अर्थ-इस संसाररूपी भीषण वन में दु:खरूपी दावानल अग्नि अतिशय रूप से जल रही है। जिसमें श्रेयोमार्ग-अपने हित के मार्ग से अनभिज्ञ हुए ये बेचारे प्राणी झुलसते हुए अत्यंत भयभीत होकर इधर-उधर भटक रहे हैं। ‘‘मैं इन बेचारों को इससे निकाल कर सुख में पहुँचा दूँ।’’ पर के ऊपर अनुग्रह करने की इस बढ़ती हुई उत्कृष्ट भावना के रस विशेष से तीर्थंकर सदृश पुण्य संचित कर लेने से दिव्यध्वनिमय वचनों के द्वारा जो उसके योग्य मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं वे अर्हंतजिन हम लोगों की रक्षा करें।
कर्मरूपी शत्रुओं को जो जीतते हैं, वे जिन कहलाते हैं। ‘जिनो देवता अस्येति जैन:’ और जिनदेव जिसके देवता हैं-उपास्य हैं वे जैन कहलाते हैं। जिनेन्द्र देव के इस जैनशासन में प्रत्येक भव्य प्राणी को परमात्मा बनने का अधिकार दिया गया है। धर्म के नेता अनंत तीर्थंकरों ने अथवा भगवान महावीर स्वामी ने मोक्षमार्ग के दर्शक ऐसा मोक्षमार्ग के नेता बनने के लिए उपाय बतलाया है। इसी से आप इस जैनधर्म की विशालता व उदारता का परिचय प्राप्त कर सकते हैं। इस उपाय में सोलहकारण भावनाएं भानी होती हैं और इनके बल पर अपनी प्रवृत्ति सर्वतोमुखी, सर्वकल्याणमयी, सर्व के उपकार को करने वाली बनानी होती है।
दर्शनविशुद्धि, विनयसंपन्नता, शीलव्रतेष्वनतिचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैयावृत्यकरण, अर्हंतभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यक अपरिहाणि, मार्गप्रभावना और प्रवचनवत्सलत्व ये सोलह कारण भावनाएं तीर्थंकर प्रकृति के आस्रव के लिए हैं अर्थात् इनसे तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो जाता है।
इन सोलह भावनाओं में से दर्शनविशुद्धि का होना अत्यन्त आवश्यक है। अन्य सभी भावनाएं हों अथवा कुछ कम भी हों फिर भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है अथवा किन्हीं एक, दो आदि भावनाओं के साथ सभी भावनाएं अविनाभावी हैं तथा अपायविचय धर्मध्यान भी विशेषरूप से तीर्थंकर प्रकृति बंध के लिए कारण माना गया है। वैसे यह ध्यान तपो भावना में ही अंतर्भूत हो जाता है।
यह अनादिनिधन षोडशकारण पर्व वर्ष में तीन बार आता है। भादों वदी एकम् से आश्विन वदी एकम् तक, माघ वदी एकम् से फाल्गुन वदी एकम् तक एवं चैत्र वदी एकम् से वैशाख वदी एकम् तक। इस पर्व में षोडशकारण भावनाओं को भा करके परम्परा से तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया जा सकता है।
१. दर्शनविशुद्धि २. विनयसम्पन्नता ३. शीलव्रतेष्वनतिचार ४. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग ५. संवेग ६. शक्तितस्त्याग ७. शक्तितस्तप ८. साधु समाधि ९. वैय्यावृत्यकरण १०. अर्हद्भक्ति ११. आचार्यभक्ति १२. बहुश्रुतभक्ति
१३. प्रवचनभक्ति १४. आवश्यक अपरिहाणि १५. मार्गप्रभावना १६. प्रवचनवत्सलत्व।
इन सोलहकारण भावनाओं में दर्शनविशुद्धि भावना मूल-जड़ है अर्थात् दर्शनविशुद्धि भावना के बिना सभी भावनाएँ अधूरी हैं। इस दर्शनविशुद्धि भावना का अर्थ है-
‘‘जिनोपदिष्टे निर्ग्रन्थे मोक्षवर्त्मनि रुचि: नि:शंकितत्वाद्यष्टांगादर्शनविशुद्धि:।’’ अर्थात् जिनेन्द्रदेव के द्वारा उपदिष्ट निर्ग्रन्थ दिगम्बर मोक्षमार्ग में रुचि होना और नि:शंकित आदि आठ अंगों का पालन करना दर्शनविशुद्धि है।
इसी प्रकार अंतिम प्रवचनवत्सलत्व भावना का अर्थ कितना सुन्दर है-
जैसे गाय अपने बछड़े को अप्रतिम स्नेह करती है, वैसे ही धर्मात्माओं को देखकर उनके प्रति स्नेह से आर्द्रचित्त हो जाना प्रवचनवत्सलत्व है।
उपरोक्त सोलहकारण भावनाओं के नाम तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ के आधार से हैं परन्तु षट्खण्डागम ग्रंथ में इन भावनाओं के नामों में कुछ अन्तर है, जो कि इस प्रकार है-
१. दर्शनविशुद्धता, २. विनयसम्पन्नता ३. शीलव्रतों में निरतिचारता ४. छह आवश्यकों में परिहीनता ५. क्षणलवप्रतिबोधनता ६. लब्धिसंवेग सम्पन्नता ७. यथाशक्तितथातप ८. साधुओं के लिए प्रासुक परित्यागता ९. साधुओं की समाधिसंधारण १०. साधुओं की वैयावृत्य योगयुक्तता ११. अरिहंत भक्ति १२. बहुश्रुतभक्ति
१३. प्रवचन भक्ति १४. प्रवचनवत्सलता १५. प्रवचनप्रभावनता १६. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग।
इन सोलहकारणों के होने पर जीव तीर्थंकर नामकर्म को बाँधते हैं अथवा सम्यग्दर्शन के होने पर शेष कारणों में से एक-दो आदि कारणों के संयोग से भी तीर्थंकर नामकर्म बंध सकता है।
चातुर्मास के भाद्रपद मास में विशेष रूप से मुनि-आर्यिका-श्रावक-श्राविका सभी षोडशकारण व्रत को यथाशक्ति करते हैं। श्रावक लोग इस पर्व में हर्षविभोर होकर पूजा-उपासना करते हैं तथा विद्वत्जन इन सोलहकारण भावनाओं को अपने प्रवचन द्वारा लोगों को सुनाकर शांति और सुख का मार्ग दिखाते हैं।
जैनों का सबसे पवित्र पर्व दशलक्षण्ा पर्व है, जिसे आजकल लोग पर्यूषण पर्व के नाम से भी जानते हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय में यह पर्व प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ला पंचमी से चतुर्दशी तक तथा श्वेताम्बर में भाद्रपद कृ. १२ से भाद्रपद शु. ४ तक मनाया जाता है। इन दिनों में जैन मंदिरों में खूब आनन्द छाया रहता है। प्रतिदिन प्रात:काल से ही सब स्त्री-पुरुष स्नान करके मंदिरों में पहुँच जाते हैं और बड़े आनन्द के साथ भगवान् की पूजन करते हैं। पूजन समाप्त होने पर प्रतिदिन श्री तत्त्वार्थसूत्र के दस अध्यायों में से एक-एक अध्याय का व्याख्यान और उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन धर्मों में से एक-एक धर्म का विवेचन होता है। इन दस धर्मों के कारण इस पर्व को दशलक्षण पर्व कहते हैं क्योंकि धर्म के उक्त दस लक्षणों का इस पर्व में खासतौर से आराधना किया जाता है। व्याख्यान के लिए बाहर से बड़े-बड़े विद्वान् बुलाये जाते हैं और प्राय: सभी स्त्री-पुरुष उनके उपदेश से लाभ उठाते हैं। आश्विन कृष्णा प्रतिपदा के दिन पर्व की समाप्ति होने पर सब एकत्र होकर परस्पर में गले मिलते हैं और गत वर्ष की अपनी गलतियों के लिए परस्पर में क्षमायाचना करते हैं। जो लोग दूर-देशान्तर में बसते हैं उनसे पत्र लिखकर या क्षमावणी कार्ड आदि भेजकर क्षमायाचना की जाती है।
इन दिनों में प्राय: सभी स्त्री-पुरुष अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार व्रत, उपवास वगैरह करते हैं। कोई-कोई दसों दिन उपवास करते हैं, बहुत से दसों दिन तक एक बार भोजन करते हैं। इन्हीं दिनों में भाद्रपद शुक्ला दशमी को सुगंधदशमी पर्व होता है, इस दिन सब जैन स्त्री-पुरुष एकत्र होकर मंदिर में धूप खेने के लिए जाते हैं, इन्दौर वगैरह में यह उत्सव दर्शनीय होता है।
भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी अनन्त चतुर्दशी कहलाती है। इसका जैनों में बड़ा महत्व है। जैन शास्त्रों के अनुसार इस दिन व्रत करने से बड़ा लाभ होता है। दूसरे, यह दशलक्षण पर्व का अंतिम दिन भी है इसलिए इस दिन प्राय: सभी जैन स्त्री-पुरुष व्रत रखते हैं और तमाम दिन मंदिरों में ही बिताते हैं। अनेक स्थानों पर इस दिन जुलूस भी निकलता है। कुछ लोग इन्द्र बनकर जुलूस के साथ जल लाते हैं और उस जल से भगवान का अभिषेक करते हैं फिर पूजन होता है। पूजन के बाद अनन्त चतुर्दशी व्रतकथा होती है। जो व्रती निर्जल उपवास नहीं करते वे भी प्राय: कथा सुनकर ही जल ग्रहण करते हैं।
चैत्र, भादों और माघ के अंतिम ३ दिन (सुदी १३-१४-१५) में रत्नत्रय की पूजा और व्रत आदि करके इस पर्व को मनाया जाता है। इसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्ररूपी रत्नत्रय की आराधना करके श्रावकजन अपने मोक्षमार्ग के प्रशस्त होने की मंगल भावनाएँ करते हैं।
दशलक्षण पर्व की समाप्ति पर आश्विन कृष्णा एकम् को सभी लोग परस्पर मिलते हैं और गत वर्षों में अपने द्वारा की गई गलतियों की क्षमायाचना करते हैं। जो लोग व्यक्तिशः मिल नहीं पाते हैं वे दूरभाष अथवा पत्र द्वारा क्षमायाचना करके इस पर्व को मनाते हैं।
वाचनिक क्षमा की अपेक्षा हार्दिक क्षमा महत्वपूर्ण है। सच्चे हृदय से क्षमायाचना और क्षमादान करना जैन श्रावक का एक बड़ा गुण है जिससे दोनों पक्षों को अकथनीय लाभ होता है अतः इस पर्व को रस्मी तौर पर न मना कर सच्चे मन से मनाना चाहिए। जिनसे हमारा मनमुटाव है, विशेष तौर पर उनसे क्षमायाचना अवश्य करनी चाहिए।
दिगम्बर परम्परा का दूसरा महत्वपूर्ण पर्व अष्टान्हिका पर्व है। यह पर्व कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ मास के अंत के आठ दिनों में मनाया जाता है। जैन मान्यता के अनुसार मध्यलोक की अकृत्रिम रचना में असंख्यात द्वीप-समुद्रों के अन्दर आठवां नंदीश्वरद्वीप है। उस द्वीप में ५२ जिनालय बने हुए हैं। उनकी पूजा करने के लिए स्वर्ग से चारों प्रकार के देवगण उक्त दिनों में जाते हैं। चूँकि मनुष्य वहाँ तक जा नहीं सकते इसलिए उक्त दिनों में आष्टान्हिका पर्व मानकर यहीं पर नंदीश्वर द्वीप के मंदिरों की पूजा कर लेते हैं। इन दिनों में सिद्धचक्र, इन्द्रध्वज, नंदीश्वर आदि पूजा विधान का आयोजन किया जाता है। यह पूजा महोत्सव दर्शनीय होता है।
भगवान आदिनाथ ने दीक्षा के समय छः मास का उपवास लिया था। उपवासोपरान्त उन्होंने आहार हेतु विहार किया किन्तु उन्हें छह माह उन्नतालिस दिन आहार प्राप्त नहीं हुआ क्योंकि दान की विधि किसी को मालूम नहीं थी। एक दिन भगवान आदिनाथ को देखकर हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस को अपने पूर्व भव का स्मरण हो जाने से दान की विधि मालूम हो गई थी और उन्होंने भगवान को प्रथम बार विधिवत् पड़गाहन कर इक्षुरस (गन्ने का रस) का आहार दिया था। उस दिन वैशाख शुक्ला तृतीया थी। उस दान के निमित्त से उस दिन राजा की रसोई में भोजन अक्षीण (जो कभी क्षीण नहीं होता है) हो गया था अतः आज भी वैशाख शुक्ला तृतीया का दिन जैन समाज ही नहीं अपितु समस्त समाज में अत्यन्त शुभ माना जाता है, जिसे सभी अक्षय तृतीया पर्व के नाम से मनाते हैं।
चैत्र शुक्ला त्रयोदशी, भगवान महावीर की जन्मकल्याणक तिथि है। इस दिन भारतवर्ष के सभी जैन अपना कारोबार बंद रखकर अपने-अपने स्थानों पर बड़ी धूमधाम से महावीर जयंती मनाते हैं। प्रात:काल जुलूस निकालते हैं और रात्रि में सार्वजनिक सभा का आयोजन होता है। भारत भर में बहुत सी प्रान्तीय सरकारों ने अपने प्रान्त में महावीर जयंती की छुट्टी घोषित कर दी है। केन्द्रीय सरकार से भी जैनों की यही मांग है।
जैनों के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर को वैशाख शु. दशमी को केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर ६६ दिन के बाद उनकी सबसे पहली धर्मदेशना मगध की राजगृही नगरी के विपुलाचल पर्वत पर प्रात:काल के समय खिरी थी। उसी के उपलक्ष्य में प्रतिवर्ष श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को वीरशासन जयंती मनायी जाती है।
ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी, जो कि सम्पूर्ण जैन समाज में ‘‘श्रुतपंचमी’’ पर्व के नाम से विख्यात है। इस दिन द्वादशांगमयी सरस्वती देवी की पूजा की जाती है। उस श्रुतपंचमी पर्व के महत्त्व को यहाँ दर्शाया जा रहा है—
सौराष्ट देश में ऊर्जयंतगिरि की चंद्रगुफा में निवास करने वाले अष्टांगमहानिमित्तधारी श्री धरसेनाचार्य के मन में विचार आया कि ‘‘आगे अंगश्रुतज्ञान का विच्छेद हो जाएगा अतः जैसे भी हो उस अंगश्रुतज्ञान को सुरक्षित करने का प्रयास करना चाहिए। उसी समय उन्होंने ‘‘पंचवर्षीय साधु सम्मेलन’’ में पधारे दक्षिण देशवासी साधुओं के पास एक पत्र भेजा। उस पत्र को पढ़कर उन आचार्यों ने दो योग्य मुनि उस आन्ध्रप्रदेश से सौराष्ट्र देश में भेजे। इन दोनों मुनियों के पहुँचने से पहले ही आचार्यप्रवर श्री धरसेनजी को पिछली रात्रि में स्वप्न हुआ कि ‘‘दो शुभ्र वृषभ मेरी तीन प्रदक्षिणा देकर मेरे चरणों में नमन कर रहे हैं।’’ यद्यपि उस स्वप्न का फल वे योग्य शिष्यों का मिलना समझ चुके थे फिर भी उन दोनों के आने पर उनकी परीक्षा के लिए गुरुदेव ने उन दोनों को एक-एक विद्या देकर भगवान नेमिनाथ की सिद्धभूमि में बैठकर विद्या सिद्ध करने का आदेश दिया। गुरु की आज्ञा से वे दोनों विद्या सिद्ध करने हेतु मंत्र जाप करने लगे। जब विद्या सिद्ध हो गई तो उनके सामने दो देवियाँ प्रगट हुईं, उनमें से एक देवी एक आँख वाली थी और दूसरी के दाँत बड़े-बड़े थे। उन दोनों मुनियों ने समझ लिया कि हमारे मंत्रों में कहीं न कहीं दोष है। िंचतन करके मंत्र के व्याकरणशास्त्र से दोनों ने मंत्र शुद्ध किए। एक मुनि के मंत्र में एक अक्षर कम था और दूसरे मुनि के मंत्र में एक अक्षर अधिक था। शुद्ध मंत्र जपने पर सुन्दर वेशभूषा में दो देवियाँ अपने सुन्दर रूप में प्रगट हुईं और बोलीं—हे देव ! आज्ञा दीजिए! क्या करना है ? दोनों मुनि बोले—हमें आपसे कोई कार्य नहीं है, केवल गुरु की आज्ञा से हमने ये मंत्र जपे हैं। ऐसा सुनकर देवियाँ अन्तर्हित हो गईं। दोनों मुनियों ने जाकर गुरुवर श्री धरसेनाचार्य को सारा वृत्तान्त सुनाया। आचार्यश्री ने प्रसन्न होकर शुभ मुहूर्त में दोनों को श्रुतविद्या का अध्ययन कराना प्रारम्भ किया। इन्होंने विनयपूर्वक गुरु से विद्या प्राप्त की पुनः गुरू ने इन दोनों का विहार करा दिया। दोनों मुनियों ने ‘‘अंकलेश्वर’’ ग्राम में जाकर चातुर्मास स्थापित किया। तदनंतर बड़े मुनि श्री पुष्पदंताचार्य अपने भांजे जिनपालित को साथ लेकर उसे मुनि बनाकर बनवास नामक देश को चले गए और भूतबलि आचार्य तमिलदेश को चले गए। श्रीपुष्पदंताचार्य ने जिनपालित मुनि को सत्प्ररूपणा के १७७ सूत्रों को लिखकर पढ़ाया और उसे देकर भूतबलि आचार्य के पास भेज दिया। इन्होंने भी अपने सहपाठी गुुरुभाई पुष्पदंताचार्य के अभिप्राय को जानकर और उनकी आयु अल्प जानकर ‘‘द्रव्यप्रमाणानुगम’’ को आदि लेकर षट्खण्डागम ग्रन्थ की रचना पूर्ण की और ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन इस ग्रन्थ की चतुर्विध संघ ने पूजा की तभी से श्रुतपंचमी पर्व चला आ रहा है। ये दोनों आचार्य षट्खण्डागम ग्रन्थ के कर्ता माने गए हैं।
उस षट्खण्डागम ग्रन्थ की छह टीकाओं में से आचार्य श्री वीरसेन स्वामी रचित वर्तमान में उपलब्ध ‘‘धवला’’ टीका पर इस बीसवीं सदी की प्रथम बालसती, युगप्रवर्तिका, चारित्रचन्द्रिका गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की लेखनी ने ‘‘सिद्धान्तचिन्तामणि टीका’’ नाम की मौलिक संस्कृत टीका लिखकर समस्त जैन समाज को आश्चर्यचकित कर दिया है। आश्विन शु. १५ दिनाँक ८-१०-९५ से प्रारम्भ कर फाल्गुन शुक्ल १३, वी. नि. सं. २५२३ दिनाँक ७-२-९७ को माधोराजपुरा में प्रथम खण्ड की छह पुस्तकें लगभग ९०० पेज की संस्कृत टीका को अठारह मास में पूर्ण किया। इस महान सूत्रराज का हिन्दी अनुवाद करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। पूज्य माताजी द्वारा सोलहों पुस्तकों का लेखन कार्य पूर्ण हो चुका है।
इस श्रुतपंचमी के दिन श्रावक एवं श्राविकाओं को श्रुत की बड़े समारोह से पूजन करके श्रुतस्कन्ध विधान करना चाहिए, प्राचीन ग्रन्थों को सुरक्षित नए वेष्टन में बाँधकर आचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रन्थों को मंगाकर मंदिरों में विराजमान करना चाहिए तथा सिद्ध, श्रुत, आचार्य आदि भक्ति करके केवलज्ञान में सहायक ऐसा असीम पुण्य संचित करना चाहिए।
ऊपर जो जैन पर्व बतलाये गये हैं वे ऐसे हैं जिन्हें केवल जैन धर्मानुयायी ही मानते हैं। इनके सिवाय कुछ पर्व ऐसे भी हैं जिन्हें जैनों के सिवाय हिन्दू जनता भी मानती है। ऐसे पर्वों में सबसे अधिक उल्लेखनीय दीपावली का पर्व है। यह पर्व कार्तिक मास की अमावस्या की संध्या को मनाया जाता है। साफ सुथरे मकान कार्तिकी अमावस्या की संध्या को दीपों के प्रकाश से जगमगा उठते हैं। घर-घर लक्ष्मी का पूजन होता है। सदियों से यह त्योहार मनाया जाता है, कोई इसका संबंध रामचन्द्र जी के अयोध्या लौटने से लगाते हैं। कोई इसे सम्राट अशोक की दिग्विजय का सूचक बतलाते हैं किन्तु रामायण में इस तरह का कोई उल्लेख नहीं मिलता है, इतना ही नहीं, किन्तु किसी हिन्दू पुराण वगैरह में भी इस संबंध में कोई उल्लेख नहीं मिलता। बौद्ध धर्म में तो यह त्योहार मनाया नहीं जाता, रह जाती है जैन संस्कृति। इस समाज में शक सं. ७०५ (वि. सं. ८४०) का रचा हुआ हरिवंशपुराण है। उसमें भगवान् महावीर के निर्वाण का वर्णन करते हुए लिखा है-‘महावीर भगवान् भव्य जीवों को उपदेश देते हुए पावानगरी में पधारे और वहाँ के एक मनोहर उद्यान में चतुर्थ काल के तीन वर्ष साढ़े आठ मास बाकी रह जाने पर कार्तिकी अमावस्या के प्रभातकालीन बेला के समय, योग का निरोध करके कर्मों का नाश करके मुक्ति को प्राप्त हुए। चारों प्रकार के देवताओं ने आकर उनकी पूजा की और दीपक जलाये। उस समय उन दीपकों के प्रकाश से पावानगरी का आकाश प्रदीप्त हो रहा था। उसी समय से भक्त लोग जिनेश्वर की पूजा करने के लिए भारतवर्ष में प्रतिवर्ष उनके निर्वाण दिवस के उपलक्ष्य में दीपावली मनाते हैं।
जिस दिन भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ, उसी दिन सायंकाल में उनके प्रधान शिष्य गौतम गणधर को पूर्णज्ञान-केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। मुक्ति और ज्ञान को जैनधर्म में सबसे बड़ी लक्ष्मी माना है और प्राय: मुक्तिलक्ष्मी और ज्ञानलक्ष्मी के नाम से ही शास्त्रों में उनका उल्लेख किया गया है अत: संभव है कि आध्यात्मिक लक्ष्मी के पूजन की प्रथा ने धीरे-धीरे जनसमुदाय में बाह्य लक्ष्मी के पूजन का रूप ले लिया हो। बाह्यदृष्टिप्रधान मनुष्य समाज में ऐसा प्राय: देखा जाता है। लक्ष्मी पूजन के समय मिट्टी का घरौंदा (हटड़ी) और खेल-खिलौने भी रखे जाते हैं। इस बारे में लोग कहा करते हैं कि यह हटड़ी भगवान् महावीर अथवा उनके शिष्य गौतम गणधर की उपदेश सभा (समवसरण) की यादगार में है और चूँकि उनका उपदेश सुनने के लिए मनुष्य, पशु सभी जाते थे अत: उनकी यादगार में उनकी मूर्तियाँ (खिलौने) रखे जाते हैं। इस तरह दीपावली के प्रकाश में हम प्रतिवर्ष भगवान की निर्वाणलक्ष्मी का पूजन करते हैं और जिस रूप में उनकी उपदेश सभा लगती थी, उसका साज सजाते हैं। परम्परागतरूप से गौतम गणधर को प्राप्त केवलज्ञानलक्ष्मी के प्रतीक में भी लक्ष्मी पूजन की जाती है।
दीपावली के प्रात:काल में सभी जैन मंदिरों में महावीर निर्वाण की स्मृति में बड़ा उत्सव मनाया जाता है और निर्वाणलाडू चढ़ाकर भगवान की विशेष पूजा की जाती है। इस ढंग की पूजा का आयोजन केवल इसी दिन होता है। इससे घर-घर में उस दिन जो मिष्ठान्न बनता है, उसका उद्देश्य भी समझ में आ जाता है।
कार्तिक कृष्णा अमावस्या सन् ५२७ ईसा पूर्व को भगवान महावीर का निर्वाण हुआ था। उस तिथि से वीर निर्वाण सम्वत् प्रारम्भ हुआ है। यह विक्रम सम्वत् से ४७० वर्ष और ईसवी सन् से ५२६ वर्ष पुराना है।
दूसरा उल्लेखनीय सार्वजनिक त्योहार, जिसे जैन लोग भी बड़ी श्रद्धा से मनाते हैं, सलूनो या रक्षाबंधन पर्व है। साधारणत: इस त्योहार के दिन घरों में सेमई की खीर बनती है।
साथ ही साथ उत्तर भारत में एक प्रथा और है। उस दिन हिन्दू मात्र के द्वार पर दोनों ओर मनुष्य के चित्र बनाये जाते हैं उन्हें ‘सोन’ कहते हैं। पहले उन्हें जिमाकर उनके राखी बांधी जाती है, तब घर के लोग भोजन करते हैं।
किसी समय उज्जैनी नगरी में श्रीधर्म नाम का राजा राज्य करता था। उसके चार मंत्री थे-बलि, बृहस्पति, नमुचि और प्रह्लाद। एक बार दिगम्बर जैन मुनि अकम्पनाचार्य सात सौ मुनियों के संघ के साथ उज्जैनी में पधारे। मंत्रियों के मना करने पर भी राजा मुनियों के दर्शन के लिए गया। उस समय सब मुनि ध्यानस्थ थे। लौटते हुए मार्ग में एक मुनि से मंत्रियों का शास्त्रार्थ हो गया। मंत्री पराजित हो गये। क्रुद्ध मंत्री रात्रि में तलवार लेकर मुनियों को मारने के लिए निकले। मार्ग में गुरु की आज्ञा से उसी शास्त्रार्थ के स्थान पर ध्यान में मग्न अपने प्रतिद्वन्द्वी मुनि को देखकर मंत्रियों ने उन पर वार करने के लिए जैसे ही तलवार ऊपर उठाई, उनके हाथ ज्यों के त्यों कीलित हो गये। दिन निकलने पर राजा ने मंत्रियों को देश से निकाल दिया। चारों मंत्री अपमानित होकर हस्तिनापुर के राजा पद्म की शरण में आये। वहाँ बलि ने अपने रण कौशल से पद्म राजा के एक शत्रु को पकड़कर उसके सुपुर्द कर दिया। राजा पद्म ने प्रसन्न होकर उसे मुंहमांगा वरदान दिया। समय आने पर बलि ने वरदान मांगने के लिए कह दिया।
कुछ समय बाद मुनि अकम्पनाचार्य का संघ विहार करता हुआ हस्तिनापुर आया और वहीं वर्षावास कर लिया। जब बलि वगैरह को इस बात का पता चला तो वे बहुत घबराये, पीछे उन्हें अपने अपमान का बदला चुकाने की युक्ति सूझ गयी। उन्होंने वरदान का स्मरण दिलाकर राजा पद्म से सात दिन का राज्य मांग लिया। राज्य पाकर बलि ने मुनि संघ के चारोें ओर एक बाड़ा खड़ा कर दिया और उसके अन्दर हवन यज्ञ करना शुरू कर दिया।
इधर मुनियों पर यह उपसर्ग प्रारंभ हुआ, उधर मिथिला नगरी में तपस्यारत एक निमित्तज्ञानी मुनि को इस उपसर्ग का पता लग गया। उनके मुंह से ‘हा-हा’ निकला। पास में बैठे एक क्षुल्लक ने इसका कारण पूछा तो उन्होंने सब हाल बतलाया और कहा कि विष्णुकुमार मुनि को विक्रिया ऋद्धि उत्पन्न हो गई है वे इस संकट को दूर कर सकते हैं। क्षुल्लक तत्काल अपनी विद्या के बल से मुनि विष्णुकुमार के पास गये और उनको सब समाचार सुनाया। विष्णुकुमार मुनि हस्तिनापुर के राजा पद्म के भाई थे। वे तुरन्त अपने भाई पद्म के पास पहुँचे और बोले, ‘पद्मराज! तुमने यह क्या कर रखा है ? अपनी कुलपरम्परा में ऐसा अनर्थ कभी नहीं हुआ। यदि राजा ही तपस्वियों पर अनर्थ करने लगे तो उसे कौन दूर कर सकेगा ? यदि जल ही आग को भड़काने लगे तो फिर उसे कौन बुझा सकेगा ?’ उत्तर में पद्म ने बलि को राज्य दे देने का सब समाचार सुनाया और कुछ कर सकने में अपनी असमर्थता प्रकट की। तब विष्णुकुमार मुनि वामनरूप धारण करके बलि के यज्ञ में पहुँचे और बलि के प्रार्थना करने पर तीन पैर धरती उससे मांगी। जब बलि ने दान का संकल्प कर दिया तो विष्णुकुमार ने विक्रियाऋद्धि के द्वारा अपने शरीर को बढ़ाया। उन्होंने अपना पहला पैर सुमेरु पर्वत पर रखा, दूसरा पैर मानुषोत्तर पर्वत पर रखा और तीसरा पैर स्थान न होने से आकाश में डोलने लगा। तब सर्वत्र हाहाकार मच गया, देवता दौड़ पड़े और उन्होंने विष्णुकुमार मुनि से प्रार्थना की, ‘भगवन्! अपनी इस विक्रिया को समेटिये। आपके तप के प्रभाव से तीनों लोक चंचल हो उठे हैं। तब उन्होंने विक्रिया को समेटा। मुनियों का उपसर्ग दूर हुआ और बलि को देश से निकाल दिया गया।
बलि के अत्याचार से सर्वत्र हाहाकार मच गया था और लोगों ने यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि जब मुनियों का संकट दूर होगा तो उन्हें आहार कराकर ही भोजन ग्रहण करेंगे। संकट दूर होने पर सब लोगों ने सेमइयों की खीर का हल्का भोजन तैयार किया, क्योंकि मुनि कई दिन के उपवासी थे। मुनि केवल सात सौ थे अत: वे केवल सात सौ घरों पर ही पहुँच सकते थे इसलिए शेष घरों में उनकी प्रतिकृति बनाकर और उसे आहार देकर प्रतिज्ञा पूरी की गई। सबने परस्पर में रक्षा करने का बंधन बांधा, जिसकी स्मृति त्योहार के रूप में अब तक चली आ रही है। दीवारों पर जो चित्र रचना की जाती है उसे ‘सोन’ कहा जाता है, यह ‘सोन’ शब्द ‘श्रमण’ शब्द का अपभ्रंश जान पड़ता है। प्राचीनकाल में जैन साधु श्रमण कहलाते थे। इस प्रकार से सलूनो या रक्षाबंधन त्योहार जैन त्योहार के रूप में जैनों में आज भी मनाया जाता है। उस दिन विष्णुकुमार और सात सौ मुनियों की पूजा की जाती है। उसके बाद परस्पर में राखी बांधकर दीवारों पर चित्रित ‘सोन’ को आहारदान दिया जाता है। तब सब भोजन करते हैं और गरीबों को दान भी देते हैं।