श्री सम्मेदशिखर सम्पूर्ण तीर्थक्षेत्रों में सर्वप्रमुख एवं शाश्वत सिद्धक्षेत्र है इसीलिए इसे तीर्थराज कहा जाता है। इसकी एक बार वंदना-यात्रा करने से कोटि-कोटि जन्मों में संचित पापों का नाश हो जाता है। निर्वाण क्षेत्र पूजा में कविवर द्यानतराय जी ने सत्य ही लिखा है-‘‘एक बार वन्दे जो कोई। ताहि नरक-पशुगति नहिं होई।।’’ एक बार वन्दना करने का फल मात्र नरक और पशुगति से ही छुटकारा नहीं है अपितु परम्परा से संसार से भी छुटकारा है।
ऐसी अनुश्रुति है कि श्री सम्मेदशिखर और अयोध्या ये दो तीर्थ अनादिनिधन-शाश्वत हैं। अयोध्या में सभी तीर्थंकरों का जन्म होता है और सम्मेदशिखर से सभी तीर्थंकरों का निर्वाण होता है किन्तु हुण्डावसर्पिणी काल के दोष से इस शाश्वत नियम में व्यतिक्रम हो गया अत: अयोध्या में केवल पाँच तीर्थंकरों का ही जन्म हुआ और सम्मेदशिखर से केवल बीस तीर्थंकरों ने निर्वाणलाभ किया किन्तु इनके अतिरिक्त भी असंख्य मुनियों ने यहीं पर तपश्चरण करके मुक्ति प्राप्त की। सम्मेदशिखर की वंदना से तात्पर्य यह है कि इस क्षेत्र से जो तीर्थंकर और अन्य मुनिवर मुक्ति को प्राप्त हुए हैं, उनके गुणों को सच्चाई के साथ अपने हृदय में उतारें और तदनुसार अपनी आत्मा के गुणों का विकास करें। ऐसा करने से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा, इसमें संदेह नहीं।
मार्ग-तीर्थराज सम्मेदशिखर जी, जिसका दूसरा नाम ‘पारसनाथ हिल’ है, जो पहले बिहार प्रदेश के हजारीबाग जिले में स्थित था अब झारखण्ड प्रदेश के अन्तर्गत आता है जो गिरीडीह जिले में है। यहाँ पहुँचने के लिए रेलवे के कई मार्ग हैं-(१) गया, दिल्ली अथवा कलकत्ता की ओर से आने वालों के लिए पारसनाथ स्टेशन उतरना चाहिए। (२) कलकत्ता की ओर से आने वाले गिरीडीह स्टेशन भी उतर सकते हैं। (३) पटना से राँची जाने वाली ट्रेनों से पारसनाथ उतर सकते हैं। ये सभी ईस्टर्न रेलवे की मेन लाइन हैं।
ईसरी-पारसनाथ स्टेशन के सामने ही लगभग एक फर्लांग दूरी पर ईसरी में दो दिगम्बर जैन धर्मशालाएँ बनी हुई हैं। एक बीसपन्थी और दूसरी तेरापंथी। दोनों निकट-निकट हैं। दोनों धर्मशालाओं में जिनमंदिर हैं और दोनों के बीच में श्रीगणेश प्रसाद वर्णी द्वारा स्थापित उदासीन आश्रम है, जहाँ अनेक विरक्त स्त्री-पुरुष धर्मध्यान करने हेतु प्रवास करते हैं।
मधुवन-ईसरी से लगभग २२ किमी. पर मधुवन है। मधुवन के लिए यहाँ से बस तथा टैक्सी मिलती है। यहाँ से गिरीडीह रोड पर १६ किमी. चलकर मधुवन के लिए सड़क मुड़ती है और ६ किमी. चलकर मधुवन आ जाता है। मधुवन पर्वत के उत्तरी भाग की ओर है।
गिरीडीह से मधुवन २५ किमी. है। गिरीडीह-ईसरी रोड पर बसें बराबर मिलती हैं।
मधुवन में बीसपंथी और तेरहपंथी दो कोठियाँ अर्थात् धर्मशालाएँ हैं।
श्री सम्मेदशिखर पर्वत की तलहटी में दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों की धर्मशालाएँ और मंदिर हैं। सबसे पहले दिगम्बर जैन तेरहपंथी कोठी मिलती है। फिर श्वेताम्बर कोठी, जो मझली कोठी कहलाती है और सबसे अंत में दिगम्बर जैन बीसपंथी कोठी है। यह उपरैली कोठी कहलाती है।
बीसपंथी कोठी-इन तीनों कोठियों में बीसपंथी कोठी सबसे प्राचीन है। इसकी स्थापना सम्मेदशिखर की यात्रार्थ आने वाले जैन बंधुओं की सुविधा के लिए लगभग चार सौ वर्ष पूर्व की गई थी, ऐसा कहा जाता है।
यह कोठी ग्वालियर गादी के भट्टारक जी के अधीन थी। इस शाखा के भट्टारक महेन्द्रभूषण ने शिखर जी पर एक कोठी और एक मंदिर की स्थापना की और मंदिर में पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा विराजमान करायी। उन्होंने एक धर्मशाला भी बनवायी। समाज के दो दानी सज्जनों ने दो मंदिर भी बनवाये। महेन्द्रभूषण के पश्चात् शतेन्द्रभूषण, राजेन्द्रभूषण, शिलेन्द्रभूषण और शतेन्द्रभूषण भट्टारक क्रम से कोठी के अधिकारी हुए।
बीसपंथी कोठी के बहुत दिनों पश्चात् (लगभग २५० वर्ष बाद) श्वेताम्बर कोठी का निर्माण हुआ। उसके लगभग १०० वर्ष बाद तेरापंथी कोठी बनी है। बीसपंथी एवं तेरहपंथी दोनों कोठियों के अन्तर्गत अनेक दिगम्बर जिनमंदिरों की व्यवस्थाएँ संचालित होती हैं।
पर्वत यात्रा के मार्ग-सम्मेदशिखर की यात्रा के लिए ऊपर जाने के दो मार्ग हैं-एक तो नीमिया घाट होकर और दूसरा मधुवन की ओर से। नीमिया घाट पर्वत के दक्षिण की ओर है। यहाँ एक डाक बंगला, जैन धर्मशाला बनी हुई है। इधर से जाने पर पर्वत की वंदना उलटी पड़ती है और सबसे पहले पार्श्वनाथ टोंक पड़ती है।
नीमियाघाट की ओर से सम्मेदशिखर की यात्रा करने में ६ मील की चढ़ाई पड़ती है। ऊपर टोंकों की वंदना ६ मील और वापसी ६ मील। चढ़ाई में ६ मील की यात्रा करनी होती है।
नीमियाघाट की दिगम्बर जैन धर्मशाला और मंदिर बीसपंथी कोठी के अन्तर्गत है। पालगंज का दिगम्बर जैन मंदिर भी बीसपंथी कोठी के अन्तर्गत है। इसका जीर्णोद्धार लगभग १५० वर्ष पहले क्षुल्लक धर्मचंद्र जी ने कराया था। पहले सम्मेदशिखर की यात्रा के लिए यात्री पालगंज होकर आते थे। जब पालगंज के राजा का अभिषेक होता था, उस समय दिगम्बर जैन प्रतिमा वहाँ विराजमान करके उसका अभिषेक होता था। इस गंधोदक को छिड़ककर राजा की शुद्धि की जाती थी।
मधुवन वâी ओर से भी कुल मिलाकर १८ मील (२७ किमी.) की यात्रा पड़ती है किन्तु अधिकांश यात्री मधुवन की ओर से ही यात्रा करते हैं। इधर से यात्रा करने में कई सुविधाएँ हैं। सबसे बड़ी सुविधा तो यह है कि इधर अन्य अनेक यात्रियों का साथ मिल जाता है और इतनी लम्बी यात्रा अन्य साथियों के कारण सुगम बन जाती है, इसके विपरीत नीमिया घाट की ओर से यात्रा करने में यात्री को प्राय: अकेले ही चढ़ना-उतरना पड़ता है। इससे यात्रा दुरूह मालूम पड़ने लगती है।
२७ किमी. की यह लम्बी यात्रा किशोर, युवक, वृद्ध, स्त्री-पुरुष सभी तीर्थंकरों का जयघोष करते, स्तुति-विनती पढ़ते आनन्दपूर्वक कर लेते हैं। सांस फूल जाती है किन्तु मन में क्षण भर को भी खिन्नता के भाव नहीं आते बल्कि अपनी धार्मिक श्रद्धा, उल्लास, उत्साह और प्रकृति की सुषमा में विभोर होकर यात्री यात्रा पूरी करके जब वापस अपने डेरे पर लौटता है तो उसे अनुभव होता है कि भगवान की भक्ति में अद्भुत शक्ति है, वरना इतनी लम्बी यात्रा वैâसे संभव थी। अब पर्वत पर पूरा रास्ता पक्का बन जाने से यात्रा अत्यन्त सुगम हो गई है।
श्री सम्मेदशिखर का अद्भुत माहात्म्य-मधुवन से जब सम्मेदशिखर की यात्रा के लिए रवाना होते हैं, तब मन में एक अद्भुत उल्लास, उमंग और तीर्थंकरों के प्रति निश्छल भक्ति की पुण्य भावना होती है। वहाँ का सारा वातावरण ही भक्तिमय होता है। यात्री के मन में व्यक्त अथवा अव्यक्त रूप में द्यानतरायजी की यह पंक्ति सदा अंकित रहती है-‘‘एक बार वन्दे जो कोई। ताहि नरक-पशुगति नहिं होई।।’’ शास्त्रों में तो शिखरजी की वंदना करने का फल यह बताया है कि वह व्यक्ति फिर संसार में अधिक से अधिक ४९ भव धारण करने के बाद मोक्ष प्राप्त कर लेता है। यह अतिशयोक्ति नहीं, किन्तु सत्य है। इसमें तर्क और संदेह को कोई स्थान नहीं है इसीलिए तो इसे तीर्थराज की संज्ञा दी गई है। भाव-भक्तिपूर्वक इसकी यात्रा और वंदना करने से कोटि-कोटि जन्मों के संचित कर्मोें का नाश हो जाता है।
बीस तीर्थंकरों को इसी पर्वत पर अंतिम योग-निरोध करके निर्वाण प्राप्त हुआ है। इनके अतिरिक्त यहाँ से असंख्य मुनियों को मोक्ष प्राप्त हुआ है। यहाँ से मुक्ति प्राप्त करने वाले मुनियों की निश्चित संख्या शास्त्रों में दी हुई है। कुल कूटों की संख्या २० है जो बीस तीर्थंकरों के निर्वाण स्थान हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि इस क्षेत्र से असंख्य मुनिजन अनादिकाल से समय-समय पर मुक्त हुए हैं इसलिए यह क्षेत्र अत्यन्त पवित्र है, उसका कण-कण पवित्र है। यही कारण है कि इस तीर्थ पर सिंह, व्याघ्र, हिरण आदि अनेकों जातिविरोधी और हिंसक प्राणी विचरते देखे गये हैं किन्तु कभी किसी ने एक दूसरे पर आक्रमण किया हो या किसी यात्री के साथ कभी कोई दुर्घटना घटी हो ऐसा कभी सुना नहीं गया। ऐसे अवसर कई बार आये हैं, जब रात्रि में यात्रा के लिए जाने वाले भाइयों में से कोई यात्री पिछड़ गया और अकेला पड़ गया और राह में उसे शेर मिल गया किन्तु न यात्री के मन में भय और न शेर के मन में क्रूरता। शेर एक ओर चला गया और यात्री अपनी राह पर आगे बढ़ गया। यह सब इस तीर्थराज का प्रभाव है। यहाँ के वातावरण में पवित्रता और शुचिता की भावना सदैव बनी हुुई रहती है।
तीर्थ-दर्शन-पहाड़ पर ऊपर चढ़ने पर सर्वप्रथम गौतम स्वामी की टोंक मिलती है। वहाँ एक कमरा भी बना हुआ है जो यात्रियों के लिए विश्राम के काम आता है। टोंक से बायें हाथ की ओर मुड़कर पूर्व दिशा की पन्द्रह टोंकों की वंदना करनी चाहिए। ये टोंकें ही कूट कहलाती हैं। इन टोंकों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं-
(१) कुंथुनाथ का ज्ञानधर कूट (२) नमिनाथ का मित्रधर कूट (३) अरहनाथ का नाटक कूट (४) मल्लिनाथ का सम्बल कूट (५) श्रेयांसनाथ का संकुल कूट (६) पुष्पदंत का सुप्रभ कूट (७) पद्मप्रभु का मोहन कूट
(८) मुनिसुव्रतनाथ का निर्जर कूट (१०) आदिनाथ का कूट (११) शीतलनाथ का विद्युत कूट (१२) अनन्तनाथ का स्वयंभू कूट (१३) संभवनाथ का धवलदत्त कूट (१४) वासुपूज्य का कूट (१५) अभिनन्दन का आनंद कूट।
इन टोंकों में भगवान चन्द्रप्रभु की टोंक बहुत ऊँची हैं। ये सभी टोंकें पूर्व दिशा में हैं। इनमें तीर्थंकरों के चरण विराजमान हैं। इन टोंकों पर जाने के लिए मार्ग बने हुए हैं। तीर्थंकर चरणों पर जो लेख पूर्व में खुदे हुए थे, उनके अनुसार ये सब सं. १८२५ में प्रतिष्ठित किये गये प्रतीत होते हैं किन्तु वर्तमान में लगभग १५-२० वर्षों में ये चरण और प्रशस्तियाँ प्राय: बदल दी गई हैं।
भगवान अभिनंदननाथ की टोंक से उतरकर जल मंदिर में जाते हैं।
यहाँ से गौतम स्वामी की टोंक पर पहुँचते हैं। इस स्थान से चारों ओर रास्ते जाते हैं बायीं ओर कुंथुनाथ टोंक को, दायीं ओर पार्श्वनाथ मंदिर को, सामने जल मंदिर और पीछे मधुवन को। अत: यहाँ पश्चिम दिशा की ओर जाकर शेष नौ टोंकों की वंदना करनी चाहिए।
पार्श्वनाथ टोंक-सम्मेदशिखर पर्वत की यह अंतिम और प्रमुख टोंक है। टोंक के स्थान पर अब एक सुन्दर जिनालय बन गया है। जिसमें मण्डप और गर्भगृह है। गर्भगृह में एक वेदी पर पार्श्वनाथ भगवान के कृष्ण वर्ण के चरण विराजमान हैं। चरण नौ अंगुल के हैं।
इन टोंकों में भगवान पार्श्वनाथ की यह टोंक सबसे ऊँची है। इस टोंक पर खड़े होकर चारों ओर का मनोहर दृश्य देखते ही बनता है। मन में एक अिनर्वचनीय प्रफुल्लता भर उठती है। ऐसी आह्लादपूर्ण प्राकृतिक दृश्यावली में मन ध्यान, सामायिक और पूजा-स्तोत्र में स्वत: निमग्न हो जाता है। यहाँ आकर सब यात्री पूजन करते हैं।
यात्रा से वापसी-भगवान पार्श्वनाथ की टोंक से वापस लौटते समय विशेष कठिनाई नहीं होती क्योंकि उतराई है और मार्ग ठीक है। बीच-बीच में जंगल में पगडण्डियाँ भी जाती हैं। यदि उन पर चला जाये तो लगभग डेढ़ मील की यात्रा बच जाती है किन्तु पगडण्डियों पर चलना बहुत कठिन है। रास्ता भूलने का भी डर है। यदि भील (मजदूर) साथ हो तो फिर कोई डर नहीं। इस समय लाठी से बड़ी सहायता मिलती है।
जिस प्रकार आत्मा के बिना शरीर शून्य है उसी प्रकार श्री सम्मेदशिखर के बिना दिगम्बर जैन समाज शून्य है। शिखर जी हमारा ऐसा पवित्र तीर्थ है जहाँ से इस ‘हुण्डावसर्पिणी काल’ में हमारे २४ तीर्थंकरों में से २० तीर्थंकरों एवं असंख्यात मुनिवरों ने मोक्ष प्राप्त किया है इसलिए शिखर जी हमारी संस्कृति और धर्म की धरोहर है। उसका एक-एक कण हम सभी के लिए पूज्यनीय एवं वंदनीय है।
जैन समाज के इस सर्वप्रमुख शाश्वत तीर्थ की व्यवस्था जहाँ स्थानीय संस्थाएँ देखती हैं, वहीं भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी के द्वारा इसका विशेष प्रबंध देखा जाता है।
शाश्वत तीर्थ सम्मेदशिखर में मुख्य रूप से बीसपंथी-तेरहपंथी कोठी के साथ-साथ पिछले २५-३० वर्षों से अनेक नवनिर्माणों के द्वारा भारी विकास कार्य हुआ है। पूज्य आचार्यश्री विमलसागर जी महाराज की प्रेरणा से समवसरण मंदिर, तीस चौबीसी मंदिर आदि के विशाल निर्माण, गणिनी आर्यिका श्री सुपार्श्वमती माताजी की प्रेरणा से मध्यलोक शोध संस्थान, आचार्यश्री संभवसागर महाराज की प्रेरणा से त्रियोग आश्रम, आचार्यश्री सुमतिसागर महाराज की प्रेरणा से त्यागी-व्रती आश्रम आदि निर्माणों के साथ वहाँ अनेक दि. जैन संस्थाएँ अपने-अपने नवनिर्माण आदि कार्यकलापों के द्वारा सिद्धक्षेत्र की गरिमा वृद्धि में अपना सक्रिय योगदान प्रदान कर रही हैं। इसी शृँखला में पर्वतराज के चोपड़ा कुण्ड पर स्थित दिगम्बर जैन मंदिर एवं धर्मशाला यात्रियों के लिए विशेष सुविधा प्रदान करते हुए यात्रा के आनंद को द्विगुणित कर देते हैं।
सन् २००३ में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने पावन तीर्थ सम्मेदशिखर के इतिहास में एक नया अध्याय और जोड़ दिया। पूज्य माताजी ने वहाँ पर भगवान ऋषभदेव की विशाल प्रतिमा एवं मंदिर निर्माण की प्रेरणा दी। भगवान बाहुबली एवं चौबीसी मंदिर के परिसर में बाहर की ओर निर्मित इस मंदिर का निर्माण कराने का पुण्यलाभ डॉ. पन्नालाल जैन पापड़ीवाल-पैठण (महाराष्ट्र) परिवार को प्राप्त हुआ और शीघ्र ही यह निर्माण कार्य पूर्ण होकर दिसम्बर २००५ में पूज्य ज्ञानमती माताजी के शिष्य जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर के प्रथम पीठाधीश क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी महाराज एवं अध्यक्ष कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन के पावन सानिध्य में सवा नौ फुट ऋषभदेव प्रतिमा जी की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा भी सम्पन्न हुई। निश्चित ही यह भव्य और मनोज्ञ प्रतिमा प्रत्येक दर्शक को जैनधर्म की प्राचीनता एवं भगवान आदिनाथ के जीवन का स्मरण कराती रहेगीr। वर्तमान में बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज की सन् १९२७-२८ में की गई ससंघ सम्मेदशिखर यात्रा के स्मारक रूप में ‘‘आचार्य श्री शांतिसागर धाम’’ का निर्माण भी हुआ है, जिसमें सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र से प्रथम मोक्षप्राप्त भगवान अजितनाथ की ३१ फुट उत्तुंग गे्रेनाइट खड्गासन प्रतिमा एवं नवग्रह अरिष्टनिवारक चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमा विराजमान की गई हैं।
शास्त्रों में तो शिखर जी की वंदना का फल बताते हुए कहा है कि व्यक्ति इस पर्वत की वंदना करके अधिकतम ४९ भव धारण करने के बाद मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। ऐसे पावन सिद्धधाम शाश्वत तीर्थ सम्मेदशिखर को कोटि-कोटि नमन।