कृतिवेदनादिचतुा\वशत्यनियोगद्वारेषु।१’’
षट्खण्डागम पुस्तक-९ में २४ अनुयोगद्वार का वर्णन देखिए—
अब इस वेदनाखण्ड नामक ग्रंथ का संबंध प्रतिपादन करने हेतु श्री भूतबली आचार्य के द्वारा उत्तर सूत्र कहा जाता है-
सूत्रार्थ-
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-अग्रायणीय नामक द्वितीय पूर्व की जो पंचम वस्तु है उसी के चतुर्थ प्राभृत का कर्मप्रकृति नाम है। उसमें जो चौबीस अनियोगद्वार हैं उनके नाम इस प्रकार हैं-कृति, वेदना, स्पर्श, कर्म, प्रकृति, बंधन, निबंधन, प्रक्रम, उपक्रम, उदय, मोक्ष, संक्रम, लेश्या, लेश्याकर्म, लेश्यापरिणाम, सातासात, दीर्घह्रस्व, भवधारणीय, पुद्गलात्त, निधत्तानिधत्त, निकाचितानिकाचित, कर्मस्थिति, पश्चिमस्कंध और अल्पबहुत्व ये चौबीस अनियोगद्वार होते हैं।
इन चौबीस अनुयोगद्वारों की विषयप्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-
कृति अनुयोगद्वार में औदारिक, वैक्रियिक, तैजस, आहारक और कार्मण शरीरों की संघातन और परिशातनरूप प्रकृति की तथा भव के प्रथम, अप्रथम, चरम और अचरम समय में स्थित जीवों की कृति, नोकृति एवं अवक्तव्यरूप संख्याओं की प्ररूपणा की जाती है। वेदना अनुयोगद्वारों में वेदना संज्ञा वाले कर्मपुद्गलों का वेदनानिक्षेप आदि सोलह अनुयोगद्वारों के द्वारा प्ररूपणा करते हैं।
स्पर्शनानुयोगद्वार में स्पर्श गुण के संबंध से स्पर्श नाम को व ज्ञानावरणादि के भेद से आठ भेद को भी प्राप्त हुए कर्मपुद्गलों की स्पर्शनिक्षेप आदि सोलह अनुयोगद्वारों से प्ररूपणा की जाती है। कर्म अनुयोगद्वार में कर्मनिक्षेप आदि सोलह अनुयोगद्वारों के द्वारा ज्ञानावरण आदि कार्यों के करने में समर्थ होने से कर्म संज्ञा को प्राप्त पुद्गलों की प्ररूपणा की जाती है।
प्रकृति अनुयोगद्वार में कृति अधिकारों में जिनके संघातन स्वरूप की प्ररूपणा की गई है, वेदना अधिकारों में जिनके अवस्था विशेष व प्रत्ययादिकों की प्ररूपणा की गई है, स्पर्श अधिकार में जिनके जीव के साथ संबंध की प्ररूपणा की गई है तथा जीव संबंध गुण से कर्म अधिकार में जिनके व्यापार की प्ररूपणा की गई है। उन पुद्गलों के स्वभाव की प्रकृतिनिक्षेप आदि सोलह अनुयोगद्वारों से प्ररूपणा की जाती है।
जो बंधन अनुयोगद्वार है वह चार प्रकार का है-बंध, बंधक, बंधनीय और बंधविधान। उनमें बंध अधिकार जीव और कर्म के प्रदेशों के सादि व अनादि बंध का वर्णन करता है। बंधक अधिकार आठ प्रकार के कर्मों को बांधने वाले जीवों की प्ररूपणा करता है। उसकी क्षुद्रकबंध में प्ररूपणा की जा चुकी है। बंधनीय अधिकार बंध के योग्य और उसके अयोग्य पुद्गल द्रव्य की प्ररूपणा करता है। बंधविधान प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध की प्ररूपणा करता है।
निबंधन अनुयोगद्वार मूल और उत्तरप्रकृतियों के निबंधन का वर्णन करता है। जैसे-चक्षुइन्द्रिय रूप में निबद्ध है, श्रोत्र इन्द्रिय शब्द में निबद्ध है, घ्राण इन्द्रिय गंध में निबद्ध है, जिह्वा इन्द्रिय रस में निबद्ध है और स्पर्श इन्द्रिय कर्कशादि-कठोर, मृदु स्पर्शों में निबद्ध है, उसी प्रकार ये प्रकृतियाँ इन अर्थों में निबद्ध है, इस प्रकार निबंधन की प्ररूपण करता है, यह भावार्थ है।
प्रक्रम यह अनुयोगद्वार उपक्रम स्वरूप से स्थित, मूल व उत्तर प्रकृतियों के स्वरूप से परिणमन करने वाले तथा प्रकृति, स्थिति व अनुभाग के भेद से विशेषता को प्राप्त हुए कार्मणवर्गणास्कन्धों के प्रदेशों की प्ररूपणा करता है।
उपक्रम अनुयोगद्वार के चार अधिकार हैं-बंधनोपक्रम, उदीरणोपक्रम, उपशामनोपक्रम और विपरिणामोपक्रम। उनमें बंधोपक्रम अधिकार बंध के द्वितीय समय से लेकर आठ कर्र्मोें के प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध का वर्णन करता है। उदीरणोपक्रम अधिकार प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों के भेद से भिन्न उदीरणा की प्ररूपणा करता है। उपशामनोपक्रम अधिकार प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से भेद को प्राप्त प्रशस्तोपशामना एवं अप्रशस्तोपशामना का वर्णन करता है। विपरिणामोपक्रम अधिकार प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों की देशनिर्जरा और सकलनिर्जरा को प्ररूपित करता है।
उदयानुयोगद्वारप्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों के उदय को कहता है।
मोक्षानुयोगद्वार प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों के मोक्ष का वर्णन करता है।
यहाँ कोई शिष्य पूछता है कि-मोक्ष ओर विपरिणामोपक्रम के क्या भेद है ?
इस शंका के उत्तर में आचार्य कहते हैं कि-विपरिणामोपक्रम अधिकार देशनिर्जरा और सकलनिर्जरा के स्वरूप का वर्णन करता है, परन्तु मोक्षानुयोगद्वार देशनिर्जरा व सकलनिर्जरा के साथ परप्रकृतिसंक्रमण, अपकर्षण, उत्कर्षण और अध:स्थितिगलन से प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबंध से भेदरूप मोक्ष का वर्णन करता है, यह दोनों में भेद है।
संक्रम अनुयोगद्वार प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों के संक्रमण की प्ररूपणा करता है।
लेश्यानुयोगद्वार छह द्रव्यल्श्याओं का कथन करता है।
लेश्याकर्मानुयोगद्वार अन्तरंग छह लेश्याओं से परिणत जीवों के बाह्य कार्य का प्ररूपण करता है।
लेश्यापरिणामानुयोगद्वार जीव और पुद्गलों के द्रव्य और भावलेश्यारूप से परिणमन करने के विधान का वर्णन करता है।
सातासातानुयोगद्वार एकान्तसाता, अनेकांत साता, एकान्तअसाता और अनेकांतअसाता की गति आदि मार्गणाओं का आश्रय करके प्ररूपण करता है।
दीर्घ-ह्रस्वानुयोगद्वार प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों का आश्रय करके दीर्घता-ह्रस्वता की प्ररूपणा करता है।
भवधारणीय अनुयोगद्वार किस कर्म से तिर्यंच पर्याय, किस कर्म से मनुष्य पर्याय और किस कर्म से देव पर्याय धारण की जाती है, इसकी प्ररूपणा करता है।
पुद्गलात्त अनुयोगद्वार ग्रहण से आत्त-प्राप्त पुद्गल और परिग्रह से आत्त-प्राप्त पुद्गल, उपभोग से आत्त पुद्गल, आहार से आत्त पुद्गल, ममत्व से आत्त-प्राप्त पुद्गल और परिग्रह से आत्तपुद्गल इस प्रकार विवक्षित और अविवक्षित पुद्गलों के संबंध से पुद्गलत्व को प्राप्त जीवों की भी प्ररूपणा करता है।
निधत्तानिधत्त अनुयोगद्वार प्रकृति, स्थिति और अनुभाग के निधत्त एवं अनिधत्त की प्ररूपणा करता है।
यहाँ कोई प्रश्न करता है कि-निधत्त किसे कहते हैं ?
आचार्य समाधान देते हैं-जो प्रदेशाग्र उदय में देने-प्राप्त कराने के लिए अथवा अन्य प्रकृतिरूप परिणमाने के लिए शक्य नहीं है, वह निधत्त कहलाता है। इससे विपरीत अनिधत्त है।
निकाचितानिकाचित अनुयोगद्वार प्रकृति, स्थिति और अनुभाग के निकाचन और अनिकाचन की प्ररूपणा करता है।
शंका-निकाचन किसे कहते हैं ?
समाधान-जो प्रदेशपुंज अपकर्षण के लिए उत्कर्षण के लिए, अन्य प्रकृतिरूप परिणमाने के लिए और उदय में देने-आने के लिए शक्य नहीं है, वह निकाचित कहलाता है। इससे विपरीत अनिकाचित है। उसी का गाथा के द्वारा कहते हैं-
गाथार्थ-जो कर्म उदय में नहीं आ सके, वह उपशान्त कहलाता है। जो कर्म संक्रमण व उदय में नहीं आ सके, उसे निधत्त कहते हैं। जो कर्म उदय, संक्रमण, उत्कर्षण व अपकर्षण, इन चारों में ही आ सकता है। वह निकाचित कहा जाता है।१
कर्मस्थिति अनुयोगद्वार सब कर्मों की शक्तिरूप कर्मस्थिति और उत्कर्षण-अपकर्षण से उत्पन्न स्थिति की प्ररूपणा करता है।
पश्चिमस्कंध अनुयोगद्वार दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घातों की, उनमें स्थितिकाण्डक व अनुभागकाण्डकों के घातने के विधान की, योगकृष्टियों को करके होने वाले योगनिरोध के स्वरूप की तथा कर्मों के क्षय करने की विधि की प्ररूपणा करता है।
अल्प-बहुत्व अनुयोगद्वार पिछले सब अनुयोगद्वारों में अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा करता है।
तात्पर्य यह है कि-यहाँ संक्षेप में भगवान् की वाणी को चौबीस अनुयोगस्वरूप जानकर उसे पढ़कर पुन: पुन: उसका अध्ययन और अध्यापन करके उसे स्मृतिपथ में उतारकर हम सभी को परम आनन्द का अनुभव करना चाहिए और इस श्रुतज्ञान के द्वारा ही भावश्रुतज्ञान को प्रगट करना चाहिए।
षट्खण्डागम ग्रंथ की १६ पुस्तकों में से यहाँ पर ५ पुस्तकों का सार दे रहे हैं जिसे पढ़कर षट्खण्डागम सूत्र ग्रंथ में क्या विषय है ? आदि के ज्ञानामृत का लाभ प्राप्त करें—
षट्खण्डागम पुस्तक-१-सत्प्ररूपणा अधिकार का सार
ये सूत्र अर्थप्ररूपणा की अपेक्षा से तीर्थंकर भगवान से अवतीर्ण हुए हैं और ग्रंथ की अपेक्षा श्री गणधर देव से अवतीर्ण हुए हैं।
अथवा ‘जिनपालित’ शिष्य को निमित्त कहा है।
श्री पुष्पदंताचार्य ने अपने भानजे ‘जिनपालित’ को दीक्षा देकर प्रारंभिक १७७ सूत्रों की रचना करके भूतबलि आचार्य के पास भेजा था। ऐसा ‘धवलाटीका’ में एवं श्रुतावतार में वर्णित है।
णमोकार महामंत्र मंगलाचरण को सूत्र १ संज्ञा दी है। आगे द्वितीय सूत्र का अवतार हुआ है-
इस द्रव्यश्रुत और भावश्रुतरूप प्रमाण से इन चौदह गुणस्थानों के अन्वेषणरूप प्रयोजन के लिए यहाँ से चौदह ही मार्गणास्थान जानने योग्य हैं।
ऐसा कहकर पहले चौदह मार्गणाओं के नाम बताए हैं। यथा-गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार ये चौदह मार्गणा हैं।
पुन: पांचवें सूत्र में कहा है-
इन्हीं चौदह गुणस्थानों का निरूपण करने के लिए आगे कहे जाने वाले आठ अनुयोगद्वार जानने योग्य हैंं।।६।।
इन आठों के नाम-१. सत्प्ररूपणा २. द्रव्यप्रमाणानुगम ३. क्षेत्रानुगम ४. स्पर्शनानुगम ५. कालानुगम ६. अन्तरानुगम ७. भावानुगम और ८. अल्पबहुत्वानुगम।
आगे प्रथम ‘सत्प्ररूपणा’ का वर्णन करते हुए ओघ और आदेश की अपेक्षा निरूपण करने को कहा है।
इसी में ओघ की अपेक्षा चौदह गुणस्थानों का वर्णन है और आगे चौदह मार्गणाओं का वर्णन करके उनमें गुणस्थानों को भी घटित किया है। मार्गणाओं के नाम ऊपर लिखे गये हैं। गुणस्थानों के नाम-
१. मिथ्यात्व २. सासादन ३. मिश्र ४. असंयतसम्यग्दृष्टि ५. देशसंयत ६. प्रमत्तसंयत ७. अप्रमत्तसंयत ८. अपूर्वकरण ९. अनिवृत्तिकरण १०. सूक्ष्मसांपराय ११. उपशांतकषाय १२. क्षीणकषाय १३. सयोगिकेवली और १४. अयोगिकेवली ये चौदह गुणस्थान हैं।
इस प्रथम ग्रंथ में प्रारंभ में पंच परमेष्ठियों के वर्णन में एक सुन्दर प्रश्नोत्तर धवला टीका में आया है जिसे मैंने जैसे का तैसा लिया है। यथा-
इत्यादि।
शंका-संपूर्णरत्न-पूर्णता को प्राप्त रत्नत्रय ही देव है, रत्नों का एकदेश देव नहीं हो सकता है ?
समाधान-ऐसा नहीं कहना, क्योेंकि रत्नत्रय के एकदेश में देवपने का अभाव होने पर उसकी संपूर्णता में भी देवपना नहीं बन सकता है।
शंका-आचार्य आदि में स्थित रत्नत्रय समस्त कर्मों का क्षय करने में समर्थ नहीं हो सकते, क्योंकि उसमें एकदेशपना ही है, पूर्णता नहीं है ?
समाधान-यह कथन समुचित नहीं है, क्योंकि पलालराशि-घास की राशि को जलाने का कार्य अग्नि के एक कण में भी देखा जाता है इसलिए आचार्य, उपाध्याय और साधु भी देव हैं१।’’
यह समाधान श्री वीरसेनाचार्य ने बहुत ही उत्तम बताया है।
षट्खण्डागम पुस्तक २-आलाप अधिकार का सार
यह द्वितीय ग्रंथ सत्प्ररूपणा के ही अंतर्गत है। इसमें सूत्र नहीं हैं।
‘‘संपहि संत-सुतविवरण-समत्ताणंतरं तेसिं परुवणं भणिस्सामो।’’
सत्प्ररूपणा के सूत्रों का विवरण समाप्त हो जाने पर अनंतर अब उनकी प्ररूपणा का वर्णन करते हैं-
शंका-प्ररूपणा किसे कहते हैं ?
समाधान-सामान्य और विशेष की अपेक्षा गुणस्थानों में, जीवसमासों में, पर्याप्तियों में, प्राणों में, संज्ञाओं में, गतियों में, इन्द्रियों में, कायों में, योगों में, वेदों में, कषायों में, ज्ञानों में, संयमों में, दर्शनों में, लेश्याओं में, भव्यों में, अभव्यों में, संंज्ञी-असंज्ञियों में, आहारी-अनाहारियों में और उपयोगों में पर्याप्त और अपर्र्याप्त विशेषणों से विशेषित करके जो जीवों की परीक्षा की जाती है, उसे प्ररूपणा कहते हैं। कहा भी है-
गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणाएं और उपयोग, इस प्रकार क्रम से बीस प्ररूपणाएं कही गई हैं।
इनके कोष्ठक गुणस्थानों के एवं मार्गणाओं के बनाये गये हैं।
गुणस्थान १४ हैं, जीवसमास १४ हैं-एकेन्द्रिय के बादर-सूक्ष्म ऐसे २, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ऐसे ३, पंचेन्द्रिय के संज्ञी-असंज्ञी ऐसे २, ये ७ हुए, इन्हें पर्याप्त-अपर्याप्त से गुणा करने पर १४ हुए। पर्याप्ति ६-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन। प्राण १० हैं-पांच इन्द्रिय, मनोबल, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास। संज्ञा ४ हैं-आहार, भय, मैथुन और परिग्रह। गति ४ हैं-नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति। इन्द्रियां ५ हैं-एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियजाति। काय ६ हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रसकाय। योग १५ हैं-सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, उभयमनोयोग, अनुभयमनोयोग, सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, उभयवचनयोग, अनुभयवचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र और कार्मणकाय योग। वेद ३ हैं-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद। कषाय ४ हैं-क्रोध, मान, माया, लोभ। ज्ञान ८ हैं-मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवलज्ञान, कुमति, कुश्रुत और विभंगावधि। संयम ७ हैं-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय, यथाख्यात, देशसंयम और असंयम। दर्शन ४ हैं-चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। लेश्या ६ हैं-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल। भव्य मार्गणा २ हैं-भव्यत्व और अभव्यत्व। सम्यक्त्व ६ हैं-औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक, मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र। संज्ञी मार्गणा के २ भेद हैं-संज्ञी, असंज्ञी। आहार मार्गणा २ हैं-आहार, अनाहार। उपयोग के २ भेद हैं-साकार और अनाकार।
इस ग्रंथ को मैंने दो महाधिकारों में विभक्त किया है। इसमें कुल ५४५ कोष्ठक-चार्ट हैं। उदाहरण के लिए पांचवें गुणस्थान का एक चार्ट दिया जा रहा है-
इनमें से संयतासंयत के कोष्ठक में-
गुणस्थान १ है-पाँचवां देशसंयत। जीवसमास १ है-संज्ञीपर्याप्त। पर्याप्तियाँ छहों हैं, अपर्याप्तियाँ नहीं है। प्राण १० हैं। संज्ञायें ४ हैं। गति २ हैं-मनुष्य, तिर्यंच। इंद्रिय १ है-पंचेन्द्रिय। काय १ है-त्रसकाय। योग ९ हैं-४ मनोयोग, ४ वचनयोग, १ औदारिक काययोग। वेद ३ हैं। कषाय ४ हैं। ज्ञान ३ हैं-मति, श्रुत, अवधि। संयम १ है-संयमासंयम। दर्शन ३ हैं-केवलदर्शन के बिना। लेश्या द्रव्य से-वर्ण से छहों हैं, भावलेश्या शुभ ३ हैं। भव्यत्व १ है। सम्यक्त्व ३ हैं-औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक। संज्ञीमार्गणा १ है-संज्ञी। आहार मार्गणा १ है-आहारक। उपयोग २ हैं-साकार और अनाकार। यही सब चार्ट में दिखाया गया है।
इस प्रकार यह दूसरी पुस्तक का सार अतिसंक्षेप में बताया गया है।
षट्खण्डागम पुस्तक ३-द्रव्यप्रमाणानुगम का सार
इस ग्रंथ में श्री भूतबलि आचार्य वर्णित सूत्र हैं अब यहाँ से संपूर्ण ‘षट्खण्डागम’ सूत्रों की रचना इन्हीं श्रीभूतबलि आचार्य द्वारा लिखित है। कहा भी है-
‘‘संपहि चोद्दसण्हं जीवसमासाणमत्थित्तमवगदाणं सिस्साणं तेसिं चेव पदिमाणपडिबोहणट्ठं भूदबलियाइरियो सुत्तमाह१-’’
जिन्होंने चौदहों गुणस्थानों के अस्तित्व को जान लिया है, ऐसे शिष्यों को अब उन्हीं के चौदहों गुणस्थानों के-चौदहों गुणस्थानवर्ती जीवों के परिमाण-संख्या के ज्ञान को कराने के लिए श्रीभूतबलि आचार्य आगे का सूत्र कहते हैं-
इसमें प्रथम सूत्र-
द्रव्यप्रमाणानुगम की अपेक्षा निर्देश दो प्रकार का है, ओघ निर्देश और अादेशनिर्देश। ओघ-गुणस्थान और आदेश-मार्गणा इन दोनों की अपेक्षा से उन-उन में जीवों का वर्णन किया गया है।
इस ग्रंथ में भी मैंने दो अनुयोगद्वार लिये हैंं-द्रव्यप्रमाणानुगम और क्षेत्रानुगम।
चौदह गुणस्थानों में जीवों की संख्या बतलाते हैं-
प्रथम गुणस्थान में जीव अनंतानंत हैं। द्वितीय गुणस्थान में ५२ करोड़ हैं। तृतीय गुणस्थान में १०४ करोड़ हैं। चतुर्थ गुणस्थान में सात सौ करोड़ हैंं। पाँचवे गुणस्थान में १३ करोड़ हैं।
प्रमत्तसंयत नाम के छठे गुणस्थान से लेकर अयोगकेवली नाम के चौदहवें गुणस्थान के महामुनि एवं अरहंत भगवान ‘संयत’ कहलाते हैं। उन सबकी संख्या मिलाकर ‘तीन कम नव करोड़’ है। धवला टीका में कहा है-
श्री वीरसेनाचार्य ने आकाश को क्षेत्र कहा है। आकाश का कोई स्वामी नहीं है, इस क्षेत्र की उत्पत्ति में कोई निमित्त भी नहीं है यह स्वयं में ही आधार-आधेयरूप है। यह क्षेत्र अनादिनिधन है और भेद की अपेक्षा लोकाकाश-अलोकाकाश ऐसे दो भेद हैं। इस प्रकार निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान से क्षेत्र का वर्णन किया है।
क्षेत्र में गुणस्थानवर्ती जीवों को घटित करते हुए कहा है-
इसमें एक प्रश्न हुआ है-
लोकाकाश असंख्यातप्रदेशी है, उसमें अनंतानंत जीव कैसे समायेंगे ?
यद्यपि लोक असंख्यात प्रदेशी है फिर भी उसमें अवगाहनशक्ति विशेष है जिससे उसमें अनंतानंत जीव एवं अनंतानंत पुद्गल समाविष्ट हैं। जैसे मधु से भरे हुए घड़े में उतना ही दूध भर दो, उसी में समा जायेगा२।
इस अनुयोगद्वार में स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद ऐसे तीन भेदों द्वारा जीवों के क्षेत्र का वर्णन किया है।
इस चतुर्थ ग्रंथ-पुस्तक में स्पर्शनानुगम एवं कालानुगम इन दो अनुयोगद्वारों का वर्णन है।
यह स्पर्शन भूतकाल एवं वर्तमानकाल के स्पर्श की अपेक्षा रखता है। पूर्व में जिसका स्पर्श किया था और वर्तमान में जिसका स्पर्श कर रहे हैं, इन दोनों की अपेक्षा से स्पर्शन का कथन किया जाता है।
स्पर्शन में छह प्रकार के निक्षेप घटित किये हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावस्पर्शन।
स्पर्शन शब्द नामस्पर्शन है। यह द्रव्यार्थिकनय का विषय है। यह वही है, ऐसी बुद्धि से अन्य द्रव्य के साथ अन्यद्रव्य का एकत्व करना स्थापनास्पर्शन निक्षेप है जैसे घट आदि में ये ऋषभदेव हैं, अजितनाथ हैं, संभवनाथ हैं, अभिनंदननाथ हैं इत्यादि। यह भी द्रव्यार्थिक नय का विषय है। इत्यादि निक्षेपों का वर्णन है।
पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से प्ररूपणा करते हुए कहा है-
स्वस्थानस्वस्थान-वेदना-कषाय-मारणांतिक-उपपादगतमिथ्यादृष्टियों ने भूतकाल एवं वर्तमानकाल से सर्वलोक को स्पर्श किया है।
इसी प्रकार गुणस्थान और मार्गणाओं में जीवों के भूतकालीन, वर्तमानकालीन स्पर्शन का वर्णन किया है।
कालानुगम-इसमें भी गुणस्थान और मार्गणा की अपेक्षा दो महाधिकार कहे हैं। काल को नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ऐसे चार भेद रूप से कहा है पुनश्च-‘नो आगमभावकाल’ से इस ग्रंथ में वर्णन किया है।
यह काल अनादि अनंत है, एक विध है, यह सामान्य कथन है। काल के भूत, वर्तमान और भविष्यत् की अपेक्षा तीन भेद हैं।
एक प्रश्न आया है-
स्वर्गलोक में सूर्य के गति की अपेक्षा नहीं होने से वहां मास, वर्ष आदि का व्यवहार वैâसे होगा?
तब आचार्यदेव ने समाधान दिया है-
यहाँ के व्यवहार की अपेक्षा ही वहाँ पर ‘काल’ का व्यवहार है। जैसे जब यहाँ ‘कार्तिक’ आदि मास में आष्टान्हिक पर्व आते हैं, तब देवगण नंदीश्वर द्वीप आदि में पूजा करने पहुँच जाते हैं इत्यादि।
नाना जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि का सर्वकाल है।।२।।
एकजीव की अपेक्षा किसी का अनादिअनंत है, किसी का अनादिसांत है, किसी का सादिसांत है। इनमें से जो सादि और सांत काल है, उसका निर्देश इस प्रकार है। एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव का सादिसांत काल जघन्य से अंतर्मुहूर्त है१।।३।।
वह इस प्रकार है-
कोई सम्यग्मिथ्यादृष्टि अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा संयतासंयत, अथवा प्रमत्तसंयतजीव, परिणामों के निमित्त से मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। सर्वजघन्य अंतर्मुहूर्त काल रह करके, फिर भी सम्यक्त्वमिथ्यात्व को अथवा असंयम के साथ सम्यक्त्व को, अथवा संयमासंयम को, अथवा अप्रमत्तभाव के साथ संयम को प्राप्त हुआ। इस प्रकार से प्राप्त होने वाले जीव के मिथ्यात्व का सर्वजघन्य काल होता है१।
इस ग्रंथ में अन्तरानुगम में ३९७ सूत्र हैं, भावानुगम में ९३ सूत्र हैं एवं अल्पबहुत्वानुगम में ३८२ सूत्र हैं। इस प्रकार ३९७±९३±३८२·८७२ सूत्र हैं।
अन्तरानुगम-इस ग्रंथ की सिद्धान्तचिन्तामणि टीका में मैंने दो महाधिकार विभक्त किये हैं। प्रथम महाधिकार में गुणस्थानों में अंतर का निरूपण है। द्वितीय महाधिकार में मार्गणाओं में अंतर दिखाया गया है।
नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से छहविध निक्षेप हैं। अंतर, उच्छेद, विरह, परिणामान्तरगमन, नास्तित्वगमन और अन्यभावव्यवधान, ये सब एकार्थवाची हैं। इस प्रकार के अन्तर के अनुगम को अन्तरानुगम कहते हैं।
एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है।।३।।
जैसे एक मिथ्यादृष्टि जीव, सम्यग्मिथ्यात्व, अविरतसम्यक्त्व, संयमासंयम और संयम में बहुत बार परिवर्तित होता हुआ परिणामों के निमित्त से सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ और वहाँ पर सर्वलघु अंतर्मुहूर्त काल तक सम्यक्त्व के साथ रहकर मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। इस प्रकार सर्वजघन्य अंतर्मुहूर्त प्रमाण मिथ्यात्वगुणस्थान का अंतर प्राप्त हो गया।
मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अंतर कुछ कम दो छ्यासठ सागरोपम काल है।।४।।
इन ग्रंथो के स्वाध्याय में जो आल्हाद उत्पन्न होता है, वह असंख्यात गुणश्रेणीरूप से कर्मों की निर्जरा का कारण है। यहाँ तो मात्र नमूना प्रस्तुत किया जा रहा है।
भावानुगम-इसमें भी महाधिकार दो हैं। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इनकी अपेक्षा यह भाव चार प्रकार का है। इसमें भी भावनिक्षेप के आगमभाव एवं नोआगमभाव ऐसे दो भेद हैं। नोआगमभाव नामक भावनिक्षेप के औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक ये पाँच भेद हैं।
असंयतसम्यग्दृष्टि में कौन सा भाव है ?
औपशमिकभाव भी है, क्षायिकभाव भी है और क्षायोपशमिक भाव भी है।।५।।
यहाँ सम्यग्दर्शन की अपेक्षा से ये भाव कहे हैं। यद्यपि यहाँ औदयिक भावों में से गति, कषाय आदि भी हैं किन्तु उनसे सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता इसलिए उनकी यहाँ विवक्षा नहीं है।
अल्पबहुत्वानुगम-
इस अल्पबहुत्व में गुणस्थान और मार्गणाओं में सबसे अल्प कौन हैं ? और अधिक कौन हैं ? यही दिखाया गया है। यथा-
सामान्यतया-गुणस्थान की अपेक्षा से अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में उपशामक जीव प्रवेश की अपेक्षा परस्पर तुल्य हैं तथा अन्य सब गुणस्थानों के प्रमाण से अल्प हैं१।।२।।
और मिथ्यादृष्टि सबसे अधिक अनंतगुणे हैें२।।१४।।
इस ग्रंथ में भी बहुत से महत्वपूर्ण विषय ज्ञातव्य हैं। जैसे कि-‘‘दर्शन मोहनीय का क्षपण करने वाले-क्षायिक सम्यक्त्व प्रगट करने वाले जीव नियम से मनुष्यगति में होते हैं।’’
जिन्होंने पहले तिर्यंचायु का बंध कर लिया है ऐसे जो भी मनुष्य क्षायिक सम्यक्त्व के साथ तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं उनके संयमासंयम नहीं होता है, क्योंकि भोगभूमि को छोड़कर उनकी अन्यत्र उत्पत्ति असंभव है३।’’
यह सभी साररूप अंश मैंने यहाँ दिये हैं। अपने ज्ञान के क्षयोपशम के अनुसार इन-इन गं्रथों का स्वाध्याय श्रुतज्ञान की वृद्धि एवं आत्मा में आनंद की अनुभूति के लिए करना चाहिए।