‘सद्द्रव्यलक्षणम्’ इस सूत्र के अनुसार द्रव्य का लक्षण है ‘सत्’ और सत् का लक्षण है ‘‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्’’ उत्पाद व्यय और धौव्य से सहित वस्तु ही सत् कहलाती है।
वस्तु की नवीन पर्याय की उत्पत्ति का नाम उत्पाद है। वस्तु की पहली पर्याय के विनाश को व्यय कहते हैं और दोनों ही अवस्था में द्रव्य की मौजूदगी का नाम ध्रौव्य है। जैसे मनुष्य के मरते ही मनुष्य पर्याय का व्यय, अगली देवपर्याय का उत्पाद और दोनों ही अवस्थाओं में जो जीव द्रव्य विद्यमान है, उसी का नाम है ध्रौव्य। इसी तरह से अचेतन घड़े आदि में भी जाना जाता है। जैसे कि मिट्टी से घट पर्याय का उत्पाद, मृत्पिंड पर्याय का विनाश और दोनों अवस्थाओं में मिट्टी का बने रहना यह ध्रौव्य गुण है। यह उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य प्रत्येक द्रव्य में पाया जाता है।
द्रव्य का दूसरा लक्षण है-‘‘गुणपर्ययवद्द्रव्यम्’’ गुण और पर्यायों के समूह का नाम ही द्रव्य है। जैसे जीव द्रव्य में ज्ञान, दर्शन आदि गुण हैं और मनुष्य, देव आदि पर्यायें हैं। इन गुण पर्यायों से अतिरिक्त जीव नाम की कोई चीज नहीं है। सिद्धों में भी शुद्ध ज्ञान, दर्शन और सिद्धत्व आदि पर्यायें विद्यमान हैं।
इस प्रकार से द्रव्यों का वर्णन करते हुए श्री नेमिचन्द्राचार्य कहते हैं-
जिणवरवसहेण जेण-जिनवर में प्रधान ऐसे जिन तीर्थंकर देव ने, जीवमजीवं दव्वं-जीव और अजीव द्रव्य को, णिद्दिट्ठं-कहा है। देविंदविंदवंदं-देवेन्द्रों के समूह से वंदना योग्य, तं-ऐसे उन भगवान को मैं सव्वदा-नित्य ही, सिरसा वंदे-शिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ।
यहाँ पर आचार्यश्री ने दो द्रव्यों को कहने की प्रतिज्ञा की है। क्योंकि द्रव्य दो ही हैं-जीव और अजीव। अजीव द्रव्य के पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ऐसे पाँच भेद हो जाने से द्रव्य छह हो जाते हैं। इस छोटे से लघुकाय द्रव्यसंग्रह ग्रंथ में आचार्य महोदय ने छहों द्रव्यों का बहुत ही सुन्दर विवेचन किया है।
इस गाथा में जिनेन्द्रदेव को सौ इन्द्रों से वंद्य कहा है। सो वे सौ इन्द्र कौन-कौन से हैं-
भवनवासियों के ४०±व्यन्तरों के ३२±कल्पवासियों के २४±ज्योतिषियों के सूर्य-चन्द्र ये २±मनुष्यों में चक्रवर्ती १±और तिर्यंचों में सिंह १·१००, ये सौ इन्द्र हैं।
अब सर्वप्रथम जीव द्रव्य का वर्णन करते हैं-
प्रत्येक प्राणी जीव है, उपयोगमय है, अमूर्तिक है, कर्ता है, स्वदेह परिमाण रहने वाला है, भोक्ता है, संसारी है, सिद्ध है और स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करने वाला है। ये जीव के नव विशेष लक्षण हैं। इन सबका आगे पृथक्-पृथक् निरूपण करेंगे। उनमें से सर्वप्रथम जीव का लक्षण बताते हैं-
जिसके व्यवहारनय से तीनों कालों में इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण हैं और निश्चयनय से चेतना प्राण है, वह जीव कहलाता है।
जीव को जीव क्यों कहते हैं ? यहाँ पर इसी बात को स्पष्ट किया है। निश्चयनय वस्तु की स्वाभाविक अवस्था को प्रगट करता है और व्यवहारनय वस्तु के औपाधिक परसंसर्गजन्य भावों को भी ग्रहण कर लेता है। उदाहरण के लिए ‘जल ठंडा है’ क्योंकि उसका स्वभाव ठंडा ही है किन्तु जब जल अग्नि के ऊपर चढ़ा देने से खूब खौल रहा है, तब गर्म हो गया है। निश्चयनय उस खौलते हुए जल को भी ठंडा ही कहेगा क्योंकि जल का स्वभाव ठंडा है तथा व्यवहारनय उस खौलते हुए जल को गरम कहेगा क्योंकि उस जल को कोई शरीर के ऊपर डाल ले तो जल जायेगा, फफोले उठ जायेंगे। जल का स्वभाव ठंडा होते हुए भी उस समय वह जल अग्नि का काम कर रहा है अत: विचारपूर्वक देखा जाय तो ये दोनों ही नय अपने-अपने विषय को कहने में सत्य हैं, असत्य नहीं हैं। जल अपने स्वभाव से ठंडा है। स्वभाव पर दृष्टि रखने वाला निश्चयनय सही कह रहा है तथा अग्नि के संसर्ग से जल गरम है अत: व्यवहारनय भी झूठा नहीं है। उसे झूठा कहने वाले भला खौलते जल को शरीर पर डालेंगे क्या ? नहीं, अत: यह नय भी सच्चा ही है।
उसी प्रकार से निश्चयनय जीव के चेतना प्राण को कहता है। चेतना का अर्थ है ज्ञान-दर्शन, जो कि जीव में किसी न किसी अंश में सतत पाए ही जाते हैं तथा व्यवहारनय से सदा ही इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण पाए ही जाते हैं। इनके बगैर संसार में जीव का अस्तित्व ही नहीं है।
इन्द्रियाँ पाँच हैं-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण। बल तीन हैं-कायबल, वचनबल और मनोबल। आयु एक प्राण है और श्वासोच्छ्वास एक, ऐसे सब मिलकर दश प्राण हो जाते हैं।
पंचेन्द्रिय जीवों में देव, नारकी, मनुष्य और पंचेन्द्रिय सैनी तिर्यंचों के दशों प्राण होते हैं। असैनी पंच्ोन्द्रिय तिर्यंचों के मनोबल से रहित नव प्राण होते हैं। चार इन्द्रिय जीव के प्रारंभ की चार इन्द्रियाँ, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये आठ प्राण होते हैं। तीन इन्द्रिय जीवों के चक्षु से रहित सात प्राण होते हैं। दो इन्द्रिय जीवों के घ्राण से रहित छह प्राण होते हैं और एकेन्द्रिय जीवों के स्पर्शन नामक एक इन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण ही होते हैं।
संसारी जीवों के ये प्राण पाये जाते हैं। मुक्त जीवों में इन इन्द्रिय आदि दश प्राणों का अभाव होते हुए भी उनमें चेतना यह प्राण विद्यमान रहता है अत: वे जीव ही कहलाते हैं न कि अजीव अथवा तत्त्वार्थराजवार्तिक में श्री अकलंकदेव ने ऐसा कहा है कि भूतपूर्व नैगमनय की अपेक्षा से सिद्धों में भी दश प्राणों की अपेक्षा जीवत्व मानना चाहिए।
यदि कदाचित् व्यवहारनय को झूठा कह दिया जाए तो संसारी जीवों का अस्तित्व ही समाप्त हो जावेगा अथवा हम और आप सभी जीवों के इन्द्रिय, बल, आयु आदि प्राण असत्य ही ठहरेंगे किन्तु ऐसी बात नहीं है अत: व्यवहारनय का कथन सत्य ही है जो कि प्रतीतिसिद्ध जीव के जीवत्व को साध रहा है।
जीव उपयोगमयी है
जीव के नव अधिकारों में ‘जीवत्व’ नाम का पहला अधिकार कहा है, अब दूसरे अधिकार ‘उपयोगमयत्व’ को कहते हैं-
‘‘उपयोग दो प्रकार का है-ज्ञान और दर्शन। दर्शन तो निर्विकल्प है और ज्ञान सविकल्प है। दर्शनोपयोग के चार भेद हैं-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान तथा कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और कुअवधिज्ञान। इनके प्रत्यक्ष, परोक्ष ऐसे दो भेद भी माने गये हैं। मति, श्रुत तथा कुमति और कुश्रुत ये परोक्ष हैं। अवधि, मन:पर्यय तथा कुअवधि ये एकदेश प्रत्यक्ष हैं एवं केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है।’’
आत्मा के चैतन्यानुविधायी परिणाम का नाम उपयोग है। श्री उमास्वामी आचार्य ने इस एक उपयोग को ही जीव का लक्षण कहा है। इसके मूल में दो भेद हैं-ज्ञान और दर्शन। ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं तथा दर्शनोपयोग के चार भेद हैं। यहाँ पहले उत्पन्न होने की अपेक्षा दर्शनोपयोग को पहले लिया है। संसारी आत्मा जब किसी भी इन्द्रिय से किसी स्पर्श, रस आदि विषय को ग्रहण करता है तो उसके प्रारंभ में जो सत्तामात्र अवभास या झलक होती है, उसी का नाम दर्शनोपयोग है। यह अव्यक्त है, निराकार है-निर्विकल्प है। इसके बाद ही ज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा रूप भेद प्रगट हो जाते हैं, जो कि मतिज्ञान के भेद हैं। जैसे कोई व्यक्ति गहरी नींद में सो रहा है, बाहर से किसी ने आवाज दी, वह सोता हुआ व्यक्ति कुछ सचेत होकर सुनने की तरफ उपयुक्त हुआ कि कहीं से आवाज आई है, यह तो हो गया मतिज्ञान का पहला भेद ‘अवग्रह’, पुन:-पुन: आवाज आने से उसने सोचा, भला कौन पुकार रहा है ? यह हो गई ‘ईहा’, पुन: उसने निर्णय कर लिया, मेरे भाई की आवाज है, यह हो गया ‘अवाय’, इसको कालांतर में न भूलकर वह उठ बैठा और उस पुकारने के प्रत्युत्तर में बोला, मैं आ रहा हूँ ’’ यह हो गई धारणा। इन ज्ञानों में अवग्रह ज्ञान के पहले की भी जो झलक है, उसी का नाम दर्शनोपयोग है, जो अचक्षुदर्शन के एक भेदरूप कर्णेन्द्रिय से होने वाला है।
चक्षुदर्शन तो केवल चक्षु इन्द्रिय से ही होता है। यह चार इन्द्रिय जीवों से लेकर सम्पूर्ण पंचेन्द्रिय जीवों में पाया जाता है। अचक्षुदर्शन स्पर्शन, रसना, घ्राण, कर्ण और मन इन इन्द्रियों से होता है अत: यह एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सभी प्राणियों में पाया जाता है। अवधिज्ञान के पहले होने वाला अवधिदर्शन मात्र पंचेन्द्रियोें में ही किन्हीं-किन्हीं के हो सकता है और केवलदर्शन तो केवली भगवान के ही होता है।
यद्यपि आत्मा शुद्ध निश्चयनय से सहज, विमल, केवलदर्शन स्वभाव वाला है फिर भी अनादिकाल से कर्मबंधन से बंधा होने के कारण इन चक्षु आदि उपयोगों को धारण कर रहा है।
ज्ञान में मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के भेद से चार भेद हैं। पुन: पाँच इन्द्रिय और मन से तथा बहु, बहुविध आदि पदार्थों से गुणा करने से तीन सौ छत्तीस भेद हो जाते हैं। जिनका विस्तार यहाँ नहीं किया जा रहा है। श्रुतज्ञान के भी अंग और पूर्वरूप से भेद-प्रभेद माने गये हैं। अवधिज्ञान के देशावधि, परमावधि, सर्वावधि की अपेक्षा तीन भेद हैं और भी अनेक भेद होते हैं। मन:पर्ययज्ञान के ऋजुमति और विपुलमति की अपेक्षा दो भेद हैं और केवलज्ञान एक अकेला ही है।
दर्शनावरण के चक्षुदर्शनावरण आदि कर्म के क्षयोपशम से दर्शन प्रगट होता है। ज्ञानावरण के मतिज्ञानावरण आदि कर्मों के क्षयोपशम से मतिज्ञान आदि ज्ञान प्रगट होते हैं तथा दोनों के क्षय से केवलदर्शन और केवलज्ञान हो जाते हैं।
इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाले मतिज्ञान को परोक्ष कहते हैं। श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है अत: वह भी परोक्ष है। अवधिज्ञान तथा मन:पर्ययज्ञान आत्मा से प्रगट होते हैं फिर भी कुछ मूर्तिक वस्तुओं को ही ग्रहण करते हैं इसलिए एकदेश प्रत्यक्ष हैं तथा केवलज्ञान कर्मों के क्षय से आत्मा से प्रगट होता है अत: सकल प्रत्यक्ष है।
प्रत्येक जीव में संसार अवस्था में कम से कम एक दर्शन और दो ज्ञान पाए ही जाते हैं। इन ज्ञानों में जो तीन मिथ्याज्ञान हैं, उनमें कारण है मिथ्यात्व का उदय अर्थात् ज्ञान कभी भी मिथ्या नहीं हो सकता था किन्तु मिथ्यात्व के निमित्त से वह कु अथवा मिथ्या हो जाता है, जैसे दूध का स्वभाव मधुर है किन्तु यदि उसे कड़ुवी तूंबड़ी में रख दिया जाए तो वह कड़ुवा हो जाता है, उसी प्रकार से जब तक जीव में मिथ्यात्व का उदय विद्यमान रहता है तब तक उसके मति, श्रुतज्ञान या अवधिज्ञान मिथ्यारूप होने से कुमति, कुश्रुत और कुअवधि कहलाने लगते हैं।
जो जीव सम्यग्दृष्टि हैं उनके ये ही ज्ञान समीचीन होने से मति, श्रुत कहलाते हैं। आजकल हम और आप में मति, श्रुुत ये दो ज्ञान हैं तथा चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन ये दो दर्शन हैं, ऐसा समझना चाहिए किन्तु जो मिथ्यादृष्टि जीव हैं उनके कुमति, कुश्रुत और चक्षु, अचक्षुदर्शन, ऐसे चार उपयोग पाये जाते हैं।
‘‘आठ प्रकार का ज्ञान और चार प्रकार का दर्शन यह व्यवहारनय से सामान्यरूप से जीव का लक्षण है किन्तु शुद्ध नय से शुद्धज्ञान और शुद्धदर्शन ही जीव का लक्षण है, ऐसा कहा गया है।’’
यहाँ जो सामान्य शब्द है, उसका अर्थ यह है कि ये बारह प्रकार का उपयोग जीव का लक्षण है। इसमें संसारी और मुक्त सम्पूर्ण जीवराशि आ जाती है क्योंकि एक साथ तो बारह उपयोग कभी किसी जीव में हो ही नहीं सकते हैं। मुक्त जीवों में तो मात्र दो ही उपयोग रहते हैं। यह तो व्यवहारनय की बात है किन्तु निश्चयनय से सभी संसारी जीव में भी मात्र शुद्धज्ञान और शुद्ध दर्शन ही पाए जाते हैं क्योंकि निश्चयनय की अपेक्षा से तो जीव के साथ कर्म का संबंध ही नहीं है पुन: कर्मों के क्षयोपशम से होने वाले ज्ञान, दर्शन भी भला कहाँ होंगे ?
निश्चयनय से तो निगोदिया जीव को ही क्या अभव्य जीवों में भी शुद्ध ज्ञान, दर्शन विद्यमान है। यह निश्चयनय शक्ति को कहने वाला है। तत्त्वार्थराजवार्तिक में श्री अकलंकदेव ने कहा है कि शुद्धनय से शक्तिरूप से तो अभव्य जीव में भी मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान विद्यमान है किन्तु उनसे उनको भला क्या लाभ है ? अत: अपने पुरुषार्थ के बल से अपने अंदर में शक्तिरूप से विद्यमान ऐसे शुद्ध ज्ञान, दर्शन को व्यक्त कर लेना ही लाभकारी है, उसी के लिए हमें पुरुषार्थ करना चाहिए।
प्रत्येक संसारी आत्मा सर्वज्ञानदर्शी है किन्तु कर्मों के आवरण से आछन्न होकर अल्पज्ञानदर्शी हो रहा है, जैसा कि प्रत्यक्ष में अनुभव आ रहा है। इन ज्ञानावरण आदि कर्मों को जैसे बने, वैसे नष्ट करके अपने सर्वज्ञत्व और सर्वदर्शित्व स्वभाव को प्रगट कर लेना चाहिए। यही सब ग्रंथों के पढ़ने का, दीक्षा आदि लेने का तथा व्रत, जप, तप आदि अनुष्ठान करने का सार है।
पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गंध और आठ स्पर्श, निश्चयनय से ये जीव में नहीं हैं चूँकि ये बीस गुण पुद्गल के हैं अत: जीव अमूर्तिक है तथा जीव के साथ कर्मबंध लग रहा है इसलिए व्यवहारनय से मूर्तिक है।
सफेद, पीला, नीला, लाल और काला ये पाँच वर्ण हैं, तिक्त, कटु, कषायला, खट्टा और मीठा ये पाँच रस हैं, सुगंध और दुर्गंध ये दो गंध हैं तथा शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, मृदु, कर्कश, गुरु और लघु, स्पर्श के ये आठ भेद हैं, ये सब पुद्गल में पाये जाते हैं। शुद्ध निश्चयनय से सभी संसारी जीव शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी होने से शुद्ध हैं अत: शुद्ध निश्चयनय से सभी जीव अमूर्तिक ही हैं अर्थात् सभी संसारी जीव शक्तिरूप से अमूर्तिक हैं तथा सिद्ध जीव व्यक्तरूप से अमूर्तिक हैं।
प्रश्न यह उठता है कि यदि जीव अमूर्तिक है तो उसे कर्मबंध वैâसे होगा ?
तब ग्रन्थकार कहते हैं कि यह जीव व्यवहारनय से मूर्तिक है इसीलिए इसके कर्मबंध होता है अथवा संसारी जीव के कर्मों का संबंध अनादिकाल से ही चला आ रहा है इसलिए संसारी जीव अमूर्तिक न होकर मूर्तिक ही है।
यह कौन सा व्यवहारनय है ?
यह अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय है। अनन्त ज्ञान आदि की उपलब्धि होना मोक्ष है, इस मोक्ष से विपरीत जो कर्मबंध है, वह अनादिकाल से इस जीव के साथ चला आ रहा है इसीलिए यह संसारी जीव मूर्तिक है, अत: जीव कथंचित् मूर्तिक है, कथंचित् अमूर्तिक है। कहा भी है-
कर्मबंध के प्रति जीव की एकता है और लक्षण की अपेक्षा उस कर्मबंध से भिन्नता है। इसलिए एकांत से जीव का अमूर्तिक भाव नहीं है अर्थात् कर्मबंध की अपेक्षा जीव मूर्तिक है और लक्षण से अमूर्तिक है क्योंकि जैसे जीव का लक्षण ज्ञान, दर्शन है वैसे ही अमूर्तिक भाव भी जीव का लक्षण है। यहाँ टीकाकार कहते हैं-
जिस अमूर्तिक आत्मा की प्राप्ति नहीं होने पर यह जीव अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण कर रहा है, मूर्तिक पंचेन्द्रिय विषयों का त्याग करके उसी अमूर्तिक स्वभावी अपनी शुद्ध आत्मा का निरंतर ध्यान करना चाहिए।
श्री अकलंकदेव ने तत्त्वार्थराजवार्तिक में यह चर्चा उठाई है-‘जीव अमूर्तिक है अत: कर्मों से उसका अभिभव-तिरस्कार नहीं होना चािहए ?’
आचार्य कहते हैं कि एकांत से जीव अमूर्तिक नहीं है चूँकि कर्म के साथ संबंध होने से जीव कथंचित् मूर्तिक है तभी तो कर्मों से उसकी स्वभाव हानि देखी जा रही है। जीव का स्वभाव सर्वज्ञानदर्शी है फिर भी ज्ञानावरण आदि कर्मों के निमित्त से जीव के ज्ञान-दर्शन गुणों पर आवरण आ रहा है इसीलिए जीव का ज्ञान-दर्शन पूर्ण न होकर अल्प-अल्प दिख रहा है। जब रत्नत्रय संपत्ति से इन कर्मों का विनाश हो जाता है तब यह जीव अपने ज्ञान-दर्शन, अमूर्तिक आदि गुणों को पूर्णतया प्रगट कर लेता है।
इस प्रकरण से सम्यग्दृष्टि का यह कर्तव्य हो जाता है कि तत्त्वदृष्टि से आत्मा को अमूर्तिक समझकर सतत उसके स्वभाव का चिंतवन करता रहे। आगे-आगे के गुणस्थानों में चारित्र के निमित्त से परिणामों की निर्मलता बढ़ जाने से यही अध्यात्म भावना धीरे-धीरे ध्यान का रूप ले लेती है। आगे प्रश्न होता है कि जीव निष्क्रिय है, अमूर्तिक है, टांकी से उकेरे हुए के समान ज्ञायक एक स्वभाव वाला है तब तो वह कर्मों का कर्ता भी नहीं हो सकता है ?
इस पर आचार्य उत्तर देते हैं-
‘यह आत्मा व्यवहारनय से पुद्गल कर्मादि का कर्ता है, निश्चयनय से चेतन कर्मों का कर्ता है और शुद्धनय से शुद्धभावों का कर्ता है।’
यह जीव अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय इन पौद्गलिक कर्मों का कर्ता है तथा औदारिक, वैक्रियिक, आहारक ये तीन शरीर और छह पर्याप्ति इनके योग्य पुद्गल पिंडरूप नोकर्मों का कर्ता है। उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से बाह्य पदार्थ जो घट-पट आदि हैं उनका कर्ता है।
अशुद्ध निश्चयनय से रागद्वेष, मोह आदि भाव कर्मों का कर्ता है। विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनय से छद्मस्थ अवस्था में भावनारूप से अनंतज्ञान, सुख आदि शुद्ध भावों का कर्ता है तथा मुक्त अवस्था में शुद्धनय से अनंतज्ञानादि शुद्ध भावों का कर्ता है।
यहाँ शुद्ध-अशुद्ध भावों का जो परिणमन है, उसी परिणमन का नाम कर्तृत्व है। हाथ आदि के व्यापारों का कर्तृत्व विवक्षित नहीं है।
यहाँ तात्पर्य यही समझना कि प्रत्येक आत्मा संसार अवस्था में ज्ञानावरण आदि द्रव्य कर्मों का कर्ता है अशुद्ध निश्चयनय से राग-द्वेष आदि भावकर्मों का कर्ता है और शुद्ध निश्चयनय से संसारी आत्मा ही अपने शुद्ध भावों का कर्ता है क्योंकि शुद्धनय से आत्मा सदा शुद्ध ही है कर्मों का संबंध उसके है ही नहीं।
उसी प्रकार से यह जीव कर्मों के फल का भोक्ता भी है-
यह आत्मा व्यवहारनय से पौद्गलिक कर्मों के फल ऐसे सुख और दु:खों को भोगता है तथा निश्चयनय से अपनी आत्मा के शुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वरूप चैतन्य भावों का ही भोक्ता है।
यह आत्मा उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से इष्ट और अनिष्ट जो पंचेन्द्रियों के विषयसुख या दु:ख हैं उनका भोक्ता है-उनका अनुभव करने वाला है। उसी प्रकार से अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से अभ्यंतर में सुख-दु:ख को उत्पन्न करने वाले ऐसे द्रव्यकर्मरूप साता-असाता के उदय का भोक्ता है और अशुद्ध निश्चयनय से हर्ष-विषादरूप जो परिणाम हैं उन रूप ही सुख-दु:खों का भोक्ता है। शुद्ध निश्चयनय से सहजानंद परमात्मस्वरूप के सुखामृत का ही भोक्ता है।
यह आत्मा जिस स्वाभाविक सुखामृत का अनुभव करने से इन्द्रिय सुख का अनुभव करता हुआ संसार में घूम रहा है वह अतीन्द्रिय सुख ही प्राप्त करने योग्य है। वह अतीन्द्रिय सुख परमात्म अवस्था में ही प्रगट होता है अत: आत्मा से उत्पन्न सहज सुख की उपलब्धि के लिए सतत ही निश्चयनय का अवलंबन लेकर अपनी आत्मा का ध्यान करना चाहिए। इस अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति तभी हो सकती है जब कि यह जीव पंचेन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर उनका त्याग कर देता है। मात्र संयम की साधना के लिए इस पौद्गलिक शरीर का आगम की आज्ञा के अनुरूप संरक्षण करता है। युक्त आहार-विहार के द्वारा इसको आहार आदि उपलब्ध कराते हुए तपश्चरण में आनंद का अनुभव करता है। हमेशा यही सोचता रहता है कि अनादिकाल से लेकर आज तक हमने कौन से पदार्थ का भक्षण नहीं किया है ? कौन से शब्द ऐसे हैं जिनको नहीं सुना है और कौन से सुन्दर-असुन्दर स्पर्श ऐसे हैं जिनका हमने स्पर्श नहीं किया है ?-
मैंने बार-बार सभी पुद्गलों को भोगा है और छोड़ा है अत: वे सभी पुद्गल आज मेरे लिए उच्छिष्ट के समान हैं अत: उनमें मुझ ज्ञानी को आज कुछ भी इच्छा नहीं है। इस प्रकार की वैराग्य भावना से तन्मय होकर जब इन्द्रिय सुखों का त्याग कर दिया जाता है तभी अतीन्द्रिय सुख के लिए पुरुषार्थ जाग्रत होता है।
यह जीव निश्चयनय से लोक प्रमाण असंख्यात प्रदेशी होते हुए भी व्यवहार से अपने शरीर प्रमाण है-
समुद्घात के अतिरिक्त यह जीव व्यवहारनय से संकोच तथा विस्तार से अपने छोटे और बड़े शरीर के प्रमाण रहता है और निश्चयनय से असंख्यात प्रदेशी है।
निश्चयनय से यह जीव पौद्गलिक शरीर से भिन्न है, केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख और केवलवीर्य आदि अनंत गुणों का पिंड है फिर भी व्यवहारनय से अनादिकाल से कर्मबंधन बद्ध हो रहा है अत: शरीर नामकर्म के उदय से नाना प्रकार के शरीर को ग्रहण करता रहता है। कभी सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक के सूक्ष्म शरीर को ग्रहण करता है, तो कभी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकायिक के शरीर को ग्रहण करता है, उनकी अवगाहना भी बहुत छोटी पाई जाती है। कभी कुंथु, लट, शंख, केंचुआ, चिंवटी, खटमल, बिच्छू, पतंग, कीट, मच्छर, मक्खी आदि के शरीर को ग्रहण करता है तो कभी हाथी, बैल, शेर, चीता, मत्स्य, महामत्स्य आदि के शरीर में निवास करता है। कभी नारकी के शरीर को धारण करता है, तो कभी देवों के उत्तम शरीर में निवास करता है, तो कभी मनुष्य पर्याय में एक हाथ के शरीर से लेकर तीन कोश तक का भी शरीर प्राप्त कर लेता है। इसे जब जैसा छोटा या बड़ा शरीर मिल जाता है उसी में यह अपने असंख्यात प्रदेशों को संकुचित करके रह जाता है। अत्यर्थ छोटे शरीर में भी जीव के प्रदेश उतने ही हैं कि जितने एक हजार योजन (८००० मील) की अवगाहना वाले महामत्स्य के शरीर में हैं।
प्रश्न होता है-ऐसा कैसे ?
तो उत्तर देते हैं-जीव में संकोच और विस्तार धर्म पाया जाता है। यह धर्म शरीर नामकर्म के उदय से होता है। जैसे दीपक किसी छोटे से पात्र में रख दिया जाता है, तो उसका प्रकाश उसी में रह जाता है और जब उसे बड़े कमरे में रख दिया जाता है तो उसका प्रकाश बड़े कमरे तक पैâल जाता है।
प्रश्न-जीव इन नाना प्रकार के शरीर को क्यों ग्रहण करता है ?
उत्तर-शरीर नामकर्म के उदय से।
प्रश्न-यह नामकर्म क्यों बांधता है ?
उत्तर-अनादिकाल से शरीर को आत्मा समझकर उसमें ममत्व परिणाम रखने से शरीर आदि कर्मों का बंध होता है। शरीर में ममत्व बुद्धि होने से यह जीव निरंतर आहार, भय, मैैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओं के आश्रित रहता है तथा इष्ट-अनिष्ट विषयों में राग-द्वेष आदि करते रहने से नये-नये शरीर को ग्रहण करता है।
प्रश्न-समुद्घात को छोड़कर यह आत्मा अपने शरीर प्रमाण रहता है। सो समुद्घात क्या है ?
उत्तर-अपने मूल शरीर को न छोड़ते हुए जो आत्मा के कुछ प्रदेश देह से बाहर निकलकर उत्तर देह के प्रति जाते हैं, उसको समुद्घात कहते हैं।
प्रश्न-समुद्घात के कितने भेद हैं ?
उत्तर-सात हैं-वेदना, कषाय, विक्रिया, मारणांतिक, तैजस, आहारक और केवली।
वेदनासमुद्घात-तीव्र पीड़ा के अनुभव से मूल शरीर को न छोड़ते हुए जो आत्मा के कुछ प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना है, उसे वेदना समुद्घात कहते हैं।
कषायसमुद्घात-किसी के प्रति तीव्र कषाय के होने से अपने मूल शरीर को न छोड़कर उसके घात के लिए जो आत्मा के प्रदेश बाहर निकलते हैं, उसे कषाय समुद्घात कहते हैं।
विक्रियासमुद्घात-किसी प्रकार की विक्रिया को करने के लिए अपने शरीर को छोटा या बड़ा बनाने के लिए अथवा अपने से अन्य कोई शरीर बनाने के लिए जो मूल शरीर को बिना छोड़े हुए आत्मा के प्रदेशों का बाहर जाना है वह विक्रिया समुद्घात है।
मारणान्तिकसमुद्घात-मरण के समय में (एक अंतर्मुहूर्त पहले) मूल शरीर को न छोड़कर जहाँ इस जीव ने आगामी आयु बांधी है, उसको छूने के लिए जो आत्मा के प्रदेशों का बाहर निकलना है, सो मारणान्तिक समुद्घात है।
तैजससमुद्घात-संयम के निधान ऐसे मुनि को कदाचित् क्वचित्, जब कोई मन को अनिष्ट उत्पन्न करने वाले ऐसे किसी कारण विशेष मिल जाने से क्रोध उत्पन्न हो जाता है, उस आकस्मिक उत्पन्न हुए अत्यधिक क्रोध से उन महामुनि के बाएं कंधे से सिंदूर की सी ढेर जैसी कांति वाला एक पुतला निकलता है, यह पुतला बारह योजन लंबा है और नव योजन विस्तृत काहल (बिलाव) के आकार वाला होता है। इसका मूल विस्तार सूच्यंगुल के संख्यात भाग प्रमाण ही रहता है। ऐसे आकार वाला पुतला निकलकर बायीं प्रदक्षिणा देकर मुनि जिस पर क्रुधित हुए हों, उस विरुद्ध पदार्थ को भस्म करके और उसी मुनि के साथ आप भी भस्म हो जाता है। जैसे-द्वीपायन मुनि के शरीर से पुतला निकलकर द्वारिका नगरी को भस्म करने के बाद उसी ने द्वीपायन मुनि को भस्म कर दिया और वह पुतला आप भी भस्म हो गया। यह अशुभ तैजस है।
इससे विपरीत शुभ तैजस भी होता है। परम संयम के निधान महाऋषि जो कि अतीव कृपालु हैं, उनके यदि तैजस ऋद्धि हो चुकी है तो वे मुनि के कदाचित् क्वचित् जगत को रोग, दुर्भिक्ष आदि से दु:खित देखकर अत्ाीव करुणा उत्पन्न होते ही मूल शरीर को न त्यागकर पूर्वोक्त शरीर के प्रमाण, सौम्य आकृति का धारक पुरुषाकार पुतला दाहिने कंधे से निकलकर दक्षिण प्रदक्षिणा करके दुर्भिक्ष आदि को दूरकर फिर अपने स्थान में आकर प्रवेश कर जाता है, इसे शुभ तैजस समुद्घात कहते हैं।
आहारक समुद्घात-कोई संयमी महामुनि जिनके सातवें या आठवें गुणस्थान में यदि आहारक शरीर का बंध हो गया है, ऐसे मुनि को कदाचित् क्वचित् किसी पद या पदार्थ में कुछ सूक्ष्म शंका उत्पन्न हो जाने पर उन आहारक ऋद्धि के धारक महर्षि के मस्तक से मूल शरीर को न छोड़कर निर्मल, स्फटिक के रंग का एक हाथ का पुतला निकलता है। वह पुतला अंतर्मुहूर्त काल के भीतर ही जहाँ कहीं भी केवली हों उनके पास तक चला जाता है। वह पुतला केवली का दर्शन करके वापस आकर मुनि के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है तभी मुनि की शंका दूर हो जाती है। इसका नाम आहारक समुद्घात है।
केवली समुद्घात-केवली के जो दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण क्रिया में शरीर से बाहर आत्मा के प्रदेश पैâल जाते हैं वह केवली समुद्घात कहलाता है। केवली भगवान के जब आयु मात्र अंतर्मुहूर्त की रह जाती है और नाम तथा गोत्र की स्थिति अधिक रहती है तभी केवली समुद्घात क्रिया होती है। इस प्रकार इन सातों समुद्घातों का संक्षिप्त लक्षण बताया है।
नयों की अपेक्षा इसी विषय को स्पष्ट करते हैं-अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से यह जीव अपने शरीर के बराबर है।
निश्चयनय से लोकाकाश प्रमाण जो असंख्य प्रदेश हैं, उन प्रमाण असंख्यात प्रदेशों का धारक यह आत्मा है। यही आत्मा केवलज्ञान की अपेक्षा व्यवहारनय से लोक-अलोक व्यापक है किन्तु नैयायिक, सांख्य, मीमांसक मत के अनुयायी जिस तरह आत्मा को प्रदेशों की अपेक्षा व्यापक मानते हैं, वैसा नहीं है।
कोई-कोई आत्मा को अणुमात्र मानते हैं, सो जब यह आत्मा उत्सेध घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण लब्ध्यपर्याप्तक सूक्ष्म निगोद शरीर को ग्रहण करता है तभी उतने शरीर मात्र में रहने से इसे अणुमात्र प्रमाण वाला भले ही कह दो किन्तु वहाँ पर भी यह असंख्यात प्रदेशी है और अणु से अधिक आकाश स्थान को व्याप्त करके रहता है।
यहाँ गाथा के पद्यानुवाद में जो बड़ा (गुरु) शरीर का जो ग्रहण है वह महामत्स्य के शरीर की अपेक्षा है। महामत्स्य के शरीर की अवगाहना एक हजार योजन है, इसे चार कोश (आठ मील) से गुणा करने पर आठ हजार मील प्रमाण हो जाता है। इससे बड़ा शरीर संसार में किसी का नहीं होता है। मध्यम अवगाहना में निगोदिया शरीर से लेकर महामत्स्य के मध्य के जितने भी शरीरों का प्रमाण है, सभी आ जाता है।
इस प्रकरण को समझने का तात्पर्य यही है कि जिस देह में ममत्व करने से नाना प्रकार के शरीर ग्रहण करने पड़ते हैं उस देह के ममत्व को छोड़कर उस देह से तपश्चरण आदि करते हुए निर्मम बुद्धि से अपने संयम की रक्षा करनी चाहिए। यदि संयम नहीं ग्रहण किया है तो शरीर को आत्मसिद्धि का साधन समझकर कुछ न कुछ संयम अवश्य ग्रहण करना चाहिए। यही इस मनुष्य शरीर को पाने का सार है।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इन भेदों से नाना प्रकार के स्थावर जीव हैैं, ये सब एक स्पर्शन इन्द्रिय के ही धारक हैं तथा शंख आदि दो, तीन, चार और पाँच इन्द्रियों के धारक त्रस जीव होते हैं।
स्थावर जीव-स्थावर नामकर्म के उदय से स्थावर, एकेन्द्रिय जाति नामकर्म के उदय से एक पहली स्पर्शन इन्द्रिय से सहित स्थावर एकेन्द्रिय जीव होते हैं। इनके पाँच भेद माने गये हैं-पृथ्वी, जल आदि। पृथ्वीकायिक जीव असंख्यातासंख्यात हैं, जलकायिक जीव असंख्यातासंख्यात हैं, अग्निकायिक जीव असंख्यातसंख्यात हैं, वायुकायिक जीव असंख्यातासंख्यात हैं तथा वनस्पतिकायिक जीव अनंतानंत हैं। इन स्थावर जीवों से यह तीनों लोक ठसाठस भरा हुआ है। इन एकेन्द्रिय स्थावर जीवों के बादर और सूक्ष्म की अपेक्षा से दो भेद भी होते हैं। बादर नामकर्म के उदय से जीव बादर होते हैं और सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जीव सूक्ष्म होते हैं। बादर जीव आधार से ही रहते हैं किन्तु सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव सर्वत्र लोक में निराधार हैं। इन सूक्ष्म जीवों को न किसी से बाधा होती है और न इनसे ही किन्हीं जीवों को बाधा संभव है। इन जीवों का अस्तित्व मात्र सर्वज्ञ के द्वारा प्ररूपित आगम से ही गम्य है बादर जीवों का अस्तित्व तो आज वैज्ञानिक लोग भी मानने लगे हैं एवं पेड़-पौधों से जीव को सिद्ध करने लगे हैं।
जैन सिद्धान्त के अनुसार इन एकेन्द्रिय जीवों में भी आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चारों संज्ञाएं पाई जाती हैं। ज्ञान और दर्शनमयी चेतना प्राण भी इनमें हैं अन्यथा जैनत्व का ही अभाव हो जावेगा, उसी प्रकार से इन एकेन्द्रिय जीवों में स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण होते हैं। जब तक इन जीवों की पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होती हैं तब तक इन जीवों के श्वासोच्छ्वास से अतिरिक्त तीन प्राण ही होते हैं। बहुत से जीव ऐसे होते हैं जो बिना पर्याप्ति पूर्ण किये ही मर जाते हैं उन्हें अपर्याप्तक कहते हैं िकन्तु जिनकी पर्याप्तियाँ पूर्ण होने वाली हैं उनके पर्याप्त नामकर्म का उदय होता है।
पर्याप्ति के छह भेद हैं-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन। इनमें से आदि की चार पर्याप्तियाँ ही स्थावर जीवों में होती हैं। अपर्याप्त एकेन्द्रिय जीवों के आहार, शरीर और इन्द्रिय ये तीन पर्याप्तियाँ ही होती हैं। आहार पर्याप्ति से यहाँ कर्मवर्गणाओं को समझना चाहिए।
त्रस जीव-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों को त्रस कहते हैं। त्रस नामकर्म के उदय से जीव त्रस कहलाते हैं। जिनके स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ होती हैं वे द्वीन्द्रिय त्रस हैं, जिनके स्पर्शन, रसना और घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ हैं वे त्रीन्द्रिय त्रस जीव हैं, जिनके स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु ये चार इन्द्रियाँ हैं वे चतुरिन्द्रिय त्रस जीव हैं और जिनके स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु तथा कर्ण ये पाँचों इन्द्रियाँ पाई जाती हैं वे पंचेन्द्रिय त्रस जीव हैं। दो इन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं, तीन इन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं, चार इन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं और पंचेन्द्रिय जीव भी असंख्यातासंख्यात हैं।
शंख, सीप, कृमि-जोंक, केंचुआ, लट आदि दो इन्द्रिय जीव हैं। कुंथु, चींटा, चींटी, जूँ, खटमल, बिच्छू आदि तीन इन्द्रिय जीव हैं। डांस, मच्छर, मक्खी, भौंरा, बर्र, ततैया आदि उड़ने वाले जीव चतुरिन्द्रिय जीव हैं। हाथी, घोड़े, कबूतर, मछली आदि तिर्यंच, मनुष्य, देव तथा नारकी ये सब पंचेन्द्रिय जीव हैं।
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय ये तिर्यंच ही होते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के जलचर, स्थलचर और नभचर ऐसे तीन भेद होते हैं। जल में रहने वाले मेंढक, मछली, मगरमच्छ आदि जलचर हैं, पृथ्वी पर चलने वाले हाथी, घोड़ा, सिंह, व्याघ्र आदि थलचर हैं और आकाश में उड़ने वाले कबूतर, चिड़ियाँ आदि नभचर हैं।
ऐसे ही नारकी और देवों में भी अनेक भेद माने गये हैं। मनुष्यों में स्त्री, पुरुष और नपुंसकवेद की अपेक्षा तीन भेद होते हैं। आर्य-म्लेच्छ की अपेक्षा दो भेद होते हैं एवं कर्मभूमि, भोगभूमि की अपेक्षा भी भेद हो जाते हैं। ये सब भेद-प्रभेद गोम्मटसार जीवकाण्ड ग्रंथ से ज्ञातव्य हैं।
संसारी छद्मस्थ जीव अतीन्द्रिय, अमूर्तिक, निज शुद्ध, परमात्म स्वभाव की अनुभूति से उत्पन्न हुए अमृतरसमयी स्वात्मसुख को नहीं प्राप्त कर पाते हैं अतएव वे तुच्छ इन्द्रिय सुख की अभिलाषा करते हैं। उस इन्द्रियसुख में आसक्त होते हुए एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि त्रस-स्थावर जीवों का घात करते रहते हैं। इसी असंयम पाप से त्रस, स्थावर योनियों में पुन: पुन: जन्म-मरण करते रहते हैं। जो भव्यजीव इन त्रस, स्थावर पर्यायों में जन्म नहीं लेना चाहते हैं, वे ही महापुरुष त्रस, स्थावर जीवों की हिंसा का सर्वथा त्याग करके महामुनि होकर निज परमात्मतत्व की भावना करते हैं, तब वे ही महामुनि क्रम से संसार परम्परा का अंत कर निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं। जो मुनि नहीं बन सकते हैं, उनका भी कर्तव्य है कि गृहस्थाश्रम में रहते हुए त्रस जीवों के वध का तो त्याग ही कर दें, जिससे वे भी अणुव्रती श्रावक होते हुए परम्परा से मुक्ति के अधिकारी हो जाते हैं। ऐसा समझकर आपका कर्तव्य है कि जब तक मुनि और आर्यिका के व्रत न ग्रहण कर सकें तब तक उनके चरणों की भक्ति करते हुए यह नियम कर लें कि हम कभी भी संयमी मुनि, आर्यिकाओं की निन्दा न करेंगे और न सुनेंगे ही, तभी आप सम्यग्दृृष्टि रह सकेंगे।
पंचेन्द्रिय जीव सैनी-असैनी ऐसे दो प्रकार के होते हैं, शेष सब जीव असैनी ही हैं। एकेन्द्रिय जीव बादर-सूक्ष्म के भेद से दो प्रकार के हैं। ये सभी जीव पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के होते हैं अत: चौदह जीवसमास हो जाते हैं। इनका खुलासा इस प्रकार है कि-
पंचेन्द्रिय सैनी, पंचेन्द्रिय असैनी, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय ये सात हैं, इन सातों के पर्याप्त-अपर्याप्त भेद कर देने से चौदह भेद हो जाते हैं। इन्हें ही चौदह जीवसमास कहते हैं।
प्रत्येक सैनी जीव के हृदय में आठ पांखुड़ी के कमल के आकार का द्रव्य मन होता है और उस द्रव्य मन के आधार से शिक्षा, वचन, उपदेश आदि क्रिया का ग्राहक भावमन होता है। ये द्रव्य और भाव दोनों प्रकार के मन जिनके पाये जाते हैं, वे सैनी जीव कहलाते हैं और जिनके मन का अभाव है, वे सब असैनी जीव हैं। देव, नारकी और मनुष्य तो सैनी ही होते हैं। तिर्यंचों में पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के दो भेद हो जाते हैं-सैनी और असैनी तथा एकेन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय तक सब जीव असैनी ही होते हैं। सैनी, समनस्क और संज्ञी पर्यायवाची नाम हैं, वैसे ही असैनी, अमनस्क और असंज्ञी पर्यायवाची हैं।
पर्याप्तियाँ ६ होती हैं-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन। इनमें से एकेन्द्रिय जीवों के आदि की चार पर्याप्तियाँ होती हैं। दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और असैनी पंचेन्द्रिय जीवों के मन रहित पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं तथा पंचेन्द्रिय सैनी जीवों के छहों पर्याप्तियाँ होती हैं। जिन जीवों के यह पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होती हैं और नियम से ही मर जाते हैं, वे अपर्याप्तक कहलाते हैं और जिनके ये पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जाती हैं वे पर्याप्तक हैं।
इन पर्याप्तियों का प्रारंभ एक साथ हो जाता है और पूर्णता क्रम-क्रम से होती है। इनकी पूर्णता में अंतर्मुहूर्त से अधिक समय नहीं लगता है अत: गर्भ में बालक के आते ही यद्यपि उसके शरीर का आकार नहीं बना है फिर भी उसमें शरीर के इन्द्रिय आदि आकारों को बनाने की शक्ति की पूर्णता का हो जाना ही पर्याप्ति की पूर्णता है अत: गर्भ में आते ही बालक के अन्तर्मुहूर्त में सभी पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जाती हैं। जो गर्भ में ही २-३ आदि महीने के बालक का मरण हो जाता है, उसमें भी पर्याप्तक का ही मरण है न कि अपर्याप्तक का, क्योंकि गर्भज मनुष्य अपर्याप्तक नहीं होते हैं, ऐसा नियम है।
५ इन्द्रिय, ३ बल, १ आयु और १ श्वासोच्छ्वास, ये १० प्राण होते हैं। पंचेन्द्रिय सैनी में १० प्राण होते हैं, पंचेन्द्रिय असैनी के मन से रहित ९ प्राण होते हैं, चार इन्द्रिय जीवों में मन और कर्णेन्द्रिय से रहित ८ प्राण होते हैं। तीन इन्द्रिय जीवों में चक्षु इन्द्रिय से भी रहित ७ प्राण होते हैं। दो इन्द्रिय जीवों में घ्राण से भी रहित ६ प्राण होते हैं तथा एकेन्द्रिय जीवों में स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ऐसे ४ प्राण होते हैं।
इन जीवसमासों को समझकर क्या करना ? नाना प्रकार के विकल्प जालरूप मन को वश में करके आगम के अनुकूल प्रवृत्ति करते हुए इन जीवों की दया पालना तथा मन को अपनी शुद्ध आत्मा के चिंतवन में लगाना यही इन जीवसमासों को समझने का सार है। आगे कहते हैं-
अशुद्ध नय की अपेक्षा से चौदह मार्गणा, चौदह गुणस्थान और चौदह जीवसमासों के द्वारा ये जीव संसारी है और शुद्धनय से सभी जीव शुद्ध हैं, ऐसा समझना।
अभिप्राय यह है कि जो सिद्धान्त ग्रंथों में १४ मार्गणा, १४ गुणस्थान और १४ जीवसमासों के द्वारा जीवों का वर्णन किया जाता है वह सब संसारी जीवों का वर्णन है। नयों की विवक्षा से अशुद्ध नय से ही संसार है और इस अशुद्ध नय से ही जीवों की ये मार्गणा, गुणस्थान आदि अवस्थाएं होती हैं। शुद्धनय से विचार किया जाता है तब तो सभी संसारी जीव शुद्ध हैं, सिद्ध समान हैं। मार्गणा और गुणस्थानों के भेदों से रहित मात्र दर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्य इन चतुष्टयस्वरूप हैं।
इस शुद्धनय की अपेक्षा से निगोदिया जीव तो क्या अभव्यजीव भी शुद्ध हैं, सिद्ध समान हैं परन्तु वर्तमान में तो वे दु:खों को भोग ही रहे हैं तथा अभव्य जीव तो कभी भी मोक्ष प्राप्त कर ही नहीं सकेंगे अत: यह शुद्धनय मात्र जीव की शक्ति को ही बतलाता है। अभव्य जीवों में केवलज्ञान आदि शक्तिरूप से विद्यमान हैं परन्तु वे कभी भी प्रगट नहीं होवेंगे तथा भव्यों में भी किन्हीं दूरानुदूर भव्यों के अतिरिक्त शेष भव्य मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। जब जीव अपने गुणों को प्रगट कर लेगा, कर्मों का नाश कर देगा, तभी वह अनंत सुखी बन सकेगा, उसके पहले नहीं, अत: शुद्धनय से अपनी शक्ति को पहचान कर उसे व्यक्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिए, यही अभिप्राय है।
मोह और योग के निमित्त से होने वाले आत्मा के परिणामों को गुणस्थान कहते हैं। गुणस्थान के १४ भेद हैं-मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत सम्यक्त्व, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली और अयोगकेवली।
इन गुणस्थानों का लक्षण आठवीं अध्याय में आ चुका है। एवं १४ मार्गणाओं का भी कथन ८वीं अध्याय में हो चुका है।
‘इस प्रकार गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणा और उपयोग ये बीस प्ररूपणाएँ आगम ग्रंथों में कही गई हैं।’ यहाँ द्रव्यसंग्रह ग्रंथ में टीकाकार का कहना है-जो उपर्युक्त बीस प्ररूपणा, गुणस्थान, मार्गणा आदि का कथन किया गया है, वह धवला, जयधवला और महाधवला (टीका सहित षट्खण्डागमसूत्र, कषायपाहुडसूत्र और महाबंध सूत्र) इन तीन सिद्धांत ग्रंथों के बीजपद के समान है तथा ‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया’ सभी जीव शुद्ध नय से शुद्ध ही हैं। यह गाथा का चतुर्थ पाद शुद्धात्मतत्त्व का प्रतिपादन करने वाला है। यह पाद पंचास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार इन तीन प्राभृत (आध्यात्मिक) ग्रंथों के बीजपदरूप है। अभिप्राय यह है कि द्रव्यसंग्रह ग्रंथ में ११, १२ और १३वीं गाथा में जो अशुद्ध संसारी जीवों का कथन है, वह बहुत ही संक्षिप्त बीजरूप है। इन्हीं संसारी जीवों के इन मार्गणा, समास आदि का विस्तार धवला आदि तीन सिद्धान्त ग्रंथों में वर्णित है। ऐसे ही १३वीं गाथा के अन्तिम चरण में सभी जीवों को शुद्धनय से शुद्ध कहा है सो पंचास्तिकाय आदि अध्यात्म ग्रंथों का संक्षेप है। उन तीन ग्रंथों में शुद्ध जीवों का विस्तार से प्रतिपादन किया गया है।
यहाँ पर इन मार्गणा आदि को पढ़कर क्या करना ? सो बताते हैं। इन गुणस्थान और मार्गणा आदि में केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व और अनाहारक ये शुद्धात्मा के स्वरूप हैं, ये ही साक्षात् उपादेय हैं-ग्रहण करने योग्य हैं। इनको प्राप्त करने के लिए साधनभूत जो सामग्री है वह भी उपादेय है। जैसे कि महल पर चढ़ने के लिए सीढ़ी उपादेय है।
वह क्या है ?
शुद्धात्मा का सम्यक् श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी में अनुचरण लक्षण चारित्र ये तीनों निश्चय रत्नत्रय हैं, इन्हें ही कारणसमयसार कहते हैं। ये ही केवलज्ञान आदि के लिए साधन हैं अत: उस उपादेयभूत शुद्ध आत्मा के साधक होने से परम्परा से ये भी उपादेय हैं और इस निश्चय रत्नत्रय के लिए साधन व्यवहार रत्नत्रय है जो कि निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनिमुद्रा रूप है, वह भी उपादेय ही है तथा जब तक मुनिवेष न धारण किया जाए तब तक उस अवस्था को प्राप्त करने के लिए एकदेश चारित्र स्वरूप अणुव्रत भी उपादेय है। ऐसा समझकर कारण के कारण का भी मूल्यांकन करते हुए अणुव्रती बनना चाहिए और मुनि, आर्यिका आदि संयमियों की भक्ति, उपासना करते हुए उन्हें आहार आदि देते हुए अपने श्रावक धर्म का पालन करते रहना चाहिए।
जो ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों से रहित हैं, सम्यक्त्व आदि आठ गुणों से सहित हैं और अंतिम शरीर से कुछ कम आकार वाले हैं, वे सिद्ध आत्मा हैं। ये ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण लोक के अग्रभाग में स्थित हैं, नित्य हैं तथा उत्पाद, व्यय से संयुक्त हैं।
अपनी शुद्ध आत्मा के ज्ञान के बल से जिन्होंने ज्ञानावरण आदि समस्त मूलकर्म प्रकृतियों को और उत्तर प्रकृतियों को जड़मूल से नष्ट कर दिया है, ऐसे सिद्ध परमात्मा द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से सर्वथा रहित हो चुके हैं। इनके सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्म, अवगाहन, अगुरुलघु और अव्याबाध गुण प्रगट हो चुके हैं। आठ कर्मों के अभाव से ही ये आठ गुण माने गये हैं। वैसे तो सिद्धों के अनंत गुण कहे गये हैं।
(१) सम्यक्त्व-केवलज्ञान आदि गुणों का आश्रयभूत निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, इस प्रकार की रुचिरूप जो निश्चय सम्यक्त्व है, जिसको कि पहले तपश्चरण अवस्था में (मुनि वेष में) भाषित किया था उसके फलस्वरूप समस्त जीव-अजीव आदि तत्त्वों के विषय में विपरीत अभिप्रायरहित परिणामरूप परम क्षायिक नाम का ‘सम्यक्त्व’ गुण सिद्धों में होता है।
(२) ज्ञान-पहले छद्मस्थ अवस्था में भावना किए हुए निर्विकार स्वानुभवरूप ज्ञान के फलस्वरूप एक ही समय में लोक तथा अलोक के सम्पूर्ण पदार्थों के विशेषों को जानने वाला ‘केवलज्ञान’ गुण होता है।
(३) दर्शन-समस्त विकल्पों से रहित अपनी शुद्ध आत्मा की सत्ता का अवलोकनरूप जो दर्शन पहले भावित किया था, उसी दर्शन के फलस्वरूप एक काल में लोक-अलोक के सम्पूर्ण पदार्थों के सामान्य को ग्रहण कराने वाला ‘केवलदर्शन’ गुण है।
(४) वीर्य-आत्मध्यान से विचलित करने वाले किसी अति घोर परिषह तथा उपसर्ग आदि के आ जाने पर जो पहले अपने निरंजन परमात्मा के ध्यान में धैर्य का अवलम्बन किया उसी के फलरूप अनन्त पदार्थों के जानने में खेद के अभावरूप अनंतवीर्य गुण होता है अर्थात् इस गुण से अनंत पदार्थों को जानते समय उन्हें थकान नहीं होती है।
(५) सूक्ष्म-सूक्ष्म अतीन्द्रिय केवलज्ञान का विषय होने के कारण सिद्धों के स्वरूप को ‘सूक्ष्मत्व’ कहते हैं अर्थात् इस गुण से सिद्धों का स्वरूप इन्द्रियों से नहीं जाना जाता है।
(६) अवगाहन-एक दीपक के प्रकाश में जैसे अनेक दीपों का प्रकाश समा जाता है उसी तरह एक सिद्ध के क्षेत्र में संकर तथा व्यतिकर दोष से रहित जो अनंत सिद्धों को अवकाश देने की सामर्थ्य है वह ‘अवगाहन’ गुण है। इस गुण से एक सिद्ध के स्थान पर अनंतानंत सिद्ध विराजे हुए हैं।
(७) अगुरुलघु-यदि सिद्धस्वरूप सर्वथा गुरु (भारी) हो तो लोहे के गोले के समान वह नीचे पड़ा रहेगा और यदि सर्वथा लघु (हल्का) हो तो वायु से प्रेरित आक की रुई की तरह वह इधर-उधर घूमता रहेगा किन्तु सिद्धों का स्वरूप ऐसा नहीं है। इस कारण उनके ‘अगुरुलघु’ गुण कहा जाता है।
(८) अव्याबाध-स्वाभाविक शुद्ध आत्मस्वरूप के अनुभव से उत्पन्न तथा राग आदि विभावों से रहित ऐसे सुखरूपी अमृत का जो एकदेश अनुभव पहले किया था उसी के फलस्वरूप ‘अव्याबाध’ रूप अनन्तसुख गुण सिद्धों में होता है।
इस प्रकार ये सम्यक्त्व आदि आठ गुण मध्यम रुचि वाले शिष्यों के लिए कहे गये हैं। विस्तार रुचि वाले शिष्यों के प्रति विशेष भेद नय के अवलम्बन से गतिरहितता, इन्द्रियरहितता, शरीररहितता, योगरहितता, वेदरहितता, कषायरहितता आदि विशेष गुण हैं और इसी प्रकार अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि सामान्य गुण हैं। इस तरह जैनागम के अनुसार अनन्त गुण ज्ञातव्य हैं और संक्षेप रुचि वाले शिष्यों के लिए विवक्षित अभेद नय की अपेक्षा अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख तथा अनन्तवीर्य ये चार गुण अथवा अनन्तज्ञान, दर्शन और सुखरूप तीन गुण अथवा केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो गुण हैं तथा साक्षात् अभेद नय से एक शुद्ध चैतन्य गुण ही सिद्धों का है। यहाँ तक सिद्धों के गुणों का वर्णन है।
ये सिद्ध भगवान चरम-अन्तिम शरीर से कुछ न्यून आकार वाले हैं। वह जो किंचित् न्यूनता है, सो शरीर अंगोपांग नामकर्म से उत्पन्न नासिका आदि छिद्रों से अपूर्ण (खाली स्थान) होने से ही है। जिस समय सयोगकेवली गुणस्थान के अन्त समय में तीस प्रकृतियों के उदय का नाश हुआ है। उस समय उनके शरीरांगोपांग कर्म का भी नाश हो गया है अत: उसी समय किञ्चित् ऊनता हुई है, तब आत्मा के प्रदेश उसी छूटने वाले अन्तिम शरीर के आकार के रह गये हैं।
शंका-जैसे दीपक को ढकने वाले पात्र आदि के हटा लेने पर उस दीपक का प्रकाश पैल जाता है, उसी प्रकार देह का अभाव हो जाने पर सिद्धों की आत्मा भी पैलकर लोकप्रमाण हो जाना चाहिए ?
समाधान-जो यह दीपक के प्रकाश का पैâलना है सो वह तो पहले से ही स्वभाव से दीपक में रहता है, पीछे उस दीपक के आवरण से संकुचित हो जाता है। वैसे ही जीव का लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशत्व स्वभाव तो है किन्तु प्रदेशों का लोकप्रमाण विस्तार (पैâल जाना) स्वभाव नहीं है अर्थात् जीव स्वभाव से लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशी तो है किन्तु प्रदेशों का विस्तार होना यह जीव का स्वभाव नहीं है इसीलिए अन्तिम शरीर छूटने पर आत्मा के प्रदेशों का आकार जैसे का तैसा पुरुषाकार रह जाता है।
शंका-जीव के प्रदेश पहले लोक के बराबर पैâले हुए, आवरण रहित रहते हैं पुन: जैसे प्रदीप के उâपर आवरण होता है उसी तरह जीव प्रदेशों के भी आवरण हो जाता है ?
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि जीव के प्रदेश तो पहले अनादिकाल से सन्तानरूप से चले आ रहे शरीर के आवरण सहित ही (शरीर के आकार) रहते हैं अर्थात् जीव अनादिकाल से शरीररूपी पात्र में ही रहा है। कभी पहले शुद्ध शरीर रहित रहा हो पुन: अशुद्ध शरीरधारी हुआ हो, ऐसा है ही नहीं। इस कारण जीव के प्रदेशों का संहार (संकोच) और विस्तार (पैलना) शरीर नामक नामकर्म के आधीन ही है, यह प्रदेशों का संकोच-विस्तार जीव का स्वभाव नहीं है इसीलिए जीव के शरीर का अभाव होने पर प्रदेशों का विस्तार नहीं होता है।
इस विषय में और भी उदाहरण हैं-जैसे किसी मनुष्य की मुट्ठी के भीतर चार हाथ लम्बा वस्त्र बंधा-भिंचा हुआ है। अब यह वस्त्र मुट्ठी खोल देने पर पुरुष के प्रयोग के अभाव में संकोच तथा विस्तार नहीं करता है, जैसा उस पुरुष ने छोड़ा है वैसा ही रह जाता है अथवा गीली मिट्टी का बर्तन बनते समय तो संकोच तथा विस्तार को प्राप्त होता रहता है किन्तु जब वह सूख जाता है तब जल का अभाव होने से वह बर्तन संकोच व विस्तार को प्राप्त नहीं होता है। इसी तरह मुक्त जीव भी जल के अभाव सदृश, शरीर के अभाव में संकोच-विस्तार नहीं करता है। जब तक शरीर नामकर्म का उदय है तभी शरीर के बराबर प्रदेशों का संकोच-विस्तार किया करता है किन्तु सम्पूर्ण कर्मों के अभाव में अपने अन्तिम शरीर से किंचित् न्यून ही आत्मा के प्रदेशों का आकार रहता है इसलिए सिद्ध भगवान चरमदेह से किंचित् न्यून कहलाते हैं।
जीव जिस स्थान में सम्पूर्ण कर्मों से छूटता है ठीक उसी स्थान के ऊपर एक समय में ऊर्ध्वगमन करके लोक के अग्रभाग में जाकर स्थित हो जाता है। चूँकि यह ऊर्ध्वगमन उसका स्वभाव है।
शंका-जीव जिस स्थान में कर्मोें से छूटा है उसी स्थान पर रह जाता है। चूँकि ऊपर जाने का कोई कारण नहीं है ?
समाधान-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि ऊर्ध्वगमन करना यह जीव का स्वभाव है।
शंका-पुन: संसार में भी यह तिर्यग्गमन क्यों करता है, जब ऊर्ध्वगमन स्वभाव है तब सतत ऊर्ध्वगमन ही करना चाहिए ?
समाधान-जैसे जीव का पूर्णज्ञानी और सर्वदर्शी होना स्वभाव है किन्तु संसार में कर्मों के आवरण से वह स्वभाव प्रगट नहीं हो पाता है, फिर भी कर्मों के नष्ट होते ही जीव सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन जाता है। उसी प्रकार से जीव संसार में कर्मों के निमित्त से ऊर्ध्वगति नहीं कर पाता है किन्तु कर्मों से छूटते ही स्वभाव से ऊर्ध्वगमन कर लेता है। इसके लिए चार दृष्टांत हैं-जैसे कुंभार का चाक पूर्व प्रयोग से (घुमाना छोड़ देने पर भी) घूमता रह जाता है, वैसे ही सिद्धों ने मुनि अवस्था में ध्यान में जो सतत ही ऊर्ध्वगमन का अभ्यास किया है, सो इस समय वे ऊर्ध्वगमन कर जाते हैं। जैसे-मिट्टी का लेप धुल जाने से तुम्बी जल के ऊपर आ जाती है उसी प्रकार से कर्मलेप के छूट जाने से यह आत्मा ऊपर चला जाता है। जैसे-बंध का नाश होने से एरण्ड का बीज ऊपर को उछलता है वैसे कर्मबंध का नाश होने से यह आत्मा ऊपर को चला जाता है। जैसे-अग्नि की लौ स्वभाव से ऊपर को ही उठती है उसी प्रकार से आत्मा भी स्वभाव से ऊपर को गमन कर जाता है। यह ऊर्ध्वगमन लोक के अग्रभाग तक ही होता है, लोक के आगे नहीं होता है।
शंका-जब आत्मा का ऊर्ध्वगमन स्वभाव ही है तब वह लोकाग्र के भी आगे क्यों नहीं चला जाता है ?
समाधान-नहीं, आगे नहीं जा सकता है क्योंकि लोक के बाहर धर्मास्तिकाय का अभाव है१, ऐसा आगम वाक्य है। धर्मास्तिकाय का यह लक्षण है कि जो जीव और पुद्गलों को गमन करने में सहकारी हो। अत: सिद्ध जीव भी जीव हैं, उनके गमन में सहकारी कारण धर्मास्तिकाय का आगे अलोकाकाश में अभाव होने से वहाँ पर वे मुक्तजीव भी नहीं जा सकते हैं। परद्रव्य का सहयोग न मिलने से उनका ऊर्ध्वगमन स्वभाव आगे काम नहीं कर पाता है। यह परद्रव्य की पराधीनता कितनी विचित्र है ?
सिद्धजीव नित्य हैं। कभी अपने स्थान और स्वभाव से च्युत नहीं होते हैं।
शंका-हम सदाशिव मतावलम्बियों के यहाँ सिद्ध जीवों का भी पुनरागमन माना है। देखो, सौ कल्प प्रमाण समय के बीत जाने पर जब यह सारा जगत् शून्य हो जाता है तब फिर उन मुक्त जीवों का पुन: संसार में आगमन होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि सिद्ध जीव सदा नित्य माने गये हैं अतएव सैकड़ों कल्पकालों के बीत जाने पर भी उनमें विकार-परिवर्तन या कर्म का संबंध संभव नहीं है। भले ही तीन लोक को कंपा देने वाला उत्पात ही क्यों न हो जाए किन्तु सिद्ध जीवों का पुन: इस संसार में आना नहीं हो सकता है।२ जैसे एक बार बीज को अग्नि के द्वारा जला देने पर वह पुन: अंकुर उत्पन्न नहीं कर सकता है वैसे ही कर्मरूपी संसार बीज के जल (नष्ट) जाने पर पुन: जन्म-मरणरूप संसार में आगमन नहीं हो सकता है।
ये सभी सिद्ध परमेष्ठी उत्पाद-व्यय से सहित हैं। सर्वथा अपरिणामी, कूटस्थ नित्य नहीं हैं।
शंका-सिद्ध परमात्मा निरन्तर ही निश्चल, अविनश्वर, शुद्ध आत्मस्वरूप हैं। उससे भिन्न नरक आदि गतियों में भ्रमण नहीं करते हैं अत: उनमें उत्पाद, व्यय वैâसे घटेगा ?
समाधान-उन सिद्धों में अगुरुलघु गुण के षट्हानि-वृद्धि रूप से अर्थपर्यायरूप परिणमन पाया जाता है जो कि आगमगम्य है, वचन के अगोचर है। इस अर्थपर्यायरूप से ही उनमें उत्पाद-व्यय होता है अथवा ज्ञेय पदार्थ अपने-अपने जिस-जिस उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप से परिणमते हैं, उन-उनके आकार से निरिच्छुक वृत्ति से सिद्धों का ज्ञान भी परिणमता है। इस कारण भी सिद्धों में उत्पाद-व्यय घटित हो जाता है अथवा सिद्धों में व्यंजन पर्याय की अपेक्षा से संसार-पर्याय का नाश, सिद्ध पर्याय का उत्पाद तथा शुद्ध जीव द्रव्यपने से ध्रौव्य अवस्था विद्यमान है। इस प्रकार अगुरुलघु गुण की षट्हानि वृद्धिरूप, ज्ञेयाकार से ज्ञान के परिणमन रूप और व्यंजन पर्याय की अपेक्षा सिद्ध पर्याय की उत्पत्ति और संसार पर्याय के नाशरूप आदि नय विभागों से सिद्धों में उत्पाद, व्यय भी माना जाना आगमसम्मत है।
आत्मा के ३ भेद हैं-बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा।
निज शुद्ध आत्मतत्त्व से बहिर्भूत इन्द्रियसुख में आसक्त आत्मा बहिरात्मा है। निज शुद्ध आत्मतत्त्व की रुचि से सहित आत्मा अन्तरात्मा है तथा पूर्ण निर्मल केवलज्ञान, दर्शन से सहित सर्वज्ञदेव परमात्मा हैं। इन परमात्मा के विष्णु, ब्रह्मा आदि अनेक नाम हैं-
जो अपने केवलज्ञान के द्वारा लोक-अलोक को व्याप्त कर लेता है, जान लेता है वह ‘विष्णु’ है।
परब्रह्म नामक निज शुद्ध आत्मा की भावना से उत्पन्न सुखरूपी अमृत का पान करने से जो तृप्ति को प्राप्त हैं पुन: उर्वशी, तिलोत्तमा, रंभा आदि देवकन्याओं द्वारा जिनका ब्रह्मचर्य खण्डित नहीं हुआ है, ऐसे आत्मा ही ‘परंब्रह्म’ परमात्मा हैं।
केवलज्ञान आदि गुणरूपी ऐश्वर्य से युक्त होने के कारण जिनके पद की अभिलाषा करते हुए देवेन्द्र आदि भी जिनकी आज्ञा का पालन करते हैं ऐसे जीव ही ‘ईश्वर’ कहलाते हैं।
केवलज्ञान शब्द से वाच्य ‘सु’ (उत्तम) ‘गत’ (ज्ञान) है जिनका, वे ‘सुगत’ बुद्ध हैं। अथवा ‘सु’ (शोभायमान) अविनश्वर मुक्तिपद को प्राप्त हुए सो ‘सुगत’ हैं।
शिव-परम कल्याणरूप निर्वाण एवं अक्षयज्ञानरूप मुक्त पद को जिन्होंने प्राप्त किया है, वे ‘शिव’ हैं।
काम, क्रोध आदि दोषों को जीत लेने से वे परमात्मा अनन्त गुणों के धारक ‘जिन’ कहलाते हैं इत्यादि रूप से परमात्मा के परमागम में एक हजार आठ नाम कहे गये हैं।
इस प्रकार से बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा को गुणस्थानों में घटाते हैं। मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीनों गुणस्थानों में तारतम्य-न्यूनाधिक भाव से बहिरात्मा हैं।
अविरत गुणस्थान में उसके योग्य लेश्या से परिणत जघन्य अन्तरात्मा हैंं और क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान में उत्कृष्ट अन्तरात्मा हैं तथा अविरत और क्षीणकषाय गुणस्थानों के बीच में जो सात गुणस्थान हैं उनमें मध्यम अन्तरात्मा हैं अर्थात् पाँचवें गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक मध्यम अन्तरात्मा हैं। सयोगी और अयोगी इन दोनों गुणस्थानों में विवक्षित एक देश शुद्धनय की अपेक्षा से सिद्ध के समान परमात्मा हैं और सिद्ध तो साक्षात् परमात्मा हैं ही।
यहाँ बहिरात्मा तो हेय है और उपादेयभूत अनन्तसुख का साधक होने से अन्तरात्मा उपादेय है तथा परमात्मा साक्षात् उपादेय है, ऐसा अभिप्राय है। इस प्रकार यह जीव जीव है, उपयोगमयी है, अमूर्तिक है, कर्ता है, स्वदेह परिमाण है, भोक्ता है, संसारी है, सिद्ध है और स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करने वाला है।