यह संसार पाँच परिवर्तनरूप है।
जीव के दो भेद हैं—संसारी और मुक्त। ‘चतुर्गतौ संसरणं संसार:’ चतुर्गति में संसरण करना-परिभ्रमण करना इसका नाम संसार है।
‘संसार एशां सन्ति ते संसारिण:’ यह संसार जिन जीवों के पाया जाता है, वे संसारी कहलाते हैं।
संसार के ५ भेद हैं—द्रव्य संसार, क्षेत्र संसार, काल संसार, भव संसार और भाव संसार। इन्हें परिवर्तन भी कहते हैं।
द्रव्य संसार के २ भेद हैं—कर्म द्रव्य परिवर्तन और नोकर्म द्रव्य परिवर्तन।
कर्म द्रव्य परिवर्तन—कर्मबंध के पाँच कारण हैं—मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। इनमें मिथ्यात्व और कषाय प्रधान हैं क्योंकि ये मोहनीय कर्म के दो भेद हैं और कर्मों में मोहनीय कर्म ही प्रधान एवं बलवान् है। मोहनीय के अभाव में संसार परिभ्रमण का चक्र ही रुक जाता है। इन मिथ्यात्व और कषाय के आधीन हुआ संसारी जीव ज्ञानावरण आदि सात कर्मों के योग्य पुद्गल स्कंधों को प्रतिसमय ग्रहण करता है। लोक में सर्वत्र कार्मण वर्गणाएँ भरी हुई हैं, उनमें से अपने योग्य को ही ग्रहण करता है। आयु कर्म सदा नहीं बँधता अत: सात कर्मों के योग्य पुद्गल स्कंधों को ही प्रतिसमय ग्रहण करता है और आबाधा काल पूरा हो जाने पर उन्हें भोग कर छोड़ देता है। किसी जीव ने विवक्षित समय में ज्ञानावरण आदि सात कर्मों के योग्य पुद्गल स्कंधों को ग्रहण किया और आबाधा काल बीत जाने पर उन्हें भोग कर छोड़ दिया। उसके बाद अनन्त बार अगृहीत को ग्रहण किया और आबाधा काल बीत जाने पर उन्हें भोग कर छोड़ दिया। उसके बाद अनन्त बार अगृहीत को ग्रहण करके अनन्त बार मिश्र को ग्रहण करके और अनन्त बार गृहीत को ग्रहण करके छोड़ दिया। उसके बाद जब वे ही पुद्गल वैसे ही रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि भावों को लेकर, उसी के वैसे ही परिणामों से पुन: कर्मरूप परिणत होते हैं, उसे कर्म द्रव्य परिवर्तन कहते हैं।
इस तरह किसी विवक्षित समय में एक जीव ने औदारिक, वैक्रियिक और आहारक, इन तीनों शरीरों और छह पर्याप्तियों के योग्य नोकर्म पुद्गल स्कंध ग्रहण किया और भोग कर छोड़ दिया। पूर्वोक्त क्रम के अनुसार जब वे ही नोकर्म पुद्गल उसी रूप, रस आदि को लेकर जीव के द्वारा पुन: नोकर्मरूप से ग्रहण किये जाते हैं, उसे नोकर्म द्रव्य परिवर्तन कहते हैं। कहा भी है-
‘पुद्गल परिवर्तनरूप संसार में इस जीव ने सभी पुद्गलों को क्रमश: अनन्त बार ग्रहण किया और छोड़ा।’
क्षेत्र परिवर्तन—लोकाकाश के ३४३ राजुओं में सभी जीव अनेक बार जन्म ले चुके और मर चुके हैं। क्षेत्र परिवर्तन के दो भेद हैं—स्वक्षेत्र परिवर्तन, परक्षेत्र परिवर्तन।
स्वक्षेत्र परिवर्तन—कोई सूक्ष्म निगोदिया जीव, अपनी जघन्य अवगाहना को लेकर उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके मर गया पश्चात् अपने शरीर की अवगाहना में एक-एक प्रदेश बढ़ाते-बढ़ाते महामत्स्य की अवगाहनापर्यन्त अनेक अवगाहना धारण करता है। इस प्रकार छोटी अवगाहना से लेकर बड़ी अवगाहना पर्यन्त सब अवगाहनाओं को धारण करने में जितना काल लगता है, उसे स्वक्षेत्र परिवर्तन कहते हैं।
परक्षेत्र परिवर्तन—कोई जघन्य अवगाहना का धारक सूक्ष्म निगोदिया लब्धपर्याप्तक जीव लोक के आठ मध्यप्रदेशों को अपने शरीर के आठ मध्यप्रदेश बनाकर उत्पन्न हुआ। पीछे वही जीव उसीरूप से उसी स्थान में दूसरी, तीसरी बार भी उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य अवगाहना के जितने प्रदेश हैं, उतनी बार उसी स्थान पर क्रम से उत्पन्न हुआ और श्वास के अठारहवें भाग प्रमाण क्षुद्र आयु को भोगकर मरण को प्राप्त हुआ। पीछे एक-एक प्रदेश बढ़ाते-बढ़ाते सम्पूर्ण लोक को अपना जन्म क्षेत्र बना ले, यह परक्षेत्र परिवर्तन है। कहा है-
‘समस्त लोक में ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जहाँ क्षेत्ररूप संसार में परिभ्रमण करते हुए अनेक अवगाहनाओं को लेकर यह जीव क्रमश: उत्पन्न न हुआ हो।’
काल परिवर्तन—कोई जीव उत्सर्पिणी काल के प्रथम समय में उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके मर गया, फिर भ्रमण करके दूसरी उत्सर्पिणी के दूसरे समय में उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके मर गया। फिर भ्रमण करके तीसरी उत्सर्पिणी के तीसरे समय में उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके मर गया। यही क्रम अवसर्पिणी काल के संबंध में भी समझना चाहिए। इस क्रम से उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी के बीस कोड़ाकोड़ी सागर के जितने समय हैं, उनमें उत्पन्न हुआ तथा इसी क्रम से मरण को प्राप्त हुआ अर्थात् उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के प्रथम समय में मरा, फिर दूसरी उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के दूसरे समय में मरा, इसे काल परिवर्तन कहते हैं। कहा भी है—
‘‘उस्सप्पिणि अवसप्पिणिसमयावलियासु णिरवसेसासु।
जादो मुदो य बहुसो भमणेण दु कालसंसारे।।’’
‘अनादि काल से संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के सब समयों में अनेक बार जन्मा और मरा।’
भव परिवर्तन—नरक गति में जघन्य आयु दस हजार वर्ष की है, इस आयु को लेकर कोई जीव प्रथम नरक में उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके मर गया पुन: उसी आयु को लेकर वहाँ उत्पन्न हुआ और मर गया। इस प्रकार दस हजार वर्ष के जितने समय हैं, उतनी बार दस हजार वर्ष की आयु लेकर प्रथम नरक में उत्पन्न हुआ। पीछे एक समय अधिक दस हजार वर्ष की आयु लेकर वहाँ उत्पन्न हुआ, फिर दो समय अधिक दस हजार वर्ष की आयु लेकर उत्पन्न हुआ। इस प्रकार एक-एक समय बढ़ाते-बढ़ाते नरक गति की उत्कृष्ट आयु तैंतीस सागर पूर्ण करता है।
फिर तिर्यंच गति में अन्तर्मुहूर्त की जघन्य आयु लेकर उत्पन्न हुआ और पहले की तरह अन्तर्मुहूर्त के जितने समय होते हैं, उतनी बार अन्तर्मुहूर्त की आयु लेकर वहाँ उत्पन्न हुआ। फिर एक-एक समय बढ़ाते-बढ़ाते तिर्यंच गति की उत्कृष्ट आयु तीन पल्य समाप्त करता है। फिर तिर्यंच गति की ही तरह मनुष्य गति में भी अन्तर्मुहूर्त की जघन्य आयु से लेकर तीन पल्य की उत्कृष्ट आयु समाप्त करता है। पीछे नरक गति की तरह देवगति की आयु को भी समाप्त करता है किन्तु देवगति में इतनी विशेषता है कि वहाँ इकतीस सागर की ही उत्कृष्ट आयु को पूर्ण करता है क्योंकि ग्रैवेयक में उत्कृष्ट आयु इकतीस सागर की ही होती है और मिथ्यादृष्टियों की उत्पत्ति ग्रैवेयक तक ही होती है। इस प्रकार चारों गतियों की आयु पूर्ण करने को भव परिवर्तन कहते हैं। कहा भी है-
‘नरक की जघन्य आयु से लेकर ऊपर के ग्रैवेयकपर्यंत के सब भवों में यह जीव मिथ्यात्व के आधीन होकर अनेक बार भ्रमण करता है।’
भाव परिवर्तन—योगस्थान, अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान, कषायाध्यवसाय स्थान और स्थिति स्थान, इन चार के निमित्त से भाव परिवर्तन होता है। प्रकृति बंध और प्रदेश बंध के कारण आत्मा के प्रदेश परिस्पन्दरूप योग के तारतम्यरूप स्थानों को योग स्थान कहते हैं। अनुभाग बंध के कारण कषाय के तारतम्य स्थानों को अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान कहते हैं। स्थिति बंध के कारण कषाय के तारतम्य स्थानों को कषाय स्थान या स्थिति बंधाध्यवसाय स्थान कहते हैं। बंधने वाले कर्म की स्थिति के भेदों को स्थिति स्थान कहते हैं। योग स्थान श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं। कषाय बंधाध्यवसाय स्थान भी असंख्यात लोक प्रमाण हैं।
कोई मिथ्यादृष्टि, सैनी, पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव ज्ञानावरण कर्म की अन्त:कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण जघन्य स्थिति को बाँधता है, उस जीव के उस स्थिति के योग्य जघन्य कषाय स्थान, जघन्य अनुभाग स्थान और जघन्य ही योग स्थान होता है। फिर उसी स्थिति, उसी कषाय स्थान और अनुभाग स्थान को प्राप्त जीव के दूसरा योग स्थान होता है। जब सब योग स्थानों को समाप्त कर देता है, तब उसी स्थिति और उसी कषाय स्थान को प्राप्त जीव के दूसरा अनुभाग स्थान होता है। उसके योग स्थान भी पूर्वोक्त जानने चाहिए। इस प्रकार प्रत्येक अनुभाग स्थान के समय सब योग स्थानों को समाप्त करता है। अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थानों के समाप्त होने पर, उसी स्थिति को प्राप्त जीव के दूसरा कषाय बंधाध्यवसाय स्थान होता है। इस कषाय बंधाध्यवसाय स्थान के अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान तथा योग स्थान पूर्ववत् जानने चाहिए। इस प्रकार सब कषाय बंधाध्यवसाय स्थानों की समाप्ति तक अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान और योग स्थानों की समाप्ति का क्रम जानना चाहिए।
कषाय बंधाध्यवसाय स्थानों के भी समाप्त होने पर वही जीव उसी कर्म की एक समय अधिक अन्त: कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति बाँधता है। उसके भी कषाय बंधाध्यवसाय स्थान, अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान तथा योग स्थान पूर्ववत् जानने चाहिए। इस प्रकार एक-एक समय बढ़ाते-बढ़ाते उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर पर्यन्त प्रत्येक स्थिति के कषाय बंधाध्यवसाय स्थान, अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान और योगस्थानों का क्रम जानना चाहिए। इसी प्रकार सभी मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृतियों में समझना चाहिए। अर्थात् प्रत्येक मूल-प्रकृति और प्रत्येक उत्तर प्रकृति की जघन्य स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थिति पर्यंत प्रत्येक स्थिति के साथ पूर्वोक्त सब कषाय बंधाध्यवसाय स्थानों, अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थानों और योग स्थानों को पहले की ही तरह लगा लेना चाहिए। इस प्रकार सब कर्मों की स्थितियों के भोगने को भाव परिवर्तन कहते हैं इन परिवर्तनों को पूर्ण करने में जितना काल लगता है, उतना काल भी उस-उस परिवर्तन के नाम से कहाता है। कहा भी है—
‘इस जीव ने मिथ्यात्व के संसर्ग से सब प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बंध के स्थानों को प्राप्त कर भाव संसार में परिभ्रमण किया।’
इस प्रकार अनेक दुःखों की उत्पत्ति के कारण इन पाँच प्रकार के संसार में यह जीव मिथ्यारूपी दोष के कारण अनादिकाल तक भ्रमण करता रहता है। जब इस जीव को सम्यक्त्व प्रगट हो जाता है, तब पंच परावर्तन समाप्त हो जाता है। सम्यग्दृष्टि जीव यदि सम्यक्त्व से च्युत होकर अधिक से अधिक संसार में भ्रमण करे, तो वह अर्धपुद्गल परावर्तन मात्र काल तक भ्रमण करता है जो कि द्रव्य परिवर्तन वेâ अन्तर्गत नोकर्म पुद्गल परावर्तन काल के समान है किन्तु यह भी अनन्तकाल सदृश होने से अनन्त कहलाता है।
आर्यखण्ड में नाना भेदों से संयुक्त जो काल प्रवर्तता है, उसके स्वरूप का वर्णन करते हैं। कालद्रव्य अनादिनिधन है, वर्तना उसका लक्षण माना गया है-जो द्रव्यों की पर्यायों को बदलने मे सहायक हो, उसे वर्तना कहते हैं। यह काल अत्यन्त सूक्ष्म परमाणु बराबर है और असंख्यात होने के कारण समस्त लोकाकाश से भरा हुआ है अर्थात् काल द्रव्य का एक-एक परमाणु लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर स्थित है।
उस काल में अनन्त पदार्थों के परिणमन कराने की सामर्थ्य है अत: वह स्वयं असंख्यात होकर भी अनन्त पदार्थों के परिणमन में सहकारी होता है। जिस प्रकार कुम्हार के चाक के घूमने में उसके नीचे लगी हुई कील कारण है उसी प्रकार पदार्थों के परिणमन में काल द्रव्य सहकारी कारण है। संसार के समस्त पदार्थ अपने-अपने गुण-पर्यायों द्वारा स्वयमेव ही परिणमन को करते रहते हैं और काल द्रव्य उनके परिणमन में मात्र सहकारी कारण होता है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पाँच द्रव्य अस्तिकाय हैं और काल द्रव्य बहुप्रदेशी न होने से अस्तिरूप है ‘अस्तिकाय’ नहीं है।
काल के भेद—काल द्रव्य के निश्चय और व्यवहार के भेद से दो भेद हैंं। इनमें से निश्चय काल के आश्रय से व्यवहार काल की प्रवृत्ति होती है। यह व्यवहार काल वर्तना लक्षणरूप निश्चय काल द्रव्य के द्वारा ही प्रवर्तित होता है और भूत, भविष्यत् तथा वर्तमानरूप होकर संसार का व्यवहार चलाने के लिए समर्थ होता है। वह व्यवहार काल समय, आवली, उच्छ्वास, नाड़ी आदि के भेद से अनेक प्रकार का होता है। यह ज्योतिष्चक्र के घूमने से ही प्रकट होता है। घड़ी, घंटा, दिन आदि सब व्यवहार काल कहलाते हैं।
व्यवहार काल—एक अविभागी पुद्गल परमाणु जितने काल में एक आकाश प्रदेश का उल्लंघन करे, उस अविभागी काल को ‘समय’ कहते हैं।
असंख्यात समयों की एक आवली और संख्यात आवलियों का एक उच्छ्वास होता है। इसे ‘प्राण’ भी कहते हैं। सात उच्छ्वास का एक स्तोक, सात स्तोकों का एक लव, साढ़े अड़तीस लवों की एक नाली-घड़ी, दो घड़ी का एक मुहूर्त होता है। एक समय कम एक मुहूर्त को भिन्न मुहूर्त या अन्तर्मुहूर्त कहते हैं। तीस मुहूर्त का एक दिन, पन्द्रह दिनों का एक पक्ष, दो पक्षों का एक मास, दो मासों की एक ऋतु, तीन ऋतुओं का एक अयन, दो अयनों का एक वर्ष और पाँच वर्षों का एक युग होता है। दो युगों के दस वर्ष होते हैं। दस वर्षों को दस से गुणा करने पर शतवर्ष, शतवर्ष को दस से गुणा करने पर सहस्र वर्ष होता है। इसे दस से गुणा करने पर दस सहस्र वर्ष, इसको भी दस से गुणा करने पर लक्ष वर्ष होता है।
लक्ष वर्ष को ८४ से गुणा करने पर एक ‘पूर्वाङ्ग’ इस पूर्वाङ्ग को ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘पूर्व’ होता है। पूर्व को ८४ से गुणा करने पर ‘पर्वाङ्ग’ इसको ८४००००० से गुणा करने पर पर्व होता है। पर्व को ८४ से गुणा करने पर ‘नयुतांग’ इसको ८४००००० से गुणा करने पर ‘नयुत’ होता है। नयुत को ८४ से गुणा करने पर ‘कुमुदांग’ और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘कुमुद’ होता है। कुमुद को ८४ से गुणा करने पर ‘पद्मांग’ और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘पद्म’ होता है। पद्म को ८४ से गुणा करने पर ‘नलिनांग’ और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘नलिन’ होता है। नलिन को ८४ से गुणा करने पर एक ‘कमलांग’ और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘कमल’ होता है। कमल को ८४ से गुणा करने पर एक ‘त्रुटितांग’ और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘त्रुटित’ होता है। त्रुटित को ८४ से गुणा करने पर ‘अटटांग’ इसको ८४००००० से गुणा करने पर ‘अटट’ होता है। अटट को ८४ से गुणा करने पर ‘अममांग’, इसको ८४००००० से गुणा करने पर ‘अमम’ होता है। अमम को ८४ से गुणा करने पर ‘हाहांग’ और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘हाहा’ प्रमाण होता है। हाहा को ८४ से गुणा करने पर ‘हूहांग’ और हूहांग को ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘हूहू’ नामक काल का प्रमाण होता है। हूहू को ८४ से गुणा करने पर ‘लतांग’ और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘लता’ नामक प्रमाण होता है। लता को ८४ से गुणा करने पर ‘महालतांग’ और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘महालता’ का प्रमाण होता है। महालता को ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘श्रीकल्प’ होता है और इसको ८४००००० से गुणा करने पर एक ‘हस्त प्रहेलित’ नामक संख्या का प्रमाण मिलता है। हस्त प्रहेलित को ८४ लाख से गुणा करने पर एक ‘अचलात्म’ नाम का काल होता है।
इकतीस स्थानों में पृथक्-पृथक् चौरासी को रखकर परस्पर गुणा करने से अचलात्म नाम का प्रमाण प्राप्त होता है, जो नब्बे शून्यांक रूप है। इस प्रकार यह संख्यात काल वर्षों की गणना द्वारा उत्कृष्ट संख्यात जब तक प्राप्त हो, तब तक ले जाना चाहिए। जो वर्षों की संख्या से रहित है, वह असंख्ये काल माना जाता है। इसके पल्य, सागर, कल्प तथा अनन्त आदि अनेक भेद हैं।
कुलकरों की, देव-नारकियों की अवगाहना के प्रमाण में जो ‘धनुष’ शब्द आया है और आयु तथा अन्तराल में ‘पल्य’ शब्द का प्रयोग आया है, अब उनको समझने के लिए धनुष और पल्य को बनाने की प्रक्रिया को बतलाते हैं-
अंगुल, धनुष, पल्य आदि की प्रक्रिया—पुद्गल के एक अविभागी टुकड़े को परमाणु कहते हैं। अनन्तानन्त परमाणुओं से एक अवसन्नासन्न बनता है अर्थात्-
अनन्तानन्त परमाणुओं का- १ अवसन्नासन्न
८ अवसन्नासन्न का १ सन्नासन्न
८ सन्नासन्नों का १ ऋुटिरेणु
८ त्रुटिरेणुओं का १ त्रसरेणु
८ त्रसरेणुओं का १ रथरेणु
८ रथरेणुओं का उत्तम भोगभूमिजों का १ बालाग्र
८ इन बालाग्रों का मध्यम भोगभूमिजों का १ बालाग्र
८ इन बालाग्रों का जघन्य भोगभूमिजों का १ बालाग्र
८ इन बालाग्रों का कर्मभूमिजों का १ बालाग्र
८ कर्मभूमिज के बालाग्रों की १ लिक्षा
८ लिक्षा की १ यूका
८ यूका की १ जौ
८ जौ का १ अंगुल
अंगुल के तीन भेद—उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल और आत्मांगुल। उपर्युक्त परिभाषा से सिद्ध हुआ अंगुल उत्सेधागुंल कहलाता है। पाँच सौ उत्सेधांगुल का एक प्रमाणांगुल होता है। जिस काल में भरत और ऐरावत में जो-जो मनुष्य हुआ करते हैं, उस-उस काल में उन्हीं मनुष्यों के अंगुल का नाम आत्मांगुल होता है।
किस अंगुल से किसका माप होता है ?—उत्सेधांगुल से देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकियों के शरीर की ऊँचाई का प्रमाण और चारों प्रकार के देवों के निवास स्थान व नगरादि का प्रमाण जाना जाता है।
प्रमाणांगुल से द्वीप, समुद्र, कुलाचल, वेदी, नदी, कुंड या सरोवर, जगती और भरत आदि क्षेत्रों का प्रमाण जाना जाता है।
धनुष का प्रमाण—छह अंगुलों का १ पाद, २ पादों की १ वितस्ति, दो वितस्तियों का १ हाथ, २ हाथों का १ िंरकु, दो िंरकु का १ दण्ड या धनुष अर्थात् ४ हाथ का १ धनुष और दो हजार धनुष का एक कोस होता है।
योजन का प्रमाण—चार कोस का एक योजन होता है, इसे लघु योजन कहते हैं। इसी योजन को पाँच सौ से गुणा करने पर १ महायोजन बनता है यथा-४²५००·२०००, इन २००० कोस का एक महायोजन होता है।
पल्य का प्रमाण—चार कोस के योजन विस्तार वाले गोल गड्ढे का गणित शास्त्र से घनफल निकाल लीजिए अर्थात् एक योजन व्यास वाले एक योजन गहरे गड्ढे का घनफल कर लीजिए।
एक योजन वाले गोल क्षेत्र का घनफल-१²१²१०·१०,
१०·१९/६ परिधि, १९/६²१/४·क्षेत्रफल, १९/२४²१·१९/२४ घनफल
उत्तम भोगभूमि के एक दिन से लेकर सात दिन तक के उत्पन्न हुए मेंढ़े के करोड़ों रोमों के अविभागी खंड करके उन खंडित रोमाग्रों से उस एक योजन विस्तार वाले प्रथम गड्ढे को पृथ्वी के बराबर अत्यन्त सघन भरना चाहिए।
इस गड्ढे के रोमों की संख्या—
४१३४५२६३०३०८२०३१७७७४९५१२१९२००००००००००००००००००।
व्यवहार पल्य—सौ-सौ वर्षों में एक-एक रोम खण्ड के निकालने पर जितने समय में वह गड्ढा खाली हो, उतने काल को ‘व्यवहार पल्य’ कहते हैं।
उद्धार पल्य—व्यवहार पल्य की रोमराशि में से प्रत्येक रोमखण्ड को असंख्यात करोड़ वर्षों के जितने समय हो, उतने खण्ड करके, उनसे दूसरे पल्य को भरकर पुन: एक-एक समय में एक-एक रोम खण्ड को निकाले, इस प्रकार जितने समय में वह दूसरा पल्य खाली हो जाये, उतने काल को ‘उद्धार पल्य’ समझना चाहिए।
अद्धा पल्य—उद्धार पल्य की रोम राशि में से प्रत्येक रोम खण्ड के असंख्यात वर्षों के समय प्रमाण खण्ड करके तीसरे गड्ढे के भरने पर और पहले के समान एक-एक समय में एक-एक रोम खण्ड को निकालने पर जितने समय में वह गड्ढा खाली हो जाये, उतने काल को ‘अद्धापल्य’ कहते हैं।
मध्य के उद्धार पल्य से द्वीप और समुद्रों का प्रमाण जाना जाता है, इस अद्धापल्य से नारकी, तिर्यंच, मनुष्य और देवों की आयु तथा कर्मों की स्थिति का प्रमाण जाना जाता है।
सागर—दस कोड़ा-कोड़ी व्यवहार पल्य का एक व्यवहार सागर, दस कोड़ाकोड़ी उद्धार पल्यों का एक उद्धार सागर, दस कोड़ा-कोड़ी अद्धापल्यों का एक अद्धासागर होता है अर्थात् एक करोड़ को एक करोड़ से गुणा करने पर कोड़ा-कोड़ी बनता है, ऐसे दस कोड़ा-कोड़ी पल्यों का एक सागर होता है।
कुलकरों की, देव-नारकियों की आयु में जो पल्य और सागर का प्रमाण आया है और ऊँचाई में धनुष का प्रमाण आया है, उनको समझने के लिए इन परिभाषाओं को याद रखना चाहिए।