जिनका वर शासन जग प्रसिद्ध, जो कर्मचक्र से रहित सिद्ध।। उनको कर नमस्कार भक्त्या, द्वादश अंगों को नमूं नित्य।।१।। आचार सूत्रकृत स्थान अंग, समवाय व व्याख्याप्रज्ञप्ती। है ज्ञातृधर्मकथनांग छठा, औ उपासकाध्ययनांग कृती।।२।। अंतःकृत्दश औ अनुत्तरोपपाददशक हैं अंगज्ञान। है प्रश्न व्याकरण विपाकसूत्र, इन ग्यारह अंगों को प्रणाम।।३।। परिकर्मसूत्र प्रथमानुयोग, पूर्वगत चूलिका पंचविधा। इन युत बारहवां दृष्टिवाद, है अंग उसे प्रणमूं त्रिविधा।।४।। उत्पादपूर्व अग्रायणीय, औ वीर्य अस्तिनास्ति प्रवाद। ज्ञानप्रवाद सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद कर्मप्रवाद।।५।।
औ प्रत्याख्यान पूर्व विद्यानुवाद कल्याण नाम पूरब। जो प्राणवाद किरिया विशाल, औ लोकविंदुसार पूरब।।६।। दश चौदह आठ अठारह औ, बारह बारह सोलह व बीस। हैं तीस व पंद्रह शेष चार, में दश दश वस्तू श्रुत प्रणीत।।७।। चौदह पूर्वों में वस्तुनाम, अधिकारों की संख्या क्रम से। इन पूर्वों की जितनी वस्तू, उन सबको प्रणमूूं भक्ति से।।८।। एक एक वस्तु में बीस-बीस, प्राभृत माने आचार्यों ने। वस्तू तो विषम व सम भी हैं, प्राभृत सब संख्या में मानें।।९।। चौदह पूर्वों की एक शतक, पंचानवे वस्तू होती हैं। सब प्राभृत संख्या तीन सहस, नव सौ पूर्वों की होती हैं।।१०।।
-दोहा-
इस विधि भक्ति राग से, स्तवन किया श्रुत शास्त्र। जिनवर वृषभ मुझे तुरत, देवें श्रुत का लाभ।।११।।