अहिच्छत्र थी किन्तु विभाजन होने पर उत्तर पांचाल की राजधानी अहिच्छत्र रही और दक्षिण पांचाल की कम्पिला। जैन साहित्य में पांचाल के प्राय: इन दो भागों का उल्लेख मिलता है। महाभारत काल में अहिच्छत्र के शासक द्रोण थे और कम्पिला के द्रुपद।
नगरी का यह ‘अहिच्छत्र’ नाम सर्प द्वारा छत्र लगाने के कारण पड़ा, इसमें जैन, वैदिक और बौद्ध तीनों ही धर्म सहमत हैं किन्तु इस संबंध में जो कथानक दिये हैं, उनमें जैन कथानक अनेक कारणों से अधिक प्रामाणिक प्रतीत होता है। भगवान पार्श्वनाथ ऐतिहासिक महापुरुष थे। उनका प्रभाव तत्कालीन सम्पूर्ण भारत-विशेषत: उत्तर और पूर्व भारत में अत्यधिक था। वैदिक साहित्य भी उनके प्रभाव से अछूता नहीं रहा। उनके प्रभाव के कारण वैदिक ऋषियों की चिन्तनधारा बदल गई। उनके चिन्तन की दशा हिंसामूलक यज्ञों और क्रियाकाण्डों से हटकर अध्यात्मवादी उपनिषदों की रचना की ओर मुड़ गयी।
भगवान पार्श्वनाथ संबंधी उपर्युक्त घटना की गूँज उस काल में दक्षिण भारत तक पहुँची थी। इस बात का समर्थन कल्लुरगुड्डू (जिला सीमौगा, मैसूर प्रान्त-सन् ११२१) में उपलब्ध उस शिलालेख से भी होता है जिसमें गंग वंशावली दी गई है। उसमें उल्लेख है कि भगवान पार्श्वनाथ को अहिच्छत्र में केवलज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
पार्श्वनाथ संबंधी इस घटना का एक सांस्कृतिक महत्व भी है। इस घटना ने जैन कला को-विशेषत: जैन मूर्तिकला को बड़ा प्रभावित किया। पार्श्वनाथ की प्रतिमाओं का निर्माण इस घटना के कारण ही कुछ भिन्न शैली में होने लगा। चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ अपने आसन, मुद्रा, ध्यान आदि की दृष्टि से सभी एक समान होती हैं। उनकी पहचान और अन्तर उनके आसन पर अंकित किये गये चिन्ह द्वारा ही किया जा सकता है। केवल पार्श्वनाथ की प्रतिमाएँ अन्य तीर्थंकर प्रतिमाओं से एक बात में निराली हैं। अरहंत दशा की प्रतिमा होते हुए भी उनके सिर पर सर्प फण रहता है, जो हमें सदा ही कमठ द्वारा घोर उपसर्ग करने पर नागेन्द्र द्वारा पार्श्वनाथ के ऊपर सर्प फण के छत्र तानने का स्मरण दिलाता रहता है। इतना ही नहीं, अनेक पार्श्व प्रतिमाएँ इस घटना के स्मारक रूप में धरणेन्द्र-पद्मावती के साथ निर्मित होने लगीं और इसीलिए जैन साहित्य में इस इन्द्र दम्पत्ति की ख्याति पार्श्वनाथ के भक्त यक्ष-यक्षिणी के रूप में विशेष उल्लेख योग्य हो गयी।
यहाँ क्षेत्र से दो मील दूर एक प्राचीन किला है, जिसे महाभारतकालीन कहा जाता है। इस किले के निकट ही कटारीखेड़ा नामक टीले से एक प्राचीन स्तंभ मिला है। उस स्तंभ पर एक लेख है। इसमें महाचार्य इन्द्रनन्दि के शिष्य महादरि के द्वारा पार्श्वपति (पार्श्वनाथ) के मंदिर में दान देने का उल्लेख है। यह लेख पार्श्वनाथ मंदिर के निकट ही मिला है। इस टीले और किले से कई जैन मूर्तियाँ मिली हैं। कई मूर्तियों को ग्रामीण लोग ग्रामदेवता मानकर अब भी पूजते हैं। संभव है वर्तमान में जो पार्श्वनाथ मंदिर है, वह नवीन मंदिर हो और जिस स्थान पर किले और टीले से प्राचीन जैन-मूर्तियाँ निकली हैं, वहाँ प्राचीन मंदिर रहा हो। यदि यहाँ के टीलों और खण्डहरों की, जो मीलों में पैâले हुए हैं, खुदाई की जाए तो हो सकता है कि गहराई में पार्श्वनाथकालीन जैन मंदिर के चिन्ह और मूर्तियाँ मिल जायें।
ऐसा कोई मंदिर गुप्तकाल तक तो अवश्य था। शिलालेखों आदि से इसकी पुष्टि होती है। गुप्तकाल के पश्चाद्वर्ती इतिहास में इस संबंध में कोई सूत्र उपलब्ध नहीं होता। फिर भी यह तो असन्दिग्ध है कि परवर्ती काल में भी शताब्दियों तक यह स्थान जैनधर्म का एक विशाल केन्द्र रहा। इस काल में यहाँ पाषाण की अनेक जैन प्रतिमाओं का निर्माण हुआ। ऐसी अनेक प्रतिमाएँ, स्तूपों के अवशेष, मिट्टी की मूर्तियाँ और कला की अन्य वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ये सभी प्रतिमाएँ दिगम्बर परम्परा की हैं। यहाँ श्वेताम्बर परम्परा की एक भी प्रतिमा न मिलने का कारण यही प्रतीत होता है कि यहाँ पार्श्वनाथ काल में दिगम्बर परम्परा की ही मान्यता, प्रभाव और प्रचलन रहा है।
कहा जाता है कि अपने वैभवकाल में अहिच्छत्र नगर ४८ मील की परिधि में था। आज के आँवला, वजीरगंज, रहटुइया, जहाँ अनेकों प्राचीन मूर्तियाँ और सिक्के प्राप्त हुए हैं, पहले इसी नगर में सम्मिलित थे। यहाँ के भग्नावशेषों में १८ इंच तक की ईंटें मिलती हैं।
क्षेत्र-दर्शन (सन् १९७५ के जीर्णोद्धार से पूर्व)-सड़क से कुछ फुट ऊँची चौकी पर क्षेत्र का मुख्य द्वार था। फाटक के बायीं ओर बाहर उस भग्न मूर्ति के शीर्ष के दर्शन होते थे, जो किले से लाकर यहाँ दीवार में एक आले में रखा गया था, अब वह यहाँ के स्वाध्याय भवन में रखा हैै। भीतर एक विशाल धर्मशाला थी। बीच में एक पक्का कुआँ था।
बायीं ओर मंदिर का द्वार था। द्वार में प्रवेश करते ही क्षेत्र का कार्यालय मिलता था। सामने बायीं ओर गर्भगृह में वेदी थी, जिसमें तिखाल वाले बाबा (भगवान पार्श्वनाथ) की प्रतिमा विराजमान थी। पार्श्वनाथ की यह श्यामवर्णी हरित पन्ना की सातिशय प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में आज भी विराजमान है। इसकी अवगाहना साढ़े ९ इंच है। प्रतिमा अत्यन्त सौम्य और प्रभावक है। इस प्रतिमा के पादपीठ पर कोई लेख नहीं है। सर्प का लांछन अवश्य अंकित है और सिर पर फणमण्डल है। वेदी के नीचे सामने वाले भाग में दो सिंह आमने-सामने मुख किये हुए बैठे हैं।
प्रतिमा के आगे भगवान के श्रीचरण स्थापित हैं जिनका आकार १ फुट साढ़े ५ इंच है। उन पर निम्नलिखित लेख उत्कीर्ण है—
प्रतिमा का निर्माणकाल १०-११वीं शताब्दी अनुमान किया जाता है।
इस वेदी के ऊपर लघु शिखर है।
इस वेदी से आगे दायीं ओर दूसरे कमरे की वेदी में मूलनायक पार्श्वनाथ की श्याम वर्ण १ फुट १० इंच अवगाहना की अत्यन्त मनोहर पद्मासन प्रतिमा थी। प्रतिमा के सिर पर सप्त फणावली का मण्डल था। भामण्डल के स्थान पर कमल की सात लम्बायमान पत्तियों और कली का अंकन जितना कलापूर्ण लगता था, उतना ही अलंकरणमय था। अलंकरण का यह रूप अद्भुत और अदृष्टपूर्व था।
मूर्ति के नीचे सिंहासनपीठ के सामने वाले भाग में २४ तीर्थंकर प्रतिमाएँ उत्कीर्ण थीं।
इसी प्रकार यहाँ अन्य वेदियों में भी प्राचीन प्रतिमाओं के विराजमान होने का उल्लेख मिलता है। जो मंदिर के जीर्णोद्धार के बाद अन्य नवनिर्मित वेदियों में विराजमान कर दी गई प्रतीत होती हैं।
धर्मशाला के मुख्य द्वार के सामने सड़क के दूसरी ओर का मैदान भी मंदिर का है। सड़क से कुछ आगे चलने पर वह विशाल पक्का कुआँ या वापिका है, जिसके जल की ख्याति पूर्वकाल में दूर-दूर तक थी।
मंदिर के निकट ही रामनगर गाँव है। वहाँ भी एक शिखरबंद मंदिर है। इस मंदिर में फणामण्डित भगवान पार्श्वनाथ की श्यामवर्ण पद्मासन प्रतिमा है। इसकी अवगाहना ४ फुट है। प्रतिमा अत्यन्त मनोज्ञ है। फणावली में ‘अन्यथानुपपन्नत्वं…..’ श्लोक भी लिखा हुआ है। इस मूर्ति की प्रतिष्ठा वी.सं. २४८१ वैशाख शुक्ला ७ गुरुवार को श्री महावीर जी में हुई थी।
मूलनायक के अतिरिक्त दो पाषाण की और दो धातु की प्रतिमाएँ भी हैं।
पहले इस मंदिर के स्थान पर पद्मावती पुरवाल पंचायत की ओर से ला. हीरालाल जी सर्राफ, एटा तथा पं. चम्पालाल जी का बनवाया हुआ मंदिर था। बाद में उसके स्थान पर समस्त दिगम्बर समाज की ओर से यह मंदिर बनाया गया।
मंदिर के बाहर उत्तर की ओर आचार्य पात्रकेशरी के चरण बने हुए हैं। चरणों की लम्बाई ११ इंच है।
ऐसा विश्वास है कि आचार्य पात्रकेशरी इसी स्थान पर बने हुए मंदिर में देवी पद्मावती द्वारा प्रतिबोध पाकर जैनधर्म में दीक्षित हुए थे।
सन् १९७५ के पश्चात्-जिस स्थान पर पार्श्वनाथ प्रभु ने केवलज्ञान प्राप्त किया था वहाँ हजारों वर्ष पुराना मंदिर था, जिसका जीर्णोद्धार सन् १९७५ में किया गया और आज इसी स्थान पर एक सुन्दर अति आकर्षक सात उन्नत शिखरयुक्त मंदिर है जिसकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा ईसवी सन् १९७८ में हुई थी।
सप्त फणालंकृत श्यामवर्ण प्रतिमा-मूल मंदिर की एक कलात्मक वेदी में मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ की सप्त फणालंकृत श्यामवर्ण की प्रतिमा है। यह प्रतिमा देखने में संगमरमर की प्रतीक होती है। इस मूर्ति के नीचे तीर्थंकर की छोटी-छोटी चौबीस प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। प्रतिमा के वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह है, कान कंधों को स्पर्श कर रहे हैं। ऊपर की फणावली सीधी है। दाईं ओर भगवान पार्श्वनाथ की संगमरमर की खड्गासन प्रतिमा है, बाईं ओर भगवान पार्श्वनाथ की एक पद्मासन मूर्ति है। शीर्ष पर पंचमुखी फण है। इस चौबीसी वेदी में अनेक अन्य तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ हैं तथा एक सिद्ध भगवान की प्रतिमा भी विराजमान है। इसी वेदी में भूगर्भ से प्राप्त दो प्राचीन अत्यन्त मनोज्ञ व कलात्मक प्रतिमाएं विराजमान हैं जिसमें एक पंच बालयति की प्रतिमा अष्ट धातु की है तथा दूसरी भूरे रंग के पाषाण की शांतिनाथ, कुंथुनाथ एवं अरहनाथ की संयुक्त प्रतिमा है। यह प्रतिमा मूलनायक पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा के आगे सफेद संगमरमर के सिंहासन में विराजमान है।
भगवान महावीर जी की वेदी-श्री मंदिर में प्रवेश करते ही गर्भगृह के बाईं ओर प्रथम वेदी पर तीन सुन्दर हंसों एवं लाल कमल की वेदी के ऊपर भगवान महावीर स्वामी की एक छ: फुट ऊँची अत्यन्त मनमोहक, पद्मासन प्रतिमा विराजमान है जिसकी स्थापना सन् १९७८ ई. में हुई है। इस मूर्ति के दर्शन करने से विशेष रूप से उसकी शांत मुद्रा एवं वीतराग छवि देखने से जो अनुभूति प्राप्त होती है वह वर्णनातीत है। श्रद्धालु एक बार देखे तो निहारता ही रह जाता है।
भगवान पार्श्वनाथ की पद्मासन वेदी-यह वेदी भगवान महावीर के समान ही निर्मित है। इसमें भगवान पार्श्वनाथ की विशाल पाँच फुट ऊँची श्याम वर्ण की ११ फुट वाली पद्मासन प्रतिमा विराजमान है परन्तु इस मूर्ति में एक विशेष आकर्षण देखते ही बनता है और एक निराली शांत छवि के दर्शन होते हैं जिससे श्रद्धालुओं को अलौकिक आनंद प्राप्त होता है।
भगवान पार्श्वनाथ का प्रथम समवसरण-यहाँ एक अत्यन्त आकर्षक समवशरण बना हुआ है जिसकी प्रतिष्ठा सन् १९९१ ई. में आचार्यश्री १०८ अजितसागर महाराज के सानिध्य में हुई थी। जिसके दर्शनार्थ यात्री दूर-दूर से यहाँ आते हैं। बीच में ऊपर आकर्षक एक अशोक वृक्ष के नीचे भगवान पार्श्वनाथ की चाराें दिशाओं में मुख किये हुए चार मनोज्ञ प्रतिमाएं विराजमान हैं एवं चार बहुत ही सुन्दर विमान समवसरण पर पुष्पवृष्टि करते हुए दिखाये गये हैं। इसके दर्शन करने से उस समय की याद से हमारा मन प्रफुल्लित हो जाता है जब यहाँ देवों द्वारा भगवान पार्श्वनाथ के प्रथम समवसरण की रचना हुई थी और उन्होंने प्रथम देशना की थी।
तीन प्रतिमाओं युक्त वेदी-इस वेदी में तीन प्रतिमाएं विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। तीनों का रंग हल्का कत्थई है और वे शिलापट्ट पर उत्तीर्ण हैं।
बाईं ओर पंच बालयति की मनोहर मूर्तियाँ हैं। जिनके बीच में फणालंकृत पार्श्वनाथ तीर्थंकर की खड्गासन प्रतिमा है, इसके परिसर के नीचे एक यक्ष और दो यक्षी चमरवाहक हैं उनके ऊपर दो कायोत्सर्ग मुद्रा में दस इंच आकार की एक तीर्थंकर प्रतिमा है इसके ऊपर सात इंच अवगाहना की एक पद्मासन प्रतिमा अंकित है। इसी प्रकार दांयी ओर दो प्रतिमाएँ हैं। इसी शिलापट्ट के बीच में भगवान पार्श्वनाथ की पद्मासन प्रतिमा स्थित है ऊपर सर्प फण है, अवगाहना ढाई फिट है। पादपीठ पर दो सिंह जीभ निकाले बैठे हैं जो कर्म शत्रुओं पर विजय प्राप्ति का संदेश दे रहे हैं। दायीं ओर यक्ष और बायीं ओर यक्षिणी हैं। भामण्डल के दोनों ओर हाथी उत्कीर्ण हैं। यह गज लक्ष्मी के प्रतीक हैं। उसके ऊपर इन्द्र हाथों में स्वर्ण कलश लिए क्षीरसागर के पावन जल से भगवान का अभिषेक करते प्रतीत होते हैं।
तीस चौबीसी मंदिर-यहाँ प्रांगण में ही एक विशाल तीस चौबीसी मंदिर भी है। इसमें ११ शिखर हैं बीच में मुख्य मूर्ति भगवान पार्श्वनाथ की है। उसकी ऊँचाई १३.५ फुट है। इन पर १०८ फण हैं। मंदिर में १० कमल हैं। प्रत्येक कमल पर ७२ पंखुड़ियाँ हैं। कमल की प्रत्येक पंखुड़ी पर एक-एक भव्य पाषाण की मूर्ति विराजमान है। मध्यलोक के ढाईद्वीप संबंधी पाँच भरत क्षेत्र, पाँच ऐरावत क्षेत्र में होने वाले चौबीस-चौबीस तीर्थंकरों के भूत, भविष्य एवं वर्तमान की ७२० मूर्तियाँ हैं। मंदिर के शिखरों पर तथा अंदर कमलों पर सुनहरे कलश लगे हैं। यह तीस चौबीसी मंदिर सम्पूर्ण भारतवर्ष में अद्वितीय मंदिर है। परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा सन् १९९३ में दी गई प्रेरणानुसार इस मंदिर का निर्माण हुआ।
पद्मावती माता का परिचय-जैसा कि विदित ही है कि जब इसी स्थान पर कमठ ने मुनि अवस्था में ध्यानस्थ पार्श्वनाथ के ऊपर उपसर्ग किया तो देवों का आसन कम्पायमान हुआ और अपने परोपकारी पर उपसर्ग जानकर धरणेन्द्र एवं पद्मावती भगवान की भक्ति के लिए स्वर्ग से आ गये और इसी बीच भगवान को केवलज्ञान हो गया अत: पद्मावती माता का उद्गम स्थान श्री अहिच्छत्र ही है। मूलमंदिर में उन पद्मावती देवी की प्रतिमा विराजमान है। उनकी भक्ति करने एवं अपनी मनोकामना पूरी करने हजारों श्रद्धालु यहाँ दूर-दूर से आकर अपना मनोरथ पूर्ण करते हैं और समय-समय पर अपनी मनोकामना पूर्ण होने पर विशेष दान भी देते हैं।
मानस्तंभ-मंदिर जी के पूर्व की ओर एक विशाल सफेद पाषाण का बहुत ही सुन्दर एवं मनोरम मानस्तंभ बना हुआ है जिसमें बहुत ही सुन्दर भगवान पार्श्वनाथ की चतुर्मुख चार मूर्तियाँ विराजमान हैं।
नवनिर्मित पार्श्वनाथ-धरणेन्द्र-पद्मावती मंदिर-तीर्थ परिसर में तीस चौबीसी मंदिर के बगल में इस मंदिर का नव निर्माण हुआ है। यहाँ के इतिहास को दर्शाती भगवान पार्श्वनाथ एवं उनके शासन देव-देवी की नई प्रतिमाएँ विराजमान हुई हैं। इनकी प्रतिष्ठा १० दिसम्बर से १४ दिसम्बर २००७ (मगसिर शु. एकम से पंचमी) तक पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के संघ सानिध्य में सम्पन्न हुई।
तिखाल वाले बाबा भगवान पार्श्वनाथ का सहस्राब्दि महोत्सव एवं महामस्तकाभिषेक महोत्सव भी १६ दिसम्बर २००७ से ४ जनवरी २००८ तक सम्पन्न हुआ। इसी अवसर पर तीन वर्ष से चल रहे भगवान पार्श्वनाथ जन्मकल्याणक तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव (पूज्य ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से सन् २००५ में उद्घाटित) का समापन भी पौष शु. ११ (३ जनवरी २००८) को हुआ।
वार्षिक मेले-यहाँ चैत्र मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी से द्वादशी तक एक विशाल मेले का आयोजन होता है जिसमें प्रतिदिन सामूहिक पूजन, विधान, रथयात्रा, सामूहिक आरती व कीर्तन के अतिरिक्त रात्रि को विशेष सांस्कृतिक कार्यक्रम एवं प्रश्नमंच इत्यादि कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। श्रावण शुक्ला सप्तमी को भगवान पार्श्वनाथ का निर्वाण महोत्सव जोर-शोर से मनाया जाता है। उस दिन अहिच्छत्र में पद्मावती माता की अति विशाल शृँगार-आराधना आदि भक्तों द्वारा की जाती है। पौष कृष्णा एकादशी को, पार्श्वनाथ जयंती के रूप में मनाया जाता है। उपर्युक्त तीनों मेलों में हजारों की संख्या में भारतवर्ष के कोने-कोने से यात्रीगण आकर धर्मलाभ प्राप्त कर अपनी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं।