हे भगवन्! सूत्र के मूलपदों उत्तरपद के आसादन से। जो दोष हुए उनका प्रतिक्रमण करूं मैं सो वह इस विध से।।१।। जो नमस्कारपद अर्हत् पद अरु सिद्धपदाचार्यपद में। उपाध्यायपद साधूपद मंगलपद लोकोत्तम पद में।।२।। शरणंपद सामायिकपद चौबिस तीर्थंकर पद वंदनपद में। प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान रु कायोत्सर्ग असहि निसहि पद में।।३।। अंगों में पूर्वों में व प्रकीर्णक प्राभृत प्राभृतप्राभृत में। कृतकर्मों४ भूतकर्म५ में आसादन से दोष विशोधूं मैं।।४।।
इच्छामि भंते ! का अर्थ
हे भगवन् ! सूत्र (आगम) के मूलपदों की और उत्तर पदों की अत्यासादनता (अवहेलना) होने पर जो कोई दोष उत्पन्न हुआ है उस दोष के निराकरण करने की इच्छा करता हूँ। तद्यथा इसके द्वारा वही कहते हैं— णमो अरहंताणं इत्यादि पंचनमस्कारपद, अर्हंतपद, सिद्धपद, आचार्यपद, उपाध्यायपद, साधुपद, चत्तारिमंगलं इत्यादि मंगलपद, चत्तारि लोगोत्तमा इत्यादि लोकोत्तमपद, चत्तारिसरणं पव्वज्जामि इत्यादि शरण पद, करेमि भंते! सामाइयं इत्यादि सामायिकपद, उसहमजियं च वंदे इत्यादि चतुा\वशति तीर्थंकरपद, सिद्धानुद्धूत इत्यादि और जयति भगवान् इत्यादि वन्दनापद, पडिक्कमामि भंते इत्यादि प्रतिक्रमणपद,
वा पदहीणं वा सरहीणं वा वंजणहीणं वा अत्थहीणं वा गंथहीणं वा थएसु वा थुईसु१ वा अट्ठक्खाणेसु वा अणियोगेसु२ वा अणियोगद्दारेसु३ वा जे भावा पण्णत्ता अरहंतेहिं भयवंतेहिं तित्थयरेहिं आदि-यरेहिं तिलोगणाहेहिं तिलोग-बुद्धेहिं तिलोग-दरसीहिं ते सद्दहामि ते पत्तियामि ते रोचेमि ते फासेमि, ते सद्दहंतस्स ते पत्तयंतस्स ते रोचयंतस्स ते फासयंतस्स जो मए
ज्ञान में जो आसादन की दर्शन चरित्र तप वीरज में। आसादन कर जो दोष किये उन सबका शोधन करता मैं।।५।। इनमें अक्षर से हीन व पद से हीन व स्वर से हीन पढ़ा। व्यंजन से हीन व अर्थहीन या ग्रंथहीन जु अशुद्ध पढ़ा।।६।। स्तव स्तुति अर्थाख्यानों के अनुयोगों के पढ़ने में। अनुयोगद्वार में हीन आदि दोषों का प्रतिक्रमण करता मैं।।७।। अर्हंतदेव भगवंत तीर्थंकर आदीकर त्रैलोक्यनाथ। त्रिभुवनज्ञानी त्रिभुवनदर्शी ने प्रतिपादे हैं जो पदार्थ।।८।। उनकी मैं श्रद्धा करता हूँ उनकी ही प्राप्ती करता हूँ। उनमें ही मैं रुचि रखता हूँ उनका ही स्पर्श करता हूँ।।९।।
भन्ते पच्चक्खामि इत्यादि प्रत्याख्यानपद, नवसंख्या प्रमाण पंचनमस्कार का उच्चारण लक्षण तथा अठारह, सत्ताईस, छत्तीस, एकसौ आठ इत्यादि संख्या लक्षण कायोत्सर्गपद, असहि, निसहिपद इन सब पदों में अत्यासादनता होने पर तथा आचारादि अंगपद, अंगों के अधिकारपद, संख्या आदि अंगांगपद उत्पाद पूर्वादि पूर्वांग, वस्तु प्रभृति पूर्व, पूर्वांग, प्रकीर्णक, प्राभृत, प्राभृत—प्राभृत पूर्वकृत षडावश्यकादि कर्म अथवा शुभ और अशुभ मन, वचन और काय के व्यापार अथवा तन्निबन्धन पुण्य पापकर्मरूप कृतकर्म, भूत, अविद्यमान और वर्तमान में उक्त षडावश्यक कर्म इन उक्त सब में उत्पन्न दोष का प्रतिक्रमण करने की इच्छा करता हूँ तथा ज्ञान की अत्यासादनता, दर्शन की अत्यासादनता, चारित्र की अत्यासादनता, तप की अत्यासादनता और वीर्य की अत्यासादनता—सम्बन्धी दोषों का प्रतिक्रमण करता हूँ तथा अनेक तीर्थंकरों के गुणों का वर्णन करने वाले स्तवों में, एक तीर्थंकर के
इनकी श्रद्धा करते हुए अरु इनकी प्राप्ती करते हुए जो। इनमें रुचि रखते हुए तथा इनका स्पर्श करते हुए जो।।१०।। मैंने दैवसिक व रात्रिक पाक्षिक आदिक में जो दोष किये। अतिक्रम व्यतिक्रम अतिचार अनाचार आभोग अनाभोग किये।।११।। जो अकाल में स्वाध्याय किया अरु काल में स्वाध्याय नहीं किया। सहसा किया बिना विवेक किया मिथ्या के साथ मिलाय दिया।।१२।। अन्यथा पढ़ा अन्यथा कहा अन्यथा ग्रहण कीया भी जो। आवश्यक में परिहानी की सब दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।१३।।
इति श्रीगौतमगणधरवाण्यां नवमोऽध्याय:।।९।।
गुण वर्णन करने वाली स्तुतियों में, चरित्र—पुराण प्रतिबद्ध अर्थाख्यानों में, करणानुयोगादि अनुयोगों में और कृतिवेदनादि चौबीस अनुयोगद्वारों में अक्षरहीन, पदहीन, स्वरहीन, अर्थहीन और ग्रंथहीन दोष का प्रतिक्रमण करने की इच्छा करता हूँ। अर्हंत, भगवान् तीर्थंकर, त्रिलोकनाथ ने जो जीवादि पदार्थ आगम में प्रतिपादन किये हैं उनका श्रद्धान करता हॅूँ, प्राप्त करता हूँ, रुचि रखता हूँ, विश्वास करता हूँ, उनका श्रद्धान करने वाले, प्राप्त करने वाले, रुचि रखने वाले, विश्वास करने वाले जो मेरे दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, संवत्सरिक अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार, आभोग, अनाभोग दोष लगा, अकाल में स्वाध्याय किया, स्वाध्याय काल में स्वाध्याय नहीं किया, सहसा किया, बिना विचारे जल्दी—जल्दी उच्चारण किया, मिथ्या अविद्यमान के साथ मिलाया, अन्य अवयव को अन्य अवयव के साथ जोड़कर पद्य, उच्चध्वनि—युक्त का नीचध्वनि से और नीचध्वनियुक्त पाठ को उच्चध्वनि से पढ़ा, अन्यथा कहा, अन्यथा ग्रहण किया यानी सुना, आवश्यकों में परिहीनता की, इन सब दोषों से उत्पन्न मेरा दुष्कृत मिथ्या होवे।
इस प्रकार श्रीगौतम गणधर वाणी में नवमां अध्याय पूर्ण हुआ।