अजीव द्रव्य के पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पाँच भेद हैं, ऐसा जानो। इनमें से पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है क्योंकि वह रूप, रस, गंध और स्पर्श गुण वाला है, बाकी शेष द्रव्य अमूर्तिक हैं।
उपयोग के दो भेद हैं-शुद्धोपयोग और अशुद्धोपयोग। सकल, विमल केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों शुद्धोपयोग हैं। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान ये चारों ज्ञान तथा चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन ये तीनों दर्शन ये सब अशुद्ध उपयोग हैं।
चेतना के भी तीन भेद हैं-कर्मफल चेतना, कर्मचेतना और शुद्ध चेतना (ज्ञानचेतना)। अव्यक्त सुख-दु:ख के अनुभव रूप कर्म फल चेतना है। अपनी इच्छापूर्वक इष्ट-अनिष्ट विकल्परूप से विशेष राग-द्वेषरूप परिणमन कर्मचेतना है और केवलज्ञान रूप शुद्ध (ज्ञान) चेतना है।
ये उपयोग और चेतना जिनमें नहीं हैं, वे अजीव हैं।
पुद्गल द्रव्य-उनके पाँच भेदों में पुद्गल का लक्षण है-पूरण-गलन स्वभाव। इसमें पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध और आठ स्पर्श ये बीस गुण पाये जाते हैं। इस पुद्गल के अणु और स्कंध की अपेक्षा दो भेद भी होते हैं। दो अणु, तीन अणु आदि से लेकर अनंत अणुओं तक मिलकर स्कंध बनते हैं। अणु में दो स्पर्श-स्निग्ध-रूक्ष में से कोई एक और शीत-उष्ण में से कोई एक, एक वर्ण, एक रस और एक गंध ऐसे पाँच गुण ही रहते हैं। यह अणु शुद्ध माना जाता है अत: इसके गुण भी शुद्ध ही माने जाते हैं किन्तु स्कंध अशुद्ध माना जाता है।
शब्द, बंध, सूक्ष्मत्व, स्थूलत्व, संस्थान, भेद-खण्ड, अंधकार, छाया, उद्योत और आतप ये सब पुद्गल द्रव्य की पर्यायें हैं अर्थात् इन्हें विभाव व्यंजन पर्याय कहते हैं। निश्चयनय से आत्मा इन सभी पुद्गल पर्यायों से रहित है ऐसा समझना चाहिए।
शब्द-शब्द के दो भेद हैं-भाषात्मक और अभाषात्मक। इनमें से भाषात्मक भी अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक के भेद से दो प्रकार का है। अक्षरात्मक भाषा भी संस्कृत, प्राकृत और उनके अपभ्रंशरूप पैशाची आदि भाषाओं के भेद से आर्य और म्लेच्छ मनुष्यों के व्यवहार का कारण है अत: इसके अनेक भेद हो जाते हैं। अनक्षरात्मक भाषा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय पशु-पक्षियों में पाई जाती है जिसमें अक्षर, वर्ण, पद, वाक्य स्पष्ट नहीं रहते हैं।
सर्वज्ञ की वाणी-दिव्यध्वनि को भी अनक्षरात्मक कहा है१।
अभाषात्मक शब्द भी प्रायोगिक और वैश्रसिक के भेद से दो प्रकार का है। इसमें से प्रायोगिक के तत, वितत, घन और सुषिर भेद माने गये हैं। वीणा आदि के शब्द को ‘तत’ कहते हैं। ढोल आदि के शब्द का ‘वितत’ नाम है। मंजीरा, घण्टा, ताल आदि के शब्द ‘घन’ कहलाते हैं और वंशी आदि के शब्द को सुषिर नाम है। ये सभी शब्द मनुष्यों के द्वारा प्रयोग किये जाते हैं इसलिए इनका प्रायोगिक यह नाम सार्थक है।
वैश्रसिक का अर्थ है जो स्वभाव से-बिना किसी की प्रेरणा या प्रयोग से प्रगट होते हैं। ये मेघ, गर्जना आदि से होने वाले हैं इसीलिए इनके अनेक भेद हो जाते हैं।
यहाँ विशेष ज्ञातव्य यह है कि संसारी जीव शब्द आदि मनोज्ञ और अमनोज्ञ पंच इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होकर सुस्वर अथवा दुस्वर नामकर्म का बंध करते हैं। उदय में आकर वही कर्म जीव के स्वर को अच्छा या बुरा बना देता है। वहाँ पर यद्यपि ये शब्द जीव के दिखते हैं फिर भी ये सब पुद्गल की ही पर्यायें हैं। जीव के संयोग से उत्पन्न होने के निमित्त से व्यवहारनय की अपेक्षा ये जीव के कहे जाते हैं किन्तु निश्चयनय से ये शब्द पुद्गलरूप ही हैं।
‘शरीरवाङ्मन:प्राणापाना: पुद्गलानाम्१।’ शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छ्वास ये सब पुद्गल के उपकार हैं जो कि जीव में होते हैं।
बंध-मिट्टी आदि में जो पिण्डरूप से बंध होता है वह मात्र पुद्गल बंध है। जीव और पुद्गल के संयोग से जो बंध होता है वह कर्मबंध और नोकर्मबंध कहा जाता है।
यहाँ यह बात विशेष है कि जीव के अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से द्रव्य बंध है और अशुद्ध निश्चयनय से रागादि परिणामरूप भाव बंध है तथा शुद्ध निश्चयनय से जीव में बंध नहीं है। मात्र पुद्गल की ही बंध पर्याय है।
सूक्ष्मत्व-बेल, नारंगी आदि की अपेक्षा बेर में सूक्ष्मता है और परमाणु में साक्षात् सूक्ष्मता है अर्थात् वह किसी की अपेक्षा से नहीं है।
स्थूलत्व-बेर आदि की अपेक्षा बेल, नारियल आदि में स्थूलता-बड़ापन है। तीन लोक में व्याप्त महास्कंध में सबसे अधिक स्थूलता है अर्थात् इससे बड़ा और कोई नहीं है।
संस्थान-संस्थान अर्थात् आकार। इस संस्थान के ६ भेद हैं-समचतुरस्र, न्यग्रोध, सातिक-स्वाति, कुब्जक, वामन और हुण्डक। व्यवहारनय से ये संस्थान जीव के हैं किन्तु निश्चयनय से ये जीव के नहीं हैं प्रत्युत पुद्गल के ही हैं। चूँकि जीव चेतन चमत्कार परिणाम वाला है अत: जीव से भिन्न पुद्गल के ही गोल, त्रिकोण, चौकोन आदि प्रगट, अप्रगट अनेक आकार माने गये हैं। ये सब पुद्गल की ही पर्यायें हैं।
भेद-गेहूँ आदि के दलिया, आटा तथा घी, शक्कर आदि के प्रकार से भेद भी अनेक प्रकार का होता है।
तम-अंधकार की ‘तम’ संज्ञा है। यह दृष्टि को रोकने वाला है। यह भी पुद्गल की पर्याय है।
छाया-पेड़ आदि के आश्रय से होने वाली छाया है। मनुष्य, घर आदि वस्तुओं की जो परछाईं पड़ती है, उसे भी छाया कहते हैं। जो फोटो-चित्र खिचते हैं, टेलीविजन आदि में चित्र दिखते हैं, ये सब छाया ही हैं।
उद्योत-चन्द्रमा के विमान से जो चांदनी छिटकती है, वह उद्योत है उसी प्रकार से जुगनू आदि तिर्यंच जीवों के भी उद्योत नामकर्म के उदय से उद्योत होता है। यह सब प्रकाश भी पुद्गल की ही पर्यायें हैं।
आतप-सूर्य के विमान में तथा सूर्यकांत आदि मणिरूप पृथ्वीकाय में ‘आतप’ जानना चाहिए। सूर्य के विमान में रहने वाले एक इन्द्रिय पृथ्वीकायिक जीव के आतप नामकर्म का उदय पाया जाता है तथा सूर्यकांत मणि से जो प्रकाश निकलता है, आतप-घाम, जिसे धूप भी कहते हैं, यह पुद्गल की ही पर्यायें हैं। यह आतप नामकर्म भी जीव में अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से पाया जाता है। शुद्ध निश्चयनय से जीव में आतप आदि कुछ भी नहीं हैं।
जीव से सर्वथा भिन्न ऐसे पुद्गल द्रव्य का वर्णन पढ़ा है। इसमें पुद्गल के भेद अणु-स्कंध व पुद्गल के गुण रूप, रस, गंध, स्पर्श तथा पुद्गल की पर्यायें शब्द, बंध आदि बताई गई हैं। संसार में जो भी दिख रहा है, वह सब पुद्गल ही है। चूँकि धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चारों द्रव्यरूप, रसादि रहित अमूर्तिक ही हैं। वे कथमपि दृष्टिगोचर नहीं हो सकते हैं। उन्हें मात्र आगमज्ञान से या अनुमान से अथवा केवलज्ञानरूप प्रत्यक्षज्ञान से ही जाना जा सकता है। जीव द्रव्य भी वस्तुत: अमूर्तिक है किन्तु जब तक वह संसारी है तब तक पुद्गल से निर्मित शरीर आदि के संबंध से मूर्तिक हो रहा है और वही मूर्तिक जीव ही दिख रहा है अथवा यों कहिए कि जीव का शरीर ही दिख रहा है। श्री पूज्यपाद स्वामी ने कहा भी है-
जो भी दिख रहा है, वह सब अचेतन है और चेतना दिखता नहीं है अत: मैं किसमें रोष या द्वेष करूँ और किसमें संतोष या राग करूँ इसीलिए मैं अब मध्यस्थ भाव को अर्थात् समताभाव को धारण करता हूँ। इसी वीतराग अवस्था को प्राप्त करने के लिए स्वाध्याय आदि साधन हैं।