सब अंगों के विषयों की प्रधानता से बारह अंगों के उपसंहार करने को स्तव कहते हैं। उसमें जो वाचना, पृच्छना, परिवर्तना और अनुप्रेक्षणा स्वरूप उपयोग है वह भी उपचार से स्तव कहा जाता है। बारह अंगों में एक अंग के उपसंहार का नाम स्तुति है। उसमें जो उपयोग है वह भी स्तुति है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये।१
स्तुतिषु वा—एक तीर्थंकर के गुणों का वर्णन करना स्तुति है।
वर्तमान में आठ आचार्यों के स्तोत्र विशेष अतिशय प्राप्त प्रसिद्ध हैं—
१. श्रीकुंदकुंद देव ने श्री सीमंधर स्वामी के समवसरण का ध्यान किया था। गुरुओं के मुख से सुना है कि उनकी तीर्थंकर भक्ति के प्रभाव से देव उन्हें अपने विमान में बिठाकर विदेह क्षेत्र में श्री सीमंधर स्वामी के समवसरण में ले गये थे।
इन आचार्यदेव की सिद्धभक्ति आदि भक्तियां सिद्धों व भगवंतों की भक्ति में प्रसिद्ध हैं।
२. श्री समंतभद्रस्वामी ने स्वयंभू स्तोत्र की रचना की है। इसमें चौबीसों तीर्थंकरों की स्तुति है। चंद्रप्रभ स्तुति पढ़ते समय चंद्रप्रभ भगवान की प्रतिमा प्रगट हो गई थीं।
३. श्री पूज्यपाद स्वामी ने नेत्र ज्योति क्षीण हो जाने पर शांतिभक्ति की रचना की है। आठवें काव्य के प्रभाव से नेत्र ज्योति वापस ज्यों की त्यों प्राप्त हो गई है।
४. अकलंकदेव ने बौद्धों की तारादेवी के साथ छह माह शास्त्रार्थ किया था पुन: स्याद्वाद की विजयपताका फहरायी थी।
५. श्री पात्रकेसरी ने देवागम स्तोत्र सुनकर हेतु का लक्षण जानने की िंचता की थी तभी पद्मावती देवी ने स्वप्न दिखाकर व भगवान के फणा पर श्लोक लिखकर समाधान दिया था। तभी उन्होंने जैनेश्वरी दीक्षा लेकर महान विद्वान आचार्य बनकर जिनेन्द्र स्तुति की रचना की थी।
६. श्री मांगतुंग आचार्य के भक्तामर काव्य से ४८ ताले टूट गये हैं।
७. श्री कुमुदाचन्द्राचार्य द्वारा कल्याणमंदिर स्तोत्र रचना से भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति प्रगट हो गई थीं।
८. श्री वादिराज आचार्य के एकीभाव स्तोत्र की रचना के प्रभाव से उनके शरीर में हुआ कुष्ठ रोग दूर हो गया था।
इनमें सात आचार्यों द्वारा की गई स्तोत्र रचनायें ‘स्तव’ कहलायेंगी।
श्री स्वयंभू स्तोत्र चौबीसों भगवंतों का स्तोत्र है वह ‘स्तुति’ में गर्भित होगा।
ऐसे ही अनेक आचार्यों द्वारा रचित ‘स्तव’, स्तुतियां असंख्यातों गुणा पापों का नाश करने में एवं सातिशय पुण्य बन्ध कराने में समर्थ हैं।
विशेष—षट्खण्डागम ग्रंथ के आधार से स्तव, स्तुति का लक्षण भिन्न हैं एवं प्रतिक्रमण ग्रंथत्रयी जो कि इस प्रतिक्रमण ग्रंथ की टीका है इसके आधार से यह अर्थ किया गया है।
अतिशायी आठ आचार्य का संक्षिप्त परिचय
मंगलं भगवान वीरो, मंगलं गौतमौ गणी। मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो, जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्।।
(1) श्री कुन्दकुन्दाचार्य
दिगम्बर जैन आम्नाय में श्री कुन्दकुन्दाचार्य का नाम श्री गणधरदेव के पश्चात् आता है। विद्वानों के निर्णयानुसार इनका जन्म दक्षिण भारत में माना गया है। ‘कौण्डकुन्दपुर’ नामक ग्राम में कर्मण्डु की पत्नी श्रीमती के गर्भ से इनका जन्म हुआ है। इनके समय के बारे में विद्वानों में काफी मतभेद है।
नंदीसंघ की पट्टावली में लिखा है कि कुन्दकुन्द वि. सं. ४९ में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। १४४ वर्ष की अवस्था में उन्हें आचार्य पद मिला। ५१ वर्ष १० महीने तक उस पद पर प्रतिष्ठित रहे। उनकी आयु ९५ वर्ष १० महीने १५ दिन की थी। कुन्दकुन्द स्वामी ने अपने बोधपाहुड़ में स्वयं को भद्रबाहु का शिष्य कहकर उनका जयघोष किया है। इनके विषय में विदेह क्षेत्र में गमन, चारण ऋद्धि प्राप्ति, पाषाण की देवी को बुलवाना आदि कई बातें प्रसिद्ध हैं और पट्टावली में इनके कुन्दकुन्द, वक्रग्रीव, एलाचार्य, गृद्धपिच्छ और पद्मनन्दी ये पांच नाम हैं। आचार्य श्री देवसेन ने दर्शनसार में, श्री जयसेनाचार्य ने पंचास्तिकाय प्राभृत में तथा श्री श्रुतसागर सूरि ने षट्प्राभृत की टीका में श्री कुन्दकुन्ददेव के विदेहगमन की बात कही है।
देवसेनाचार्य कृत दर्शनसार ग्रंथ में कहा है कि—
जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण।ण विबोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयासंति।।४३।।
यदि श्री पद्मनन्दिनाथ सीमंधर स्वामी द्वारा प्राप्त दिव्यज्ञान से बोध न देते तो श्रमण सच्चे मार्ग को वैâसे जानते ?
गुर्वावली, पाण्डव पुराण आदि में उल्लिखित है कि दिगम्बरों—श्वेताम्बरों के मध्य गिरनार की प्रथम वन्दना की बात आने पर इन्होंने सरस्वती की मूर्ति को मंत्र के बल पर बुलवा दिया कि—‘‘सत्य पंथ निर्ग्रंथ दिगम्बर’’। इसके अतिरिक्त जैन शिलालेख, अभिलेख सं० ४० एवं तीर्थंकर महावीर एवं उनकी आचार्य परम्परा-पुस्तक ४ में उल्लिखित प्रमाणों से यह निष्कर्ष निकलता है कि कुन्दकुन्द स्वामी महान तपस्वी, गणनायक और मन्त्रों के विशेष ज्ञाता थे तथा विदेहक्षेत्र में जाकर सीमंधर भगवान का दर्शन करके आए थे। इन महान आचार्य ने अनेक महान कृतियों की रचना की हैं।
इनकी रचनाएँ—चौरासी पाहुड़, षट्खण्डागम टीका, दशभक्ति, अष्टपाहुड़, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, रयणसार, बारसअणुपेक्खा, समयसार, मूलाचार और कुरलकाव्य। मूलाचार को कुछ विद्वान कुन्दकुन्द की कृति नहीं मानते हैं किन्तु कुन्दकुन्द व वट्टकेर एक ही हैं ऐसा पं. श्री जिनदास ने स्पष्ट किया है। मैंने इस मूलाचार का हिन्दी अनुवाद करते हुए अनेक प्रमाणों से यह निष्कर्ष निकाला है कि आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी व वट्टकेर आचार्य एक ही हैं।
श्री सिद्धचक्र सब आठ कर्म, विरहित औ आठ गुणों युत हैं। अनुपम हैं सब कार्य पूर्णकर, अष्टम पृथ्वी पर स्थित हैं।। ऐसे कृतकृत्य सिद्धगण का, हम नितप्रति वंदन करते हैं। मन वचन काय की शुद्धी से, शिरसा अभिनन्दन करते हैं।।१।।
(2) श्री समन्तभद्र आचार्य
जैन वाङ्मय में स्वामी समन्तभद्र संस्कृत कवि और प्रथम स्तुतिकार हैं। ये कवि होने के साथ—साथ प्रकाण्ड दार्शनिक और गम्भीर िंचतक भी हैं। स्तोत्रकाव्य का सूत्रपात आचार्य समन्तभद्र से ही होता है। इनकी स्तुतिरूप दार्शनिक रचनाओं पर अकलंक और विद्यानंद जैसे उद्भट आचार्यों ने टीका और विवृत्तियाँ लिखकर मौलिक ग्रंथ रचयिता का यश प्राप्त किया है। वीतरागी तीर्थंकरों की स्तुतियों में दार्शनिक मान्यताओं का समावेश करना असाधारण प्रतिभा का द्योतक है।
जैनधर्म और जैन सिद्धान्त के मर्मज्ञ विद्वान होने के साथ—साथ ये तर्क, व्याकरण, छन्द, अलंकार, काव्य, कोष आदि विषयों में पूर्णतया अधिकार रखते थे। इन्होंने जैनविद्या के क्षेत्र में एक नया आलोक विकीर्ण किया है। श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में तो इन्हें जिनशासन के प्रणेता और भद्रमूर्ति कहा गया है। इनका जन्म दक्षिण भारत में हुआ था। इन्हें चोल राजवंश का राजकुमार अनुमानित किया जाता है। इनके पिता उरगपुर के क्षत्रिय राजा थे। इनका जन्म नाम शांतिवर्मा बताया जाता है। सम्भव है यह नाम माता—पिता के द्वारा रखा गया हो और ‘‘समन्तभद्र’’ मुनि अवस्था का हो।
मुनिदीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् इन्हें भस्मक व्याधि नामक भयानक रोग हो जाने से उन्होंने समाधिमरण की इच्छा की, किन्तु गुरु ने भावी होनहार शिष्य को रोगशमन हेतु दीक्षा छोड़ने का आदेश दिया। वे सन्यासी बनकर इधर-उधर विचरण करते हुए वाराणसी नगरी में राजा शिवकोटि को प्रभावित कर वहीं रहने लगे और राजा की अनुमति से शिव को नैवेद्य खिलाने की बात कहकर स्वयं खाकर रोग शान्त करने लगे। शनै: शनै: रोग के उपशम होने पर, नैवेद्य बचने पर राजा को सन्देह हुआ और राजा ने रहस्य पताकर उन्हें शिव को नमस्कार करने हेतु प्रेरित किया तब समन्तभद्र ने इसे उपसर्ग समझकर चतुा\वशति तीर्थंकरों की स्तुति प्रारम्भ की। चन्द्रप्रभु स्तुति पढ़ते समय शिवपिण्डी से भगवान चन्द्रप्रभ की प्रतिमा प्रकट हो गई। समंतभद्र के इस माहात्म्य को देखकर शिवकोटि राजा अपने भाई सहित उनके शिष्य बन गए। श्रवणवेलगोला के अभिलेखों एवं आराधना कथाकोष के प्रमाणानुसार राजा शिवकोटि समन्तभद्र के इस आख्यान को सुनकर भोगों से विरक्त हो दीक्षित हो गए।
समन्तभद्र की गुरु शिष्य परम्परा के विषय में बहुत कुछ अनिर्णीत है फिर भी किन्हीं प्रशस्तियों में इन्हें उमास्वामी के शिष्य बलाकपिच्छ का पट्टाचार्य माना है। इनका समय ईसा की द्वितीय शताब्दी प्रतीत होता है। कहीं-कहीं इन्हें भावी तीर्थंकर माना गया है।
इनकी रचनाएं – १. वृहत्स्वयंभूस्तोत्र २. स्तुतिविद्या-जिनशतक ३. देवागमस्तोत्र-आप्तमीमांसा ४. युक्त्यनुशासन ५. रत्नकरण्ड श्रावकाचार ६. जीवसिद्धि ७. तत्त्वानुशासन ८. प्राकृत व्याकरण ९. प्रमाण पदार्थ १०. कर्मप्राभृत टीका ११. गन्धहस्ति महाभाष्य।
श्री पूज्यपाद स्वामी एक महान आचार्य हुए हैं जिनका नाम श्री जिनसेन, शुभचन्द्र आचार्य आदि ग्रन्थकारों ने बहुत ही आदरपूर्वक अपने ग्रन्थों में लिया है। इनके पिता का नाम माधव भट्ट और माता का नाम श्रीदेवी था। ये कर्नाटक के ‘‘कोले’’ नामक ग्राम के निवासी थे और ब्राह्मण कुल के भूषण थे। इनका घर का नाम ‘‘देवनन्दि’’ था। एक दिन अपनी वाटिका में विचरण करते हुए सांप के मुख में फसें मेढ़क पर दृष्टि पड़ते ही इन्हें विरक्ति हो गई और ये जैनेश्वरी दीक्षा लेकर महामुनि हो गए। अपनी तपस्या के प्रभाव से ये महान प्रभावशली मुनि हुए हैं। कथा और प्रशस्ति के श्लोकों से यह स्पष्ट होता है कि ये अपने पैरों में गगनगामी लेप लगाकर विदेह क्षेत्र जाया करते थे। यथा–
श्री पूज्यपादप्रतिमौषधर्द्धिर्जीयाद् विदेहजिनदर्शन—पूतगात्र:।
जिनके अप्रतिम औषधि ऋद्धि प्रगट हुई थी, विदेहक्षेत्र के जिनेन्द्रदेव के दर्शन से जिनका शरीर पवित्र हो चुका था, ऐसे पूज्यपाद स्वामी एक महान मुनि हुए हैं। इन्होंने अपने पैर के धोए हुए जल के स्पर्श के प्रभाव से लोहे को सोना बना दिया था।
कथानकों में ऐसा भी आया है कि ये मुनिराज बहुत दिनों तक योगाभ्यास करते रहे। किसी समय एक देव ने विमान में इन्हें बैठाकर अनेक तीर्थों की यात्रा कराई। मार्ग में एक जगह इनकी दृष्टि नष्ट हो जाने पर इन्होंने शान्त्यष्टक रचकर ज्यों की त्यों दृष्टि प्राप्त की। आचार्य पूज्यपाद के समय वâे सम्बन्ध में विशेष विवाद नहीं है। आचार्य अकलंकदेव के ग्रंथों से इनके पूर्ववर्ती होने के प्रमाण मिलते हैं, इनका समय विक्रम सं. ३०० के पश्चात् ही सम्भव है। पूज्यपाद स्वामी ने अपने जैनेन्द्र व्याकरण सूत्रों में भूतबलि, समन्तभद्र, श्रीदत्त, यशोभद्र और प्रभाचन्द्र नामक पूर्वाचार्यों का निर्देश किया है। नन्दिसेन की पट्टावली में देवनन्दि का समय वि. सं. २५८-३०८ तक अंकित किया है।१ इसमें यशोनन्दि आचार्य के पट्ट पर श्री देवनन्दि आचार्य हुए हैं, ऐसा उल्लेख हैं।
इनकी रचनाएँ—(१) दशभक्ति, (२) जन्माभिषेक (पंचामृताभिषेक), सर्वार्थसिद्धि, समाधितन्त्र, इष्टोपदेश, जैनेन्द्र व्याकरण और सिद्धिप्रिय स्तोत्र। इनका एक वैद्यक ग्रंथ भी उपलब्ध है जो अपूर्ण मिल पाया है। सारसंग्रह ग्रंथ भी इन्हीं के द्वारा रचित है।
शान्ति जिनेश्वर ! शान्तिचित्त से, शान्त्यार्थी बहु प्राणीगण। तव पादाम्बुज का आश्रय ले, शान्त हुए हैं पृथिवी पर।। तव पदयुग की शान्त्यष्टकयुत, स्तुति करते भक्ति से। मुझ भाक्तिक पर दृष्टि प्रसन्न, करो भगवन् ! करुणा करके।।८।।
(4) श्री अकलंकदेव
जैनदर्शन में अकलंकदेव एक प्रखर तार्किक और महान दार्शनिक आचार्य हुए हैं। बौद्धदर्शन में जो स्थान धर्मकीर्ति को प्राप्त है, जैनदर्शन में वही स्थान अकलंकदेव का है। इनके द्वारा रचित प्राय: सभी ग्रंथ जैनदर्शन और जैन न्यायविषयक हैं।
तत्त्वार्थवार्तिक के प्रथम अध्याय के अंत में लिखी प्रशस्ति के अनुसार ये ‘‘लघुहव्वनृपति’’ के पुत्र प्रतीत होते हैं। श्री नेमिचन्द्र कृत आराधना कथाकोष में वर्णन है कि—मान्यखेट नगर के राजा शुभतुङ्ग के पुरुषोत्तम नामक मंत्री के अकलंक और निकलंक ये दो पुत्र थे। एक बार आष्टान्हिका पर्व में इन्होंने माता—पिता के साथ मुनि के पास ब्रह्मचर्य व्रत लिया। यौवनावस्था में पिता के आग्रह से भी विवाह न कर आजन्म बाल ब्रह्मचारी रहे। अकलंक एकपाठी और निकलंक दो पाठी थे। बौद्धों के धर्मद्वेष से निकलंक ने अपना बलिदान कर दिया। आप कलिंगदेश के रत्नसंचयपुर में पहुँचे। वहाँ के राजा हिमशीतल की रानी मदनसुन्दरी ने आष्टान्हिका पर्व में अपना जैन रथ निकलवाने का निर्णय किया। शर्त यह हुई कि यदि कोई जैनगुरु शास्त्रार्थ में बौद्धगुरु को पराजित कर दे तब जैन रथ निकल सकता है।’’१
रानी संकट के समय चतुराहार त्याग कर मन्दिर में निश्चल बैठ गई। ध्यान के प्रभाव से अर्धरात्रि में पद्मावती देवी ने आकर बताया कि प्रात: ही यहाँ अकलंकदेव आएंगे और वे ही संघश्री बौद्धगुरु का दर्प चूर्ण करेंगे। रानी ने प्रसन्न होकर भगवान की स्तुति की और प्रात: होते ही महाभिषेक पूजन किया। प्रात: उद्यान में उनके दर्शन करके निवेदन करने पर अकलंकदेव ने शास्त्रार्थ प्रारम्भ किया। बौद्धगुरु ने अपना वश न जानकर अपनी इष्ट तारादेवी को घट में स्थापित कर दिया और पर्दा डाल दिया। अकलंकदेव तारादेवी से छ: महीने तक शास्त्रार्थ करते रहे। अन्त में चक्रेश्वरी देवी के कहे अनुसार तारादेवी को पराजित करके जैनधर्म की अपूर्व प्रभावना की।
पं. वैâलाशचन्द्र जी शास्त्री ने इनका समय ईस्वी सन् ६२०-६८० तक निश्चित किया है किन्तु महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य के अनुसार इनका समय ईस्वी सन् की ८वीं शती सिद्ध किया है। देवकीर्ति की पट्टावली में पूज्यपाद के पट्ट पर श्री अकलंकदेव हुए हैं। ‘‘श्रुतमुनि—पट्टावली’’ में इन्हें पूज्यपाद स्वामी के पट्ट२ पर आचार्य माना है।
इनकी रचनाएँ—इनके द्वारा रचित स्वतन्त्र ग्रंथ चार हैं और टीकाग्रंथ दो हैं—
१. लघीयस्त्रय (स्वोपज्ञविवृत्ति सहित), २. न्यायविनिश्चय (सवृत्ति), ३. सिद्धिविनिश्चय (सवृत्ति), ४. प्रमाण संग्रह (सवृत्ति)।
टीका ग्रंथ—(१) तत्त्वार्थवार्तिक (सभाष्य), २. अष्टशती (देवागम विवृत्ति)। इनका बनाया हुआ एक स्तोत्र भी अकलंक३ स्तोत्र के नाम से प्रसिद्ध है।
अकलंक स्तोत्र—
त्रैलोक्यं सकलं त्रिकालविषयं सालोकमालोकितं। साक्षाद् येन यथा स्वयं करतले रेखात्रयं सांगुलि।। रागद्वेषभयामयान्तक—जरा—लोलत्व—लोभादयो। नालं यत्पद—लङ्घनाय स महादेवो मया वंद्यते।।१।।
(5) श्री मानतुंगाचार्य
‘‘भट्टारक सकलचंद्र के शिष्य ब्रह्मचारी ‘पायमल्ल’ कृत भक्तामर वृत्ति में जो कि वि. सं. १६६७ में समाप्त हुई है, लिखा है कि धाराधीश भोज की राजसभा में कालिदास, भारवि, माघ आदि कवि रहते थे। आचार्य श्री मानतुंग ने ४८ सांकलों को तोड़कर जैनधर्म की प्रभावना की तथा राजा भोज को जैनधर्म का उपासक बनाया। दूसरी कथा भट्टारक विश्वभूषण कृत भक्तामर चरित में भी इसी प्रकार बताई है कि ‘आचार्य मानतुंग’ ने भक्तामर स्तोत्र के प्रभाव से अड़तालीस कोठरियों के ताले तोड़कर अपना प्रभाव दिखलाया।’’
इनके समय के बारे में भी विद्वानों की अनेक विचारधाराएँ हैं। एक विद्वान् इन्हें ईस्वी सन् ७वीं शताब्दी का कहते हैं, तो एक विद्वान इन्हें ११वीं शताब्दी का कहते हैं। परमानन्द शास्त्री ने अपने जैनधर्म के प्राचीन इतिहास’ में इन्हें ११ वीं शताब्दी का ही निश्चित किया है। भक्तामर स्तोत्र और भयहर स्तोत्र ये दो रचनाएँ इनकी मानी गई हैं। भक्तामर स्तोत्र तो इतना प्र्सिद्ध और अतिशयपूर्ण है कि शायद ही कोई ऐसा दिगम्बर या श्वेताम्बर जैन होगा जो कि इसे न जानता हो।
हैं भक्त—देव—नत मौलि—मणि प्रभा के, उद्योतकारक, विनशक, पाप के हैं। आधार जो भव—पयोधि पड़े जनों के, अच्छी तरह नम उन्हीं प्रभु के पदों के।।१।।
(6) श्री कुमुदचंद्र आचार्य
कवि और दार्शनिक के रूप में आचार्य सिद्धसेन प्रसिद्ध हैं। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराएं इन्हें अपना-अपना आचार्य मानती हैं। आचार्य जिनसेन ने अपने आदिपुराण में सिद्धसेन को कवि और वादिगजकेसरी दोनों कहा है।
उज्जयिनी नगरी के कात्यायन गोत्रीय देवर्षि ब्राह्मण की देवश्री पत्नी से इनका जन्म हुआ। ये प्रतिभाशाली और समस्त शास्त्रों के पारंगत विद्वान थे। वृद्धवादि जब उज्जयिनी नगरी में पधारे तो उनके साथ सिद्धसेन का शास्त्रार्थ हुआ। सिद्धसेन वृद्धवादि से बहुत प्रभावित हुए और उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। गुरु ने इनका दीक्षा नाम कुमुदचन्द्र रखा।१ इनके सम्बन्ध में यह भी कहा जाता है कि इन्होंने उज्जयिनी में महाकाल के मन्दिर में ‘कल्याणमन्दिर स्तोत्र’ द्वारा शिवपिण्डी से पार्श्वनाथ का बिम्ब प्रकट किया था और विक्रमादित्य राजा को सम्बोधित किया था।
सिद्धसेन के समय के सम्बन्ध में अनेक मान्यताएं प्रचलित हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय में सिद्धसेन को सेनगण का आचार्य माना जाता है अतएव सन्मतिसूत्र के कर्ता आचार्य श्री सिद्धसेन का समय समन्तभद्र के पश्चात् और पूज्यपाद के पूर्व या समकालीन माना जा सकता है।
कल्याणधाम, भयनाशक पापहारी, त्यों है जहाज भव—सिन्धु पड़े जनों के। निन्दाविहीन अति सुन्दर सौख्यकारी, पादारविन्द प्रभु के नम के उन्हीं को।।१।।
(7) श्री वादिराज आचार्य
एकीभाव स्तोत्र के रचयिता श्री आचार्य वादिराज वि. स. की ११वीं शताब्दी के महान् विद्वान आचार्य थे। वादिराज यह उनकी पदवी थी, नाम नहीं। जगत्प्रसिद्ध वादियों में उनकी गणना होने से वे वादिराज के नाम से प्रसिद्ध हुए। आपकी गणना जैनसाहित्य के प्रमुख आचार्यों में की जाती है।
वादिराज स्वामी का चौलुक्य नरेश जयिंसह (प्रथम) की सभा में बड़ा सम्मान था। पूर्वकृत पापोदय से आचार्यश्री के शरीर में कुष्ट रोग हो गया। नि:स्पृही वीतरागी सन्त अपने शरीर की वेदना की चिन्ता न करते हुए अपने आत्मध्यान में लीन रहते थे किन्तु जिनधर्म विद्वेषी एक दुष्ट स्वभावी विद्वान् ने राजसभा में मुनि का अपमान करते हुए उन्हें कोढ़ी कह दिया। राजश्रेष्ठी को यह उपहास सहन नहीं हुआ और उन्होंने राजा से कहा कि जैन मुनियों की काया स्वर्ण के समान सुन्दर है। राजा ने प्रात:काल आचार्यश्री के दर्शनार्थ जाने का निर्णय लिया तब राजश्रेष्ठी ने जाकर सारी बात आचार्यश्री को बताई और जिनधर्म की रक्षा करने की प्रार्थना की। आचार्यश्री ने राजश्रेष्ठी को आशीर्वाद देकर भेज दिया और स्वयं भगवान आदिनाथ की भक्ति में तल्लीन हो एकीभाव स्तोत्र की रचना कर डाली, जिसके प्रभाव से रात भर में ही उनका गलित कुष्टग्रस्त शरीर स्वर्णवत् चमकने लगा। प्रात: राजा, राजश्रेष्ठी और जिनधर्म द्वेषी सभी ने आचार्य के पास जंगल में पहुंचकर जब उनका ध्यानस्थ कान्तियुक्त शरीर देखा तो आनन्द विभोर हो गए। राजा मुनि के चरणों में नमन कर जब धर्मद्वेषी को क्रोध से देखने लगा तब मुनि ने राजा को सारी बात बताकर कहा कि जैनधर्म के सभी साधु कुष्ठी नहीं होते हैं। राजा मुनिश्री के वचनों को सुनकर बहुत प्रभावित हुए, सभी ने आचार्यश्री से क्षमाप्रार्थना की और जिनधर्म को धारणकर सम्यग्दर्शन प्राप्त किया।
एकीभाव स्तोत्र—
एकीभावं गत इव मया य: स्वयं कर्मबन्धो। घोरं दु:खं भवभवगतो, दुर्निवार: करोति।। तस्याप्यस्य त्वयि जिनरवे भक्तिरुन्मुक्तये चे- ज्जेतुं शक्यो भवति न तया कोऽपरस्तापहेतु:।।१।।
(8) श्री विद्यानन्द आचार्य
आचार्य श्री विद्यानन्द ऐसे महान तार्किक आचार्य हुए हैं जिन्होंने प्रमाण और दर्शन सम्बन्धी ग्रंथों की रचना करके श्रुत परम्परा को महत्त्वशील बनाया है। इनकी रचनाओं से ये दक्षिण भारत के कर्नाटक प्रान्त के निवासी लगते हैं। इसी प्रदेश को इनकी साधना और कार्यभूमि होने का गौरव प्राप्त है। िंकवदन्तियों के अनुसार इनका जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इस मान्यता की सिद्धि इनके प्रखर पांडित्य और महती विद्वत्ता से भी होती है। इन्होंने वैशेषिक, न्याय, मीमांसा, वेदान्त आदि दर्शनों का अध्ययन कर लिया था। इन आस्तिक दर्शनों के अतिरिक्त ये दिग्नाग, धर्मकीर्ति और प्रभाकर आदि बौद्ध ग्रंथों के तलस्पर्शी विद्वान थे।
शक संवत् १३२० के एक अभिलेखानुसार१ नन्दिसंघ के मुनियों की नामावली में विद्यानन्द का नाम आता है जिससे यह अनुमान होता है कि इन्होंने नन्दिसंघ के किसी आचार्य से दीक्षा ग्रहण की है और महान आचार्य पद को सुशोभित किया है। श्री वादिराज ने (ई. सन् १०५५) अपने ‘‘पार्श्वनाथ चरित’’ नामक काव्य में इनका स्मरण किया है जिससे यह स्पष्ट होता है कि इनकी कीर्ति ई. सन् की १०वीं शताब्दी में चारों तरफ पैâल रही थी। पं. दरबारी लाल कोठिया ने इनका समय ई. सन् की नवम् शती२ बताया है।
इनके गृहस्थ जीवन का तथा दीक्षा गुरु का कोई विशेष परिचय और नाम उपलब्ध नहीं है।
इनकी रचनाएँ—इनकी रचनाओं को दो भागों में विभक्त किया गया है—
१. स्वतन्त्र ग्रंथ, २. टीकाग्रंथ
स्वतन्त्र ग्रंथ—(१) आप्तपरीक्षा (स्वोपज्ञवृत्ति सहित), २. प्रमाण परीक्षा, ३. पत्र परीक्षा, ४. सत्यशासन परीक्षा, ५. श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र, ६. विद्यानन्द महोदय।
२. टीकाग्रंथ—१. अष्टसहस्री, २. श्लोकवार्तिक, ३. युक्त्यानुशासनालंकार।
इन विद्यानंद आचार्य को ही कई विद्वानों ने पात्रकेसरी आचार्य माना है।
पात्रकेशरी स्तोत्र—
ददास्यनुपमं सुखं स्तुतिपरे—ष्वतुष्यन्नपि। क्षिपस्य—कुपितोऽपि च ध्रुव—मसूयकान्—दुर्गतौ।। न चेश ! परमेष्ठिता तव विरुध्यते यद्भवान्। न कुप्यति न तुष्यति प्रकृति—माश्रितो मध्यमाम्।।८।।
हिन्दी—
स्तुतिकर्ता पर तुष्ट न हो, फिर भी अनुपम सुख देते हो। निदक पर भी क्रुद्ध न हो, निश्चित दुर्गति पहुँचाते हो।। तथापि ईश ! तव परमेष्ठिपना, विरुद्ध नहीं क्यों की। मध्यम प्रकृती का आश्रय ले, क्रोध तोष नहिं करें कृती।।८।।