वर्ण, गंध, रस और स्पर्श ये पुद्गल के गुण हैं, इस पुद्गल से बना हुआ जो शरीर है वह पौद्गलिक है इसीलिए शरीर आदि का उपादान कारण पुद्गल ही है अतः इसका जीव के साथ जो सम्बन्ध है वह संयोग सम्बन्ध ही है, उसके लिए दूध और पानी का उदाहरण सार्थक है किन्तु जीव के जो राग, द्वेष, क्रोध, मान आदि विभाव भाव हैं उनका उपादान कारण आत्मा ही है, द्रव्य कर्मों के उदय निमित्त कारण हैं फिर भी यहाँ उन्हें भी संश्लेष सम्बन्ध रूप ही कहा है क्योंकि शुद्धनय की अपेक्षा से यह अशुद्ध निश्चयनय भी व्यवहार ही है। दूसरी बात यह है कि शुद्ध, सिद्ध जीवों में ये विभाव भाव नहीं हैं फिर भी अशुद्ध जीव में व्यवहारनय से हैं, ऐसा समझना चाहिए।
पुनः व्यवहारनय अविरोधी कैसे हैं ? यह बात आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव समयसार की ५८वीं गाथा में कहते हैं—
अर्थ—मार्ग में लुटते हुए पुरुष को देखकर व्यवहारी लोग कहते हैं कि यह मार्ग लुट गया है किन्तु कोई मार्ग नहीं लुटता है उसी प्रकार जीव में कर्म और नोकर्मों के वर्ण को देखकर ‘जीव का यह वर्ण है’ ऐसा जिनेन्द्रदेव ने व्यवहार से कहा है। ऐसे ही गंध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर और संस्थान आदि ये सभी व्यवहार से जीव के हैं ऐसा निश्चय के दृष्टा कहते हैं।
आज भी देखा जाता है कि किसी बस या ट्रेन में डवैâतों द्वारा लूटपाट हो जाने पर लोग कह देते हैं कि अमुक बस या ट्रेन लुट गई जबकि वाहन लुटने की बजाय उसमें सवार यात्री ही लूटे गये हैं फिर भी व्यवहार से ऐसा कथन करने से लोग अभिप्राय समझ लेते हैं कि किसी बदमाश ने अमुक बस के यात्रियों को लूट लिया है। इस व्यवहारिक भाषा का प्रयोग आचार्यों ने आत्मतत्त्व को बतलाने में भी किया है।
उपर्युक्त गाथा की आत्मख्याति टीका में श्रीअमृतचन्द्रसूरि कहते हैं—
’’ अर्थात् जैसे मार्ग में चलते हुए किन्हीं धनिक पथिक को चोरों द्वारा लुटते हुए देखकर वहाँ मार्ग में रहने वाले चोरों के निमित्त से उपचार से व्यवहारी लोग ऐसा कह देते हैं कि ‘‘यह मार्ग लुटता है’’ किन्तु निश्चय से देखा जाये तो आकाश के प्रदेश विशेष लक्षण वाला जो कोई भी मार्ग है वह नहीं लुटता है।
इसके विशेषार्थ में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने समयसार की ज्ञानज्योति हिन्दी टीका में लिखा है कि—
‘‘जीव के वर्ण आदि हैं अथवा जीव का या किन्हीं तीर्थंकर का स्वर्ण वर्ण वाला शरीर है, इत्यादि कथन तथा जीव के राग, द्वेष, मोह, गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि का वर्णन श्री अर्हंतदेव ने किया है न कि हम तुम जैसे सामान्य मनुष्यों ने, अतः यह सत्य है असत्य नहीं है। यद्यपि यह सब कथन व्यवहारनय की अपेक्षा से ही है फिर भी व्यवहारनय झूठा नहीं है। हाँ, वह औपाधिक भावों को ग्रहण करता है इसीलिये कथंचित् निश्चयनय की अपेक्षा से उसे ‘असत्य’ कह भी सकते हैं किन्तु विषय को सही-सही कहने से यह सत्य ही है। दूसरी बात यह है कि जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रतिपादित होने से यह सत्य ही है। सम्पूर्ण द्वादशांग का विस्तार भी तो जीव के इन औपाधिक भावों को ही कहता है अन्यथा ‘जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्यः इत्यसौ तत्त्वसंग्रहः।’ जीव भिन्न है और पुद्गल भिन्न है इतना मात्र ही तत्त्वों का संग्रह रूप सार है। ऐसा श्रीपूज्यपादस्वामी ने कहा है इसी प्रकार निश्चयनय का वर्णन भी श्री जिनेन्द्रदेव ने ही किया है उस दृष्टि से तो जीव के साथ इनका तादात्म्य सम्बन्ध न होने से ही जीव के ये सब नहीं हैं ऐसा कथन है। वास्तव में दोनों नयों को समझकर ही अपेक्षाकृत वस्तु के स्वरूप को कहने वाले सम्यग्दृष्टि माने गए हैं।’’
इस प्रकार दृष्टान्त और दार्ष्टान्त के द्वारा आचार्य श्रीकुन्दकुन्ददेव ने व्यवहारनय का समर्थन किया है अतः द्रव्यानुयोग के दर्पण में निश्चयनय को समझने हेतु व्यवहारनय का अवलम्बन भी आवश्यक है ऐसा समझना चाहिए।