जो मोहनीय कर्मरूपी अरि—शत्रु को नष्ट करने वाले हैं तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय इनसे भी रहित हो चुके हैं अर्थात् इन चारों घातिया कर्मों से रहित अर्हंत होते हैं।
यहाँ अरिहंत का अर्थ हिंसा से नहीं ‘अरिहननात् अरिहंता।’ इस व्याख्या से अंतरंग के राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोध आदि को जीत लेने से एवं कर्मों को जीत लेने से अरिहंत या जिन, जिनेन्द्र, जिनदेव आदि कहलाते हैं।
यहाँ पर अर्हंतो के ३४ अतिशय, ८ प्रातिहार्य, ४ अनंतचतुष्टय ऐसे ४६ गुणों से सहित समवसरण में विराजमान तीर्थंकर भगवान की प्रमुखता है, फिर भी अतीतकाल में अनंतानंत तीर्थंकरों के अतिरिक्त चक्रवर्ती, बलभद्र, कामदेव तथा सामान्य मनुष्य आदि अर्हंत अवस्था प्राप्त कर चुके हैं। क्योंकि केवलज्ञान प्रगट होने के बाद तेरहवां सयोगकेवली एवं चौदहवां अयोगीकेवली गुणस्थान ऐसे दो गुणस्थान होने के बाद ही मोक्ष होता है।
अत: तीर्थंकरों से अतिरिक्त सभी के जन्म के १० अतिशय नहीं होते हैं एवं अंतकृत् केवली आदि किन्हीं—किन्हीं के गंधकुटी की रचना भी नहीं हो पाती है फिर भी वे ‘अरिहंत’ होकर ही सिद्ध होते हैं।
इसलिये ‘अरहंतपद’ में सामान्यकेवली, अंतकृत्केवली व अनुबद्धकेवली आदि सभी आ जाते हैं। जैसे कि पांच पांडवों पर कुर्युधर ने गरम–गरम अग्नि के आभूषण पहनाकर उपसर्ग किया, उनमें युधिष्ठिर, भीम व अर्जुन कर्मों को नाशकर केवली होकर मोक्ष को प्राप्त हुये हैं एवं नकुल और सहदेव उपसर्ग जीतकर समाधिपूर्वक शरीर को छोड़कर सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र हुये हैं इत्यादि।
इसलिये इस ‘अरिहंतपद’ से अतीतकालीन अनंतानंत अरिहंतों को एवं वर्तमानकालीन विद्यमान विदेह क्षेत्रों में—१६० विदेहों में सभी अरिहंतों को तथा भविष्यत्काल में होने वाले अनंतानंत अरिहंतों को नमस्कार किया गया है।