सर्वज्ञ भगवान से अवलोकित अनन्तानन्त अलोकाकाश के बहुमध्य भाग में ३४३ राजु प्रमाण पुरुषाकार लोकाकाश है। यह लोकाकाश जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल इन पाँचों द्रव्यों से व्याप्त है। अनादि अनन्त है। इस लोक के तीन भेद हैं-अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक। सम्पूर्ण लोक की ऊँचाई १४ राजुप्रमाण है एवं मोटाई सर्वत्र ७ राजु है।
लोक की ऊँचाई-असंख्यातों योजनों का १ राजु होता है। १४ राजु ऊँचे लोक में, ७ राजु में अधोलोक एवं ७ राजु में स्वर्गादि हैं। इन दोनों के मध्य में ९९ हजार ४० योजन ऊँचा मध्यलोक है जो कि ऊर्ध्वलोक का कुछ भाग है, वह राजु में नहीं के बराबर है।
लोक की चौड़ाई-लोक के तल भाग में चौड़ाई ७ राजु है। घटते-घटते मध्यलोक में १ राजु रह गई है पुन: मध्यलोक से ऊपर बढ़ते-बढ़ते पाँचवें स्वर्ग तक चौड़ाई ५ राजु होकर आगे घटते-घटते लोक के अग्रभाग तक चौड़ाई १ राजु रह गई है।
त्रसनाली-तीनों लोकों के बीचों-बीच में १ राजु चौड़ी एवं १ राजु मोटी तथा कुछ कम १३ राजु ऊँची त्रसनाली है। इस त्रसनाली में ही त्रसजीव पाये जाते हैं।
लोक का घनफल-यह लोक तल में ७ राजु, मध्य में १, पाँचवें स्वर्ग में ५ और अन्त में १ राजु है। इन चारों स्थानों की चौड़ाई को जोड़ देने से ७±१±५±१·१४ राजु हुए। इन १४ में ४ का भाग देने से १४´४ · ३(१/२) राजु हुए। इसमें लोक के दक्षिण-उत्तर की मोटाई का गुणा कर देने से ३(१/२)²७·२४(१/२) हुए। फिर इस चौड़ाई और मोटाई के गुणनफल में १४ राजु का गुणा कर देने से २४(१/२)²१४·३४३ राजु हो जाते हैं। इस लोकाकाश का घनफल ३४३ राजु प्रमाण है।
वातवलय-इस लोकाकाश को चारों तरफ से वेष्टित करके तीन वातवलय हैं। ये तीनों वातवलय वायुकायिक जीवों के शरीरस्वरूप स्थिर स्वभाव वाले वायुमण्डल हैं। सर्वप्रथम लोक को चारों तरफ से वेष्टित करके घनोदधिवातवलय है, इसको वेष्टित करके घनवात है एवं इसको वेष्टित करके तनुवातवलय स्थित है। तनुवात के चारों तरफ अनन्त अलोकाकाश है।
वातवलय के वर्ण-घनोदधिवात गोमूत्रवर्ण वाला है, घनवात मूँग के समान वर्ण वाला एवं तनुवात अनेक वर्ण वाला है।
वातवलयों की मोटाई-तल भाग से १ राजु ऊँचाई तक तीनों की मोटाई बीस-बीस हजार योजन है। सातवें नरक के पास ७, ५ और ४ योजन है। मध्यलोक के पार्श्व भाग में ५, ४, ३ योजन है। आगे बढ़ते-बढ़ते ब्रह्मस्वर्ग के पार्श्व भाग में ७, ५, ४ योजन, ऊर्ध्वलोक के अंत में पार्श्वभाग में ५, ४, ३ योजन है। लोक शिखर के ऊपर क्रमश: २ कोश, १ कोश ओर कुछ कम १ कोश प्रमाण है।
अधोलोक
अधोलोक में सबसे पहली मध्यलोक से लगी हुई ‘रत्नप्रभा’ पृथ्वी है। इसके कुछ कम एक राजु नीचे ‘शर्कराप्रभा’ है। इसी प्रकार से एक-एक के नीचे बालुका प्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा और महातम:प्रभा भूमियाँ हैं। ये सात पृथ्वियाँ छह राजु में हैं और अंतिम सातवें राजु में निगोद स्थान हैं।
नरकों के दूसरे नाम-घम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी ये इन पृथ्वियों के अनादिनिधन नाम हैं।
रत्नप्रभा पृथ्वी के ३ भाग हैं-खरभाग, पंकभाग और अब्बहुलभाग। खरभाग और पंकभाग में भवनवासी तथा व्यंतर देवों के निवास हैं और अब्बहुलभाग में प्रथम नरक के बिल हैं, जिनमें नारकियों के आवास हैं।
नरकों के बिलों की संख्या-सातों नरकों के बिलों की संख्या चौरासी लाख प्रमाण है। प्रथम पृथ्वी के ३० लाख, द्वितीय के २५ लाख, तृतीय के १५ लाख, चतुर्थ के १० लाख, पाँचवीं के ३ लाख, छठी के ५ कम १ लाख एवं सातवीं पृथ्वी के ५ बिल हैं।
उष्ण और शीतबिल-पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी पृथ्वी के सभी बिल एवं पाँचवीं पृथ्वी के एक चौथाई भाग प्रमाण बिल अत्यन्त उष्ण होने से नारकियों को तीव्र गर्मी की बाधा पहुँचाने वाले हैं। पाँचवीं पृथ्वी के अवशिष्ट एक चौथाई भाग प्रमाण बिल और छठी, सातवीं पृथ्वी के सभी बिल अत्यन्त शीत होने से नारकी जीवों को भयंकर शीत की वेदना देने वाले हैं। यदि उष्ण बिल में मेरु के समान लोहे का गोला डाल देवें तो वह गलकर पानी हो जावे, ऐसे ही शीत बिलों में मेरु पर्वतवत् लोह पिंड विलीन हो जावे।
नरक में उत्पत्ति के दुःख-नारकी जीव महापाप से नरक बिल में उत्पन्न होकर एक मुहूर्त काल में छहों पर्याप्तियों को पूर्ण कर छत्तीस आयुधों के मध्य में औंधे मुँह गिरकर वहाँ से गेंद के समान उछलता है। प्रथम पृथ्वी में नारकी सात योजन, छह हजार, पाँच सौ धनुष प्रमाण ऊपर को उछलता है। इसके आगे शेष नरकों में उछलने का प्रमाण दूना-दूना है।
नरक की मिट्टी-कुत्ते, गधे आदि जानवरों के अत्यन्त सड़े हुए मांस और विष्ठा आदि की अपेक्षा भी अनन्तगुणी दुर्गन्धि से युक्त वहाँ की मिट्टी है, जिसे वे नारकी भक्षण करते हैं। यदि सातवें नरक की मिट्टी का एक कण भी यहाँ आ जावे, तो यहाँ के पच्चीस कोस तक के जीव मर जावें।
नरक के दुःख-वे नारकी परस्पर में चक्र, बाण, शूली, करोंत आदि से एक दूसरे को भयंकर दुःख दिया करते हैं। एक मिनट भी आपस में शांति को प्राप्त नहीं करते हैं। करोंत से चीरना, कुम्भीपाक में पकाना आदि महान दुःखों का सामना करते हुए उन जीवों की मृत्यु भी नहीं हो सकती। जब आयु पूर्ण होती है, तभी वे मरते हैं।
नरक में जाने वाले जीव-कर्मभूमि के पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य ही इन नरकों में जाते हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच पहले नरक तक, सरीसृप दूसरे नरक तक, पक्षी तृतीय नरक तक, भुजंग चतुर्थ नरक तक, सिंह पाँचवें तक, स्त्रियाँ छठे तक, मत्स्य और मनुष्य सातवें तक जाते हैं।
नरक में सम्यक्त्व के कारण-तीसरे नरक तक के नारकी कोई जाति-स्मरण से, कोई दुर्वार वेदना से, कोई देवों के सम्बोधन को प्राप्त कर अनन्त भवों को चूर्ण करने में समर्थ सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर लेते हैंं। शेष चार नरकों के नारकी जातिस्मरण और वेदना अनुभव से सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेते हैं।
मध्यलोक
मध्यलोक १ राजु चौड़ा १ लाख ४० योजन ऊँचा है। यह चूड़ी के आकार का है। इस मध्यलोक में असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र हैं। इस मध्यलोक के बीचों-बीच में एक लाख योजन व्यास वाला अर्थात् ४० करोड़ मील विस्तार वाला जम्बूद्वीप स्थित है। जम्बूद्वीप को घेरे हुए २ लाख योजन विस्तार वाला लवण समुद्र है। लवण समुद्र को घेरे हुए ४ लाख योजन व्यास वाला धातकीखण्ड है, इसको घेरे हुए ८ लाख योजन व्यास वाला कालोदधि समुद्र है। उसके बाद १६ लाख योजन व्यास वाला पुष्कर द्वीप है। इसी तरह आगे-आगे क्रम से द्वीप तथा समुद्र दूने-दूने प्रमाण वाले होते गये हैं। अन्त के द्वीप और समुद्र का नाम स्वयंभूरमण द्वीप और स्वयंभूरमण समुद्र है।
जम्बूद्वीप
जम्बूद्वीप के मध्य में एक लाख योजन ऊँचा तथा दस हजार योजन विस्तार वाला सुमेरु पर्वत है। इस जम्बूद्वीप में छह कुलाचल एवं सात क्षेत्र हैं।
६ कुलाचलों के नाम-हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मि और शिखरी।
७ क्षेत्रों के नाम-भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक्, हैरण्यवत और ऐरावत।
क्षेत्र एवं पर्वतों का प्रमाण-भरतक्षेत्र का विस्तार जम्बूद्वीप के विस्तार का १९०वाँ भाग है अर्थात् १०००००±१९०·५२६ ६/१९ योजन, (२१०५२६३ ३/१९ मील) है। भरत क्षेत्र से आगे हिमवान् पर्वत का विस्तार भरत क्षेत्र से दूना है। ऐसे ही विदेह क्षेत्र तक दूना-दूना और आगे आधा-आधा होता गया है।
विजयार्ध पर्वत-भरतक्षेत्र के मध्य में विजयार्ध पर्वत है। यह ५० योजन (२००००० मील) चौड़ा और २५ योजन विस्तृत (१००००० मी.) ऊँचा है एवं लम्बाई दोनों तरफ से लवण समुद्र को स्पर्श कर रही है। पर्वत के ऊपर दक्षिण और उत्तर दोनों तरफ इस धरातल से १० योजन ऊपर तथा १० योजन ही भीतर समतल में विद्याधरों की नगरियाँ हैं जो कि दक्षिण में ५० एवं उत्तर में ६० हैं। उसमें १० योजन ऊपर एवं अन्दर जाकर आभियोग्य जाति के देवों के भवन हैं। उससे ऊपर (अवशिष्ट) ५ योजन जाकर समतल पर ९ कूट हैं। इनमें १ कूट सिद्धायतन नाम का है, जिसमें जिनमंदिर है, बाकी में देवों के आवास हैं।
यह विजयार्ध पर्वत रजतमयी है। इसी प्रकार का विजयार्ध पर्वत ऐरावत क्षेत्र में भी इसी प्रमाण वाला है।
हिमवान् पर्वत-यह पर्वत १०५२-१२/१९ योजन (४२१०५२६-६/१९ मी.) विस्तार वाला एवं १०० योजन ऊँचा है। इस पर्वत पर ‘पद्म’ नामक सरोवर है, यह सरोवर १००० योजन लम्बा, ५०० योजन चौड़ा एवं १० योजन गहरा है। इससे आगे के पर्वतों पर क्रम से महापद्म, तिगिंच्छ, केशरी, पुण्डरीक, महापुण्डरीक नाम के सरोवर हैं।
कमल-पद्म सरोवर के मध्य में एक योजन वाला एक कमल है जो कि पृथ्वीकायिक रत्नमयी है। इस कमल की कर्णिका पर बने हुए भवन में ‘श्री देवी’ निवास करती हैं। इसी सरोवर में श्रीदेवी के परिवार स्वरूप १४०११५ कमल और हैं, जिन पर श्री देवी के परिवार देव रहते हैं, ऐसे ही आगे-आगे के सरोवरों में भी कमल हैं और उनमें क्रम से ‘ह्री’ ‘धृति’ ‘कीर्ति’ ‘बुद्धि’ और ‘लक्ष्मी’ देवियाँ रहती हैं।
गंगादि नदियाँ-इन छह सरोवरों से १४ नदियाँ निकलती हैं जो कि एक-एक क्षेत्र में दो-दो बहती हैं। भरत क्षेत्र में गंगा-सिंधु, हैमवत क्षेत्र में रोहित-रोहितास्या आदि। पद्म और महापुण्डरीक इन दो सरोवरों से तीन-तीन नदियाँ निकलती हैं एवं बीच के चार सरोवरों से दो-दो नदियाँ निकलती हैं।
गंगा नदी-पद्म सरोवर के पूर्व दिशा के तोरण द्वार से गंगा नदी निकल कर पाँच सौ योजन तक पूर्व की ओर जाती हुई गंगाकूट के दो कोस इधर से दक्षिण की ओर मुड़कर भरत क्षेत्र में २५ योजन पर्वत से उसे छोड़कर जिह्विका नाली में प्रवेध करके पर्वतसे नीचे गिरती है।
गंगाकुण्ड-जहाँ गंगा नदी गिरती है, वहाँ पर ६० योजन विस्तृत एवं १० योजन गहरा एक कुण्ड है। उसमें १० योजन ऊँचा वङ्कामय एक पर्वत है। उस पर्वत के कूट पर गंगा देवी का प्रासाद बना हुआ है। प्रासाद की छत पर कमलासन पर अकृत्रिम जिन प्रतिमा केशों के जटाजूट युक्त शोभायमान है। गंगा नदी अपनी चंचल तरंगों से युक्त होती हुई जलधारा से जिनेन्द्रदेव का अभिषेक करते हुए के समान ही उस जिनप्रतिमा पर पड़ती है।
पुन: इस कुण्ड के दक्षिण तोरणद्वार से निकलकर आगे भूमि पर कुटिलता को प्राप्त होती हुई विजयार्ध की गुफा में आठ योजन विस्तृत होती हुई प्रवेश करती है। अन्त में चौदह हजार परिवार नदियों से युक्त होकर पूर्व की ओर जाती हुई लवण समुद्र में प्रविष्ट हुई है, ये १४ हजार परिवार नदियाँ आर्यखण्ड में न बहकर म्लेच्छ खण्डों में ही बहती हैं। इसी गंगा नदी के समान ही सिंधु नदी का वर्णन है जो कि पद्म सरोवर के पश्चिम तोरणद्वार से निकलकर भरत क्षेत्र में आती है। आगे की युगल-युगल नदियों का विस्तार आदि सीता नदी तक दूना-दूना और आगे आधा-आधा होता गया है।
छह खण्ड-भरत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र में विजयार्ध पर्वत और युगल नदियों के निमित्त से छह-छह खण्ड हो जाते हैं। इनमें से समुद्र की तरफ के मध्य का आर्य खण्ड और शेष म्लेच्छ खण्ड कहलाते हैं।
सुमेरु पर्वत
विदेह क्षेत्र के बीचों बीच में सुमेरु पर्वत स्थित है। यह एक लाख ४० योजन ऊँचा है। इसकी नींव एक हजार योजन की है। पृथ्वी तल पर इस पर्वत का विस्तार दस हजार योजन है। सुमेरु पर्वत की नींव के बाद पृथ्वी तल पर भद्रसाल वन स्थित है, जिसकी पूर्व, दक्षिण आदि चारों दिशाओं में चार चैत्यालय स्थित हैं। मेरु पर्वत के ऊपर पाँच सौ योजन जाकर नन्दन वन है, यह पाँच सौ योजन प्रमाण कटनीरूप है। इसकी भी चारों दिशाओं में चार चैत्यालय हैं। इससे ऊपर साढ़े बासठ हजार योजन जाकर सौमनस वन है। यह भी पाँच सौ योजन प्रमाण चौड़ा कटनीरूप है। इसके भी चारों दिशाओं में चार जिनालय हैं। सौमनस वन से छत्तीस हजार योजन ऊपर जाकर पाण्डुक वन है, यह भी चार सौ चौरानवे योजन प्रमाण कटनीरूप है, इसमें भी चारों दिशाओं में चार चैत्यालय हैं।
पाण्डुक वन के ऊपर मध्य में बारह योजन चौड़ी, चालीस योजन ऊँची चूलिका है।
मेरु पर्वत नीचे से घटते-घटते चूलिका के अग्रभाग पर चार योजनमात्र का रह जाता है।
सुमेरु का वर्ण-यह पर्वत नीचे जड़ में एक हजार योजन तक वङ्कामय है। पृथ्वी तल से इकसठ हजार योजन तक उत्तम चित्र-विचित्र रत्नमय, आगे अड़तीस हजार योजन तक सुवर्णमय है एवं ऊपर की चूलिका नीलमणि से बनी हुई है।
पाण्डुक शिला आदि-पाण्डुक वन की चारों दिशाओं में चार शिला हैं। ये शिलाएँ ईशान दिशा से लेकर क्रम से पाण्डुक शिला, पाण्डुकंबला, रक्ताशिला और रक्तकंबला नाम वाली हैं। ये अर्ध चन्द्राकार हैं, िंसहासन, छत्र, मंगल, द्रव्य आदि से सुशोभित हैं। सौधर्म इन्द्र पाण्डुक शिला पर भरतक्षेत्र के तीर्थंकरों का अभिषेक करते हैं, ऐसे ही ‘पाण्डुकंबला’ शिला पर पश्चिम विदेह के तीर्थंकरों का, ‘रक्ता-शिला’ पर ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकरों का एवं ‘रक्तकंबला’ शिला पर पूर्व विदेह के तीर्थंकरों का अभिषेक करते हैं।
जम्बूद्वीप के भरत और ऐरावत में षट्काल परिवर्तन से कर्मभूमि और भोगभूमि, दोनों की व्यवस्था होती रहती है। हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र में जघन्य भोगभूमि, हरि और रम्यव् क्षेत्र में मध्यम भोगभूमि तथा विदेह क्षेत्र में मेरु के दक्षिण-उत्तर भाग में क्रम से देवकुरु-उत्तरकुरु नाम की उत्तम भोगभूमियाँ हैंं। पूर्व और पश्चिम दोनों विदेहों में आठ-आठ वक्षार और ६-६ विभंगा नदियों से विदेह के १६-१६ भेद होने से बत्तीस विदेह क्षेत्र हो जाते हैं। उनमें शाश्वत कर्मभूमि है।
लवण समुद्र
जम्बूद्वीप को घेरे हुए २ लाख योजन व्यासवाला लवणसमुद्र है। उसका पानी अनाज के ढेर के समान शिखाऊ ऊँचा उठा हुआ है। बीच में गहराई १००० योजन की है। समतल से जल की ऊँचाई अमावस्या के दिन ११००० योजन की रहती है। शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से बढ़ते-बढ़ते ऊँचाई पूर्णिमा के दिन १६००० योजन की हो जाती है पुन: कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से घटते-घटते ऊँचाई क्रमश: अमावस्या के दिन ११००० योजन की रह जाती है।
धातकीखण्ड-यह द्वीप लवण समुद्र को घेरकर चार लाख योजन व्यास वाला है। इसके अन्दर पूर्व दिशा में बीचों-बीच में विजय मेरु और पश्चिम दिशा में बीच में ‘अचल’ नाम का मेरु पर्वत स्थित है। दक्षिण और उत्तर में दोनों तरफ समुद्र को स्पर्श करते हुए दो इष्वाकार पर्वत हैं, जिससे इस द्वीप के पूर्व धातकीखण्ड और पश्चिम धातकीखण्ड ऐसे दो भेद हो जाते हैं। वहाँ पर भी पूर्व धातकी खण्ड में हिमवान् आदि छह पर्वत, भरत आदि सात क्षेत्र, गंगादि चौदह प्रमुख नदियाँ बहती हैं तथैव पश्चिम धातकीखण्ड में यही सब व्यवस्था है। धातकी खण्ड को वेष्टित करके कालोदधि समुद्र है।
पुष्करार्ध द्वीप-कालोदधि को वेष्टित करके १६ लाख योजन वाला पुष्कर द्वीप है। इसके बीचों-बीच में चूड़ी के समान आकार वाला मानुषोत्तर पर्वत स्थित है। इस पर्वत के इधर के भाग में कर्मभूमि जैसी व्यवस्था है। इसमें भी दक्षिण-उत्तर में इष्वाकार पर्वत है और पूर्व पुष्करार्ध में ‘मन्दर’ मेरु तथा पश्चिम पुष्करार्ध में ‘विद्युन्माली’ मेरु पर्वत स्थित हैं। इसमें भी दोनों तरफ भरत आदि क्षेत्र, हिमवान् आदि पर्वत पूर्ववत् हैं।
१७० कर्मभूमि-जम्बूद्वीप के बीच में सुमेरु पर्वत है। इसके दक्षिण में निषध एवं उत्तर में नील पर्वत है। यह मेरु विदेह के ठीक बीच में है। निषध पर्वत से सीतोदा और नील पर्वत से सीता नदी निकलकर सीता नदी पूर्व समुद्र में, सीतोदा नदी पश्चिम समुद्र में प्रवेश करती है। इसलिए इनसे विदेह के ४ भाग हो गये। दो भाग मेरु के पूर्व की ओर और दो भाग मेरु के पश्चिम की ओर। एक-एक विदेह में ४-४ वक्षार पर्वत और ३-३ विभंगा नदियाँ होने से १-१ विदेह के ८-८ भाग हो गये हैं। इन चार विदेहों के बत्तीस भाग-विदेह हो गये हैं। ये ३२ विदेह एक मेरु संबंधी हैं। इसी प्रकार ढाई द्वीप के ५ मेरु संबंधी ३२²५·१६० विदेह क्षेत्र हो जाते हैं।
इस प्रकार १६० विदेह क्षेत्रों में १-१ विजयार्ध एवं गंगा-सिंधु तथा रक्ता-रक्तोदा नाम की दो-दो नदियों से ६-६ खण्ड होते हैं। जिसमें मध्य का आर्यखण्ड और शेष पाँचों म्लेच्छ खण्ड कहलाते हैं। ऐसे पाँच मेरु संबंधी ५ भरत, ५ ऐरावत और ५ महाविदेहों के १६० विदेह अर्थात् ५±५±१६०·१७० क्षेत्र हो गये। ये १७० ही कर्मभूमियाँ हैं।
एक राजु विस्तृत इस मध्यलोक में असंख्यातों द्वीप समुद्र हैं। उनके अन्तर्गत ढाई द्वीप की १७० कर्मभूमियों में ही मनुष्य तपश्चरणादि के द्वारा कर्मों का नाश करके मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, इसलिए ये क्षेत्र कर्मभूमि कहलाते हैं।
३० भोगभूमि-हैमवत, हैरण्यवत क्षेत्र में जघन्य, हरि, रम्यक क्षेत्र में मध्यम और देवकुरु-उत्तरकुरु में उत्तम ऐसी छह भोगभूमि जम्बूद्वीप में हैं। धातकी खण्ड की १२ तथा पुष्करार्ध की १२ ऐसे ६±१२±१२·३० भोगभूमि ढाई द्वीप संबंधी हैं।
९६ कुभोगभूमि-इस लवण समुद्र के दोनों तटों पर २४ अन्तर्द्वीप हैं अर्थात् चार दिशाओं के ४ द्वीप, ४ विदिशाओं के ४ द्वीप, दिशा-विदिशा के आठ अन्तरालों के ८ द्वीप, हिमवान् पर्वत और शिखरी पर्वत के दोनों तटों के ४ और भरत, ऐरावत के दोनों विजयार्धों के दोनों तटों के ४ इस तरह ४±४±८±४±४·२४ हुए।
ये २४ अन्तर्द्वीप लवण समुद्र के इस तटवर्ती हैं। उस तट के भी २४ तथा कालोदधि के उभय तट के ४८, सभी मिलकर ९६ अन्तर्द्वीप कहलाते हैं। इनमें रहने वाले मनुष्यों के सींग, पूँछ आदि होते हैं अत: इन्हें ही कुभोगभूमि कहते हैं। इन द्वीपों के मनुष्य कुभोगभूमियाँ कहलाते हैं। इनकी आयु असंख्यात वर्षों की होती है।
कुमानुष-पूर्व दिशा में रहने वाले मनुष्य एक पैर वाले होते हैं। पश्चिम दिशा के पूँछ वाले, दक्षिण दिशा के सींग वाले एवं उत्तर दिशा के गूँगे होते हैं। विदिशा आदि संंबंधी सभी कुभोगभूमियाँ कुत्सित रूप वाले होते हैं। ये मनुष्य युगल ही जन्म लेते हैं और युगल ही मरते हैं। इनको शरीर संबंधी कोई कष्ट नहीं होता है। कोई-कोई वहाँ की मधुर मिट्टी का भक्षण करते हैं तथा अन्य मनुष्य वहाँ के वृक्षों के फलफूल आदि का भक्षण करते हैं। उनका कुरूप होना कुपात्रदान आदि का फल है।
स्वयंभूरमण पर्वत-अंतिम स्वयंभूरमण द्वीप के बीचों-बीच वलयाकार स्वयंभूरमण नाम का पर्वत है जो कि मानुषोत्तर के समान द्वीप के दो भाग कर देता है।
मानुषोत्तर पर्वत से आगे असंख्यातों द्वीपों में स्वयंभूरमण पर्वत के इधर-उधर तक जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था है। इन सभी में असंख्यातों तिर्यञ्च युगल रहते हैं।
स्वयंभूरमण पर्वत के उधर आधे द्वीप में और स्वयंभूरमण समुद्र में कर्मभूमि की व्यवस्था है अर्थात् यहाँ के तिर्यंच कर्मभूमि के तिर्यञ्च हैं। वहाँ प्रथम गुणस्थान से पंचम गुणस्थान तक हो सकता है। देवों द्वारा सम्बोधन पाकर या जातिस्मरण आदि से असंख्यातों तिर्यञ्च सम्यग्दृष्टि देशव्रती बनकर स्वर्ग प्राप्त कर लेते हैं।
समुद्र के जल का स्वाद
लवण समुद्र का जल खारा है, वारुणीवर का जल मदिरा के समान, क्षीरवर समुद्र का दुग्ध के समान एवं घृतवर समुद्र का जल घी के समान है। कालोदधि, पुष्कर समुद्र और स्वयंभूरमण समुद्र इन तीनों का जल सामान्य जल के सदृश है।
जलचर जीव कहाँ हैं?
कर्मभूमि से सम्बद्ध लवण समुद्र, कालोद और अंतिम स्वयंभूरमण समुद्र में ही जलचर जीव है। शेष समुद्रों में नहीं हैं।
द्वीप, समुद्र के अधिपति व्यंतर देव
जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र आदिकों में से प्रत्येक के अधिपति दो-दो व्यंतर देव हैं। जम्बूद्वीप के अधिपति आदर, अनादर देव हैं। लवण समुद्र के प्रभास व प्रियदर्शन, धातकीखंड के प्रिय और दर्शन, कालोदधि के काल व महाकाल, पुष्करद्वीप के पद्म और पुण्डरीकदेव, मानुषोत्तर के चक्षु व सुचक्षु नामक दो देव, पुष्कर समुद्र के श्रीप्रभ व श्रीधर देव अधिपति हैं। ऐसे ही आगे के देवों के नाम अन्यत्र देख लेना चाहिए। ये देव अपने-अपने द्वीप, समुद्रों के उपरिम भाग में स्थित नगरों में बहुत प्रकार के परिवार से युक्त होकर क्रीड़ा किया करते हैं। इनमें से प्रत्येक की आयु एक पल्य एवं ऊँचाई दस धनुष प्रमाण है।
नंदीश्वर द्वीप
जम्बूद्वीप से आठवां भवन विख्यात नंदीश्वर समुद्र से वेष्टित ‘नंदीश्वर द्वीप’ है। उस द्वीप का विस्तार १६३८४००००० एक सौ त्रेसठ करोड़ चौरासी लाख योजन है। इस द्वीप की बाह्य परिधि दो हजार बहत्तर करोड़, तैंतीस लाख, चौवन हजार, एक सौ नब्बे योजन है-२०७२३३५४१९० योजन है।
पूर्व दिशा के पर्वत
नंदीश्वर द्वीप की पूर्व दिशा में बहुमध्य भाग में ‘अंजनगिरि’ इस नाम से प्रसिद्ध, उत्तम इद्रनील मणिमय श्रेष्ठ पर्वत है यह पर्वत एक हजार योजन नींव से सहित, चौरासी हजार योजन ऊँचा, सर्वत्र चौरासी हजार योजन विस्तृत गोल है। उनके मूल व ऊपर भाग में तटवेदियाँ व विचित्र वनखंड हैं। इस पर्वत के चारों ओर चार दिशाओं में चार सरोवर हैं। जो कि प्रत्येक १००००० योजन विस्तार वाले चतुष्कोण हैं ये सरोवर एक हजार योजन गहरे, टंकोत्कीर्ण, जलचर जीवों से रहित स्वच्छ जल से पूर्ण, कमल, कुवलय आदि की सुंगधि से युक्त हैं। पूर्वादि दिशाओं के क्रम से नंदा, नंदवती, नंदोत्तरा, नंदिघोषा ये इन सरोवरों (वापियों) के नाम हैं। प्रत्येक वापी की चारों दिशाओं में से प्रत्येक के क्रम से अशोकवन, सप्तच्छद, चंपक और आम्रवन नाम से चार वन हैं। ये वन खंड १००००० योजन लम्बे ५०००० योजन चौड़े हैं। इनमें से प्रत्येक वन में वन के नाम से संयुक्त चैत्य वृक्ष हैंंं।
वापियों के बहुमध्य भाग में ही दही के समान वर्ण वाले एक-एक दधिमुख नामक उत्तम पर्वत हैं। प्रत्येक पर्वत की ऊँचाई १०००० योजन एवं विस्तार भी इतना ही है, ये पर्वत गोलाकार हैं इनकी नींव १००० योजन वङ्कामय है। इनके उपरिम तट में तटवेदियाँ और विविध प्रकार के वन हैं। वापियों के दोनों बाह्य कोनों में से प्रत्येक के दिधमुखों के सदृश सुवर्णमय ‘रतिकर ’ नामक दो पर्वत हैं प्रत्येक रतिकर पर्वत की ऊँचाई और विस्तार १००० योजन है, नींव २५० योजन है।
तेरह जिनमंदिर
एक अंजनगिरि, चार दधिमुख, आठ रतिकर इन तेरह पर्वतों के शिखर पर उत्तम, रत्नमय एक-एक जिनेन्द्र भवन स्थित हैं। ये चैत्यालय १०० योजन लम्बे, ५० योजन चौड़े, ७५ योजन ऊँचे हैं इनकी नींव १/२ योजन मात्र है। ये उत्कृष्ट जिनभवनों का प्रमाण है। इसका मुख्य द्वार ८ योजन विस्तीर्ण, १६ योजन ऊँचा है। इन जिनभवनों का समस्त वर्णन भद्रसाल वन के जिनभवन सदृश है।
इन मंदिरों में देवतागण जल, गंध, अक्षत, पुष्प आदि द्रव्यों से बड़ी भक्ति से पूजा, अर्चा स्तुति करते हैं।
दक्षिण, पश्चिम, उत्तर दिशा के पर्वत
इस प्रकार पूर्व दिशा के सदृश ही तीनों दिशाओं में ‘अंजन’ पर्वत हैं उनके चारों दिशाओें की वापियों के नाम भिन्न-भिन्न हैं। दक्षिण अंजन गिरि की पूर्वादि दिशाओं में क्रम से अरजा, विरजा, अशोका, वीतशोका, वापियाँ हैं। पश्चिम अंजनगिरि की चारों दिशाओं में विरजा, वैजयन्ती, जयंती और अपराजिता वापियाँ हैंं। उत्तर अंजनगिरि की चारों दिशाओं में रम्या, रमणीया, सुप्रभा और सर्वतोभद्रा वापियाँ हैं। प्रत्येक वापी के चारों तरफ एक-एक वन होने से १६ वापी के चौंसठ वन हो गये हैं।
इन अंजनगिरियों के चौंसठ वनों में फहराती हुई वन ध्वज-पताकाओं से संयुक्त उत्तमरत्न, सुवर्णमय एक-एक प्रासाद हैं। ये प्रासाद ६२ योजन ऊँचे, ३१ योजन लम्बे चौड़े उत्तम वेदिका, तोरण द्वारों से सुशोभित हैं। इन प्रासादों में बहुत प्रकार के व्यंतर देव क्रीड़ा करते हैं। चारों प्रकार के देव नंदीश्वर द्वीप में प्रतिवर्ष आषाढ़, कार्तिक, फाल्गुन के आष्टान्हिक पर्व में आते हैं। दिव्य विभूति से रहित सौधर्म इंद्र हाथ में नारियल को लेकर ऐरावत हाथी पर चढ़कर आता है। ईशान इंद्र हाथी पर बैठकर सुपाड़ी के गुच्छों को हाथों में लेकर आता है। सनत्कुमार इंद्र सिंह पर चढ़कर आम्र फलों के गुुच्छों को लेकर आता है, माहेन्द्र इंद्र घोड़े पर चढ़कर केलों को लेकर आता है, आगे के देव कोई केतकी कोई कमल, सेवंती, पुष्पमाल, नीमकमल, अनार फल आदि को लेकर आते हैं। ये चार प्रकार के देव नंदीश्वर द्वीप के दिव्य जिनेन्द्र भवनों में आकर नाना प्रकार की स्तुतियों से वाचालमुख होते हुये प्रदक्षिणायें करते हैं।
नंदीश्वरद्वीपस्थ जिनमंदिरों की पूजा में बहुत भक्ति से युक्त कल्पवासी देव पूर्वदिशा में, भवनवासी दक्षिण में, व्यंतरदेव पश्चिम में और ज्योतिषीदेव उत्तर में अनेक स्तुतियों से युक्त होकर अपने-अपने वैभव के अनुसार दिव्य महापूजा करते हैं अर्थात् दिन-रात के चौबीस घंटे में ६-६ घंटे तक पूजा करते हैं पुन: वे देव आगे-आगे के ६-६ घंटों में आगे-आगे की दिशाओं में बढ़ते जाते हैं अत: २४ घंटों में वे देव चारों दिशाओं की पूजा कर लेते हैं वहाँ नंदीश्वर द्वीप में दिन-रात का भेद नहीं है यह घंटे के काल का हिसाब यहीं के अनुसार है। उसी बात को स्पष्ट करते हैं ये देव भक्ति युक्त होकर अष्टमी से पूर्णिमा तक पूर्वान्ह, अपराह्र, पूर्वरात्रि, अपररात्रि में दो-दो प्रहर तक उत्तम भक्तियुत प्रदक्षिणा क्रम से जिनेन्द्र भगवान की विविध प्रकार से पूजा करते हैं। सुगंधित जल आदि से उन दिव्य प्रतिमाओं का अभिषेक आदि करते हैं। अष्टद्रव्य, वाद्य, नृत्य प्रकारों से जिन भगवान की उपासना करते हैं।
इस प्रकार से पूर्वादि चार दिशा सम्बंधी १-१ अंजनगिरि, ४-४ दधिमुख, ८-८ रतिकर ऐसे १३-१३ पर्वतों के १३-१३ जिनभवनों के जोड़ से यहाँ ५२ चैत्यालय शोभित हैंं। उनमें स्थित सभी जिनप्रतिमाओं को मेरा नमस्कार होवे।
अरुणवर द्वीप समुद्र
नंदीश्वर द्वीप के आगे अरुण नाम का द्वीप है उसको वेष्टित करके अरुणवर समुद्र स्थित है। अरुणवर समुद्र का विस्तार १३१०७२००००० योजन प्रमाण है। इस समुद्र के दूर ऊपर उठा हुआ अरिष्ट नाम का अंधकार प्रथम चार स्वर्गों को आच्छादित करके पाँचवें ब्रह्म स्वर्ग को प्राप्त हो गया है। मृदंग के समान आकार वाली आठ कृष्णराजियाँ उसके बाह्य भाग में सब ओर स्थित हैं। उस सघन अंधकार में अल्पर्द्धिक देव दिशा भेद को भूलकर चिरकाल तक भटक जाते हैंं। वे यहाँ से दूसरे महर्द्धिक देवों के प्रभाव से निकल पाते हैं। अन्य प्रकार से नहीं निकल पाते हैं।
ग्यारहवां कुण्डलवर द्वीप
ग्यारहवां द्वीप ‘कुण्डलवर’ नाम से प्रसिद्ध है इसके मध्य भाग में कुण्डल नामक पर्वत वलयाकार से स्थित है। इस पर्वत की ऊँचाई ७५००० योजन और नींव १००० योजन है इसका मूल विस्तार १०२२० योजन, मध्य विस्तार ७२३० एवं उपरिम विस्तार ४२४० योजन है। इस पर्वत का विस्तार मानुषोत्तर पर्वत से दस गुणा है इसके ऊपर तथा तलभाग में तटवेदी, वनखंड मौजूद हैं। इस पर २० कूट हैं।
पूर्वादि चार दिशाओं में प्रत्येक में से चार-चार कूट एवं उनके अभ्यंतर भाग में एक-एक सिद्धवर कूट हैं। प्रथम १६ कूटों के वङ्का, वङ्काप्रभ आदि सुंदर-सुंदर नाम हैं एवं उन्हीं नाम के धारक व्यंतर देव इन पर रहते हैं। इन कूटों की ऊँचाई आदि का वर्णन नंदन के कूटों के समान है। चार सिद्धकूटों पर चार जिनभवन हैं जो वर्णन में निषधपर्वत के जिनभवन सदृश हैं।
तेरहवां रुचकवर द्वीप
तेरहवां द्वीप ‘रुचकवर’ नाम से प्रसिद्ध है। इसके मध्य भाग में सुवर्णमय रुचकवर पर्वत स्थित है। इस पर्वत का विस्तार सर्वत्र ८४००० योजन एवं ऊँचाई भी इतनी ही है इसकी नींव १००० योजनमात्र है। इस पर्वत के मूल व उपरिम भाग में वनवेदी आदि से विशेष रमणीय, तटवेिदयाँ व उपवन स्थित हैं। इस पर्वत के ऊपर ४४ कूट हैं पूर्वदिशा में कनक आदि उत्तम नाम वाले ८ कूट हैं ये कूट ५०० योजन ऊँचे, मूल में ५०० योजन विस्तृत व ऊपर में २५० योजन विस्तृत, वेदी, वनखंडों से युक्त हैं। इन कूटों के ऊपर जिनभवनों से भूषित देवियों के भवन हैं उन पर क्रम से विजया, वैजयंता, जयंता, अपराजिता, नंदा, नंदवती, नंदोत्तरा और नंदिषेणा नामक दिक्कन्यायें निवास करती हैं। पर्वत पर दक्षिण दिशा में स्फटिक रजत आदि नाम वाले आठ कूटों पर इच्छा, समाहारा, सुप्रकीर्णा, यशोधरा, लक्ष्मी, शेषवती, चित्रगुप्ता और वसुन्धरा नाम की ८ दिक्कन्यायें रहती हैं। पर्वत पर पश्चिम दिशा में अमोघ, स्वस्तिक आदि नाम वाले ८ कूटों पर इला, सुरादेवी, पृथ्वी, पद्मा, एकनासा, नवमी, सीता और भद्रा नाम की दिक्कन्यायें रहती हैं। पर्वत के उत्तर में विजय आदि ८ कूटों पर क्रम से अलंभूषा, मिश्रकेशी, पुण्डरीकिणी, वारुणी, आशा, सत्या, ह्री और श्री नाम की दिक्कन्यायें रहती हैं। इनमें से पूर्व दिशा की ८ दिक्कन्यायें जिनभगवान के जन्मकल्याणक में झारी को धारण करती हैंं। दक्षिण दिशागत दिक्कन्यायें जिन जन्मकल्याणक में दर्पण धारण करती हैं। पश्चिम दिशागत कन्यायें जिन जन्मकल्याणक में जिनमाता के ऊपर छत्र धारण करती हैं। उत्तरदिशागत दिक्कन्यायें जिन जन्मकल्याणक में जिन माता पर चंवर ढोरती हैं।
वे सभी उपर्युक्त वन वेदियों से रमणीय हैं। इन कूटों की वेदियों के अभ्यंतर चार दिशाओं में पूर्वोक्त कूटों के सदृश चार महाकूट स्थित हैं। इन कूटों पर रहने वाली सौदामिनी, कनका, शतह्रदा और कनकचित्रा देवियाँ जिन जन्मकल्याणक में दिशाओं को निर्मल करती हैं। इन कूटों के अभ्यंतर भाग में पूर्वोक्त कूटों के सदृश चार कूट हैं इन पर रहने वाली रुचका, रुचककीर्ति, रुचककांता और रुचकप्रभा दिक्कन्यायें जिन भगवान के जातकर्म में जाती हैं। इनमें से प्रत्येक की आयु एक पल्य है। उनके परिवार श्री देवी के समान हैं।
इन कूटों के अभ्यंतर भाग में चारों दिशाओं में १-१ ऐसे चार सिद्धकूट हैं इसमें पूर्वोक्त वर्णन से युक्त ४ जिनभवन हैंं। यहाँ तक मध्य लोक के चैत्यालय माने जाते हैं।
जम्बूद्वीप के अकृत्रिम चैत्यालय
सुमेरु के १६, सुमेरु पर्वत की विदिशा में चार गजदन्त के ४, हिमवान् आदि षट् कुलाचलों के ६, विदेह क्षेत्र में सोलह वक्षार पर्वतों के १६, विदेह क्षेत्र के बत्तीस विजयार्ध के ३२, भरत, ऐरावत के विजयार्ध के २, देवकुरु और उत्तरकुरु में स्थित जम्बूवृक्ष, शाल्मलीवृक्ष की शाखाओं के २, इस प्रकार १६±४±६±१६±३२±२±२·७८ ऐसे जम्बूद्वीप के ७८ अकृत्रिम जिनचैत्यालय हैं।
मध्यलोक के अकृत्रिम जिनालय
जम्बूद्वीप के समान ही धातकीखण्ड एवं पुष्करार्ध में २-२ मेरु के निमित्त से सारी रचना दूनी-दूनी होने से चैत्यालय भी दूने-दूने हैं तथा धातकीखण्ड एवं पुष्करार्ध में २-२ इष्वाकार पर्वत पर २-२ चैत्यालय हैं। मानुषोत्तर पर्वत पर चारों दिशाओं के ४, नन्दीश्वर द्वीप की चारों दिशाओं में १३-१३ चैत्यालय होने से १३²४·५२, ग्यारहवें कुण्डलवर द्वीप के कुण्डलवर पर्वत पर चारों दिशाओं के ४, तेरहवें रुचकवर द्वीप के रुचकवर पर्वत पर चारों दिशाओं के ४, सब मिलकर ७८±१५६±१५६±४±४±५२±४±४·४५८ चैत्यालय होते हैं। इन मध्यलोक संबंधी ४५८ चैत्यालयों को एवं उनमें स्थित सर्व जिनप्रतिमाओें को मैं मन, वचन, काय से नमस्कार करता हूँ।
देवों के भेद
देवों के चार भेद हैं-भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिर्वासी और कल्पवासी।
भवनवासी देव
भवनवासी देवों के स्थान-पहले रत्नप्रभा पृथ्वी के ३ भाग बताये जा चुके हैं। उसमें से खर भाग में राक्षस जाति के व्यंतर देवों को छोड़कर सात प्रकार के व्यंतर देवों के निवास स्थान हैं और भवनवासी के असुरकुमार जाति के देवों को छोड़कर नव प्रकार के भवनवासी देवों के स्थान हैं। रत्नप्रभा के पंकभाग नाम के द्वितीय भाग में असुरकुमार जाति के भवनवासी एवं राक्षस जाति के व्यंतरों के आवास स्थान हैं।
भवनवासी देवों के भेद-असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार, दिक्कुमार, उदधिकुमार, स्तनितकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार और वायुकुमार।
भवनवासी देवों के भवनों का प्रमाण-असुरकुमार के ६४ लाख, नागकुमार के ८४ लाख, सुपर्णकुमार के ७२ लाख, वायुकुमार के ९६ लाख और शेष देवों के ७६-७६ लाख भवन हैं अर्थात् ७६²६·४५६ लाख। कुल मिलाकर-६४,०००००±८४,०००००±७२,०००००±९६,००००० ± ४५६,००००० ·७,७२००००० (सात करोड़ बहत्तर लाख) भवन हैं।
जिनमंदिर-इन एक-एक भवनों में एक-एक जिनमंदिर होने से भवनवासी देवों के ७,७२,००००० प्रमाण जिनमंदिर हैं। उनमें स्थित जिनप्रतिमाओं को मन, वचन, काय से नमस्कार होवे।
भवनवासी देवोें के इन्द्र-भवनवासी देवों के १० कुलों में पृथक्-पृथक् दो-दो इन्द्र होते हैं। सब मिलकर २० इन्द्र होते हैंं, जो अपनी विभूति से शोभायमान हैं।
इन्द्र के परिवार देव-प्रत्येक इन्द्र के परिवार देव दस प्रकार हैं। प्रतीन्द्र, त्रायस्त्रिंश, सामानिक, लोकपाल, आत्मरक्ष, तीन पारिषद, सात अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक।
इनमें से इन्द्र राजा के सदृश, प्रतीन्द्र युवराज के सदृश, त्रायस्त्रिंश देवपुत्र के सदृश, सामानिक देवपत्नी के तुल्य, चारों लोकपाल तंत्रपालों के सदृश और सभी तनुरक्षक देव राजा के अंगरक्षक के समान हैं। राजा की बाह्य, मध्य और अभ्यन्तर समिति के समान देवों में भी तीन प्रकार की परिषद होती हैं। इन तीनों परिषदों में बैठने वाले देव क्रमश: बाह्य पारिषद, मध्यमपारिषद और आभ्यन्तरपारिषद कहलाते हैं। अनीक देव सेना के तुल्य, प्रकीर्णक देव प्रजा के सदृश, आभियोग्य जाति के देव दास के सदृश और किल्विषक देव चाण्डाल के समान होते हैं। इनमें से प्रतीन्द्र इन्द्र के बराबर २० होते हैं। इसलिए भवनवासियों के २० इन्द्र और २० प्रतीन्द्र मिलकर ४० इन्द्र हो जाते हैं।
भवनवासियों के निवास स्थान के भेद-इन देवों के निवास स्थान के भवन, भवनपुर और आवास के भेद से तीन भेद होते हैं। रत्नप्रभा पृथ्वी में स्थित निवास स्थानों को भवन, द्वीप समुद्रों के ऊपर स्थित निवास स्थानों को भवनपुर और रमणीय तालाब, पर्वत तथा वृक्षादि के ऊपर स्थित निवास स्थानों को आवास कहते हैं।
इनमें नागकुमार आदि देवों में से किन्हीं के तो भवन, भवनपुर और आवासरूप तीनों ही तरह के निवास स्थान होते हैंं परन्तु असुरकुमारों के केवल एक भवनरूप ही निवास स्थान हैं। इनमें भवनवासियों के भवन चित्रा पृथ्वी के नीचे दो हजार से एक लाख योजनपर्यन्त जाकर हैं। ये सब भवन समचतुष्कोण, तीन सौ योजन ऊँचे हैं और विस्तार में संख्यात एवं असंख्यात योजन प्रमाण वाले हैं।
जिनमंदिर-प्रत्येक भवन के मध्य में एक सौ योजन ऊँचे एक-एक कूट हैं, इन कूटों के ऊपर पद्मराग मणिमय कलशों से सुशोभित चार गोपुर, तीन मणिमय प्राकार, वनध्वजाओं एवं मालाओं से संयुक्त जिनगृह शोभित हैं। प्रत्येक जिनगृह में १०८-१०८ जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं। जो देव सम्यग्दर्शन से युक्त हैं, वे कर्र्मक्षय के निमित्त नित्य ही जिन भगवान की भक्ति से पूजा करते हैं, इसके अतिरिक्त सम्यग्दृष्टि देवों से सम्बोधित किए गए अन्य मिथ्यादृष्टि देव भी कुलदेवता मानकर उन जिनेन्द्र प्रतिमाओं की नित्य ही बहुत प्रकार से पूजा करते हैं।
देवप्रासाद-जिनमंदिर के चारों तरफ अनेक रचनाओं से युक्त सुवर्ण और रत्नों से निर्मित भवनवासी देवों के महल हैं।
व्यन्तर देव
व्यंतर देव-रत्नप्रभा पृथ्वी के खरभाग में व्यंतर देवों के सात भेद रहते हैं-किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गंधर्व, यक्ष, भूत और पिशाच। पंक भाग में राक्षस जाति के व्यंतरों के भवन हैं। सभी व्यन्तरवासियों के असंख्यात भवन हैं। उनमें तीन भेद हैं-भवन, भवनपुर और आवास। खरभाग, पंकभाग में भवन हैं। असंख्यातों द्वीप, समुद्रों के ऊपर भवनपुर हैं और सरोवर, पर्वत, नदी, आदिकों के ऊपर आवास होते हैं।
मेरु प्रमाण ऊँचे मध्यलोक, ऊर्ध्वलोक में व्यन्तर देवों के निवास हैं। इन व्यन्तरों में से किन्हीं के भवन हैं, किन्हीं के भवन और भवनपुर दोनोें हैं एवं किन्हीं के तीनों ही स्थान होते हैं। ये सभी आवास प्राकार (परकोटे) से वेष्टित हैं।
जिनमंदिर-इस प्रकार व्यन्तर देवों के स्थान असंख्यात होने से उनमें स्थित जिनमंदिर भी असंख्यात प्रमाण हैं क्योंकि जितने भवन, भवनपुर और आवास हैं, उतने ही जिनमंदिर हैं।
इनके कार्य-ये व्यन्तर देव क्रीड़ाप्रिय होने से इस मध्यलोक में यत्र-तत्र शून्य स्थान, वृक्षों की कोटर, श्मशान भूमि आदि में भी विचरण करते रहते हैं। कदाचित्, क्वचित् किसी के साथ पूर्व जन्म का बैर होने से उसे कष्ट भी दिया करते हैं। किसी पर प्रसन्न होकर उसकी सहायता भी करते हैंं। जब सम्यग्दर्शन ग्रहण कर लेते हैं, तब पापभीरू बनकर धर्मकार्यों में ही रुचि लेते हैं।
व्यंतर इन्द्र-किन्नर, किंपुरुष आदि आठ प्रकार के व्यंतर देवों में प्रत्येक के दो-दो इन्द्र होते हैं। किन्नर जाति के दो इन्द्र-किंपुरुष, किन्नर। किंपुरुष जाति में-सत्पुरुष, महापुरुष। महोरग जाति में-महाकाय, अतिकाय। गंधर्व जाति में-गीतरति, गीतरस। यक्ष जाति में-मणिभद्र, पूर्णभद्र। राक्षस जाति में-भीम, महाभीम। भूत जाति में-स्वरूप, प्रतिरूप। पिशाच जाति में-काल, महाकाल। ऐसे व्यन्तर देवों में १६ इन्द्र होते हैं।
परिवार देव-इन १६ इन्द्रों में से प्रत्येक के प्रतीन्द्र, सामानिक, आत्मरक्ष, तीनों पारिषद, सात अनीक, प्रकीर्णक, किल्विषक और आभियोग इस प्रकार से परिवार देव होते हैं अर्थात् भवनवासी के जो इन्द्र, सामानिक आदि दस भेद बतलाये हैं, उनमें से इन व्यन्तरों में त्रायिंस्त्रश और लोकपाल ये दो भेद नहीं होते हैं अत: यहाँ आठ भेद कहे गये हैं। प्रत्येक इन्द्र के एक-एक प्रतीन्द्र होने से १६ इन्द्रों के १६ प्रतीन्द्र ऐसे व्यन्तरों के ३२ इन्द्र कहलाते हैं।
इस प्रकार परिवार देवों से सहित, सुखों का अनुभव करने वाले व्यन्तर देवेन्द्र अपने-अपने पुरों में बहुत प्रकार की क्रीड़ाओं को करते हुए मग्न रहते हैं।
व्यन्तर देवों का आहार-किन्नर आदि एवं उनकी देवियाँ दिव्य अमृतमय मानसिक आहार ग्रहण करते हैं। देवों को कवलाहार नहीं होता है। पल्य प्रमाण आयु वाले देवों का आहार ५ दिन में एवं दस हजार की आयु वालों का दो दिन बाद होता है।
देवों का उच्छ्वास-पल्य प्रमाण आयु वाले ५ मुहूर्त में एवं दस हजार वर्ष की आयु वाले, सात उच्छ्वास काल में उच्छ्वास लेते हैं।
व्यन्तर देवों में जन्म लेने के कारण-जो कुमार्ग में स्थित हैं, दूषित आचरण वाले हैं, अकाम निर्जरा करने वाले हैं, अग्नि आदि द्वारा मरण को प्राप्त करते हैं, सम्यक्त्व से रहित, चारित्र के विघातक, पञ्चाग्नि तप करने वाले, मन्द कषायी हैं, ऐसे जीव मरकर व्यन्तर पर्याय में जन्म ले लेते हैं। ये देव कदाचित् वहाँ सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेते हैं। सम्यक्त्व रहित देव कोई-कोई विशेष आर्तध्यान आदि से मरकर एकेन्द्रिय पर्याय में भी जन्म ले लेते हैं।
व्यंतर देवों का अवधिज्ञान, शक्ति और विक्रिया-जघन्य आयु १०००० वर्ष प्रमाण वाले देवों का अवधिज्ञान का विषय ५ कोस है एवं उत्कृष्ट अवधि का विषय ५० कोस है। पल्योपम प्रमाण आयु वाले व्यन्तर देवों की अवधि का विषय नीचे व ऊपर एक लाख योजन प्रमाण है। जघन्य आयु धारक प्रत्येक व्यन्तर देव १०० मनुष्यों को मारने व तारने के लिए समर्थ हैंं तथा १५० धनुष तक विस्तृत क्षेत्र को अपनी शक्ति से उखाड़ कर अन्यत्र फेंकने में समर्थ हैं। पल्य प्रमाण आयु वाले व्यन्तर देव छह खण्डों को उलट सकते हैं। जघन्य आयु वाले व्यन्तर देव उत्कृष्ट रूप से १०० रूपों की एवं जघन्य रूप से ७ रूपों की विक्रिया कर सकते हैं। बाकी देव अपने-अपने अवधिज्ञान के क्षेत्र को विक्रिया से पूर्ण कर सकते हैं।
इन देवों की अवगाहना १० धनुष है। ये देव उपपाद शय्या पर जन्म लेकर अन्तर्मुहूर्त में १६ वर्ष के युवक के समान शरीर और पर्याप्तियों को पूर्ण कर लेते हैं।
ज्योतिर्वासी देव
ज्योतिष्क देवों के पाँच भेद हैं-सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारा। इनके विमान चमकीले होने से इन्हें ज्योतिष्क देव कहते हैं, ये सभी विमान अर्धगोलक सदृश हैं। ये सभी देव मेरुपर्वत को ११२१ योजन (४४,८४००० मी.) छोड़कर नित्य ही प्रदक्षिणा के क्रम से भ्रमण करते हैं। इनमें चन्द्र, सूर्य और ग्रह ५१०-४८/८१ योजन प्रमाण गमन क्षेत्र में स्थित परिधियों के क्रम से पृथक्-पृथक् गमन करते हैं परन्तु नक्षत्र और तारे अपनी-अपनी परिधिरूप मार्ग में ही गमन करते हैं।
ज्योतिष्क देवों की ऊँचाई-पाँच प्रकार के देवों के विमान इस चित्रा पृथ्वी से ७९० योजन से प्रारंभ होकर ९०० योजन की ऊँचाई तक अर्थात् ११० योजन में स्थित हैं। सबसे प्रथम ताराओं के विमान हैं, जो सबसे छोटे १/४ कोस (२५० मी.) प्रमाण हैं। इन सभी विमानों की मोटाई अपने-अपने विमानों से आधी-आधी है। राहु के विमान चन्द्र के नीचे एवं केतु के विमान सूर्य के नीचे रहते हैं अर्थात् ४ प्रमाणांगुल (२००० उत्सेधांगुल) प्रमाण ऊपर चन्द्र-सूर्य के विमान स्थित होकर गमन करते हैं। ये राहु-केतु के विमान ६-६ महीने में पूर्णिमा एवं अमावस्या को क्रम से चन्द्र एवं सूर्य के विमानों को ढँक देते हैं, इसे ही ग्रहण कहते हैं।
वाहन जाति के देव-इन सूर्य, चन्द्र के प्रत्येक विमानों को आभियोग्य जाति के ४००० देव विमान के पूर्व में सिंह के आकार को धारण कर, दक्षिण में ४००० देव हाथी के आकार को, पश्चिम में ४००० देव बैल के आकार को एवं उत्तर में ४००० देव घोड़े के आकार को धारण कर ऐसे १६००० देव सतत खींचते रहते हैं, इसी प्रकार ग्रहों के ८०००, नक्षत्रों के ४००० एवं ताराओं के २००० वाहनजाति के देव होते हैं।
ज्योतिष्क देवों की गति-गमन में चन्द्रमा सबसे मंद है। सूर्य उसकी अपेक्षा तीव्रगामी, उससे शीघ्रतर ग्रह, इनसे शीघ्रतर नक्षत्र एवं नक्षत्रों से भी शीघ्रतर गति वाले तारागण हैं।
सूर्यादि की किरणें-ये विमान पृथ्वीकायिक (चमकीली धातु) से बने हुए अकृत्रिम हैं। सूर्य के बिम्ब में स्थित पृथ्वीकायिक जीव के आतप नामकर्म का उदय होने से उसकी किरणें उष्ण हैं। चन्द्र के बिम्ब में स्थित पृथ्वीकायिक के उद्योत नामकर्म का उदय होने से उनके मूल में शीतलता है और किरणें भी शीतल हैं, ऐसे ही तारा आदि के समझना।
विमान और जिनमंदिरों का प्रमाण-सभी ज्योतिर्वासी देवों के विमानों के बीचों-बीच में एक-एक जिनमंदिर है और चारों ओर देवों के निवास स्थान बने हुए हैं। ये विमान एक राजु प्रमाण चौड़े इस मध्यलोक तक हैं अत: असंख्यात हैं, इसी निमित्त से जिनमंदिर भी असंख्यात ही हो जाते हैं। उनमें स्थित १०८-१०८ प्रतिमाओं को मेरा नमस्कार होवे।
सूर्य का गमन क्षेत्र-सूर्य का गमन क्षेत्र जम्बूद्वीप के भीतर १०८ योजन एवं लवण समुद्र में ३३०-४८/८१ योजन है अर्थात् समस्त गमन क्षेत्र ५१०-४८/८१ योजन (२०४३१४७-१३/६१) मील है। इतने प्रमाण में १८४ गलियाँ हैं। इन गलियों में दो सूर्य क्रमश: एक-एक गली में संचार करते हैं।
दक्षिणायन-उत्तरायण-जब सूर्य प्रथम गली में रहता है, तब श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन दक्षिणायन प्रारंभ होता है और जब वह अंतिम गली में पहुँचता है, तब उत्तरायण प्रारंभ होता है।
एक मिनट में सूर्य का गमन-एक मिनट में सूर्य का गमन ४४७६२३-११/१८ मील प्रमाण है।
चक्रवर्ती द्वारा सूर्य के जिनबिम्ब का दर्शन-जब सूर्य पहली गली में आता है, तब अयोध्या नगरी के भीतर अपने भवन के ऊपर स्थित चक्रवर्ती सूर्य विमान में स्थित जिनबिम्ब का दर्शन कर लेते हैं। चक्रवर्ती की दृष्टि का विषय ४७२६३-७/२० योजन (१८९०५३४००० मील) प्रमाण है।
चन्द्र का गमन क्षेत्र-सूर्य के इसी गमन क्षेत्र में चन्द्र की १५ गलियाँ हैं। इनमें वह प्रतिदिन एक-एक गली में गमन करता है।
एक मिनट में चन्द्र का गमन-एक मिनट में चन्द्रमा ४२२७९६-३१/१६४७ मील तक गमन करता है।
कृष्णपक्ष-शुक्लपक्ष-जब चन्द्रबिम्ब पूर्ण दिखता है, तब पूर्णिमा होती है। राहु विमान चन्द्रविमान के नीचे गमन करता है। राहु प्रतिदिन एक-एक मार्ग में चन्द्रबिम्ब की एक-एक कला को ढँकते हुए १५ दिन तक १५ कलाओं को ढँक लेता है, तब अंतिम दिन की १६ कला में १ कला शेष रह जाती है, उसी का नाम अमावस्या है। फिर वह राहु प्रतिपदा के दिन में प्रत्येक गली में १-१ कला को छोड़ते हुए पूर्णिमा को १५ कलाओं को छोड़ देते हैं, तब पूर्णिमा हो जाती है। इस प्रकार कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष का विभाग हो जाता है।
एक चन्द्र का परिवार-इन ज्योतिषी देवों में चन्द्रमा इन्द्र है तथा सूर्य प्रतीन्द्र है अत: एक चन्द्रमा इन्द्र के एक सूर्य प्रतीन्द्र, ८८ ग्रह, २८ नक्षत्र, ६६ हजार ९७५ कोड़ा-कोड़ी तारे ये सब परिवार देव हैं। जम्बूद्वीप में दो चन्द्रमा और दो सूर्य हैं।
दिन-रात्रि का विभाग-सूर्य के गमन से ही दिन-रात्रि का विभाग होता है। मानुषोत्तर पर्वत के अन्दर के ही सूर्य आदि ज्योतिषी देव गमन करते हैं। आगे के सभी ज्योतिष विमान स्थिर हैं।
कल्पवासी देव
१६ स्वर्गों के नाम-सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत।
बारह कल्प-सौधर्म-ईशान युगल के २ इन्द्र, सनत्कुमार-माहेन्द्र युगल के २ इन्द्र, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर युगल का १ इन्द्र, लांतव-कापिष्ठ युगल का १ इन्द्र, शुक्र-महाशुक्र युगल का १ इन्द्र, शतार-सहस्रार युगल का १ इन्द्र, आनत-प्राणत युगल के २ इन्द्र और आरण-अच्युत युगल के २ इन्द्र ऐसे १२ इन्द्र होते है। इनके स्थानों की ‘कल्प’ संज्ञा होने से १२ कल्प कहलाते हैं।
कल्पातीत-बारह कल्प (१६ स्वर्ग) के ऊपर ९ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश और ५ अनुत्तर विमान हैं, इनमें इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश आदि भेद न होने से ये कल्पातीत कहलाते हैं। यहाँ के सभी देव अहमिंद्र कहलाते हैं।
नौ ग्रैवेयक-अधस्तन ३, मध्यम ३ और उपरिम ३ ऐसे नौ ग्रैवेयक हैं।
अनुदिश-अर्चि, अर्चिमालिनी, वैर, वैरोचन ये चार दिशा में होने से श्रेणीबद्ध एवं सोम, सोमरूप, अंक और स्फटिक ये चार विदिशा में होने से प्रकीर्णक एवं मध्य में आदित्य नाम का विमान हैं, ऐसे ये ९ अनुदिश संज्ञक हैं।
पाँच अनुत्तर-विजय, वैजयन्त, जयंत और अपराजित ये चार विमान चार दिशा में एवं ‘सर्वार्थसिद्धि’ नाम का विमान मध्य में है।
कल्प और कल्पातीतों के स्थान-मेरु तल से लेकर १-१/२ राजु में सौधर्म युगल, उसके उâपर १ (१/२) राजु में सानत्कुमार युगल, आगे आधे-आधे राजु में ६ युगल हैं अत: १-१/२±१-१/२·३,१/२²६·३, ऐसे ६ राजु में ८ युगल हैं। इसके आगे १ राजु में ९ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश, ५ अनुत्तर और सिद्धशिला है।
विमानों की संख्या-सौधर्म स्वर्ग में ३२०००००, ईशान में २८०००००, सानत्कुमार में १२०००००, माहेन्द्र में ८०००००, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर युगल में ४०००००, लांतव-कापिष्ठ में ५०००००, शुक्र-महाशुक्र में ४००००, शतार-सहस्रार युगल में ६०००, आनत-प्राणत, आरण और अच्युत ऐसे चार कल्पों में ७००, तीन अधोग्रैवेयक में १११, तीन मध्यग्रैवेयक में १०७, तीन ऊर्ध्व ग्रैवेयक में ९१, अनुदिश में ९ और पाँच अनुत्तर में ५ ऐसे सब मिलाकर ३२०००००±२८०००००±१२०००००±८०००००±४०००००±५००००±४०००० ±६००००±७००±१०७±९१±९±५·८४९७०२३ विमान हैं और एक-एक विमान में १±१ जिनमंदिर होने से इतने ही मंदिर हो जाते हैं। उनमें स्थित जिन प्रतिमाओं को मेरा मन, वचन, काय से नमस्कार होवे।
विमानों के भेद-इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक ऐसे ३ भेद हैं। जो मध्य में है, वह इन्द्रक कहलाता है। दिशाओं के विमान श्रेणीबद्ध और अन्तरालसंंबंधी विमान प्रकीर्णक कहलाते हैं।
इन्द्रक की संख्या-इन्द्रक विमान को प्रतर भी कहते हैंं। सौधर्म युगल में ३१, सनत्कुमार युगल में ७, ब्रह्मयुगल में ४, लांतव युगल में २, शुक्रयुगल में १, शतारयुगल में १, आनत आदि ४ कल्पों में ६, अधस्तन तीन ग्रैवेयक में ३, मध्यम तीन में ३, उपरिम तीन में ३, नव अनुदिश में १ और पाँच अनुत्तर में १ ऐसे मिलाकर ३१±७±४±२±१±१±६±३±३±३±१±१·६३ इन्द्रक विमान हैं। ऋतु, विमल, चन्द्र आदि इन इन्द्रकों के क्रम से अच्छे-अच्छे नाम हैं।
विमानों का प्रमाण-सभी इन्द्र विमान संख्यात योजन विस्तार वाले हैं। सभी श्रेणीबद्ध विमान असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं एवं प्रकीर्णक विमानों में कुछ संख्यात योजन वाले और कुछ असंख्यात योजन वाले हैं।
विमानों के वर्ण-सौधर्म युगल के विमान पाँच वर्ण वाले हैं। सानत्कुमार, माहेन्द्र में कृष्ण वर्ण के बिना चार वर्ण हैं। ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ में कृष्ण-नील बिना तीन वर्ण हैं। शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार में कृष्ण, नील, लाल के बिना पीत और शुक्ल दो ही वर्ण हैं। आगे आनत से लेकर अनुत्तरपर्यंत एक शुक्ल वर्ण के ही विमान हैं।
विमानों के आधार-सौधर्म युग्म के विमान जल के आधार हैं। सानत्कुमार युग्म के विमान पवन के आधार हैं। ब्रह्म आदि आठ कल्प स्वर्ग के विमान जल और वायु दोनों के आधार हैं। आगे आनत से लेकर अनुत्तर पर्यन्त विमान आकाश के आधार हैं अर्थात् पुद्गल, स्कंध, जल आदि के आकार परिणत हुए हैं, ऐसा समझना।
पृथ्वी आठ ही मानी गई हैं-सात नरक संबंधी एवं एक ‘ईषत्प्राग्भार’ नाम की सिद्ध पृथ्वी। अत: ये विमान अधर ही माने गये हैं।
सौधर्म आदि नाम-सौधर्म इन्द्र जहाँ रहते हैं, उसका नाम सौधर्म स्वर्ग है ऐसे ही अन्यत्र जानना।
देवों के प्रासाद-इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक विमानों के ऊपर समचतुष्कोण व दीर्घ विविध प्रकार के प्रासाद स्थित हैं। ये सब प्रासाद सुवर्णमय, स्फटिकमय आदि रत्नों से निर्मित, उपपादशय्या, आसनशाला आदि से परिपूर्ण अनादि निधन हैं।
परिवारदेव-सभी इन्द्रोें के परिवार देव दस प्रकार के होते हैं-प्रतीन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंशदेव, लोकपाल, आत्मरक्ष, पारिषद, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग और किल्विषक।
एक-एक इन्द्र के एक-एक प्रतीन्द्र होने से १२ इन्द्रों के १२ प्रतीन्द्र सहित २४ इन्द्र माने गये हैं।
सौधर्म इन्द्र का परिवार-सौधर्म इन्द्र का १ प्रतीन्द्र, ८४००० सामानिक, ३३ त्रायस्त्रिंश, सोम, यम, वरुण तथा धनद ये ४ लोकपाल, ३३६००० आत्मरक्षक, आभ्यन्तर पारिषददेव १२०००, मध्यम पारिषद १४०००, बाह्य पारिषद १६००० हैं। वृषभ, अश्व, रथ, हाथी, पदाति, गन्धर्व और नर्तक इस प्रकार से सौधर्म इन्द्र की सात सेनाएँ होती हैं। इन सात सेनाओं में से प्रत्येक की ७-७ कक्षाएँ होती हैं। सौधर्म इन्द्र के १०६६८००० वृषभ होते हैं और प्रत्येक इतने ही होते हैं अर्थात् ७४६७६००० अनीक होते हैं। एक इन्द्र के प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक देव असंख्यात कहे गये हैं।
ऐरावत हाथी-सौधर्म इन्द्र के आभियोग्य देवों का स्वामी और ‘बालक’ नामक देव होता है। यह देव वाहनजाति का है, अपनी विक्रिया से १ लाख उत्सेध योजन प्रमाण ‘ऐरावत’ हाथी का शरीर बना लेता है। इसके दिव्य रत्न मालाओं से युक्त ३२ मुख होते हैं। एक-एक मुख में रत्नों से निर्मित ४-४ दाँत होते हैं। एक-एक दाँत पर एक-एक सरोवर एवं एक-एक सरोवर में एक-एक कमलवन होता है। एक-एक कमल खण्ड में विकसित ३२ महापद्म होते हैं और एक-एक महापद्म एक-एक योजन का होता है। इन एक-एक महाकमलोें पर एक-एक नाट्यशाला होती है। एक-एक नाट्यशाला में ३२-३२ अप्सराएँ नृत्य करती हैं, यह ऐरावत हाथी भगवान के जन्मोत्सव में आता है।
सौधर्म इन्द्र की देवियाँ-सौधर्म इन्द्र की ‘शची’ नाम की ज्येष्ठ देवी होती है, ऐसे आठ अग्र देवी हैंं। ये शची आदि अपने रूप को विक्रिया से १६०००-१६००० बना लेती हैं। सौधर्म इन्द्र की अतिशय प्रिय वल्लभिका देवियाँ ३२००० हैं एवं एक-एक अग्रदेवी के १६०००-१६००० परिवार देवियाँ हैं। ये वल्लभिका और परिवार देवियाँ भी १६०००-१६००० प्रमाण विक्रिया कर सकती हैं। अर्थात् सौधर्म इन्द्र के १६००० देवी तथा ८ अग्रदेवी हैं।
सौधर्म इन्द्र का राजांगण-इन्द्र की राजांगण भूमि ८४००० योजन प्रमाण है और सुवर्णमय वेदी से वेष्टित है।
सुधर्मा-सभा-सौधर्म इन्द्र के भवन में ईशान दिशा में ३००० कोस ऊँची, ४०० कोस लम्बी, २०० कोस विस्तृत ‘सुधर्मा’ नामक सभा है। इस रमणीय सुधर्मा सभा में बहुत प्रकार के परिवार से युक्त सौधर्म इन्द्र विविध सुखों को भोगता है।
जिनभवन-उसी दिशा में अनुपम और रत्नमय जिनभवन हैं।
शरीर की अवगाहना-सौधर्म युगल के देवों के शरीर की अवगाहना ७ हाथ, सानत्कुमार युगल की ६ हाथ, ब्रह्मयुगल और लांतव युगल में ५ हाथ, शुक्र, महाशुक्र में ४ हाथ, शतार-सहस्रार में ३-१/२ हाथ, आनत से अच्युत तक स्वर्गों में ३ हाथ, तीन अधोग्रैवेयक में २-१/२ हाथ, तीन मध्य ग्रैवेयक में २ हाथ, तीन उपरिम ग्रैवेयक में १-१/२ हाथ, नव अनुदिश एवं पाँच अनुत्तरों में १ हाथ प्रमाण होती है।
उत्कृष्ट आयु-सौधर्म युगल में उत्कृष्ट आयु २ सागर, सानत्कुमार युगल में ७ सागर, ब्रह्मयुगल में १० सागर, लांतव युगल में १४, शुक्र युगल में १६, शतार युगल में १८, आनत युुगल में २०, आरण युगल में २२ सागर है। आगे नव ग्रैवेयक तक १-१ सागर बढ़ते हुए अंतिम ग्रैवेयक में ३१ सागर, नव अनुदिश में ३२ सागर और पंच अनुत्तर में ३३ सागर प्रमाण है।
विक्रिया और अवधिज्ञान-प्रथम स्वर्ग के देव ऊपर में अपने विमान के ध्वजदंड तक एवं नीचे प्रथम पृथ्वी तक अवधिज्ञान से जान लेते हैं। आगे बढ़ते-बढ़ते सर्वार्थसिद्धि के देव लोकनाड़ी तक जान लेते हैं। इन देवों को जहाँ तक अवधिज्ञान है, वहीं तक विक्रिया करने की शक्ति है। सोलह स्वर्ग तक के देव विक्रिया से यत्र-तत्र आते जाते हैं। आगे के देव जाने की शक्ति रखते हैं किन्तु जाते नहीं हैं।
प्रवीचार सुख-प्रवीचार का नाम कामसेवन है। सौधर्म युगल में काय प्रवीचार, आगे दो स्वर्ग में स्पर्श प्रवीचार, आगे चार स्वर्ग में रूप प्रवीचार, आगे चार स्वर्ग में शब्द प्रवीचार और आगे आनत आदि चार में मन: प्रवीचार है। इन स्वर्गों के आगे नवग्रैवेयक आदि में देवांगना भी नहीं है और उनके भोगों की इच्छा भी नहीं है।
देवियों के उत्पत्ति स्थान-सौधर्म-ईशान स्वर्ग तक ही देवियों की उत्पत्ति होती है, आगे नहीं। आगे के देव अपनी-अपनी देवियों की उत्पत्ति को अवधिज्ञान से जानकर अपने-अपने स्थान पर ले जाते हैं।
विरह काल-सब इन्द्र, उनकी महादेवियाँ, लोकपाल और प्रतीन्द्र, इनका उत्कृष्ट विरहकाल छह मास है।
देवों का आहार काल-जो देव जितने सागर तक जीवित रहते हैं, उतने ही हजार वर्षों में मानसिक आहार ग्रहण करते हैं। पल्य प्रमाण आयु वाले पाँच दिन में आहार ग्रहण करते हैं।
श्वासोच्छ्वास ग्रहणकाल-सौधर्म युगल में आयु दो सागर की है अत: वहाँ उच्छ्वास का अन्तराल दो पक्ष का है, ऐसे ही जितने सागर की आयु है, उतने पक्ष बीतने पर श्वासोच्छ्वास ग्रहण करते हैं।
लौकांतिकदेव-ब्रह्म स्वर्ग के अग्र भाग में इनके निवास होने से ये लौकान्तिक कहलाते हैं अथवा ये लोक-संसार का अन्त करने वाले एक भवावतारी हैं इसलिए लौकान्तिक कहलाते हैं। इनके सारस्वत, आदित्य, वन्हि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध और अरिष्ट ऐसे मुख्य आठ भेद हैं। इनके शरीर की ऊँचाई पाँच हाथ, आयु आठ सागर की और लेश्या शुक्ला होती है। ये भगवान के तपकल्याणक में वैराग्य की प्रशंसा करने के लिए भक्तिवश आते हैं, अन्य कल्याणकों में नहीं आते हैं, ये बालब्रह्मचारी हैं तथा देवर्षि कहलाते हैं।
एक भवावतारी देव-सौधर्म इन्द्र आदि दक्षिण इन्द्र, शची इन्द्राणी, दक्षिण इन्द्रों के चारों लोकपाल, लौकान्तिक देव और सर्वार्थसिद्धि के देव, ये सब नियम से मनुष्य का एक भव प्राप्त कर तपश्चर्या के बल से कर्मों का नाशकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।
देवों का जन्म-पुण्य के उदय से देवगति में उपपाद शय्या से जन्म होता है। जन्म लेते ही आनन्द वादित्र बजने लगते हैं। अन्तर्मुहूर्त में ही देव अपनी छहों पर्याप्तियों को पूर्ण कर नवयौवन्ा सहित हो जाते हैं और अवधिज्ञान से सब जान लेते हैं, अनन्तर सरोवर में स्नान करके वस्त्रालंकार से भूषित होकर जिनमंदिर में जाकर भगवान की पूजा करते हैं। जो देव मिथ्यादृष्टि हैं, वे अन्य देवों की प्रेरणा से जिनदेव को कुलदेवता मानकर पूजन करते हैं।
सोलह स्वर्ग तक के देवगण तीर्थंकरों के कल्याणक आदि महोत्सव में आते हैं किन्तु आगे के अहमिन्द्र देव वहीं पर मस्तक झुकाकर नमस्कार करते हैं।
तीन लोक के कुल अकृत्रिम जिनमंदिर एवं जिनप्रतिमाएँ-जैसा कि ऊपर बताया गया है, अधोलोक में (भवनवासी देवों के) ७ करोड़ ७२ लाख अकृत्रिम जिनमंदिर हैं, मध्यलोक में ४५८ तथा ऊर्ध्वलोक में ८४ लाख ९७ हजार २३ जिनमंदिर हैं, इस प्रकार तीनों लोकों में ८ करोड़ ५६ लाख ९७ हजार ४८१ अकृत्रिम जिनमंदिर हैं। प्रत्येक मंदिर में १०८ जिनप्रतिमाएँ होने से तीन लोकों की कुल अकृत्रिम जिनप्रतिमाएँ ९२५ करोड़ ५३ लाख २७ हजार ९४८ हैं। साथ ही व्यंतर एवं ज्योतिर्वासी देवों के असंख्यात भवनों में असंख्यात जिनमंदिर हैं तथा सबमें १०८-१०८ जिनप्रतिमाएँ होने से असंख्यात जिनप्रतिमाएँ हैं। मैं मन, वचन, काय से इन सभी जिनमंदिरों एवं जिनप्रतिमाओं को नमस्कार करता हूँ। इनके अतिरिक्त मध्यलोक के संख्यात कृत्रिम जिनमंदिर एवं जिनप्रतिमाओं को भी मेरा नमस्कार हो।
विशेष—यहाँ इस ‘अमृतवर्षिणी’ हिन्दी टीका में मुख्य-मुख्य विषयों का ही विस्तृत विवेचन किया गया है। अत: सभी दण्डक सूत्र का विवेचन नहीं है, यह ध्यान में रखना है।