अर्थाधिकार बीस प्रकार का है क्योंकि सब वस्तुओं में प्राभृत संज्ञा वाले बीस—बीस अधिकार संभव हैं।
श्री कुंदकुंद आचार्यदेव ने कहा है—
गाथार्थ—एक—एक वस्तु में बीस—बीस प्राभृत कहे गये हैं। पूर्वों में वस्तुएँ सम व विषम हैं किन्तु वे सब वस्तुएँ प्राभृतों की अपेक्षा सम हैं।
उत्पादपूर्व आदि १४ पूर्वों के पृथक््â—पृथक््â प्राभृतों का योग इस प्रकार कहा गया है—
दो सौ (२००), दो सौ अस्सी (२८०), एक सौ साठ (१६०), तीन सौ साठ (३६०), दो सौ चालिस (२४०), दो सौ चालिस (२४०), तीन सौ बीस (३२०), चार सौ (४००), छह सौ (६००), तीन सौ (३००), दो सौ (२००), दो सौ (२००), दो सौ (२००) और दो सौ (२००)। सब वस्तुओं का कुल योग एक सौ पंचानवे मात्र होता है। सब प्राभृतों का योग तीन हजार नौ सौ मात्र होता है।
यह द्वादशांग वाणी ग्रंथों में श्रुतदेवीरूप से भी वर्णित की गई है।
प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ में कहा भी है—
गाथार्थ—श्रुतदेवी के बारह अंग हैं, सम्यग्दर्शन यह तिलक है, चारित्र उनका वस्त्र है, चौदह पूर्व उनके आभरण हैं ऐसी कल्पना करके श्रुतदेवी की स्थापना करनी चाहिए।
बारह अंगों में से प्रथम जो ‘‘आचारांग’’ है, वह श्रुतदेवी-सरस्वती देवी का मस्तक है, ‘‘सूत्रकृतांग’’ मुख है, ‘‘स्थानांग’’ कण्ठ है, समवायांग और व्याख्याप्रज्ञप्ति ये दोनों अंग उनकी दोनों भुजाएँ हैं, ज्ञातृकथांग और उपासकाध्ययनांग ये दोनों अंग उस सरस्वती देवी के दो स्तन हैं, अंतकृद्दशांग यह नाभि है, अनुत्तरदशांग श्रुतदेवी का नितम्ब है, प्रश्नव्याकरणांग यह जघन भाग है, विपाकसूत्रांग और दृष्टिवादांग ये दोनों अंग उन सरस्वती देवी के दोनों पैर हैं। ‘‘सम्यक्त्व’’ यह उनका तिलक है, चौदह पूर्व अलंकार हैं और ‘‘प्रकीर्णक श्रुत’’ सुन्दर बेल-बूटे सदृश हैं। ऐसी कल्पना करके यहाँ पर द्वादशांग जिनवाणी को सरस्वती देवी के रूप में लिया गया है।
श्री जिनेन्द्रदेव ने सर्व पदार्थों की सम्पूर्ण पर्यायों को देख लिया है, उन सर्व द्रव्य पर्यायों की यह ‘‘श्रुतदेवता’’ अधिष्ठात्री देवी हैं अर्थात् इनके आश्रय से पदार्थों की सर्व अवस्थाओं का ज्ञान होता है। परमब्रह्म के मार्ग का अवलोकन करने वाले लोगोें के लिए यह स्याद्वाद के रहस्य को बतलाने वाली है तथा भव्यों के लिए भुक्ति और मुक्ति को देने वाली ऐसी यह सरस्वती माता है।
हे अम्ब! आप सम्पूर्ण स्त्रियों की सृष्टि में चूड़ामणि हो। आपसे ही धर्म की और गुणों की उत्पत्ति होती है। आप मुक्ति के लिए प्रमुख कारण हो, इसलिए मैं अतीव भक्तिपूर्वक आपके चरणकमलों को नमस्कार करता हूूूँ।
गाथार्थ-जो श्रुतज्ञान के प्रसिद्ध बारह अंगों से ग्रहण करने योग्य हैं अर्थात् बारह अंगों का समूह ही जिसका शरीर है, जो सर्व प्रकार के मल (अतीचार) और तीन मूढ़ताओं से रहित सम्यग्दर्शन रूप उन्नत तिलक से विराजमान है और नाना प्रकार के निर्मल चारित्र ही जिनके आभूषण हैं ऐसी भगवती श्रुतदेवता चिरकाल तक प्रसन्न रहो।
गाथार्थ—जिसका आदि-मध्य और अन्त से रहित निर्मल शरीर, अंग और अंगबाह्य से निर्मित है और जो सदा चक्षुष्मती अर्थात् जागृतचक्षु हैं ऐसी श्रुतदेवी माता को नमस्कार हो।
सरस्वती स्तोत्र में भी सरस्वती देवी के लक्षण कहते हैं। जैसे—
श्लोकार्थ—करोड़ों सूर्य और चन्द्रमा के एकत्रित तेज से भी अधिक तेज धारण करने वाली, चन्द्र किरण के समान अत्यंत स्वच्छ एवं श्वेत वस्त्र को धारण करने वाली तथा कलहंस पक्षी पर आरूढ़ दिव्यमूर्ति श्री सरस्वती देवी हमारी प्रतिदिन रक्षा करें।
अन्यत्र भी कहा है—
श्लोकार्थ—दिव्य कमल के समान नेत्रों वाली, हंस वाहन पर आरूढ़, वीणा और पुस्तक को हाथ में धारण करने वाली सरस्वती देवी मैंने देखी है।
अस्या: सरस्वतीमातु: षोडशनामान्यपि गीयन्ते-
भारती, सरस्वती, शारदा, हंसग्ाामिनी, विदुषांमाता, वागीश्वरी, कुमारी, ब्रह्मचारिणी, जगन्माता, ब्राह्मणी, ब्रह्माणी, वरदा, वाणी, भाषा, श्रुतदेवी गौश्चेति।
अन्यत्र-अष्टोत्तरशतनाममंत्रा: अपि विद्यन्ते।
उस सरस्वती माता के सोलह नाम भी गाये जाते हैं—
१. भारती २. सरस्वती ३. शारदा ४. हंसगामिनी ५. विद्वानों की माता ६. वागीश्वरी ७. कुमारी ८. ब्रह्मचारिणी ९. जगन्माता १०. ब्राह्मिणी ११. ब्रह्माणी १२. वरदा १३. वाणी १४. भाषा १५. श्रुतदेवी और १६. गो।
अन्यत्र एक सौ आठ नाम मंत्र भी सुने जाते हैं।
सरस्वती देवी की मूर्ति जैन मंदिरों में भी देखी जाती हैं, ये चार निकाय वाले देवों में से किसी निकाय की देवी नहीं हैं बल्कि द्वादशांग जिनवाणी स्वरूप माता ही हैं इसलिए मुनियों के द्वारा भी वंद्य हैं ऐसा जानना चाहिए। वस्त्र-अलंकारों से भूषित होने पर भी वे सरागी नहीं हैं। वस्त्र से वेष्टित शास्त्र के समान वे सरस्वती की प्रतिमाएँ भी सभी के द्वारा सर्वदा पूज्य ही हैं इसलिए विद्वानों को इस विषय में किंचित् भी शंका नहीं करनी चाहिए।