कर्मभूमि के आर्यखंड में, तीर्थंकर विहरे हैं। समवसरण के मध्य राजतें, भविजन पाप हरे हैं।। देश विदेहों में तीर्थंकर, समवसरण नित रहता। भरतैरावत में चौथे ही, काल में यह दिख सकता।।१।।
—दोहा—
जिनवर समवसरण यही, धर्म सभा की भूमि। मन वच तन से मैं नमूं , मिले आठवीं भूमि।।२।।
—नरेन्द्र छंद—
ऋषभदेव का समवसरण था, बारह योजन विस्तृत। धूलीसाल कोट से वेष्टित, ऋद्धि सिद्धि नवनिधि भृत।। धर्म सभा है गोल मनोहर, बारह गण से पूरित। सुरनर पशु सुनते दिव्यध्वनि, नमूं भक्ति से मैं नित।।१।।
अजितनाथ का समवसरण था, साढ़े ग्यारह योजन। नाम स्मरण मात्र से अब भी, करता पाप विमोचन।। मानस्तंभ आदि को वंदत, मान गलित हो जावे। जो जन वंदे मन वच तन से, स्वास्थ्य लाभ को पावें।।२।।
संभव जिन का समवसरण, जो ग्यारह योजन माना। गंधकुटी के मध्य जिनेश्वर, िंसहासन अमलाना।। बीस हजार सीढ़ियाँ चढ़कर, बाल वृद्ध रोगी जन। इक मुहूर्त में उन पर पहुँचे, यह अतिशय वंदे हम।।३।।
अभिनंदन जिन समवसरण है, साढ़े दश योजन का। रोग शोक दुख दारिद संकट, नाशे भव्य जनों का।। मैं नित वंदूं शीश नमाकर, आतम अनुभव पाऊँ। अजर अमर पद परम धाम पा, नहीं पुनर्भव पाऊँ।।४।।
सुमतिनाथ का समवसरण है, दश योजन कहलाया। भव्यों ने निज कुमति दूरकर, निज पर सुमति उपाया।। पूजा दान शील तप पालो, श्रावक धर्म सुनाया। पंच महाव्रत मुनि धर्म है, वंदूं मन वच काया।।५।।
पद्म प्रभु की कमल छवी है, चौंतिस अतिशय धारी। साढ़े नव योजन का शोभे, समवसरण सुखकारी।। कोट वेदिका लता भूमि, आदिक युत इंद्र बनावे। गणधर मुनिगण चक्रवर्ती गण, नमते शीश नमावें।।६।।
प्रभु सुपार्श्व का समवसरण है, नव योजन का सुन्दर। मानस्तंभ चार दिश में हैं, रचना करें पुरंदर।। भामंडल में दर्शक भविजन, सात निजी भव देखें। वंदूं ध्याऊँ जिनगुण गाऊँ, आत्मनिधी तब दीखे।।७।।
चंद्रप्रभु का समवसरण था, साढ़े आठ सुयोजन। चंद्रकिरण सम कांति मनोहर, हरती भव्यों का मन।। घातिकर्म हन केवलज्ञानी, त्रिभुवन सूर्य कहाये। चंद्रसूर्य सम सौम्य तेज हो, तुम गुणमणि को गायें।।८।।
पुष्पदंत का समवसरण है, योजन आठ कहाया। फिर भी असंख्यात भव्यों को, अपने मध्य समाया।। देव देवियां असंख्य रहते, नर पशु संख्यातें हैं। समवसरण की महिमा अनुपम, वंदत सुख पाते हैं।।९।।
शीतल जिनका समवसरण था, साढ़े सात सुयोजन। उन प्रभु का बस नाम स्मरण ही, कर देता शीतल मन।। देव देवियां गीत नृत्य से, जिनगुण गान उचरते। जो वंदे नित भक्ति भाव से, वे भव वारिधि तरते।।१०।।
श्री श्रेयांस का समवसरण था, योजन सात सुविस्तृत। इन्द्रनील मणि भूमि मनोहर, हरता सुर नर का चित।। पशु गण भी सब वैर छोड़कर, दिव्य ध्वनि को सुनते। दो त्रय भव में तर जाते हैं, मैं वंदूं तन मन से।।११।।
वासुपूज्य का लाल कमल सम, सुरभित तनु अतिसुंदर। समवसरण साढ़े छह योजन, इंद्र बना प्रभु िंककर।। प्रातिहार्य मंगल द्रव्यादिक, शोभे समवसरण में। चक्रवर्ति भी निज वैभव को, तुच्छ गिने उस क्षण में।।१२।।
विमलनाथ का समवसरण था, छह योजन गोलाकृति। चारों तरफ चार मुख प्रभु के, देख रहे सब जन इत।। वापी में जलभरा वहां जो, उसमें निज भव देखें। अतिशय प्रभु का कहा अनूपम, वंदत ही निज पेखें।।१३।।
समवसरण था अनंत जिनका, साढ़े पाँच सुयोजन। चैत्यभूमि के चैत्य वृक्ष में, जिन प्रतिमायें अनुपम।। सम्यग्दृष्टि प्रभु वंदन कर, भव अनंत हरते हैं। अनंतदर्शन ज्ञान प्राप्त हो, जो वंदन करते हैं।।१४।।
समवसरण श्री धर्मनाथ का, योजन पाँच कहाया। भविजन खेती को धर्मामृत, वर्षाकर हरसाया।। सागार रु अनगार धर्म दो, भेद रूप माना है। जिनवर समवसरण जो वंदे, पावें शिवथाना है।।१५।।
समवसरण था शांतिनाथ का, साढ़े चार सुयोजन। आत्यन्तिक सुख शांति हेतु, उन वाणी जन मनमोहन।। मिथ्यादृष्टी अभव्य जन प्रभु, दर्शन नहिं कर पावे। सम्यग्दृष्टी दर्शन करके, भवजलधी तर जावे।।१६।।
कुंथुनाथ का समवसरण था, योजन चार विख्याता। प्राणि मात्र पर दया करो सब, यह उपदेश सुनाता।। जहां प्रभू का श्रीविहार हो, रोग उपद्रव टलते। सब जन परमानंद प्राप्त कर, सुख से प्रभु को भजते।।१७।।
अर जिनवर का समवसरण था, साढ़े तीन सुयोजन। मोह अरी को जीत लिये तब, मिला विभव सर्वोत्तम।। ज्ञान दर्शनावरण रजों को, अन्तराय को नाशें। हम वंदें उन तीर्थंकर को, अंतर ज्योति प्रकाशें।।१८।।
मल्लिनाथ का समवसरण था, योजन तीन कहाया। कर्ममल्ल के विजयी प्रभु का, सुरनर मिल गुण गाया।। आर्यखंड में श्रीविहार से, क्षेत्र पवित्र कहाये। नाम लेत ही आपद टलती, शत्रु मित्र बन जायें।।१९।।
मुनिसुव्रत का समवसरण था, ढाई योजन सुन्दर। गणधर मुनिगण ऋषिगण सुरगण, नरगण पशुगण मनहर।। द्वादश सभा मध्य सब बैठे, निज निज के कोठे में। वंदन कर उपदेश श्रवण कर, निज आतम पोषें वे।।२०।।
नमि जिनवर का समवसरण था, दो योजन मन भाया। सरवर पुष्प वाटिका वापी, महलों से मन भाया।। नृत्य करें बहु देव अप्सरा, नाटक शालाओं में। वंदन से भव भ्रमण दूर हो, पाप नशें इक क्षण में।।२१।।
नेमिनाथ का समवसरण था, योजन डेढ़ बताया। वरदत्तादिक गणधर गुरु ने, सबको बोध कराया।। सभी आर्यिकाओं में मान्या, राजमती थीं गणिनी। उस अचिन्त्य वैभव को नमते, मिले स्वात्म निर्झरणी।।२२।।
पार्श्वनाथ का समवसरण था, एक कोश इक योजन। कमठ शत्रु ने भी वहँ आकर, किया वैर का मोचन।। पद्मावति धरणेंद्र भक्त प्रभु, संकट मोचन विश्रुत। िंचतामणि पारस की महिमा, कलियुग में भी अद्भुत।।२३।।
महावीर का समवसरण था, इक योजन अतिशायी। ढाई हजार वर्ष के पहले, सुरनर गण सुखदायी।। उन प्रभु की ध्वनि गौतम ने चुनि, आज मिली हम सबको। वंदूं ध्याऊँ भक्ति बढ़ाऊँ, शीघ्र नशाऊँ भव को।।२४।।
जंबूद्वीप के ऐरावत में, आर्यखंड में नामी। वर्तमान तीर्थंकर चौबिस, पंचकल्याणक स्वामी।। बालचंद्र से वीरसेन तक, जिनवर समवसरण को। श्रद्धा रुचि से वंदन करके, उनकी गहूँ शरण को।।२५।।
(ॐ ह्रीं जंबूद्वीपस्थऐरावतक्षेत्रार्यखंडे अचिन्त्यविभूतिसहितश्रीबालचंद्रसुव्रत-अग्निसेननंदिसेन-श्रीदत्तव्रतधरसोमचंद्रधृतिदीर्घशतायुष्यविवसितश्रेयानविश्रुतजलसिंहसेनउपशांतगुप्तशासन-अनंतवीर्यपार्श्व—अभिधानमरुदेवश्रीधरशामकंठ-अग्निप्रभ-अग्निदत्तवीरसेननामचतुर्विंशतितीर्थंकर-समवसरणेभ्य: नम:।) पूर्व विदेह देश में सोलह, आर्यखंड उन दो में।
सीमंधर युगमंधर जिनके, समवसरण हैं शोभें।। उनको अगणित सुरनर मिलकर, भक्तिभाव से वंदे। तीर्थंकर प्रभु के दर्शन कर, सर्व कर्म अरि खंडे।।२६।।
अपर विदेह देश में सोलह, आर्यखंड उन दो में। बाहु सुबाहु तीर्थंकर के, समवसरण हैं शोभें।। उनमें असंख्यात सुरगण हैं, नर पशु सब संख्याते। जिनभक्ती से आत्मशुद्ध कर, भव भव दु:ख नशाते।।२७।।
चौंतिस कर्मभूमि में जो हों, भूत भावि संप्रति में। तीर्थंकर के समवसरण थे, होते अरु होवेंगे।। उन सबको भक्ती से वंदन, करके निज पद पाऊँ। चौंतिस अतिशय सहित देव, तीर्थंकर के गुण गाऊँ।।२८।।
कर्मभूमि में अन्य केवली, जिनवर जो भी मानें। भूत भविष्यत् वर्तमान के, जितने भी परमाणे।। सुरकृत गंधकुटी में राजें, प्रातिहार्य से शोभित। दिव्यध्वनी से भविसंबोधें, वंदूं गंधकुटी नित।।२९।।
—दोहा—
समवसरण वंदत मिले, सर्व ऋद्धि नवनिद्धि। केवल ज्ञानमती मिले, सर्व मनोरथ सिद्ध।।३०।।