ज्ञानार्णव ग्रन्थ में आचार्य श्रीशुभचन्द्र स्वामी ने ध्यान का वर्णन करते हुए कहा है—
अर्थात् द्वादशांग सूत्र में जो ध्यान का लक्षण विस्तार सहित कहा गया है, उसका शतांश—सौवां भाग भी आज कोई कहने में समर्थ नहीं है, फिर भी उसकी प्रसिद्धि के लिए यहाँ दिग्दर्शनमात्र वर्णन किया जाता है।
आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्म्यध्यान और शुक्लध्यानरूप चार भेद वाले ध्यानों में से प्रथम तो दोनों ध्यान हेय कहे हैं एवं अंतिम दो ध्यानों में से योग्यतानुसार उन्हें प्राप्त करने का उपाय बतलाया है। इसी ग्रंथ में आगे प्रेरणा देते हुए आचार्य कहते हैं—
अर्थात् पूर्वकाल के ज्ञानी पुरुषों ने—पूर्वाचार्यों ने ध्यान करने वाला ध्याता, ध्यान, ध्यान के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र सहित समस्त अंग, ध्येय तथा ध्येय के गुण-दोष लक्षण सहित ध्यान के नाम, ध्यान का समय और ध्यान का फल ये सब ही जो सूत्ररूप महासमुद्र से प्रगट होकर बुद्धिमानों के द्वारा पूर्व में कहे गए के अनुसार ही यहाँ वर्णित किए हैं। ध्यान के इच्छुक प्राणियों को समुचितरूप से इन सब बातों को जानकर पुरुषार्थ मेंं रत होना चाहिए। ध्यान के इन विशेष अंगों के साथ ही संक्षेप में ध्याता, ध्यान, ध्येय और ध्यान का फल इन चतुष्टयरूप भेदों को प्रमुखता से जानना चाहिए।
इसमें सबसे पहले ध्याता अर्थात् ध्यान करने वाला कैसा हो, इसकी जानकारी दी जाती है—
जैनशासन में ऐसे ध्याता की प्रशंसा की गई है कि जो मोक्ष की इच्छा रखने वाले वास्तविक मुमुक्षु हों, संसार से विरक्त हों, क्षोभरहित शांतचित्त हों, जिसका मन अपने वश में हो, जिसके अन्दर शारीरिक एवं मानसिक स्थिरता हो, जितेन्द्रियता हो, संवरयुक्त—आते हुए अशुभ कर्मों को रोकने की जिनमें क्षमता हो और धैर्र्ययुक्त हों। इन आठ गुणों से युक्त मनुष्य वास्तविक ध्यान की सिद्धि करने में सक्षम हो सकते हैं।
इन गुणों को धारण करने का यहाँ अभिप्राय यह है कि सर्वप्रथम जिसे मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा नहीं होगी वह मोक्ष के कारणस्वरूप ध्यान की साधना वैâसे कर सकता है ? दूसरी बात, संसार से विरक्त हुए बिना ध्यान में चित्त नहीं लग सकता है। तीसरे, व्याकुलमन से ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती है इसलिए क्षोभरहित शांतचित्त होना आवश्यक है। चौथी बात, मन को वश में किए बिना ध्यान वैâसे लगेगा ? अतः पुरुषार्थपूर्वक मन को वश में करना चाहिए। पांचवे नियम के अनुसार शरीर की स्थिरता रखने से ही ध्यान में मन लगता है। छठी बात यह है कि इन्द्रियों को जीते बिना किसी भी प्रकार से ध्यान की संभावना नहीं रहती है अतः जितेन्द्रियता गुण का पालन आवश्यक है। सातवें, संवरयुक्त होने का इसलिए माना है कि यदि खान-पानादिक में मन अस्थिर हो जावेगा तो आते हुए अशुभ कर्मों को रोकने की क्षमता वैâसे जागृत होगी ? तथा आठवें धैर्य गुण के द्वारा उपसर्ग आदि आने पर भी ध्यान से च्युत न होने से ध्यान की अपूर्व शुद्धि स्वीकार की गई है।
इस प्रकार मोक्षपद प्राप्ति के लक्ष्य वाले समीचीन ध्यान को करने की योग्यता परिग्रहरहित मुनियों में ही बताते हुए गृहस्थों के लिए इस ध्यान का निषेध भी किया है—
अर्थात् आकाश में पुष्प और गधे के सींग नहीं होते हैं, कदाचित् किसी देश वा काल में इनके होने की प्रतीति हो सकती है परन्तु गृहस्थाश्रम में ध्यान की सिद्धि होनी तो किसी देश या काल में संभव नहीं है।
यहाँ चूँकि मोक्ष के साधनरूप शुक्लध्यान को बताया है इसलिए यह साक्षात् योग्यता मुनियों में ही मानी है और गृहस्थों में धर्मध्यानरूप ध्यान का अभ्यासमात्र संभव है, उनके शुक्लध्यान का पूर्णरूप से निषेध पाया जाता है किन्तु शुक्लध्यान प्राप्ति की इस असमर्थता से गृहस्थों को चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि धर्मध्यान के अन्तर्गत भी अनेक प्रकार की ध्यानसाधना उनके लिए भी सुलभ है, उसके द्वारा अपने चित्त को पवित्र करना चाहिए।