श्रीगौतमस्वामी ने सर्वज्ञ की व्याख्या करते हुये महावीर स्वामी को नमस्कार किया है—
यः सर्वाणि चराचराणि विधिवद्-द्रव्याणि तेषां गुणान्। पर्यायानपि भूतभाविभवतः, सर्वान् सदा सर्वदा। जानीते युगपत् प्रतिक्षणमत:, सर्वज्ञ इत्युच्यते। सर्वज्ञाय जिनेश्वराय महते, वीराय तस्मै नमः।।१।। जो विधिवत् सब लोक चराचर, द्रव्यों को उनके गुण को। भूत भविष्यत् वर्तमान, पर्यायों को भी नित सबको।। युगपत समय-समय प्रति जाने, अत: हुए सर्वज्ञ प्रथित। उन सर्वज्ञ जिनेश्वर महति, वीर प्रभु को नमूँ सतत।।१।।
श्रीगौतमस्वामी ने सातों विभक्तियों को घटित करते हुये श्रीमहावीर स्वामी की वंदना की है—
वीर सभी सुर असुर इन्द्र से, पूज्य वीर को बुध सेवें। निज कर्मों को हता वीर ने, नमः वीर प्रभु को मुद से।। अतुल प्रवर्ता तीर्थ वीर से, घोर वीर प्रभु का तप है। वीर में श्री द्युति कांति कीर्ति, धृति हैं हे वीर! भद्र तुममें।।२।।
श्रीगौतमस्वामी ने महावीर स्वामी की वंदना का फल बताते हुये स्तुति की है—
ये वीरपादौ प्रणमन्ति नित्यं, ध्यानस्थिताः संयमयोगयुक्ता:। ते वीतशोका हि भवन्ति लोके, संसारदुर्गं विषमं तरंति।।३।।
जो नित वीर प्रभू के चरणों, में प्रणमन करते रुचि से। संयम योग समाधीयुत हो, ध्यान लीन होते मुद से।। इस जग में वे शोक रहित हो, जाते हैं निश्चित भगवन्। यह संसार दुर्ग विषमाटवि, इसको पार करें तत्क्षण।।३।।
व्रत समुदाय मूल है जिसका, संयममय स्कंध महान् । यम अरु नियम नीर से सिंचित, बढ़ी सुशाखाशील प्रधान।। समिति कली से भरित गुप्तिमय, कोंपल से सुन्दर तरु है। गुण कुसुमों से सुरभित सत्तप, चित्रमयी पत्तों युत है।।४।।
शिवसुखफलदायी यो दयाछाययोद्यः (द्घ:) शुभजनपथिकानां खेदनोदे समर्थ:। दुरितरविजतापं प्रापयन्नन्तभावं स भवविभवहान्यै नोऽस्तु चारित्रवृक्ष:।।५।।
शिवसुख फलदायी यह तरुवर, दयामयी छाया से युत। शुभजन पथिक जनों के खेद, दूर करने में समरथ नित।। दुरित सूर्य के हुए ताप का, अन्त करे यह श्रेष्ठ महान् । वर चारित्र वृक्ष कल्पद्रुम, करे हमारे भव की हान।।५।।
श्रीगौतमस्वामी ने चारित्र को नमस्कार किया है—
चारित्रं सर्वजिनैश्चरितं, प्रोक्तं च सर्वशिष्येभ्यः। प्रणमामि पंचभेदं, पंचमचारित्रलाभाय।।६।।
सभी जिनेश्वर ने भवदुःखहर, चारित को पाला रुचि से। सब शिष्यों को भी उपदेशा, विधिवत् सम्यक् चारित ये।। पाँच भेद युत सम्यक् चारित, को प्रणमूँ मैं भक्ती से। पंचम यथाख्यात चारित की, प्राप्ति हेतु वंदूँ मुद से।।६।।
श्रीगौतमस्वामी ने धर्म को नमस्कार करते हुये सातों विभक्तियाँ घटित की हैं—
धर्म सर्वसुख खानि हितंकर, बुधजन करें धर्म संचय। शिवसुखप्राप्त धर्म से होता, उसी धर्म के लिए नमन।। धर्म से अन्य मित्र नहिं जग में, दयाधर्म का मूल कहा। मन को धरूँ धर्म में नित, हे धर्म! करो मेरी रक्षा।।७।।
श्रीगौतमस्वामी ने धर्म का लक्षण बताकर उसकी महिमा बतलाई है—
धर्म महा मंगलमय है यह, कहा वीर प्रभु ने जग में। प्रमुख अिंहसा संयम तपमय, धर्म सदा उत्तम सब में।। जिसके मन में सदा धर्म है, सुरगण भी उसको प्रणमें। मैं भी नमूं धर्म को संतत, धर्म बसो मेरे मन में।।८।।
विशेष— वीरभक्ति की संस्कृत टीका व अर्थ आगे दिया गया है।