भगवान् नेमि जिनेन्द्र ने मनुष्य, सुर तथा असुरों की सभा में उस धर्म का निरूपण किया जो संसार—सागर से पार होने का एकमात्र उपाय था एवं जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चरित्र रूपी रत्नत्रय से उज्ज्वल था।।१३४।। अवसर आने पर अत्यन्त आदर से पूर्ण इच्छा के धारक श्रीकृष्ण ने जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर श्रोताओं के हित की इच्छा से तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों, अर्ध चक्रवर्तियों, बलभद्रों और प्रतिनारायणों की उत्पत्ति तथा तीर्थंकरों के अन्तराल को पूछा।।१३५-१३६।।१
तदन्तर भगवान् प्रश्न के अनुसार श्रीकृष्ण के लिए त्रेशठ शलाकापुरुषों में प्रमुख चौबीस तीर्थंकरों की उत्पत्ति इस प्रकार कहने लगे।।१३७।। उन्होंने कहा कि इस युग में सबसे पहले तीर्थंकर वृषभनाथ हुए। उनके पश्चात् क्रम से अजितनाथ, सम्भवनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभु, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, सुविधिनाथ, शीतलनाथ, श्रेयोनाथ, वासुपूज्य, विमलनाथ, अनन्तजित्, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, शल्यरूपी कुश को निकालने वाले मल्लिनाथ, मुनियों के स्वामी मुनिसुव्रतनाथ और नमिनाथ तीर्थंकर हुए हैं। ये सभी निर्वाण को प्राप्त हो चुके हैं। बाईसवाँ तीर्थंकर मैं नेमिनाथ अभी वर्तमान हूँ और पार्श्वनाथ तथा महावीर ये दो तीर्थंकर आगे होंगे।।१३८-१४१।। इन तीर्थंकरों में से आठ तीर्थंकर पूर्वभव में जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र में, पाँच भरतक्षेत्र में, सात धातकी—खण्ड में और चार पुष्करार्ध में उत्पन्न हुए थे।।१४२।। जम्बूद्वीप के विदेह क्षेत्र में उत्पन्न हुए आठ तीर्थंकरों का विवरण इस प्रकार है—वृषभनाथ और शान्तिनाथ पूर्वभव में जम्बूद्वीप सम्बन्धी विदेह क्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी में, अजितनाथ सुसीमा नगरी में, अरनाथ क्षेमपुरी में, कुन्थुनाथ, सम्भवनाथ और अभिनन्दननाथ रत्नसंचय नगर में और मल्लिनाथ वीतशोका नगरी में उत्पन्न हुए थे।।१४३-१४४।। भरतक्षेत्र में उत्पन्न हुए पाँच तीर्थंकर इस प्रकार हैं—मुनिसुव्रतनाथ चम्पापुरी में, नमिनाथ कौशाम्बी नगरी में, नेमिनाथ हस्तिनापुर में, पार्श्वनाथ अयोध्या में और महावीर छत्राकारपुर में पूर्वभव में उत्पन्न हुए थे।।१४५-१४६।।
धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध में जन्म लेने वाले सुमतिनाथ, पद्मप्रभु, सुपार्श्वनाथ और चन्द्रप्रभ इन चार तीर्थंकरों की पूर्वभव की नगरियाँ क्रम से अखण्ड लक्ष्मी की धारक पुण्डरीकिणीपुरी, सुसीमापुरी, क्षेमपुरी और रत्नसंचयपुरी थीं। सुविधिनाथ, शीतलनाथ, श्रेयोनाथ और वासुपूज्य इन चार तीर्थंकरों की पूर्व जन्म की नगरियाँ क्रम से पूर्व पुष्करार्ध सम्बन्धी पुण्डरीकिणी, सुसीमा, क्षेमपुरी और रत्नसंचयपुरी थीं।।१४७-१४८।। अनन्तजित् (अनन्तनाथ) भगवान पूर्वभव में धातकीखण्ड द्वीप के पश्चिम ऐरावत क्षेत्र—सम्बन्धी अरिष्टपुर नगर में उत्पन्न हुए थे।।१४९।। विमलनाथ पूर्वार्धसम्बन्धी भरत क्षेत्र के महापुर नगर में और धर्मनाथ भद्रिलपुर नगर में उत्पन्न हुए थे। इन तीर्थंकरों के पूर्वभव के नाम इस प्रकार हैं—१. वङ्कानाभि, २० विमल, ३. विपुलवाहन, ४. महाबल, ५. अतिबल, ६. अपराजित, ७. नन्दिषेण, ८. पद्म, ९. महापद्म, १०. पद्मगुल्म, ११. नलिनगुल्म, १२. पद्मोत्तर, १३. पद्मासन, १४. पद्म, १५. दशरथ, १६. मेघरथ, १७. िंसहरथ, १८. धनपति, १९. वैश्रवण, २०. श्रीधर्म, २१. सिद्धार्थ, २२. सुप्रतिष्ठ, २३. आनन्द और २४. नन्दन।।१५०-१५५।।
इनमें भगवान् वृषभनाथ पूर्वभव में चक्रवर्ती तथा चौदह पूर्वों के धारक थे और शेष तीर्थंकर महामण्डलेश्वर और ग्यारह अंग के वेत्ता थे। उक्त सभी तीर्थंकर पूर्वभव में अपने शरीरों की अपेक्षा सुवर्ण के समान कान्ति वाले थे।।१५६।। सभी तीर्थंकरों ने िंसहनिष्क्रीड़ित व्रत करके एक महीने के उपवास के साथ प्रयोपगमन संन्यास धारण किया था और सभी यथायोग्य स्वर्गगामी थे अर्थात् अपनी-अपनी साधना के अनुसार स्वर्गों में उत्पन्न हुए थे।।१५७।। तीर्थंकरों के पूर्व जन्म के गुरू क्रम से, १. वङ्कासेन, २. अरिन्दम, ३. स्वयम्प्रभ, ४. विमलवाहन, ५. सीमन्धर, ६. पिहितास्रव, ७. अरिन्दम, ८. युगन्धर, ९. सबका हित करने वाले सर्वजनानन्द, १०. उभयानन्द, ११. वङ्कादत्त, १२. वङ्कानाभि, १३. सर्वगुप्त, १४. त्रिगुप्त, १५. चित्तरक्ष, १६. निर्मल आचार से सहित मानवीय विमलवाहन, १७. धनरथ, १८. संवर से सहित संवर, १९. तीन लोक के द्वारा स्तुति करने के योग्य वरधर्म, २०. सुनन्द, २१. नन्द, २२. व्यतीतशोक, २३. दामर और २४. प्रोष्ठिल थे।।१५८-१६३।। वृषभनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ और कुन्थुनाथ ये चार तीर्थंकर सर्वार्थसिद्धि से, अभिनन्दननाथ विजय विमान से, चन्द्रप्रभ और सुमतिनाथ वैजयन्त विमान से, नेमि और अरनाथ जयन्त विमान से, नमि और मल्लिनाथ अपराजित विमान से, पुष्पदन्त आरण स्वर्ग से, शीतलनाथ अच्युत स्वर्ग से, श्रेयोनाथ, अनन्तनाथ और महावीर पुष्पोत्तर विमान से, विमलनाथ, पार्श्वनाथ और मुनिसुव्रतनाथ सहस्रार स्वर्ग से, सम्भवनाथ, सुपार्श्वनाथ और पद्मप्रभ क्रमश: अधोग्रैवेयक, मध्यग्रैवेयक और उपरिम ग्रैवेयक से तथा वासुपूज्य महाशुक्र स्वर्ग से चयकर भरतक्षेत्र में उत्पन्न हुए थे। इस प्रकार ऋषभादि तीर्थंकरों के पूर्वभव के स्वर्ग कहे जाते हैं।।१६४-१६८।।
भगवान् वृषभनाथ चैत्र कृष्ण नवमी के दिन उत्पन्न हुए थे। अजितनाथ माघ शुक्ल नवमी के दिन, सम्भवनाथ मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमा के दिन, अभिनन्दननाथ माघ शुक्ल द्वादशी के दिन, सुमतिनाथ श्रावण शुक्ल एकादशी के दिन, पद्मप्रभ कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन, सुपार्श्वनाथ ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी के दिन, चन्द्रप्रभ पौष कृष्ण एकादशी के दिन, सुविधिनाथ मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा के दिन, शीतलनाथ माघ कृष्ण द्वादशी के दिन, श्रेयोनाथ फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिन, वासुपूज्य फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के दिन, निर्मल आत्मा के धारक विमलनाथ माघ शुक्ल चतुर्दशी के दिन, अनन्तनाथ ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी के दिन, धर्मनाथ माघ शुक्ल त्रयोदशी के दिन, शान्ति के करने वाले शान्तिनाथ ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन, कुन्थुनाथ वैशाख शुक्ल प्रतिपदा के दिन, अरनाथ मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्दशी के दिन, मल्लिनाथ मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी के दिन, मुनिसुव्रतनाथ आसौज शुक्ल द्वादशी के दिन, नमिनाथ आषाढ़ कृष्ण दशमी के दिन और नेमिनाथ वैशाख शुक्ल त्रयोदशी के दिन उत्पन्न हुए थे। इसी प्रकार पार्श्वनाथ पौष कृष्ण एकादशी को और महावीर चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को अपने जन्म से अलंकृत करते हुए उत्पन्न होंगे।।१६९-१८०।। अब चौबीस तीर्थंकरों के माता—पिता, जन्मनक्षत्र, जन्मभूमि, चैत्यवृक्ष और निर्वाणभूमि को कहते हैं सो ज्ञात करो।।१८१।।
जिनकी जन्मनगरी विनीता–अयोध्या, माता मरुदेवी, पिता नाभि, चैत्यवृक्ष वट, निर्वाणभूमि वैâलास और जन्मनक्षत्र उत्तराषाढ़ था। वे वृषभनाथ भगवान् मनुष्यों में अत्यन्त श्रेष्ठ थे।।१८२।। जिनकी जन्मनगरी अयोध्या, माता विजया, पिता राजा जितशत्रु, निर्वाणक्षेत्र सम्मेदाचल, जन्म नक्षत्र रोहिणी और चैत्यवृक्ष सप्तपर्ण था, वे अजितनाथ भगवान् सबके हर्ष के लिए हों।।१८३।। श्रावस्ती नगरी, सेना माता, जितारि पिता, शाल चैत्यवृक्ष, ज्येष्ठा जन्मनक्षत्र, सम्मेदाचल निर्वाणक्षेत्र और सम्भवनाथ जिनेन्द्र ये सब तुम्हारे पापों को पवित्र करें।।१८४।। चैत्यवृक्ष सरल, पिता संवर, माता सिद्धार्थ, अयोध्या नगरी, पुनर्वसु नक्षत्र, अभिनन्दन जिनेन्द्र और सम्मेदगिरि निर्वाणक्षेत्र ये सज्जनों के आनन्द के लिए हों।।१८५।। मेघप्रभ पिता, मघा नक्षत्र, अयोध्या नगरी, प्रियंगु वृक्ष, सुमंगला माता सम्मेदशिखर निर्वाणक्षेत्र और सुमति जिनेन्द्र ये सब तुम्हें सुमति—सद्बुद्धि प्रदान करें।।१८६।। कौशाम्बी नगरी, धरण पिता, चित्रा नक्षत्र, सुसीमा माता, पद्मप्रभ जिनेन्द्र, प्रियंगु वृक्ष और सम्मेद शिखर निर्वाणक्षेत्र ये सब तुम्हारे लिए मंगलरूप हों।।१८७।। पृथिवी माता, सुप्रतिष्ठ पिता, काशी नगरी, सम्मेदशिखर निर्वाणक्षेत्र, विशाखा नक्षत्र, शिरीष वृक्ष और सुपार्श्व जिनेन्द्र ये सब तुम्हारे लिए मंगलस्वरूप हों।।१८८।। चन्द्रपुरी नगरी, चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र, नागवृक्ष, सम्मेदशिखर निर्वाणक्षेत्र, अनुराधा नक्षत्र, महासेन पिता और लक्ष्मणा माता ये सब सज्जनों के लिए वन्दना करने योग्य हैं।।१८९।। काकन्दी नगरी, पुष्पदन्त भगवान्, रामा माता, सुग्रीव पिता, मूल नक्षत्र, शालि वृक्ष और सम्मेदशिखर पर्वत ये सब तुम्हारे वैभव के लिए हों।।१९०।। भद्रिलापुरी , पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र, प्लक्ष वृक्ष, दृढ़रथ पिता, सुनन्दा माता, शीतलनाथ जिनेन्द्र और सम्मेदगिरि निर्वाणक्षेत्र ये सब तुम्हारा हित चाहने वाले हों।।१९१।। विष्णुश्री माता, विष्णुराज पिता, िंसहनाद पुर, श्रवण नक्षत्र, श्रेयांस जिनेन्द्र, तेंदू का वृक्ष और सम्मेदशिखर पर्वत ये सब तुम्हें सुख प्रदान करें।।१९२।। जन्मभूमि तथा निर्वाणभूमि चम्पानगरी, वासुपूज्य जिनेन्द्र, जया माता, चैत्यवृक्ष पाटला, वसुपूज्य पिता और शतभिषा नक्षत्र ये सब पूजनीय हैं।।१९३।। शर्मा माता, कृतवर्मा पिता, जामुन चैत्यवृक्ष, उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र, काम्पिल्य नगरी, सम्मेदशिखर निर्वाणक्षेत्र और श्री विमलनाथ भगवान ये सब तुम्हारे शल्य को दूर करें।।१९४।। अयोध्या नगरी, िंसहसेन पिता, रेवती नक्षत्र, पीपल चैत्यवृक्ष, सर्वयशा माता, सम्मेदशिखर निर्वाणक्षेत्र और अनन्तनाथ जिनेन्द्र ये सदा तुम्हें सद्बुद्धि प्रदान करें।।१९५।। धर्मनाथ जिनेन्द्र, दधिपर्ण चैत्यवृक्ष, भानुराज पिता, सुव्रता माता, पुष्य नक्षत्र, रत्नपुर नगर और सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र ये सब तुम्हें धर्मबुद्धि देवें।।१९६।। ऐरा माता, विश्वसेन पिता, भरणी नक्षत्र, हस्तिनापुर नगर, नन्दी चैत्यवृक्ष, शान्तिनाथ जिनेन्द्र और सम्मेदशिखर निर्वाणक्षेत्र ये सब तुम्हें शान्ति प्रदान करें।।१९७।। सम्मेदशिखर निर्वाणक्षेत्र, हस्तिनापुर नगर, सूर्य पिता, श्रीमती माता, कृत्तिका नक्षत्र, तिलक वृक्ष और कुन्थुनाथ भगवान् ये तुम्हारे पापों को नष्ट करें।।१९८।। आम्र वृक्ष, हस्तिनापुर नगर, मित्रा माता, सुदर्शन राजा पिता, सम्मेदशिखर निर्वाणक्षेत्र, रोहिणी नक्षत्र और अरनाथ जिनेन्द्र ये सब तुम्हारे पाप को खण्डित करें।।१९९।। मिथिला नगरी, रक्षिता माता, कुम्भ पिता, मल्लिनाथ जिनेन्द्र, अश्विनी नक्षत्र, अशोक वृक्ष और सम्मेदशिखर निर्वाण क्षेत्र ये सब तुम्हारे अशोक—शोक दूर करने के लिए हों।।२००।। पद्मावती माता, सुमित्र पिता, कुशाग्र नगर, चम्पक वृक्ष, श्रवण नक्षत्र और सम्मेद शिखर पर्वत ये सब तुम्हारे हर्ष के लिए हों।।२०१।। मिथिला नगरी, विजय पिता, वप्रा माता, वकुल वृक्ष, नमिनाथ जिनेन्द्र, अश्विनी नक्षत्र और सम्मेदशिखर पर्वत महामानी मनुष्य को आपके समक्ष नम्रीभूत करें।।२०२।। नेमिनाथ भगवान्, सूर्यपुर नगर, चित्रा नक्षत्र, समुद्रविजय पिता, शिवा माता, ऊर्जयन्त पर्वत और मेषशृंग (मेढ़ािंसगी) वृक्ष ये सब तुम्हारे लिए जय प्रदान करें।।२०३।। वाराणसी नगरी, वर्मा माता, विशाखा नक्षत्र, धव चैत्यवृक्ष, अश्वसेन राजा पिता, पार्श्वनाथ जिनेन्द्र और सम्मेदशिखर निर्वाणक्षेत्र ये सब तुम्हारे आनन्द के लिए हों।।२०४।। शाल वृक्ष, कुण्डपुर नगर, वीर जिनेन्द्र, सिद्धार्थ पिता, प्रियकारिणी माता, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र और पावापुरी निर्वाणक्षेत्र ये सब सदा तुम्हारे पापों को नष्ट करें।।२०५।।
भगवान् महावीर का चैत्यवृक्ष बत्तीस धनुष ऊँचा होगा और शेष तीर्थंकरों के चैत्यवृक्षों की ऊँचाई उनके शरीर की ऊँचाई से बाहर गुनी मानी गयी है।।२०६।। सुपार्श्वनाथ भगवान् अनुराधा नक्षत्र में, चन्द्रप्रभ ज्येष्ठा नक्षत्र में, श्रेयोनाथ धनिष्ठा नक्षत्र में, वासुपूज्य अश्विनी नक्षत्र में, मल्लि जिनेन्द्र भरणी नक्षत्र में, महावीर स्वाति नक्षत्र में निर्वाण को प्राप्त हुए हैं और शेष तीर्थंकरों का निर्वाण अपने अपने जन्म नक्षत्रों में ही हुआ है।।२०७-२०८।। शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ ये तीन तीर्थंकर और चक्रवर्ती हुए तथा शेष सब तीर्थंकर सामान्य राजा हुए।।२०९।। चन्द्रप्रभ भगवान् चन्द्रमा के समान आभा वाले, सुविधिनाथ शंख के समान कान्ति के धारक, सुपार्श्वनाथ प्रियंगुवृक्ष की मंजरी के समूह के समान हरितवर्ण, धरणेन्द्र के द्वारा स्तुत श्रीमान् पार्श्वजिनेन्द्र मेघ के समान श्यामल शरीर, पद्मप्रभ जिनराज पद्मगर्भ के समान लालवर्ण, वासुपूज्य जिनेन्द्र रक्त पलाश पुष्प के समान लालवर्ण, मुनियों के स्वामी मुनिसुव्रतनाथ नीलगिरि अथवा अंजनगिरि के समान नीलवर्ण, नेमिनाथ नीलकण्ठ मयूर के सुन्दर कण्ठ के समान नीलवर्ण और शेष जिनेन्द्र तपाये हुए सुवर्ण के समान कान्ति वाले कहे गये हैं।।२१०-२१३।। वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वर्धमान इन पाँच तीर्थंकरों ने कुमारकाल में ही दीक्षा धारण की थी और शेष तीर्थंकरों ने राजा होने के बाद दीक्षा धारण की थी।।२१४।।
भगवान् वृषभदेव का दीक्षाकल्याणक विनीता में, नेमिनाथ का द्वारावती में और शेष तीर्थंकरों का अपनी—अपनी जन्मभूमि में हुआ था।।२१५।। सुमतिनाथ और मल्लिनाथ ने भोजन करने के बाद दीक्षा धारण की थी तथा दीक्षा के बाद तीन दिन का उपवास किया था। पार्श्वनाथ तथा वासुपूज्य भगवान् ने दीक्षा के बाद एक दिन का उपवास धारण किया था और शेष तीर्थंकरों ने दो दिन का उपवास लिया था। श्रेयोनाथ, सुमतिनाथ, मल्लिनाथ, नेमिनाथ और पार्श्वनाथ तीर्थंकरों ने दिन के पूर्वाण्हकाल में और अन्य तीर्थंकरों ने अपराण्ह काल में दीक्षा धारण की थी। भगवान् महावीर ने ज्ञातृवन में, वासुपूज्य ने क्रीड़ोद्यान में, वृषभदेव ने सिद्धार्थ वन में, धर्मनाथ ने वप्रका स्थान में, मुनिसुव्रतनाथ ने नीलगुहा के समीप, पार्श्वनाथ ने तापसों के तपोवन के समीप मनोरम नामक उद्यान में और शेष तीर्थंकरों ने सहस्राम्र वन को आदि लेकर नगर के उद्यानों में दीक्षा धारण की थी ऐसा विद्वानों को जानना चाहिए।।२१६-२२०।। १ सुदर्शना, २. सुप्रभा, ३. सिद्धार्थ, ४. अर्थसिद्धा, ५. अभयंकरी, ६. निवृत्तिकरी, ७. सुमनोरमा, ८. मनोहरा, १०, शुक्रप्रभा, ११. विमलप्रभा, १२. पुष्पाभा, १३. देवदत्ता, १४. सागरपत्रिका, १५. नागदत्ता, १६. सिद्धार्थसिद्धिका, १७. विजया, १८. वैजयन्ती, १९. जयन्ता, २०. अपराजिता, २१. उत्तरकुरु, २२. देवकुरु, २३. विमला और २४ चन्द्राभा ये क्रम से ऋषभादि तीर्थंकरों की शिविका—पालकियों के नाम हैं।।२२१-२२५।।
चैत्र कृष्ण नवमी को भगवान् वृषभदेव की, वैशाख कृष्ण नवमी को मुनिसुव्रतनाथ की, वैशाख सुदी प्रतिपदा के दिन कुन्थुनाथ की, वैशाख सुदी नवमी के दिन सुमतिनाथ की, ज्येष्ठकृष्ण द्वादशी के दिन अनन्तनाथ जिनेन्द्र की, जयेष्ठ कृष्ण त्रयोदशी के दिन शान्तिनाथ की, ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी के दिन सुपार्श्व जिनेन्द्र की, आषाढ़ कृष्ण दशमी के दिन नमिनाथ की, सावन सुदी चतुर्थी को नेमिनाथ की, कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को पद्मप्रभ की, मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी को सुमतिनाथ की, मार्गशीर्ष सुदी प्रतिपदा के दिन पुष्पदन्त जिनेन्द्र की, मार्गशीर्ष सुदी दशमी को अरनाथ की, मार्गशीर्ष सुदी पूर्णिमा को सम्भवनाथ की, मार्गशीर्ष सुदी एकादशी को मल्लिनाथ की, पौषकृष्ण एकादशी को चन्द्रप्रभ और पार्श्वनाथ की, माघ कृष्ण द्वादशी को शीतलनाथ की, माघ शुक्ल चतुर्थी को विमलनाथ की, माघ शुक्ल नवमी को अजितनाथ की, माघ शुक्ल द्वादशी को अभिनन्दनाथ की, माघ शुक्ल त्रयोदशी को धर्मनाथ की, फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी के दिन श्रेयांसनाथ की और फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के दिन वासुपूज्य भगवान् की दीक्षा हुई थी।।२२६-२३६।। श्री आदि जिनेन्द्र की प्रथम पारणा एक वर्ष में (मल्लिनाथ और पार्श्वनाथ की चौथे दिन) तथा शेष तीर्थंकरों की तीसरे दिन हुई थी।
भावार्थ—आदि जिनेन्द्र ने छह माह का योग लिया था और छह माह विधि न मिलने से भ्रमण करते रहे इसलिए एक वर्ष बाद उन्हें आहार मिला। मल्लिनाथ और पार्श्वनाथ ने दीक्षा के समय तीन दिन के उपवास का नियम लिया था इसलिए उन्हें चौथे दिन आहार मिला और शेष तीर्थंकरों ने दो दिन का उपवास किया था।।२३७।। श्री आदिनाथ भगवान् ने पारणा के दिन उत्तम इक्षुरस को पवित्र किया था और शेष तीर्थंकरों ने लालसा से रहित हो गो—दुग्ध के द्वारा निर्मित खीर के द्वारा आहार किया था।।२३८।। १ श्रीसुन्दर हस्तिनापुर, २. शुभ अयोध्या, ३. श्रावस्ती, ४. विनीता, ५. विजयपुर, ६. मंगलपुर, ७. पाटलीखण्ड, ८. पद्मखण्डपुर, ९. श्वेतपुर, १०. अरिष्टपुर, ११. सिद्धार्थपुर, १२. महापुर, १३. धान्यवटपुर, १४. वर्धमानपुर, १५. सोमनसपुर, १६. मन्दरपुर, १७. हस्तिनापुर, १८. चक्रपुर, १९. मिथिला, २०. राजगृह, २१. वीरपुर, २२. द्वारावती, २३. काम्यकृति २४. कुण्डलपुर, ये यथाक्रम से वृषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों के प्रथम पारणा के नगर प्रसिद्ध है।।२३९-२४४।।
१ राजा श्रेयांस, २. ब्रह्मदत्त, ३. सम्पत्ति के द्वारा सुरेन्द्र की समानता करने वाला राजा सुरेन्द्रदत्त, ४. इन्द्रदत्त, ५. पद्मक, ६. सोमदत्त, ७. महादत्त, ८. सोमदेव, ९. पुष्पक, १०. पुनर्वसु, ११. सुनन्द, १२. जय, १३. विशाख, १४. धर्मिंसह, १५. सुमित्र, १६. धर्ममित्र, १७. अपराजित, १८. नन्दिषेण, १९. वृषभदत्त, २०. उत्तम नीति का धारक दत्त, २१. वरदत्त, २२. नृपति, २३. धन्य और २४. बकुल ये वृषभादि तीर्थंकरों को प्रथम पारणाओं के समय दान देने वाले स्मरण किये गये हैं।।२४५-२४८।। समस्त तीर्थंकरों की आदि पारणाओं और वर्धमान स्वामी की सभी पारणाओं में नियम से रत्नवृष्टि हुआ करती थी। वह रत्नवृष्टि उत्कृष्टता से साढ़े बारह करोड़ और जघन्यरूप से साढ़े बारह लाख प्रमाण होती थी।।२४९-२५०।। इन दाताओं में आदि के दो दाता और अन्त के दो दाता श्यामवर्ण के थे और शेष सभी दाता तपाये हुए सुवर्ण के समान वर्ण वाले थे।।२५१।। इनमें कितने ही दाता तो तपश्चरण कर उसी जन्म से मोक्ष चले गये और कितने ही जिनेन्द्र भगवान् के मोक्ष जाने के बाद तीसरे भव में मोक्ष गये।।२५२।।
वृषभनाथ, मल्लिनाथ और पार्श्वनाथ को तेला के बाद, वासुपूज्य को एक उपवास के बाद और शेष तीर्थंकरों को वेला के बाद केवलज्ञान की प्राप्ति हुई थी।।२५३।। वृषभनाथ भगवान् को पूर्वताल नगर के शकटामुख वन में, नेमिनाथ को गिरिनार पर्वत पर, पार्श्वनाथ भगवान् को आश्रम के समीप, महावीर भगवान् को ऋजुकूला नदी के तट पर और शेष तीर्थंकरों को अपने—अपने नगर के उद्यान में ही केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था।।२५४-२५५।। वृषभनाथ, श्रेयांसनाथ, मल्लिनाथ, नेमिनाथ और पार्श्वनाथ भगवान् को पूर्वाह्न काल में तथा शेष तीर्थंकरों को अपराह्न काल में केवलज्ञान की उत्पत्ति हुई थी।।२५६।।
फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिन वृषभनाथ, फाल्गुन कृष्ण द्वादशी के दिन मल्लिनाथ, फाल्गुन कृष्ण षष्ठी के दिन मुनिसुव्रतनाथ, फाल्गुन कृष्ण सप्तमी के दिन सुपार्श्वनाथ और चन्द्रप्रभ, चैत्र कृष्ण चतुर्थी के दिन पार्श्वनाथ, चैत्र कृष्ण अमावस्या के दिन अनन्त जिनेन्द्र, चैत्र शुक्ल तृतीया के दिन नमिनाथ और कुन्थुनाथ, चैत्रशुक्ल दशमी के दिन सुमतिनाथ और पद्मप्रभ भगवान्, वैशाख शुक्ल दशमी के दिन महावीर, आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को नेमिनाथ, कार्तिक कृष्ण पंचमी को सम्भवनाथ, कार्तिक शुक्ल तृतीया को सुविधिनाथ, कार्तिक शुक्ल द्वादशी को अरनाथ, पौष कृष्ण चतुर्दशी को शीतलनाथ, पौष कृष्ण दशमी को विमलनाथ, पौष शुक्ल एकादशी को शान्तिनाथ, पौष शुक्ल चतुर्दशी को अजितनाथ, पौष शुक्ल पूर्णिमा को अभिनन्दन और धर्मनाथ, माघकृष्ण अमावस को श्रेयांसनाथ और माघ शुक्ल द्वितीया को वासुपूज्य भगवान् केवलज्ञान को प्राप्त हुए थे।।२५७-२६५।।
माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन वृषभनाथ का, फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी के दिन पद्मप्रभ का, फाल्गुन कृष्ण षष्ठी के दिन सुपार्श्वनाथ का, फाल्गुन कृष्ण द्वादशी के दिन मुनिसुव्रतनाथ का, फाल्गुन शुक्ल पंचमी के दिन मल्लिनाथ और श्री वासुपूज्य का निर्वाण हुआ है। चैत्र की अमावस्या निर्वाण को प्राप्त हुए अनन्तनाथ और अरनाथ जिनेन्द्र के द्वारा पवित्र की गयी है। चैत्र शुक्ल पंचमी के दिन अजितनाथ, चैत्र शुक्ल षष्ठी के दिन सम्भवनाथ और चैत्र शुक्ल दशमी के दिन इन्द्रों के समूह से स्तुत सुमतिनाथ निर्वाण को प्राप्त हुए हैं।।२६६-२६९।। वैशाख कृष्ण चतुर्दशी को नमिनाथ भगवान, वैशाख शुक्ल प्रतिपदा को कुन्थुनाथ ने और वैशाख शुक्ल सप्तमी को अभिनन्दननाथ ने अपने निर्वाण से पवित्र किया है।।२७०।। ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी शान्तिनाथ भगवान् की, ज्येष्ठ शुक्ल चतुर्थी धर्मनाथ की, आषाढ़ कृष्ण अष्टमी विमलनाथ की और आषाढ़ शुक्ल अष्टमी नेमिनाथ भगवान् की निर्वाण तिथि मानी जाती है।।२७१-२७२।। श्रावण शुक्ल सप्तमी को पार्श्वनाथ का और श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को धनिष्ठा नक्षत्र में श्रेयांसनाथ का निर्वाण हुआ है।।२७३।।
भाद्रपद शुक्ल सप्तमी को चन्द्रप्रभ, भाद्रपद शुक्ल अष्टमी को पुष्पदन्त और आश्विन शुक्ल पंचमी को शीतलनाथ निर्वाण को प्राप्त हुए हैं एवं कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को श्री भगवान् महावीर का निर्वाण निश्चित है।।२७४-२७५।।
वृषभनाथ, अजितनाथ, श्रेयांसनाथ, शीतलनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, सुपार्श्वनाथ और चन्द्रप्रभ ये पूर्वाह्नकाल में, सम्भवनाथ, पद्मप्रभ, संसार—भ्रमण का अन्त करने वाले पुष्पदन्त और वासुपूज्य ये अपराह्नकाल में सिद्ध हुए हैं।।२७६-२७७।। विमलनाथ, अनन्तनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, नेमिनाथ और पार्श्वनाथ की सायंकाल में मुक्ति जानना चाहिए।।२७८।। और अष्ट प्रकार के कर्मों को नष्ट करने वाले धर्मनाथ, अरनाथ, नमिनाथ और महावीर जिनेन्द्र की प्रात:काल में सिद्धि कही गयी है।।२७९।।
भगवान् वृषभनाथ, वासुपूज्य और नेमिनाथ पर्यंक आसन से तथा शेष तीर्थंकर कायोत्सर्ग आसन से स्थित ही मोक्ष गये हैं।।२८०।।
आदि जिनेन्द्र भगवान् वृषभदेव, मुक्ति के पूर्व चौदह दिन तक विहार को संकोचकर मोक्ष हो गये हैं। भगवान् महावीर दो दिन और शेष तीर्थंकर एक मास पूर्व विहार बन्द कर मोक्षगामी हुए हैं।।२८१।।
महावीर भगवान् का एकाकी—अकेले का, पार्श्वनाथ का छब्बीस मुनियों के साथ, नेमिनाथ का पाँच सौ छत्तीस मुनियों के साथ निर्वाण हुआ है।।२८२।। मल्लिनाथ पाँच सौ, शान्तिनाथ नौ सौ, धर्मनाथ आठ सौ एक, वासुपूज्य छह सौ एक, विमलनाथ छह हजार, अनन्तनाथ सात हजार, सुपार्श्वनाथ पाँच सौ, पद्मप्रभ तीन हजार आठ सौ, वृषभनाथ दश हजार और शेष तीर्थंकर एक–एक हजार मुनियों के साथ मोक्ष को प्राप्त हुए हैं।।२८३-२८५।।
भरत, सगर, मघवा, सनत्कुमार, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, सुभौम, महापद्म, हरिषेण, जय और ब्रह्मदत्त ये बारह चक्रवर्ती छह खण्डों के स्वामी हुए।।२८६-२८७।। त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयम्भू, पुरुषोत्तम, पुरुषिंसह, पुरुष पुण्डरीक, (पुण्डरीक) दत्त, नारायण (लक्ष्मण) और कृष्ण ये नौ वासुदेव कहे गये हैं। ये तीन खण्ड क्षेत्र के स्वामी होते हैं तथा इनका पराक्रम दूसरों के द्वारा खण्डित नहीं होता।।२८८-२८९।।
विजय, अचल, सुधर्म, सुप्रभ, सुदर्शन, नान्दी, नन्दिमित्र, राम और पद्म ये नौ बलभद्र हैं।।२९०।। अश्वग्रीव, पृथिवी में प्रसिद्ध तारक, मेरुक, निशुम्भ, सुशोभित कमल के समान मुखवाला मधुवैâटभ, बलि, प्रहरण, विद्याधर वंशज रावण और भूमिगोचरी जरासन्ध ये नौ प्रतिनारायण हैं।।२९१-२९२।। बलभद्र ऊर्ध्वगामी—स्वर्ग अथवा मोक्षगामी होते हैं तथा भवान्तर में कोई निदान नहीं बांधते और नारायण अधोगामी होते हैं एवं भवान्तर में निदान बाँधते हैं।।२९३।।
चक्रवर्ती भरत वृषभनाथ के समय में हुए, सगर चक्रवर्ती अजितनाथ के काल में हुए, मघवा और सनत्कुमार धर्मनाथ तथा शान्तिनाथ के अन्तराल में हुए। शान्ति, कुन्थु और अरनाथ चक्रवर्ती का काल अपना—अपना अन्तराल काल है। सुभौम चक्रवर्ती अरनाथ और मल्लिनाथ के अन्तराल में हुए, महापद्म चक्रवर्ती मल्लिनाथ और मुनिसुव्रतनाथ के अन्तराल में हुए, हरिषेण चक्रवर्ती मुनिसुव्रत और नमिनाथ के अन्तराल में हुए, जयसेन चक्रवर्ती नमिनाथ, नेमिनाथ के अन्तर में हुए और ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती नेमिनाथ तथा पार्श्वनाथ जिनेन्द्र के अन्तराल में हुए हैं।।२९४-२९६।। इन बारह चक्रवर्तियों में आठ को मुक्ति प्राप्त हुई है, ब्रह्मदत्त और सुभौम सातवीं पृथिवी गये हैं तथा मघवा और सनत्कुमार तीसरे स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं।।२९७।।
त्रिपृष्ठ से लेकर पुरुषिंसह तक के पाँच नारायणों ने श्रेयांसनाथ से लेकर धर्मनाथ तक के पाँच तीर्थंकरों के अन्तराल काल को बलभद्रों के साथ देखा है अर्थात् त्रिपृष्ठादि पाँच नारायण और विजय आदि पाँच बलभद्र श्रेयांसनाथ से लेकर धर्मनाथ तक के अन्तराल में हुए हैं। पुण्डरीक नारायण अरनाथ और मल्लिनाथ के अन्तराल में, दत्त नारायण मल्लिनाथ और मुनिसुव्रतनाथ के अन्तराल में, नारायण (लक्ष्मण), मुनिसुव्रतनाथ और नमिनाथ के अन्तराल में हुए हैं और कृष्ण पद्म बलभद्र के साथ नेमिनाथ की वन्दना करने वाले प्रत्यक्ष विद्यमान हैं ही।।२९८-३०१।। इन नारायणों में प्रथम नारायण त्रिपृष्ठ सातवीं पृथिवी गए। दूसरे से लेकर छठे तक पाँच नारायण छठी पृथिवी गये। सातवें पाँचवीं पृथिवी गए और आठवें तीसरी पृथिवी गये और नौवें भी तीसरी पृथिवी जायेंगे।।३०२।।
प्रारम्भ के आठ बलभद्रों ने तप के माहात्म्य से मुक्ति प्राप्त की है और अन्तिम बलभद्र पाँचवें ब्रह्म स्वर्ग जायेंगे। यह वहाँ से आकर जब कृष्ण तीर्थंकर होंगे तब उसके तीर्थ में सिद्ध होंगे—मोक्ष प्राप्त करेंगे।।३०३।।
वृषभ जिनेन्द्र के शरीर की ऊँचाई पाँच सौ धनुष थी, फिर आठ तीर्थंकरों की ऊँचाई पचास—पचास धनुष कम होती गयी। उसके बाद तीर्थंकरों की दस—दस धनुष कम हुई। तदनन्तर आठ तीर्थंकरों की पाँच—पाँच धनुष कम हुई।।३०४।। पार्श्वनाथ की नौ हाथ और महावीर की सात हाथ ऊँचाई होगी। इस प्रकार क्रम से तीर्थंकरों की ऊँचाई जानना चाहिए।।३०५।।
प्रथम चक्रवर्ती की ऊँचाई पाँच सौ धनुष, दूसरे सगर चक्रवर्ती की साढ़े चार सौ धनुष, तीसरे की साढ़े बयालीस धनुष, चौथे की साढ़े इकतालीस धनुष, पाँचवें की चालीस धनुष, छठे की पैंतीस धनुष, सातवें की तीस धनुष, आठवें की अट्ठाईस धनुष, नौवें महापद्म की बाईस धनुष, दशवें की बीस धनुष, ग्यारहवें की चौदह धनुष और बारहवें की सात धनुष थी। इस प्रकार चक्रवर्तियों की ऊँचाई का वर्णन किया।।३०६-३०९।।
अस्सी, सत्तर, साठ, पचपन, चालीस, छब्बीस, बाईस, सोलह और दश धनुष यह क्रम से नारायण, बलभद्र और प्रतिनारायणों की ऊँचाई है।।३१०-३११।।
प्रारम्भ से लेकर दशवें तीर्थंकर तक की आयु क्रम से चौरासी लाख पूर्व, बहत्तर लाख पूर्व, साठ लाख पूर्व, चालीस लाख पूर्व, तीस लाख पूर्व, बीस लाख पूर्व, दश लाख पूर्व, दो लाख पूर्व और एक लाख पूर्व आयु कही गयी है।।३१२-३१३।।
तदनन्तर श्रेयांसनाथ से लेकर महावीर पर्यंत की आयु क्रम से चौरासी लाख वर्ष, बहत्तर लाख वर्ष, साठ लाख वर्ष, तीस लाख वर्ष, दश लाख वर्ष, एक लाख वर्ष, पंचानवें हजार वर्ष, चौरासी हजार वर्ष, पचपन हजार वर्ष, तीस हजार वर्ष, दश हजार वर्ष, एक हजार वर्ष, सौ वर्ष और बहत्तर वर्ष की है। इस प्रकार क्रम से तीर्थंकरों की आयु कही। यह तुम्हारी आयु वृद्धि करे।।३१४-३१६।।
चौरासी लाख पूर्व, बहत्तर लाख पूर्व, पाँच लाख, तीन लाख, एक लाख, पंचानवें हजार, चौरासी हजार, अड़सठ हजार, तीस हजार, छब्बीस हजार, तीन हजार और सात सौ वर्ष यह क्रम से चक्रवर्तियों की आयु का प्रमाण कहा गया है।।३१७-३१९।।
चौरासी लाख, बहत्तर लाख, साठ लाख, तीस लाख, दश लाख, पैंसठ हजार, बत्तीस हजार, बारह हजार और एक हजार वर्ष यह क्रम से नौ नारायणों की आयु का प्रमाण विद्वानों के द्वारा माना गया है।।३२०-३२१।।
सत्तासी लाख, सत्तर लाख, सड़सठ लाख, पैंतीस लाख, दश लाख, साठ हजार, तीस हजार, सत्रह हजार और बारह सौ वर्ष यह क्रम से बलभद्रों की आयु है।।३२२-३२३।। तीर्थंकरों के काल में चक्रवर्ती तथा नारायणों का क्रम जानने के लिए चौंतीस कोण का एक यंत्र बनाना चाहिए। उसके नीचे चौंतीस—चौंतीस कोठा के दो यन्त्र और बनाना चाहिए। ऊपर के यन्त्र में तीर्थंकरों का, बीच के यन्त्र में चक्रवर्तियों का और नीचे के यन्त्र में नारायणों का विन्यास करे। यन्त्र में तीर्थंकरों के लिए एक का अंक, चक्रवर्तियों के लिए दो का अंक और नारायणों के लिए तीन का अंक प्रयुक्त किया जाता है। ऊपर के यन्त्र में ऋषभनाथ से लेकर धर्मनाथ तक पन्द्रह तीर्थंकरों का क्रम से विन्यास करना चाहिए अर्थात् प्रारम्भ से लेकर पन्द्रह खानों में एक—एक लिखना चाहिए। उसके बाद दो शून्य, फिर तीन तीर्थंकर, फिर दो शून्य, फिर एक तीर्थंकर, फिर दो शून्य, फिर एक तीर्थंकर, फिर दो शून्य, फिर एक तीर्थंकर, फिर एक शून्य, फिर एक तीर्थंकर, फिर एक शून्य और फिर लगातार दो तीर्थंकर इस प्रकार तीर्थंकरों का विन्यास करना चाहिए। तदनन्तर नीचे के यन्त्र में भरत आदि दो चक्रवर्ती, फिर तेरह शून्य, फिर छह चक्रवर्ती, फिर तीन शून्य, फिर एक चक्रवर्ती, फिर एक शून्य, फिर एक चक्रवर्ती, फिर दो शून्य, फिर एक चक्रवर्ती , फिर एक शून्य, फिर एक चक्रवर्ती और फिर दो शून्य इस प्रकार चक्रवर्तियों का क्रम से विन्यास करे। तदनन्तर नीचे के यन्त्र में प्रारम्भ में दश शून्य, फिर त्रिपृष्ठ आदि पाँच नारायण, फिर छह शून्य, फिर एक नारायण, फिर एक शून्य, फिर एक नारायण, फिर तीन शून्य, फिर एक नारायण, फिर दो शून्य, फिर एक नारायण और फिर तीन शून्य इस प्रकार क्रम से नारायणों का विन्यास करे। इसकी संदृष्टि इस प्रकार है—
१ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ ० ० १ १ १ ० ० १ ० ० १ ० ० १ ० १ ० १ १
२ २ ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० २ २ २ २ २ २ ० ० ० २ ० २ ० ० २ ० २ ० ०
० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ३ ३ ३ ३ ३ ० ० ० ० ० ० ३ ० ३ ० ० ० ३ ० ० ३ ० ० ०
भावार्थ—भरत चक्रवर्ती वृषभनाथ के समक्ष, सगर चक्रवर्ती अजितेश्वर के समक्ष तथा मघवा और सनत्कुमार ये दो चक्रवर्ती, धर्मनाथ और शान्तिनाथ के अन्तराल में हुए हैं। शान्ति, कुन्थु और अर ये तीन स्वयं तीर्थंकर तथा चक्रवर्ती हुए हैं। सुभौम चक्रवर्ती अरनाथ और मल्लिनाथ के अन्तराल में, पद्म चक्रवर्ती, मल्लि और मुनिसुव्रत के अन्तराल में, हरिषेण चक्रवर्ती मुनिसुव्रत और नमिनाथ के अन्तराल में, जयसेन चक्रवर्ती नमिनाथ और नेमिनाथ के अन्तराल में तथा ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती नेमिनाथ और पार्श्वनाथ के अन्तराल में हुए हैं। यहाँ जो चक्रवर्ती तीर्थंकरों के समक्ष न होकर अन्तराल में हुए हैं उनके ऊपर तीर्थंकरों के कोष्ठक में शून्य रखे गये हैं और जो तीर्थंकरों के समक्ष हुए हैं उनके ऊपर तीर्थंकरों के कोष्ठक में एक लिखा गया है। जिन तीर्थंकरों के समक्ष चक्रवर्ती हुए हैं उनके नीचे चक्रवर्ती के कोष्ठक में दो का अंक लिखा गया है और जिनके समक्ष अभाव रहा है उनके नीचे शून्य रखा गया है। इसी प्रकार नारायणों के विषय में जानना चाहिए अर्थात् पहले से लेकर दशम तीर्थंकर तक तो कोई भी नारायण नहीं हुआ पश्चात् ग्यारहवें से पन्द्रहवें तक पाँच नारायण हुए। तदनन्तर अर और मल्लिनाथ के अन्तराल में, मल्लि और मुनिसुव्रत के अन्तराल में, मुनिसुव्रत और नमिनाथ के अन्तराल में और नेमिनाथ के समय में नारायण हुए। जहाँ नारायणों का अभाव है वहाँ कोष्ठकों में शून्य और जहाँ सद्भाव है, वहाँ तीन का अंक लिखा गया है।।३१९-३२९।।
भगवान् वृषभदेव की आयु चौरासी लाख पूर्व की थी। उसका एक चतुर्थ भाग अर्थात् बीस लाख पूर्व का कुमारकाल था। शेष संयम के काल को घटाकर जो बचता है वह राज्यकाल था। भावार्थ—भगवान् वृषभदेव ने बीस लाख पूर्व कुमारकाल बिताया, त्रेसठ लाख पूर्व राज्य किया, एक हजार वर्ष तप किया और एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व केवलीकाल व्यतीत किया।।३३०।।
अजितनाथ से लेकर अठारहवें अरनाथ तक तीर्थंकरों की जो पूर्ण आयु थी उसका एक चतुर्थ भाग कुमारकाल था और पूर्ण आयु में से कुमारकाल छोड़ देने पर जो शेष रहता है वह उनके राज्य तथा संयम का काल था। (अन्तिम छह तीर्थंकरों का कुमारकाल क्रम से सौ वर्ष, साढ़े सात हजार वर्ष, अढ़ाई हजार वर्ष, तीन सौ वर्ष, तीस वर्ष और तीस वर्ष था)।।३३१।। वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर ये पाँच तीर्थंकर बाल—ब्रह्मचारी तीर्थंकर थे, इसलिए इनकी आयु का जो काल था उसमें संयम का काल कम देने पर उनका कुमारकाल कहा जाता है।।३३२।।
श्री वृषभनाथ भगवान् का संयमकाल एक लाख पूर्व था। अजितनाथ का एक पूर्वांग कम एक लाख पूर्व, संभवनाथ का चार पूर्वांग कम एक लाख पूर्व, अभिनन्दननाथ का आठ पूर्वांग कम एक लाख पूर्व, सुमतिनाथ का बाहर पूर्वांग कम एक लाख पूर्व, पद्मप्रभ का सोलह पूर्वांग कम एक लाख पूर्व, सुपार्श्वनाथ का बीस पूर्वांग कम एक लाख पूर्व, चन्द्रप्रभ का चौबीस पूर्वांग कम, पुष्पदन्त का अट्ठाईस पूर्वांग कम, वासुपूज्य का पूर्ण आयु का तीन चौथाई भाग, (चौवन लाख वर्ष) मल्लिनाथ का सौ वर्ष कम पूर्ण आयु (सौ वर्ष कम पचपन हजार वर्ष), नेमिनाथ का तीन सौ वर्ष कम पूर्ण आयु (सात सौ वर्ष), पार्श्वनाथ का तीस वर्ष कम पूर्ण आयु (सत्तर वर्ष), महावीर का तीस वर्ष कम बहत्तर वर्ष (बयालीस वर्ष) और शेष दस्ा तीर्थंकरों का अपनी आयु का एक चौथाई भाग संयमकाल था। समस्त तीर्थंकरों का यह संयमकाल छद्मस्थ काल और केवलिकाल की अपेक्षा दो प्रकार का है।।३३३-३३६।। वृषभनाथ का छद्मस्थ काल एक हजार वर्ष, अजितनाथ का बारह वर्ष, सम्भवनाथ का चौदह वर्ष, अभिनन्दननाथ का अठारह वर्ष, सुमतिनाथ का बीस वर्ष, पद्मप्रभ का छह मास, सुपार्श्वनाथ का नौ वर्ष, चन्द्रप्रभ का तीन मास, पुष्पदन्तनाथ का चार मास, शीतलनाथ का तीन मास, श्रेयांसनाथ का दो मास, वासुपूज्यनाथ का एक मास, विमलनाथ का तीन मास, अनन्तनाथ का दो मास, धर्मनाथ का एक मास, शान्ति, कुन्थु और अरनाथ का सोलह—सोलह वर्ष, मल्लिनाथ का छह दिन, मुनिसुव्रतनाथ का ग्यारह मास, नमिनाथ का नौ वर्ष, नेमिनाथ का छप्पन दिन, पार्श्वनाथ का चार मास और महावीर का बारह वर्ष है। इस छद्मस्थ काल के बाद सभी तीर्थंकर केवली हुए हैं।।३३७-३४०।।
भगवान् ऋषभदेव के चौरासी गणधर थे, अजितनाथ के नब्बे, सम्भवनाथ के एक सौ पाँच, अभिनन्दननाथ के एक सौ तीन, सुमतिनाथ के एक सौ सोलह, पद्मप्रभ के एक सौ ग्यारह, सुपार्श्वनाथ के पंचानबे, चन्द्रप्रभ के तेरानबे, पुष्पदन्त के अठासी, शीतलनाथ के इक्यासी, श्रेयांसनाथ के सतहत्तर, वासुपूज्य के छ्यासठ, विमलनाथ के पचपन, अनन्तनाथ के पचास, धर्मनाथ के तैंतालीस, शान्तिनाथ के छत्तीस, कुन्थुनाथ के पैंतीस, अरनाथ के तीस, मल्लिनाथ के अट्ठाईस, मुनिसुव्रतनाथ के अठारह, नमिनाथ के सत्तरह, नेमिनाथ के ग्यारह, पार्श्वनाथ के दस और महावीर स्वामी के ग्यारह गणधर थे।।३४१-३४५।।
आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के प्रथम गणधर वृषभसेन, अजितनाथ के िंसहसेन, सम्भवनाथ के चारुदत्त, अभिनन्दन के वङ्का, सुमतिनाथ के चमर, पद्मप्रभ के वङ्काचमर, सुपार्श्वनाथ के बलि, चन्द्रप्रभ के दत्तक, पुष्पदन्त के वैदर्भ, शीतलनाथ के अनगार, श्रेयांसनाथ के कुन्थू, वासुपूज्य के सुधर्म, विमलनाथ के मन्दरार्य, अनन्तनाथ के जय, धर्मनाथ के अरिष्टसेन, शान्तिनाथ के चक्रायुध, कुन्थुनाथ के स्वयम्भू, अरनाथ के कुन्थु, मल्लिनाथ के विशाख, मुनिसुव्रत के मल्लि, नमिनाथ के सोमक, नेमिनाथ के वरदत्त, पार्श्वनाथ के स्वयंभू और महावीर के इन्द्रभूति थे। ये सभी गणधर सात ऋद्धियों से युक्त तथा समस्त शास्त्रों के पारगामी थे।।३४६-३४९।।
भगवान् महावीर ने अकेले ही दीक्षा ली थी अर्थात् उनके साथ किसी ने दीक्षा नहीं ली थी। मल्लिनाथ और पार्श्वनाथ ने तीन—तीन सौ राजाओं के साथ, वासुपूज्य ने छह सौ छह राजाओं के साथ, वृषभनाथ ने चार हजार राजाओं के साथ और शेष तीर्थंकरों ने एक एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ली थी।।३५०-३५१।।
भगवान् ऋषभदेव के समस्त गणों—मुनियों की संख्या चौरासी हजार थी। अजितनाथ की एक लाख, सम्भवनाथ की दो लाख, अभिनन्दननाथ की तीन लाख, सुमतिनाथ की तीन लाख बीस हजार, पद्मप्रभ की तीन लाख तीस हजार, सुपार्श्वनाथ की तीन लाख, चन्द्रप्रभ की अढ़ाई लाख, पुष्पदन्त की दो लाख, शीतलनाथ की एक लाख, श्रेयांसनाथ की चौरासी हजार, वासुपूज्य की बहत्तर हजार, विमलनाथ की अड़सठ हजार, अनन्तनाथ की छ्यासठ हजार, धर्मनाथ की चौंसठ हजार शांतिनाथ की बासठ हजार, कुन्थुनाथ की साठ हजार, अरनाथ की पचास हजार, मल्लिनाथ की चालीस हजार, मुनिसुव्रतनाथ की तीस हजार, नमिनाथ की बीस हजार, नेमिनाथ की अठारह हजार, पार्श्वनाथ की सोलह हजार और महावीर की चौदह हजार संख्या थी।।३५२-३५६।।
तीर्थंकर भगवान् का यह संघ—१. पूर्वधर, २. शिक्षक, ३. अवधिज्ञानी, ४. केवलज्ञानी, ५. वादी, ६. विक्रियाऋद्धि के धारक और ७. विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान के धारक के भेद से सात प्रकार का होता है।।३५७।। भगवान् ऋषभदेव के समवसरण में चार हजार सात सौ पचास पूर्वधारी, चार हजार एक सौ पचास शिक्षक, नौ हजार अवधिज्ञानी, बीस हजार सत्पुरुषों के द्वारा पूजनीय केवली, बीस हजार छह सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक, बारह हजार सात सौ पचास विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी और इतने ही वादी थे।।३५८-३६१।।
अजितनाथ के समवसरण में समीचीन सभ्य पुरुषों के द्वारा सेवनीय तीन हजार सात सौ पचास पूर्वधारी, इक्कीस हजार छह सौ शिक्षक, नौ हजार चार सौ अवधिज्ञानी, बीस हजार केवली, बीस हजार चार सौ पचास विक्रिया ऋद्धि के धारक, बारह हजार चार सौ विपुलमति ज्ञान के धारक और इतने ही वादी थे।।३६२-३६५।।
सम्भवनाथ के समवसरण में दो हजार एक सौ पचास पूर्वों के सद्भाव का निरूपण करने वाले पूजनीय पूर्वधारी जानने योग्य हैं।।३६६।। एक लाख उनतीस हजार तीन सौ शिक्षक साधुओं की संख्या स्मरण की गयी है।।३६७।। नौ हजार छह सौ अवधिज्ञानी माने गये हैं, पन्द्रह हजार केवलज्ञानी स्मृत किये गये हैं।।३६८।। उन्नीस हजार आठ सौ पचास विक्रिया शक्ति को धारण करने वाले वैक्रिय साधु थे। बारह हजार विपुलमति ज्ञान के धारक थे और बारह हजार एक सौ वादी मुनि थे।।३६९।।
अभिनन्दननाथ के समवसरण में दो हजार पाँच सौ पूर्व के धारक, दो लाख तीस हजार पचास शिक्षक, नौ हजार आठ सौ अवधिज्ञानी, सोलह हजार केवलज्ञानी, उन्नीस हजार विक्रिया ऋद्धि के धारक, ग्यारह हजार छह सौ पचास विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी और भव्य जीवों को हित का उपदेश देने वाले उतने ही वादी थे।।३७०-३७४।।
सुमतिनाथ के समवसरण में दो हजार चार सौ पूर्वधारी, दो लाख चौवन हजार तीन सौ पचास शिक्षक, ग्यारह हजार निर्मल अवधिज्ञानी, तेरह हजार केवलज्ञानी, अठारह हजार चार सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक, उतने ही विपुलमति मन:पर्ययज्ञान के धारक और उनसे पचास अधिक अर्थात् दश हजार चार सौ पचास वादी थे।।३७५-३७८।।
पद्मप्रभ के समवसरण में दो हजार तीन सौ पूर्वधारी, दो लाख उनहत्तर हजार शिक्षक, इस हजार अवधिज्ञानी, बारह हजार आठ सौ केवलज्ञानी, सोलह हजार तीन सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक, नौ हजार वादी और दस हजार छह सौ विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी थे।।३७९-३८१।।
सुपार्श्वनाथ के समवसरण में दो हजार तीस पूर्वधारी, दो लाख चवालिस हजार नौ सौ बीस शिक्षक, नौ हजार अवधिज्ञानी, ग्यारह हजार तीन सौ केवली, पन्द्रह हजार एक सौ पचास विक्रिया ऋद्धि के धारक, नौ हजार छह सौ विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी और आठ हजार वादी थे।
चन्द्रप्रभ के समवसरण में दो हजार पूर्वधारी, दो लाख चार सौ शिक्षक, आठ हजार विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी, आठ हजार अवधिज्ञानी, दस हजार केवलज्ञानी, दस हजार चार सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक और सात हजार छह सौ वादी थे।
सुविधिनाथ के समवसरण में पांच हजार पूर्वधारी, एक लाख पचपन हजार पाँच सौ शिक्षक, आठ हजार चार सौ अवधिज्ञानी, सात हजार पाँच सौ केवलज्ञानी, तेरह हजार विक्रिया ऋद्धि के धारक, छह हजार पाँच सौ विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी और सात हजार छह सौ वादी थे।।३८२-३९०।।
शीतलनाथ के समवसरण में एक हजार चार सौ पूर्ववेदी, उनसठ हजार दो सौ शिक्षक, सात हजार दो सौ अवधिज्ञानी, सात हजार केवलज्ञानी, बारह हजार विक्रिया ऋद्धि के धारक, सात हजार पाँच सौ विपुलमतिज्ञान के स्वामी और पाँच हजार सात सौ उत्तम वादी थे।।३९१-३९३।।
श्रेयांसनाथ के समवसरण में तेरह सौ पूर्वधारी, अड़तालीस हजार दो सौ शिक्षक, छह हजार अवधिज्ञानी, छह हजार पाँच सौ केवलज्ञानी, ग्यारह हजार विक्रिया ऋद्धि के धारक, छह हजार विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी और पाँच हजार वादी थे।
वासुपूज्य के समवसरण में बारह सौ पूर्वधारी, उनतालीस हजार दो सौ शिक्षक, पाँच हजार चार सौ अवधिज्ञानी, छह हजार केवलज्ञानी, दस हजार विक्रिया ऋद्धि के धारक, छह हजार विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी और चार हजार दो सौ वादी थे।।३९४-३९८।।
विमलनाथ के ग्यारह सौ पूर्वधारी, अड़तीस हजार पाँच सौ शिक्षक, चार हजार साठ सौ अवधिज्ञानी, पाँच हजार पाँच सौ केवली, नौ हजार विक्रिया ऋद्धि के धारक, नौ हजार विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी और तीन हजार छह सौ वादी निश्चित थे।।३९९-४०१।।
अनन्तनाथ के समवसरण में एक हजार पूर्वधारी, उनतालीस हजार पाँच सौ शिक्षक, चार हजार तीन सौ अवधिज्ञानी, पाँच हजार केवलज्ञानी, आठ हजार विक्रिया ऋद्धि के धारक और तीन हजार दो सौ वादी थे।।४०२-४०३।।
धर्मनाथ के समवसरण में नौ सौ पूर्वधारी, चालीस हजार सात सौ शिक्षक, तीन हजार छह सौ अवधिज्ञानी, चार हजार पाँच सौ केवलज्ञानी, सात हजार विक्रिया ऋद्धि के धारक, चार हजार पाँच सौ विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी और दो हजार सौ वादी थे।।४०४-४०६।।
शान्तिनाथ के समवसरण में आठ सौ पूर्वधारी, इकतालीस हजार आठ सौ शिक्षक, तीन हजार अवधिज्ञानी, चार हजार केवलज्ञानी, छह हजार विक्रिया ऋद्धि के धारक, चार हजार विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी और दो हजार चार सौ वादी थे।
कुन्थुनाथ के समवसरण में सात सौ पूर्वधारी, तैंतालीस हजार एक सौ पचास शिक्षक, दो हजार पाँच सौ अवधिज्ञानी, तीन हजार दो सौ केवली, पाँच हजार एक सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक, तीन हजार तीन सौ पचास विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी और दो हजार वादों को जीतने वाले वादी थे।।४०७-४११।।
अरनाथ के समवसरण में छह सौ दस पूर्वधारी, पैंतीस हजार आठ सौ पैंतीस शिक्षक, दो हजार आठ सौ अवधिज्ञानी, इतने ही केवलज्ञानी, चार हजार तीन सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक, दो हजार पचपन विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी और सोलह सौ उत्तम वाद करने वाले वादी थे।
मल्लिनाथ के समवसरण में सात सौ पचास पूर्वधारी, उनतीस हजार शिक्षक, बाईस सौ अवधिज्ञानी, दो हजार छह सौ पचास केवलज्ञानी, एक हजार चार सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक, दो हजार दो सौ विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी और उतने ही प्रतिवादियों को जीतने वाले वादी थे।।४१२-४१८।।
मुनिसुव्रतनाथ के समवसरण में पाँच सौ पूर्वधारी, इक्कीस हजार शिक्षा से युक्त शिक्षक, अठारह सौ अवधिज्ञानी, अठारह सौ केवलज्ञानी, बाईस सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक, पन्द्रह सौ विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी और बारह सौ वादी थे।।४१९-४२०।।
नमिनाथ के समवसरण में चार सौ पचास पूर्वधारी, बारह हजार छह सौ शिक्षक, सोलह सौ अवधिज्ञानी, सोलह सौ केवलज्ञानी, पन्द्रह सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक, बारह सौ पचास विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी और एक हजार प्रतिवादियों से रहित वादी थे।।४२१-४२३।।
नेमिनाथ के समवसरण में चार सौ पूर्वधारी, ग्यारह हजार आठ सौ शिक्षक, एक हजार पाँच सौ अवधिज्ञानी, एक हजार पाँच सौ केवली, एक हजार एक सौ शुभविक्रिया करने वाले विक्रिया ऋद्धि के धारक, नौ सौ पचास विपुलमति मन:पर्ययज्ञान के धारक और आठ सौ अनुपम प्रतिभा से युक्त वादी थे।।४२४-४२५।।
पार्श्वनाथ के समवसरण में तीन सौ पचास पूर्वधारी, दस हजार नौ सौ शिक्षक, एक हजार चार सौ निर्मल अवधिज्ञान के धारक, एक हजार केवलज्ञानी, एक हजार विक्रिया ऋद्धि के धारक, सात सौ पचास विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी और छह सौ वाद—विवाद में निपुण वादी थे।।४२७-४२९।।
और वर्धमान जिनेन्द्र के समवसरण में तीन सौ पूर्वधारी, नौ हजार नौ सौ शिक्षक, तेरह सौ अवधिज्ञानी, सात सौ केवलज्ञानी, नौ सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक, पाँच सौ विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी और चार सौ वादी कहे गये हैं।।४३०-४३१।।
भगवान् वृषभदेवके समवसरण में आर्यिकाएँ तीन लाख पचास हजार, अजितनाथ के समवसरण में तीन लाख बीस हजार, सम्भवनाथ के समवसरण में तीन लाख तीस हजार, अभिनन्दननाथ के समवसरण में तीन लाख तीस हजार, सुमतिनाथ के समवसरण में तीन लाख तीस हजार, पद्मप्रभ के समवसरण में हजारों किरणों के समान चार लाख बीस हजार, सुपार्श्वनाथ के समवसरण में तीन लाख तीस हजार, चन्द्रप्रभ के समवसरण में तीन लाख अस्सी हजार, पुष्पदन्त के समवसरण में तीन लाख अस्सी हजार, शीतलनाथ के समवसरण में तीन लाख अस्सी हजार, श्रेयांसनाथ के समवसरण में एक लाख बीस हजार१, वासुपूज्य के समवसरण में एक लाख छह हजार, विमलनाथ के समसरण में एक लाख तीन हजार, अनन्तनाथ के समवसरण में एक लाख आठ हजार, धर्मनाथ के समवसरण में बासठ हजार चार सौ, शान्तिनाथ के समवसरण में साठ हजार तीन सौ, कुन्थुनाथ के समवसरण में साठ हजार तीन सौ पचास, अरनाथ के समवसरण में साठ हजार, मल्लिनाथ के समवसरण में पचपन हजार, नमिनाथ के समवसरण में पैंतालीस हजार, नेमिनाथ के समवसरण में चालीस हजार, पार्श्वनाथ के समवसरण में अड़तीस हजार और चौबीसवें महावीर भगवान् के समवसरण में पैंतीस हजार आर्यिकाएँ मानी गयी हैं।।४३२-४४०।।
प्रारम्भ से लेकर आठ तीर्थंकरों के समवसरण में प्रत्येक के तीन—तीन लाख फिर आठ तीर्थंकरों के प्रत्येक के दो—दो लाख और तदनन्तर शेष आठ तीर्थंकरों के प्रत्येक के एक—एक लाख श्रावक थे।।४४१।।
इसी प्रकार प्रारम्भ के आठ तीर्थंकरों के समवसरण में प्रत्येक की पाँच—पाँच लाख, फिर आठ तीर्थंकरों की प्रत्येक की चार—चार लाख और तदनन्तर शेष आठ तीर्थंकरों की प्रत्येक की तीन—तीन लाख श्राविकाएँ थीं।।४४२।।
भगवान् वृषभनाथ के मोक्ष जाने वाले शिष्यों की संख्या साठ हजार नौ सौ, अजितनाथ के सत्तर हजार एक सौ, सम्भवनाथ के एक लाख सत्तर हजार एक सौ, अभिनन्दननाथ के दो लाख अस्सी हजार एक सौ, सुमतिनाथ के तीन लाख एक हजार छह सौ, पद्मप्रभ के तीन लाख तेरह हजार छह सौ२, चन्द्रप्रभ के दो लाख चौंतीस हजार, सुविधिनाथ के एक लाख उन्यासी हजार छह सौ, शीतलनाथ के अस्सी हजार छह सौ, श्रेयांसनाथ के पैंसठ हजार छह सौ, वासुपूज्य के चौवन हजार छह सौ, विमलनाथ के इक्यावन हजार तीन सौ, अनन्तनाथ के इक्यावन हजार, धर्मनाथ के उनचास हजार सात सौ, शान्तिनाथ के अड़तालीस हजार चार सौ, कुन्थुनाथ के छ्यालीस हजार आठ सौ, अरनाथ के सैंतीस हजार दो सौ, मल्लिनाथ के अट्ठाईस हजार आठ सौ, मुनिसुव्रतनाथ के उन्नीस हजार दो सौ, नमिनाथ के नौ हजार छह सौ, नेमिनाथ के आठ हजार, पार्श्वनाथ के छह हजार दो सौ और भगवान् महावीर के सात हजार दो सौ३ हैं।।४४३-४५३।।
किन्हीं आचार्यों का मत है कि—प्रारम्भ से लेकर सोलह तीर्थंकरों के शिष्य, जिस समय उन्हें केवलज्ञान हुआ था उसी समय सिद्धि को प्राप्त हो गये थे। तदनन्तर चार तीर्थंकरों के शिष्य क्रम से एक, दो, तीन और छह मास में सिद्धि को प्राप्त हुए और उनके बाद चार तीर्थंकरों के शिष्य एक, दो, तीन और चार वर्ष में सिद्धि को प्राप्त हुए।।४५४-४५५।।
प्रारम्भ से लेकर तीन तीर्थंकरों के बीस—बीस हजार, फिर पाँच तीर्थंकरों के बारह—बारह हजार, फिर पाँच तीर्थंकरों के ग्यारह—ग्यारह हजार, फिर पाँच तीर्थंकरों के दश—दश हजार, फिर पाँच तीर्थंकरों के अठासी—अठासी सौ और महावीर के छह हजार शिष्य अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाले हैं।।४५६।।
सौधर्म स्वर्ग से लेकर ऊर्ध्व ग्रैवेयक तक के विमानों में भगवान् वृषभदेव के तीन हजार एक सौ, अजितनाथ के उनतीस सौ, सम्भवनाथ के नौ हजार नौ सौ, अभिनन्दननाथ के सात हजार नौ सौ, सुमतिनाथ के छह हजार चार सौ, पद्मप्रभ के चार हजार चार सौ, सुपार्श्वनाथ के दो हजार चार सौ, चन्द्रप्रभ के चार हजार, पुष्पदन्त के नौ हजार चार सौ, शीतलनाथ के आठ हजार चार सौ, श्रेयांसनाथ के सात हजार चार सौ, वासुपूज्य के छह हजार चार सौ, विमलनाथ के पाँच हजार सात सौ, अनन्तनाथ के पाँच हजार, धर्मनाथ के चार हजार तीन सौ, शान्तिनाथ के तीन हजार छह सौ, कुन्थुनाथ के तीन हजार दो सौ, अरनाथ के दो हजार आठ सौ, मल्लिनाथ के दो हजार चार सौ, मुनिसुव्रतनाथ के दो हजार, नमिनाथ के एक हजार छह सौ, नेमिनाथ के एक हजार दो सौ, पार्श्वनाथ के एक हजार और महावीर स्वामी के आठ सौ शिष्य उत्पन्न हुए हैं।।४५७-४६६।।
पचास लाख करोड़, तीस लाख करोड़, दश लाख करोड़, नौ लाख करोड़, नब्बे हजार करोड़, नौ हजार करोड़, नौ सौ करोड़, नब्बे करोड़ और नौ करोड़ सागर यह क्रम से वृषभादि नौ तीर्थंकरों के मुक्त होने का अन्तराल है।।४६७-४६८।। छ्यासठ लाख छब्बीस हजार एक सौ कम एक करोड़ सागर प्रमाण दशवाँ अन्तर है अर्थात् शीतलनाथ भगवान् के मुक्ति जाने के बाद इतना समय बीत जाने पर श्रेयांसनाथ भगवान् मुक्ति गये।।४६९।। तदनन्तर चौवन, तीस, नौ, चार और पौन पल्य कम तीन हजार सागर यह वासुपूज्य से लेकर शान्ति जिनेन्द्र तक का अन्तरकाल है। तत्पश्चात् अर्धपल्य, एक हजार करोड़ वर्ष कम पाव पल्य, एक हजार करोड़, चौवन लाख, छह लाख, पाँच लाख, तेरासी हजार सात सौ पचास और अढ़ाई सौ वर्ष प्रमाण क्रम से कुन्थुनाथ से लेकर महावीर पर्यंन्त का अन्तर है।।४७०-४७२।।
महावीर भगवान् का तीर्थकाल इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण पाँचवाँ काल और इतना ही छठा काल इस प्रकार बयालीस हजार वर्ष प्रमाण है।।४७३।। आदि के आठ और अन्त के आठ इस प्रकार सोलह तीर्थ तो इस भरतक्षेत्र में अविच्छिन्न रूप से प्रवृत्त हुए परन्तु बीच के सात तीर्थ व्युच्छिन्न होकर पुन:—पुन: प्रवृत्त हुए।।४७४।। पाव पल्य, अर्ध पल्य, पौन पल्य, एक पल्य, पौन पल्य, अर्धपल्य और पाव पल्य, यह क्रम से व्युच्छिन्न तीर्थों के विच्छेदकाल का प्रमाण है। भावार्थ—वृषभदेव से लेकर पुष्पदन्त तक तो तीर्थ अविच्छिन्न रूप से चलते रहे, उसके बाद पुष्पदन्त के तीर्थ में जब पाव पल्य प्रमाण काल बाकी रह गया तब तीर्थ–धर्म का विच्छेद हो गया। तदनन्तर शीतलनाथ के केवली होने पर पुन: तीर्थ प्रारम्भ हुआ, इसी प्रकार धर्मनाथ पर्यन्त ऊपर लिखे अनुसार तीर्थ विच्छेद समझना चाहिए। शान्तिनाथ से लेकर महावीर पर्यन्त बीच में तीर्थ का विच्छेद नहीं है। महावीर का तीर्थ बयालीस हजार वर्ष तक चलेगा, उसके बाद विच्छिन्न हो जायेगा। तदनन्तर आगामी उत्सर्पिणी युग में जब प्रथम तीर्थंकर को केवलज्ञान होगा तब पुन: तीर्थ का प्रारम्भ होगा।।४७५।।
प्रारम्भ से लेकर सात तीर्थंकरों के तीर्थ में केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी निरन्तर विद्यमान रही। उसके पश्चात् चन्द्रप्रभ और पुष्पदन्त के तीर्थ में नब्बे—नब्बे, शीतलनाथ के तीर्थ में चौरासी, श्रेयांसनाथ के तीर्थ में बहत्तर, वासुपूज्य के तीर्थ में चौवालीस, फिर विमलनाथ से लेकर नेमिनाथ तक दश तीर्थंकरों के तीर्थ में चार—चार कम और अन्तिम दो तीर्थंकरों के तीर्थ में तीन—तीन केवली अनुबद्ध हुए हैं अर्थात् एक के मोक्ष जाने के बाद दूसरे को केवलज्ञान हो गया है।।४७६-४७८।।
महावीर स्वामी के केवलियों का काल बासठ वर्ष कहा गया है उसके बाद सौ वर्ष चौदह पूर्वधारियों का काल है, तदनन्तर एक सौ तेरासी वर्ष दश पूर्वधारियों का समय है, फिर दो सौ बीस वर्ष ग्यारह अंग के पाठियों का काल है और इसके बाद एक सौ अठारह वर्ष आचारांग के धारियों का काल कहा गया है। महावीर स्वामी के केवलियों की संख्या तीन, चौदह पूर्व के धारियों की संख्या पाँच, दश पूर्वधारियों की संख्या ग्यारह, ग्यारह अंग के धारियों की संख्या पाँच और आचारांग के पाठियों की संख्या चार है।।४७९-४८१।। महावीर भगवान् के गणधरों की आयु क्रम से बानबे वर्ष, चौबीस वर्ष, सत्तर वर्ष, अस्सी वर्ष, सौ बर्ष, तेरासी वर्ष, पंचानबे वर्ष, अठहत्तर वर्ष, बहत्तर वर्ष, साठ वर्ष और चालीस वर्ष है।।४८२-४८३।। छह कालों में से जब तृतीय काल में पल्य का आठवाँ भाग बाकी रहा था तब क्रम से चौदह कुलकरों और उनके बाद वृषभदेव का जन्म हुआ था। शेष तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों, बलभद्रों और नारायणों का जन्म चौथे काल में निश्चित है।।४८४-४८५।। जब तीसरे काल में तीन वर्ष साढ़े आठ माह बाकी रहे थे तब भगवान् ऋषभदेव का मोक्ष हुआ था और जब चौथे काल में तीन वर्ष साढ़े आठ माह शेष रहे थे तब महावीर का मोक्ष होगा।।४८६।।
विशेष—इस ‘अमृतवर्षिणी टीका’ में सभी दण्डकसूत्रों का विस्तृत विवेचन न करके किन्हीं-किन्हीं का ही विस्तृत विवेचन किया गया है। अत: इस विस्तृत विवेचन में प्राकृत सूत्रों का क्रम नहीं है। यह ध्यान में रखना है।